23-Mar-2022 12:00 AM
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करिया और बाघ
परध्ाानों का एक छोटा-सा गाँव है पाटनगढ़, जो मण्डला के डिंडोरी घाटी की पहाड़ी पर बसा है। यहाँ के लहराते भू-दृश्य कई परिदृश्य बनाते हैं और आप एक जादुई ज़मीन में प्रवेश करते हैं। पहाड़ी के ऊपर से आप देख सकते हैं चारों तरफ फैली ज़मीन, हरे पीले भूरे रंगों के टुकड़े दूर क्षितिज तक दिखाई देते हैं, एक गोलाई लिये हुए तश्तरी जिसके पीछे से पूरब में सूर्य उगता है और पश्चिम में डूबता है। यहाँ से आप पूरी पृथ्वी देख सकते हैं, जो कि निश्चित ही चपटी है उसके चारों ओर और किसी तरल पदार्थ में तैरती पहाडि़याँ और घाटियाँ। एल्विन पाटनगढ़ में लम्बे समय तक रहे और शादी भी की। उनकी पत्नी का भाई, साहिबा यहाँ गाँव का पंच है। पाटनगढ़ जनगण सिंह का घर भी है, एक युवा परध्ाान कलाकार जो जन्मजात विलक्षण है, रेखांकन-चित्रकला और शिल्पकला में वहाँ झोपड़ी की दीवारों पर उसके द्वारा बनायी गयी चित्रकृतियों को देखा गया था। यह उससे पहली मुलाकात थी।
जनगण साध्ाारण कलाकार नहीं है, चित्रकला की किसी भी पारम्परिक रीति या शैली में। वह सिफऱ् प्रतिमा नहीं बनाता, वह मौलिक और नयी राह निकालने वाला कलाकार है, उसने नया परिदृश्य रचा है। सम्भवतः जिसके समानान्तर गोंड और परध्ाान कला में कुछ नहीं है, गोंड या परध्ाान के बीच देवी-देवता के चित्र बनाने की कोई परम्परा नहीं है, अवसरों पर विभिé देवी-देवताओं के लिए विविध्ा सादे चैक बनाये जाते थे, देवी-देवताओं को सुचित्रित नहीं किया जाता था। इस चैक से छलाँग लगाकर वह देवी-देवताओं को उनके शारीरिक रूप में लाने के लिए असाध्ाारण प्रतिभा दिखलाता है। बड़ादेव, फुलवारी देवी, खैरगढि़या देव, थाही देव, मसवासी देव, हनुमान, मेढ़ोंकी माई, महरालिन देवी, मरा देव, महादेव, नारायण देव, भैंसदेव, रातमाई मुरखुड़ी या अन्य, उसने इन सबको व्यक्तिगत चरित्र और सजीव चेहरा दिया। ये किन्हीं भी अर्थ में नहीं कहे जा सकते कि इनका उद्गम हाट या बाज़ार में मिलने वाले हिन्दू देवी-देवताओं के कैलेण्डर चित्र हैं, जैसा कि सौंरा चित्र इसके दृष्टान्त है। भले ही तात्कालिक सन्दर्भ उपलब्ध्ा नहीं हों, यह निष्कर्ष निकालना अनिवार्य है कि ये चित्र आदिवासी स्मृति के गहरे अवकाश से बनाये गये हैं, उनकी सुस्पष्ट प्रामाणिकता ही बतलाती है कि वे किसी भी तरह से संयोग से उल्लेखित नहीं हैं, इस अर्थ में उन्हें निश्चित रूप से गोंड कला की परध्ाान अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। सभी में एक चीज़ जो तत्काल ही देखने योग्य है कि सभी के चरित्र वैचारिक हैं; उन्हें यथार्थवादी ढंग से नहीं बनाया गया है। कल्पना की सच्चाई से देवता वास्तविक हो उठे हैं।
जनगण अपनी कला में जो लीला करते हैं उसके समानान्तर कोई नहीं है, तो भी ऐसा लगता है कि ये जलमग्न परम्परा से सम्बन्ध्ा रखते हैं। फुलवारी देवी की आकृति को देखें, आकृति के कन्ध्ो से ऊपर के भाग को देखें, सिर को दो मोटी समानान्तर रेखाओं से बनाया गया है, इस तरह एक-दूसरे के विपरीत रखा गया है मानो चेहरा कड़े बालों के भीतर से उभरा हो, वे अपनी सम्मोहित करने वाली निर्निमेष दृष्टि के साथ कई आड़ी-तिरछी रेखाओं से प्रकट होते हैं। सिर के नीचे बाँहें हैं, शरीर और पैर चित्रित हैं, मोटी घुमावदार समानान्तर रेखाओं से पैर गुँथे हुए हैं और बाँहें शाही मुद्रा में ऊपर उठी हुई हैं। रेखाएँ न सिफऱ् आकृति की ज़रूरत को पूरा कर रही हैं, वे आकार को भी रचती हैं। इन रेखाओं का अनवरत प्रवाह ही उनका संसर्ग, उनका असम्बद्ध आवर्तन आकृति के अनुरूप हो जाता है और जीवन का अर्थ अर्जित कर लेता है। जनगण प्रभावशाली संपूरक रंग इस्तेमाल करते हैं हरे और लाल, गुलाबी और पीले, रेखाओं के थर्राने वाले तनाव को मज़बूत करते हुए। बूढ़ादेव भी कुछ-कुछ इसी तरह की रेखाओं के प्रयोग से बनाया गया है जबकि दूसरों में बिन्दु क्वाण्टम की तरह सपाट रंगों की सतह पर फैलते हुए रेखा का स्थान ले रहे हैं। रंगों, रेखाओं और बिन्दुओं के इस्तेमाल से भगवानों और देवी-देवताओं का पूरा देवालय सृजित हैं एक विशाल झाँकी की तरह जनगण की आन्तरिक जादुई दुनिया इस तरह परध्ाान और गोंड की दुनिया भी है।
एक सच्चे परध्ाान गायक की तरह जनगण न सिफऱ् आदिवासी विद्या और गीतों से भरा हुआ है, न सिफऱ् वह ये जानता है कि देवी-देवता अपनी शक्तियों का इस्तेमाल प्रकृति और मनुष्य के ऊपर, उन्हें रूप देने के लिए कर रहे हैं, बल्कि वह प्रचण्ड रूप से अपनी ध्ारती की वनस्पति की प्रकृति से भी परिचित है। वह चित्रित करता है पेड़, झाडि़याँ, चिडि़या और जानवर, रंगों और रेखाओं के सशक्त उन्मुक्त इस्तेमाल से जो सिर को चकरा देता है। चचान पक्षी पर्याप्त परिचित है फिर भी नये आलंकारिक गौरव में ठाठ से प्रगट होता है; चीतल एक चक्करदार लाल पिण्ड है और पीले ब्रश-आघात गति को जकड़े हुए हैं; वृक्ष ऊँचे उठते हैं और अपनी शाखाएँ नीचे फैला देते हैं, पéे-सी हरि पत्तियाँ चमक रही हैं; चिरपुटी वृक्ष जिससे बया चिडि़या का घोंसला लटका है और एक साँप पेड़ की शाखा की तरह दिख रहा है, जो चिडि़या को देख रहा है; एक गिरगिट कठेली वृक्ष की शाखा पर खतरनाक ढंग से बैठा हुआ कौतूहल वश मकड़ी के जाले को देख रहा हैः वृक्षों की और चट्टानों की और जंगल की भावनाएँ, समस्त प्रकृति अपने को व्यक्त करते हुए जनगण की कला की दुनिया में बस जाती है।
चित्रकला के प्रति उसकी असाध्ाारण प्रतिभा के अलावा जनगण दीवारों पर उभरी हुई नक़्क़ाशी करते हैं और मिट्टी की प्रतिमाएँ बनाता है, जनगण द्वारा बनाया गया भित्तिचित्र जिसमें हनुमान अशोक-वाटिका में सीता को राम की अँगूठी दिखा रहे हैं अपनी अभिव्यक्ति की किफ़ायत के अभ्यास का उल्लेखनीय उदाहरण है। राक्षस अपनी विकरालता के प्रतीक में नीचे एक पंक्ति में बैठे हैं जबकि सीता, जिसका चेहरा विषाद के आत्यन्तिक गहन विश्लेषण की तरह गढ़ा गया है, बैठी है पेड़ पर एक झूले में और हनुमान उसकी एक शाखा पर। इस तरह के भित्तिचित्र परध्ाान और गोंड के बीच आमतौर पर नहीं पाये जाते हैं, ये लोग अक्सर ज्यामितिक आकार बनाते हैं जिसमें जानवरों, चिडि़याओं, पर्ण समूह आदि के सरलीकृत आकार होते हैं। जनगण द्वारा बनाया गया रामायण का वृत्तान्त गोंडों पर हिन्दू मिथ के व्यापक प्रभाव का उदाहरण है।
मिट्टी में जनगण की असाध्ाारण रचना बाघदेव की आकृति हैः यहाँ मानवरूपी बाघदेव अपने नंगे हाथों में पकड़े सुअर को खा रहा है; बाघदेव बाघ की तरह नहीं दिखता जैसा कि अक्सर ही कई गोंड और बैगा की लकड़ी की मूर्तियों में बनाया जाता है। जनगण बाघ और बाघदेव के बीच सूक्ष्म अन्तर कर देते हैं। बाघदेव एक देवता हैं, कैसे वह एक बाघ की तरह दिख सकते हैं।
यह दलील कि गोंडों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले पारम्परिक रंग जनगण के रंग नहीं हैं, बचकानी है। गाँव-गाँव में पहुँच चुकी मौद्रिक अर्थव्यवस्था के फैलाव के साथ आदिवासी जीवन के सुदूर कोनों तक इनेमल रंग भी पहुँच गये हैं। मैं स्वयं इसका साक्षी हूँ। बस्तर में माडि़याओं के स्मृति-खाम्ब और झाबुआ में भीलों की पत्थर की गाथाएँ भड़कीले इनेमल रंगों से पोती जाती हैं, सिफऱ् वे जो आदिवासी संस्कृति को बन्द व्यवस्था की तरह देखना चाहते है, वे ही पारम्परिक सामग्री के इस्तेमाल पर ज़ोर देंगे। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है, हालाँकि, जनगण द्वारा इस्तेमाल की जा रही सामग्री की पवित्रता नहीं है बल्कि उद्देश्य की पवित्रता इन सामग्रियों के पीछे है। जनगण की आदिवासी-विलक्षणता उसे उपलब्ध्ा कराये रंगों के प्रकार आसानी से उसकी अनोखी दृष्टि की आवश्यकता पूरी करते हैं। यह तर्क दिया जा सकता है कि जनगण जो करता है वह सामान्यतः परध्ाान और गोंडों द्वारा नहीं किया जाता और यह भी कि वह अपवाद है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह अपवाद है और इसी पर हमारा ज़ोर हैः वह कई परध्ाान गोंड देवी-देवताओं को चित्रात्मक रूप दे रहा है जो शायद पारम्परिक व्यवस्था में स्वीकृत नहीं है। उसका चित्रण प्रतिमाओं की आकृति नहीं है जिन्हें सामुदायिक व्यवहार के लिए दोहराया गया है। जैसे कि उसकी कलाकृतियाँ, सूत्रित अभिकल्पना जो दोहराव से परिष्कृत है किन्तु उस पर बिलकुल आध्ाारित नहीं है। क्या उन्हें वास्तव में गोंड या परध्ाान कला की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है? हाँ, वह एक विशेष कलाकार है जो आमतौर पर माने जा रहे विश्वासों को स्पर्शग्राहî चाक्षुष अभिव्यक्ति दे रहा है, और इस तरह की अभिव्यक्तियाँ सामुदायिक सम्पत्ति बन जाती हैं।
गोंडों द्वारा किया जाने वाला अलंकार साध्ाारण और सादगी भरा होता है। अपनी मिट्टी की झोपडि़यों की बाहरी दीवार के निचले हिस्से में पीले रंग की पट्टी पोतते हैं, लाल या काले जो घर को पूरी तरह गरिमा प्रदान करती हैं। अन्दर की दीवारों पर भित्तिचित्र बनाते हैं। एक किनार बनायी जाती है, अक्सर उलटे त्रिकोणों की लम्बरूप या क्षितिज के समानान्तर ज्यामितिक आकृतियों की होती है जो दीवार के किनारों के साथ चारों ओर चलती है, एक मोर या हिरन या पीपल पत्ता या मछली, इस आयताकार, जो किनार के अन्दर बनाया गया है, के भीतर बनाया जाता है। भित्तिचित्र गीली दीवार की मिट्टी में भूसा मिलाकर बनाते हैं और यह सब मिलकर झोपड़ी के भीतर एक जादुई वातावरण पैदा करता है। कभी-कभी रंगों का इस्तेमाल होता है, पीला, लाल और सफ़ेद इन रंगों का इस्तेमाल उत्तेजक प्रभाव पैदा कर देता है। प्रतीकात्मक तांत्रिक आरेखन यहाँ-वहाँ दिखाई देते हैं, जैसा कि सरगुजा के पाराडोल की राजगोंड सोनकुँवर के चित्र में है, जो सार्वभौमिक समय बतला रहा है। या तो यह हिन्दुत्व का प्रभाव है या इसके विपरीत कुछ और भी माना जा सकता है। मण्डला, पाटनगढ़ के तीरथराम मरावी का एक भित्तिचित्र है जो खास भुतहा शक्ति लिए हुए है, एक उठे हुए समकोण के भीतर एक दूसरा समकोण है जिसका ऊपरी हिस्सा खुला है, एक वृक्ष नीचे के तल से ऊपर की ओर बढ़ रहा है, बीच में राक्षस या भूत जैसी आकृतियाँ पेड़ के दोनों ओर हैं, पूरा भित्तिचित्र एक सफ़ेद दीवार पर है और सफ़ेद पर सफ़ेद में एक प्रभावपूर्ण उपस्थिति है। नर्मदा, एक दूसरा परध्ाान कलाकार और जनगण का दोस्त, का झुकाव जानवरों के चित्रण में है, उसे रंग और अलंकरण की जीवन्त समझ है और ऐसा नहीं दिखता कि वह अपने विषय को यथार्थवादी तरीके से सुलझाता है। उसके जानवर यथार्थवादी अभिव्यक्ति नहीं हैं बल्कि नर्मदा की कोरी कल्पना की दुनिया की उपज हैं। राजेन्द्रग्राम शहडोल के एक युवा गोंड कलाकार रोशनसिंह मरावी की कलाकृतियाँ भी बहुत आकर्षक हैं। मरावी के बारहसिंगा के पास शक्ति है और प्रागैतिहासिक गुफा चित्र का प्रभामण्डल भी है, मरावी के चित्र प्रभावशाली अवसाद की भावना से अनुप्राणित हैं, जबकि जनगण के चित्र जीवन्तता के अर्थ से चिह्नित हैं। रोशनसिंह का गाँव अवाक् करने वाला दृश्य प्रस्तुत करता है, लहराती हरी-भरी पहाडि़यों के बीच मौजूद इस गाँव में सजावट और सफाई का भाव बहुत प्रबल है, जो स्पष्ट दीखाई देता है। झोपड़ी के भीतरी आँगन की सफ़ेद पुती दीवारों पर एक काला समकोण सिमसिमा रहा है जो दूसरे काले समकोण के मध्य में रखा गया है और वहाँ एक पीला विभाजित वृत्त उत्कीर्ण है। यह भित्तिचित्र पवित्रता का उत्कृष्ट भाव पैदा कर रहा है, जिस पर परम्परा की छाप भी लगी हुई है। इन घरों के झुण्ड में एक से दूसरी दीवार से लेकर अनेकों दीवारों पर ऐसे भित्तिचित्र देखे जा सकते हैं। यहाँ कलाकारों की अभिव्यक्ति किफायती है, सामग्री, मिट्टी और गोबर को इस्तेमाल करने का अनुभव है, पर्यावरण की समझ है, आध्यात्मिक अवकाश की रचना इन कलाकृतियों में महसूस होती है।
गोंड भित्तिचित्रों में सामान्य तौर पर पाया जाने वाला अनुकल्प त्रिकोण है, जिसे पैनल में विपरीत दिशाओं में डालकर इस्तेमाल किया गया है, दीवार की किनारी की तरह या कभी चैपड़ की आकृति में, जो सृजन के पुरुष-प्रकृति सिद्धान्त का प्रतीक है तथा अमूर्त ज्यामितिक आकल्पन पीले लाल काले या गहरे नीले रंग में, जो गोंड झोपड़ी की मितव्ययता को मांगलिकता प्रदान करता है।
सृजन के सिद्धान्तों का पुरुष-प्रकृति उर्वरता का यह प्रतीक गोंड विवाह-स्तम्भ मंगरोही खाम्ब में भी पाया जाता है। चटकीले रंगों से पुता और लकड़ी में तराशा गया यह खाम्ब, उर्वरता का प्रतीक होने के साथ बुरी नज़रों को दूर रखने के लिए भी है। इसे अक्सर शादी के मण्डप में कार्यक्रम के बाद वहीं अनाश्रित छोड़ दिया जाता है। विभिé ऋतुओं के बीच। बाद में पास की किसी नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। एल्विन इसी तरह की किसी मानवरूपी मंगरोही की नक्काशी से टकराये थे, जिसका फोटो उनकी ‘द ट्राइबल आर्ट आॅफ़ मिडिल इंडिया’ नामक किताब में छपा है। इस तरह की मंगरोही रूपी नक़्क़ाशियाँ हालाँकि अब दुर्लभ हो गयी हैं। आमतौर पर यह लकड़ी का साध्ाारण-सा कल्पना किया हुआ खाम्ब रेतघड़ी की आकृति की तरह, हरे और लाल रंग से पुते हुए उलटे पिरामिड नक्श की तरह होते हैं। कभी-कभी खम्बे के शिखर पर लकड़ी का क्रास तोतों के साथ लगाया जाता है, जो चारों दिशाओं को दर्शाते हैं। ये खाम्ब आमतौर पर गाँव का बढ़ई बनाता है, कभी-कभी गोंड स्वयं भी बनाते हैं। इनका इस्तेमाल अक्सर बैगाओं, भूमिकर भुईंया के द्वारा भी किया जाता है।
इस तरह की आकृतियाँ, सच कहा जाये तो शायद सिन्ध्ाु घाटी सभ्यता से सम्बन्ध्ा रखती हैं और लगता है गोंड-स्मृति में अटक गयीं हैं। जीवन के उन तमाम उतार-चढ़ावों के बीच जिनसे ये लोग गुज़रे होंगे, जिनके ज़्यादातर सांस्कृतिक-लक्षण लुप्त हो गये और जो बड़ी हद तक हिन्दू ध्ार्म की जातियों से प्रभावित हुए, जो इण्डो-आर्यन भाषा के भीषण आक्रमण के चलते बड़ी हद तक अपनी बोलियाँ भी खो बैठे। सबसे सादी अभिव्यक्ति भी शायद निश्चित ही गाढ़ा निहितार्थ रखती है और वे जो दे रहे हैं, उससे ज़्यादा पाने की कोशिश करना हमारी भूल होगी। इन लोगों की कलात्मक परम्पराओं को गरीबी या अमीरी के सन्दर्भ में परखा जाये, यह बहस की जा सकती है कि हम आदिवासियों की कला को समझने के लिए अपनी संवेदनशीलता को बीच में ला रहे हैं और अध्ािकार से ज़्यादा उसमें घुस रहे हैं। फिर भी कला में हमारी प्रतिक्रियाएँ पैदा करने की शक्ति है और यह हमारे घमण्ड की पराकाष्ठा ही होगी कि हम यह माने कि आदिवासी कलाकार में परिष्कार की कमी है, यह सकारात्मक भाव नहीं होगा।
एल्विन ने इस पर ध्यान दिया कि मूडि़या घोटुल की दीवारों पर चित्र बनाते थे, फिर भी यह हिस्सा परम्परा का नष्ट हो गया है, घोटुल संस्था के नष्ट होने के साथ-साथ लुप्त हो गया। बस्तर, नारायणपुर, गढ़बेंगाल गाँव के बेल्गूर, शंकर और पिसाड़ू मूडि़या चित्रकार आज हमारे साथ हैं। बेल्गूर के चित्रों में पूरी आकृति बाघ, हिरन, माडि़या युगल, रंगों के बिन्दुओं से रचे गये हैं, एक निराला आकारहीन स्वरूप उसे प्रदान करते हुए। उसके बनाये जानवर स्वप्नलोक के निवासी हैं। बेल्गूर के चित्र पेमा फत्या के चित्रों के बरक्स स्पष्ट अन्तर रखते हैं। पेमा फत्या, भील जिसके चित्र प्रबल रूप से रेखीय हैं और जनगण, परध्ाान जो रंगों के प्रशंसात्मक सम्वाद का इस्तेमाल सपाट रंगक्षेत्र में करता है। शंकर बिन्दुओं और हल्के ब्रश-आघातों, दोनों का इस्तेमाल करता है, उसके उल्लू, तितलियाँ, मछली और अन्य जानवर क्षणभंगुर चरित्र पाते हैं। शंकर का एक उल्लेखनीय चित्र है जिसमें बेन्द्री और उसका बच्चा चैक से बाहर कूदकर आ रहे हैं। बेन्द्री के चारों पैर उसके बच्चे के चारों पैरों के साथ रस्सी से बँध्ो हैं। हल्के वक्रीय ब्रश आघातों से चित्रित यह आकृति काग़ज़ की सतह पर स्थिर नहीं है बल्कि ऐसा लगता है कि वह उससे ध्ाीरे-ध्ाीरे बाहर निकल रही है। यद्यपि शंकर ने चित्र में किसी अन्तर्निहित महत्त्व को सामने नहीं रखा है, उसके लिए बेन्द्री और उसके बच्चे का चैक से बाहर आना, बाहर आना ही है। बगैर किसी जादुई प्रयोजन के इसमें अद्भुत जादुई शक्ति है। पिसाड़ू भी अपने चित्र बिन्दुओं से बनाता है जिनमें बेजोड़ काव्यात्मक गुण है। यह नहीं कहा जा सकता कि इन चित्रों का कोई ध्ाार्मिक या आनुष्ठानिक महत्त्व है, ये महज सजावटी भी नहीं हैं, किन्तु कला के उच्चतम मानदण्डों की अभिलाषा रखते हैं। पुनः इन मूडि़या कलाकारों के कामों से बिल्कुल भिé सरगुजा के पण्डों के भित्तिचित्र हैं। वे अमूर्त ज्यामितिक आकारों की एक उत्साही चित्र-यवनिका बुनते हैं। खडि़या, गेरू और पीली मिट्टी के इस्तेमाल से (सफ़ेद, लाल और पीली मिट्टी से)। इनकी विषमता जो आकृति के पूर्ण सन्तुलन को सम्भाले हुए है, गीत और सजीवता का अनुभव सृजित करती है। सरगुजा के रजवार भी अमूर्त भित्तिचित्र मिट्टी की दीवारों की भूरी रंग सतह पर सफ़ेद रंगों से बनाते हैं। यह पुनः रेखीय ज्यामितिक आकृतियाँ हैं जिन्हें स्वतंत्रता और आवर्तन के विशिष्ट अनुभव से बनाया जाता है। रजवारों में एक विलक्षण कलाकार सोनाबाई हुई हैं जो अपने बचपन से देवी-देवताओं, जानवरों, चिडि़याओं तथा दीवारों पर मिट्टी के भित्तिचित्र बनाती हैं। उसकी झोपड़ी एक सम्पूर्ण संग्रहालय है जहाँ कला अपनी उत्कृष्टता में देखने के लिए प्रस्तुत ही नहीं है बल्कि रहने के लिए एक ध्ाड़कता हुआ वातावरण प्रदान करती है। रजवार और पण्डों के कामों से अलग रायगढ़ के नगेसिया के चित्र हैं। जो कि कह सकते हैं कि आॅस्ट्रेलियन आदिवासियों की एक्स-रे कला के सादृश्य हैं। नगेसिया आकृति के बाहरी आकार को ही चित्रित नहीं करते हैं बल्कि आन्तरिक अंगों को भी प्रगट करते हैं, जो अन्यथा आँखों से छुपे रहते हैं।
करिया बैगा एक समय हिरण का शिकार कर रहा था (जिन दिनों शिकार सम्भव था) अमरकंटक के घने जंगलों में जहाँ महानदी नर्मदा का जन्म होता है, अपनी घबराहट में उसने पाया कि वह हिरण का नहीं बल्कि शेरनी का पीछा कर रहा है जो अपने बच्चों के साथ थी। वह अपना जीवन बचाने के लिए भागा और एक पेड़ पर चढ़ गया। करिया बैगा ने यह कथा एक काग़ज़ पर शेरनी का चित्र बनाते हुए सुनायी। वह अपने समुदाय का प्रतिभाशाली कलाकार है जो कबीर चैतरा के पास रहता है। जो शेर उसने बनाया वह उल्लेखनीय है, उस खूँखार जानवर से भिé जिससे उसकी जंगल में मुठभेड़ हुई थी। जैसी हम अपेक्षा करते हैं, शेर की उग्रता दर्शाने के बजाय जो करिया ने बनाया वह बहुत ही रूपात्मक चित्र है। शेर का शरीर पाश्र्व चित्र की तरह बनाया है जबकि चेहरा सामने की ओर मुड़ा है। रेखीय तर्क जोरदार ढंग से लागू किया गया है। रेखांकन यथार्थवादी हुए बगैर निस्सन्देह शेर का है। शरीर को यथार्थवादी पट्टियों की तरह नहीं चित्रित किया गया है बल्कि आड़ी एवं खड़ी रेखाएँ जो चित्र शरीर क्षेत्र को काट रही हैं, से चित्रित किया गया है, इसके भीतर बिन्दुओं से रचा गया है। चेहरा अण्डाकार है जिसमें ऊपर-नीचे दो अधर््ा-वृत्त बने हैं। जिसमें दो छोटे वृत्त आँखों के लिए हैं और आपके सामने सुस्पष्ट शेर है जो तुम्हें घूर रहा है। मैंने करिया से पूछा कि उसने एक खूँखार शेर क्यों नहीं बनाया? उसने कहा, उग्रता जानवर की एक अवस्था है, जबकि उसने जानवर को बनाया है। करिया का हाथ सध्ाा हुआ है और अपनी एक अदा है। शेर के शरीर का चित्रण बहुत कुछ बिलासपुर के लकड़ी के बाघदेव पर किये गये काम के सादृश्य है जो किसी शैलीगत परम्परा की तरफ इशारा है। इस तरह के शेर प्रायः अब और चित्रित नहीं किये जाते हैं यह एक अलग विषय है। करिया कहता है कि वह रेखांकन करना एवं चित्र बनाना पसन्द करता है, और व्यंग्यपूर्वक कहता हैः अब तुम कहाँ चित्र बना सकते हो जब तुम इस बात के लिए आश्वस्त नहीं हो कि तुम्हारी झोपड़ी को वनरक्षक जंगल में बनी रहने देगा। करिया अपने समुदाय की कलात्मक परम्परा का एक अन्य विश्वस्त व्यक्ति है तथा बैगा चित्र परम्परा के नये विकास का सम्भवतः अग्रदूत। 1951 में बहुत पहले एल्विन ने कहीं टिप्पणी की है कि, असम के बाहर भारतीय आदिवासी कला ध्ाीरे-ध्ाीरे लुप्त हो रही है कि यह कुछ सालों के अन्दर ही विस्मृति के गर्त में जाने के लिए अभिशप्त है। छत्तीस वर्षों के अन्तराल के बाद यह स्थिति निश्चित ही बदतर हुई है। स्वतंत्र भारत सरकार के सदाशयी उद्देश्य के बावजूद भी आदिवासी कला का संरक्षण करने के लिए बहुत योग्य नहीं हुआ है। भित्तिचित्र, अलंकरण, दरवाज़े की नक्काशियाँ आदि जिन्हें एल्विन ने दर्ज किया था अब कभी-कभार ही गोंड या बैगाओं में पाये जाते हैं। बदलाव के इस सन्दर्भ में जिसमें से ये समुदाय गुज़र रहे हैं हमें उनके कलात्मक संघर्ष देखने को मिलते हैं एवं नये सांस्कृतिक रीति-रिवाजों के आविर्भाव की सम्भावना नज़र आती है। इस अर्थ में करिया बैगा जैसे लोगों ने महत्त्वपूर्ण प्रतिष्ठा हासिल की है। करिया बैगा ने बड़े-बड़े पैनल्स चित्रित किये हैं जिसमें शिकार-दृश्य रचे हैं तथा उसके क्षेत्र की वनस्पतियाँ भी। यदि पहाड़ी कोरबा के रेखांकन पशु-परियोजना के झुण्ड को दर्शाते हैं जिसमें आदिवासी निश्चित खेतीबाड़ी तथा सम्भावित पशुध्ान को स्वीकार कर रहा है, यह विषय-वस्तु है। करिया बैगा के जानवरों के चुनिन्दा प्रस्तुतीकरण सम्भवतः गायब हो गये शिकारी जीवन के प्रति मोह का प्रदर्शन है। करिया बैगा के रेखांकन शहडोल के बैगा लामा लपसू से अलग हैं। लपसू का हाथी का चित्र, घोड़ा, मुर्गा एवं एक मानव-आकृति में प्रागैतिहासिक शैलाश्रय भीमबैठका का स्मरण कराने वाली अ-दक्ष शक्ति है। इसी योजना से बनाया गया घोड़े का रेखाचित्र, दो त्रिकोणों को जोड़ते हुए जिसके शिखर पर खड़ी मानव-आकृति है, जैसा हम वारली रेखाचित्र में देखते हैं, सौंरा के चित्रों में या भीलों के भित्तिचित्रों में है वैसा लामा के चित्रों में पाया जाता है। यह परावर्तन लगता है तथा लगता है बैगा बाहरी सांस्कृतिक प्रभावों से कम अनुकूलित हैं बजाय अपने पड़ोसी मण्डला और शहडोल जिले के गोंडों से।
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बध्ािया बैल और महालिंगी घोड़ा
आदिवासी मिथ का सबसे ज़्यादा लुभावनी अभिव्यक्ति पिठौरा है, जो भीलों, भिलाला और राठवा के बीच बड़े आनुष्ठानिक महत्त्व का है। यह हमें कुछ-कुछ आश्चर्य में इस तरह डालती है कि यह आनुष्ठानिक भित्ति चित्र अपने में अनूठा है, वस्तुतः हम आदिवासियों के बीच मिथक के उदाहरण की तरह चित्र नहीं देखते हैं और भील सामाजिक नृतत्त्व शास्त्रीय साहित्य में कोई जिक्र नहीं पाते हैं। ज्योतिन्द्र जैन सम्भवतः पहले हैं जिन्होंने पिठौरा का गम्भीर अध्ययन किया, जो गुजरात1 के बड़ौदा जिले के पाँच महल के राठवाओं के बीच चित्रित किया जाता है। जैन ठीक ही कहते हैं कि एक स्तर पर यह चित्र मिथ को दर्शाता है, किन्तु दूसरे स्तर पर चित्र खुद ही एक जि़न्दा मिथ है - सृजन का मिथ, पिठौरा का और इंड का।
पिठौरा एक आनुष्ठानिक भित्तिचित्र है, जिसे उर्वरता की देवी पिठोरो को शान्त करने के लिए भीलों, भिलाला और राठवा मध्यप्रदेश के ध्ाार और झाबुआ क्षेत्रों में बनाया जाता है। यह अगस्त माह में राखी के त्योहार के तत्काल बाद घर के अन्दर की दीवार पर बनाया जाता है। चूँकि यह एक लम्बा और महँगा कार्यक्रम है जिसे समुदाय का हरेक सरोकारी सदस्य नहीं कर सकता है। इसे सामान्यतः किसी की मानता के पूरे होने पर या मानता के माँगे जाने पर बारी-बारी से भरपूर खेती के लिए, भौतिक समृद्धि के लिए और वंश परम्परा के प्रसारण के लिए बनाया जाता है। पिठौरा चित्रकार कुछ ख़ास होते हैं, कुछ वंशानुक्रम से आते हैं और कुछ अपने स्वाभाविक रुझान के कारण, जिन्हें ध्ाार, झाबुआ के क्षेत्र में लखिन्दरा के नाम से जाना जाता है। पेंटिंग की शुरूआत एक विस्तृत कर्मकाण्ड से होती है और सामान्यतया विषय-वस्तु और पात्र एक से हैं। रूपांकन में अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग सम्प्रदायों में भिéताएँ हैं, उसकी व्याख्या और उसके प्रस्तुतीकरण दोनों ही में। उल्टा क्रम या मिथ में तब्दीली दिखाई देती है, जैसे-जैसे वह समुदायों और एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र से गुज़रता है जिस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। किन्तु एक साफ-साफ दिखने वाला फ़कऱ् यहाँ पर नोट किया जा सकता है कि कुछ पिठौरा में घोड़े एक दूसरे की तरफ मुँह करके चित्रित हैं, और कुछ दूसरों में वे एक शोभा यात्रा की तरह चित्रित हैं। यह भी है कि भीलों के बीच चित्रित किये जाने वाला पिठौरा सम्भवतः अपनी शैली में सादगी भरा और आदिम है, जबकि भिलाला और राठवा में सजावटी और अलंकारिक है।
आयताकार हाशिया, जो बीच मेें नीचे जाकर खुलता है, एक दरवाज़े की तरह दीवार पर चित्रित किया जाता है। पेमा फात्या, भील लखिन्दरा झाबुआ के भावरा गाँव से एक चित्रकार जो ज़बरदस्त प्रतिभाशाली है, के अनुसार पिठौरा में चित्रित किये जाने वाले प्रमुख चरित्र इस तरह हैंः
1. बाबा गणेशः इसे आयताकार के बायीं तरफ नीचे के कोने में बनाया जाता है। यह काले रंग से बनायी जाने वाली पहली आकृति है जो हुक्का पी रही है और हिन्दू गणेश के साथ इसकी कोई साम्यता नहीं है।
2. कथिया घोड़ाः इसे ऊपरी बायें हाथ के कोने में काले रंग से चित्रित किया जाता है। यह एक घोड़ा है घुड़सवार के साथ, जिसे कथिया कुँवर कहते हैं और जो अन्य सभी देवी-देवताओं और लोगों को पिठौरा अनुष्ठान के लिए आमंत्रित करता है।
3. चन्दा बाबा, सूरज बाबा, तारेः इसे नीचे सीध्ो हाथ पर जहाँ पिठौरा खुला है वहाँ चित्रित किया जाता है। चन्द्रमा दूज का चाँद है, सूरज गोलाकार पिण्ड है किरणों के साथ।
4. सरग (आसमान)ः यह चाँद और सूरज के पास चित्रित किया जाता है कुछ असमान लकीरों से।
5. जमीं माताः यह चाँद और सूरज के पास एक आयताकार की तरह चित्रित किया जाता है जो कई हिस्सों में बँटा है, ध्ारती माँ को दर्शाता।
6. देशी भाबरः यह ग्राम देव है जो दो घोड़ों द्वारा जिसे साईस पकड़े हुए है, दर्शाया जाता है। घोड़े छोटे बिन्दुओं द्वारा घिरे हैं, जो सफ़ेद रंग में उनकी रौनक को बढ़ाता है।
7. पिठौरा बाबजीः इसे दो घोड़ों द्वारा जिसे साईस पकड़ा है, देशी भाबर के ऊपर चित्रित किया जाता है।
8. रानी काजलः इसे घोड़ी अपने बच्चे के साथ के द्वारा दर्शाया जाता है।
9. हघरजा कुँवरः जंगल का राजा काले घोड़े से प्रदर्शित।
10. बारह माथ्याः सफ़ेद रंग से चित्रित किया जाता है जिसके दिया-सलाई जैसे सिर होते हैं। जिसे राजा रावण की तरह भी जाना जाता है।
11. मेघानी घोड़ीः इसे दो सिरों वाली घोड़ी से दर्शाया जाता है। एक आसमान में अपने मालिक की तरफ देख रही है, बारिश का देवता बादल और दूसरी चर रही है।
12. नाहर (बाघ)ः इसे नीचे के खुले द्वार पर बनाया जाता है।
13. हाथीः हाथी को बाघ की तरफ मुँह किये काले रंग से चित्रित किया जाता है, जिस पर सिन्दूरी पालकी है। हरा बामन अन्दर बैठा हुआ चित्रित किया जाता है।
14. पानी वालीः दो स्त्री आकृतियाँ पानी लाने वाली हाथी के नज़दीक चित्रित की जाती हैं।
15. बावड़ीः एक कुँआ, नीचे खुले द्वार के नज़दीक चित्रित किया जाता है।
16. साँप, बिच्छू, भिश्तीः इन्हें कुए के नज़दीक चित्रित किया जाता है।
17. बन्दरः बन्दरों की एक क़तार काले रंग आयताकार के ऊपरी कोने में चित्रित की जाती है।
18. पोपट (तोता)ः पिंजरे में हरे रंग का तोता चित्रित किया जाता है।
अन्य प्रमुख चरित्र हैं- छिनाला, संभोगरत युगल, सुपर कान्या, बड़े कानों वाला आदमी, एक टाँग्या,- एक पैर वाला आदमी, हाँड्या, बैल, जो हर गाँव में है गायों को उर्वर करने के लिए। इसके अलावा मोर, खरगोश, हिरण, चीतल, भालू, उल्लू, शिकारी, ताड़वृक्ष और कुछ घोड़ों को भी चित्रित किया जाता है।
जैन कहते हैं कि ‘‘चित्रित मिथ की आनुष्ठानिक प्रामाणिकता, विश्वसनीयता बहुत ज़्यादा कलात्मक सोच-विचार पर आध्ाारित नहीं है बल्कि अवध्ाारणा के पुख्ता और सम्पूर्ण और चित्रण पर है और प्रतिमा निर्माण की शुद्धता के अनुष्ठान पर।’’1 एक दृष्टि ये यह हालाँकि सच हो सकता है, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि मिथ अन्ततः एक चाक्षुष भाषा मेें चित्रित है और इस तरह सौन्दर्यशास्त्रीय पक्ष की अनदेखी नहीं की जा सकती है। पिठौरा भित्तिचित्र को कला की तरह बरतने के लिए, उसे मिथ के चित्रण या अनुष्ठान के अभ्यास के अलावा कुछ और भी होना होगा। यह याद रखना होगा कि आदिवासी कला के सभी क्षेत्र मिथ, अनुष्ठान, जादुई और ध्ाार्मिक कर्मकाण्डों से बँध्ो हैं। किन्तु यह ज़्यादती होगी कि कला को अन्य साध्ानों के द्वारा सिफऱ् आशय के अभिप्राय में घटा दिया जाये। तात्त्विक विषय-वस्तुओं से वंचित इस तरह के प्रकटीकरण सिफऱ् प्रतिमा रह जाती हैं और फिर कला की तरह पहचाने जाने योग्य नहीं बचतीं।
जो भी हो, पिठौरा को किसी निश्चित रूपरेखा के साथ बनाया जाता है और पिठौरा के घर में चित्रित चरित्र और अन्य आकृतियों का चित्रण अध्ािकतर व्याख्यायित है। चित्र निश्चित ही उसके अपने खातिर नहीं बनाया जाता है, किन्तु जैसा कि ऊपर बताया गया है, उसका प्रामाणिक अनुष्ठानिक महत्त्व है।
पिठौरा के अनुष्ठानिक महत्त्व को देखने पर यह साफ हो जाता है कि इसका चित्रण उर्वरता और समृद्धि की देवी-देवताओं के आव्हान के लिए किया गया है। चित्र बनाते वक्त कुछ ख़ास अनुष्ठान और रस्मी तौर-तरीके महत्त्वपूर्ण हैं और पुजारी, बड़वा, घर ध्ाानी, चित्रकार खुद और समुदाय के लोग सभी की कुछ निर्दिष्ट भूमिकाएँ हैं और नृत्य, और ढोल बजाना और सामूहिक भोज इस सम्पूर्ण अनुष्ठान के अंग हैं।
पिठौरा की कहानी जो पेमा फत्या और भाभरा के भील बड़वा ने सुनायी वह मूलतः ज्योतिन्द्र जैन के हेकल और त्रिपाठी के द्वारा दर्ज किये गये वर्णन से भिé है, जिसका हवाला उन्होंने दिया हैः पेमा फत्या के वृत्तान्त के अनुसार, पिठोरो इन्दीराजा का बेटा है। पिठोरो के सभी भाई शादीशुदा है जबकि पिठोरो अकेला है। एक बार समुदाय के लोगों की सभा थी और मेहमानों को पान पेश किया गया। पिठोरो के भाइयों ने नहीं लिया और पिठोरो ने बिना सोचे उसे लेे लिया। लोगों ने यह सोचा कि यह गलती से हुआ और एक बार फिर उसकी परीक्षा लेने के लिए पान पेश किया गया। पिठोरो ने फिर ले लिया। इस अभद्रता पर यह फैसला सुनाया गया कि पिठोरो अपने काले घोड़े पर बैठकर हिमालय पर्वत पर जाये और वहाँ से हिमालय की बहिन को लेकर आये। पिठोरो चिन्तित था क्योेंकि वह नहीं जानता था कि बफऱ् और ठण्ड से कैसे बचा जाये, जो उसकी पर्वत की यात्रा में उसे झेलना होगा। जब घर की स्त्री सदस्यों ने यह जानना चाहा कि वह कहाँ जा रहा है, उसने सिफऱ् कहा कि वह यात्रा पर जा रहा है और यदि वह न लौटे तो उसे मरा समझा जाये। इन्दी राजा की बेटी ने पिठोरो पर जोर डाला और पिठोरो ने उसे बताया कि उसे सजा सुनायी गयी है। इन्दी राजा के बेटी ने कहा कि हिमालय की बहिन से डरने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वह उसके पिता की बेटी है। फिर उसने पिठोरो के काले घोड़े से इस तरह कहाः तुम मेरे देवता को हिमालय पर्वत पर ले जा रहे हो। सावध्ाानी रखना और उन्हें सुरक्षित वापस लाना। फिर वह काला घोड़ा लड़की की पूजा की थाली के सामने अपने पिछले पैरों पर खड़ा हो गया और लड़की ने उसके माथे पर तिलक लगाया। पिठोरो सुरक्षित हिमालय पर्वत पर पहुँचा जहाँ उसे लेनदार मिला जो अपनी उध्ाारी लेने आया था। पिठोरो ने उसे अपनी अँगूठी दी जिस पर हिमालय की बहिन ने उसे पहचान लिया और उसे राजसी सम्मान दिया गया। रात में, वहाँ जबकि एक ही बिस्तर था, पिठोरो और हिमालय बहिन दोनों को उस पर सोना पड़ा। पिठोरो ने उनके बीच एक तलवार रख ली और कहा कि यदि वह उसकी तरफ मुड़ेगी तो वह मर जायेगी और यदि वह मुड़ेगा तो उसका भी यही हश्र होगा। यह परीक्षा थी, यदि पिठोरो ने हिमालय बहिन के साथ सहवास करने की कोशिश की तो वह मारा जायेगा। सुबह हिमालय बहिन को यह बोध्ा हुआ कि उसकी बहिन ने पिठोरो को रहस्य ज़रूर बतलाया होगा जिससे कि वह बच गया। पिठोरो फिर हिमालय बहिन के साथ घर वापस लौट आया जिस पर इन्दीराज और उसके भाइयों ने पिठोरो को कहा कि वह भाग्यशाली व्यक्ति है जो उसने जान लिया कि हिमालय बहिन उसकी बहिन है अन्यथा वह बच नहीं सकता था, क्योंकि किसी ने भी उसके सुरक्षित वापस आने की आशा नहीं रखी थी। इसके बाद इन्दी राजा और देशी भावर (ग्राम देवता) ने घोषणा की कि आगे से सभी किसानों को अपना नया अनाज और भोज उसे देना होगा और इसी के बाद दूसरे खा सकेंगे। उन्होंने कहा कि अब तुम्हारा स्थायी निवास घरों की दीवारों पर है जबकि हम सब बाहर जंगल में रहेंगे।
जैन के वर्णन के अनुसार, पिठोरो काली कोयल की नाजायज संतान है जिसे रानी काजल ने बड़ा किया है। दोनों इन्दीराजा की बहिनें हैं, इस तरह इन्दीराजा पिठोरो का चाचा हुआ न कि पिता। हेकल के वर्णन में इन्दीराजा और भान्जा पिठोरो एक बार जंगल से जा रहे थे और रास्ते में उन्हें एक विध्ावा का मकान मिला। वे घर के अन्दर गये और रबड़ी खाने लगे। विध्ावा ने सोचा कोई कुत्ता घर में घुस आया है और चिल्लायीः ‘भाग जा कुत्ते, तेरी चिता की लकडि़याँ तुझसे पहले पहुँचे।’ डर के मारे इन्दीराजा ने अपने को बर्तन में छुपा लिया और पिठोरो ने खुद को दीवार में छुपा लिया।
इन दोनों वर्णन में दीवार पर पिठोरो का अध्ािकार स्वीकृत है। जैसा भी हो भाभरा के भील वर्णन में पिठोरो ने यह अध्ािकार एक परीक्षण से गुज़रने के बाद प्राप्त किया और राठवा के वर्णन में यह संदिग्ध्ा रूप से हासिल किया गया। यहाँ पिठौरा विजेता नायक नहीं है, जैसा कि भील कथा में है।
हम पिठोरा के चित्रित वर्णन पर विचार करते हैं। गुजरात सीमा के इस तरफ भील और भिलाला चित्रों में, घोड़े एक दूसरे की तरफ मुँह किये चित्रित किये जाते हैं एक पंक्ति में नहीं। किसी भी देवता का चित्रण नहीं होता है और उनको सिफऱ् घोड़ों के द्वारा प्रतीक रूप में चित्रित किया जाता है। जबकि गुजरात के राठवा चित्रों में बाबा इन्द को छोड़कर, सभी को घोड़ों पर सवार आकृति के रूप में चित्रित किया जाता है। भीलों के वर्णन में, ज़्यादातर घोड़े सफ़ेद से चित्रित किये जाते हैं जबकि राठवा में वे रंगीन हैं। भील वर्णन में बाबा इन्द या इन्दीराज को नहीं चित्रित किया जाता है जबकि राठवा में वह घोड़े की तरह चित्रित किया जाता है।
एक समुदाय से दूसरे समुदाय में मिथ जाने पर उसमें आये बदलाव और उलट फेर पिठोरा के चित्रित वर्णन में साफ देखे जा सकते हैं।
यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि पिठोरा चित्र बनाने का अभ्यास राजपूत शासकों से राठवा और भिलाला तक आया और फिर भील तक या इसके उलट हुआ। दूसरे शब्दों में, पिठोरा अपनी जड़ें पुरातन काल में जमाये है या यह इध्ार के तात्कालिक इतिहास से उत्पé हुआ है, भिलाला द्वारा राजपूतों से उठा लिया गया और भीलों द्वारा उध्ाार लिया गया या उन्हें दिया गया। यह दर्ज करना दिलचस्प होगा कि झाबुआ और ध्ाार के भीलों के बीच पिठोरा के चित्रों में मूलभूत शक्ति है और ऊँचे स्तर के अलंकरण का अभाव है, जो भिलाला और राठवा के चित्रों में पाया जाना है। भील पिठोरा में घोड़े का चित्रण बहुत ही साध्ाारण युक्ति जिसमें दो आड़े त्रिकोणों को मिलाकर किया जाता है जिसके शिखर पर मानव आकृति उसी तरह से खड़े रूप में दर्शायी जाती है, भिलाला और राठवा पेंटिंग में घोड़े और सजावटी आभूषणों के अलावा आकृतियाँ ज़्यादा यथार्थवादी ढंग से कल्पित की जाती हैं। इन क्षेत्रों के भील पिठोरा में और भिलाला में भी बायें से दायें ओर जाते हुए घोड़ो के जुलूस नहीं दिखाये जाते हैं। जैसा कि राठवा पिठोरा में होता है। किन्तु घोड़े दिशाओं से आते हैं और मध्य में पिठौरा में मिलते हैं जिन्हें सईसों ने पकड़ा हुआ है। जैन यह स्थापना करते हैं कि राठवा पिठौरा में यह शोभा यात्रा राजपूत शासकों के दशहरे की शोभा यात्रा से लिया गया है।
ध्ाार और झाबुआ के भीलों के पिठौरा में उत्कृष्ट सादगी और अभिव्यक्ति की किफ़ायत है। उनमें प्रागैतिहासिक शैलाश्रय रेखांकनों और वर्ली जैसी आदिवासी समुदायों के द्वारा किये जाने वाले भित्ति रेखांकनों जैसी आदिम शक्ति है, मीणा, बैगा और उड़ीसा के सौरा के चित्रों से भी मिलती है। भिलाला पिठौरा, ख़ासतौर पर जब हम गुजरात के रथ क्षेत्र में पहुँचते हैं, वे अलंकारिक हो जाते हैं, जैसा कि रामसिंह छेदला जो एक चुनौता गाँव का भिलाला चित्रकार है के काम से प्रमाणित है। राठवा पिठौरा, निश्चित ही बहुत ही आलंकारिक और रंगीन है। क्या यह सम्भव है कि मिथ झाबुआ और ध्ाार के भीलों के बीच उत्पé हुई हो और फिर राठवाओं तक पहुँची हो और राजपूतों के प्रभाव से इस बीच शैलीगत अलंकारिकता हासिल कर ली हो? राठवा पिठौरा ध्ाारनी ध्ारती को निर्दिष्ट करता है, ध्ाार की भूमि और राजा भोज जो ध्ाार का शासक था।
ज्योतिन्द्र जैन प्रस्तावित करते हैं कि बाबा इन्द या इन्दीराज वैदिक समय के इन्द्र देवता हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि बाबा देव या बाबा इन्द भीलों, भिलाला और राठवा के उर्वरता के ध्ाार्मिक रिवाजों से सम्बद्ध एक महत्त्वपूर्ण देवता हैं। बाबा इन्द का सम्प्रदाय का वैदिक रीतियों के साथ समीप का समानान्तर रिश्ता है और जैसा कि जैन के द्वारा बतलाया गया है जिस पर विचार करना चाहिए। ‘‘कि यहाँ बहुत सारे इन्द्र के पौराणिक सम्प्रदाय फैले हुए हैं और कुछ कृषि देवता, बहुत से खेतीय अनुष्ठानों से सम्बद्ध हैं और इन सम्प्रदायों का वर्णन वेद, सूत्र, पुराणों आदि में मिलता है; ठीक एक राठवा की तरह का, यह सब पौराणिक सम्प्रदायिक परम्परा के वंशज हैं।’’ जैन फिर प्रश्न उठाते हैं, फिर भी यदि इन्द का यह सम्प्रदाय राठवाओं द्वारा अमल किया जाता है। जिसे एक पौराणिक परम्परा माना जाता है। राठवाओं का इस सम्प्रदाय से कितना पुराना सम्बन्ध्ा है। इस प्रश्न का उत्तर ‘जैसा वे कहते हैं’ एक दूसरे प्रश्न से जुड़ा हुआ हैः कि राठवा कितने समय से खेतीबाड़ी कर रहे हैं। कृषि की पिछड़ी तकनीकों के आध्ाार पर यह कहा जा सकता है कि यह व्यवसाय तुलनात्मक रूप से नया ही है, हालाँकि यह निश्चयात्मक ढंग से नहीं जाना जा सकता है। और दूसरी तरफ इन्द, कृषि देवता के पूजा की केन्द्रीयता खेती, अनुष्ठान और मिथकों का बड़ा हिस्सा जो उनसे सम्बद्ध है यह नहीं दिखलाता की कृषि उनके पास बाद में आयी थी। यह सम्भवतः यह ऐसा है कि कुछ खेतीय अनुष्ठानों को तुलनात्मक रूप से जल्दी ही स्वीकार कर लिया गया हो, उन्हीं लोगों से जिनसे उन्होंने खेतीबाड़ी करना सीखा। इन्द्र का सम्प्रदाय अब लगभग ध्ार्म ग्रन्थीय हिन्दूवाद किसी पौराणिक समय में विलुप्त होता जा रहा है, किन्तु देखा जा रहा है कि वह गाँव के स्तर पर और आदिवासियों के बीच रहा है। राठवाओं ने सम्भवतः यहाँ से कहीं इसे स्वीकार किया है, यह इस पर निर्भर करता है कि उन्होंने कब और किससे खेती करना सीखा है।’’2 यह निश्चित ही सही नहीं होगा कि हम भील और राठवा के खेती के पिछड़े तरीकों पर जो उनका हाल ही में अपनाया हुआ व्यवसाय है पर समाप्त करें। कई आदिवासी समुदाय अपने बहुत ही प्रारम्भिक अल्प विकसित खेती के तरीकों से सदियों से चिपके हैं, कुछ जो हल का भी इस्तेमाल नहीं करते, उनके लिए वे ध्ारती माँ की छाती पर घाव नहीं करना चाहते हैं। इस तरह फिर भी, यह मान लेना ठीक ही होगा कि भील और राठवा निश्चित ही बहुत पुराने समय से अल्पविकसित कृषि का रूप अपनाये हुए थे। यहाँ मुश्किल इस बात की है कि इन्द्र सम्प्रदाय को इन्द्र की तरह पहचाना गया है। यह भी संकेत मिलता है कि भील और राठवा ने खेती करना वैदिक आर्यों से सीखा और उसके साथ ही इन्द्र सम्प्रदाय को स्वीकार कर लिया या कि उन्हें वैदिक आर्यों द्वारा अध्ाीन कर लिया और इन्द्र सम्प्रदाय उन पर थोप दिया गया।
भील कहा जाता है कि वे यहाँ के सबसे पुराने लोग हैं, द्रविडि़यन से भी पुराने। बी.सी. लाॅ कानून इसकी पृष्ठभूमि इस तरह बतलाता हैः बाद की संहिता में ब्राह्मण और निषाद पहली बार उल्लेखित हुए। शब्द निषाद ‘किसी ख़ास जनजाति को नहीं दर्शाता था, बल्कि यह एक सामान्य शब्द था जिसे अनार्य जनजातियों के लिए इस्तेमाल किया जाता था, जो कि शूद्रों की तरह आर्यों के आध्ािपत्य में नहीं थे...’ (वैदिक इण्डेक्स, खण्ड-1, पृ.-453)... वाजसनयी संहिता (गअपए 27) में भाष्यकार महेन्द्र व्याख्या करते हैं कि भील या भिल्ला का अर्थ एक जनजाति, जो अभी भी मध्य भारत की पहाडि़यों में रहती है और विन्ध्य अंचल... महाकाव्य के समय में व्याख्यायित और पौराणिक परम्परा में ऐसा लगता है कि निषाद के अपने रहवासी क्षेत्र हैं, वे पहाडि़याँ जो झालवाड़ और खानदेश की सीमा तय करते हैं, विन्ध्य और सतपुड़ा पहाड़ी श्ाृंखला में। महाभारत के एक सन्दर्भ से यह सिद्ध होता है कि सरस्वती के क्षेत्र में निषाद राष्ट्र था पश्चिमी विन्ध्य में जो कि परिपत्र3 से बहुत दूर नहीं है। एन्थ्रोवन के अनुसार भील शब्द पहली बार गुणाढ्य के प्रसिद्ध कथासरित्सागर में आता है जहाँ पर भील सरदार एक दूसरे राजा का विन्ध्य में घुसना रोकता है... रामायण, वाल्मीकि, स्वयं भील था, जिसकी कलम से इस महान महाकाव्य का जन्म हुआ, में भी भीलों के कई सन्दर्भ मौजूद हैं, जिसका नाम - वालिया4 - था। वेंकटाचार्य के अनुसारः ‘‘यह सामान्य तौर पर मान लिया गया है कि भील शब्द द्रविडि़यन शब्द जो ध्ानुष के लिए प्रयुक्त होता है - विल्ला - जो कि जनजाति के एक अस्त्र है, से निकला है। प्राचीन तमिल कविगण इस शब्द का इस्तेमाल द्रविडि़यन पूर्व कुछ जंगली लोगों के लिए विल्लवार (ध्ानुषध्ाारी) करते थे।...’’5
निषादों को वर्ण व्यवस्था के चैहद्दी से बाहर का माना जाता है। स्वतंत्रता का भरपूर पालन करने वाले और आत्मविश्वास से भरे, इन लोगों के लिए यह मानना मुश्किल होता है कि भीलों ने वह भी अपनी ध्ाार्मिक आस्थाओं के केन्द्रीय तत्त्व के रूप में वैदिक इन्द्र सम्प्रदाय को अपनाया होगा। यह भी सोचना मुश्किल है कि इन्द्र पंथ की शुरूआत भीलों से हुई और बाद में वैदिक पद्धति द्वारा अपना लिया गया। इन्द्र इण्डो-आर्यन की वैदिक देवताओं के सबसे प्राथमिक देवताओं में से एक हैं। अभी भी भील बाबा इन्द्र सम्प्रदाय को मानते हैं और ज्योतिन्द्र का शोध्ा इस अर्थ में विश्वसनीय लगता है। निस्सन्देह यह सम्प्रदाय काश्तकारी कला को एक श्रद्धांजलि है किन्तु हल के फाल के सम्मान में झुकते हुए, घोड़े को नहीं भुला है।
ऐसा लगता है कि भीलों की जि़न्दगी में घोड़ा केन्द्रीय महत्त्व रखता है। मिट्टी और टेराकोटा के बने घोड़े मुख्य रूप से लगभग सभी जादुई, ध्ाार्मिक और अन्य उत्सवों के अवसर पर मéत के लिए चढ़ाये जाते हैं और उनके अवशेष पेड़ों के चारों ओर बिखरे और भील भूमि में हर तरफ देवताओं के सामने देखे जा सकते हैं। गाथा, स्मृति खाम्ब में जो मृतकों के लिए बनाया जाता है, घोड़ा बनाना ज़रूरी है और पिठौरा में प्रमुख आकृति घोड़ों की ही है।
नाईक द्वारा दी गई भीलों की दुनिया की उत्पत्ति की कहानी में एक सन्दर्भ आता है जिसमें एक स्त्री घोड़े के साथ संभोग कर रही हैः बलाती पानुत, पारोप देव की पत्नी भगवान की कृपा से एक दिन होली को जन्म देती है, फिर होली के नर्तकों को और फिर ढोल बजाने वाले और बाँसुरी वादकों को। इन सबके पैदा होने के बाद गाना गाने वाले, दीवाली, बोहोन, गामती देवी, नीलो नान्दरबो और जात्रा बिम्ब को जन्म देती है। इसके बाद उसके गर्भ से आगे जानवर पैदा होते हैं - शेर, भालू और बाकी सब। राजा पंथा और बीना देव आते हैं और इनमें से बहुतों की जोड़ी बनाते हैं पति और पत्नी की तरह निरन्तर रहने के लिए।
जब दुनिया का जन्म हुआ और ये प्राणी उसमें रहने लगे, मनुष्यों के रहने के लिए यह उपयुक्त नहीं था। चारों तरफ राक्षस थे और कोई मनुष्य मात्र, कोई मवेशी नहीं था, हिंगोटी न ही अनाज, कानी; और आगे भी वहाँ के निवासी काॅकरोच और मेंढकों को खाते थे। स्वच्छन्द काम-सम्बन्ध्ा फैल रहे थे; औरतों में किसी तरह की शालीनता नहीं थी; और वे घोड़े के साथ भी संभोग में शामिल हो जाती थीं। माताएँ खेतों में काम करने जाती थीं और पिता बच्चों को रखते थे। लकड़हारे इतने मूर्ख थे कि वे जिस डाल पर बैठते थे उसे ही काटते थे। मुर्गों की जगह बच्चे, भैंसों की जगह आदमियों को देवताओं की बलि चढ़ाया जाता था। कुछ आदमियों के कान इतने बड़े थे कि वे अपना पूरा शरीर ढक लेते थे और कुछ हिस्सों में रहवासी नरभक्षी थे। इस तरह की असहनीय स्थितियाँ माता पंढर और दो देवता राजपंथा और बीनादेव द्वारा ठीक की गयीं। माता पंढर मोर का रूप ध्ाारण करके दूध्ाा गवली के क्षेत्र में गयीं और अपनी जान जोखिम में डालते हुए चोंच में कुछ ज्वार के दाने भर लायीं और उन्हें अपने पिता के देश में बो दिया। उसके बाद वह देश सालभर समृद्ध ध्ान-ध्ाान्य से पनपने लगा। दो देवता उद्धार के मिशन पर लग गये। अपनी आसामान्य शक्तियों के प्रभाव से वे इस अजीब देश के लोगों से अपनी बुरी आदतों को छोड़ने के लिए कहते और उन्हें अच्छी बातें सिखलायीं। इसके परिणामस्वरूप स्वच्छन्द शादियों की जगह गोत्र में शादियाँ होने लगीं। नर बलि की जगह बकरे, मुर्गी या अण्डों की, और मेेंढक की जगह मछलियों को खाने की शुरूआत हुई। लोग समझदार और बहादुर हो गये और नया संसार पनपने लगा।6
काने कहते हैं अश्वमेघ यज्ञ ऋग्वेद के वर्णन से भी पुराना है और इस यज्ञ की एक विध्ाि यह भी है कि राजा की बड़ी रानी बलि दिये जाने वाले घोड़े के साथ सम्भोग करे।7 क्या यह रीति पहले की विध्ाानों की अनुगूँज नहीं हैं? भीलों की उत्पत्ति के पारम्परिक वर्णन में घोड़े का महत्त्वपूर्ण वर्णन पाया जाता हैः
एक पारम्परिक वर्णन यह कहता है कि एक ध्ाोबी, जो अपने कपड़े नदी में ध्ाोता था, को एक मछली ने एक दिन चेतावनी दी कि महाप्रलय आने वाला है। मछली उसके प्रति कृतज्ञ थी क्योंकि वह उसको और दूसरे समूह को चारा खिलाता था। उससे कहा गया कि वह एक बड़ा बक्सा बनाये जिससे वह बचकर निकल सके। ध्ाोबी ने एक बड़ा बक्सा बनाया और उसमें अपनी बहन और मुर्गे के साथ बैठ गया और जब महाप्रलय आया, राजा श्रीराम ने अपने दूतों को राज्य में हालचाल पूछने के लिए पूछा। उनमें से एक ने मुर्गे की आवाज़ सुनी और इस तरह बक्से को खोजा। राम के सामने उसे लाया गया और ध्ाोबी से पूछा वह कौन है और कैसे बच निकला। ध्ाोबी ने अपनी कहानी सुनायी। राम ने उसे उत्तर, पूर्व और पश्चिम दिशा की तरफ चेहरा घुमाने के लिए कहा और कहा कि वह कसम खाये कि उसके साथ जो औरत है वह उसकी बहन है। राम ने फिर उसे दक्षिण की तरफ घुमाया जिस पर ध्ाोबी ने अपने पिछले वक्तव्य के विपरीत बयान दिया और कहा कि वह उसकी बीवी है।
राम ने उससे पूछा कि उसे भागने की सलाह किसने दी और यह सुनने पर कि वह मछली थी उसने उसकी जबान कटवा दी और उसके बाद से इस प्रकार की मछली जबान के बगैर होती हैं। राम ने फिर ध्ाोबी से कहा कि इस दुनिया को फिर से बसायो। इस तरह ध्ाोबी ने अपनी बहन से शादी की जिससे उसे सात लड़के और सात लड़कियाँ पैदा हुईं। राम ने पहले जन्मे बच्चे को एक घोड़ा भेंट में दिया, चूँकि इस उपहार को पाने वाला घुड़सवारी नहीं कर सकता था, उसने घोड़े को मैदान में छोड़ दिया और जंगल में लकड़ी काटने चला गया। वह और उसके वंशज जंगल में रहने वाले हो गये और इस तरह भील जनजाति की शुरूआत हुई।8
एक सन्दर्भ में जिक्र आता है कि नवीं शताब्दी में नन्दीवर्मा पल्लवमाल ने अश्वमेध्ा यज्ञ किया, जिसके सेनापति ने निषादराज पृथ्वी व्याघ्र को हराया, जो एक जगह से दूसरी जगह जाने वाले अश्वमेध्ा के घोड़े की रक्षा कर रहा था।9
भील, भिलाला और राठवा जैसे वे आज रहते हैं, उस आर्थिक व्यवस्था में घोड़ा कोई प्रमुख भूमिका नहीं निभाता है, किन्तु यह साफ है कि दोनों, कालिक और ईश्वरीय शक्ति का प्रतीक है। इस अर्थ में यह महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि ध्ाोबी के मिथक में उसके बच्चे राम से घोड़े को उपहार स्वरूप नहीं लेते हैं। घोड़े को स्वीकार करने से मना करना वह भौतिक स्तर पर करते हैं। उसके प्रतीकात्मक शक्ति बहुत अध्ािक बढ़ जाती हैः भील देवी-देवताओं को उसे मéत के रूप में चढ़ाया जाता है और भीलों के घरों में। पिठौरो में भी वह अपनी सुरक्षात्मक उपस्थिति दर्ज करता है। भीलों के लिए घोड़ा अश्वमेध्ा का घोड़ा नहीं है जो कालिक शक्ति का जिम्मा लेता है, यह मिथकीय घोड़ा है, जो जीवन के मूल सत्त्व को प्रदर्शित करता है, जिसमें शक्ति है कि वह एक छलाँग में मनुष्य और देवताओं के बीच बँटी दुनिया के अवरोध्ा को पार कर सकता है। भीलों के जीवन में इस तरह घोड़े की प्रासंगिकता निर्णायक है उस वक्त भी जब यह उनके आर्थिक जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाता है। घोड़ा एक साथ ही सहयोग और मुकाबला दोनों की स्थापना निषाद और इण्डो-आर्यन के बीच करता है।
तथ्य यह है कि घोड़ा भीलों के दिमाग को बैल के पहले से अध्ािकार में लिये है, जिसके टेराकोटा और मिट्टी की आकृतियाँ हिन्दू काश्तकार समुदायों की जातियों के बीच आमतौर पर मéत के लिए चढ़ाने वाली मूर्ति है, कारण यह तथ्य है कि भील काश्तकारी बहुत ही आदिम है और यह कि शिकार और पशुपालन करना उनके अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस तरह घोड़े का प्रतीक भील मस्तिष्क के लिए उर्वरता और शक्ति के प्रतीक के तरह मौजूद है।
समुद्र मंथन, जो देवता और असुरों द्वारा किया जा रहा था, उच्चैश्रवा सफ़ेद घोड़ा अमृत के साथ ऊपर आता है जिसे बाली, असुर को दिया जाता है, देवता और असुरों के बीच में संघर्ष होने पर यह नहीं लगता कि, इन्द्र कुछ अच्छा कर पा रहे थे और निश्चित ही बाली उन्हें हरा देता है और उनके साम्राज्य पर क़ब्ज़ा कर लेता है, जो उन्हें घोड़े उच्चैश्रवा के साथ वापस मिलती है जिसे विष्णु (बामन अवतार) युक्ति से वापस प्राप्त करते हैं। बाली असुर होने के नाते निषाद भी हो सकता है, जो वर्ण-व्यवस्था की चैहद्दी के बाहर है।
यदि इन्द्र राजा वैदिक इन्द्र हैं और पिठौरा का आराध्ान मूलतः काश्तकार समुदाय का अनुष्ठान है, फिर क्यों घोड़ा प्रमुखता से पिठौरा और भील और भिलाला की कल्पना में मौजूद है? यह भी दिलचस्प तथ्य है कि हिन्दू जाति जो भील-भूभाग के आसपास रहती हैं वे लोग ‘पिठौरी’ उत्सव मनाते हैं। पिठौरी भी उर्वरता का अनुष्ठान है। कहानी इस तरह है कि एक समय आटपाट नाम का एक शहर था, जहाँ एक गरीब ब्राह्मण रहता था। उसके पिता के श्राद्ध पर जो श्रावण महीने का तेरहवाँ दिन था, जो कि अमावस्या थी, उसकी बहू ने एक बच्चे को जन्म दिया जो तत्काल ही मर गया - ठीक उस वक्त जब ब्राह्मण (श्राद्ध अनुष्ठान के लिए आमंत्रित) अपना भोजन खाने जा रहे थे उन्हें बगैर खाये घर छोड़ना पड़ा। यह लगातार छः सालों तक हुआ। जब यही घटना सातवीं बार घटी। यह क्रोध्ाित ससुर। उसने मरे हुए बच्चे को अपनी बहू के हाथों में दिया और उसे घर से बाहर निकाल दिया। वह एक जंगल में गयी जहाँ उसे एक स्त्री मिली। उस स्त्री ने ब्राह्मण की बहू से पूछा कि वह कौन है, किस कारण से वह जंगल में आयी है और चेतावनी दी कि वह जल्दी ही जंगल छोड़ दे, नहीं तो उसका पति जो एक राक्षस था, उसे खा जायेगा। ब्राह्मण औरत ने जवाब दिया कि वह अपने जीवन को ख़त्म करने ही आयी है। जब उस स्त्री ने आगे पूछा कि उसके इस निराशाजनक कदम उठाने का क्या कारण है, ब्राह्मण औरत ने अपनी पूरी कहानी सुना दी। जंगल की उस स्त्री ने उसे सान्त्वना दी और सलाह दी कि इसी दिशा में वह बढ़ती चली जाये जब तक कि उसे बेल के वृक्ष के नीचे शिवलिंग न मिले। उसने आगे सलाह दी कि वह बेलवृक्ष की शाखा पर रात को बैठ जाये। रात को देवकन्या और नागकन्या अपनी सात अप्सराओं के साथ वहाँ पूजा करने आयेंगी। पूजा के बाद वे भगवान को खीर-पूड़ी चढ़ायेंगी और पूछेंगी कि आसपास कोई भूखा है। फिर वह उसके बारे में विस्तृत जानकारी चाहेंगी। उसे अपनी पूरी कहानी उन्हें सुनाना चाहिए। ब्राह्मण औरत सलाह के अनुसार उस पेड़ पर बैठ गयी। रात में देवकन्या और नागकन्या अप्सराओं के साथ आयीं और उन्होंने पूजा की और नेवैद्य (खीर-पूड़ी) चढ़ाने के बाद उन्होंने पूछा कोई अतिथि है। तत्काल ही ब्राह्मण औरत उनके सामने चली आयी और पूरी कहानी सुनायी, जिसे सुनने पर अप्सराओं ने सातों मरे हुए बच्चों को रख दिया और उनमें प्राण फूँके। उन्होंने ब्राह्मण औरत को यह भी सलाह दी कि वह श्रावण के तीसवें दिन, अमावस्या, को हर वर्ष चैंसठ योगिनी की पूजा करे। यह उनके परिवार में ध्ान-ध्ाान्य और खुशी लायेगी। ब्राह्मण औरत अपने बच्चों के साथ अपने घर लौट आयी जिसे उसके ससुर ने आवभगत के साथ रख लिया।
पिठौरी उत्सव के वक्त हिन्दू जाति की औरतें टेराकोटा का पोला बैल देवता को चढ़ाती हैं। यह भी हिन्दू जाति का उर्वरता का उत्सव है। हिन्दू औरतों द्वारा इस अवसर पर भित्तिचित्र बनाये जाते हैं। पिठौरी उत्सव श्रावण अमावस्या के दिन मनाया जाता है, झाबुआ क्षेत्र में पिठौरा आमतौर पर श्रावण पूर्णिमा के बाद चित्रित किया जाता है जबकि पिठौरी के दौरान भित्तिचित्र औरतों द्वारा बनाये जाते हैं, पिठौरा केवल आदमियों द्वारा बनाया जाता है। जबकि पोला बैल (बध्ािया बैल) पिठौरी के समय चढ़ाया जाता है। महालिंगी घोड़े पिठौरा में चित्रित किये जाते हैं और बैल की आकृति भी जो गाँवों की गायों को गाभन करता है। यदि भील वास्तव में काश्तकार थे, जिन्होंने इन्द्र के काश्तकारी उर्वरता के अनुष्ठान को स्वीकार कर लिया था, फिर क्यों महालिंगी घोड़ा उनके लिए इतने महत्त्व का है। वास्तव में, कई पिठौरों में घोड़ा स्त्री के साथ संभोग करता दर्शाया जाता है।10 भील और भिलाला में घोड़ा पौरुष और उमंग का प्रतीक माना जाता है, उर्वरता और शक्ति का। बध्ािया बैल शायद सच्ची फसल के जन्म का प्रतीक माना जाता हो। भील ऐसा लगता है कि वे घोड़े की उस शक्ति, जो प्रकृति ने उसे प्रदान की है, की बलि संस्कृति (खेतबाड़ी) पर नहीं देना चाहते हैं, जिसे लेविस्ट्राॅस दूसरी प्रकृति कहते हैं। वह कहते हैं ‘‘एक क्राॅस समाज के बीच मौजूद मान्यता के ऊपर प्रमुख हो जाता है, जिसे मनुष्य ने कभी प्रकृति की तरह देखा है और अक्सर यह एक भ्रम की मौजूदगी ही होता है।’’11 घोड़ा यथार्थ है जिसे भील इसी भ्रम में सचाई मान बैठे और उसके प्रति वह अभी तक सहज नहीं हो सका है।
पिठौरा निश्चित ही सृजन के चित्रित मिथ हैं। दीवार पर उकेरा गया आयताकार, स्वर्ग और सूरज और चन्द्रमा की जगहें, भील जीवन से सम्बद्ध सभी चिन्ह यहाँ चित्रित हैंः शेर, हाथी, बकरियाँ, ऊँट; केले का वृक्ष, ताड़वृक्ष, झाडि़याँ, कीड़े-मकोड़े, बिच्छू, गिरगिट, मध्ाुमक्खी के छत्ते; देवी-देवता और मिथ की आकृतियाँ, भीलट देव, बारा माथ्या या राजा रावण, सुपड़ कन्या और एक टाँग्या; ध्ारती माँ और खेती करता किसान, मक्खन निकालती महिला और शिकारी; और इन सबके ऊपर प्रमुखता से चित्रित और केन्द्र में रखी गयी घोड़ों की आकृतियाँ, पिठौरो और देवी-देवता, जिन्हें या तो घुड़सवार की तरह घोड़े पर सवार दिखाया जाता है या घोड़ों द्वारा दर्शाया जाता हैः घोड़ा उर्वरता और शक्ति का भण्डार है।
पिठौरा एक टेपेस्ट्री प्रस्तुत करता है जो कई स्तरों पर बुनी जाती है और भील चेतना की कई सतहें उसमें होती हैं। उसमें आदिम देवी-देवता अपने आडम्बरहीन जादुई शक्तियों के साथ मौजूद हैं, वहाँ मिथकीय आकृतियाँ हैं जैसे विचित्र एक टाँग्या, जो कहा जाता है कि उस लुप्त देश का वासी है जहाँ एक पाँव के मनुष्य थे, असाध्ाारण विरोध्ााभासी बारह माथ्या जो वाल्मीकि की रामायण का रावण नहीं है; वहाँ सुपड़ कन्या है (सूप जैसे कान वाला व्यक्ति) जो सभी कहानियों को सुन रही है। उन कहानियों और गप्पों को जो दुनिया में पैदा हुईं; और वहाँ जानवर हैं और वृक्ष हैं और कई दूसरे चरित्र हैं। इस टेपेस्ट्री के कई अर्थ लगाये जा सकते हैं, किन्तु भील के लिए यह पवित्र है और इसलिए एक सौन्दर्यशास्त्रीय उपस्थिति है। देवी-देवता और अन्य चरित्र को उनके सम्बन्ध्ाों से जाना जाता है न कि उनकी व्याख्याओं से। यह टेपेस्ट्री पिठौरा पेंटिंग में ही जीवित हो उठती है, और कई लिखन्दरा अपने सृजन की विलक्षणता को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं, उनमें से एक भाभरा गाँव के पेमा फत्या हैं जिनके चित्र की रेखाओं में कसाव है, रंगों में परावर्तन है और हास्य वृत्ति पर जोर है यह सब मिलकर पिठौरा को एक ध्ाड़कता हुआ यथार्थ प्रदान करता है और भीलों के निवास में एक जि़न्दा उपस्थिति का अहसास कराता है। आस्था की वस्तुनिष्ठता प्रतिमाओं को कला में एक सार्वभौमिक प्रमाणिकता प्रदान करती है, अनुष्ठानों के बीच एक मानव आत्मा उसमें प्राण फूँकती है।
सन्दर्भ ग्रन्थः
1. पेंटेड मिथ्स एंड क्रियेशन, आर्ट एंड रिचुअल आॅफ़ एन इंडियन ट्राइब, ज्योतिन्द्र जैन, ललित कला अकादमी, 1984.
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6. द भील्स - ए स्टडी, टी.बी. नायक.
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9. ध्ार्मशास्त्र का इतिहास, डा. पी.वी. काने, ए.सी. कश्यप द्वारा अनूदित, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ.
10. पेंटेड मिथ्स एंड क्रियेशन, आर्ट एंड रिचुअल आॅफ़ एन इंडियन ट्राइब, ज्योतिन्द्र जैन.
11. द वे आॅफ़ द मास्क, क्लाॅड लेवि-स्ट्राॅस, जोनाथन, केप, लंदन, 1983.
चिन्तित बेन्द्री
जब असुरों और देवताओं द्वारा समुद्र मंथन किया जा रहा था, अमृत निकला। ब्रह्मा को नहीं पता था कि इसे कहाँ रखें। हर जगह बर्तन ढँूढ़ने में निष्फल रहने के बाद उन्होंने विश्वकर्मा का सृजन किया और उसे एक बर्तन बनाने को कहा। विश्वकर्मा ने एक कुम्हार को पैदा किया और उसे एक बर्तन बनाने को कहा। कुम्हार ने मिट्टी और ज़रूरी औज़ार माँगे। ब्रह्मा ने उसे मिट्टी दी और औज़ारों के लिए विष्णु के पास जाने को कहा। विष्णु ने उसे अपने चक्र का आध्ाा हिस्सा दिया और कुम्हार ने बर्तन बनाया। कुम्हार अपने चाक को विष्णु का आध्ाा चक्र मानते हैं। विष्णु चक्र अपने आप घूमता है, और कुम्हार के चक्र को हाथ से घुमाना होता है। नगरनार बस्तर के लीमध्ार कुम्हार ने यह कहानी अपने समुदाय की उत्पत्ति के सन्दर्भ में सुनायी।
मध्यप्रदेश की मिट्टी बहुत समृद्ध है और उसके टेराकोटा भी। कुम्हार न सिफऱ् आदिवासियों के लिए घड़ा और अन्य बर्तन बनाते हैं वह उनके लिए टेरोकाटा के खिलौने और देवी-देवता भी बनाते हैं। सरगुजा के अलावा जहाँ वे अपने खुद के कबेलू बनाते हैं। आदिवासी शायद ही अपने टेराकोटा के देवी-देवता या मéत के लिए चढ़ाये जाने वाली वस्तुएँ बनाते हैं। कुम्हार हिन्दू जाति के सीढ़ी में बहुत नीचे हैं और आदिवासियों के नज़दीक रहते हैं। यह कहा जा सकता है कि उन्होंने आदिवासियों का जीवन दृष्टिकोण अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है। जाति व्यवस्था में उनका शामिल कर लिया जाना उनसे आदिवासियों की विश्व दृष्टि को साथ-साथ साझा करना मुश्किल नहीं होने देता। मान्यता के लिए चढ़ाये जाने वाली टेराकोटा की आकृतियाँ जो वे बनाते हैं उनमें आदिम शक्ति है, निस्सन्देह आदिवासी मानस में इसकी जड़ें गहरी जमीं हैं। इस तरह आदिवासी कला पर विचार करते वक्त कुम्हारों के द्वारा बनाये जाने वाली वस्तुओं को इसमें शामिल किया जा सकता है।
भील मानस में घोड़ा एक महत्त्वपूर्ण अर्थ रखता है। टेराकोटा की घुड़ आकृतियाँ उनके देवताओं जैसे, भीलटदेव, रानी काजल, आदि को चढ़ायी जाती हैं। घोड़े की आकृति दोनों तरह से हाथ और कुम्हार के चाक से बनायी जाती हैं। सिर और शरीर चाक पर बनाया जाता है, वे खाली बेलनाकार हैं और उन्हें पैरों के साथ जोड़ दिया जाता है। खाली सिर और खाली शरीर घोड़े को अलौकिक पक्ष देता है; यथार्थवाद यहाँ नहीं लागू नहीं होता है और कुछ उदाहरणों में घोड़े का सिर उस जानवर से बिल्कुल ही नहीं मिलता है। हमारे पास निश्चित ही बाघ से आया सफ़ेद टेराकोटा का घोड़ा है, जिसका शरीर खोखला है और उसकी गर्दन और सिर घोड़े से मिलता-जुलता यथार्थवादी ढंग का है। कैथीवाड़ा क्षेत्र में बने टेराकोटा के घोड़े ज़्यादा अलंकारिक हैं, जिसमें अलंकरण ऊपर से जोड़ा गया है। इन घोड़ों को बड़ी संख्या में बनाया जाता है और शायद इसमें व्यक्तिगत आकर्षण न हो, पारम्परिक आकार ही अपने में अवध्ाारणात्मक रूप में पूर्ण है कि उसे सच्ची सौन्दर्यशास्त्रीय शक्ति और उपस्थिति मिल जाती है। घोड़ों के अलावा, टेराकोटा के भैंस, ऊँट भी मान्यता के रूप में चढ़ाये जाते हैं। भैंसा आर्थिक रूप से सोचा गया आद्य रूप है।
टेराकोटा का घोड़ा भी बस्तर की एक दूसरे आदिवासी समुदाय मूडि़या द्वारा मन्नत में चढ़ाया जाता है। यहाँ घोड़ा चाक पर नहीं बनाया जाता है और कई तरह के शैलीगत आकार कुम्हार की इच्छा के अनुसार बनाए जाते है। घोड़े घुड़सवारोें के साथ भी बनाये जाते हैं और कहीं-कहीं घुड़सवार रोचक रूप से घोड़े के सिर में ही बना दिया जाता है, वह घोड़े का अंग बन जाता है। इस तरह वह दो सिरों वाला जानवर दिखायी देता है, एक घोड़े का सिर और दूसरा आदमी का। बस्तर के टेराकोटा समृद्ध हैं और भिé हैं। हाथी, बाघ, शेर, घोड़े और शीतला माता की आकृतियाँ और उसका परिवार और अद्भुत बेन्द्री बहुतायत और असाध्ाारण कारीगरी से बनाये जाते हैं। कि़लेपाल का बाघ, बाघ से ज़्यादा लगता है, शायद ओझा ने बाघ का आकार लिया और उसके दुश्मन की आत्मा उसमें डाल दी।
बस्तर और छत्तीसगढ़ इलाकों में टेराकोटा की मन्नत के लिए चढ़ाये जाने वाली बेन्द्री विचित्र रूप से आकर्षक है। जबकि पास ही उड़ीसा में हम टेराकोटा के हनुमान पाते हैं यहाँ एक विचित्र बदलाव के रूप में यह मादा बन्दर में बदल गयी। हनुमान की टेराकोटा आकृतियाँ जो शक्ति को दर्शाती हैं, उसके विपरीत बेन्द्री में चिन्तामग्न और विषाद के पक्ष दिखाई देते हैं। इसे जोड़ दिया गया है उन दो हाथों से जो उसकी जाँघों से निकल रहे हैं और बेन्द्री की ठोड़ी अपने हथेलियों पर टिकी है। बेन्द्री भत्तरा, मूडि़या और बस्तर के हलवा लोगों द्वारा माथिया देवी को चढ़ावे के रूप में चढ़ाये जाने वाला शिल्प है। बेन्द्री क्या सोच रही है? उसकी चिन्ताएँ क्या हैं? मूडि़याओं की भाषा गोंडी में हनु का अर्थ बन्दर है, और हनुमान प्राचीन देवताओं में से एक हैं, मादा बेन्द्री का यहाँ क्या महत्त्व है? बेन्द्री का आकार परम्परा द्वारा पवित्र किया गया है और एक ही मुद्रा में सभी कुम्हारों द्वारा अपनी शैलियों में बनाया जाता है। अपने दोहराव के बावजूद इस क्षेत्र में पाये जाने वाले टेराकोटाओं में यह सबसे ज़्यादा नाटकीय अभिव्यक्ति देता है जबर्दस्त कलात्मकश्शक्ति से थरथराता हुआ। जो भी इसका अनुष्ठानिक या सामाजिक महत्त्व हो। हमारे सामने बेन्द्री की पहेली पूरी तरह से कपड़े पहने कला कीे पहेली की तरह आती है। खिé बेन्द्री की तीखी तुलना में हाथी है जिसे दो बर्तनों को जोड़कर बनाया जाता है, एक बड़ा शरीर के लिए और दूसरा छोटा सिर के लिए सरगुजा और रायगढ़ के कुम्हारों द्वारा। यह हाथी अन्दर से खोखले हैं, जिसके ऊपर एक छेद और जिन्हें आदिवासी शादी के अवसर पर इस्तेमाल करते हैं। कुम्हार को हाथी में जितना चावल भरा जा सकता है उतना दिया जाता है, और इसलिए उनके बीच में यह प्रथा है कि वे जितना सम्भव हो सके उतना बड़ा बनायें। इन हाथियों में एक अनोखा हास्य दिखलायी देता हैः कुछ जिनका बहुत बड़ा पेट है और छोटे चार पाँव और एक छोटी-सी सूँड और कुछ जिनकी बहुत बड़ी सूँड है और कुछ तो कहने को विविध्ा अनादर करने वाले रूपाकार हैं। वे कई प्रकार के जानवरों की आकृतियों वाले और अलंकारिक कबेलू और कबेलू शिखर भी बनाते हैं। गोंड और ओराव आदिवासियों द्वारा भी कभी-कभी कबेलू बनाये जाते हैं जो दोनों ही काम के लिए इस्तेमाल होेते हैं सुरक्षा और अलंकरण। साँप का फन, शेर, चिडि़याएँ, बैल, किसान हल लिए हुए जैसी आकृतियाँ उसमें जोड़ी जाती हैं। कबेलू शिखर के ऊपर मछली, चिडि़या और कभी-कभी कर्मा नर्तकों का समूह बनाया जाता है। ये कबेलू एक क़तार में लगाये जाते हैं और छत के किनारों पर कबेलू शिखर आदिवासी झोपडि़यों को अतुलनीय लालित्य प्रदान करते हैं।
सामान्य तौर पर टेराकोटा की आकृतियों में देवी-देवता नहीं दिखायी देते हैं, पाँचगाँव शहडोल के अघरवा बैगा द्वारा बनायी गयी महादेव की आकृति अप्रतिम आदिम शक्ति से भरी है, ठीक जैसे कि हरिसिंह बैगा द्वारा बनाया गया हाथी सवार। कच्ची मिट्टी और गोबर से बनाया गया हाथी विशालकाय दिखता है जैसे कि उत्पत्ति के जन्म के समय ही वह ध्ारती से खुद का आकार ग्रहण कर रहा हो। मण्डला के पाटनगढ़ के जनगण परध्ाान द्वारा बनायी पकी हुई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उसकी अपनी कल्पना की उपज हैः वे देवी-देवताओं के लिए बनाये जाने वाले चैक के चिन्तन से जन्म लेती हैं। बड़ादेव की टेराकोटा मूर्ति विचार में तल्लीन है और बाघदेव, अपने मानव आकार में शारीरिक शक्ति का साकार रूप है। जनगण बाघ और बाघदेव के बीच फ़कऱ् पैदा करता है। यद्यपि बाघदेव की आकृति लकड़ी मेें पायी जाती है, कुछ-कुछ बाघ को भी प्रस्तुत करती हुई, बैगा और गोंडों के बीच में, जनगण कहता है कि बाघदेव बाघ के समतुल्य नहीं हैं। बाघदेव के एक लोकोत्तर देवता है जो समय -समय पर मनुष्यों पर उतरता है और वह सिफऱ् बाघ नहीं हो सकता जिसे शिकार कर मारा जा सकता हो। इसी तरह के विचार भील अविवाहित युवती द्वारा टी.बी. नायक को बतलाये गये। इन विनम्र कलाकृतियों के सृजनकत्र्ताओं को इन आकारों की संकल्पना की क्षमता निश्चित ही उल्लेखनीय है जैसा कि इन असीम आकारों से प्रमाणित है जिसमें वे रचते हैं अपने हाथी, बाघ, बैल, हिरण, घोड़े और चिडि़याएँ। रायगढ़ कुकरी के सकलूराम कुम्हार का उल्लेखनीय टेराकोटा है जिसे मैं रौदा से क्षमा प्रार्थना के साथ, एक विचारक की तरह तुलना करूँगा।
गोंड और सौराज के द्वारा बनाये गये टेराकोटा के मुखौटे और कुम्हारों द्वारा बनाये गये जिसे आदिवासी कर्मा नृत्य के दौरान इस्तेमाल करते हैं और दूसरे नृत्यों के लिए जिसे सरगुजा के ओझा डाॅक्टर द्वारा पहना जाता है जिसका रूप पागलपन तक डराने वाला है।
जैसे हम मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में पश्चिम में झाबुआ से दक्षिण में बस्तर की ओर और पूरब में सरगुजा और रायगढ़ की तरफ गुज़रते हैं हम मान्यता में चढ़ाये जाने वाले टेराकोटा के ढेर पेड़ों के तने के नीचे गाँव के बाहर पाते हैं, छतों परः एक समानान्तर संसार निर्जीव चीज़ों का और फिर भी संग्रह स्थल जि़न्दा विश्वासों का, मानसून में बारिश के द्वारा ध्ाो दिये जाने और फिर मौसम के बदलने पर देहाती कलाकारों द्वारा फिर से सृजन किये जाने के लिए दिखाई देता है।
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बूझती अँगुलियाँ
मानव की अँगुलियाँ उल्लेखनीय शरीर का हिस्सा हैं। ऐसा लगता है वे अपनी इच्छा शक्ति से प्रेरित हैं। वे अपने आसपास के यथार्थ में ही नहीं पैठती बल्कि मस्तिष्क के गहरे अवकाशों में भी जा घुसती हैं। वे खोज करती हैं और ढँकती हैं, उद्घाटित करती हैं और गढ़ती हैं। पानी से गुज़रते या रेत से वे लहरों और रेखाओं को पैदा करती हैं, वे सतह पर रेखाएँ बनाती हैं और मस्तिष्क आश्चर्य करता है कि रेखाएँ क्या उद्घाटित करती हैं। मैं सéा के जंगल के विश्राम-गृह में दूबी को देखता हूँ, एक पहाड़ी कोरबा युवती लकड़ी के ब्रश से काग़ज़ पर रेखांकन कर रही है। उसकी अँगुलियाँ ब्रश को बिना किसी प्रयत्न के पकड़े हैं और काग़ज़ के सतह पर घुमा रही हैंः रेखाएँ निकल रही हैं और चारों तरफ रेंग रही हैं जिसे वह अपनी बीड़ी पीती हुई, बच्चों जैसी तल्लीनता से देख रही है कि बूझती अँगुलियाँ क्या रच रही हैं।
दूबी का यह रेखांकन किसी भी परम्परा में मौजूद नहीं है। जब तक वह उस संस्कृति के पीछे नहीं जाता जहाँ वह पैदा हुई है। एक भटकता लावारिस समुदाय, उसी समुदाय से सम्बद्ध जो अब शिकार नहीं कर सकता या जंगल में बदलती खेती का अभ्यस्त नहीं होता। दूबी अब नहीं है। उसकी मृत्यु बुखार से हुई। हमारे लिए बनाये गये काग़ज़ पर उसके रेखांकन उसके समुदाय के कुछ और लोगों द्वारा बनाये गये रेखांकन, अब बच गये हैं। पहाड़ी कोरबा कोरबाओं के वंशज हैं जो अम्बिकापुर और सरगुजा जि़ले के सामरी तहसील, रायगढ़ जि़ले की जशपुर तहसील और बिलासपुर जि़ले की कोरबा तहसील में रहते हैं,
बलादरपाट के पहाड़ी कोरबाओं से सम्पर्क स्थापित हो जाने पर हमने उन्हें रेखांकन के लिए काग़ज़ और रंगीन पेन दिये। शराब पीते हुए निश्चित ही हम लोगों में पहले ही मेल हो चुका था। लगभग सभी ने बगैर किसी झिझक के एक साथ ही शुरू किया, बिना एक दूसरे की ओर प्रेरणा या निर्देशों के लिए झाँकते हुए। अत्यन्त ही सरलता और विश्वास के साथ। मैं जानवरों, चिडि़याओं के रेखांकनों की उम्मीद कर रहा था या मानव रूपी देवी-देवताओं का प्रस्तुतिकरण या चैक के अनुष्ठानिक रेखांकन भी। जो उनकी उँगुलियों से बहता हुआ आया वह अप्रत्याशित और चैंका देने वाला था। इनमेें जो हम तत्काल ही स्पष्ट रूप से देखते हैं वह इन रेखांकनों में उनका सुलेखिक चरित्र है, जैसे कि कलाकार रेखांकन नहीं बल्कि लिख रहा है। इन कोरबाओं की कोई लिखित लिपि नहीं है और जिन्होंने ये रेखांकन किये वे अशिक्षित हैं। निश्चित ही साप्ताहिक हाट के दौरान व्यापारियों से हुई मुलाकात, जंगल रक्षक के साथ और सरकारी महकमों के लोगों से मिलने के बाद उन्होंने कुछ अल्पविकसित शब्द उठा लिये बाहरी दुनिया से अपने संवाद के लिए। अन्यथा वे लोग न पढ़ सकते हैं न ही लिख सकते हैं। फिर इस तरह के उल्लेखनीय रेखांकन कैसे?
जब हम इन रेखांकनों की तरफ देखते हैं, हम तत्काल ही पाॅल क्ले के इस कथन का ध्यान आता हैं कि रेखा को चहलकदमी के लिए ले जाना चाहिए। ये रेखांकन पूरी तरह से रेखीय हैं। यद्यपि, यह लगातार बहती हुई रेखा नहीं है किसी वस्तु, आकार या रूप को दर्शाती। रेखा एक ध्ाागे की तरह है जो रील से अव्यवस्थित ढंग से खुलकर घूम गया, सिर्फ़ ध्ाागा टुकड़ों मेें बचा है, कुछ छोटे और सचमुच लम्बे, ऐंठे हुए भँवर बनाते हुए, आढ़े-तिरछे, वृत्त और अधर््ावृत्त, किन्हीं ख़ास जगहों पर जुड़े हुए और कहीं बिखरे हुए, जैसे कि केन्द्राभिमुखी और केन्द्र-मुखी शक्तियाँ एक ही साथ हों। उन्हें निरुद्देश्य की गयी गोदा-गादी की तरह रद्द किया जा सकता है (हालाँकि कोई भी गोदा-गादी उद्देश्यहीन नहीं होती) सिफऱ् कुछ साफ-साफ देखे जाने वाले नक्श के सिवा ज़्यादातर निरुदृश्य हैं। ज़्यादातर रेखांकनों में रेखाओं के जाल के भँवर में कहीं हम कुछ चित्र लेख पाते हैं - रेखांकन जो स्वाभाविक रूप से सूरज है या मानव आकृति है या एक जानवर है, हालाँकि ये भी फिर से रेखीय गुणवत्ता ही ध्ाारण किये हैं। ज़्यादातर इन रेखांकनों में हम पाते हैं कि रेखाएँ लिपि बनने की आकांक्षा लिये हैं। वे बिखरे हुए आध्ो आकार ध्ाारण किये हुए किसी भाषा के अक्षर की तरह हैं, जिन्हें अभी पैदा होना है। यह चारित्रिकता इन रेखांकनों को एक विचित्र और गतिमान सुलेखीय गुणवत्ता प्रदान करती है। यह उल्लेखनीय है कि वे अपने को किसी चित्रलेख के आकार में नहीं ढाल रही हैं, वस्तु के चाक्षुक प्रस्तुतीकरण में, किन्तु यह अमूर्त संकेत चिह्न हैं, जैसे कि वे लिखित लिपियों के जन्म और विकास के समूचे इतिहास को एक बार में ही जीतना चाहती हों। सिफऱ् ये ‘अक्षर’ अक्षर नहीं हैं, क्योंकि वे अपने को किसी निश्चित क्रम में नहीं दोहराते हैं और ये ‘शब्द’ शब्द नहीं हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति की कोई पद्धति नहीं है और यह ‘वाक्य’ वाक्य नहीं है, क्योंकि उनके अनुक्रम या वाक्य-विज्ञान का कोई व्याकरण नहीं है। एक प्रकट होता है उनमें से और दूसरे में लुप्त हो जाता है। इस अर्थ में यह पढ़ने योग्य पाठ नहीं है, फिर भी यह ध्ाड़कता चाक्षुष अनुभव है, प्लास्टिक आर्ट की दुनिया में अपनी जगह को वैध बनाता हुआ।
अपनी रेखीय गुणवत्ता को बचाते हुए, इनमें से कुछ रेखांकन कई रंगों में हैं, रंगों का चुनाव कोरबा कलाकारों ने खुद किया। पहली बार में वे छितरी हुई दिखायी दे सकती हैं, फिर भी वे जोरदार रूपात्मक एकता हासिल कर लेती हैं जब आँखें इस रेखीय लहरों के बहाव और उतार के साथ घूमना सीख जाती हैं (डूफ़ी के ब्रश आघातों की तरह नहीं) और अन्दरूनी लय को खोज लेती हैं। वे अतिसूक्ष्म तल्लीनता के विस्तार में जाती हैं और ब्रह्माण्ड की अभिलाषा में खुलती हैं। वे यहाँ की समस्याओं के बारे में बात करती हैं और हवाओं की स्वतन्त्रता के बारे में, पहाड़ों की ऊँचाइयों की, जंगल के रहस्य की और आसमान के चैड़े फैलाव की। एक पहाड़ी कोरबा, अपने रेखांकन करते हुए हाँफ रहा था और गहरी साँस ले रहा था। मुस्कुरा रहा था और आनन्दित आवाज़ें कर रहा था। शब्दशः वह अपने अनुभव को जी रहा था जो काग़ज़ पर संहिताबद्ध कर रहा था। ये रेखांकन गति चित्रकला (।बजपवद च्ंपदजपदह) की मनोकामिक शुद्धता से अनुप्राणित है और उसी वक्त शब्द के जन्म की कविता से तरबतर भी।
सामान्य तुलनाएँ तत्काल ही दिमाग़ में आती हैं, मार्क टोबी के चित्र उदाहरण के लिए या फिर अम्बादास के। इन दोनों आध्ाुनिक उल्लेखनीय अमूर्त चित्रकारों के संसार में, एक अमरीकी और दूसरा भारतीय, रेखाएँ भाषा के संदेश देने के थका देने वाले बोझ से छुटकारा पाती हैं और तत्काल संवाद पर पहुँचने का संघर्ष करती हैं; वे उस सिरे पर काँपती हुई संघर्ष करती हैं जहाँ ध्वनि बोली में बदल जाती है और लिखाई लिपि बन जाती है। वह क्रम-बन्ध्ान की कमी से खत्म हो जाती है और इस तरह पहचान नहीं बनती। वह मानव मस्तिष्क के उन सारी कल्पनाओं और भावनाओं को साथ ले चलती है बिना उसे संज्ञान रूप में बदलते हुए। बच्चे द्वारा खींची गयी कोई भी रेखा अर्थहीन नहीं है यद्यपि हम शायद प्रतिक्रिया करने की अपनी क्षमता खो चुके हैं जिसका एकमात्र कारण व्यवस्थित शिक्षा के जाल का दख़ल है। पहाड़ी कोरबाओं के ये रेखांकन आदिम हैं, बच्चों जैसे हैं, अबोध्ागम्य हैं, फिर भी जीवित संगीत की तरह दीप्त है।
लालदरपाट और बलादरपाट के पहाड़ी कोरबाओं के विपरीत, राउनी के पहाड़ी कोरबाओं के रेखांकनों में उल्लेखनीय फ़कऱ् हमने पाया, जिन्होंने व्यवस्थित खेतीबाड़ी अपना ली है। यहाँ-वहाँ मवेशियों, चिडि़याओं, मनुष्यों आदि की आकृतियों में तल्लीन दिखते हैं। एक रेखांकन में मवेशियों का पूरा झुण्ड दर्शाया गया है, एक क़तार के ऊपर दूसरी जरा से जगह बदलकर, एक गति का भ्रम पैदा करते हुए, पूरी सतह पर फैलाते हुए, जैसे कि कलाकार अत्यध्ािक पशुध्ान का सपना देख रहा हो। एक दूसरे रेखांकन में एक चूज़ा कीड़े के साथ दिखाया गया है। अत्यन्त सादगी से बनाया गया, चूजे की जिज्ञासा भरी आँखें कीड़े को देख रही हैं, जो कि ध्ाड़कता हुआ जि़न्दा कीड़ा है। कुछ रेखांकन हैं मोर के, हिरण के (शिकार का कथासार), एक रावण बारह सिरों के साथ (इसे भीलों के बारह माथ्या से नहीं मिलाना) किसान एक हल के साथ आदि। एक रेखांकन है जिसमें एक आदमी है घर में है और पशु बाहर। जिन पहाड़ी कोरबाओं ने व्यवस्थित खेती को अपना लिया है वे विरोध्ााभासी रूप से लिखित शब्द के वहम से मुक्त हैं। ये रेखांकन उतने ही उल्लास से भरे हैं जैसे कि उन युवा बच्चों के हों और जो किसी भी अनुष्ठान या शैली का मोहर अपने ऊपर नहीं चिपकाये हैं।
निश्चित ही अनुष्ठानिक रेखांकन बहुत ही दुर्लभ हैं और एक दूर पहाड़ी कोरबा गाँव में मिला जो कि बहुत ही सादा और प्रतीकात्मक थाः एक मानव आकृति मूलभूत आकृति तक घटा दी गयी थी, जिसमें दो रेखाएँ एक दूसरे को काटती हुई और एक बिन्दु बीच में। लाल बिन्दु सफ़ेद रेखाओं के ऊपर लगाया गया है। दो क़तारें इस तरह की आकृतियों की एक तरफ है और एक क़तार दूसरी तरफ है और बीच का आयताकार एक निवास स्थल को दर्शाता है। ऐसा लगता है कि यह रेखांकन सुरक्षा के आकर्षण को सुझा रहा है। बलादरपाट और लालदरपाट के पहाड़ी कोरबाओं द्वारा बनाये गये रेखांकन या रावनी के कोरबाओं द्वारा बनाये गये रेखांकन उनकी झोपडि़यों की दीवारों पर नहीं मिले, वे इन लोगों द्वारा काग़ज़ दिये जाने पर अकस्मात् ही रंग, ब्रश और पेंट से उड़ेल दिये गये हैं। अपने रहने के पारम्परिक ढंग से विस्थापित कर दिये गये। ये लोग लगता है इनकी जो भी रेखांकन करने की परम्परा रही होगी, उसे खो चुके हैं। हमारे लिए बनाये गये रेखांकन ऐसा लगता है कि उनके चारों ओर के संसार की पुनर्खोज है एक नये जीवन के अनुभव की संहिता, एक नयी संस्कृति की शुरूआत। एक समय में सरगुजा के मैदानों पर रहने वाले लोगों के लिए पहाड़ी कोरबा आतंक का पर्याय थे, अब वे लोग क्षुब्ध्ा हैं और अपने चारों ओर बदलते हुए डरावने संसार को पकड़ में लेेने की कोशिश कर रहे हैं, वे हमें कर्मा गीत की उस पीड़ा के पास ले आते हैं जिससे इस निबन्ध्ा की शुरूआत हुई थी।