बलौरा गुरप्रीत सहिजी पंजाबी से अनुवादः जसविन्दर कौर बिन्द्रा
08-Jun-2019 12:00 AM 5785

युवा पंजाबी उपन्यासकार गुरप्रीत सहिजी के उपन्यास ‘बलौरा’ का केन्द्रीय पात्र बलौरा एक ऐसे युवा चरित्र के रूप में सामने आता है, जिसे खुद पर बेहद भरोसा है। भारत में कृषि एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे मुनाफ़े का रोज़गार नहीं माना जाता। थोड़ी ज़मीन वाले भारतीय किसानों की हालत और भी पतली रहती है। अत्यन्त परिश्रम के बावजूद उन्हें मुश्किल से जीना पड़ता है। बलौरा वही है, लेकिन अपने जैसों की ऐसी स्थिति के लिये वह समाज या सम्पन्न व्यक्तियों की बजाय सीध्ो भगवान को जि़म्मेवार ठहराता है, जो इस असन्तुलन पैदा करता है। वह स्पष्ट रूप से भगवान को सम्बोध्ाित हो, ग़रीबों को उनके परिश्रम का उचित हक न मिलने का इल्ज़ाम लगा, उसे शर्मसार करता और उससे सीध्ो दो-दो हाथ करने का हौंसला रखता है। वह ऐसा भाई है, जो अपनी बहन के प्रेमी का स्वागत अपने घर पर करता है और उसके ब्याह से पहले स्वयं ही वर को बहन के प्रेम की जानकारी देकर पूछता है कि क्या उसे बहन दीसां का रिश्ता स्वीकार है...।
कवस्ती (मुसीबत)
बलौरा मुर्गे की बाँग के साथ पौ फटते ही उठ जाता था, परन्तु बचन ने कल शाम वह मुर्गा घर आये अपने दामाद को पका कर खिला दिया था। आज वह तब तक न उठा, जब तक जंग लगी सींखचों से आती सीध्ाी तीखी ध्ाूप उसके मुँह पर चुभने न लगी। मुर्गे के नोंचे हुए दो पंख हवा के साथ घर के आँगन में, रेत से लिबड़े हुए इध्ार-उध्ार बिखरे पड़े थे।
उसने उसी प्रकार लेटे-लेटे छत की कडि़यों की ओर देखा जिनमें दरारें आ चुकी थी। सबसेे अध्ािक लटकी हुई कड़ी में घरकीड़1 का घरौंदा देखा। फिर किसी चूहे की खुरचन की आवाज़ कानों में पड़ते ही वह झोला बनी चारपाई से झटके से उठा तो चारों पाये भी चूं-चूं की आवाज़ करते हिल गये। दहलीज़ में बने चूहे के बिल पर उसने ज़ोर से पैर की एड़ी को पटका। इस ध्ामक से चूहा डर गया। पानी पीने के लिये उसने चारपाई के नीचे हाथ मारा, कोई बर्तन न मिलने पर उसने तख़्ते पर पड़ी सुराही को उठाकर, बाहर की दीवार की मुँडेर पर लाकर रखा। उसे टेढ़ा कर, पानी की काँपती ध्ाारा से दायें हाथ को ध्ाोया और एक आँख मूँद कर, ओक से पानी पीने लगा।
अँगुलियों के बीच से पानी की पतली ध्ाार नीचे टेढ़े-मेढ़े ढ़ंग से गिरते हुए बहने लगी। उसने पैर भीगने से बचाने के लिये अपनी टांगों को थोड़ा चैड़ा कर लिया। ध्ाार से उसे ऐसी कँपकँपाहट हुई कि बायें हाथ में पकड़ी सुराही उसके हाथ से फिसल कर नीचे आ गिरी, गिरते ही टुकड़े-टुकड़े हो गयी। घुटने के बल पर बैठ कर वह इन टुकड़ों की ओर ग़ौर से देखने लगा। ध्ाूप से कीचड़ में पड़ती चमक से उसकी आँखें भिंच गयी। पैर की ठोकर से उसने टुकड़े को तोड़ कर उसकी चमक को हटा दिया। ढ़ीले हुए बालों के जूड़े को उसमें गुँथे काले रिबन से कस कर उसने बालों को सँवार लिया।
‘अबे सुन, सीध्ाी तरह से काम के लिये निकल चल अब, यहाँ कोई तेरा नखरा सहने के लिये नहीं आयेगा। गजऱ् के वक़्त मुँह टेढ़ा करके, ठोकर की तरह मेरे पाँव पड़ने लगते हैं हूँ...।’ कानों में तीखी बात पड़ते ही बलौरे ने हथेली से सिर पर किये जूड़े को ठीक से बिठाया, पीछे घूम कर देखा, जहाँ अँग्रेज़ खड़ा ठोड़ी के पास अपनी अध्ापकी दाढ़ी को खुजाते हुए, मालूम नहीं किस समय उसके पीछे आ खड़ा हुआ था। बलौरा ने उसकी बात का कोई जवाब न दिया।
उसने पूर्व की ओर से आँध्ाी चढ़ती देखी, जिससे अम्बर दो हिस्सों में बँटा दिखने लगा था। कच्चे कमरे में जाकर, चारपाई के पास उल्टे पड़े ढ़क्कन पर, चारखाने वाला साफ़ा उठा कर, इन्नू बना कर उसे दायीं बगल में फँसा लिया। तख़्ते की ओट में पड़ी बोरी में से सुसरी वाली गेहूँ को मुट्ठी में भर कर ताज़े लिपे आँगन में बिखेर दिया।
‘आ.....आ...!’ कीकर पर बैठे कितने ही परिन्दे उड़ कर चोगा चुगने लगे। खुदी हुई मिट्टी में बैठा कुत्ता भाग कर इन परिन्दों की ओर यह देखने के लिये आया कि बलौरा ने उन्हें खाने के लिये क्या दिया है। कुत्ते को देख कर परिन्दे डर कर फिर से कीकर पर और कुछ दीवार पर जा बैठे। कुत्ते ने ध्ारती को सूँघा, फिर गेहूँ के दानों की ओर देख कर ज़ोर से भौंकने लगा। जीभ से लगे दाने जब उससे चबाये न गये तो फिर पूँछ हिलाते हुए अपने घूरने पर जा बैठा। बलौरे ने हँस कर कहा,
‘अरे डब्बू पुत्तर! कुत्ता ही बन कर रह, बिना वजह आदमी के लच्छन मत पकड़, औकात में रह अपनी।’ फिर बगल में पड़े साफ़े को सूत करते हुए कहने लगा,
‘औकात भी उनकी होती हैं, जिनमें सब्र नाम की चीज़ होती है, वरना तो सभी मिट्टी का ढ़ेर ही होते हैं...।’
‘ढीठ तो पहले से था, पर अब तो तूने ढीठपन की हदें भी पार कर दी। तेरी शर्म-हया उतारना, अपनी हया उतारने जैसा है।’ पीछे आ खड़े हुए अँग्रेज़ ने घृणा से, उसे जल्दी चलने का इशारा करते हुए, बायें हाथ को कलाई पर से दो बार घुमाया और कतार से छाजन पड़ी उसकी तीन छतों की ओर देखते हुए, उसकी नज़र बलौरे की बहन दीसां की कमर से ऊँचे हुए कुरते पर अटक गयी। उध्ार झाँकते हुए वह बोला,
‘तू भी अब कामचोरी करने लगा है... जब तक आदमी की कमर झुकी रहे, तब तक वह काम के लायक रहता है। कमर सीध्ो होते ही समझ लो, आदमी काम का नहीं रहा। सिर मत उठा, काम कर झुक कर...।’
अँग्रेज़ द्वारा चबा कर कहे शब्द ‘काम कर झुक कर...’ बलौरा के सीने में ध्ाँस गये। अé के दानों से ससुरी निकाल कर चोगा डालते हुए उसकी झुकी कमर थोड़ी-सी तन गयी। परिन्दे थोड़ा ऊँचा उड़ कर फिर अपनी जगह पर टिक गये। ध्ाूप में उसे पसीना आ गया। फूस की छाजन तले खाट पर सिकुड कर बैठे अपने बाप अजैव की ओर उसने इतने गुस्से से देखा कि पाये से बँध्ाी बकरी भी डरकर मिमयाने लगी और तेज़ी से चारपाई के नीचे घुस गयी।
बलौरे ने इतनी ज़ोर से दाँत पीसे कि पास से निकलती उसकी माँ नसीबो को दाँतों की ‘कड़क’ पूरी तरह से सुनायी दी, ‘सम्पé आदमी को मारने के सौ बहाने सूझ जाये, पर भूखे आदमी को कलप-कलप के ही जीने से पिण्ड छुड़ाना पड़ता है।’ माँ ध्ाीमे से बुदबुदायी। वह इतनी ध्ाीरे से बोलती थी कि कई बार उसे अपना ही स्वर सुनायी नहीं देता था। अपनी ही कही बात को पास खड़े लोगों से पूछती, ‘मैंने क्या कहा भला...।’
‘औ दीसां! ज़रा सुलगता अंगार तो पकड़ा जा बेटी। दूँ अपनी रूह को ध्ाूफ़...।’ अजैव ने गला साफ़ कर, खँखारकर परे थूक दिया और लाठी से उस पर मिट्टी डाल दी। पास में घूमती नसीबो से कहने लगा,
‘यह तो मेरा ही जिगरा है, जो मैंने इतने बरस बीड़ी के दम पर निकाल लिये। अब तो ‘फीम का ज़माना है। बीड़ी कौन पीता है...’ उसने अपने खोखले हो चुके दाँत में नाख्ूान को घुमाया।
बलौरा ने अपनी गर्दन पर हाथ फिराया तो अँगुलियों की लकीरों में मैल अड़ने लगी। मन चाहा, गर्दन हीे तोड़ दे। इतने में दीसां चैंतरे से दुपट्टा लपेट कर उठी और चूल्हे में ध्ाध्ाकते अंगार को चिलम में रख, उसेे फूँक मार, हवा दे कर देखा। फिर चिलम उठा, चोगा चुगते परिन्दों के पास से नंगे पाँव गुज़री। कहीं चप्पल के घिसटने की आवाज़ सुन, वे उड़ न जाये। चिलम ले वह अजैव के पास पहुँची।
पैरों की आहट सुन कर परिन्दें उड़ कर कमरे की मुंडेरों पर जा बैठे और फिर क्षण भर में नीचे चोगा चुगने लगे। अजैव ने कनपटी पर रखी आध्ाी बीड़ी निकाल कर दाँतों में संभाल ली और चिलम पर फूँक मार कर राख को झाड़ा। उसने आँखें मींच कर बीड़ी को घिसा कर ज़ोर से कश खींचा। कड़वे ध्ाुएँ और बीड़ी लगाते समय आग के सेंक के कारण उसकी आँखों की पलकें व मूँछें भी भूरी-सी हो गयीं। फिर उसने मेमने द्वारा किये जा रहे पेषाब से चिलम को बुझा लिया।
बलौरा ने सीने पर चिकौटी काट कर उसे सहलाया। घास के तिनके समान दो बाल उसके हाथ में आ गये। दोनों बाप-बेटे की आँखें आपस में लड़ाकू मुर्गें की तरह आपस में भिड़ी तो अजैव ने तेजी से दो लम्बे कश लिये और बीड़ी को पावे से घिसा कर बुझा दिया। डरते हुए उसने अन्दर भरा ध्ाुँआ बाहर न फेंका। खाँसी छिड़ गयी तो मुँह परे घुमा लिया।
‘थू’ कर बलौरे ने परे थूक दिया तो अजैव को थोड़ा ध्ाीरज बँध्ाा। अब वह कुछ नहीं करेगा। उसे अपने खून पर घमण्ड था। थूकने की आदत एकदम उस पर ही गयी थी। भरी जवानी में जब वह किसी के शादी-विवाह के अवसर पर दारू से ध्ाुत्त होकर आता तो लड़खड़ाते हुए कभी दायें कभी बायें टकराता। इस प्रकार दीवारों से टकराने से उसके कन्ध्ो ईटों से रगड़ खा जाते जिससे उसके कुरते वक़्त से पहले ही कन्ध्ाों से फट जाते। गली में उसका शोर सुनते ही नसीबो की जान सूखने लगती। डर के मारे उसके पुराने ज़ख्म भी कसकने लगते।
उसे याद आया...
घर आकर वह फूँक मार कर कन्ध्ो पर लगी मिट्टी को झाड़ता और किसी भी बहाने से नसीबो को पीटने लगता। वह तब तक उसे पीटता, जब तक थूक नहीं देता था। थूकने के बाद बेशक नसीबो उसे दिल खोल कर गाली देती, वह सुसरी बन कर सो जाता। सारी रात नसीबो ‘हाय...हाय...’ कर दर्द से तड़पती, तब नशा उतर जाने पर तो स्वयं अजैव उठकर घड़े से पानी का कटोरा भर कर उसे पीने के लिये देता।
‘उठ तो ज़रा...। तगड़ी होकर पानी का घूँट भर ले...’। वह उसके सिरहाने खड़े होकर कहता। वह कभी उसके पायताने नहीं खड़ा होता था। नसीबो कटोरी को दोनों हाथों में थाम कर पानी पी लेती। दर्द से उसका जिस्म दुखता। कँपकँपी छूटती। आध्ाा पानी उसके कपड़ों पर गिर जाता। वह कुछ पानी पी लेती और बाकी का वैसे ही पड़ा रह जाता।
‘कहे तो फुलेल को बुला लाऊँ, गहरी चोट तो नहीं खा गयी कहीं...।’ वह संशय से भर कर पूछता। हाथों से उसका अंग-अंग टोह कर गहरी चोट का निरीक्षण करने की कोशिश करता...।
‘अरे न रे...’ नसीबो चारपाई पर सिकुड़ कर लेट जाती और कराहते हुए अपने दर्द को सहते हुए कहती,
‘तेरा दारू पीना बहुत बुरा है। ज़रा, देख कर मारपीट किया कर...। हाय! कहीं उल्टी-सीध्ाी चोट लग गयी तो कहाँ उठाये फिरेगा मुझे। मैं कहीं तेरा हाथ रोकती हूँ...।’ अपनी आँखों की नमी को रोकते हुए वह चारपाई पर करवट लेते हुए कहती।
‘बुला लाऊँ क्या...?’ अजैव को उसकी बुरी हालत देख कर खुद पर शर्मिन्दगी महसूस होती। पत्नी की पीड़ा देख कर वह अपने होंठों को ज़ोर से दबा लेता।
‘रहने दे, लेट जा, जाकर। एक पहर ही रह गया है, निकाल लूँगी मैं...। किसी सोये हुए की नींद खराब करना पाप होता है, ...बस दीया बाल कर रख दे पास में...।’
अजैव ताकी में पड़े दीये में काफी सारा सरसों का तेल डालता ताकि दीया रात भर जलता रहे। नसीबो की चारपाई के पास रखी ईंट पर दीये को रखकर, खुद जाकर लेट जाता।
नसीबो एकटक दीये की लौ की ओर देखती रहती। हवा से लौ कांपने लगती तो वह अपनी बाँह को लम्बा कर, हाथ से ओट कर देती। लौ फिर से स्थिर होकर जलने लगती। दीये को बार-बार हवा से बचाये रखने की चाह में वह अपनी पीड़ा भूल जाती, फिर आराम से सो जाती।
लेकिन अब...
मतलब आज...।
‘ऊँ हूँ...!’ अँग्रेज़ ने खँखारकर बलौरे को जल्दी अपने साथ चलने को कहा। कुछ ही दूरी पर नसीबो आँगन में इकट्ठा कूड़े के ढ़ेर को छाँटने में लगी थी। वह छोटे-मोटे कागज़ आदि छाँट लेती जो बाद में ईंध्ान के काम आते थे।
माँ को ऐसा करते देख बलौरा बोला, ‘खुशी से मत्था मार बेबे...। यहाँ आदमी में से कुछ नहीं निकलता, कूड़े से क्या निकाल लेगी तू। कहीं अपने पल्ले का भी गवाँ न लेना।’ बलौरा कुरते से ध्ाूल झाड़ते हुए उठ गया खड़ा हुआ। आज फिर उसकी जूती टूट गयी थी, जिसे पहले भी वह कितनी बार मोची से सिलवा चुका था।
उल्टे हाथ से नसीबो ने जगह को साफ़ किया और पालथी लगाकर बैठ गयी। इतनी देर तक पैरों के बल बैठे रहने के कारण उसके टखने दुखने लगे थे, बोली, ‘आदमी...! हूँ... नासपीटे! कौन से आदमी, वो मरे से भी बुरे है। पहले लोग अच्छे होते थे, अब तो एकदम पाखण्ड का ज़हर होता है, सांप लड़ जाये...तो वो ही मर जाये...।’ कूड़े के ढेर से मेंगने निकाल कर उसे दिखाकर बोली, ‘मेंगनों जैसे रह गये हैं आज आदमी...। जब बाबा जलौर सिंह खत्म हुआ तो उसकी अस्थियों से पूरी चित्ता भर गयी थी। जि़न्दा आदमी को तो चिन्ताएँ खा जाती है, अस्थियां कहाँ ढूँढे मिलेगी। छब्बीस की उम्र भोग कर पूरा हुआ था, वो...।’
‘बेबे, अब तो लोगों की अस्थियाँ गंगा में बहायी ही नहीं जा सकती, आदमी पूरे नहीं होते, आध्ो-पौने ही चले जाते है...।’ बगल में से साफ़ा निकालकर, हाथ से उसे गोल कर, बातें करते हुए उसे सिर पर टेढ़ा-मेढ़ा ही लपेटने लगा।
नसीबो के मन में कोई गहरी खुशी मचल रही थी, बोली, ‘जलौर भाई तो बातें-बातें करते ही चला गया। उसकी बातें खत्म होने का नाम ही नहीं लेती थी, अब तो बातें ही खत्म हो गयी है, बाद में आदमी वैसे ही चुप हो जाते है। अध्ापके ही चल देते हैं...।’
अँग्रेज़ के मुँह में नीम की दातुन थी, जिसे चबाते हुए, वह कूड़े के ढेर पर थूकता तो थूक की छींटे नसीबो के मुँह-माथे पर पड़ती, जिन्हें वह दुपट्टे से पोंछ लेती। अँग्रेज़ ने खीझ कर बलौरे के दायें कन्ध्ो को झिंझोड़ते हुए कहा, ‘टांगें जकड़ी गयी है क्या, चला चल अब। ध्ाूप तो मिट्टी को भी चुभने लगी है। सूरज सिर पर आ गया है, पंतग की तरह घर को नीचे तो नहीं लेकर आना...।’
अँग्रेज की बातों से चिढ़े बलौरा ने सारा गुस्सा माँ पर निकालते हुए कहा, ‘इन कागज़ों से क्या रोटी पक जायेगी...। उठ जा यहाँ सेे...।’ बलौरे का मन कर रहा था कि अँग्रेज़ की थूकने की इस हरकत के कारण उसे ज़ोर से थप्पड़ लगा दे। ‘हूँ..’ शायद इस घर को ऐसी बातों की आदत पड़ चुकी है। वरना वह अँग्रेज़ से कहता, ‘साले, परे नहीं थूका जाता तुमसे...।’
घुटनों पर हाथ रखकर नसीबो बहुत कठिनाई से उठी, बीन कर एकत्रित किये कागज़ों को चैंतरे की ओर लिजाते हुए उसने मुश्किल से अपनी रुलाई रोकी। चूल्हे के पास बैठी छिट्टी से नर्म-गर्म राख को हिलाती दीसां से कहने लगी,
‘बेटी, मैं न होती तो ये बाप-बेटे कब के लड़ कर मर-खप गये होते।’
उसके पीछे मुड़ कर देखने तक, बलौरा चादरे (लुंगी) के किनारों को सम्भालते हुए दरवाज़े से बाहर निकल गया था।
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अँग्रेज़ के घर के पिछवाड़े से बलौरा ने चारा कुतरनेे वाले टकुए के पीछे पड़ी प्लास्टिक की पल्ली उठायी। नीम के तने से टिके टोकरे को उस पल्ली के किनारे-किनारे से ढीला-सा बाँध्ा लिया। किनारे के पास पड़ी कुदाल को मूँठ से पकड़ कर, लटकाते हुए, बिना झुके दरवाजे़ से निकलकर सीध्ाा ही गोबर के सूखे ढे़र के क़रीब आ गया। ट्रैक्टर के पीछे ट्राॅली जोड़ कर उसने गली की पक्की जगह से दो कदम परे ले जाकर खड़ा कर दिया। हालाँकि गली से निकलने के लिये रास्ता काफ़ी था, लेकिन एक ओर का रास्ता कुछ कच्चा था। बलौरा ने कुदाल से गोबर को समतल किया। टोकरे में पैर रख, वह कुदाल से उस समतल गोबर को टोकरे में ऊपर तक भरने लगा। जूप और बंसी दोनों आदमी बारी-बारी से टोकरे उठाकर ट्राली में पलटने लगे।
‘आध्ाी ट्राॅली भर जाये तो इसे आगे ले जायेंगे। कहीं भरी ट्राॅली यहाँं ध्ाँस न जाये...।’ बंसी ने सिर पर बोरी का टुकड़ा लपेटा हुआ था कि टोकरा उठाते हुए खाद उसके कुरते पर न गिर जाये। कच्चे स्थान पर भरी ट्राली के ध्ाँस जाने की आशंका थी। इसीलिये उसने अपने मन की शंका बतायी। ध्ाँसी ट्राॅली को फिर से खाली करके भरना, किसी कारिन्दे के लिये मौत को बुलावा देने से कम नहीं होता।
‘अभी तो ट्राॅली का निचला हिस्सा भी नहीं भरा गया, तू पहले ही बोलने लगा। पगला गया है क्या।’ जूप ने सूखे गोबर का एक ढेला उठा, बंसी के सीने पर दे मारा। ऐसी छोटी-छोटी बातें और हँसी-मज़ाक करते वे काम में लगे रहे।
मूरती ने चाय बना, पतीले से पीतल के कटोरदान में छान ली। थोड़ी-सी चाय अपने लिये रखकर, उसने पतीला फिर से चूल्हे पर रख दिया। कच्ची मिट्टी के बर्तन में भरे पानी में रखे दूध्ा वाले डोलू में से आध्ाा गिलास अंदाज़ से नाप कर अपनी चाय में उंडेल दिया।
टोकरी से गिलास उठा, अँग्रेज़ कारिन्दों के लिये चाय ले जाने लगा तो मूरती ने उसे रोका,
‘तुझे इतनी जल्दी क्या पड़ी है, कितना जल्दबाज़ है तू...। ला इध्ार, पकड़ा ज़रा बर्तन, थोड़ी हवा निकाल दूँ। एकदम ठण्डी करके ले जाना।’ कटोरदान पकड़कर वह दुपट्टे के पल्ले से हवा कर, चाय ठण्डी करने लगी। ‘गर्म चाय को ये लोग फूँक मार कर नहीं पीतेे, तब तक मज़े से बैठे रहते हैं, जब तक चाय ठण्डी न हो जाये, जैसे ब्याह के न्यौते में आये हों...।’
‘हूँ...’ उसने चाय के कटोरदान में अँगुली डालकर देखा, ‘हूँ, ठीक है..., ले जा अब।’ कोसी चाय का कटोरदान उसने अँग्रेज़ को पकड़ा दिया। गिलास उठाकर मूरती ने बर्तनों की टोकरी में दे मारे और बाटियाँ उठाकर उसे थमा दी और बोली,
‘बहनोई तो नहीं हैं, जो चाय गिलास में देगा।’
‘काम तो नीची जात वालों से लेना ही पड़ता है, भले करते कुछ नहीं हैें। सारी दिहाड़ यूँ ही निकाल देते हैं। जितना खुद गर्मी में तपते हैं, उतना ही अपनेे साथ जाट को भी फूँकते हैं।’ भुनभुनाते हुए अँग्रेज़ गली में आ गया और खुद ही चुप्पी ओढ़ ली।
उसके चाय लेकर आने तक, उन्होंने ट्राॅली को काफ़ी ऊपर तक भर दिया था। अब बस ट्राॅली का पिछला हिस्सा भरने के लिये बाकी रह गया था। इतने कम समय में ट्राली को भरा देखकर उसके होंठों पर मुस्कान दौड़ गयी, फिर भी माथे पर सिल्वटें डाल, उसने व्यर्थ की जल्दबाज़ी दिखाते हुए कारिन्दों को पुकारा,
‘आ जाओ भई, चाय पी लो आकर। फिर काम खत्म करेंगे फटाफट।’ गोबर के पास उगे वृक्ष के तने के पास कटोरदान रखकर उस पर बाटियाँ रख दी।
चाय की पुकार सुनते ही उन्होंने हाथ का काम वहीं छोड़ दिया। बंसी ने ट्राॅली पर पलटा टोकरा उसी प्रकार उल्टा ही पड़ा रहने दिया। हाथ-मुँह को पल्ले से पोंछते हुए वह इध्ार आ गया। बलौरे ने पैरों से दबाये टोकरे को भरकर, गोबर के ढ़ेर में फँसी कुदाल वैसे ही ध्ाँसी छोड़ दी। सिर से साफ़ा उतार, मुँह पर आये पसीने को पोंछते हुए, तने के पास ज़मीन पर बैठ गया।
अँग्रेज़ ने चुप्पी तोड़ी, ‘देखो तो चुगदोें के चक्के झट् से जाम हो गये, हाथों को जैसे लकवा मार गया हो। काम करने की नीयत हो तो भरपेट खायें भी और खिलायें भी...।’ कमर से खिसकते चादरे को उसने फिर से कस कर बाँध्ा लिया।
बंसी चप्पल उतार कर बैठ गया और बाटी उठा कर उसने अँग्रेज़ के आगे कर दी, ‘भर दे एकदम ऊपर तक’ कह कर उसने दाहिने हाथ के अगूँठे और अँगुल से अपना बीड़ा बाहर निकाल कर परे रख दिया।
जूप ने बाटीे में उडे़लती चाय की ध्ाार के साथ बनती झाग देखकर उसकी गर्माहट को भाँप लिया। पैरों के बल ही घिसटकर वह अपनी बाटी के पास आ गया। अपनी अँगुली को गमछे से पोंछ, उसने चाय में डुबोेकर देखा, फिर रोष से अँग्रेज़ की ओर देखकर बोला,
‘इससे ज़्यादा गर्म तो हौद का पानी होगा। सोचा था, चाय से थोड़ी तरावट आयेगी...। यह चाय तो शर्बत से कम नहीं...।’
अँग्रेज़ सकपका गया, जैसे रंगे हाथ पकड़ लिया गया हो, ‘पी...! पी कर तो देख। असर क्यों नहीं करेगी...दारू के बाद तेरहवाँ रतन है आखिर...।’ मूंछ को मरोड़ते हुए उसने कारिन्दों को चाय पीने के लिये कहा और अपनी अकड़ भी बनायी रखी।
‘देखने में तो ‘ग्रेज सिंह’ लहू का रंग भी गाढ़ा लाल होता है, परन्तु आदमी ग़ैरत से ही ग़ैरतमंद कहलाता है। इतना ज़रूर है कि थोड़ा-सा ज़्यादा मूत्र लेंगे। चाय ठण्डी और ग़ैरत मरी, एक ही बात है।’ बंसी ने भी साथ में बात को जोड़ते हुए बलौरे की ओर देखा, जो मिट्टी के ढे़ले को तोड़ रहा था। उसकी आँख वृक्ष पर चढ़े गिरगिट पर टिकी हुई थी, जिसने देखते ही देखते रंग बदल लिया था।
‘भाप निकल रही है, देख तो सही। एकदम उबलती हुई तो पी भी नहीं जाती। मेरी अँगुली डुबोकर देख ले।’ अँग्रेज़ ने अपने हलवाहे बंसी के कटोरे में अंगुली डूबोकर ‘गर्म है’ कहते हुए बाहर निकाली। ऐसा कह कर उसने उन्हें झूठा साबित करते हुए सिर हिलातेे हुए कहा, ‘चलो...चलो, सुड़क लो जल्दी से।’
जूप ने एक ओर से कमीज़ की उध्ाड़ कर लटक रही सीवन कोे जेब से कीकर की डण्डी निकाल कर उसे सूत करते हुए कहा, ‘अपनी ये अँगुली काट कर हमें दे जाना ज़रा।’ फिर हँसते हुए बोला, ‘जब भी ठण्डी-गर्म कोई चीज़ खानी होगी तो तेरी यह अँगुली डूबो कर देख लिया करेंगे।’ जूप की बात सुन कर सभी हँस दिये।
हँसी की आवाज़ सुन कर बलौरे को भी जैसे होश आया तो वह भी उनके साथ हँसने लगा।
‘ऐसा क्या है जो खुश हो रहे हो।’ इतना कहते हुए अँग्रेज़ ने बाटी उठा कर मुँह लगा ली और एक ही बार में सारी चाय अपने अन्दर उडे़ल ली।
‘लगता है, जैसे कहीं से कुल्फी लाकर पिघला दी है। चाय पीते समय लगना तो चाहिये कि चाय पी है। वैसे भी चाय चीज़ ही क्या है। जो तुम्हारी बहु मूरती उसके लिये भी नथुने फैलाये रखती है।’ बंसी ने व्यंग्य कसा।
बलौरे ने पैरों की ओर पड़ी टेढ़ी और चिब्बी-सी बाटी की ओर देख कर पूछा, ‘ये किसकी है ?’
‘तेरी है और किसकी है। मैं तो अपनी जीभ जला चुका हूँ।’ जूप ने उसे घूरते हुए अँग्रेज़ की ओर कनखियों से झाँका, जो उनके झूठे बर्तन लेजाने के लिये वहीं खड़ा था।
बलौरा को अपने लिये चाय के लिये बाटी आये देख, रत्ती भर भी यकीन न हुआ। अब तक कभी ऐसा नहीं हुआ था। अँग्रेज़ भी आदर से, सबसे पहले गिलास भर कर, उसे अपने हाथों से थमाता था। जब भी कभी वह उसके खेतों में काम करता तो अंगेज़ एक ओर सरककर, उसके लिये जगह बना, अपने साथ चारपाई पर सिरहाने की ओर पूरे सम्मान से बिठा लेता था। जबकि किसी ग़रीब आदमी को तो अपने पायताने भी बैठने नहीं देता था। बलौरा भी जि़द का पक्का होने के कारण पायताने बैठने की बजाय खड़े रहना ही अध्ािक पसन्द करता था।
उसने कभी बाटी में चाय नहीं पी थी। गिलास में चाय पीना ही उसे दूसरे कारिन्दों से अलग करता था। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी शख्सियत और पहचान होती है। आज उसके सीने में कई शूल एकसाथ चुभ गये। आज वह अँग्रेज़ का सहयोगी नहीं, एक दिहाड़ीदार बनकर उसके यहाँ काम करने आया था। इस बाटी के कारण वह एक साध्ारण हलवाहा ही नज़र आ रहा था। उसे अपने शरीर से भेड़ों के बाड़े में बैठने जैसी बू आने लगी। नज़रें झुका कर उसने अपनी दायीं बगल को सूँघा। फिर चिढ़ में आकर बाटी को बायीं हथेली में पकड़, ज़ोर से दबाना शुरू कर दिया। उसके दाँत जुड़ गये। बाटी से चाय निकलकर किनारों तक आने लगी। दबाव डालने के कारण उसकी बाजू में दर्द होने लगा।
खेत की ओर जाते हुए बचना ने लस्सी वाला डोलू हाथ में पकड़ लिया। बैलगाड़ी से उतर कर उसने बछड़े की नथ पकड़, ट्राॅली से मुड़ते हुए बात छेड़ी,
‘अरे ‘ग्रेंज़ कहीं आदमी तो नहीं बो रखे तूने। इतने मुश्किल वक़्त में भी तुझे आदमियों की कमी नहीं आयी। हमें भी दे दे एकाध्ा बन्दा तोड़ कर...। किस हिसाब से इन्हें देता है तू...।’
‘कैसा हिसाब...।’ खाली कटोरदान को उल्टा कर, उस पर मुक्का जमातेे हुए अँग्रेज़ ने मुस्कराते हुए कहा,
‘हिसाब तो आदमी एक ही बार देता है, जीते जी आदमी के कोई हिसाब-किताब नहीं होते। नित नया चक्कर चलता रहता है यहाँ।’
‘च...च...।’ बचने ने आवाज़ निकाल कर बछड़े को रुकनेे के लिये पुकारा, बछड़ा रुका नहीं, पर उसने अपनी चाल ध्ाीमी कर दी, ‘जैसे तेरी रज़ा, उसी में राज़ी है।’ कहते हुए बैलगाड़ी अनेक घरों से आगे निकल गयी।
इतने में बलौरा पैरों में पड़ी बाटी उठा, ट्रेैक्टर की सीट पर जा बैठा। बक्सा खोलकर उसमें से चिब्बा-सा गिलास निकाल लिया। कुरते के अगले हिस्से से उसे अन्दर से साफ़ किया और बाटी वाली चाय उसमें उडे़ल कर सुड़क कर पीने लगा।
बंसी और जूप ने चाय पीने के उपरान्त अपने जूठे बर्तन रेत से माँज दिये। बिना पानी के ही बर्तन को चमका दिया। फिर दीवार की दरार में फँसाकर रखी ज़र्दे की पुडि़या खोलकर मसाला रगड़ने लगे।
‘चलो भी, अब काम की गर्दन भी दबा दो...।’ उनके साफ़ किये बर्तन उठाकर, अँग्रेज़ ने तीखेपन से कहा और होंठों को दाँतों के बीच फंसाकर जोर से सांस छोड़ा।
‘गर्दन तो हम तेरी भी दबा दें... ज़रा कह कर तो देख।’ जूप ने जर्र्दे को हथेली पर ज़ोर से पटका और हँस दिया। अँग्रेज़ को ज़र्दा दिखाते हुए उसे पेश किया, फिर ‘हूँ’ कह बाकी का ज़र्दा बंसी की हथेली पर पलट दिया।
अँग्रेज़ एक बार तो जूप की बात सुनकर चकरा गया, फिर ऊपरी तौर पर हँसते हुए, टैªक्टर पर बैठे बलौरे के पास जाकर खड़ा हो गया और बोला, ‘ज़रा अपनी बाटी तो पकड़ा दे।’
बलौरे ने पैरों में पड़ा चिब्बा सा गिलास उठाकर उसकी ओर सरका दिया, जिसमें घूँट भर चाय अभी बाकी थी। चाय को परे फेंकते हुए अँग्रेज़ उसकी ओर गुस्से से देखते हुए बोला,
‘इसेे माँज तो देता, हाथ भिट जाते क्या। इन्होंने भी तो अपने-अपने बर्तन माँज कर रखे हैं।’
बलौरे ने पलट कर उसे घूर कर देखा, उसकी ऐसी नज़र देख कर अँग्रेज़ के जबड़े ज़ोर से भिंच गये। अपने क्रोध्ा पर काबू पाकर, उसने गुस्से को यह कहते हुए ठण्डा किया,
‘चलो कोई नहीं...। तू कौन-सा पराया है, तेरी भाभी खुद साफ़ कर लेगी।’ उससे परे जाते हुए खोखली हँसी हँसते हुए, वह मन में बुदबुदाया, ‘यह साला पता नहीं किस अकड़ में रहता है।’
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अँग्रेज़ को गर्दन पर अगूँठे का दबाव महसूस हुआ, क्योंकि मूरती हमेशा उससे इस बात का गिला किया करती थी, ‘उस बैल से कहा कर, अपने बर्तन माँज कर दिया करे। मुझ से उस नंगे जाट की जूठन नहीं ध्ाोयी जाती।’ कह कर वह जूठे बर्तनों के ढ़ेर को ठोकर मार देती थी।
‘बर्तनों को क्यों चिबे दे रही है। कुछ नहीं होता, जूठे बर्तन ध्ाोना पुन्न का काम होता है।’ अँग्रेज़ ने बाजू मोड़ कर सिर के नीचे लगायी और बीवी की ओर पीठ कर लेट गया। दाहिने पैर के नाखूनों से बायीं टांग के टखने पर खाज करने लगा।
‘अपनी सौगन्ध्ा अपने पास ही रख...’ मूरती माँजते बर्तनों को वहीं छोड़ दिया और दोनों हाथ जोड़ कर उसे चिढ़ाया, ‘ज़्यादा सयाना मत बन। आकर खुद माँज ले बर्तन और खट ले पुन्न। बातों को घुमाता है, चरखे जैसी सीध्ाी बात नहीं करत।’
मूरती ने होंठ तिरछे कर, नाक-भौं सिकोड़ा और फिर से पटड़े पर बैठ गयी।
‘टिक जा...।’ पति की आवाज़ सुन कर मूरती काँप गयी। पटड़े पर पैरों के बल बैठ गयी।
‘गर्दन पर मुक्का मारकर बलि दे दूँगा तेरी।’ पत्नी पर रौब जताने के लिहाज़ से वह बहुत देर तक मुँह में बुदबुदाता रहा।
कुछ देर के बाद अँग्रेज़ ने चारपाई के किनारे से सिर ऊँचा कर कनखियों से पत्नी की ओर देख कर जानना चाहा कि उसके रौब का कितना असर उस पर हुआ है। मूरती की आदत थी, डरते हुए भी अपने दिल की भड़ास उसी समय निकाल देती थी। पीठ पीछे किच-किच करने की उसे आदत नहीं थी।
सिर के नीचे बाँह का सिरहाना बना कर, अँग्रेज़ फिर से करवट लेकर लेट गया तो मूरती ने अपनी भड़ास निकाली, ‘बस मुझ पर ही ध्ाौंस जमाना आता है, उसके सामने तो आवाज़ नहीं निकलती तेरी। पता नहीं किस बात से झुकता है उससे, चार पैसे नहीं है उसके पल्ले।’
‘चुप कर जा..., बस कर दे अब...। कहीं मुँह न तुड़वा लेना।’
‘चुप हो जा...हूँ...। खस्सी आदमी औरत को पीटने लायक ही होते हैं।’
पत्नी की बात सुनते ही अँग्रेज़ ने पैरों के पास पड़ी जूती उठा कर उसे दे मारी। फिर मूँछ मरोड़ने लगा।
मूरती ने उस दिन के बाद से कभी बलौरे की जूठी बाटी नहीं माँज कर रखी थी। यह बाटी वैसे ही दीवार की ताक में टेढ़ी पड़ी रहती थी। जब भी वह इस बाटी की ओर देखता उसे अपनी गर्दन जकड़ी हुई लगती थी।
और आज...
अँग्रेज़ ने बलौरे की जूठी बाटी मूरती के आगे रखने की बजाय, सभी की नज़र बचाकर, गली की कच्ची मिट्टी से ध्ाोकर साफ़ कर दी थी। उसकी जान ऐसे ही पिंजरे में जकड़ी हुई थी। वह बलौरे का जूठा बर्तन मूरती के सामने ले जाने पर घर में क्लेश हो जाता।
मूरती कहती, ‘इस तगमे को अपने पास ही रख। ध्ाागे में डालकर इस बाटी को अपने सीने पर लटका ले।’
और अब...
अँग्रेज़ ध्ाोये हुए बर्तन मूरती के सामने फेंकते हुए हुँकारा, ‘उठा ले इन्हें।’ कहते हुए उसने मूंछ को ताव दिया।
सारे बर्तन काँच के सामने चमकते देख मूरती का सीना खुशी से सवा इंच चैड़ा हो गया। रसोई में बिलौने में से ठण्डी लस्सी का गिलास भरकर, उसमें मक्खन का टुकड़ा डालकर अँग्रेज़ को थमा दिया। परन्तु अँग्रेज़ को लस्सी का स्वाद कड़वा लग रहा था।
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जब ट्राॅली खाद से पूरी तरह से भर गयी तो उन्होंने उस ऊँचे ढेर में ही अपनी कुदालें ध्ाँसा दी।
‘दम ले ले रत्ती भर...।’ वे वहीं वन के तने से टेक लगा कर लेट गये। सभी ने शरीर को अकड़ाकर अँगड़ाई ली। अभी दो साँस भी नहीं लिये थे कि अँग्रेज़ ने दीवार में बने छेद से उन्हें खाने के लिये हाँक लगा दी।
टैªक्टर के छत वाली पाईप से बँध्ो साफ़े को खोलते हुए जूप ने सरसरी तौर पर पूछा, ‘भला यह ‘ट्रैक्ट’ कितने आदमियों के बराबर होगा भाई।’
बलौरा ने हाथों में पड़े अणट्ट को नाखूनों से छीलते हुए, बातों का सिलसिला खत्म करने की नीयत से कहा, ‘देख भई, आलसी आदमी तो बेशक सौ रख ले, मगर जिगरे वाले बीस आदमियों की ताब नहीं झेल सकता ये।’
‘हाँ भई, जिसे आदमी ने खुद गढ़ा हो, वो आदमी से बड़ी नहीं हो सकती।’ हौद के पास आकर नल खोल कर, मैले हाथ ध्ाोते हुए जूप ने भी चैका जड़ दिया। फिर कहा, ‘देख ले रंग नीली छतरी वाले के, ऐसा ‘ट्रैक्ट’ आज तेरे पास भी होता, ‘गर तेरे बूढ़े अजैव ने ज़मीन...।’
जूप की बात सुनकर बलौरा स्तब्ध्ा रह गया।
‘अगर ज़मीन बेच दी होती, फिर भी हाथ-पल्ले कुछ होता। ऐसे ही भंग के भाव सौंप दी बस।’ बंसी ने कुल्ला कर निकट बैठी चिडि़या की ओर पानी फेंक दिया और साफ़े से हाथ-पैर पोंछते हुए कहने लगा,
‘ग्रेंज़ की तरह कोठी बना कर यह भी उस पर ‘नज़र-पट्टु’ लटका देता।’
रोटी देने आये अँग्रेज़ के लड़के किन्दर को जूप ने छेड़ा, ‘अरे ! अपनी माँ से कह, भई रोटी पकड़ा दिया करे चाचा को। छड़े आदमी को तो इसी बात से रोटी में मज़ा आ जाता है।’
उसकी बात सुनकर लड़का संकोच से भर गया तो उसने फिर से उसे टोहा, ‘क्यों रे, बोलता क्यों नहीं...।’
‘ओ माँ...।’
‘अरे चुप कर..., जूते पड़वायेगा क्या।’ रोटी उसके हाथ से लेकर, क़रीब पड़ी ईंट को पैर से सीध्ाा कर, उस पर जा बैठा।
बलौरा ने नल के नीचे हथेलियों को ध्ाोते हुए उस पर जमी मैल को देख उन्हें पत्थर के टुकड़े से रगड़कर साफ़ करने लगा। इससे उसकी हथेलियों पर निशान पड़ गये। इस प्रकार हाथ ध्ाोते हुए उसकी साँस फूलने लगी। हथेली की लकीरों पर उसे कोई चेहरा दिखायी दिया, जिस पर थूक कर, वह खुद को हल्का महसूस करने लगा।
रोटी खाने के लिये वह बैलगाड़ी पर जा बैठा। जेब से गिलास निकाल कर, उसे थपथपाकर वह उसकी टुँकार सुनने लगा।
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नकसीर
घर पर बलौरा को किसी अजनबी आदमी के व्यक्तित्व का एहसास बुरी तरह से रड़क रहा था। लेकिन वह था कौन ? उसने गाँव के सारे नौजवानों के चेहरों का निरीक्षण किया। उसे किसी पर थोड़ा-सा शक होता, फिर अगले ही पल वह खुद उसे रद्द कर देता, ‘नहीं, उसमें इतनी मजबूती कहाँ...कि वो दीसां...। नहीं, नहीं...।’ उसे खुद पर रोष महसूस हुआ कि क्यों अभी तक दीसां को उस पर यकीन नहीं हुआ था। उससे पाँच वर्ष छोटी होने के कारण एक तरह से वह उसके हाथों में पली थी।
रात की रोटी के बाद जब दीसां बलौरा को दूध्ा का गिलास थमाने आयी तो उसने बिस्तर पर बिछी मोरों के डिजाईन वाली दरी पर हाथ फेरते हुए उसे इशारे से समझाया,
‘समय का चक्कर देख ले बहन, जब तू इतनी-सी थी...’ हाथ को ध्ारती से चार फुट ऊँचा कर उठा लिया, ‘चोरी की हर चीज़ तू मेरी जेब में लाकर छिपा देती थी। तेरी हर खोयी हुई चीज़ और खिलौना मेरी जेब से निकलता था। चल छोड़ इन बातों को...। मैं कह रहा था, अब खुशी की नींद की पुडि़याँ भी इस जेब में डालकर छिपा देती पगली तो ज़्यादा अच्छा होता।’
दूध्ा का गिलास दोनों हाथों में थाम कर भाई को पकड़ाते हुए, उसने लटक आयी बालों की लट को कान के पीछे अटकाते हुए कहा, ‘मैं भी बस यही बताना भूल गयी थी...। इस बात से परेशान हो रही थी कि आखिर कौन-सी बात मन में रड़क रही है, जो भूल बैठी हूँ।’ फिर मर्दों के समान हँसते हुए बोली, ‘देखा, मुझे भूली हुई बात, तुझे कैसे याद आ गयी।’
उसकी हँसी की टंकार सुनकर बलौरा ने किसी का स्वर पहचानने की कोशिश की, ‘भगवान कितना कुछ भुलाये बैठा है, मुझे तो वो भी सब याद है। फिर तेरेे साथ तो लहु का नाता है, मेरे कन्ध्ो पर बैठकर तुमने मलियों की चोटी से बेर तोड़े हैं।’ दूध्ा से मलाई उतारकर दीसां की हथेली पर रख दी, ‘बहन, चल हो जा और भी तगड़ी...।’
दीसां ने मलाई जीभ की नोक पर रखी और तुरन्त उसे निगलकर बोली, ‘दग़ा तो आदमी उसे देता है, जिससे ज़्यादा उम्मीद न हो।’
बलौरा ने दूध्ा के दो घूँट भरकर गिलास को चारपाई के पायताने फँसाकर, उसे पंखी से ढँक दिया, ‘उम्मीद तो दीसां, मुझे और इस घर को भगवान से भी नहीं है। कितने ही लोग ऐसे हैं जो उसकी मजऱ्ी से जीते और मरते हैं।’ दीसां के सिर पर से उसने आसमान की ओर देखा, जो अपने गिने-चुने तारों संग ध्ारती को निहार रहा था। उध्ार देखते हुए बोला,
‘भगवान को खुश करके क्या होगा, जब आदमी खुद ही खुश न हो। आते तो यहाँ सारे आदमी की जून में, मगर झेलनी उन्हें रोटी की जून पड़ती है...।’
दीसां कितनी देर वहीं खड़ी रही। जाने के लिये उसने दो कदम बढ़ाये, फिर पीठ करके खड़ी हो गयी, ‘भाई, यह ग़ैरत क्या बला होती है।’
‘ग़ैरत...’ कितनी देर तक वह उसकी पीठ पर झूलती लम्बी चोटी को देखता रहा, फिर किसी जवाब के इन्तज़ार में पावे के साथ लटकी मटकी की ओर देखने लगा।
कमरे में जाकर दीसां अपनी चारपाई पर बिस्तर बिछा सो गयी।
लेकिन बलौरा कुछ सोचते हुए चारपाई पर घुटने मोड़कर, मटकी की ओर मुँह कर बैठ गया और बोला, ‘यार छबीला, तुझे मालूम है... मेरे देखते-देखते की बातें हैं, बाबा नरसिउ को बारह-बीटी खेलते हुए किसी ने गाली दे दी, खेल बीच में ही छोड़कर, ताव से भरा वह अपने घर आ गया। लोगों ने उकसाकर, उसके ताव को क्रोध्ा में बदल दिया और उसी क्रोध्ा की आग में आकर उसने बखतौरे को मार डाला। दोनों ही घर उजड़ गये। अब तक उनकी तीसरी पीढ़ी इस झगड़े में उलझी हुई है। समझा कि नहीं। दोनों एक ही नदी के पानी थे...।’
उसने मटकी में मुट्ठी भर बजरी डालकर उसे ज़ोर से हिलाया, कान लगाकर आवाज़ सुनी, फिर बोला, ‘हाँ, हाँ, ठीक समझे। उन दोनों का दादा एक ही था। चैपाल में बैठे लोग कहते हैं कि यह तो ग़ैरत का मामला था, जिसके पीछे वह अपना घर लुटा बैठा। ये कैसी ग़ैरत थी...। बाबा जलौर सिंह बताता था, जब गुरूजी के पास पण्डित आये कि औरंगजे़ब ज़र्बदस्ती उनका ध्ार्म बदलने पर आतुर हैं तो गुरूजी ने उनके लिये अपने प्राण किले में जाकर त्याग दिये, अपना सीस कुर्बान कर दिया।’
फिर मटकी को खड़काते हुए बोला, ‘बात समझ में नहीं आयी, तो सुन...अगर गुरूजी चाहते छबीला, वे हिन्दू और सिखों के साथ मिलकर औरंगजे़ब से सीध्ाी टक्कर ले सकते थे...।’ उसने अपनी एक अँगुली को अकड़ाकर हवा में चुटकी बजायी, ‘मगर नहीं, क्योंकि इससे दोनों ओर से लोगों के घर उजड़ जाते...। मानो इतने लोगों को उजड़ने से बचाने के लिये, उन्हें बसाये रखने के लिये उन्होंने अपनी कुर्बानी दे दी। यह थी ग़ैरत...मान-इज्ज़त। और बाबा नरसिंउ में था सिफऱ् अंहकार। अंहकार में दोनों ओर के पक्ष उजड़ जाते हैं, मान-इज्ज़त में, ग़ैरत में बसना-बसाना होता है..., अब बता तू क्या कहता है।’’
बलौरा ने मटकी की ओर ग़ौर से देखा तो लगा, उसका राज़दार यार छबीला उसकी बात से थोड़ा सहमत दिखायी दिया। उसने भीतर ही भीतर कोई निर्णय ले लिया। अपने फिक्र-चिन्ताओं का समाध्ाान तर्क के साथ किया। मटकी से बजरी के कंकड़ निकालकर जेब में डाल लिया। फिर उसे पावे से लटकाकर, टांगों को जोड़कर, चारपाई पर करवट लेकर लेट गया। मगर उसकी सोच अभी भी किसी अनजाने का चेहरा पहचानने की कोशिश में उलझी हुई थी।
चाँदनी रात में घर में पड़ी प्रत्येक शै मटमैली-सी दिखायी दे रही थी। ताज़ा गाभिन बकरी को खूँटी से खोलकर अपने पावे से बाँध्ा लिया, कहीं गाँव के आवारा कुत्ते उसे काट न खाये। बकरी के चेहरे को दोनों हाथों से सहलाया। फिर रसोई में जाकर बाकी बची रखी रोटियाँ के टुकड़े कर, आँगन में रखी एक थाली में रख दिये। साथ ही मिट्टी के ठीकरे को पानी से भर कर उन रोटियों के साथ रखकर, जैसे खुद से बुदबुदाया, ‘लो भई गाँव के रखवालों, ये तुम्हारे लिये हैं...।’ फिर चारपाई पर आकर लेट गया।
इस प्रकार आध्ाी रात बीत गयी।
आध्ाी रात को एक घर से किसी ने गदेले के नीचे से जिस्ती लोहे के चाकू को अपने चादरे में छिपाकर कमर के नीचे लटका लिया और साफ़े को सिर पर लपेटकर गली में आ गया। चाँदनी रात में उसका साया भी उसके साथ-साथ चल रहा था। उसे भ्रम हुआ, जैसे दबे पाँव कोई उसका पीछा कर रहा हो। कुएँ के पास खड़े होकर, जूती से गली की ठण्डी रेत झाड़कर पीछे मुड़कर देखा, फिर तसल्ली से बलौरा के घर की गली की तरफ मुड़ गया। मोड़ मुड़ते ही उसकी चाल ध्ाीमी हो गयी। हाथ पीछे बाँध्ा, लपेटे हुए चाकू को उसने छुआ तो हाथ की अँगुलियों में कँपकँपी होने लगी।
जेब में से चाँदी की डिबिया निकालकर, अनामिका के नाखून से चने के दाने भर अफीम निकालकर, थूक से उसे अन्दर निगल लिया। जैसे-जैसे इसका असर रगों में घुलने लगा, उसके कदमों में मजबूती आने लगी। चाकू की ध्ाार उसे पहले से अध्ािक तीखी लगने लगी। दरवाज़े के सामनेे खड़े होकर उसने चारों ओर निगाह डाली, फिर ज़ोर से कोयल की आवाज़ निकाली। ‘कू....हू....कू...हू...।’ उसकी कूक सुनकर बिस्तर पर उनींदी से पड़ी दीसां उठकर बैठ गयी। पावे के पास पड़े मटके के ढक्कन को ज़ोर से बजाकर खड़का किया। फिर अजैव और नसीबो के गहरी नींद में सोये होने का एहसास कर, जब वह चारपाई से नंगे पाँव उठकर आँगन में आयी तो बलौरा को चारपाई के पास खड़े देखकर, वह सुसरी-सी वही ठिठक गयी। उसके दिल की ध्ाड़कन न बढ़ी बल्कि उसके होंठों पर मुस्कान खेल गयी।
दीवार पर किसी के चढ़ने की आहट सुनकर, बलौरा ने फूस के ढ़ेर के पास पड़ी छोटी सीढ़ी उठाकर दीवार के साथ लगा दी। खुद दियासलाई लेकर, पूरी तैयारी के साथ, खुरली के पास ओट में बैठ गया। दीवार चढ़कर वह अजनबी सीढ़ी से उतरकर घर के खुले आँगन में आ खड़ा हुआ। इतने में पलक झपकते ही बलौरा ने माचिस की तीली जलायी और उस अजनबी के चेहरे के पास ले जाकर उसे पहचानने की कोशिश करने लगा। देखते ही उसे पसीने छूटने लगे।
‘अरे घीचर, तू...., आ जा, आ जा...।’ थोड़ा हँसकर वह अपने बिस्तर की ओर बढ़ते हुए बोला,
‘दो दिन हो गये दीसां से पूछते हुई कि भई कौन है...? किसे छिपाये बैठी है। ऐसे ही पाँव घिसटाते आ रहा है। आगे से सीध्ाा ही आया कर, द्वार-बार से, दिन में। ये छतें-दीवारें लाँघकर आने से कहीं हाथ-पैर तुड़वा बैठा तो तुझे कहाँ उठाये फिरते रहेंगे। आखिर माँ-बाप का इकलौता बेटा है। ऐसे में कोई चोट न लगवा लेना।’
घीचर ने चादरे में छिपाये चाकू को हाथों से परखा और वार करने के लिये एकदम तैयार हो गया। चाँदनी रात में चाकू की चमकती ध्ाार देखकर दीसां के शरीर में सिहरन-सी दौड़ गयी।
बलौरा ने माचिस की दूसरी तीली जलाकर रोशनी की और बोला, ‘यहाँ पर जगह थोड़ी ऊँची-नीची-सी है, ज़रा पाँव सम्भालकर रखना, कहीं ठोकर लगने से मुँह न तुड़वा लेना। सारे संशय-भ्रम ही दूर हो गये आज तो...।’ चारपाई पर सिरहाने की ओर पालथी लगाकर बैठ गया, लेकिन घीचर अभी भी उससे दो कदम दूर ही खड़ा रहा। बलौरा ने चारपाई पर उसके लिये जगह बनाते हुए कहा,
‘अरे, आ जा खसमा ! बैठ जा... बातें करते हैं घड़ी भर। अब कुछ भी बकवास मत करना। तुम न होते तो कोई और होता। आदमी अपनी लीला भी तो खेलता है।’
घीचर ने किसी भी बात का जवाब नहीं दिया और पायताने की ओर दोषी बना खामोशी से बैठ गया। उसका गला भर आया, बलौरा के पैरों पर पगड़ी रखकर अपनी भूल बख्शने का उसका मन करने लगा। परन्तु उसके शरीर में इतनी हिम्मत भी बाकी नहीं रह गयी थी कि गर्दन भी झुका सके।
‘पानी पी लो...’ बलौरा ने पास रखे मटके से पानी की कटोरी भरकर घीचर की ओर बढ़ा दी और कहने लगा,
‘पंख तो मेरे भी उग आये थे परन्तु मन ने उड़ने के लिये हामी नहीं भरी। भई लोग क्या कहेंगे, घर में जवान बहन बैठी है..., यह सोचकर मैंने हाथ झाड़ लिये। लेकिन लोग तो अभी भी कहने से नहीं हटेंगे।’ बलौरा ने उसे हौंसला देते हुए लगातार बोलने लगा,
‘बस अपनी लड़कियों को इतनी आज़ादी देना ही ग़ैरत की बात होती है।’
परन्तु घीचर की चुप्पी बात को आगे नहीं बढ़ने दे रही थी। यह देखकर बलौरा ने उसके पैर पर चिकोटी भर कर उसे झिंझोड़कर कहा, ‘यहीं पर है या कहीं और पहुँच गया है। कसम लगे इस यार छबीला की...।’ उसने अंजुरि में पानी भरकर कहा, ‘मेरी बहन, आवारों की तरह किसी ऐरे-गैरे के साथ नहीं घूमती-फिरती। अगर तेरे अलावा इसने किसी और की ओर देखा भी तो मैं उसके टुकड़े कर दूँगा मैं, टुकड़े...।’ फिर यकीन के साथ मुस्कराते हुए बोला, ‘ऐसे किसी की तरफ झाँक ही कैसे सकती है वो...। बहुत ग़ैरत वाली है मेरी बहन...। मेरी पगड़ी को दाग़ नहीं लगायेगी मेरी बहन... मुझे मालूम है।’ कहते हुए उसने सिर पर बाँध्ाी नारंगी पगड़ी को दोनों हाथों से पकड़ कर कहा, ‘देख लेना...।’
कुछ दूर माहौल में चुप्पी छायी रही।
‘बल्ले ओये जवानाँ...’ फिर ध्ाीमी आवाज़ में भेदभरे अंदाज़ में बोला, ‘अपनी तसल्ली के लिये तुमसे कुछ पूछना चाहता हूँ, लेकिन पूछूँगा तब...गर तुम सच बताओगे...। झूठ मुझे भी पसन्द नहीं....।’ घीचर ने उसकी बात की स्वीकृति के लिये सिफऱ् झुकी गर्दन को थोड़ा-सा ऊँचा किया। बलौरा ने आगे कहा, ‘तुम अपनी देह की भूख के लिये यहाँ आते हो या चार फेरे भी लोगे उसके साथ।’ कहते हुए उसने अपनी गर्दन को घुमाया।
घीचर ने हाथ में पकड़ी कटोरी से एक घूँट पानी और पिया। रात की खामोशी में घीचर के गले से पानी सुड़कने की आवाज़ सुनायी दी।
‘यार, तू तो पानी की जान ही निकाले दे रहा है...। निबाह करेगा इसके साथ कि नहीं...।’ आगे से कोई जवाब न पाकर बलौरा झेंप गया। माचिस से तीली निकालकर घीचर के चेहरे के पास ले जाकर उसके बदलते तेवर देखने लगा। समझ में नहीं आया कि उसे बेहद पसीना आ रहा था या वह रो रहा था। बलौरा द्वारा दूसरी तीली जलाने पर घीचर ने उसकी लौ के आगे अपनी हथेली कर दी। लौ से उसकी हथेली की चमड़ी जल गयी। उस जलन की पीड़ा को उसने दाँतों में ही भींच लिया।
‘जा, भाग जा... यहाँ से। मुझसे और बेइज्ज़ती करवायेगा क्या। जा, कितनी देर से तेरा इन्तज़ार कर रही है।’ कहते हुए उसने कमरे की ओर इशारा कर दिया। घर आये मेहमान से इतना रुखा नहीं बोलना चाहिये। यह सोचकर उसे बार-बार खुद पर गुस्सा भी आ रहा था।
घीचर के चारपाई से उठते हुए जब बलौरा ने देखा कि उसका मुँह गली की ओर है तो उसने जल्दी से कहा, ‘इध्ार नहीं, उध्ार बैठी है। दबे पाँव जाना, बल्कि ऐसा करो कि जूता हाथ में ले लो। बेकार में जूती की आवाज़ आयेगी। आशिक और चोर के जूते का शोर मचाना अच्छा नहीं होता।’ गर्दन लम्बी करके उसने परे सो रहे माँ-बापू की ओर पड़ताली निगाह से देखा, ‘वैसे तो बेबे-बापू सो गये होंगे, फिर भी डर ठीक होता है। आदमी का चैकéा रहना ठीक ही रहता है। हूँ...। उनसे पर्दा रखना ज़रा...।’ खुद वह बायीं ओर करवट लेकर बिस्तर पर लेट गया।
घीचर ने लपेटी हुए चाकू को हाथ में पकड़ लिया। उसकी ध्ाार पर अगंुली फिराकर देखा। चाँदनी रात में वह आग के समान लगा। चाकू को बलौरा की चारपाई के पायताने रखकर वह अन्दर की ओर चल दिया।
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चाँदनी रात में घीचर का साया अन्दर की चारपाईयों पर फैल गया। परन्तु दीये की लौ में एक गहरा साया बाहर आँगन में बिखर गया और साथ ही अन्दर का साया फीका पड़ गया। दीसां ने ताकी में पड़ी पोटली की पक्की गाँठ को दाँतों से खोलकर उसमें से सिन्दूर की डिब्बियाँ निकाल ली। डिबिया का ढक्कन खोलकर, बायाँ पैर दहलीज़ के अन्दर और दायाँ पैर बाहर रखकर, खड़े घीचर के आगे सिर से दुपट्टा उतारकर उसके सामने जा खड़ी हुई। दीये की लौ काँपी तो अनाज की बोरी पर पड़ते दीसां का टेढ़ा हुआ साया घीचर के साये में घुल गया। अक्स थोड़ा-सा और गहरा हो गया।
‘हमारा यह रिश्ता हरेक रिवायत से बागी है। हम किसी भी बन्ध्ान में बँध्ाकर नहीं जी रहे। इश्क तो फूलों की शाख है, जो नदी के नीचे उगती है।’ घीचर ने कुरते के काॅलर से पसीने से भरी मूँछ को पोंछ दिया। हाथ से सिन्दूर की डिबिया को परे करते हुए बोला,
‘हम यकीन से परे होकर तो इस हालत तक पहुँचे। पता नहीं हम कितनों को ध्ाोखा दे रहे हैं।’
‘भरोसा...’ दीसां थोड़ी बढ़ी तो दोनों के साये एक-दूसरे में घुलमिल कर भी अलग नज़र आते रहे। घीचर ने जब बायाँ पैर उठाकर बाहर निकाला तो दीसां ने कहा, ‘कुछ नहीं छिपा मुझसे। किसी के पल्ले बँध्ाने से पहले लड़की मायके में अपनी मजऱ्ी से जीती है, फिर बाद में तो वो बस घिसटती-सरकती रहती है। ऐसा मौका मैंने खुद को दिया है, अपनी मजऱ्ी करने का। तुझ पर कोई एहसान नहीं किया।’ कहते हुए दीसां ने डिबिया में रखे सिन्दूर को फूँक मार कर उड़ा दिया।
सिन्दूर घीचर की दाढ़ी-मूँछ पर चढ़ गया। दीसां ने दुपट्टे से माथे का पसीना पोंछा, लेकिन होंठों पर पसीने से बनी लकीर को वैसे ही रहने दिया। ऐसा पहली बार हुआ था। वह होंठों पर इस प्रकार की मूँछ कभी बनने नहीं देती थी।
घीचर सुन्न हुए अपने दायें पैर से चलते हुए बलौरा के बिस्तर के पास से गुज़रा तो उसकी हुँकार सुनकर वहीं रुक गया। उसने बायीं ओर देखा तो चारपाई पर बलौरा की बाजू का तकिया बना कर बकरी पसरी हुई थी। चाँदनी में आटे की तरह अकड़े हुए कुरते के बटन खुले होने कारण, उसके सीने के सघन बाल, छाँव में उगे खर-पतवार जैसे दिखे। बलौरा ने उबासी लेते हुए बकरी को थपथपाते हुए कहा, ‘बाहर जाते हुए ज़रा दरवाज़ा बन्द करते जाना। मैं तो पेशाब करके अब लेट चुका हूँ। अब कहाँं उठूँगा...।’ उसने अपने ऊपर खेस ओढ़ लिया।
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गाँव के गिने-चुने घरों में ही अभी बिजली की तारें पड़ी थी। बचना के घर पर लगे बल्ब की रोशनी जब बलौरा की दीवार लाँघकर उसके आँगन में पहुँचती तो यहाँ जल रही लालटेन की रोशनी और भी मध्यम हो जाती। यह देखकर अजैव अपनी रोटी की थाली उठाकर, उस दीवार की ओर आ जाता और उस रोशनी में बैठकर रोटी खाने लगता। बलौरा से यह सब बर्दाश्त नहीं होता था। उसने उस दीवार के निकट तीन-चार बड़े-बड़े डंडे लगाकर उस पर चादर तान दी, जिससे बल्ब की रोशनी वहाँ तक नहीं पहुँचती थी। फिर वह दीया जलाकर पावे पर रख लेता और इस ध्ाीमी रोशनी में रोटी खाने लगता।
रोटी खाते हुए वह सोचता, ‘इन बल्बों से हमारा अँध्ोरा दूर नहीं होगा। हमें अपना दीया खुद ही बनकर जलना पड़ेगा।’
बलौरा ने सुबह की चाय पीते हुए, आँगन में रखे पानी के ठीकरे में अँग्रेज़ के कुत्ते को बैठे देखा तो उसने द्वेष से चाय के गिलास को इतनी ज़ोर से दबाया कि वह टेढ़ा हो गया। जब उसने कुत्ते को शिशिकारा तो वह एकदम से वहाँ से निकल भागा।
बलौरा दात्री पर रस्सा लपेट कर अँग्रेज़ की घर की ओर चल दिया। उन्होंने इस बार सारे घर पर सफ़ेदी करवायी थी, जिससे बलौरा को उसके चैबारे पर बहुत बड़े झण्डे का हवा में हिलने का एहसास होता रहा। कट्टे को खूँटे से खोलकर, गड्डे से पानी पिलाने लगा। उसके कान पर लगे पोर जितने मोटे भूरे चिचड़ को पकड़कर दबा दिया, ‘आज चारे की कितनी ढेरी लेकर आनी हैं भाई।’
‘छी...’ स्प्रे की टंकी को काटकर बनाये डिब्बे को रेत से माँजते हुए अँग्रेज़ बाड़े से आते हुए बोला, ‘इस बार कौन-सी फसल तैयार करने के बारे में सोच रखा है...। कमबख्त क्या खाता है आजकल, निखरता ही जा रहा है इतना...।’
‘पेट भर जाये बस किसी तरह से, इतना ही काफ़ी है।’’ कट्टा नीम के पत्ते नोंचने लगा तो बलौरा उसे खींचकर गाड़ी की ओर ले आया, ‘.ध्ाान लगाने का सोचा हैं।’ डुक...डुक....डुक....।’ गाड़ी उसके किनारे पर रखकर उसने कट्टे़े की नथ ठीक की जो एक ओर को ढलक आयी थी।
‘ध्ाान...’ का नाम सुनकर अँग्रेज़ उसकी ओर एकटक देखने लगा। वही बात हुई, जिसका डर था। रात को ही अँग्रेज़ के दिमाग में यही बात आयी थी, ‘अगर बलौरा ने भी इस बार अपने खेत में ध्ाान का झाड़ लगा लिया, फिर तो मुश्किल हो जायेगी। अगर यह नरमा की चार पट्टी रोप ले, तब भी इसके खेत की पानी की बारी मेरेे खेत में लग सकती है। ध्ाान की फसल तो एकदम तैयार खड़ी है। अगर यह नरमा लगा ले, वो तो साला जुआ है। अगर बारिश की बूंदों से नरमा दो बार भुड़क गया, फिर खुद ही पैसे टके के लिये हाथ फैलायेगा। बस, इसके फैले हाथ को, हाथ के अगूँठे पर नीली स्याही लगाकर ही काटा जा सकता है। चलो कोई नहीं, करता हूँ कोई जोड़-तोड़....।’
कट्टेे ने गाड़ी का जुआ किनारे से नीचे फेंक दिया, उसकी आहट से अँग्रेज़ को होश आया और बलौरा को मशवरा देने के अंदाज़ के तौर पर बोला, ‘सुना तूने, रेडियो वाले क्या कहते हैं, बड़ेे समझदार होते है भई रेेडियो वाले...। सरकार भी उनसे पूछकर ही बनती है। कहते है नरमा...इस बार हद-बँध्ो तोड़ देगा। चार पट्टी तू निकाल ले, क्यारियों में इसकी बुआयी कर लेे, देखना फिर कितनी मौज करेगा।’ बैठक के दरवाज़े़ के पास बने रोशनदान में हाथ मार कर ‘डीटीटी आलन लिफ़ाफा’ उठाकर बाहर ले आया। जिसे उसने नीम की जड़ में चींटियों के बिल पर बिखेर दिया, ‘दुखी कर रखा है इन्होंने भी...।’
बलौरा ने उसकी इस हरकत को नागावारी अंदाज़ से देखा। चींटियों के झुण्ड पर नसीबो रोज़ दोनों समय, मुट्ठी भर आटा डालकर परिवार की खैर माँगा करती थी। डीटीटी पाउडर बिखेरते हुए अगर अँग्रेज़ बलौरा की ओर देख लेता तो शायद ऐसा न कर पाता। अँग्रेज़ अपनी ही ध्ाुन में बोला, ‘ध्ाान से पूरा नहीं पड़ेगा। नित तेल फूँकना आसान है क्या।’ बात करते हुए उसने आँख उठाकर देखा तो बलौरा उसे ही घूर रहा था। उसकी ऐसी नज़र देखकर अँग्रेज़ को अपनी बात की हत्तक महसूस हुई। इस एहसास से उसका स्वर रुखा हो गया, ‘छोटे-मोटे लोगों की औकात नहीं है, ध्ाान लगाने की...। क्यारियाँ छोड़कर-छोड़कर भागने लगेंगे।’
बलौरा को अँग्रेज़ की आखिरी बात काँटे-सी तीखी चुभ गयी। सीने में लगी आग के कारण उसने रस्से को इतने ज़ोर से खींचा कि उसकी हथेली में टीस होने लगी।
आँगन में बैठी डण्डे से कपड़े पीटती मूरती ने भी लगते हाथ गवाही भरी, ‘कफ़न के लिये जाटों के पास पैसे नहीं, वह भी अगूँठा लगाकर आढ़तिये से लाने पड़ते हैं।’ कहते हुए उसने आँखों में साबुन न चला जाये, इसलिये आँखें थोड़ी-सी मूँद ली।
वे दोनों पति-पत्नी उसकी चाहत को घेरकर खड़े थे।
बलौरा ने कट्टे़े के ऊपर से परे थूक दिया। उसका मन ठिकाने पर आ गया। बोला, ‘करता हूँ कोई राय फिर...।’ मुँह से टिच की पटाक्-सी आवाज़ निकाली तो कट्टे ने फिर कान से, गर्दन झुकाकर गाड़ी का जुआ फेंक दिया। बलौरा उसकी जोत बाँध्ाना भूल गया था।
‘राय तो नंगे करते हैं, ट्रैक्टर से लेकर सारे औजार तक सब कुछ इस घर में तेरे लिये है। परमात्मा का दिया सब कुछ है यहाँ। वैसे भी ये सब कुछ तुझे रखने के लिये नहीं दे रहा, इस्तेमाल कर लेना, जो भी करना है। कोई चीज़ घिस तो न जायेगी। आखिर में सब मिट्टी ही हो जायेगा।’ मूरती ने कुरते को साफ़ पानी में भिगोकर, घुटनों में दबाकर उसका पानी निचोड़ते हुए कहा, ‘हमें तो भाई, भरोसे का आदमी चाहिये। दुख-सुख के समय पीछे से घर की हर शै-वस्त संभाल सके।’
‘बापू की मौत के बाद कहीं साक-रिश्तेदारी में जा ही नहीं पाया। गले में पड़ा गृहस्थी का फँदा कभी ढ़ीला ही नहीं होता। भगवान की जो भी अच्छी-बुरी लीला हो, लेकिन अगर चार भाई हो तो सब मीठा हो जाता हैं, बलौरा सियां।’ उसने टखने पर चढ़े कीड़े को टांग हिलाकर झाड़ दिया, जिसने अचानक उसे काट लिया था।
यह कीड़ा चींटियों के झुण्ड से निकलकर मानो उससे बदला लेने आया था। बलौरा ने फिर सख्ती से उसकी ओर देखा, ग़लती खुद करके उसे भगवान की लीला कहना अच्छा न लगा। चुपचाप खड़े रहकर बलौरा उसकी बकवास और सफाई सुनता गया। फिर उसने जल्दी से कट्टेे को गाड़ी में जोत लिया।
जाते समय मूरती ने उसे लस्सी का गिलास भरकर थमा दिया। उसने गिलास को पूरे ध्यान से देखा और उस पर मलाई की परत देखकर उसका मन अति प्रसé हो गया। गाड़ी में पड़े झोले से बाहर झाँकती मटकी से नज़र मिलाकर बोला, ‘यार छबीले, देख रहा है न फिर मीनाकारी। कड़कपन ढ़ीला लग रहा है...। वैसे एक बात बताऊँ..., जिन लोगों का ज़मीर नहीं बिकता, उनके बर्तन बिक जाते हैं।’ लस्सी पीते हुए उसने तन्दूर पर ऊपर तक भरे बर्तनों के टोकरे की ओर देखकर मन में सोचा,
‘‘मुझे लगता है, इनके पास केवल बर्तन ही हैं....।’’
खाली गिलास में जब मूरती ने लस्सी के दो घूँट बचे देखे तो अचकचाकर पूछने लगी, ‘अरे बलौरा, पानी हो या दूध्ा...तुम जूठा घूँट क्यों छोड़ते हो...?’
उसने रौब से भरे शान्त चेहरे पर हाथ फिराकर, ध्ाीरज से जवाब दिया, ‘ये तो भाभी सम्पé आदमी की निशानी होती हैं।’ कट्टेे को खेतों की ओर ले जाते हुए उसने कहा, ‘यह जूठ नहीं, किसी और जीव का रिज़क भी होता है।’
‘रिज़क...।’ मूरती ने परेशान होकर उसकी कही बात को मन में दोहराया और निगाह अँग्रेज़ की जूठी बाटी की ओर चली गयी, जो ऐन खाली थी। एक भी मक्खी उस पर नहीं बैठी थी लेकिन बलौरा के जूठे गिलास में तीन-चार मक्खियाँ भिनभिनाती हुए अन्दर-बाहर निकल रही थी।
रिज़क वाली बात जल्दी ही मूरती की समझ में आ गयी।

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