बिन पानी सब सून - मिथलेश शरण चौबे
हम इस कदर राजनीति आक्रान्त समय में रह रहे हैं कि उसके अलावा पर विचार और बातचीत अत्यल्प ही बची है | सब कुछ राज के ऊपर छोड़कर, उसकी तात्कालिकता पर केन्द्रित दुर्नीतियों की प्रशंसा के कोलाहल और प्रश्नांकन की अल्प ध्वनियों व खामोशियों की बहुलता के बीच, जीने को नियति मान, एक ऐसे आज को छीज रहे हैं जिसके गर्भ में मौज़ूद कल, इसका खामियाज़ा भुगतेगा | देखने की असमर्थता ने, अपनी ही दुनिया के देश और काल का अनुभव बेहद संकीर्ण कर दिया है | सत्तर-अस्सी बरस का जीवन भी हमारे विचार में नहीं फ़ैल पाता, हज़ारों वर्ष पहले की स्मृति और आगे भविष्य में घटित की कल्पना जैसे विषय असम्भव हो रहे हैं | अपने घर, मुहल्ले, शहर के भूगोल से अनभिज्ञ, उसके पहाड़-नदियों-तालाब से बेखबर लोग, राजनैतिक मुद्दों पर आक्रोशित देशभक्त बनकर, तत्क्षण राष्ट्रीय दायित्त्व पूर्ण करने के लिए तत्पर हो उठते हैं | दलीय राजनीति में मूर्त पक्ष और विपक्ष की स्थूल धारणा ने हमारे मानवीय होने के अमूर्त पक्ष और विपक्ष को ही इतना अतिक्रमित कर रखा है कि हमारे सामाजिक गुण-धर्म लुप्तप्राय हो चले हैं | सत्ता और दलों की राजनीति तथा धर्म-फैशन-केरियर-ब्रांड में आस्था को लेकर बातचीत रोज़मर्रा के जीवन का अपरिहार्य हिस्सा जिस समय बन चुकी है, ठीक ऐसे दुस्समय में एक क्षण भर ठिठककर उस अलावा की दुनिया के सूक्ष्म, सरल लेकिन गहरे अभिप्रायों के सम्मुख होने का विचलन आखिर कैसे सम्भव हो सकेगा | निजी हैसियत व असमर्थता की दृष्टि से सब कुछ को अवलोकित करने की एकांगी व बेमानी प्रक्रिया ने वैसे भी प्रकृत, मानवीय और दायित्त्व जैसे विचारों को खारिज ही किया है | पर्यावरणविद अनुपम मिश्र को पढ़ना हमेशा विचारोत्तेजक तो होता ही है, अपने आसपास को देखने, प्रचलित लोकप्रिय के बरअक्स उत्कृष्ट के भाव की कल्पना और उसकी चरितार्थता के उद्यम को प्रशस्त करने वाला है | बिन पानी सब सून क़िताब उनके ऐसे ही अनुभवों व विचारों का समुच्चय है | यह सुविदित है कि ‘आज भी खरे हैं तालाब’, ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ आदि पूर्व प्रकाशित, अत्यन्त चर्चित तथा व्यापक प्रभावकारी क़िताबें उनके बड़े कामों और उनसे मिले सहज अनुभवों की दीर्घकाल तक प्रेरित करने की सामर्थ्य रखती हैं |

 

पर्यावरण को लेकर उनकी सक्रियता अनेक स्तरों तथा आयामों में रही है फिर भी उनकी सतत सक्रियता का केन्द्र पानी, बाढ़ और अकाल रहे हैं | पृथ्वी को मिट्टी की गुल्लक मानते हुए उसे भरने का प्रबल आग्रह उनका स्थायी जीवनाग्रह रहा | सड़कों, मकानों, पार्कों आदि के अपार निर्माण ने लगातार पानी के धरती में जाने के रास्ते कम किये हैं | अपने विशद अध्यवसाय और अनुसन्धान से उन्होंने तालाब की संरचना को बाढ़ व अकाल से बचने का सबसे कारगर उपाय बताया है | उनके हवाले इस आश्चर्य को जान पाते हैं कि अंग्रेज़ों के हिन्दुस्तान आने के समय, देश भर में लगभग तीस लाख तालाब थे | सभी बड़े शहर सैकड़ों सुन्दर तालाबों से सुसज्जित थे, दिल्ली में ही सात सौ तालाब थे | बारिश का पानी सुगमता से इन तालाबों में पहुँचता था जिससे वर्ष भर कुएँ व नदियाँ पानी देने में समर्थ हो पाते थे | नदियों के किनारों की ऊपरी जगहों में बने तालाब वर्षा जल को रोककर बाढ़ की आशंका को कम करते थे, साथ ही बाद में उनसे रिसता हुआ पानी नदियों को सूखने नहीं देता था | इमारतों के निर्माण की आवश्यकता ने जब ज़मीनों के दामों में बेतहाशा वृद्धि की, तालाबों को पाट कर रिहायशी इलाके विस्तृत होते गए | इस निरन्तर चले सिलसिले ने बारिश के पानी को रोकने व संचित करने के निरापद अभियान में संलग्न तालाबों को लगभग नहीं बचने दिया | नतीजन अधिकांश बड़े-छोटे नगर से लेकर कस्बों-गावों तक बाढ़ और सूखे की व्याप्ति फैलती जा रही है | अनुपम मिश्र राजस्थान के अलवर, जैसलमेर जैसी जगहों, जहाँ कुल नौ सेंटीमीटर ही बारिश होने के बावजूद, वर्षा जल के संचय की समाज आधारित सक्रियता के हवाले से यह बताते हैं कि अन्य जगहों में सूखे से कितनी आसानी से निजात मिल सकती है | इसी क्रम में बाढ़ से होती क्षति को भी कम किया जा सकता है | यह सम्भव कैसे हो, इस क़िताब में इस पर लगातार विचार किया गया है |

 

दरअसल अतीत में ऐसे साक्ष्यों की विपुलता है जिनसे पता चलता है कि समाज ने अपनी परिस्थितियों के अनुरूप व प्रकृति से तादात्म्य बैठाते हुए कुछ उपाय गढ़े, राज की ओर निराकरण के लिए टकटकी नहीं लगाई | राज अपने स्वभाव के अनुरूप नियन्त्रण के अहंकार में, घटित से सामना करता है | उसके विचार में अपना समय ही वास्तविक प्रभावित समय लगता है | हमारे जीवन के केलेंडर की अल्पता के बरअक्स अनुपम मिश्र प्रकृति के केलेंडर के विस्तार को देख सके हैं इसीलिये वे अतिवृष्टि, अकाल जैसी भयावहता को प्रकृति चक्र में अस्वाभाविक नहीं मानते | उनकी दृष्टि में हमारे पुरखे इसे समझते थे, उन्होंने प्रकृति के ऐसे अतिचार के विरुद्ध कोई चेष्टा करने की हिमाकत नहीं की बल्कि यही माना कि यह अतिचार भविष्य की चिन्ता के लिए अवसर है | इस धारणा को नदी जोड़ों योजना के भिन्न विचारों के बीच भी अवलोकित किया जा सकता है जिसके पक्ष में दोनों बड़े राजनैतिक दलों ने उत्साहपूर्वक सहमती दी | अनुपम मिश्र सहित कुछ प्रकृत आग्रही पर्यावरणविदों ने नदियों को जोड़ने का विरोध करते हुए इस प्रक्रिया को नितान्त प्रकृति विरोधी और भविष्य के लिए दुष्परिणाम देने वाली करार दिया | मध्यप्रदेश में नर्मदा-शिप्रा लिंक की परिणति इसका प्रमाण है जिसका रोज़ का बिजली खर्च सोलह लाख रूपये है और इसके क्रियान्वयन के बाद उज्जैन में आई भीषण बाढ़ इसके औचित्य पर प्रश्न |

 

देशभर में सक्रिय अज्ञात व अल्पज्ञात पर्यावरण कार्यकर्ताओं व उनके उल्लेखनीय कामों के नैरन्तर्य के संगठित प्रयासों के ज़रिये यह किताब हमें अपने निजी प्रयत्नों के नाकाफ़ी होने की चुभन देती है | अनुपम मिश्र विचार और भाषा के गाँधी हैं | उपदेशभाव से सर्वथा मुक्त, सहज सम्प्रेष्य विचारों के बीच उनकी बैचेनी को पढ़ा जा सकता है | प्रकृतिवादी होने की पहचान न देते हुए वे प्रकृति से उसकी शर्तों पर हमारे होने की सम्भवता को चरितार्थ करते हैं | उनके आग्रह दरअसल विनयपूर्वक सच्चाई को दिखाने की कोशिश मात्र हैं लेकिन राज को प्रश्नांकित करते हुए वे निर्भयता के अडिग प्रतिमान साबित होते हैं | उनके अफ़सोस भी बहुत हैं लेकिन किसी में वह शक्ति नहीं कि उनके उपायों, उम्मीदों को विचलित कर सके, इसी की उम्मीद वे मनुष्यों से करते भी है |

 

यह क़िताब पर्यावरण को जानने के लिए नहीं, खुद को जानने के लिए पढ़ी जानी चाहिए कि हमारे विचार के अटाले में किंचित भी जगह अपने आसपास की उस व्याप्ति की है, जिसकी वजह से हम जीवित हैं और अगली पीढ़ियाँ जिसके दुष्परिणामों को भोगेने अभिशप्त रहेंगी |
 
बिन पानी सब सून
अनुपम मिश्र
रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली
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