20-Jun-2021 12:00 AM
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लिंगो का अंगा
मध्यप्रदेश के आदिवासियों के कलात्मक अभिव्यंजना पर विचार करना निश्चित ही एक बड़े क्षेत्र विचार करना है। जैसा कि पहले भी कहा गया है, मध्यप्रदेश हिन्दुस्तान में न सिफऱ् सबसे ज़्यादा आदिवासी जनसंख्या रखता है, साथ ही अनुसूचित आदिवासी समुदायों का भी एक बड़ा हिस्सा यहाँ रहता है। उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति न सिफऱ् उनके मिथकों की मान्यता और सामुदायिक कर्मकाण्डों से आते हैं, बल्कि जिन्हें हम सांसारिक और अलंकारिक प्रयोजन कहते है, वे उनसे भी प्रेरणा पाते हैं। इसके अतिरिक्त ये आविर्भाव न सिफऱ् उनके ज्ञान के सांसारिक क्षेत्र हैं, बल्कि उनके औज़ारों और अस्त्र-शस्त्र को भी दर्शाते हैं और दैनिक भौतिक उपस्थिति के इस्तेमाल के साध्ान भी हैं। यहाँ कुछ हैं जो परम्परा में ध्ाँसे हुए हैं और कुछ दूसरे हैं जो आदिवासी कलाकारों के सीध्ो अनुभव से उपजे हैं। फिर, कुछ काम जो कि आदिवासियों द्वारा नहीं बनाये गये हैं, किन्तु साथ में रह रहे सहभागी समुदायों के कलाकारों द्वारा बनाये गये हैं जो उनके लिए हैं, जिसे हम मौटे तौर पर आदिवासी कला ही मानेंगे, जैसा एल्विन ने इसकी तरफ ठीक ही इशारा किया है।
पूर्व में लिखित पाठ में हमने कोशिश की है कि कला की स्वायत्तता की स्थापना करें और आदिवासी कला की ख़ासतौर पर, और हमने उन तत्त्वों को रेखांकित किया है जो अनन्त हैं, जिसके कारण यह सब हमारे लिए प्रासंगिक है। जो कुछ भी इसके प्रेरक घटक हैंः कथात्मक अभिप्राय या आदिवासी कलाकार का प्रतिनिध्ाित्व करने वाली शक्तियाँ, हम उनकी सृजनात्मकता में प्रासंगिकता पाते हैं जो इन कारणों से परे है। उनके ऊपर विचार करने पर, प्रभामण्डल की तरह चिपक जाने पर, और उन्हें जीवन के रस से तरबतर और सींचने पर जो उन्हें परिभाषा और व्याख्या के क्षेत्र से निकाल विस्मय के सन्तुष्ट कर देने योग्य क्षेत्र में ले आती है। जैसा भी हो, हमें ख़ासतौर पर इसके विशिष्ट, और प्रासंगिक पक्ष को देखना चाहिए, केवल जिसके सहारे यह सार रूप में अपनी अभिव्यक्ति पाता है।
यद्यपि वे आशय जो कलाकृतियों से नहीं उठते हैं किन्तु जिनके अर्थ मिथकों में हैं, कर्मकाण्डों और जादुई प्रक्रियाओं आदि में हैं, हमें उनके सम्बन्ध्ाित स्रोतों का सहारा लेना होगा। यह हमारी ‘समझने’ की कोशिशों में मदद कर सकता है जो इनकी कला और सामाजिक साँचों को जिसमें से ये उपजे हैं, उसे समझने में सहायता करेगा।
जो भी हो, इस तरह की समझ हमारे देखने को बाध्ाित न करेः हमारा उद्देश्य सामाजिक या नृतत्त्वशास्त्रीय अध्ययन नहीं हैं; हमने अभी तक अपने को आदिवासी समुदायों केे सामाजिक, आर्थिक, सम्बन्ध्ाों अध्ययन के लिए नहीं, लगाया है, और इस कारण कला को हम एक पक्ष की तरह विश्लेषित करेंगे, जो विश्लेषण और घटाने की प्रक्रिया के रास्ते शायद हमें उस समझ तक ले जाये। यहाँ यह अनावश्यक है कि आदिवासी कलाकार पारिभाषिक शब्दावली नाम पद्धति को जानता है और यह समझता है कि कला का सृजन किया जाये या नहीं; हालाँकि जैसा हम पाते हैं और जैसा वह है, हम अनुभव के उसी कुँए से पानी भर रहे हैं।
लेवि स्ट्राॅस कलात्मक सृजन में प्रासंगिकता की भूमिका के बारे में कहते हैंः ‘‘कलाकृति के लिए किसी अवसर पर इसकी कोई भूमिका हो सकती है या कलाकृति के निर्माण में या उस कारण जिसके लिए यह साभिप्राय बनाया गया है।’’ किन्तु वे यह भी कहते हैं, ‘‘कला का कोई भी रूप, किसी भी सीमा तक, अपने नाम के योग्य नहीं है। यदि वह इसकी छूट देता है कि वह बाहरी प्रासंगिकता के आध्ाार पर, भले ही अवसर या कोई और कारण उसके लिए हों तभी पूरी तरह प्रकट होता है। यदि वह करता है तब वह एक प्रतिमा (नमूने का परिपूरक) या एक अस्त्र-शस्त्र की तरह है (जिन वस्तुओं से वह निर्मित किया गया है)। सबसे ज़्यादा व्यवसायिक कला भी हमें प्रभावित करने में तभी सफल होती है जब वह प्रकरण के पक्ष में संभाव्य के दुराचार को समय में क़ैद कर देती है और काम में उसे शामिल कर लेती है, इस तरह वह कलाकृति होने का गरिमामय दर्जा हासिल कर लेती है। अब तक पहले की कला, आदिम कला और ‘आदिम’ समय व्यवसायिक कला के ही हैं जिनमें सिफऱ् तारीखें नहीं हैं, वे अपने बनने और इस्तेमाल होने देने की आकस्मिकता के समर्पण के लिए शुक्रगुज़ार दिखाई देती है, जिन्हें वे पूरा करने की कोशिश करते हैं। अपने कुछ कच्चे स्वीकृत तत्त्वों, जैसे प्रयोगसिद्ध सामग्री जो कुछ अर्थवान है, के साथ।’’1
यहाँ यह सम्भव नहीं है कि मध्यप्रदेश के आदिवासियों के कला के सभी पक्षों को समेट लिया जाये। निश्चित ही अलग-अलग कि़ताबों की ज़रूरत है। न सिफऱ् विभिé आदिवासी समुदायों के लिए बल्कि विभिé माध्यमों में उनकी कलात्मक ध्ाारणाओं के विशिष्ट अभिव्यंजनाओं के लिए भी।
पेड़ के नीचे पत्थरों के टुकड़े जमे हुए रखे हैं और लकड़ी और पत्थर के खम्भे, भाले और झण्डियाँ, मोरपंख, ताड़ के वृक्ष की तरह सजाये गये खम्बे के सबसे ऊपरी हिस्से पर (गोंडों की चण्डी) या एक झाड़ी के रूप में जिसमें ऊपर ध्ाातु का एक मुकुट लगा है (अबूझमाड़ के कोलादेव) लगाये गये हैं और नदी के तट से लाये गये, पाॅलिश किये गये पत्थर रखे हैं और उसके ऊपर एक और रखा है (शिव) देवता की तरह। यह और क्या है, पर्यावरण में नाममात्र का एक शिल्प? तराशी गयी मूर्तियाँ लकडि़यों और पत्थरों में बनायी गयी हैं, जैसे कि अंगादेव, बस्तर के आदिवासियों का कुलदेवता, या लकड़ी की बनी मूर्ति दूल्हे को ले जाती दुल्हन कोंडागाँव, बस्तर से, और पत्थर की वह खड़ी आकृतियाँ, बस्तर के गाँव से या पत्थर की उत्कृष्ट मातृका, बंजारिन देवी और बूढ़ी माता मण्डला से। रायगढ़ के अगरियाओं द्वारा लोहे को पीटकर बनाये गये शिल्पों की आकृतियाँ और दन्तेवाड़ा के माडि़या लुहार और रायगढ़ के लुहार अपने आदिवासी संरक्षकों के लकड़ी के मुखौटे, टेराकोटा के और तुम्बी के। त्यौहारों के अवसरों पर किये जाने वाले कर्मा या अन्य नृत्य के दौरान इस्तेमाल होने वाले। और टेराकोटा में कुम्हारों द्वारा अन्तहीन प्रकार के कबेलू का सृजन किया गया है। आदिवासियों के चढ़ावे के लिए या खुद आदिवासियों द्वारा बनाये गये। दरवाज़ों को अलंकृत ढंग से तराशा गया है और मिट्टी के रिलीफ़ झोंपडि़यों की दीवारों पर बनाये गये हैं। दीवारों पर आव्हान करने वाले अमूर्त ज्यामितिक रूपाकार, सरगुजा के पण्डों से लेकर ध्ाार-झाबुआ के भील और भिलालाओं के अनुष्ठानिक चित्र पिठौरा तक। सुरुचि पूर्ण कंघे प्यार की निशानी की तरह मूडि़याओं द्वारा लकड़ी में तराशे गये और बैगाओं द्वारा एक दूसरे में फँसे घास के छल्लों द्वारा बनायी गयी लडि़याँ जिन्हें बैगा औरतें अपने बालों को सजाने के लिए पहनती हैं। माडि़या और कोरकुओं द्वारा मृतकों की स्मृति में बनाये गये लकड़ी के स्मारक इसी तरह भीलों द्वारा बनाये गये पत्थर की गाथा। बस्तर से गढ़वा पीतल के शिल्प पूरी दुनिया में जाने जाते हैं और रायगढ़ के झाराओं द्वारा बनाये गये शिल्प भी समान स्वीकृति के पात्र हैं। और निश्चित ही, गोदने की विशिष्ट कला भी है, जो आदिवासी औरत की पोशाकों से अलगायी नहीं जा सकती। प्रदेश में आदिवासी कला की पूँजी असीम है।
कलात्मक अभिव्यक्ति के नये इलाके भी हम लोगों ने पता लगाये हैं, ख़ासतौर पर चित्रकला के क्षेत्र मेंः हमने उन्हें रंगों की पूरी श्ाृंखला से परिचय कराया। जो परम्परा से इस्तेमाल में नहीं है और रेखांकन और चित्र बनवाये। जिनके बनाये जाने का कोई प्रमाण नहीं है। हमने, कहने को निष्क्रिय प्रतिभा को जगाया या ग़ायब हो चुके या ग़ायब हो रही अभिव्यक्तियों के तरीकों को पुनर्जीवित किया। शुद्धतावादी हमारी इस पहुँच पर उँगुली उठा सकते हैं, हमने आदिवासी कलाकारों से बन्द कोठरियों में रह रहे कलाकारों की तरह व्यवहार नहीं किया। उदाहरण के लिए मण्डला के पाटनगढ़ से परध्ाान, ख़ासतौर से जनगण सिंह श्याम, जो अपनी झोंपडि़यों की दीवारों पर मोटी रेखाओं और सपाट रंगों के सहारे अनूठे चित्र बनाया करता था, को जब एचिंग के माध्यम से परिचय कराया, उसने नोंक से बनी तीखी रेखाओं की सम्भावनाओं को खोजा और कलम और स्याही से अविस्मरणीय रेखांकनों की एक श्ाृंखला तैयार की। ठीक इसी तरह, मूडि़या बैलगूर चित्र बनाना चाहता था, जो उसने पहले कभी नहीं किया था, वह विचित्र गठनहीन आकारों के साथ निकल आया जो कुछ प्वाइन्टलिज़्म तरीके से बनाये गये थे, जो किसी भी तरह से उसके अस्तित्व के क्षेत्र में बाहर के वातावरण से नहीं उठाये गये थे। या लालदर पाट, बलादर पाट और पेण्ड्रा पाट रायगढ़ जिले के पहाड़ी कोरबाओं द्वारा काग़ज़ पर बनाये गये छटपटाहट के विचित्र अनुभव या भील औरत भूरीबाई के रेखांकन और चित्र जो भोपाल में दैनिक मज़दूरी पर काम करती है।
इस निबन्ध्ा में हम सिफऱ् कुछ पक्ष जो हमारे इर्द-गिर्द गम्भीरता से प्रकट हो रहे हैं पर बात करेंगे।
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बस्तर की नारायणपुर तहसील के सैमूर गाँव के देवालय में सबसे पुराना लिंगों का अंगा मौजूद है। यह गाँव नारायणपुर कस्बे की पश्चिमी पहाडि़यों की तहों में मौजूद है और उसी तरह के पक्षों को लिये है जैसा शायद वैरियर एल्विन ने देखा था। बस्तर की पुरानी पौराणिक कथा के अनुसार, जैसी एल्विन के द्वारा दर्ज की गयी थी और जिसे नवल शुक्ल, एक शोध्ाकत्र्ता जो म.प्र. आदिवासी लोककला परिषद के साथ काम कर रहा है, ने हाल ही में प्रमाणित किया है, जिसे उन्होेंने बस्तर की तहसील बीजापुर के गाँव-प्रध्ाान पामेर से सुना थाः
‘‘एक बूढ़ा आदमी और औरत के सात बच्चे थे। इनमें से वे सबसे छोटे को ख़ास प्रेम करते थे। छः बड़े भाई शादीशुदा थे, किन्तु सबसे छोटे की पत्नी नहीं थी। वह रोज़ शिकार पर जाता था और शाम को घर आकर के खेलता था; जल्दी ही बड़े भाइयों की छहों पत्नियाँ उसके प्रेम में पड़ गयीं और उसे घर के बाहर झूले में झूला झुलाती थीं।
‘‘एक दिन छहों बड़े भाइयों ने कहा, ‘हम लोग रोज़ खेतों में कठोर परिश्रम करते हैं और यह व्यक्ति कुछ नहीं करता।’ यह सुनने पर, सबसे छोटा भाई सुबह जल्दी उठा और अपने भाइयों के जागने के पहले बैलों को लेकर खेतों में चला गया। जब वे उठे और उन्होंने देखा कि बैल जा चुके हैं, वे जल्दी-जल्दी खेतों में पहुँचे और देखा दो बार हल चलाना पूरा हो चुका है। उन्होंने अपने बैल लिये और अपने-अपने खेतों में चले गये।
‘‘छहों पत्नियाँ दोपहर का खाना लेकर के आयीं और उन्होंने पहले सबसे छोटे भाई को खिलाया। जब वह खाना खा चुका तो वह नियम के अनुसार अपना वाद्य बजाने लगा। वे छहों औरतें बैठकर संगीत सुनने लगीं और पूरा होने पर जो खाना बचा था अपने पतियों के लिए ले गयीं। जब उन्होंने यह देखा, बड़े भाइयों ने हल चलाने जाने से उसे रोक दिया और घर में ही रहने को कहा। किन्तु घर में भी लड़का संगीत बजाता था और औरतें बैठकर सुनती थीं, और इस कारण उनके पतियों को खाना ले जाने में देर होती थी।
‘‘अन्त में सबसे बड़े भाई ने कहा, ‘यह बदमाश है, इसे हम बाहर निकाल दें।’ उन्होंने उससे कहा, ‘निकल जाओ, दूर चले जाओ।’ लड़का जंगल में चला गया; वहाँ उसने देखा वटवृक्ष पर एक चिडि़या बैठी है। उसने चिडि़या की तरफ निशाना साध्ाा और उसके शरीर में एक पत्ती घुसा दी, जिससे कि चिडि़या और पत्ती दोनों साथ में ज़मीन पर गिर पड़े। इस पत्ती पर लिखा था, ‘जब पत्ती और चिडि़या एक साथ गिरेंगे, शिकारी राजा बनेगा।’ जब उसने यह पढ़ा लड़का पत्ती और चिडि़या को लेकर आया और अपने भाइयों को दिखलाया, उन्होंने कहा, ‘भले ही तुम राजा हो, परन्तु हम तुम्हें अपने घर में नहीं चाहते हैं। निकल जाओ।’
‘‘लड़का फिर से जंगल में चला गया। और चलता ही गया, चलता ही गया, चलता ही गया, अन्त में एक पहाड़ी पर उसे एक बाघ मिला जो हल जोत रहा था। जिसके हल के जुए में दो हाथी जुते थे। लड़के ने कहा, ‘तुम निश्चित ही विशिष्ट व्यक्ति हो जिसके हल में हाथी जुते हैं’। बाघ ने कहा, ‘नहीं, मुझसे भी महान एक है; वह लिंगो है’। फिर लड़के ने कहा, ‘किन्तु मैं लिंगो हूँ’। बाघ ने कहा, ‘मैं कैसे मानूँ यह? यदि लिंगो मुझे द्वन्द्व-युद्ध में हरा दे, तब मैं उसे लिंगो की तरह जानूँ।’ फिर दोनों के बीच द्वन्द्व हुआ और बाघ को फेंका गया, और वह लड़के का सेवक बन गया।
‘‘और फिर वे आगे चलते गये, चलते गये, चलते गये उस जंगल में जब तक कि उन्होंने सड़क के बीच एक विशाल राक्षस को लेटे हुए नहीं पाया जिसका मुँह खुला हुआ था; उसकी ठोढ़ी ज़मीन पर थी और उसका सिर आसमान में था। बाघ ने लड़के से कहा, ‘यदि तुम इस राक्षस को पार कर जाओगे तब तुम सचमुच राजा होंगे।’ किन्तु लिंगों ने कहा, ‘मैं कैसे पार जा सकता हूँ? मैं सिफऱ् एक लड़का हूँ।’ बाघ ने कहा, ‘एक तीर हवा में चलाओ, जब वह आसमान में ही हो तब उसे दूसरे से बीध्ा डालो और फिर एक दूसरा उस पर चलाओ, और फिर एक दूसरा, और फिर एक दूसरा, जब तक कि तीरों की एक सीढ़ी न बन जाओ, जिस पर चढ़कर तुम उस पार जा सकता हो।’ तब उस लड़के ने अपना ध्ानुष उठाया और एक के बाद एक तीर छोड़े जैसा बाघ ने कहा था। उसने अपने कमर पर एक रस्सी बाँध्ाी और बाघ उससे चिपक गया, वह फिर तीरों की इस सीढ़ी से महापूरब की ओर चढ़ गये।
‘‘बाघ ने लिंगो से कहा, ‘वहाँ महापूरब बैठा हुआ है; जाओ और उससे मिलो’। तब लिंगो वहाँ गया और महापूरब को जोहार किया और कहा, ‘वटवृक्ष की पत्ती पर यह लिखा हुआ था कि मैं राजा बनूँगा, किन्तु यह कैसे हुआ?’ महापूरब ने कहा, ‘पहले तुम जाओ और बारह वर्ष प्रायश्चित्त में गुज़ारो। एक अकेली पहाड़ी पर अकेले रहो और मेरे सम्मान में अपना संगीत बजाओ। तब तुम राजा होंगे और मैं अपनी बेटी को तुम्हें पत्नी की तरह दूँगा। किन्तु पहले तुम्हें उस राक्षस को मारना है।’
‘‘लिंगो आकाश से नीचे आया और उसने हज़ारों तीर राक्षस पर छोड़े जिससे वह गिर गया। फिर वह दूर चला गया एक अकेली पहाड़ी पर घर बनाया, जहाँ पर वह अठारह वाद्य यंत्रों को एक साथ बजाता था। यह ध्वनि सुनकर आसपास के गाँव के लड़के-लड़कियाँ वासना से भर गये और उसकी तरफ दौड़े और हर रात को वे सोने और खेलने उनके घोटुल में आने लगे, जिसे लिंगों ने बनाया था।
‘‘हर दिन लिंगो अपने माता-पिता के घर खाना खाने जाता था। माता-पिता ने अपने बहुओं से उसके लिए उत्तम भोजन का प्रबन्ध्ा करने को कहा, और पूरे प्यार के साथ उसे हर चीज़ दी। उसके सारे भाई फिर से ईष्र्या से भर गये और उससे कहा उनके खेतों में हल जोतने के लिए। तब लिंगों ने दो भैंसे लिये और उन्हें अपने कौपीन से हड़काता हुआ ले चला। फिर वह नंगा ही उस पाट पर चढ़ गया और मिट्टी के ढेलों को तोड़ने के लिए भैंसों को बाँध्ाकर खेतों के चारों तरफ घुमाने लगा।
‘‘जब वह भैंसों को वापस ला रहा था। उसकी मुलाक़ात अपनी भाभियों से हुई, जो उसके लिए खाना ला रही थीं... वह पाट से नीचे उतरा, कपड़े पहने और एक घण्टे तक उनका मनोरंजन करता रहा और औरतों को फिर देरी हो गयी।
‘‘छहों भाइयों ने एक दूसरे से कहा, ‘निश्चित ही यह आदमी हमारी स्त्रियों के साथ कुछ शैतानी करता है, नहीं तो क्यों उन लोगों को देरी होगी?’ उन्होंने कहा, ‘इन स्त्रियों को देरी से आने के लिए हम लोग मारेंगे’। अब ये औरतें घबरा गयी थीं और उन्होंने अपनी छातियों को काँटों से छीला और अपने सिर पर ध्ाूल फेंकी, और वे सो गयीं। जब उनके पति लौटे, उन्होंने पाया कि घर ख़ाली है और खाना तैयार नहीं है, किन्तु उनकी स्त्रियाँ ज़मीन पर सोई हैं, जब उन्होंने उनको उठाया और पूछा कि क्या माजरा है, उन स्त्रियों ने जवाब दिया, ‘देखो उस दुष्ट ने हमारे साथ कैसा बर्ताव किया है, क्योंकि वे लिंगो से इस बात के लिए नाराज़ थीं कि उसने उनके साथ संभोग नहीं किया।’’
‘‘भाइयों ने दो बार लिंगो को मारने की कोशिश की थी किन्तु निष्फल रहे, तब उन्होंने एक दूसरी युक्ति अपनायी।
‘‘इस बार छहों भाइयों ने एक दूसरे से कहा, ‘हम लिंगो से कहेंगे कि वह क़सम खाये कि हमारी पत्नियों के साथ वह पवित्र था या नहीं। यदि वह कहता है वह था, तब हम उससे अग्नि परीक्षा के लिए कहेंगे। हम एक लोहे के कड़ाह में तेल भरेंगे, उसके नीचे आग लगायेंगे और जब तेल उबलने लगेगा उसमें हम उसे फेंक देंगे और ढक्कन बंद कर देंगे। यदि वह सच में पवित्र है, हम उससे कहेंगे, उस पर आग का कोई असर नहीं होगा’।
‘‘अगले दिन छहों भाइयों ने बारह गाँव के लुहारों को बुलाया और विशाल लोहे का कड़ाह और उसका ढक्कन बनाने को कहा। उसके नीचे उन्होंने आग लगायी, और उसमें तेल भर दिया। जब तेल गरम हो गया लिंगो उसमें बैठ गया और उन्होंने ऊपर से ढक्कन लगा दिया। जल्दी ही वह बहुत गरम हो गया कि कोई भी उसके पास नहीं पहुँच सकता, किन्तु अन्दर ठण्डा था और अग्नि से अठारह वाद्यों का संगीत भाइयों ने निकलता हुआ सुना।
‘‘तब छहों भाई डर गये। उन्होंने कहा, ‘तीन बार हमने उसको मारने की कोशिश की, अब वह निश्चित ही हमें मार डालेगा। अब हमें उसका चेहरा नहीं देखना चाहिए।’ और लिंगो ने उससे कहा, ‘आज के बाद मैं तुम्हारा चेहरा नहीं देखूँगा।’ सो आज तक लिंगोपेन का चेहरा उसके भाइयों से विपरीत दिशा में रहता है।
‘‘इस पौराणिक कथा के कई अन्त हैं। एक वर्णन में लिंगो आसमान में विलीन हो जाता है और भगवान की बेटी से शादी करता है। दूसरा उसका शादी कांकेर की ब्राह्मण लड़की से करवाता है, जो उसके माँ के भाई की बेटी है। ‘किन्तु जब लिंगो खेत पर जाता है और एक टुण्ड्रा उसे अपने प्रेम के जाल में फँसाकर दूर ले जाता है, उसका एक बच्चा है और वह लड़की उसे झूले में छोड़कर चली जाती है और जब बच्चा रोने लगता है लिंगो देखने आता है कि माजरा क्या है। वह पाता है कि उसकी पत्नी चली गयी है और उसके पदचिह्नों के पीछे-पीछे वह जंगल में जाता है और उसे एक गड्ढे में मार डालता है। सो लिंगो की पत्नी देवी बन जाती है और तेवड़ा में रहने चली जाती है। इसके बाद लिंगो सात स्त्रियों से विवाह करता है। एक तीसरा वर्णन है बैनूर का, जो लिंगो को वापस घोटुल में रहने भेज देता है। चारगाँव में कहानी यह है कि उसके भाई उसे मारने की बजाय उसे बाहर निकाल देते हैं और लिंगो सेमरा के निकट जंगल में अकेला चला जाता हैः वह कुर्लू वृक्ष के नीचे झोंपड़ी बनाता है और अपने वाद्यों को बजाते हुए वहाँ रहने लगता है।’’2
एक दूसरे आख्यान के अनुसार बस्तर के राजा डोकरा के पाँच बेटे थे और लिंगो उसमें सबसे छोटा था। चार भाइयों की शादी समर्थ डोकरा की चार बेटियों से होती है, जिनकी और सात अनब्याही बेटियाँ हैं। इनकी शादी वह लिंगो से करना चाहता है, किन्तु लिंगो मना कर देता है। लिंगो के भाई उनकी शादी की जि़म्मेदारी लेते हैं और दूल्हे की खोज में गाँव-गाँव भटकते हैं। कछुए की पीठ पर सवार ये लड़कियाँ, जो भी हो, इनकी कभी शादी नहीं होती और बाद में वे गाँव की देवियाँ बन जाती हैं, तालोरमुच्छ।
जब भाई बाहर गये हुए थे, उनकी पत्नियों को बच्चों की लालसा हुई। उन्होंने एक बड़ी ककड़ी ली और उसे झूले में रख दिया, जैसे कि वह एक बच्चा है, उन्होंने कादरेंगल (शिकार का देवता) को अपने पतियों की खोज में भेजा, जो तालोरमुच्छ के प्रेम में पड़ गया और अपना कार्य भूल गया।
जब भाई लौटे, उन्होंने पाया कि उनकी पत्नियाँ झूले से खेल रही हैं और उन्होंने समझा कि झूले में जो बच्चा है वह उनकी अनुपस्थिति में लिंगो से पैदा हुआ है। उन्होंने लिंगो को उबलते तेल में फेंक दिया, किन्तु लिंगो को कुछ नहीं हुआ। वह उसमेें से चमकता हुआ और दैदीप्यमान निकला। सातों लड़कियाँ यह देखकर आसक्त हो गयीं और उन्होंने फिर लिंगो से विवाह करने के लिए प्रार्थना की, किन्तु लिंगो ने उन पर अनुकम्पा नहीं की। उसने घर छोड़ दिया और वह बाहर निकल गया। जब वह सैमूर गाँव पहुँचा, वह अब और नहीं चल सकता था और उसने वहाँ शाश्वत समाध्ाि ली।3
लिंगो मूडि़याओं के लिए भगवान शंकर है और सबसे बड़ा देवता। लिंगो सृजनकत्र्ता और अंगा सृजित है। लिंगो अंगा में रहता है। अंगा के पास भी बस्तर के आदिवासियों के वंश-देवताओं का भण्डार है। अंगा का एक विशिष्ट रूप है, जो किसी प्रेरणा-प्राप्त कलाकार द्वारा बनाया गया है, और परम्परा द्वारा पवित्र किया गया है।
अंगा साजा ;ज्मतउपदंसपं ज्वउमदजवेंद्ध की लकड़ी का बनता है। तीन मजबूत खम्बों को आपस में जोड़ा जाता है। आड़े खम्बों से और उन्हें बाँध्ाा जाता है। मोरपंख के गुच्छे जोड़ों पर बाँध्ो जाते हैं। चाँदी के सिक्के दो खम्बों के ऊपर ठोक दिये जाते हैं, जो निश्चित ही अंगा को कन्ध्ाों पर उठाकर ले जाने के लिए बने हैं। बीच के खम्बे पर अंगा खुद बैठता है, जिसका अगला हिस्सा आगे की तरफ उठा हुआ है एक विचित्र कोण से, फिर पुनः उसे मोड़ा गया है खम्बे के समानान्तर एक सिर की शक्ल देते हुए, जो अंगा को आगे जाने की ज़बरदस्त कोशिश करता हुआ रूप है। एक चाँदी का साँप का फन सिर पर जोड़ा जाता है। चाँदी के कड़े खम्बे के दोनों तरफ ठोके जाते हैं, आगे के हिस्से में दोनों तरफ घण्टियाँ लटकायी जाती हैं, सूर्य और चन्द्रमा के प्रतीक चाँदी में बनाकर यहाँ लगाये जाते हैं। इन खम्बों पर ज्याॅमितिक अलंकरण तराशा जाता है। गहरे काले भूरे रंग से पाॅलिश किया जाता है, अंगा की उपस्थिति शक्तिशाली है। वह देखने वाले के ऊपर प्रभाव डालता है, और इसको उठाने वाले व्यक्तियों को हाल आ जाता है, वे इन्हें कन्ध्ो पर उठाये बड़ी तेजी से घूमते हैं, और आसपास देख रहे लोगों के भीतर आतंक फैलता है।
अंगा एक कलाकृति है। यदि आप जादुई शक्तियों पर भरोसा करते हैं। यह उसका प्रतिनिध्ाित्व करता है और उसकी मिसाल है, एक शिल्प की तरह यह आपसे कला के जादू की तरह मिलता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ ः
1. द सेवेज माइंड, क्लाॅड लेवि-स्ट्राॅस, द यूनिवर्सिटी आॅफ शिकागो प्रेस, 1973.
2. द मूडि़या एंड देयर घोटुल, वेरियर एल्विन, आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1947.
3. रेलोया रे रेलोया, हीरालाल शुक्ल, साँची प्रकाशन, भोपाल, 1982.
स्मारक खाम्ब
ध्ाार, कुक्षी के पास लुनेरा में हज़ारों भील आदमी, औरतें और बच्चे साल में एक बार इकट्ठा होते हैं, उस भील नायक की याद में जो किसी मुठभेड़ में मारा गया है और जिसकी गाथा की स्थापना की जा रही है। गाथा या स्मारक पट्टिका भीलों द्वारा उसकी स्मृति में लगायी जाती हैं जो किसी दुर्घटना या आकस्मिक मौत से मारा गया है। स्त्रियों के लिए लगायी जाने वाली स्मारक पट्टिका को सती कहते हैं। इस तरह की स्मारक पट्टिकाएँ भीलों के देहात में समूह के रूप में फैली पड़ी हैं और कहीं-कहीं निर्जन एकान्त में सड़क किनारे रहस्यमय सी दिखती हैं, किसी आम के वृक्ष के नीचे या महुआ के या वटवृक्ष के नीचे या कुँओं के किनारे। हालाँकि भील अपने चरित्र में बहुत ही व्यक्तिवादी होते हैं, अकेले घरों में रहते हैं। बिखरे हुए गाँव के घरों के बजाय, और इनकी जातीय स्मृति बहुत-से सामूहिक अनुष्ठानों के द्वारा जीवित है और गाथा और सती मृतक और जीवितों के बीच चाक्षुष कड़ी की तरह है। कोरकू जाति में लकड़ी के स्मारक खाम्ब लगाये जाने की परम्परा है और भैंसों के सींग वाले तथाकथित उनके दर्शनीय शिरस्त्राण के कारण प्रसिद्ध माडि़या भी लकड़ी के स्मारक बनाते हैं। कोरकू खाम्ब को शहडोली मुण्डा कहा जाता है और माडि़या को मुण्डा या खाम्ब। इन सबमें सबसे ज़्यादा विस्तार में काम किया हुआ यद्यपि अनगढ़ तराशा हुआ होता है, माडि़या खाम्ब है। ऊँचाई में लगभग बारह फीट, जबकि भील गाथा या सती चार से छः फ़ीट ऊँचे होते हैं।
भील अपने स्मारक पट्टिकाओं को खुद नहीं बल्कि हिन्दू जाति के मूर्तिकारों से बनवाते है, जो भी है कुछ कम या ज़्यादा, इनको भीलों के निर्देश पर ही उनकी इच्छा के अनुसार तराशा जाता है। इन स्मारक पट्टिकाओं में बनायी गयी मुख्य आकृति पारम्परिक रूप पहले से तय रहता है और सिवाय इसके कि जब कोई ग्राहक उसमें कुछ जोड़ना चाहे और तराशने वाला अपनी कल्पना से उसे प्रभावी बनाये। यह आकृतियाँ गाथा के लिएः एक घुड़सवार आदमी राजा की तरह कपड़े पहने बन्दूक और तलवार लिये ऊपर के हिस्से में और एक सईस घोड़े को नीचे पकड़े हुए खड़ा रहता है; एक स्त्री पानी लाते हुए और दूज का चाँद और सूरज; और सती के लिएः पारम्परिक वस्त्रों में खड़ी एक स्त्री होती है और उसके आभूषण एक बावड़ी के पास; छोटे बच्चे के लिएः छोटी गाथा बनायी जाती है जिस पर एक छोटे बच्चे की आकृति होती है जो हाथ जोड़े हुए है। इन गाथाओं पर रंग भी किया जाता है। पहले के समय में मिट्टी के रंगों का ही इस्तेमाल होता था, अब वे चमकदार एनेमल ;मदंउमसद्ध रंगों का इस्तेमाल करते हैं। मुश्ताक़ ने एक गाथा के बारे मेें बतलाया जिसमें एक बोतल और एक गिलास भी बना है और बताया जाता है कि मरने वाला भील शराबी था। एक दूसरी गाथा में एक मनुष्य बाघ से लड़ रहा है क्योंकि मरने वाला भील बाघ द्वारा मारा गया था। यदि मरने वाला भील ध्ानुर्विद्या का विशेषज्ञ है तब ध्ानुष और तीर हमेशा ही बनाये जायेंगे। कुछ जाने-माने गाथा तराशने वालों के नाम हैं- आनन्दराव चैध्ारी, भाम्बी कुक्षी से, लक्ष्मण भाई सरगाड़े कुक्षी से, नाथूबाई सरगाड़े बाघ से, कुन्दनलाल भूटा और मदनसिंह राठौर कुक्षी, ध्ाार से और मोहन माँगीलाल भाम्बी जोबट से।
कोरकू में शहडौली मुण्डा सागौन ;ज्मबजवदं ळतंदकपेए स्पददद्ध की लकड़ी से बनाया जाता है। मरने वाले के रिश्तेदार सुबह जंगल चले जाते हैं वृक्ष को चुनने के लिए और फिर उसके नज़दीक कुछ अनाज रखकर और उसके चारों तरफ ध्ाागा बाँध्ाकर उसे जगाते हैं। दूसरे दिन सूर्योदय पर, मृतक का परिवार, गाँव के अन्य सदस्यों के साथ उस पेड़ पर पुनः जाते हैं और मुर्गी की बलि चढ़ाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। पेड़ की एक शाखा काटी जाती है और उसे कपड़े के एक टुकड़े पर रखा जाता है उसे ज़मीन पर गिरने नहीं दिया जाता है। उसके ज़मीन पर गिरने की प्रक्रिया को अमांगलिक माना जाता है। लकड़ी को घर लाया जाता है और गाँव के बढ़ई से खाम्ब बनाने को कहा जाता है। मकड़ी, कुँआ, दूज का चाँद, सूरज, घुड़सवार, ओझा और ओझी (भोग्या और भोगी भी कहा जाता है) की आकृतियाँ तराशी जाती हैं। उसके बाद खाम्ब एक समारोह में ले जाया जाता है उस जगह, जहाँ मृतक को दफ़नाया गया है, और उसकी स्थापना की जाती है। एक बकरी की बलि दी जाती है और भोज दिया जाता है। यह मान्यता है कि मरे हुए का भूत पुनर्जन्म के लिए तभी मुक्त होता है जब स्मारक खाम्ब लगा दिया जाता है।
माडि़या स्मारक खाम्ब वृक्ष के पूरे तने पर बनाया जाता है और ज़्यादा विस्तार लिये होता है। कुल्हाड़ी से काटे गये खुरदरे, पेड़ सीध्ो खड़े किये जाते हैं, जिसके शिखर पर चिडि़या, त्रिशूल, घडि़याल के सिरों की आकृति तराशी जाती है या बफऱ्ी जिन्हें ऊपर क्राॅस की तरह लगाया जाता है। इन्हें लाल, नीला, पीला, हरा और सफ़ेद रंग पोता जाता है। खाम्ब के ऊपर से नीचे तक, चारों तरफ़ मरने वाले के जीवन से सम्बन्ध्ाित घटनाओं का चित्रण किया जाता है। रूपंकर के संग्रह में जो खाम्ब है, वह ख़ासतौर से बस्तर के किलेपाल गाँव से माडि़या ने संग्रहालय के लिए बनाया है, एक काल्पनिक मृतक की याद में है और उसमें निम्नांकित चित्रण हैः ऊँट, क्योंकि मूर्तिकार ने उसे किसी फि़ल्म में देखा था; गूज (मध्ाुमक्खी); स्त्री चावल की एक टोकनी और सल्फी ;ज्वककलद्ध का एक बर्तन लिये एक शादी में जा रही है; पहले का कोई मनुष्य; तोता और कठफोड़वा; दो बन्दर झगड़ते हुए; घोड़ा सवार के साथ; दो मछलियाँ; दो माडि़या शादी के लिए शराब ले जाते हुए; दो ढोलक दो माडि़या नर्तकियों के साथ; दो माडि़या नर्तक ढोल के साथ; हाथी पर बैठा हुआ एक आदमी एक हाथ में छाता लिये हुए दूसरे हाथ में उल्लू, एक साँप; भैंसासुर; गेंडा, जगदलपुर की एक फि़ल्म में देखा गया; केंकड़ा; बाघ; घडि़याल; चन्द्रमा; कछुआ; मुर्गी; मोर; कुत्ता; बिच्छू; बगुला; चावल बोने के औज़ार; मछली; ज़मीन जोतता मनुष्य, घुड़सवार उसके खेत को जाँचता हुआ; चीतल; लोमड़ी; संभोग करते कुत्ते; ढका हुआ बर्तन; बाघ का सिर।
माडि़या खाम्ब मृतक के जीवन के मूक गवाह हैं, सामान्य तौर पर इन्हें ऐसी जगह लगाया जाता है जहाँ इसे हर आने-जाने वाले उन्हें देख सकें और जीवन-मृत्यु के गूढ़ प्रश्नों पर मनन कर सकें। उनमेें से कई स्वप्रेरणा से तराशे गये हैं, जो कि श्रद्धायुक्त हैं। उनका बैलूरपन उन्हें जीवनदायी कलात्मक शक्तियों से वसीयत करता है।
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गढ़वा और झारा
परिवार का सबसे युवा और सबसे आलसी लोककथाओं की दुनिया में निश्चित ही विलक्षण भी होगा, होरो झारा, रायगढ़ के बैगान्दी गाँव में पीतल की ढलाई करने वाला होरो झारा हमें यह बतला रहा थाः एक समय में बारह भाई जंगल के एक साफ़ क्षेत्र में एक साथ रहते थे। जब सारे भाई मेहनत कर रहे थे सबसे छोटा भाई आलसी और गँवार था और कुछ नहीं करता, घर पर बैठा रहता। भाइयों की सारी समझाइशों और खुशामदों का भी उस पर कोई असर नहीं होता। एक दिन जब भाइयों ने गुस्से से उसे डाँटा, वह रोने लगा और उसके मुँह से लार ज़मीन पर गिरी। ज़मीन गीली हो गयी। वह उसे गूँथने लगा और लक्ष्मी की एक आकृति बनायी। उसका एक भाई जंगल में पत्तियाँ इकट्ठा करने गया, दूसरा भेड़ को चराने ले गया, जबकि तीसरा नदी को गया और रेत में से पीतल के टुकड़े बटोरकर लाया। जब अगले दिन सारे भाई काम के लिए बाहर चले गये, सबसे छोटे ने सोचा कि उसे मिट्टी की इस आकृति को पीतल मेें ढालना चाहिए। उसने अपने भाइयों से बकरी देने को कहा, जिसे उसने मार दिया और उसकी चमड़ी से ध्ाोंकनी बनायी। फिर उसने आग जलायी और अपनी मूर्ति को पीतल में ढाला। चूँकि वह ध्ाातु में ढालने वाला पहला व्यक्ति था इसलिए उसे ढारा कहा गया। समय के अन्तराल में ढारा झारा बन गया और इस तरह झारा अस्तित्व में आया।
रसेल और हीरालाल कहते हैं, सोन झारा या झारा गोंडों के ही वंशज हैं और सम्भवतः उन्हें सोनझारा इसलिए कहा जाता है कि किसी समय वह नदी के पाट की रेत में से सोना इकट्ठा करते थे।1 जो भी है, रायगढ़ के झारा सोनझारा से किसी भी तरह का सम्बन्ध्ा नकारते हैं और कहते हैं कि वे ओडि़या मलार के वंशज हैं। मलार भी कहा जाता है कि गोंड के वंशज हैं, तो इस तरह झारा और सोनझारा के बीच कोई सम्बन्ध्ा हो सकता है। होरो के द्वारा बतलायी गयी कहानी में, एक भाई नदी के पाट पर रेत से पीतल इकट्ठा करने जाता है। यह शायद उसी कड़ी की तरफ इशारा है। बस्तर के गढ़वाओं के विपरीत झारा घुमक्कड़ समुदाय है और हाल ही में गाँव में रहना शुरू किया है। गढ़वाओं का पीतल का काम सभी जगह जाना जाता है, झारा का काम इन्हीं दिनों प्रकाश में आया है शायद रूपंकर के प्रयासों के कारण। ढालने की पद्धति झाराओं की गढ़वा के समान ही है। जबकि उनकी आकृतियाँ गढ़वाओं से स्पष्ट अन्तर लिए है। पद्धति, इनकी ध्ाुँअन की पद्धति है, या मोम के नष्ट होने की पद्धति, जिसे ढोकरा पद्धति की तरह भी जाना जाता है। झारा मध्ाुमक्खी का मोम का इस्तेमाल नहीं करते जैसे गढ़वा करते हैं किन्तु ध्ाँुअन का करते है, सराय ;ठवेूमससपं ैमततंजंद्ध वृक्ष से निकले हुए गोंद का और वे मोम के बारीक ध्ाागे बनाने के लिए छलनी का भी इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि वे उसे अपने हाथों से बनाते हैं। ध्ाुँअन को तेल के साथ मिलाया जाता है और फिर पीतल के बर्तन में एक ख़ास गाढ़ेपन तक उबाला जाता है। इसके बाद उसे कपड़े से छानकर उसे ठण्डा करने के लिए एक दूसरे बर्तन में भरा जाता है, जो पानी से भरा हुआ रहता है। किनारे बारीक पिसी मिट्टी से बनाये जाते हैं और फिर उन्हें छाँव में सुखाया जाता है। जब यह पूरी तरह सूख जाता है, ध्ाुँअन को गरम करके लचीला बनाया जाता है, फिर उसे चारों ओर लगा दिया जाता है। सजावट और ज़रूरी जोड़ ध्ाुँअन में बनाये जाते हैं औैर फिर जोड़ दिया जाता है। झारा इस ध्ाुँअन को अपने हाथों से खींचकर मोटे ध्ाागे की तरह बना लेते हैं। बारीक मिट्टी की एक परत गोबर के साथ मिलाकर इस ध्ाुँअन के ऊपर चढ़ायी जाती है। मिट्टी का बना एक कटोरा एक तरफ जोड़ दिया जाता है और इस तरह साँचा तैयार किया जाता है। यह कटोरा ध्ाातु को रखने के लिए है। जब साँचा पूरी तरह से सूख जाता है उसे आग में उलटा रख दिया जाता है उसकी सारी ध्ाुँअन को बाहर निकालने के लिए। जिसे फिर से इस्तेमाल के लिए एक अलग पानी से भरे बर्तन में इकट्ठा कर लिया जाता है। ध्ाातु के छोटे-छोटे टुकड़े मिट्टी के कप में रखे जाते हैं, जो साँचे के मुख से जुड़ा हुआ है और फिर कप को मिट्टी से बंद कर दिया जाता है। पहले साँचे को भट्टी में उलटा रखा जाता है जिससे ध्ाातु पिघल सके। एक बार जब ध्ाातु पूरी तरह से पिघल गयी है साँचे को सीध्ाा कर दिया जाता है जिससे कि ध्ाातु उन सब जगहों पर जा सके जो ध्ाुवन से खाली हुई है। जब साँचा ठण्डा हो जाता है उसे तोड़ते हैं और ध्ाातु की मूर्ति बाहर निकाली जाती है, साफ़ किया जाता है और पाॅलिश की जाती है।
बर्तनों के अलावा, झारा चिडि़याओं की आकृति बनाते हैं और जानवरों की। हिन्दू जाति और आदिवासी देवी-देवताओं की, गढ़वाओं के विपरीत झारा के शिल्प भारी होते हैं, कच्ची शक्ति से स्पन्दित हैं।
होरो, गोविन्द, लयान्दे, मिलाओ और वीरसिंह और भी कई रायगढ़ के झारा ध्ाातु शिल्पी अपने कला में सिद्धहस्त हैं और बस्तर के गढ़वा ध्ाातु शिल्पियों जैसे जयदेव बघेल और सुखचन्द के बरक्स ज़्यादा ध्यान के योग्य हैं।
गढ़वा ध्ाातु शिल्पियों के विशेषता यह है कि वे कल्पना की ऊँचाईयों पर भ्रमण करते हैं, उन्हें आसानी से अपने काम में ले आते हैं। झारा के शक्तिशाली और अनगढ़ कलाकृतियों की तुलना में, गढ़वा मूर्तियों में भव्यता है और वे विस्तार और विरूपण के सिद्धान्तों का पालन करते हैं। भाव भरे प्रभाव के साथ। आदिवासियों की ज़रूरत के अनुसार वे छोटी-छोटी प्रतिमाएँ उत्कृष्ट सुन्दरता के साथ बनाया करते हैं, उन्हें इन दिनों बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार मिला हुआ है और अब वे बड़ी आकृतियाँ बनाते हैं। उनकी कला पर बाज़ार का कोई अपमानसूचक प्रभाव नहीं दिखाई देता है, बाज़ार उनकी कल्पना को और ऊँचाइयों तक उकसाने का काम करता है।
गढ़वा बस्तर के घसिया कहे जाते हैं और एल्विन उन्हें सिफऱ् घसिया कहते हैं और गढ़वा शब्द पारिभाषिक शब्दावली में खोजने पर नहीं दिखायी देता। रसेल और हीरालाल ने घसिया को द्रविडि़यन मूल का शब्द कहा है, जो बस्तर में रहते हैं और ध्ाातु का काम करते हैं। जैसा भी हो, आज गढ़वा इस बात को लेकर संवेदनशील हैं और दावा करते हैं कि वे अपने हक़ में एक आदिवासी समुदाय हैं। यह निश्चित हो सकता है, जैसे उनके रीतिरिवाज हैं, विश्वास हैं, देवी-देवता एक हैं, उसी क्षेत्र के अन्य आदिवासी लोगों की तरह। नवल किशोर शुक्ल, एक युवा शोध्ा सहायक ने एक कहानी बतलायी, जो उन्होंने गाँव के बनिया सुखचन्द से सुनी। सुखचन्द के अनुसार, यह उसके दादा और दादी सुमरीबाई के समय में हुआ था। सुमरीबाई महाराज के घर काम करती थीं। एक दिन एक व्यक्ति महाराज के लिए पायल भेंट में लाया, महाराज उस गहने की सुन्दरता से बहुत प्रभावित हुए और उसे गढ़वा कहा, जिसका अर्थ वह जो सुन्दर गहने बनाता है।2 कुछ कहते हैं कि गढ़वा सदियों पहले महाराजा द्वारा मूलतः उड़ीसा से लाये गये। वे पाँच परिवारों को दन्तेश्वरी माता की मूर्ति बनाने के लिए लाये थे। ये परिवार बस्तर में फैल गये। जो भी हुआ हो, गढ़वा अपने को आज बस्तर के आदिवासी कहते हैं और जयदेव बघेल उनके कला की उत्पत्ति के बारे में यह बात बतलाते हैं। जब जयदेव सोलह साल का था तब उसके पिता उसे टोंडाबेड़ा गाँव रिश्तेदारों से मिलाने ले गये, जो कि बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र में ओरछा से दस किलोमीटर दूर था। वहाँ उन्हें अबूझमाडि़या के देवता कोल्हादादो मिले, जो कि गढ़वा के भी देवता हैं। उस क्षेत्र में कई सिरहा और गुनिया से मिलने के बाद उसने गढ़वा कला की उत्पत्ति की यह कहानी जानी। एक बार एक शिकारी पहाड़ पर पहुँचा जहाँ उसे जली हुई चट्टान मिली। गर्मी के कारण चट्टान फट गयी थी और ध्ाातु का एक बड़ा टुकड़ा ज़मीन पर गिर गया था। शिकारी ने उसे उठा लिया और अपनी गुफा में ले आया। लोगों ने उस विचित्र चमकती हुई चीज़ को देखा और विस्मय से भर गये। उन्होंने उससे कहा कि वह उनके लिए भी ध्ाातु का टुकड़ा लेकर आये। शिकारी फिर से पहाड़ी पर गया और चट्टान की दरारों में देखा, और ध्ाातु की एक पतली-सी ध्ाार को पाया। उसने ध्ाातु को खोदा और उसी तरह के विचित्र आकारों को पाया जो उस पर दबाव से बने हुए थे। वह उस चट्टान की दरार में उतरा और एक मध्ाुमक्खी का छत्ता पाया, जिस पर वैसे ही ध्ाातु की तरह के आकार थे। यह मध्ाुमक्खी का छत्ता मिट्टी से छपा हुआ था, उसने लकड़ी के टुकड़े इकट्ठे किये, उससे चट्टान के ऊपर रखा और आग लगा दी। अगले दिन उसे दूसरा ध्ाातु का टुकड़ा मिला, जिस पर उसी तरह की आकृतियाँ बनी हुई थीं। इस महान उपलब्ध्ाि पर उसने सोचा माता देवी के बारे में और ध्ाातु में पहली आकृति माता देवी की बनायी। इस तरह गढ़वा की कला पैदा हुई। बाद में गढ़वाओं ने अन्य देवताओं जैसे कोल्हटदेव, बूढ़ादेव, भीमादेव, भैरमदेव, कोटगुन्दगीन माता देवी, मावली देवी, बूढ़ी माता, दन्तेश्वरी देवी, परदेसी माता आदि-आदि की मूर्तियाँ बनायीं। इन आकृतियों को आदिवासी गाँव में स्थापित किया जाता है और स्थापना के वक़्त गाँव की देवी गाँव के सिरहा में प्रवेश करेगी और बतायेगी कि आकृति अध्ािकृत रूप से गढ़ी गयी या नहीं? जयदेव कहते हैं कि आदिवासियों के बीच ऊँची और नीची जाति का कोई भेद नहीं था और आज भी नहीं है, और गढ़वा गोंड के ही वंश के हैं, जैसे माडि़या और मूडि़या हैं।3
ढलाई की गढ़वा पद्धति इस प्रकार हैः मध्य भाग काली मिट्टी से बनाया जाता है। काली मिट्टी, जो खेत से लायी जाती है और चावल के भूसे के साथ मिलाकर उसे ध्ाूप में सूखने के लिए छोड़ दिया जाता है। कोर के सूख जाने पर नदी के पाट से लायी मिट्टी को गोबर के साथ मिलाकर उसके ऊपर लगाया जाता है। जब कोर सूख जाती है तब फली की पत्तियों से उसे रगड़ा और घिसा और चमकाया जाता है। यह इसलिए किया जाता है कि जब उस पर वैक्स लगाया जाये तो वह निकल न जाये, इस तरह कोर की सतह अवध्ाारक हो जाती है। इसके बाद उस पर मध्ाुमक्खी के छत्ते का मोम लगाया जाता है। मोम को पहले एक बर्तन में गरम कर पिघलाया जाता है और फिर पानी से भरे बर्तन में उसे साफ़ करने के लिए डाला जाता है। इस साफ़ मोम को एक छलनी में दबाया जाता है जिससे लम्बे ध्ाागे उसके बन जाते हैं। इन मोम ध्ाागों को उस कोर के चारों तरफ ध्ाीमी-ध्ाीमी चोट के साथ चढ़ाया जाता है उसकी आकृति को बचाते हुए। मोम में ज़रूरी अलंकरण जोड़े जाते हैं। पूरी मूर्ति को फिर से नदी की मिट्टी की एक परत से ढका जाता है, जो गोबर और कोयले के चूरे के मिश्रण से तैयार की गयी है। नीचे की तरफ एक छेद छोड़ दिया जाता है। दीमक की बांबी की मिट्टी और चावल के भूसे का मिश्रण इस कोर के ऊपर मोटा-मोटा चढ़ाया जाता है, फिर नीचे की ओर मिट्टी का एक कप ज़रूरी अनुपात की ध्ाातु के लिए, इसके नीचे जोड़ा जाता है और फिर उसे ध्ाूप में सूखने के लिए रख दिया जाता है। सूख जाने पर, ध्ाातु के टुकड़े कप में रखे जाते हैं और उसे बंद कर दिया जाता है, फिर इसे भट्टी में रख देते हैं, जिसकी परिध्ाि लगभग एक फ़ीट की होती है और इतनी ही गहराई उसके बाद भट्टी को लकड़ी और कोयले से ढक दिया जाता है, फिर उसमें आग लगा देते हैं। ज़रूरी तापमान के लिए ध्ाोंकनी का इस्तेमाल करते हैं, एक या दो घण्टे के बाद साँचे को निकाल लिया जाता है, उसे पानी में ठण्डा किया जाता है फिर मिट्टी की सतह छीली जाती हैं।
गढ़वा को घसिया की तरह व्यवहृत करने में जो भी सामाजिक खूबियाँ रही हों, जयदेव की कहानी मूल आदिवासी कड़ी को स्थापित करती है और इस तरह ध्ाारणा को साथ लिये चलती है। बहुत-से शुद्धतावादी इस क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों से विक्षुब्ध्ा हैं उन तेजी से बढ़ रहे गढ़वा आकृतियों से भी, जो गढ़वा कला आज दे रही है। वे आकृति की पुराने ज़माने से प्रासंगिकता बिठाने की कोशिश करते हैं और संकर नस्लवादिता के ख़तरों की बात करते हैं। वे आदिवासी संस्कृति और सभ्यताओं के बारे में अपरिवर्तनशील सिद्धान्त के सम्बन्ध्ा में सोचते हैं। यह स्थिति कभी नहीं थी और न कभी होगी। गढ़वा कलाकार की विलक्षणता अपनी अभिव्यक्ति बदलती हुई परिस्थितियों में युगों पुरानी कारीगरी से प्राप्त करता रहेगा।
सन्दर्भ ग्रन्थः
1. ट्राइब्स एंड कास्ट्स आॅफ़ सेन्ट्रल प्राॅविन्सेज़ आॅफ़ इंडिया, आर.वी. रसेल एंड हीरालाल, कास्मो पब्लिकेशन्स, देहली, इंडिया, 1975.
2. गढ़वा, ‘कलावार्ता’ में नवलकिशोर शुक्ल का लेख, नवम्बर 50-51, अप्रैल-मई, 1985.
3. गढ़वा आर्ट, ओरिजन एंड डेवलपमेंट, जयदेव बघेले का चैमासा नं.-9, जुलाई-अक्टूबर, 1986 में छपा लेख.