बूझती अंगुलियाँ-2 जगदीश स्वामीनाथन अँग्रेज़ी से अनुवादः अखिलेश
29-Dec-2019 12:00 AM 4006

समयः मिथकीय मुक्ति
गोंडों की उत्पत्ति का मिथकः लिंगो का मिथक में हिस्टाॅरिकल समय को आश्चर्यजनक ढंग से हासिल किया गया है। इसके कई पाठ्यान्तर दन्त कथाओं और लोक कथाओं के रूप में उपलब्ध्ा हैं, उनमें से कुछ दूसरों से बिलकुल ही भिé हैं, फिर भी समान बात कहते हैं। उदाहरण के लिए, बस्तर से निकली कथाएँ, रीवा की लिंगो पर्वत से सम्बन्ध्ाित कथाओं से भिé हैं। उनमें से कुछ साध्ाारण लोककथाओं की तरह ध्वनित होती हैं, और कुछ गोंड वंश की उत्पत्ति और सृजन की कथा कहती हैं, जबकि एल्विन के अनुसार, ‘लिंगो का मूडि़याओं के लिए सबसे बड़ा योगदान ‘घोटुल संस्था’1 का निर्माण था।
हम इन विभिé दन्त कथाओं और कथाओं के विस्तार में नहीं जाएँगे, अपने लक्षणों में उनमें से बहुत-सी अपूर्ण हैं, इन दो के अलावा, एक हिस्लाप के द्वारा दर्ज किया गया कथन और दूसरा हेमनडाफऱ् के द्वारा। ये वर्णन गोंड उत्पत्ति की संश्लिष्ट और सम्पूर्ण कथा, उनका कारावास और उनकी निर्णायक स्वतंत्रता तथा पुनर्बसाहट समेटे हैं। शेख गुलाब, जिन्होंने मण्डला के गोंडों के बीच पूरा जीवन बिताया है, ने हाल ही में इसी से मिलता-जुलता पाठ्यान्तर लिखा है, जो उन्होंने मांडगाँव2 के परध्ाान काशीराम से सुना था।
इनमें हमारी रुचि इस तथ्य को जानने में है कि ये कथाएँ, लम्बे समय में तथाकथित इण्डो-आर्यन और देशज लोगों के सम्बन्ध्ाों पर सार्थक प्रकाश डालती हैं, जो इस उप महाद्वीप में रहने वाले लोग हैं, और उनका वह फैलाव जिसे वर्ण या जाति-प्रथा ने उन्हें अपने में आत्मसात या उनको एकीकृत कर लिया। जैसा कि मैंने कहीं लिखा है, ‘आदिवासियों के साथ बरताव करने में हम उन लोगों के साथ बरताव कर रहे हैं, जो हिन्दू समाज की संरचनात्मकता रीढ़ की कांतिहीन व्यवस्था के बाहर के लोग हैं।
यहाँ पर हम हिस्लाप और हेमनडाफऱ् द्वारा प्रस्तुत की गई मिथ का सम्पूर्ण वर्णन या विस्तृत पुनप्र्रस्तुति नहीं कर रहे हैं। हम सिफऱ् मिथ के निर्णायक संकेतों को ही देखेंगे, जो हमारे विश्लेषण के लिए महत्त्व के हों।
हिस्लाप के वर्णन3 के अनुसार पृथ्वी के निर्माण के बाद, भगवान ने महादेव और पार्वती को अपने हाथ के फोड़े से जन्म दिया। महादेव के पेशाब से अनेक वनस्पतियाँ पैदा हुईं। पार्वती ने उन्हें खाया और गर्भवती हो गई, फिर अठारह करोड़ भुसौरा ब्राह्मण देवताओं और बारह करोड़ भुसौरा गोंड देवताओं को जन्म दिया।
कोयतोर आया, आये दल बाँध्ाकर वे सब,
इतने की सोलह खलिहान भर जाएँ,
आये और फैल गये सारे देश में,
पहाड़ों और घाटियों में,
जंगल की हर किनार तक
सब जगह देश में वो भर गये
हर जीव को मारकर खाते,
बिना भेदभाव के खाते
साफ़ और गंदा खाते,
कच्चा और सड़ा हुआ खा जाते।
कव्वे और चील खाते,
खाते वे गिद्ध।
डोकुमा चमरघेंघ (सारस पक्षी) खाते।
गाय खाते, बछड़ा खाते।
खाते भैंसा, और भैंसिन।
चूहा, मूसा और खाते घूस।
इस तरह गोंड ने किसी में भेद नहीं किया।
आध्ो साल तक नहीं नहाया
न ही मुँह ध्ाोया।
वो गोंड जो गंदे और घृणित ढंग से रहा।
जब वे गिरे गोबर के ढेर पर
तब कोयतोर पैदा हुआ
और दुर्गन्ध्ा फैल गई
जंगलों में पहाड़ों पर चहुँओर
और महादेव के देवलगिरी तक पहुँची
क्रोध्ाित महादेव ने अपने दूत नारायण से कहा-
‘‘पकड़ लाओ इन दुष्ट गोंडों को,
कितना बसा रहे हैं और
फैल गये हैं मेरे देवलगिरि तक’’4
महादेव ने तय किया कि गोंडों से मुक्ति पाना है, उन्होंने अपने शरीर के मैल से एक चिकुरी (गिलहरी) बनाकर गोंडों के बीच छोड़ दी। सभी गोंड उसका पीछा करने लगे, उन्होंने उस पर लकड़ी से हमला किया, पत्थर फेंके और मिट्टी के ढेले बरसाये, और उनके बिखरे बाल हवा में लहराये। गिलहरी उन सबको चकमा दे भाग चली महादेव के संकेतों पर, अन्त में एक बड़ी-सी गुफा में घुस गई, पीछे-पीछे गोंड भी गुफा में घुस गये। तब महादेव ने एक बड़ी चट्टान से गुफा का मुख बन्द कर दिया, सिफऱ् चार बाहर रह गये वे कांचीगोपा, लोहागढ़ा या लाल पहाड़ी की लौहगुफा की तरफ भाग गये और वहाँ रहने लगे।
इस बीच पार्वती को बोध्ा हुआ कि गोंडों की गन्ध्ा, जो उसे भाती थी, ध्ावलगिरी से वह गायब हो गई है। उसकी इच्छा गन्ध्ा को वापस पाने की हुई, अतः उसने तपस्या शुरू की, छह महीने तक उसने उपवास और कठोर तपस्या की। भगवान झूला झूल रहे थे। पार्वती की तपस्या से उन्हें विघ्न पहुँचा, भगवान ने उससे पूछा, उसे क्या चाहिए? पार्वती बोली, वह अपने गोंडों की कमी से दुखी है और उन्हें वापस चाहती है। भगवान ने वचन दिया कि गोंड उसे वापिस दिये जायेंगे।
लिंगावद माड़ (पहाड़) पर
पाहिन्दी का वृक्ष फल-फूल रहा
नये-नये पुष्पगुच्छ अध्ाखिले
पीले फूल पाहिन्दी के
भागवंतल के गोंड राजा ने देखा
देखा और कोयतोर के बारे में सोचा
दुखी मन से पहाड़ों पर भटकते हुए
और देवलगिरि के जंगल के बीच
देखा और आया जैसे बारिश से भरा बादल,
पंखों जैसा फैलता और तूफ़ान जैसा गरजता,
बिजली चमकी और आकाश गहरा हो गया
रात के चैथे प्रहर में
केसर का अम्बार गिरा
और फैल गया पाहिन्दी वृक्ष तले
इस तरह भगवान फूलों में आये
अँध्ोरे ने उसे चारों ओर से ढँक लिया
आहिस्ता-से उसकी कोपलें खुलीं
नरमी-से गिरी एक तेज़ फुहार,
और पाहिन्दी पुष्प ने गर्भ ध्ाारण कर लिया
सुबह की लालिमा में बादल खुल गये,
खुले हुए बादल अभी भी गरज रहे थे
पाहिन्दी का पीला फूल खिल उठा
सूरज की रोशनी में फूटा
मेरा लिंगो इस तरह जीवन पाया5
लिंगो ने उन चारों भाइयों को ढूँढ़ लिया और उन्हें खेती करने की कला सिखाई। उसने गुणी रिकड़ गौरी को सम्मोहित किया, जिसकी सात कन्याएँ थीं, इन चारों भाइयों से उनका विवाह कराया। जब इन चारों भाइयों की पत्नियों ने लिंगो में काम-भाव जगाना चाहा, बदले में उसने उन्हें उपकृत करने से मना कर दिया। तब उन्होंने अपने पतियों को इसके खि़लाफ़ भड़काया और पतियों ने मिलकर लिंगो की हत्या कर दी। भगवान ने लिंगो को ढूँढ़ने और पुनर्जीवित करने के लिए काकसुर, सरदार रावण को भेजा। पुनर्जीवित लिंगो कारावास में बन्द गोंडों को खोज निकालता है, अपनी कठोर तपस्या से महादेव को बाध्य करता है कि, गोंडों को मुक्त कर दिया जाये, लिंगो उन्हें खेती करना सिखाता है, उन्हें विभिé गोत्रों में विभाजित करता है, उनके भगवान रूपायित करता है, और उन्हें बलि देने के कर्मकाण्ड सिखलाता है, नाचना और गाना सिखलाता है।
‘‘फिर वह उनके देखने में घुल गया
और देखने के लिए उन्हें आँखों पर बहुत ज़ोर लगाना पड़ा
किन्तु वह ग़ायब हो गया, फिर कभी दिखा नहीं।’’6
हेमनडाफऱ् द्वारा दिया गया आदिलाबाद क्षेत्र का पाठ्यान्तर कुछ अलग है किन्तु हमारे प्रयोजन के लिए सारभूत है, जो समान निष्कर्षों तक ले जाता है। इस वर्णन में, काली कंकाली समुद्र में नहाने जाती है और देखती है, वहाँ पैंसठ करोड़ देवता नहा रहे हैं। उसके मन में काम-वासना जागती है और वह गर्भवती हो जाती है, वह बारह करोड़ गोंड देवता, तैंतीस करोड़ तेलागू देवता, बत्तीस करोड़ मराठा देवताओं को जन्म देती है, पर उन्हें घर ले जाने से भयभीत होकर वहीं जंगल में छोड़कर चली जाती है। काली कंकाली भी गर्भ में इसी तरह आई थी जब देवता पापी निरंजन पेन और देवी निरा निरंजन एक-दूसरे को पहली बार देखने के बाद समागम करते हैं।
शेम्बू महादेव मेरूगिरी पर्वत पर अपने सिंहासन से उठते हैं और कहते हैं- ‘‘मैं अपनी पृथ्वी की भूमि पर यात्रा करूँगाः घाटी-दर-घाटी उसे देखूँगा।’’ फिर उसने अपने सफ़ेद नन्दी को तैयार किया। गिर्जल पार्वती ने कहा- ‘‘मैं भी दुनिया देखूँगी’’ और वे गुज़रे घाटियों से, बरसाती बादलों से। पहले उत्तर की तरफ, फिर मोबूलाबी प्रदेश, फिर पश्चिम की तरफ और अन्त में पूर्व की तरफ। पार्वती ने काली कंकाली के पिनपिनाते बच्चों को देखा, उन्हें इकट्ठा किया और अपनी साड़ी की तह में रख लिया। उसने अपने दाहिने स्तन से गोंड देवताओं को दूध्ा पिलाया, बायाँ स्तन तेलागू और मराठा देवताओं को दिया। बायाँ स्तन कड़ा और गोल बना रहा, जबकि दायाँ स्तन सिकुड़ गया। शेम्बू ने कहा कि, ‘जिन गोंड देवताओं को तुमने छिपा रखा है, उन्हें दूध्ा नहीं बल्कि ठोस आहार खिलाना चाहिये।’ शेम्बू ने स्वयं सभी देवताओं के लिए शाकाहारी भोजन तैयार किया। गोंड देवता शराब और मांस चाहते थे। शेम्बू नाराज़ हो गये। उन्होंने अपनी जाँघ से एक गिलहरी पैदा कर उसे गोंडों के बीच छोड़ दिया। वे गिलहरी के पीछे भागे, वह गुफा में छिप गई, गोंड उसके पीछे गुफा में घुस गये, शेम्बू ने चट्टान से गुफा का दरवाज़ा बन्द कर दिया।
हेमनडाफऱ् कहते हैंः
‘‘कुछ देर के लिए पौराणिक नायक लिंगो की इस छवि जो हिस्लाप के वर्णन में भी है, को छोड़ देते हैं, और ट्रेंच के द्वारा दर्ज किया गया आख्यान और बस्तर और छत्तीसगढ़ के कुछ समान मिथ और कहानियाँ, जो आदिलाबाद के रहने वाले परध्ाान और गोंडों की ध्ाारणाओं पर केन्द्रित हैं, इनमें हम अपूर्व व अनोखी भिéता पाते हैं जो उनकी उत्पत्ति, प्रकृति तथा चरम भाग्य के सन्दर्भ में है और एक ही बिन्दु है जहाँ सभी मिथक सहमत हैं, कम से कम मोटे तौर पर, वह गोंड देवताओं को मुक्त कराने और गोंड रिवाजों की स्थापना करने में उसकी भूमिका।7
‘‘लगभग सभी गोंडों के लिए ‘पाहिन्दी कूपर लिंगल’ नाम का कोई ख़ास अर्थ नहीं है, वे इसके अलावा कोई और व्याख्या नहीं देते हैं कि यह नाम उनके मिथक के नायक का है। किन्तु ‘पाहिन्दी’ एक झाड़ी का भी नाम है, जिसमें लाल फूल खिलते हैं। चूँकि हिस्लाप का वर्णन कहता है कि कैसे लिंगल पाहिन्दी के फूल से पैदा हुआ है, इसमें कोई सन्देह नहीं है कि, पाहिन्दी एक विशेषण है, जिसका अर्थ वह ‘फूल - जिससे लिंगल पैदा हुआ’ः कूपर का अक्षरशः अर्थ, ‘बालों का जूड़ा’, जो सिर के एक तरफ बाँध्ाा जाता है, किन्तु आदिलाबाद में दोनों ही विशेषण लिंगल के नाम का हिस्सा हो गये हैं और सामान्य तौर पर समझे नहीं गये।
‘मैं आज तक ऐसे गोंड या परध्ाान से नहीं मिला हूँ, जो लिंगल के फूल से पैदा होने के मिथक को जानता हो, किन्तु एक गीत है, जो हमें बतलाता है कि उसका जन्म पाहिन्दी के पेड़ के नज़दीक हुआ है। बहुत-से परध्ाान कहते हैं कि, पाहिन्दी कूपर लिंगल उस झाग से पैदा हुआ है, जो पानी के भँवर के ऊपर बनता है, इस ईश्वरीय उत्पत्ति के कारण उसके न तो माता-पिता हैं, न कोई भाई। जंगूबाई के मिथक में पाहिन्दी कूपर लिंगल की उत्पत्ति अध्ािकतर किस्मत के साथ अपरिवर्तनीय है, मिथ के अनुसार - लिंगल के माता-पिता जलकादेवाडसोर और उसकी रानी हीरादेवी, पोरोपातर बिजलीपुरा में रहते थे। वहाँ लिंगल अपने हाथों में लिंग ध्ाारण किये हुए पैदा हुआ, उसके पैरों, गले और सिर पर भी लिंग था। जब उसकी माँ ने उसकी विचित्र शक्ल देखी, तो उसे पालने से इंकार कर दिया और उसे कुरुवादीप के घने जंगल में अरक्षित छोड़ दिया। वहाँ वह संत सोनखासतर गुरु को मिला, जिसने अपनी भविष्य-सूचना के वृहद ग्रन्थ में खोजा कि, यह बच्चा यश पायेगा और गोंड देवताओं के लिए असाध्ाारण कार्य करेगा, भविष्य में जिसका पुजारी (कटोरा) उसे होना है।’’
पाहिन्दी कूपर ंिलंगल अन्ततः गोंड देवताओं की खोज में निकला। अपने भटकने के दौरान वह कालीपरसर पेन से मिलता है, जो उसे कहता है कि, गोंड देवताओं को ढूँढ़ने में सिफऱ् जंगूबाई मदद कर सकती है।
‘‘तब लिंगल बुपत कुरवा घाटी के लिए चल पड़ता है, वह एक नदी के पास पहुँचता है, जो बजरी पर जिलजिल और पत्थरों के बीच कलकल आवाज़ कर रही थी। इस नदी के पाट पर साज का एक पेड़ लगा था और दूसरे पाट पर डोंडरा का पेड़। दोनों के बीच सुनहरा ध्ाागा बँध्ाा था, ध्ाागे पर कोसा का सुनहरा कोकून एक से दूसरी तरफ लूम की शटल की तरह जर्रर्र्म आवाज़ करता हुआ आ-जा रहा था। लिंगल नदी में नहाया, फिर पाट पर बैठकर अपना चादर कन्ध्ाों के चारों ओर लपेट कर प्रार्थना शुरू कीः सुबह से दोपहर तक उसने जंगूबाई की प्रार्थना की और अन्त में उसने कोसा कोकून से आती जंगूबाई की आवाज़ सुनीः ‘यदि मैं तुम्हारी मदद करूँ तो बदले मेें तम मुझे क्या दोगे?’ ‘माँगो, जो भी तुम्हारी इच्छा है, वह तुम्हारा होगा।’ लिंगल ने जवाब दिया। तब जंगूबाई ने कोसा कोकून से पानी में छलाँग लगाई और एक सुन्दर लड़की बन लिंगल के पास आई। ‘बाई, मुझे मेरे देवताओं तक जाने का रास्ता दिखलाओ।’ लिंगल ने प्रार्थना की। जब जंगूबाई ने लिंगल से उसके वंश की वीरगाथा के बारे में पूछा और तब अपनी मदद के बदले में अपने रिश्तेदारों को लिंगल के वंश में प्रवत्त होने का वचन उसने तत्काल लिया। ‘तब, मेरे पीछे-पीछे आओ’, जंगूबाई बोली; जंगल के रास्ते में उसने लिंगल को पेड़ों की गोंद इकट्ठा करने को कहा, अन्त में वे उस जगह पहुँच गये, जहाँ गोंड देवता गुफा में बन्द थे। गुफा के प्रवेश द्वार पर पहरा देने के लिए शेम्बू ने चन्दन के पेड़ पर गुरुरपंक चिडि़या को तैनात किया हुआ था, वहीं चिडि़या का घोंसला था। जंगूबाई ने लिंगल से गोंद पिघलाने को कहा, जो वे रास्ते के पेड़ों से इकट्ठी करके लाये थे, और कहा- ‘इन चिडि़याओं का मुँह बन्द करने के लिए यह चिपचिपा पदार्थ इनके गले तक भर दो।’ जंगूबाई, जिसने अपना आकार पेड़ों की ऊँचाई तक बढ़ा लिया था, के कन्ध्ो पर खड़े होकर पाहिन्दी कूपर लिंगल चिडि़या के घोंसले तक पहुँच गया तथा उन्हें चुप करा दिया, किन्तु नीचे उतरते समय लिंगल का पैर जंगूबाई की छाती पर पड़ा, फिसलते समय उसकी पीठ पेड़ की ओर थी और उसका पेट जंगूबाई के पेट से रगड़ता चला गया, इस क्रियाकलाप से वह भाई नहीं रहा। जंगूबाई निर्दयता से पेश आई, शिकायती लहज़े में कहा कि, उसका यह व्यवहार सम्बन्ध्ाियों के साथ व्यभिचार जैसा है। जंगूबाई ने कहा, ‘तुम्हें आज के बाद मेरी उपस्थिति से बचना होगा।’
‘‘तब पाहिन्दी कूपर लिंगल पास की नदी के तट पर उगी झाडि़यों में छिप गया। जल्द ही गुरुरपंख चिडि़या वापस लौटी, उसने अपने बच्चों को मरा पाया, वह हत्यारे को तलाशने लगी। उसने अपने पंख पूरी प्रचण्डता से फड़फड़ाये, फलतः कई पेड़ जड़ से उखड़ गये और वह झाड़ी, जिसके पीछे लिंगल छिपा था, तिनके की तरह उड़ गई। ‘तुमने मेरे बच्चों को मारा है, अब मैं तुम्हें मारूँगी’, चिडि़या चिल्लाई। अपनी लौह सदृश्य चोंच जो तलवार से ज़्यादा कठोर थी, उठायी। पाहिन्दी कूपर लिंगल ने अपनी तलवार निकाली और कहाः तीन बार तुम मुझ पर प्रहार करोगी, किन्तु चैथा प्रहार मेरा होगा, तब वह विशालकाय चिडि़या भयानक गति से लिंगल पर झपटी, तीव्र गति से लिंगल उसकी चोंच से कतराकर बच गया, चिडि़या ने दो बार लिंगल पर और प्रहार किया, और चूकी।
फिर लिंगल की बारी आई, अपने पहले ही प्रहार से उसने उसका एक विशाल पंख काट दिया और दूसरे से चिडि़या का सिर।
फिर पाहिन्दी कूपर लिंगल ने गुफा को खोला और गोंड देवताओं को आज़ाद किया...।’’
इस मिथ में अध्ािकतर क्षेपक हिन्दू मूल से है, ऐसा कई विद्वान मानते हैं, फोरसिथ कहते हैंः ‘‘मानें या न मानें, किन्तु इस अंश के भीतर गोंड परम्परा का मौलिक आध्ाारभूत सिद्धान्त है, जो शायद सन्देह का विषय हो; किन्तु यह पक्का है कि यह पूरी तरह से हिन्दूवादी पदावली की चेतना से भरा हुआ है। यह स्वीकार करता है कि, गोंडों की उत्पत्ति के मूल में हिन्दू देवताओं का हाथ है।’’8 एल्विन ने भी इशारा किया है कि, हिस्लाप का वर्णन हिन्दू पूर्वाग्रहों से ग्रसित है।
‘‘दुर्भाग्य से, हिस्लाप के इस वर्णन में सर रिचर्ड टैम्पल द्वारा पर्याप्त काँट-छाँट की गयी। जो स्काॅटलैण्ड मिशन के फ्ऱी चर्च के सहायक रेव बाबा पांडुरंग के मित्र थे, बाबा पांडुरंग जो हिस्लाप के स्थानीय सहायक थे और कुछ यात्राओं में उनके साथ भी रहे, जिन्हें हिस्लाप ने जानकारियाँ इकट्ठी करने के लिए अक्सर नौकरी पर भी रखा था... किन्तु टैम्पल का अनुवाद मनोरंजक है तथा इसे पढ़ने से हिन्दूवादी परध्ाानों की गर्वीली आँखों से देखा गया गोंडों का निष्पक्ष चित्र सामने आता है। ये परध्ाान उस क्षेत्र की राजध्ाानी की अग्रगामी संस्कृति से भलीभाँति परिचित थे, ये कहना ज़्यादा सच होगा कि यह गोंड के बारे में हिन्दू मिथ थी या शायद हिन्दू मठों का विस्तार शैव मत को फैलाने की कोशिश में लगा हुआ था, बजाय गोंड मिथक के प्रामाणिक तत्त्वों के।’’9
हेमेनडाफऱ् भी सोचते हैं कि फिसलाॅक का वर्णन ‘आदिलाबाद के मिथक से ज़्यादा हिन्दू लक्षणों को अपने में ध्ाारण किये है।’10
गोंडों और हिन्दुओं के बीच बड़ी मात्रा में आपसी मेल-मिलाप प्रामाणिक रूप से दिखता है। उदाहरण के लिए, राजगोंड अपने को राजपूत समझते हैं या राजपूतों के आसपास, बजाय गरीब आदिवासी भाई-बहनों के। जैसा कि फोरसिथ व्यंग से कहता है ः
‘‘और देशों की तरह यहाँ भी आभिजात्य होना बाज़ार में बेचे जाने योग्य है, मठ प्रमुख को इस तरह के विशेषाध्ािकार के लिए ऊँची रकम चुकानी पड़ती है; इसके अलावा और कुछ नहीं है जो इन परिवारों को कंगाल बना देती है। जब इन्हें लगातार अपनी जाति के कुलीन होने के लिए रिश्वत देना पड़ती है और इसके लिए भी ऊँची रकम चुकाते हैं और अपनी गुणवत्ता के लिए पुरोहितीय मध्यस्थ को मनाने की भी ऊँची कीमत देते हैं।
‘‘इसी दरार से घुसकर ब्राह्मणवाद ने इन देशज जनजातियोें को पूरी तरह प्रभावित किया। पवित्रता की परीक्षा इन जातियों में अनिश्चित रूप से गिरती रही है, जो कि हिन्दू जाति के विध्ाान के विस्तार की तरह देखा जा सकता है और उसके वंशानुक्रम के प्रमाण की औपचारिकता की तरह है। इन नस्लों के अनिश्चित वंश-परम्परा में पवित्रता की परीक्षा का फैलाव हिन्दू-कोड की पवित्रता और अनुष्ठान का पालन ज़्यादा है बजाय वंशानुक्रम के वास्तविक सबूत के। एक तरह से हेराल्ड काॅलेज से पढ़कर निकले ब्राह्मण हैं जिसे सम्मानित नामावली में उत्कीर्ण होना है जो कुछ पीढि़यों तक महत्त्वकांक्षी को हक़दार बनाता है कि वो अपने को उन परिवारों के साथ जोड़ सके जो उसके बरक्स पहले ही ऊँचा स्थान पा चुके हैं।’’11
यह लगातार चल रही प्रक्रिया है। फिर भी, वस्तुतः जैसा कि लोग जानते हैं, हिन्दू एक निश्चित तौर-तारीकों से वर्ण@जातिव्यवस्था में पहचाने जाते हैं। आदिवासी इस पद्धति के बाहर हैं, और हम उन्हें पहचानते हैं जिन्हें समस्तरीय या ऊध्र्वगामी स्तर पर भी वर्ण और जातिप्रथा में शामिल नहीं किया गया है, और जो पुरखों से समानता रखने की प्रक्रिया में, बाहर रह गये हैं या लाचार हैं ‘असभ्य’ के अध्ार में लटकने को।
गोंड, हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय, द्रविडि़यन मूल का माना जाता है। वे एक बड़े समूह के बेढंगे कुछ कम या ज़्यादा सुस्पष्ट समूह हैं, जिनमें से कुछ इण्डो आॅस्ट्रोलायड मूल के हैं, जैसे कि ‘मूरिया’। तथ्य है, हालाँकि, वे अनार्य या आर्य के पहले के मूल लोग हैं। लिंगो का मिथ यहाँ पर निर्णायक महत्त्व का हो जाता है, जब हम इन आदिवासी समूहों के साथ व्यवहार करते हैं, जो कई बदलाव समस्तरीय आध्ाार पर पाने के बावजूद भी हिन्दू जातिप्रथा की श्रेणीबद्धता में शामिल नहीं किये गये हैं। ड्यूमा कहते हैंः
‘‘ऐसा लगता है कि यह बाद के वैदिक समाज के चार स्तरीय विभाजन परिणाम की तरह देखा जा सकता है, जिसमें चैथी श्रेणी को पहली तीन के साथ जोड़ा गया है। यह इण्डो-यूरोपियन तीन अंश के विभाजन से मेल खाता है, जो कि सामाजिक कार्यकलाप का है। (ड्यूमेसिल) और पहली पुरोहिताई में यह त्रिमूर्ति पायी जाती है, साम्राज्यवाद और जातियों या लोगों में। ऋग्वेद के बाद के श्लोकों में शूद्रों का वर्णन है और ऐसा लगता कि वे मूल लोग (दास या दास्यु की तरह) समाज में शामिल कर लिये गये हैं, दासत्व की पीड़ा के साथ।’’12
यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि आदिवासी जो वर्ण@जातिप्रथा की पुष्टि नहीं करते हैं, और अछूतों की पाँचवीं श्रेणी की भी, क्योंकि उनके आदर्श या मानदण्ड के कारण वे श्रेणीबद्ध पद्धति की महत्ता को नहीं स्वीकार करते हैं, अपना सम्मान और स्वतंत्रता को किसी-न-किसी तरह लगभग बचाते हुए रह रहे हैं। भारत सरकार की जो भी कसौटी इस बात को दर्शाने में रही हो कि अमुक समुदाय अनुसूचित जाति है और दूसरा अनुसूचित जनजाति है, दोनों के बीच का फ़र्क साफ और स्पष्ट है। किन्तु कुछ लेखक जैसे बी.एच. मेहता इसकी अनदेखी करते हैं और उन्होंने तथाकथित आदिम और जनजातीय समुदायों को हिन्दू ध्ार्म की मुख्यध्ाारा का अंग ही माना है।13 बुरे समाजशास्त्र की गंध्ा, और उससे भी बदतर, अंध्ा देशभक्ति का प्रमाण है यह। जैसे कि, हिन्दुस्तान की भौगोलिक सीमा रेखाओं में रह रहे सभी समुदायों को हम ठीक ही भारत राष्ट्र के देशवासियों की तरह शामिल कर सकते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कर सकते कि सहगामी होने के नाते हम यह भी दावा करें कि वे देश के प्रमुख समुदाय से सम्बद्ध हैं जिन्हें हिन्दू की तरह जाना जाता है।
हम मिथक पर वापस लौटते हैं, शुरू करते हैं महादेव से। श्री ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार, ‘‘देवताओं द्वारा उकसाये जाने पर शिव ब्राह्मण का भेष ध्ाारण कर पार्वती के पिता हिमालय को खुद के बारे में बतलाते हैं, ओ राजा! मुझे पता चला है कि तुम अपनी बेटी की शादी शंकर से करने जा रहे हो। यदि यह सच है तब मुझे तुम्हारी मूर्खता पर हँसी आती है कि कैसे तुम अपनी प्रिय पुत्री का हाथ एक ऐसे आदमी के हाथ में देने का सोच सकते हो, जो नंगा है, बूढ़ा है, जिसके बाल बिखरे हैं, जिसके पास जीवन-यापन का कोई साध्ान नहीं है, जो बिना सहायता के है, अनाथ है, जिसमें कोई योग्यता नहीं है और जो श्मशान में रहता है।’’14 शिव का यह जंगली पक्ष बहुत अच्छी तरह से जाना जाता है और जिसे सविस्तार बतलाया जा सकता है। अपने बारे में हिमालय को बतलाने में, ऐसा लगता है कि वह लगभग गोंड देवता के बारे में कह रहे हैं, जैसा कि मिथक में वर्णित है। प्रश्न यह है किः शिव गोंड से कैसे घृणा कर सकता है, जो कि उन्हीं के गणोें की तरह है? किन्तु यह दिलचस्प है कि वास्तव में यह शिव ही है महादेव की तरह, जो गोंड को स्वीकार नहीं करता है।
त्रिपुरा की पौराणिक कथा शिव के महादेव में बदलने की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालती हैः ‘‘कि असुरों द्वारा ब्रह्मा की तपस्या करने पर वे उनसे त्रि (तीन) पुरा (शहर) पाने में सफल हुए, जो कि सुरक्षित शहर हैं, जिन्हें सिफऱ् एक तीर से भेदा जा सकेगा, जो महाशक्तिशाली भगवान द्वारा चलाया जायेगा और जिसे शक्ति से समृद्ध कर इस तरह के हथियार को सुरक्षित ध्ाारण करने का ज्ञान होगा। इस तरह मोर्चेबन्दी कर असुरों ने जल्दी ही देवताओं को जीत लिया। इन्द्र शिव के पास सहायता माँगने गये। शिव ने देवताओं की तरफ से कुछ भी करने की अनिच्छा ज़ाहिर करते हुए कहा कि वे उनकी आध्ाी शक्ति ले सकते हैं, जो कि उन्होंने सोचा शत्रु को नष्ट करने के लिए काफी होगी। किन्तु देवता शिव की आध्ाी शक्ति भी सहन करने योग्य नहीं थे। तो उन्होंने अपना समझौता बदल लिया, और व्यवस्था में फेरबदल किया। उन सबने मिलकर अपनी आध्ाी शक्ति शिव को दी; और शिव, और शक्तिशाली हुए, त्रिपुरा- असुर को हराया। त्रिपुरारियों की हवाई शक्ति, लोहा, सोना और चाँदी के कि़ले, ध्ाूल में मिल गये। सभी देवता मिलकर भी शिव की आध्ाी शक्ति बाँटने में निष्फल रहे; जबकि अकेले शिव ने सहजता और सम्मान के साथ उन सबकी आध्ाी शक्ति का वहन किया। जब से शिव के पास इन देवताओं की शक्ति है, और इस तरह वे महादेव कहलाये।15
जी.एस. घुर्ये जैसे लेखकों को छोड़ दें, जो शिव के आर्य-पूर्व या मुण्डा या द्रविडि़यन मूल के होने के सारभूत प्रमाण नहीं पाते हैं (हालाँकि वे खुद इस बात से सहमत हैं कि ‘‘रुद्र शिव की महागाथा, जो कि लिंग के सामने मौजूद इस पशु (बैल) की प्रतिमा है, कैसे कोई कह सकता है कि ऋग्वैदिक रुद्र का विकास बिना किसी अनवैदिक भारतीय पद्धतियों के प्रभाव में महागाथा के रुद्र शिव में हुआ।’’)16, ज़्यादातर लेखक इस बात पर सहमत हैं कि शिव पूर्व आर्य मूल के हैं। जैसा कि एस.के. चटर्जी बतलाते हैंः
‘‘शिव और उमा अपने सारे प्रमाणों में द्रविडि़यन मूल के हैं, अतः वे भारतीय रूपान्तरण और दार्शनिक उदात्तीकरण है - उस महान मातृदेवी और उसके सहचारी का, जो सम्बद्ध है भूमध्यसागरीय लोगों से। शिव नाम, कम-से-कम द्रविडि़यन मूल का है जैसा कि तमिल व्याख्या में बतलाया गया है। उदाहरण के लिए, शिवन का अर्थ लाल है, और पूर्व आर्यन के लिए नीला लोहिता का अर्थ ईश्वर है। वह लाल जो नीला (गला) लिये हुए है। यह उस पौराणिक कथा की तरफ इशारा है जो बाद के समय के पुराण में पायी जाती और निस्सन्देह ऋग्वेद में वर्णित है, (ग्ए 136एटप्प्), जिसमें शिव ने दुनिया का जहर पी लिया और अपने गले में उसे रोक लिया, जो इस कारण नीला हो गया। शेम्बू दूसरा प्रचलित शिव का उपनाम, तमिल शब्द चेम्पू या सेम्बू, जिसका अर्थ ‘ताँबा’, लाल ध्ाातु, होता है, से तुलना की जा सकती है। शिव और वैदिक रुद्र इसी तरह पहचाने जाते हैंः यह द्रविडि़यन बोलने वाले लोगों के लाल भगवान के नाम की तरह ही है, उनके सारे देवताओं में सबसे महत्त्वपूर्ण ईश्वर पहली बार आर्यों की वाचिक परम्परा में रुद्र की तरह इस्तेमाल हुआ, फिर यह नाम आसानी-से आर्यों के पहले से मौजूद तूफ़ान के देवता के साथ पहचाना जाने लगा, मारुत के पिता या तूफ़ानी पवन आर्यन में रुद्र नाम बिलकुल ही अलग अर्थ रखता है - ‘गर्जन’।’’17
और बी. भट्टाचार्य आगे जोर देकर कहते हैं कि अनार्य और आर्य साथ-साथ रहते हुए अपने ध्ाार्मिक भेदभाव को इतना नज़दीक ले आये कि वे ज़्यादा समय तक उन्हें अलग न रख सके। वैदिक जीवनशैली शिथिल हो गयी और उसने इन्हें जगह दे दी, अब रुद्र और शिव समानार्थी हो गये। आँसू बरसाने वाले क्रुद्ध देवता पिता की तरह सौम्य और वृद्ध हो गये, सन्तुष्ट करना बहुत ही आसान था। शिव का यह साहचर्य रूद्र के साथ और जनजातियों के साथ वाजसनयी संहिता में वर्णित है, जहाँ पर वह असामाजिक तत्त्वों के रक्षक की तरह वर्णित हैं। जहाँ रुद्र को चोर, विश्वासघाती, ध्ाोखेबाज़ कहा गया है। पहले तो भय और संहार के देवता की तरह रुद्र को देखा गया और जल्दी ही शिव के विचार में उसे शामिल कर दिया गया, मंगलकारी भगवान। इन सन्दर्भों के अलावा शिवभक्तों के द्वारा बतलाये गये शिव के अनार्य जनजातियों के साथ उनके न भुलाये जाने वाले सम्बन्ध्ा हैं (हमने पहले ही रुद्र देवता की तरह वर्णित शिव की तरफ इशारा किया है)। यह याद दिलाने वाले पक्ष हैं, जैसे रुद्राक्ष का इस्तेमाल, बेलपत्र, ध्ातूरा और गांजा... सिन्दूर, साँप, वृक्ष, नदियाँ, नदी की मिट्टी, फूल, पानी, पत्ती और घास का इस्तेमाल।’’18
पुरातात्त्विक प्रमाण भी इस ध्ाारणा को विश्वसनीयता प्रदान करते हैं कि शिव आर्यों के पहले के देवता हैं। कई विशेषज्ञ इस नतीजे पर पहुँचे हैं, जो सिन्ध्ाु घाटी की सभ्यता की खुदाई में प्राप्त वस्तुओं का अध्ययन कर रहे थे। ए.डी. पुसलकर कहते हैं किः पुरुष देवताओं में प्राप्त सबसे विशिष्ट तीन चेहरों वाला देवता है, जो सींगों का मुकुट पहना है और एक सिंहासन पर पालथी मार बैठा है, जो हाथी, शेर, बैल और गेंडों से घिरा हुआ है, जिसके सिंहासन के नीचे से हिरण झाँक रहे हैं, जो बहुत-सी चूडि़याँ और जो अपने गले के चारों तरफ कवच पहना है, और जिसके ऊपर सात अक्षर उत्कीर्ण हैं...। यह प्रस्तुति कम-से-कम तीन ध्ाारणाओं को बल देती है जो शिव के साथ जुड़ी हैं कि वह- (1) त्रिमुखा है, (2) पशुपति है औैर (3) योगेश्वर या महायोगी है। पहली दो ध्ाारणाएँ मुद्रा से ही प्रत्यक्ष हैं। देवता पद्मासन में बैठे हैं और उनकी आँखें नाक की नोंक पर केन्द्रित हैं, जो उनके योगेश्वर देव की ध्ाारणा को पुष्ट करता है। कुछ विशेषज्ञों की यह ध्ाारणा है कि यह शिव-पंथ सिन्ध्ाु सभ्यता के इण्डो-आर्यन से उध्ाार लिया गया है, किन्तु ऋग्वेद में शिव का वर्णन है और शिव हिन्दू देव-मन्दिरों में ज़बरदस्ती शामिल होने वाले बाद के घुसपैठिये नहीं हैं।
‘‘आगे की खुदाई में शिव की दो और मुद्राएँ मिली हैं... देवता हमेशा नग्न हैं, कमर पर एक मेखला और सिर पर सींगों वाला मुकुट है। एक मुद्रा में देवता तीन चेहरों वाला है और छोटे-से तख्त पर बैठा है। जबकि दूसरा है जिसमें चेहरा रेखाचित्र की तरह है; दोनों में फूलों की एक टहनी है या पत्तियों की है, जो सिर के ऊपर से उठकर दोनों सींग के बीच आती है। यह टहनी दर्शाती है कि देवता, जिसका श्ाृंगार वनस्पति से किया गया है, वह उर्वरता का देवता है - यह एक दूसरा संकेत है शिव के लिए, जो कि प्रकृति में मौजूद उत्पादक शक्तियों के रूप में दर्शाया गया है। एक सींगों वाला ध्ानुषध्ाारी वनस्पतियों की पोशाक पहने... शिव के पवित्र शिकारी होने को बतलाता है।
‘‘इससे यह लगता है कि शिव उनके प्रमुख देवताओं में से थे, वे लोग माँ देवी के साथ-साथ उनकी पूजा भी करते थे। उनकी पूजा हालाँकि किसी मूर्ति के रूप में नहीं होती थी, किन्तु एक लिंग की तरह भी जैसा कि वह बहुत सारे नुकीले और बेलनाकार पत्थरों में दिखाई देता है। यह नुकीले और बेलनाकार पत्थर शायद उर्वरता का प्रतीक हैं और इनका सम्बन्ध्ा शिव के पंथ से है, जो लिंग की तरह है। कई विशेषज्ञ ऋग्वेद में मौजूद लिंग की पूजा के प्रतीक को तिरस्कारपूर्ण मानते हैं और यह सिन्ध्ाु घाटी में रहने वाले आर्यों के पहले के लोगों के ध्ाार्मिक तौर-तरीकों की तरफ एक छिपा हुआ इशारा भर मानते हैं, किन्तु दूसरों के द्वारा यह सुझाया गया है कि यह लेखांश साध्ाारण तौर पर इन्द्रियगम्य कामुक लोगों को दर्शाता है।’’19
माॅर्टिमर व्हीलर लिखता है किः ‘‘मुद्रा पर उत्कीर्ण शिव के ईश्वरत्व बारे में कम-से-कम कोई अनिश्चितता जुड़ती नहीं है। भले ही आकृति, जो कि इतने छोटे आकार में विचारमग्न है वह ऐतिहासिक भारत का महान देवता जो ध्ामकाने वाली शक्तियों से भरा और परितृप्त देवता है। यहाँ आर्यों के पहले का कोई तत्त्व, यदि कुछ पहचाना जा सकता है जो बचा रहा आर्यों के आक्रमण से और जो महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, तथाकथित वैदिक समय के बाद की आर्य संस्कृति में। लिंग पूजा ऐसा ही दूसरा तत्त्व है, एक अनार्य परम्परा, जो कि हड़प्पन सभ्यता में अपना ली गयी थी, यदि कुछ पाॅलिश किये गये पत्थर, ज़्यादातर छोटे, किन्तु दो फिट ऊँचे ठीक-ठीक लिंग की तरह पहचाने जा चुके हैं, दूसरा बिंध्ाा हुआ पत्थर योनी की तरह, तब इसकी सम्भावना है कि शिव और लिंग की पूजा पद्धति हिन्दुओं को हड़प्पन सभ्यता से विरासत में मिली हैं जो शायद बैलों (शिव का वाहन) की बहुतायत के कारण या बैल की तरह के पशु की प्राप्त मोहरों पर बनी आकृतियाँ के कारण पुष्ट होती हैं।’’20
और स्टीफ़न फु़क के अनुसारः ‘‘तीन मुद्राओं पर हमें सींगों वाले देवता की आकृति मिलती है एक तख्त पर बैठे हुए या ज़मीन पर, उसी मुद्रा में जो भारतीय साध्ाु जानते हैंः पैर शरीर की तरफ खींचेे हुए और दोनों एडि़याँ एक-दूसरे को छूती हुईं। देवता नग्न हैं, कंगन पहने, कण्ठहार गले में, और ख़ास तरह का मुकुट, सींगों की जोड़ी, दोनों के बीच में एक पौध्ो जैसा कुछ। सबसे बड़ी मोहर पर वह हाथियों, शेर, गेंडा और एक भैंसे से घिरा हुआ है, जबकि दो हिरन स्टूल के नीचे से झाँक रहे हैं, जिस पर वह बैठा हुआ है। उसके चेहरे पर तेज है, और दोनों तरफ बाहर निकला हुआ हिस्सा दिखाई देता है (दो और चेहरे?), उसका लिंग प्रमुखता से दिखता है। वह स्पष्ट रूप से उर्वरता का देवता है। मार्शल उसे आदिशिव या पशुपति - चैपायों का देवता कहता है।’’21
हड़प्पन सभ्यता और द्रविडि़यन के बीच की कड़ी बाशम भी दिखलाते हैंः
‘‘आध्ाुनिक दक्षिणी भारतीय अक्सर भूमध्यीय और प्रोटो आॅस्ट्रोलायड का मिश्रण नज़र आते हैं, दो हड़प्पन संस्कृति के कबीलों के प्रमुख प्रतिनिध्ािः इसके अतिरिक्त हड़प्पा ध्ार्म हिन्दू ध्ार्म के उन तत्त्वों से कई तरह की समानता दिखलाता है, जो ख़ास तौर पर द्रविडि़यन देश में लोकप्रिय हैं। बलूचिस्तान के पहाड़ों में जहाँ नल और झोब संस्कृति के लोगों ने अपने छोटे गाँव बसाये हैं, जहाँ ब्राहुत यद्यपि जो अब प्रजातीय दृष्टि से प्रमुख रूप से ईरानी हैं, द्रविडि़यन भाषा बोलते हैं। इस प्रकार यह इस बात की तरफ इशारा है कि हड़प्पा के लोग द्रविडि़यन थे, और फ़ादर एच. हैरास, उन विशेषज्ञों में से हैं जिन्होेंने उनकी लिपि पढ़ने की कोशिश की है, का दावा यह भी है कि उनकी भाषा तमिल से भी ज़्यादा प्राचीन है।’’22
ब्रिगेट और रेमण्ड आलचिन कहते हैंः वैदिक समय के ध्ार्म और बाद के हिन्दू ध्ार्म के कई लक्षण दिखाई देते हैं, जिससे हम इसका अनुमान लगा सकते हैं। हमें शहरों में बने मन्दिरों के नीचे पत्थरों पर उकेरी मूर्तियों पर ध्यान देना होगा। ये आश्वस्त करता है कि वह इस बात पर सहमत हैं कि वे ध्ाार्मिक विश्वासों की अनेक जानकारियाँ ध्ाारण किये हैं। यह प्रमाण कि कुछ आकार जैसे कि पीपल का पत्ता या स्वास्तिक पहले से ही हड़प्पन के बीच में ध्ाार्मिक महत्त्व के थे। इनमें इस तरफ इशारा है कि उनका ध्ार्म एक प्रभावशाली और महान देवता के प्रभुत्व में है जो बाद के शिव के कई मूल तत्त्वों से साझा करते हुए कि वह एक योगी की तरह, पशुओं के देवता की तरह, जिसका पूरा सम्प्रदाय उर्वरता और लिंग से सम्बद्ध है और जो बाद के समय में जाकर महादेव (महा देव) से जुड़ जाता है... और दूसरी तरफ उस महा देवी से, जो बराबर-से सारे लक्षण पार्वती सेे साझा करती है, शिव की पत्नी है, जो खुद भी देवी की तरह जानी जाती हैं, मातृदेवी कई नामों और कई रूपाकारों में।23
अब हम लिंगों की तरफ लौटते हैं। जैसा कि एस.के. चटर्जी कहते हैंः
‘‘शिव का प्रतीक लिंग, लिंग दिखाई पड़ता है, दोनों, अपने रूप और नाम के अर्थ में आॅस्ट्रिक या प्रोटो आॅस्ट्रोलायड मूल का जान पड़ते हैं। हमें याद रखना चाहिए कि ज़मीन पर रखे गये रहस्यमयी शंक्वाकार पत्थर (यूरोप के सेल्टिक प्रदेश में मैनहिल की तरह) साक्ष्य है कि मोन-खमेर और कोल सम्प्रदाय के बीच की वस्तुएँ हैं और यह आदिम हल की तरह खुदाई की लकड़ी से समानता लिये है और ज्यां पर्जीलुस्की ने बतलाया जैसे कि पहले देखा गया है, कि कैसे शब्द लिंग, लकुता, लगुडा, लंगुला आॅस्ट्रिक मूल के हैं। किन्तु शिव की आकृति महान योगी की तरह बैठा हुआ समाध्ािष्ट योगी, विरूपक्ष की तरह या ‘भयंकर’, पशुपति की तरह या ‘पशुओं के देवता’ या आत्माओं की तरह, ऊध्र्व लिंग की तरह या ‘जो अपनी सर्जनात्मक शक्ति के साथ खड़ा है’, वास्तव में, गहरे और दार्शनिक संकेत शिव की कल्पना मेें प्रकट मोहन जोदड़ो के लोगों के बीच ज्ञात थे, जैसा कि महत्त्वपूर्ण मुद्रा में दिखलाया गया है, जिसमें देवता की आकृति बाद के समय केे शिव से मिलती-जुलती है और यदि मान लिया जाये कि मोहन जोदड़ो और हड़प्पा के लोग द्रविडि़यन बोलते थे, यह इस बात की पुष्टि ही करता है कि शिव का विचार या शिव की पौराणिकता द्रविडि़यन मूल की ही हैः शिव लिंग के प्रतीक के अलावा जो गौरी-पत्ता योनी है, कुछ हद तक आॅस्ट्रिक मैनहिर से ली गयी है, जो कि अब तक चला आ रहा है, मुण्डा के सासान-डिरिस या परिवार के क़ब्र के पत्थर के रूप में।24
एलविन कहते हैं कि ‘‘लिंगो का लैंगिग प्रतीक जैसे कि नाम की उत्पत्ति साफ़-साफ़ बतलाती है...।’’25
जैसा कि हम ऊपर बतला आये हैं, हिस्लाॅफ और हेमेनडाफऱ् द्वारा बतलाई गयी लिंगो का मिथक हमारी शुरुआत के लिए महत्त्वपूर्ण है। बहुत सारे वर्णन, जो कि एलविन और दूसरे विद्वानों द्वारा बतलाये गये हैं, कुछ अस्पष्ट नज़र आते हैं, और यह आख्यान लोककथाओं के कई तत्त्वों को अपने मेें समेटे हैं, जबकि हिस्लाॅफ और हेमेनडाफऱ् का वर्णन अपने में सम्पूर्ण मिथक की पूर्णता लिये हुए है। जहाँ तक कि गोंड की उत्पत्ति की बात करते हैं, उनके पुनर्जन्म या निर्वासन और बाद में उनकी मुक्ति और उनके पुनस्र्थापन की बात कर रहे हैं।
इन दो वर्णनों के प्रति जो भी संकोच समाजशास्त्रियों का रहा हो, जो भी दोषारोपण हिन्दू प्रभाव के नाम पर किया गया हो, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि दोनों वर्णन सुस्पष्ट रूप से गोंडों के मुक्त होने की बात करते हैं। इन दोनों वर्णन में गोंड जातिप्रथा के प्रकार की तरह नहीं प्रकट होते हैं और न ही इस तरह कि उन्हें इसमें समेट लिया गया है। दूसरी तरफ अपनी बन्ध्ान अवस्था से स्वतंत्र लोगों की तरह पुनप्र्रकट होते हैं। इस पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है कि हिन्दुवादी-परध्ाान या ईसाई-हिन्दू, हिन्दू-प्रथा के साथ सहानुभूति रखते हुए गोंडों की इस प्रथा को प्रोत्साहित करते हुए परिवर्तन की इच्छा को बचाये हुए उन्हें जोड़ता है, इस विशाल समूह का रूप ध्ाारण करने में, जो कि हिन्दू समुदाय की तरह जाना जाता है, जिसने गोंड मिथक में लिंगो की आकृति को जमाया है (और इस तरह न अलगाये जा सकने वाले शम्भू और पार्वती को) और उसके साथ इस बात का महत्त्व जोड़ दिया कि वह गोंडों का मुक्तिदाता है और उनकी स्वतंत्रता का पुनस्र्थापना करने वाला। ऐसा लगता है कि कुछ लेखकों ने घोड़े के आगे गाड़ी रख दी है। यह सिद्धान्त कि इस मिथक को शैव मत वालों ने तोड़ा-मरोड़ा है, इसकी बहुत गुंजाइश नहीं है। इसका उलटा लगभग सच है। शिव आर्यों के पहले का या अनार्यों का देवता है, अतः वह देशज है और उन सब समुदायों के साथ साझा करता है।
चाहे जो भी हो, शिव जब हिन्दू देवताओं में जा जुड़ते हैं, तब वे इस रूपान्तरण से गुज़रते हैं, असली समस्या और अर्थ बदलाव की इस प्रक्रिया के बाहर है, जो त्रिपुरा के आख्यान में घटित होता है, जहाँ शिव महादेव में बदल जाते हैं। यहाँ, यह महादेव ही हैं, जो गोंडों को देश से निकालता है और गुफा में बन्द कर देता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वह जंगली और जोशीला आर्यों के पहले का शिव, पुनर्सज्जित होकर इण्डो-आर्यन देवताओं का शक्तिशाली और परिष्कृत देवता बन बैठता है। फिर, किस कारण शिव, जो महादेव नहीं है, गोंड देवताओं को अपरिष्कृत, गंदा और दूसरे देवताओं के साथ न बैठने लायक और सिफऱ् देश निकाले जाने लायक मानता है। क्या यह इस बात की तरफ इशारा नहीं करता कि आर्य और अनार्य, जो आर्यों के पहले से रह रहे हैं, के बीच कोई संघर्ष है? हमने पहले ही कुछ कोशिश की है कि आर्यों के पूर्व और अनार्य और हड़प्पन सभ्यता के लोगों के बीच कुछ कड़ी जोड़ी जा सके, जो कि इस बात से मोटे तौर पर छिé-भिé है कि यह सब आर्य जाति द्वारा नष्ट किया गया है। जाॅन मार्शल के अनुसारः
‘‘एक दूसरी मुद्रा में सींगों वाली आकृति ईश्वर के तख्त पर बैठी नज़र आती है, दो साँपों के द्वारा रक्षित, जिनके सिर उठे हुए हैं। सींगों वाले योगी और मध्य भारत के आदिवासियों द्वारा पहने जाने वाले शिरोवस्त्र की तुलना, बस्तर के माडि़या द्वारा भैंसे के सींग का शिरोवस्त्र, विस्मयकारक समानता बतलाता है। यहाँ एक जैसे दिखने वाले भैंसों के सींग जिनके बीच मोरपंख सजाये जाते हैं, बस्तर के गोंडों द्वारा की गई लकड़ी की नक्काशियों में, जिसमें नाचने वालों को ढोलक के साथ ईश्वरीय सींग पहने जिसमें मोरपंख बाहर निकले हुए लगे हैं, दर्शाया जाता हैः एक दूसरी लकड़ी की नक्काशी में, सींग स्वतंत्र रखे हैं, पवित्र उपस्थिति के प्रतीक की तरह। भैंसों के सिर की चीरफाड़ करने वाले मैनहिर आकृतियाँ, जो लकड़ी की होती हैं, मण्डला के गोंडों द्वारा भी बनायी जाती हैं...।’’26
यह सामान्य तौर पर स्वीकार्य है कि महादेव, जो कि शिव या शम्भू या शिश्नदेव का ही रूप है, वह आर्यों केे पूर्व का देवता है। हड़प्पा की खुदाई से मिले पुरातात्त्विक अवशेष इस बात को बल देते हैं और ऋग्वेद के कई अंश भी। इसके अतिरिक्त, ‘लिंग’ शब्द आॅस्ट्रिक या इण्डो आॅस्ट्रोलायड मूल का माना जाता है। मिथक में हम तीन स्तरीय बदलाव पाते हैं। पहला उसमें अन्तर्निहित है और दूसरे दो मिथ के शब्दों में ही शामिल हैं। अब यह मान लेना प्रमाणित ही है, जैसा कि हमने ऊपर देखा कि शिव आर्यों के पहले का देवता है जो आर्य देवताओं के बेड़े में शामिल करने की प्रक्रिया में वह महादेव बन जाता है, और यह भी कि आर्य के पहले रह रहे लोगों के बीच लिंग पूजा प्रचलित थी। यह भी ध्यान देने योग्य है कि सिन्ध्ाु घाटी सभ्यता में मिली स्त्री आकृतियाँ मातृ-पूजा के प्रचार को दर्शाती हैं।
जब महादेव गोंड देवताओं को रचते हैं, वे उन्हें सबसे ज़्यादा बदबूदार पाते हैं, हर चीज़ खाते हुए और सामान्य तौर पर घृणित पदार्थ भी - जो कि शिव के गणों की याद दिलाता है। वह उन्हें चतुराई से गुफा में जाने को बाध्य करता है और वहाँ बन्द कर देता है। किन्तु देखने योग्य बात यह है कि गोंडों की जो गंध्ा बहुत ही बदबूदार और महादेव को नाराज़ करने वाली थी, जिसके कारण उन्हें निर्वासित किया गया था, वह पार्वती के लिए मीठी और सुन्दर थी। क्या यह एक तरफ पुरुष शक्ति के उदय की तरफ इशारा करता है और दूसरी तरफ पार्वती का अपने प्राचीन भेष में, जो कि माँ का है, में लौट आने का पुनर्कथन है और शिव के आर्य पूर्व के रूप और मूल का संकेत है? निश्चित ही, आर्य पूर्व के पार्वती और शिव के मूल की तरफ इशारा करते हुए कौसाम्बी इन देशज लोगों के देवताओं के बारे में कहते हैं कि ‘‘...उनके पुरुष देवता बाद के महसोवा या उसके समकक्ष, के वास्तव में कोई संगी-साथी नहीं हैं, और कुछ हद तक पहले की मातृ-देवी और खाना इकट्ठा करने वालों की देवी के बीच द्वन्द्व की स्थिति में हैं। ये दो समूह जल्दी ही मिल जाते हैं, और देवी-देवता तदनुसार विवाहित हैं। कभी-कभी हम यह देख सकते हैं कि देवी भैंसासुर महसोवा को नष्ट कर रही है, जबकि चार सौ मीटर दूर ही किसी एक मन्दिर में उसका विवाह उसी महसोवा से हुआ है, थोड़े-से नाम परिवर्तन के साथ। ब्राह्मणों की टीका में यह पार्वती है जो शिव की पत्नी है, किन्तु महिषासुर का मर्दन करती है; और किसी एक अन्य प्रसंग में वह शिव को कुचलने वाली में बदल जाती है। यह महत्त्वपूर्ण है कि सिन्ध्ाु घाटी की मुद्रा में शिव तीन चेहरों वाले हैं और अपने शिरोवस्त्र की तरह भैंसे के सींग ध्ाारण किये हैं।27
वही गंध्ा, जो मीठी और आनन्ददायी थी, महादेव के लिए बदबूदार हो जाती है। यह पार्वती है, जो गंध्ा का अभाव महसूस करती है और तपस्या करती है, और इस तरह लिंगो का जन्म होता है - महादेव पूर्व आर्यों के रूप में, शिव के लिंग प्रतीक के रूप में। लिंगो, निश्चित ही गोंडों को मुक्त कराने का बीड़ा उठाते हैं और उसमें सफल होते हैं। जैसा कि वागीश शुक्ल कहते हैं- ‘‘जैसे ही किसी प्रक्रिया की कड़ी इस ब्रह्माण्ड से टूटना शुरू होती है, मिथ उसे अपनी कड़ी से जोड़ लेती है।’’28 यह मिथ साफ़-साफ़ दिखलाती है अनार्य गोंडों का दमन और महादेव का लिंगो की तरह सफलतापूर्वक पुनस्र्थापन। मिथक का समय फिर से पकड़ा जा चुका है और समुदाय की स्वतंत्रता के साथ। हम इतिहास की भूल-भुलैया से, वापस रोशनी में लौटते हैं। एक समय-शून्य क्षेत्र में, कला के क्षेत्र में।
सन्दर्भ सूचीः
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2. गोंड (हिन्दी), शेख गुलाब, मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद, भोपाल.
3. रेव स्टीफ़न द्वारा हिस्लाॅप फ्ऱी चर्च आॅफ़ स्काॅटलैण्ड के अग्रगामी ईसाई ध्ार्म-प्रचारक थे, जिन्होंने गोंडों के बीच काम किया।
4. हिस्लाॅप लिखित वृत्तान्त को जे. फ़ोरसिथ ने पद्य रूप में प्रस्तुत किया। दि हाइलैंड्स आॅफ़ सेन्ट्रल इंडिया, कै. जे. फ़ोरसिथ, एशियन पब्लिकेशन सर्विसेज़, नई दिल्ली, इंडिया, 1975.
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6. द हाइलैंड्स आॅफ़ सेन्ट्रल इंडिया, कैप्टन जे. फ़ोरसिथ.
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25. द मूरिया एंड देयर घोटुल, वेरियर एल्विन, आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1947.
26. मोहन जोदड़ो एंड द इंडस वैली, जाॅन मार्शल एंड अदर्स, पुपुल जयकर द्वारा उद्धृत द अर्थन ड्रम में, नेशनल म्यूजि़यम, जनपथ, नई दिल्ली.
27. द कल्चर एंड सिविलाइज़ेशन आॅफ़ एशियंट इंडिया इन हिस्टाॅरिकल आउटलाइन, डी.डी. कौसाम्बी, विकास पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमि., 1970.
28. डाॅ. वागीश शुक्ल, डिपार्टमेंट आॅफ़ मैथेमेटिक्स, आई.आई.टी. नई दिल्ली, स्वामीनाथन से बातचीत के बीच.

समयः कला के पंख
बस्तर, मध्यप्रदेश के नारायणपुर तहसील में छोटा डोंगर से ओरछा की तरफ जाते हुए हमारी जीप, अबूझमाड़ श्ाृंखला की उम्दाई पहाडि़यों की सर्पीली सड़क, जो चैड़ी की जा रही थी, जल्दी ही हिचकोले खाने वाले रास्ते में बदल गयी (अब मोटर कार के लिए नयी सड़क बन गयी है), को एक मूरिया ने रोका, जो सड़क के बीचोबीच खड़ा था। इसके पहले कि हम कुछ कह सकें या कर सकें, वह उछलकर पिछली सीट पर बैठ गया और कहा- ‘चलो चलें।’ हमने, हमारे मूडि़या दोस्त बैलगूर से कहा, जो हमारे साथ यात्रा कर रहा था कि इससे पता करें, वह कहाँ जाना चाहता है। उसने अपने दोनों हाथ विपरीत दिशाओं में फैलाये और इशारा करते हुए कहा कि वह दोनों तरफ जा रहा है। ज़ाहिर है वह महुआ पिये हुए था, या निश्चित ही वह उस सच्चाई के परे रह रहा था, जिसे हम अपनी ‘सामान्य’ इन्द्रियों से जानते हैं।
हम इस मूरिया के साथ चलने की कोशिश करते हैं, एक साथ कई दिशाओं में यात्रा कर सकने की सम्भावना की गहराई को जानने की कोशिश करें, या कुछ-कुछ हमें यह जानने की कोशिश करना चाहिए कि हमने अपने ऊपर ज़ोर डालकर रहने का जो तरीका अपनाया है, उसे देखें, जहाँ दिशाएँ अपना अर्थ खो देती हैं, और हम दाखिल होते हैं श्ळंतकमद व िजीम वितापदह चंजीेण्श्1 हमेें सोचना चाहिए अपने होने के सन्दर्भ में ‘समय’ के बारे में, ‘समय’ कला के सन्दर्भ में।
‘हमें दुनिया के केन्द्र से निकाल लिया गया है और हम अभिशप्त हैं उसे जंगलों के बीच और रेगिस्तानों में या ज़मीन के भीतर बनी भूलभुलैयाओं के चक्करदार रास्तों में ढूँढ़ने के लिए’, आॅक्टोवियो पाज़ कहते हैं। ‘और एक समय ऐसा भी था, जहाँ समय अनुक्रमण और परिवर्तन नहीं था, कुछ-कुछ शाश्वत स्रोत था स्थिर वर्तमान का, भूतकाल और भविष्य से भरा हुआ। जब मनुष्य इस अनन्तकाल से बाहर कर दिया गया जिसमें सारे समय एक थे, वह सही समय बताने वाले यंत्र में दाखिल हुआ और घड़ी और कैलेण्डर का गुलाम होकर रह गया। जैसे ही समय कल, आज और कल में विभाजित किया गया, घण्टों में, मिनटों में और सेकॅण्ड्स में, मनुष्य समय के साथ रुक गया। यथार्थ के साथ बहना भी अवरुद्ध हुआ। जब कोई कहता है ‘कि इस क्षण में’ वह क्षण वास्तव में जा चुका है। यह समय नापने के अवकाश सम्बन्ध्ाी यंत्रों ने - मनुष्य को यथार्थ से अलग कर दिया - जो कि लगातार वर्तमान है - और सभी उपस्थितियों को जिसमें यथार्थ अपने को प्रकट होने दे रहा है, जैसा वर्गसन ने कहा, माया में बदल देता है।’’2
लगातार उपस्थित रहने की ध्ाारणाः क्या यह लेविन का ऐतिहासिक भूतकाल है, जैसा माॅस्लाव कहते हैंः ‘भूतकाल सक्रिय और सिफऱ् उस वक्त जि़न्दा है और वह व्यक्ति के भीतर पुनर्सृजित होता है, और उपस्थित व्यक्ति द्वारा पचा लिया जाता है। यह उस व्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं है। व्यक्ति के लिए कुछ अनजाना-सा। वह अब व्यक्ति बन चुका है (और वह अपनी पहचान किसी अन्य और दूसरों से अलग होने में खो चुका है), जैसे कि खाये जा चुके मांस के टुकड़े अब मुझमें बदल चुके हैं, मांस के टुकड़े नहीं रहे। पचाया गया भूतकाल (पचा लेने का स्वांग), अनपचे भूतकाल से अलग है। क्या यह लेविन का हिस्टोरिकल भूतकाल है?3 या यह, जैसा मार्लो कहते हैं कि ‘मनुष्य के हाथों द्वारा बनायी गयी आकृतियों से समय पराजित हो चुका है?’4 क्या यह समय के नहीं होने का आध्ाार है जिसे बजऱ्र बतलाता हैः क्या यह सच नहीं है कि चित्रित आकृति की स्थिरता समय की अनन्तता के बारे में कुछ कहती है?... भूतकाल क्या है, वर्तमान और भविष्य इसके आध्ाार में सहभागी हैं, समय की अनन्तता का ध्ारातल।’5
निश्चित ही कला में समय की अनन्तता की इस ध्ाारणा को स्वीकारा जाना है, नहीं तो हम कैसे भूतकाल में बनी कलाकृतियों पर प्रतिक्रिया के योग्य होते? यह समय की अनन्तता, अनजान के समतुल्य हैं, जैसा कि जुंग बतलाते हैं, ‘किसी भी प्रतिक्रिया की प्रेरणा सामान्य तौर पर समझी जा सकती हैः किन्तु सृजनात्मक कर्म, जो प्रतिक्रिया परम प्रतिपक्ष है हमेशा के लिए मनुष्य की समझ को भ्रमित करता है। वह केवल अपने प्रकटीकरण में ही व्याख्यायित हो सकती है; उसे अस्पष्ट ढंग से महसूस किया जा सकता है, किन्तु कभी पूरी तरह पकड़ा नहीं जा सकता।’6 क्या यही वो कारण नहीं है, जिससे हम लोग बार-बार अभी के या भूतकाल की कलाकृतियों के पास खिंचे चले जाते हैं?
समय की अवध्ाारणा, चाहे जैसी हो, एक क्रमबद्धता को अर्थ देती है, एक विकासः जैसे कि, यदि हम पाषाणयुगीन और आदिम मनुष्य की या महान सभ्यताओं की कलात्मक उपलब्ध्ाियों के बारे में जागृत हैं, इसके बदले में उन्हें पता नहीं है कि हम क्या जानते हैं। उनका अलग-थलग होना एकमात्र कारण है, दोनों समय और अवकाश के अर्थों में। ऐतिहासिक रूप से कहा जाए, तब यह दीखता है कि हालाँकि हम शायद भूतकाल को पढ़ सकते हैं, किन्तु हम भविष्य का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते, तब क्या इस अर्थ में समय का यह विकास अपने उलटे चक्र में नहीं है? अक्षर की वर्णक्रमिकता के अनुसार अक्षर ‘बी’ ‘ए’ को ध्ाारण किये है, ‘सी’ ‘ए’ और ‘बी’ को ध्ाारण किये है और ‘डी’ ‘ए’, ‘बी’ और ‘सी’ को ध्ाारण किये है और इसी तरह आगे तक। कला में, जैसा भी हो, भूतकाल हमारे साथ रहता है दूसरे वर्तमान की तरह, वह समय को जीत लेता है। ‘समय’ अपने विकासवादी बोझ से मुक्त कर दिया गया है, अब वह ध्ाातु-सूत्र है।
कब और कैसे हम समय की अनन्तता की ध्ाारणा से बँध्ो? वह क्या है जो अनन्त है, जो कि ‘हमेशा मनुष्य की समझ को भ्रमित करता है’, यह तथाकथित ‘आध्ाार’?
पाज़ ने यथार्थ की अवध्ाारणा को लगातार उपस्थिति मान लिया था और यह लगातार उपस्थिति और क्या हो सकती है अनादि-अनन्त के अलावा, वह जिसकी कोई शुरुआत नहीं है और कोई अन्त नहीं। सिफऱ् एकरेखीय अर्थ में ही नहीं, बल्कि सभी व्यापक अर्थों में? यहीं अनन्तता का गर्भ मौजूद है, रियलिटी न तो ‘ए’ से शुरू होती है और न ही ‘ज़ेड’ पर खत्म होती है। उसको समझना, एक बुनियाद की तरह या विभाजक की तरह इसे गणितीय समता में घटा देगा जहाँ यह फ़ार्मूला की तरह यथार्थ को दिखला देगा किन्तु खुद नहीं होगा। अनन्तता को यथार्थ की तरह देखने की ध्ाारणा, इसलिए वह साँचा नहीं है, जो बिना शुरुआत और बिना अन्त के है अपने सभी व्यापक अर्थों में, इस प्रकार यह एक अनन्त बदलाव भी हैः जो अचल है, जिसे अनन्त होना ही है। इस प्रकार अनादि-अनन्त सिफऱ् अपने अनन्त प्रकटीकरण में ही देखे जा सकते हैं, दोनों अपने में अनूठे हैं, फिर भी उसी अनादि-अनन्त का प्रकटीकरण हैं। यथार्थ की यह अनादि-अनन्त की ध्ाारणा किसी भी विकास को सम्भव नहीं होने देती, उसके सभी प्रकटीकरण अनन्त सहकालिकता की वसीयत हैं। ‘जबकि अनादि-अनन्त अपने को सहकालिक प्रकटीकरण के भीतरी केन्द्र में प्रस्तुत करता है, कहने के लिए प्रकटीकरण की अद्वितीयता समय की अवध्ाारणा की तरफ ले जाती है, जो कि हमेें सामान्य संवेदनाओं से उसकी बाहरी रूपरेखा की तरह दिखते हैं। गेटे ने इसी की कल्पना की है, ‘पेड़-पौध्ाों को अस्तित्व से कम आँकना, एक-दूसरे से अपरिवर्तनीय और रूपान्तरण की तरह सभी एक या दूसरे तरीके से अपनी भाषा में किसी ख़ास रूप या पत्ती या अपने फूल के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर रहे हैं, यह आध्ाारभूत सत्य है, जो दुनिया के सभी वनस्पतियों का है।’7 यह सादृश्यता शायद अनादि-अनन्त के यथार्थ की ध्ाारणा तक बढ़ायी जा सकती है। चाहे जैसा हो, आध्ाारभूत सामान्य सत्य सिफऱ् परिशुद्धता के रास्ते वास्तविकता पा लेता है। इसकी कल्पना इस तरह नहीं की जा सकती कि अपने अनन्त प्रकटीकरण के इतर एक स्वतंत्र सत्ता में होः यह मात्रात्मक सम्बन्ध्ाी समीकरण में भी घटाया नहीं जा सकता, क्योंकि गुणवत्ता के बगैर किसी भी मात्रा की कल्पना अपने में अमूर्त है जिसका यथार्थ में कोई आध्ाार न हो। यथार्थ अपने को आकार के रास्ते ही प्रकट करता हैः हम उसे ‘अस्पष्ट ढंग’ से ही महसूस कर सकते हैं, हम कभी जान नहीं सकते। यह छवि इसलिए, अनन्त के प्रकटीकरण के रूप में, आश्चर्य की वस्तु बन जाती है।
ऊँ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।8
पूर्ण है यह पूर्ण है वह,
उदित होता है पूर्ण से पूर्ण ही
पूर्ण से पूर्ण को निकालने के बाद
शेष रहता है पूर्ण ही
अनादि-अनन्त की यह दार्शनिक व्याख्या एक अनन्त साँचे की तरह ली जा सकती है, जिसमें समय दूसरे स्तर पर व्यवहार करता है, समय इतिहास की तरह। हिस्टाॅरिकल समय की ध्ाारणा आनुभाविक ध्ाारणा है, एक भ्रामक मचान।9 हम अपने आगमन के समय से इस गुज़रे समय की परख करना जारी रखते हैं, शुरुआत तक पहुँचने की असम्भावना से बेखबर हो, प्रगति क्रम बनाना शुरू कर देते हैं, प्रगति इतिहास की तरह, पृथ्वी का इतिहास, पृथ्वी पर जन्म का इतिहास, प्रजातियों के विकास का इतिहास और सभ्यताओं के विघटन और परिवर्तन के दौरान मनुष्य का इतिहास। हिस्टाॅरिकल समय मनुष्यों की संस्कृतियों के बीच काम करते वक्त़ उन्हें असमान क्रम मेें रखता है, विकास जो प्रकृति के दोनों, नये किये जा सकने वाले और जिनका नवीनीकरण नहीं हो सकता, óोतों का पूर्ण उपयोग करते हुए तकनीकी विकास के ऊँचे और निचले स्तर पर आध्ाारित है। अतः, आज पश्चिमी सभ्यता अन्य मानव जाति के बरक्स ज़्यादा विकासशील दिखाई देती है। शेष सभी संस्कृतियाँ और सभ्यताओं को आध्ाुनिक तकनीकी रूप से परिष्कृत पश्चिम के स्तर तक आना होगा, अपने को समकालीन बनाने के लिए। यह तकनीकी विकास के असमान होने के कारण हम इस ध्ाारणा तक पहुँचते हैं कि पहला, दूसरा और तीसरा विश्व है, जो कि तथाकथित आदिवासी समुदायों के साथ है और संस्कृतियाँ उनके भी पीछे-पीछे चली आ रही हैं।
इतिहास मनुष्यता की हलचल को सिफऱ् एक ही कोण से देख पाता है, यह देखने का कोण चाहे जो हो। जबकि इतिहास का अध्ययन शायद और शायद नहीं भी पत्र-शैली में लिखे गये उपन्यास की समस्या प्रस्तुत करे, यथार्थ का अध्ययन एक ऐसी औपन्यासिक दूरी पैदा करता है, जिसे पाटा न जा सके। भाषा ज्ञान की वाहक है, इस निमित्त से सन्देश के रूप में अनुभव का वाहन बन जाती है और ज्ञान का नहीं, जो कि यथार्थ के साथ एक हो चुका हैः
विचार और
वास्तविकता के बीच
गति और
कार्य के बीच
सिफऱ् छाया है10
लोगों और समुदायों की कलाओं के भीतर अपने ज्ञान को हिस्टोरिकल मानसिकता के नज़रिये से देखना ही मुश्किल का कारण है, कहने के लिए, कि हमें अपने ज्ञान की बेदी पर यथार्थ की बलि चढ़ानी होगी इतिहास की तरह। इस तरह यह अपने को ही नष्ट करने वाली प्रक्रिया बन जाती है। कला, रीड कहते हैंः
‘...वह किसी जादुई कारण से किया गया हो या महज़ सौन्दर्य बढ़ाने के लिए, यह क्रिया आकस्मिक है और रेखाओं की अभिव्यक्ति और रंगों का वहाँ होना सब कुछ नैसर्गिक है। इस तथ्य के सामने हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्ध्ाी क्षमता मनुष्य में अन्तर्निहित हैः यह मनुष्य के पास उतनी ही प्राकृतिक ढंग से है, जैसे कि बोलना या किसी और अभिव्यक्ति की ज्ञानात्मक क्रियाएँ। मैं शब्द ‘ज्ञानात्मक’ में आ चुका हूँ और शायद यह आपको आश्चर्यचकित करे। किन्तु यह एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है, कला सम्बन्ध्ाी मेरे दर्शन के रूप में। मनुष्य जो भी करता है, अपने सहज नैसर्गिक प्रतिमा निर्माण की प्रक्रिया, प्रतीक के सृजन, वह यथार्थ के संज्ञान की अभिव्यक्ति है - यथार्थ के उस पक्ष की जो उस समय उसके देखने या उसकी बुद्धि द्वारा समझा गया है। कला का सारा मकसद मनुष्य की एक गतिविध्ाि की तरह इस अर्थ में ज्ञानात्मक है।’11
सिफऱ्, यह संज्ञानात्मक है यथार्थ के साथ समागम की और कलाकार यथार्थ की समझ की अभिव्यक्ति नहीं करता - जो, ज्ञान के रूप में सीमित होना ही है, किन्तु यह यथार्थ है जो कलाकार की सृजनात्मक क्रियाओं से अपने को अभिव्यक्त करता है ‘एक पक्ष की तरह’, इस तरह ज्ञान को आश्चर्य के अर्थ में घोलता हुआ। अनजान के साथ दर्शक की सहभागिता को समीप लाते हुए।
माक्र्सवाद की दफ़्तरी भाषा में यह तर्क किया गया है कि इतिहास से नहीं बचा जा सकता है और यह भी कि मनुष्य सिफऱ् इस हिस्टाॅरिकल प्रक्रिया में ही अपने उत्पीड़न से मुक्त हो सकता है। दूसरे शब्दों में, कि यह मान लिया गया है कि मनुष्य की स्वतंत्रता ऐतिहासिक विकास के किसी स्तर पर निर्भर हैः कि मनुष्य कभी स्वतंत्र नहीं था, किन्तु इतिहास की अनिवार्यता पर बहुत निर्भर रहा। यहाँ हम एक विचित्र विरोध्ााभास के सामने आते हैं कि जहाँ एक भाग्यवादी भौतिकवादी बन गया है। एक छोटे-से अन्तर के साथ जहाँ शब्द डेमीओरगाॅस शब्द इतिहास से बदल दिया गया है। अतः आदर्शवाद और भौतिकतावाद, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह नज़र आते हैं। तब यथार्थ का क्या हुआ और वास्तव में क्या हुआ?
समाजों के और समुदायों के हमारे पक्षपाती निरीक्षण से जिसे हमारे पूर्वजों का समर्थन प्राप्त है, जो हम तक आता है, जिसे हम ज्ञान का भण्डार कहते हैं, उसे हम श्रेणीबद्ध तरीके से रख सकते हैं, इस आदर के साथ कि हमारे वर्तमान के अनुभव के सन्दर्भ में अर्थवान हो सकेगा। यथार्थ के इर्दगिर्द जिसमें हम रहते हैं, हम एक काल्पनिक मचान तैयार करते हैं, और यह ढाँचा हमारे सामने यथोचित यथार्थ के रूप में प्रस्तुत होता है।
तीसरा स्तर, अपने होने का अहसास जिसमें हम बिना किसी समय की बाध्य करने वाली क्रमबद्धता से व्यवहार करते हैं, जिसे मैं हमारी सजगता का आत्मनिष्ठ संसार कहना चाहूँगा, हम अपनी इच्छानुसार कई क्षेत्रों में साथ-साथ ऊँची उड़ान भरते हैं, तथाकथित भूतकाल के क्षेत्र और भविष्य के, और सर्जनात्मकता के, एक गतिशील वर्तमान से, ‘लगातार होने’ की अवस्था से।
हमारी इस आत्मनिष्ठ अवस्था में, कम-से-कम, हम इतिहास के उत्पीड़न के विषय नहीं रहते।
एक कहानी है कि एक युवा भील पेड़ के नीचे बैठा आनन्द से बाँसुरी बजा रहा था। एक बनिया उसके पास जाता है और कहता हैः ‘तुम अपना समय क्यों बर्बाद कर रहे हो, कुछ काम क्यों नहीं करते?’ उस युवा ने पूछाः ‘अगर मैं काम करूँ तो क्या होगा?’
‘तुम कुछ पैसे कमाओगे।’ बनिये ने कहा।
‘यदि मेरे पास पैसे हैं तब क्या होगा?’
‘तुम खुश होगे और तुम परम आनन्द में होगे।’ बनिये ने कहा।
आनन्द में डूबे उस युवा ने कुछ जवाब देने की बजाय, अपनी बाँसुरी वापस बजाना शुरू कर दिया।
यथार्थ की इस व्यक्तिनिष्ठ अवस्था में जैसा कि जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव अपनी ही शर्तों पर होता है और एक व्यक्ति के द्वारा अनुभव किया जाता है, न कि किसी ऐतिहासिक श्रेणी में। यह वही अवस्था है, जिसमें एक व्यक्ति हमेशा से रहा है जब से मनुष्य की उत्पत्ति हुई और आगे भी रहेगा, यदि हिस्टाॅरिकल समय ने इस प्रजाति को रहने की छूट दी तोः यदि डायनासाॅर अपने शरीर के वज़न के कारण लुप्त हो गये हैं, तब कोई कारण नहीं है कि शायद मनुष्य अपने दिमाग के वज़न के कारण लुप्त हो जायेगा।
चाहे जो भी हो, हिस्टोरिकल समय, जो कि पश्चिमी सभ्यता के एकरेखीय विकास की तरह दर्शाया गया है, ज़रूरी नहीं है कि उसे मानदण्ड माना जाये, जैसा हमने देखा है कि महान सभ्यताएँ भी अपनी उपलब्ध्ाियों की पराकाष्ठा पर नष्ट और विघटित होती हैं। हम भी, इस तरह, अपनी समकालीनता को सह-अस्तित्विक संस्कृतियों के एक साथ होने की मान्यता देते हैं, जो इस अनन्तता के साँचे में होने वाली घटनाओं के एक साथ होने की मान्यता भी है। हम, इस तरह आदिवासी कला को समकालीन कला की तरह देखते हैं, उसके पीछे चाहे जो प्रेरणा रही हो।
अनिवार्यता इतिहास की चाल के बाहर नहीं बहती है। यह एक कहानी है, जो कि भूतकाल की असंदिग्ध्ा पश्च-दृष्टि से एक तरह की तार्किक संरचना है। भौतिक नृशास्त्र भले ही अलग-अलग लोगों की खोपडि़यों के नाप लेता रहे, उनके नाक के चपटे होने या तीखे होने को, या उनके बालों के रंगों और टेक्शचर को बतलाता रहे, किन्तु क्या इसकी व्याख्या हो सकती है कि कैसे एक झारा विशिष्ट जादुई शक्तियों की मूर्तियाँ बना सकता है या एक गोंड दीवाल पर भित्तिचित्र बनाता है या नक्काशी करता है जो मंत्रमुग्ध्ा कर देता है? क्यों पिकासो आदिवासी कला से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए खिंचा चला गया? क्या आध्ाुनिक कला को एक नयी ताकत देने का काम इस तरह के जीवन्त कला ने नहीं किया, जो कि अन्ततः उसी सभ्यता में जन्म लेती है जो आध्ाुनिक विज्ञान और तकनाॅलाॅजी पर आध्ाारित है? इस तरह से हिस्टाॅरिकल समय कभी भी बोध्ा करने का मानदण्ड नहीं बन सकता, आदिवासी कला के सामने होने पर और उसे पहचानने और जानने के लिए उसके अपने हक़ में भी।
भाषा विचारों के आदान-प्रदान में निश्चित ही अपनी चमड़ी से बाहर कूद आती है और खुद को अपने बूट-स्ट्रेप से ऊपर उठा लेती है, जब वह कला बनती है। दोनों तरफ एक साथ यात्रा करने के योग्य होने का अर्थ यह नहीं है कि अदला-बदली करना तथाकथित यथार्थ और भ्रम की दुनिया में बल्कि समानान्तर यथार्थ के बीच घूमना है। मैं कला के संसार को समानान्तर यथार्थ का संसार कहता हूँ और जैसा कि नाॅन-यूक्लीडियन ज्याॅमेट्री के अनुसार सिद्ध है कि समानान्तर रेखाएँ मिलती हैं, दोनों यथार्थ एक-दूसरे में उलझ जाते हैं और इस तरह कला का संसार यथार्थ के रूपान्तर और रूपान्तरण में देखा जा सकता है। यहाँ पर ज्ञानात्मक खाई भरी नहीं गयी है, उसे एक तरफ सरका दिया गया है या वस्तुतः वह अपने होने मेें स्थगित है, यह खाई सिफऱ् एक भ्रम है जो भाषा के सम्प्रेषण करने की क्षमता के अर्थ में एक प्रकार की हाथ की सफाई हैः यथार्थ के इर्दगिर्द बनाये गये काल्पनिक मचान का व्यवस्थित ज्ञान, सुव्यवस्थित सम्प्रेषण। इकारस की नियति ही गिरना और नष्ट होना था क्योंकि उसके पंख मोम के थे। मनुष्य अपने कला के पंखों के साथ स्वर्ग तक ऊँचे उड़ता है।
कला क्षेत्र के इसी यथार्थ के भीतर, इन समुदायों और लोगों तक हम पहुँचते हैं इतिहास के द्वारा घोषित पिछड़े और अविकसित का दर्जा पाये हुए, दोनों दिशाओं में एक साथ जाने की अवस्था में, और इनके साथ एक घनिष्ठता बनाने के सन्दर्भ में।
समाजशास्त्रियों की श्रेणियाँ मनुष्य के जीवन के व्यक्तिनिष्ठ अनुभव का विषय नहीं हैं। जब माक्र्स ने हीगल के तर्क-विध्ाान को ठीक कर देने की बात कही, वह मनुष्य को आदर्शवादी दलदल से बाहर नहीं खींच निकाल रहा था बल्कि अनन्तता के स्थल से मनुष्य को लूट रहा था और इतिहास की निर्दयता से उसको कीलित कर रहा था। इतिहास जो दर्ज करता है या जो दर्ज करने का दावा करता है कि जो ज्ञात है। जिसे समय में मनुष्य की ज्ञात और पहचानी जा सकने वाली यात्रा ‘मिथक’ को हटाने के लिए की गयी है, जिसके देवी-देवता लगातार बढ़ते जा रहे हैं और फिर भी जो समय से अनजान है। मनुष्य को समय के भीतर मरना होगा, इतिहास के सृजन के लिए। इस अर्थ मेें कला मिथक के क्षेत्र से सम्बद्ध है।
समाज के असमान रूप से विकसित होने की ध्ाारणा तकनाॅलाॅजी के असमान रूप से विकास के उत्पादन की ऐतिहासिक ध्ाारणा है। मनुष्य, चाहे वह जंगल में रहता हो, वहाँ के उत्पादों के भरोसे या महानगरीय केन्द्रों में तथाकथित तकनीकी रूप से समृद्ध दुनिया में अनजाने और असम्बद्ध एजेन्सी के द्वारा बनाये गये उत्पादों पर निर्भर मनुष्य, अभी भी अन्तहीन अनन्तता की विशालता के प्रश्न से रूबरू है। अनन्तता के सन्दर्भ में, दोनों ही समान विरोध्ााभासी सीमाओं में रखे जा सकते हैं। ओरछा की सड़क के बीच खड़ा मूडि़या विरोध्ााभास की तरफ इशारा नहीं करता है, बल्कि उसे जीता है।
आकाश में बारिश का तूफ़ान एकत्र हो गया है
गंगा और जमुना पानी से लबालब हैं
पानी कहाँ चला गया है?
मछलियों के गले में
और मछलियाँ, वे कहाँ हैं?
वे नदी में खेल रही हैं और नाच रही हैं।’’12
सन्दर्भ सूची ः
1. ए स्टोरी, बोर्गेस.
2. द लेबिरिन्थ आॅफ़ साॅलीट्यूड, आॅक्टोवियो पाॅज़, ग्रोव प्रैस आई.एन.सी. एवरग्रीन बुक्स लिमिटेड, न्यूयाॅर्क, लंदन.
3. द फ़र्दर रीचन्स आॅफ़ हîूमेन नेचर, ए.के. मास्लोव, पेंग्विन बुक्स, 1982.
4. द वाॅइसेस आॅफ़ साइलेंस, आन्द्र मालरोक्ष.
5. एंड अवर फ़ेसेज़ माई हार्ट, ब्रीफ़ एस. फ़ोटोस, जाॅन बर्गर, पेंथन बुक्स, न्यूयाॅर्क, 1984.
6. माॅडर्न मेन इन सर्च आॅफ़ सोल, सी.जी. युंग, रोल्डगे एंड कीगन पाॅल लिमिटेड, ब्राडवे हाउस, लंदन.
7. साइटेड-लेवि-स्ट्राॅस, सेमियाटिक्स आॅफ़ कल्चर में आइरीन पोर्टिस विéर द्वारा उद्धृत, मोंतो पब्लिशर्स.
8. ईश उपनिषद्.
9. स्काफ़ोल्डिंग रूपक का प्रयोग आइंस्टाइन ने अपने पत्र ‘लेटर्स ए माॅरिस साॅल्विन (पेरिस 1956) में किया था, जिसे माइकल टेब्लेट ने ‘मिस्टिसिज़्म एंड द न्यू फि़जि़क्स’ में उद्धृत किया.
10. कलेक्टेड पोयम्स बाय टी.एस. इलियट, फेबर, 1936.
11. द आर्टिस्ट इन ट्राइबल सोसायटीः राॅयल एन्थ्रोपोलाॅजिकल इंस्टीट्यूट में हुई एक परिचर्चा में इस पर मनन (विचार) किया गया। बाय मेरियन डब्ल्यु स्मिथ, रुटलेेग एंड केगन पाॅल द्वारा सम्पादित, लंदन.
12. गोंड साँग फ्ऱाम सांग्स आॅफ़ द फ़ाॅरेस्ट, हिवले एंड एल्विन, जाॅर्ज एलें एंड अनविन लिमिटेड, लंदन, 1935.

कला और आदिवासी
अलास्का से ब्रिटिश कोलम्बिया तक फैले हुए पैसिफि़क उत्तर पश्चिम इलाकोें में रहने वाले इण्डियन्स की कला के बारे में लिखते हुए लेवि-स्ट्राॅस कहते हैंः ‘यह सतत् नवाचार, यह आविष्कारिक सुनिश्चितता जहाँ भी लागू की जाए, सफलता का जि़म्मा लेती है, घिसी-पिटी बातों की अवज्ञा हमेशा नयी कामचलाऊ व्यवस्था ले आती है जो कि निश्चित ही चकाचैंध्ा कर देने वाले परिणामों की तरफ ले जाती है, इसके एक अनुमान के लिए हमारे समय को इन्तज़ार करना पड़ा पिकासो की असाध्ाारण नियति का।’1 ले दे मोज़ेल दाविन्यों2 1907 में पूरी हुई। पिकासो ने अपने दोस्त के स्टूडियो में आदिवासी कलाकृतियों को देखा था, पुरानी वस्तुओं के बाज़ार में और निश्चित ही म्यूज़े द ऐकनाॅग्राफ़ी ड्यू त्रोकादेरो संग्रहालय देखा होगा, देमोजेल को पूरा करने के पहले। संग्रहालय से लौटने के बाद यह कहा जाता है, पिकासो ने कहाः ‘मैंने अनुभव किया कि चित्रकला किस बारे में हैं।’3 अपने किसी दूसरे वक्तव्य में उसने ज़ोर देकर कहाः ‘आदिम शिल्पों से श्रेष्ठ कभी भी हम नहीं रच सकते।’4 ‘सभी कलाएँ’, हेनरी मूर ने कहाः ‘अपनी जड़ें आदिम कलाओं में ही पाती हैं।’5 और आन्द्रे मालर्रो ने कहाः ‘विश्व पर यूरोप का प्रभुत्व कोई परिणाम नहीं दे पाता, यदि चित्रकला को आगे नहीं लाया होता जिसने हमारी पश्चिमी आँखों का मोतियाबिन्द दूर किया और पहली बार कलाकृतियों के ‘रूपात्मक जोश’ को प्रकट किया, जिसका विरूपण औपचारिक तौर पर अनभिज्ञता और अनाड़ीपन की तरह देखा गया।’6 सर हर्बर्ट रीड ने एक विचार गोष्ठी में ‘आदिवासी समुदाय में कलाकार’ विषय पर प्रश्न उठाते हुए कहाः ‘आदिम कला में वह क्या है जो कलात्मक विशेषताओं को स्थापित करता है?’ और जवाब देते हैं, ‘मैं ‘सुन्दरता’ शब्द से बचना चाहता हूँ, क्योंकि मैंने कई बार इस ओर इशारा किया है कि कलाकृति का आकर्षण पेचीदा है और किसी भी प्रभावी कलाकृति में अभिव्यक्त जीवन-शक्तियों के तत्त्व हमेशा मौजूद होते हैं और जो सौन्दर्य के तत्त्वों पर भी प्रभुत्व रखते हैं, जो भाववाचक और वैश्विक है। आदिवासी कला सामान्य तौर पर सुन्दर होने की बजाय प्राणदायी है। किन्तु फिर भी वह कला है। सुन्दरता प्रायः शास्त्रीय पूर्वाग्रह की तरह वर्णित है किन्तु यही एक है जिसे हम सभी साझा करते हैं। मैं यह कहूँगा कि आदिम कला का बहुत थोड़ा-सा हिस्सा ही इस शास्त्रीय ‘सुन्दर’ शब्द के अर्थ में व्याख्यायित किया जा सकता है, किन्तु उसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में जीवन-शक्ति है जो किसी भी कला द्वारा जीती न जा सकी।’7
विलियम रूबिन अध्ािक विस्तार से लिखे निबन्ध्ा ‘आध्ाुनिक आदिमता वाद’ में कहते हैंः ‘बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ज्ञानबोध्ा पर आध्ाारित कला बंध्ानों से मुक्त होते हुए कला ने विभिé सौन्दर्य शास्त्रीय लक्षणों को बढ़ावा दिया जो आदिवासी कला के समानान्तर थे। और इन सबमें अन्तिम नहीं, यह स्वतंत्रता है जिसने वस्तुतः यथार्थवादी अनुपातों की बलि दी जो यूरोपियन कलाकारों की - चाहे जैसी भी उनकी भिé शैलियाँ हों - जो गोथिक काल से उत्तर-अभिव्यक्तिवाद तक फैली हैं (और 1905-06 के फावईज़्म तक भी), अभिव्यक्ति का साध्ान थी। इन शताब्दियों के दौरान शरीर की कुल लम्बाई के अनुपात में सिर का अनुपात, बहुत ही कम मात्रा में अलग होता दिखता है। अनुपात की चरम दरों में बदलाव 1906 के उत्तराद्र्ध में पिकासो कि ‘आइबेरियन’ शैली के चित्र ‘दो औरतें’ में दिखा। किन्तु 1907 में यह घटा - ‘देमोजे़ल’ में (सीध्ो हाथ की तरफ नीची वाली आकृति में ख़ास तौर पर) और मातीस के चित्र ‘ल ल्युक्स’ में पुरानी परम्परा से स्वतंत्रता निर्णायक ढंग से प्रतिष्ठित हुई। यह जल्दी ही जर्मन कलाकारों द्वारा अपना लिये जाने वाला था ‘अभिव्यक्त अनुपातहीनता’8 के रूप में।
यहाँ हमारा सरोकार है, शक्तिदायी, भावपूर्ण आव्हान करने वाली, जादुई - सामाजिक विज्ञान के अर्थ मेें जादुई नहीं बल्कि दृश्यमान ऐन्द्रिक अर्थ में - आदिवासी कला के विस्तार से। यह जीवनदायी जादुई आयाम प्रकृतिवादी यथार्थपरक परम्परा के विपरीत इसे हम माक्र्स की उस तुलना से मिला नहीं सकते जहाँ वह हमारी बाल-चित्रकला और शास्त्रीय ग्रीक कला की समझ की तुलना कर रहा है, जब माक्र्स ग्रीक के बारे में कहता है ‘मानव जाति के सामान्य बच्चे’9 और हमारे द्वारा उनकी कला परखने की क्षमता को जो हमारी बाल-चित्रकला की परख की तरह ही है, वह वास्तव में ग्रीक कला को प्लास्टिक अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में नहीं बतला रहा है, जो कि मोटे तौर पर, यथार्थवादी है अपने रूप में, बल्कि मानव-पौराणिक कथा रूपी सामग्री के लिए।
मिथक की बन्द दुनिया मुक्त हो इतिहास के खुले सिरों वाली पद्धति में आकर एक अग्निदेवता का इस औद्योगिक समय में जन्म शायद सम्भव न हो, किन्तु निश्चित ही आज के नियो-यथार्थवादी चित्र या मूर्ति इस तरह बना रहे हैं जो यथार्थवाद का स्मरण कराता है, जिसमें शास्त्रीय ग्रीक कला के कलाकारों ने अपने देवताओं और देवियों का चित्रण किया है और जहाँ पौराणिक कल्पना की महक भी आकृतिमूलक बयान की तरह पत्रकारीय रिपोर्ताज में बदल गयी। उलटे क्रम में इसके उदाहरण में डाली सम्भवतः फ्ऱायड का स्वप्न संसार चित्रित कर रहा हो, किन्तु निश्चित ही वह यथार्थवादी चित्रकार है न कि अति-यथार्थवादी, इस तरह वह सिफऱ् यथार्थ को ही प्रस्तुत करता है पूरी प्रकृतिवादी निष्ठा के साथ।
ग्रीक तार्किकवाद ने आदिवासी कला की बहुआयामी मानवारूपी कल्पना के बरक्स एकरेखीय विपरीत रुख अपनाया। इस तरह दीखने में अनगढ़ किन्तु अत्यन्त शक्तिशाली आकृतियाँ, आदिवासी अभिव्यक्तियाँ, अन्ततः एक प्रकार से वीनस डिमेलो10 के आयाम में घटा दी गयीं, मध्य वर्ग के लिए एक परिपूर्ण यथार्थवादी शारीरिक अनुपात जो आज भी स्त्री सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में निर्णायक भूमिका निभाता है। हमारी शताब्दी में पश्चिम में एक पिकासो की ज़रूरत पड़ी जो वीनस के सौन्दर्य की इस पश्चिमी शास्त्रीय ध्ाारणा को ले दे मोज़ेल दाविन्यों का सृजन कर हमेशा के लिए अपनी कला में नष्ट कर सका।
आदिवासी कला की यह जीवन-शक्ति पिकासो और कुछ और यूरोपियन कलाकारों द्वारा इस शताब्दी की शुरुआत में खोजी गई और विलियम रूबिन जैसा इसको रखते हैं कि उन्होंने इसके साथ ‘सादृश्यता’ पायी। चाहे यह सादृश्यता का मसला हो या वे आदिवासी कला से सीध्ो प्रभावित हुए हों, हमारा सरोकार यह नहीं हैं। महत्त्व की बात यह तथ्य है कि उन्हें यह महसूस हुआ कि आदिवासी कला को न अलभ्य कलाकृतियों की तरह या ‘अल्पविकसित’ दिमाग की कला की तरह देखा जा सकता है। उन्हें अहसास हुआ कि यह कला ‘साध्ाारण’ नहीं है बल्कि बहुत ही किफ़ायत में, कम-से-कम चित्रण है जटिल संकल्पनाओं का। आदिवासी कला को ‘बचकानी’ की तरह नहीं देखना है, जिस अर्थ में ‘भोला’ वह होता है जो वयस्क अभिव्यक्तिहीन है।
अनिवार्य रूप से यह निष्कर्ष कि भले ही इस आध्ाुनिक तक्नाॅलाॅजी के नींव पर सामाजिक रचना में यह मान लिया जाये कि कुछ समाज वैसे ही ‘आदिम’ हैं जैसे दूसरे तरक्की पाये हैं, विकास की प्राथमिक और उéत स्तरों की ध्ाारणा कला में तकनीकी तरक्की के रूप में घातक सिद्धान्त होगा। यदि इस तरह की ध्ाारणा को स्वीकार किया जाना है, तब हमें ‘विगत काल’ की सभी कला को रद्द करना होगा और साथ ही साथ समकालीन आदिवासी कला के प्रकटीकरण को भी, जैसे हम एक अविकसित तकनाॅलाॅजी को रद्द करते हैं। और जिस तरह पूर्वकालिक कला को हम बाल चित्रकला की तरह ही सराहते हैं, यहाँ ध्यान देने योग्य है कि बाल चित्रकला भी एक पक्षीय प्रस्ताव नहीं है, हालाँकि यह दूसरा मसला है।
आदिवासी कला की आन्तरिक और स्थाई शक्ति को सराहने में समस्या शायद इस तथ्य में है कि हममें से बहुत अभी भी उéीसवीं शताब्दी के, जैसी वह पश्चिम में विकसित हुई, यथार्थवाद की ध्ाारणा से चिपके हुए हैं। प्रकृति विज्ञान के पाठ्यक्रम का अनुगमन करते हुए, यथार्थवादी कला के समर्थक चाहते थे कि जैसा देखा गया और प्रमाण योग्य तथ्य है, ये कला भी ‘वस्तुनिष्ठता’ से चिपक जाये। जोला के लिए यह पूरा प्रयत्न ‘अवास्तविक की वास्तविक से विलोपन की कोशिश है।’11 डेमियन ग्राण्ट ने जोला के इस ‘कल्पना के बहिष्कार’ को प्लेटो के कवि का आदर्शवादी राज्य से बहिष्कार की तरह देखा है।12
बर्नाड क्राॅस कहते हैं- ‘प्रकृति विज्ञान के अंध्ाविश्वासी सम्प्रदाय अक्सर एक किस्म के पाखण्ड ओढ़े रहते हैं (अक्सर यह अन्ध्ाविश्वास का नसीब है), रासायनिक, भौतिक और मनोवैज्ञानिक वैध्ाशालाएँ विलासी उद्यान बन गये हैं, मानव-स्वभाव की अत्यन्त गहरी समस्याओं की सहज पूछताछों के प्रश्नों से गुँजायमान।’ हिपोलाइट टेन की किताब ‘फि़लाॅसफ़ी आॅफ़ आर्ट’ से उद्धरण देते हुए ग्राॅस कहते हैं- ‘टेन दावा करते हैं सौन्दर्य प्रेमी होने का जो चरित्र निधर््ाारित करते हैं और वनस्पति शास्त्र के नियमों को दर्शाते हैं। संतरे और बेल, चीड़ और भोज वृक्ष का अध्ययन करते हैं, उनमें समानता खोज निकालते हैं; निश्चित ही यह एक तरह का वनस्पति शास्त्र है, जो मनुष्य के कामों पर लागू किया गया है बजाय वनस्पति के।’13 लुकास जोला के ऊपर लिखे अपने निबन्ध्ा में कहते हैं- ‘यथार्थवाद की एकरसीय होना आम बात है, जो पूँजीवाद के नीरस यथार्थ का सीध्ाा यंत्रवत् प्रतिबिम्बन है।’14
भूतपूर्व अँग्रेज़ी शासकों ने नग्न आँखों से दिख रही मानसिक जड़ता को ऊँचे शहरी भारतीय मानस पर चस्पा कर दी। इस तरह अठारह सौ अड़सठ में एक दूसरे दर्जे का अँग्रेज़ चित्रकार थियोडोर जेैनसन हिन्दुस्तान आया। त्रावनकोर के महाराजा ने उसे आमन्त्रित किया और रवि वर्मा15 ने उससे तेल चित्र की तकनीक सीखी। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि रवि वर्मा ने न सिफऱ् उससे तेल चित्र की तकनीक सीखी, बल्कि जैनसन से अकादमिक यथार्थवाद भी जाना। बकिंघम के ड्यूक, जो उस वक्त मद्रास के गवर्नर थे, जो भारतीय कलात्मक परम्परा के बारे में दरिद्र विचार रखते थे, ने रवि वर्मा को बहुत ही आनन्द के साथ चित्र बनाने का न्यौता दिया और उसकी प्रतिकृतियाँ ओलियोग्राफ़ के रूप में पूरे हिन्दुस्तान में इस दिशा से उस दिशा तक आग की तरह फैल गयीं।
आनन्द कुमारस्वामी रवि वर्मा के चित्रों के बारे मेें यह सोचते थे कि- ‘आवश्यक साहित्य और सतही भारतीय जीवन के अध्ययन के बाद कोई भी यूरोपियन छात्र इस तरह के चित्र बना सकता है।’16 हाविल ने उसमें देखा ‘अत्यध्ािक कल्पनाशील भारतीय कविता और रूपकों के चित्रण में काव्यात्मक क्षमता का दुखदायी अभाव।’17
फिर भी, शुरुआती अँग्रेज़ी शासकों के आदेशानुसार अभी भी हमारे बहुत-से कला विद्यालयों में विद्यार्थियों को ग्रीक और रोमन शिल्पों के प्लास्टर से बनी मूर्तियों की नकल करने की बाध्यता है और अनजाने में, और चाहे-अनचाहे, हमारे शहरी बौद्धिक समाज ने पिछले अँग्रेज़ी परामर्शदाताओं का यथार्थवादी अंध्ाापन हासिल कर लिया है। कला के प्रति उनके इस आग्रह का हम सम्मान करते हैं चाहे वो आदिवासी हो या आध्ाुनिक।
वस्तुतः जैसे मनुष्य की आँख एक लेंस है और उसका देखना कि हम क्या देखते हैं, उसकी प्रकृति और संरचना पर निर्भर करता है, इसके अलावा आँख सिफऱ् एक इन्द्री है, उन इन्द्रियों में से एक जो मस्तिष्क को सन्देश भेजती हैं, जो कि एक या उससे ज़्यादा इन्द्रियों द्वारा नकारा भी जा सकता है। फिर कैसे हम अपने एक जीवित अनुभव को कला की शर्तों पर एक आकृति में बदल लेते हैं? साहित्य और कविता के सन्दर्भ में इस बिन्दु पर समझना आसान है, उपमाओं, अलंकार और रूपक का प्रचलन दोनों में समान रूप से मौजूद है। इस प्रकार एक युवती की आँखें मृग की तरह हो सकती हैं या एक बच्चे का चेहरा चाँद की तरह हो सकता है। एक औरत शायद कुतिया और एक मनुष्य, कुत्ता या गध्ाा या राक्षस। जैसा भी हो, यह मानव रूपी रूपान्तरण देखे गये हैं। यदि अविश्वास के साथ नहीं तो, दोषदर्शिता के साथ, जहाँ तक चित्रकला और शिल्पकला का सवाल है, इस तरह के रूपान्तरण स्वीकार्य हैं, वे सिफऱ् एक कहानी या एक पौराणिक या एक मिथ के चित्रण की तरह स्वीकार्य हैं। इस प्रकार यथार्थवादी अंध्ात्व कला के अ-दृश्य सहायक कारकों पर भी चढ़ आये, फलस्वरूप कल्पना की ध्ाड़कती साँसों को भी नग्न किया।
यहाँ दृष्टि और अन्तर्दृष्टि के फ़कऱ् को समझना ज़रूरी है। मनुष्य की आँख, निश्चित ही, अपने ग्राहî सिरे पर एक आकृति प्रक्षेपित करती है। वहाँ कोई खाली परदा नहीं है किन्तु मस्तिष्क है। मनुष्य का मस्तिष्क न सिफऱ् आँख के अलावा इन्द्रियों द्वारा पोषित होता है, किन्तु जेनेटिक बोध्ाक्षमता से भी, या शायद जैसा जुंग कहते हैं- ‘सामूहिक अचेतन’ से भी। दृष्टि की अन्तर्दृष्टि बनने की क्षमता लेंस पर नहीं, मस्तिष्क पर टिकी है। जैसा क्राॅस कहते हैं- ‘एक काल्पनिक मनुष्य के लिए चित्र का क्या अर्थ होगा, जो समस्त या लगभग सभी इन्द्रियों को खो चुका है, तब देखने वाले अंग को तत्काल कौन ग्रहण करेगा? जिस चित्र को हम देख रहे हैं और मान रहे हैं, वह हम सिफऱ् अपनी आँखों से देखते हैं, जो शायद उसकी आँखों से कुछ ज़्यादा एक चित्रकार की रंगों से लिपी-पुती पैलेट की तरह दिखेगा।’18
आदिवासी कल्पना की गुंजाइश यथार्थवाद की विवशता में नहीं है, हालाँकि वह प्रकृति के ऊपर मँडराती है और अपनी जीविका वहीं से प्राप्त करती है।
यथार्थवादी चित्रण का यह दावा कि वस्तुनिष्ठ यथार्थ के दर्पण प्रतिबिम्बित बोध्ा है चित्रकला, फिर भी; प्रकृति का प्रतिबिम्बन नहीं है। यह एक समानान्तर यथार्थ है। यह समानान्तर यथार्थ सिफऱ् इसलिए सम्भव होता है कि मिथक के सभी सच इसमें रच-बस गये हैं, कल्पना की एक प्रक्रिया दोनों से अपना ताना-बाना बुनती है, दुनिया जिस तरह मौजूद है और मस्तिष्क उसे जैसे ग्रहण करता है, इन दोनों के जोशीले सम्बन्ध्ाों से। सभ्यता की त्रासदी यह है कि उसने एक आयामी मनुष्य, एक रेखीय विकासवादी रास्ता अपनाया रचने के लिए19, जो फिशर जैसे सिद्धान्तवादी लोगों को बाध्य करता है कला की श्रेष्ठता पर और हमारे अपने समय में भी मिथ की प्रासंगिकता पर ज़ोर देने के लिए।20
कला में सादृश्यमूूलकता की समस्या पर हम कुछ देर और विचार करते हैं। हमने पहले ही ‘आँख अकेली ही अन्तर्दृष्टि की पथप्रदर्शक’ है की ध्ाारणा को छोड़ दिया है। सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि आदिवासी कला में परिप्रेक्ष्य का अभाव है। हिस्टाॅरिकल तौर से कह रहा हूँ, एकरेखीय परिप्रेक्ष्य की ध्ाारणा या तथाकथित अदृश्य बिन्दु चित्रकला में उच्च रेनेसां के दौरान प्रस्तुत किया गया था। सीध्ो कहें तो साध्ाारणतया, वस्तुएँ जो क्षितिज की तरफ जा रही हैं, वे क्रमशः छोटी और छोटी होती जाएँगी और जैसे-जैसे हम उन तक पहुँचेंगे, वे अपना आकार ग्रहण करने लगेंगी। यह मनुष्य की आँख का सामान्य अनुभव है। इस चाक्षुष अनुभव की चित्रकला में भूमिका सादृश्यमूलकता को और अध्ािक यथार्थ बना देने की थी। जैसा भी हो, आँख के भ्रम के बावजूद भी वस्तुएँ छोटी या बड़ी नहीं होती हैं। कला में और ज़्यादा यथार्थ लाने के नाम पर रेनेसां परिप्रेक्ष्य ने वास्तव में भ्रम को चित्रकला में प्रस्तुत किया। इसने कला के व्याख्यात्मक पक्ष को सहारा दिया और कला के उद्घाटित करने की प्रकृति को हानि पहुँचाई। इसने कला में दृष्टान्त स्वरूप पक्ष का सहारा दिया और उद्घाटित करने की उसकी प्रकृति को हानि पहुँचायी। इसने अन्दरूनी संयोजनात्मक की संरचना का उल्लंघन भी किया और उद्घाटित आकृति की स्थिति को आँख के भ्रम के अनुरूप लाने की कोशिश में उसे बदला भी।
यह मान लेना कि आदिवासी कलाकारों को परिप्रेक्ष्य के ज्ञान का अभाव है, क्योंकि वे लोग मानसिक रूप से विकसित नहीं हैं या ‘उचित’ प्रस्तुति के लिए तकनीकी रूप से अक्षम हैं, यह बुद्धिमत्ता और कला, दोनों का ही अपमान करना होगा। इससे भी ज़्यादा यह सोचना कि आदिम लोग परिप्रेक्ष्य का अर्थ नहीं जानते हैं, निश्चित ही गलत होगा; फिर ऐसा कैसे हो सकता है कि वह अपनी झोपड़ी या निवास तक वापस लौट आता है, जिसे वह शिकार के या किसी अन्य कारण से छोड़कर गया था, एक दूरी से वह निश्चित ही यह नहीं जान सकता कि वह उतनी ही दूरी से लौटा है जहाँ से वह चला था? उसकी झोपड़ी या निवास छोटा दिखेगा या बड़ा, यह पहचान पाना असम्भव जान पड़ता है, क्योंकि इसकी सापेक्षता उसके वहाँ होने पर है। और योग्यता के बारे में यह सोचना मूर्खतापूर्ण होगा कि जो मस्तिष्क और हाथ रेखाओं, रंगों और अवकाश का आश्चर्यजनक इस्तेमाल करने योग्य है, वह परिप्रेक्षिय संसर्ग को अनुभूत करने में अयोग्य हो जायेगा। साध्ाारण-सा तथ्य यह निकलता है कि आदिवासी परिप्रेक्ष्य का इस्तेमाल चित्रकला में नहीं करते हैं, क्योंकि वह यथार्थ को प्रस्तुत करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं, जैसा कि नग्न आँखों से दिखाई देता है किन्तु वे कला का समानान्तर यथार्थ रच रहे हैं।
कला के आध्ाुनिक आन्दोलन ने, जैसा कि सर्वविदित है, रेनेसां के परिप्रेक्ष्य को बाहर फेंक दिया, उसने आध्ाारभूत प्रस्तुतीकरण को भी प्रश्नांकित किया है और कला को पुनर्परिभाषित किया, और साथ ही कला को मशीनी ढंग और असंगत कृत्रिमता से मुक्त किया। मैं यहाँ पाॅल क्ले का प्रसिद्ध उद्धरण देता हूँः
‘‘क्या मैं एक उपमा का इस्तेमाल कर सकता हूँ, एक वृक्ष की उपमा? एक कलाकार इस दुनिया की विविध्ाता का अध्ययन करता है और, हम सोच सकते हैं, हठी ढंग से उसमें अपना रास्ता पाता है। उसके दिशा-ज्ञान ने आकृतियों और अनुभव की बहती ध्ाारा में एक तरह का क्रम लाया। प्रकृति और जीवन में इस दिशा के ज्ञान का, इस विभाजित होेने और व्यवस्थित ढंग से फैलने में मुझे इसकी तुलना वृक्ष की जड़ों से करनी चाहिए।
‘‘जड़ों से रस कलाकार तक बहता है, उसमें से उसकी आँखों तक बहता है।
‘‘इस तरह वह एक वृक्ष के तने की तरह खड़ा है।
‘‘दुरुपयोग से विकृत और बहने की ताकत से अचल वह अन्तर्दृष्टि अपने काम में गढ़ता है।
‘‘जैसे, दुनिया के विहंगम दृश्य में, वृक्ष का शिखर अपने को खोलता है और फैलता है समय में और अवकाश में, ऐसा ही उसके काम के साथ है।
‘‘कोई भी यह प्रमाणित नहीं कर सकता कि वृक्ष का शिखर उसकी जड़ों का बिम्ब है। ऊपर और नीचे के बीच में कोई आईने का प्रतिबिम्ब हो नहीं सकता। यह सुस्पष्ट है कि भिé क्रियाएँ जो भिé तत्त्वों में फैल रही हैं, उन्हें महत्त्वपूर्ण मतभेद पैदा करने चाहिए। किन्तु यह सिर्फ़ कलाकार है, जो उस वक्त प्रकृति से उन प्रस्थान को नकारता है जो उसकी कला की माँग है। वह अक्षमता और जानबूझकर की गयी तोड़-मरोड़ से ही आवेशित है।
‘‘और फिर भी, अपने नियत जगह पर खड़ा है, वृक्ष का तना, वह कुछ नहीं करता सिवाय इसके कि जो उस तक गहराइयों से आ रहा है, उसे इकट्ठा करे और आगे गुज़ार दे। वह न तो सेवा करता है न ही शासन करता है - वह प्रसारित करता है।’’21
यथार्थवाद की पट्टी आँख पर बाँध्ा ‘कला सिफऱ् सादृश्यमूलक है, की ध्ाारणा रख’ हम अब देखने के फ़ुटबोर्ड से स्वप्न के क्षेत्र में छलाँग लगाते हैं।
न्यू मैक्सिको के प्यूएब्लो इण्डियन्स के बारे में बात करते हुए, डेनियल हेल्पर्न लिखते हैं ः
‘‘चित्र लेख और नक्षत्र मण्डल के चट्टानों पर बने चित्र या बारहसिंगा या हिरण अपना जादुई हिस्सा रचते हैं, उस प्रक्रिया से जहाँ सारी प्रार्थना का केन्द्र और एकाग्रता वस्तु खुद पर टिकी है, जो बदले मेें, शिकारी के हाथ को निर्देशित करती है। मिजाज़ के विस्तार के साथ इस सम्बन्ध्ा के लिए एक आकृति या रूप की ज़रूरत है, जो इसमें अन्तर्निहित है। एक ‘जीवन सादृश्य’ बारहसिंगा का प्रस्तुतीकरण भी प्रतिबंध्ाात्मक है। सिफऱ् बारहसिंगा ही अपने में। बारहसिंगा का एक यथार्थवादी प्रस्तुतीकरण हर हालत में किसी ख़ास तरह के एक बारहसिंगा का ही होगा। शिकार करने का कर्मकाण्ड का कारण और जादू इस बात का है कि सभी बारहसिंगों की आत्माओं से सम्पर्क हो सके।’’22
सभी कलाएँ, और ख़ास तौर पर आदिवासी कला स्वप्नदर्शी हैं। कला के रास्ते ही हम इन्द्रियों के उत्पीड़न से बाहर आ सकते हैं और अन्जान के आतंक को अनुभवातीत पाते हैं। कला, इस तरह, मनुष्य की पहली आवश्यकता है उसके मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए, ठीक वैसे ही जैसे शरीर के स्वास्थ्य के लिए भोजन है। यह एक आवश्यक उद्दीपक है अस्तित्व की बोरियत से बाहर निकलने के लिए, मनुष्य सिफऱ् जैविक मशीन नहीं है। वह सिफऱ् खाना, मल त्याग करना और प्रेम ही नहीं करता, बल्कि बोध्ागम्य और बोध्ाक्षम, दोनों ही है, इस अन्तरिक्ष में हमेशा अपना स्थान खोजता हुआ। यह ध्यान देना दिलचस्प होगा कि अल्कोहल पेय पदार्थ और भ्रान्तिजनक औषध्ाियाँ मनुष्य द्वारा बिलकुल शुरुआत से ही इस्तेमाल की जाती रही हैं, और निश्चित ही सभी आदिवासी समुदाय इसे जीवन के आवश्यक पदार्थ की तरह व्यवहार में लाते हैं। यदि इस तरह के उद्दीपक जीने के मूर्त कारण प्रस्तुत करते हैं, एक समानान्तर यथार्थ में उसे प्राप्त करने के लिए कला उसका उत्कृष्ट साध्ान है।
कला के साथ व्यवहार करने में, चाहे वह आदिवासी हो या अन्य, हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हमारा बहुत ज़्यादा सरोकार आकृति के यथार्थ से नहीं है जितना कि यथार्थ की आकृति से है। कला में रूप की तरह एक आकृति अपना यथार्थ पाती है। आकृति यथार्थ के हमारे देखने से निकलकर उसकी संकल्पना से आती है। जैसे भी हो, कला में, वह एक प्रक्रिया, वह एक रूपान्तरण की प्रक्रिया से गुज़रती है और न कि अनुवाद की प्रक्रिया से। जो तत्त्व इसे बाहर निकालते हैं वह सृजन के तत्त्व हैं, जो कि अपने को विश्लेषण करने के लिए प्रस्तुत नहीं करते हैं बल्कि अभिव्यक्ति की तरह प्रस्तुत होते हैं। कला में आकृति, जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, वह आईना-प्रतिबिम्ब नहीं है। यदि हम पीछे जाकर इसके óोतों को देखने की कोशिश करेंगे तब वह अपने कारणों में सहायक होंगे - वह किसी भी भीतरी मूल्य का नहीं है बल्कि सन्देश की सूचनाओं का वाहन है। जैसा भी हो, हम जानते हैं, यह स्थिति नहीं है। ‘‘भाषा में सम्प्रेषण के साध्ान की तरह, सन्देश ग्रहण किया गया है या ग्रहण किया जाने वाला है, जैसा कि उसका मतलब है। वास्तविक सम्पे्रषण अस्पष्टता से नफरत करता है। यदि एक बच्चा भी लिख रहा है म् त्र उब्2, वह उससे कम अर्थ नहीं सम्प्रेषित करेगा जो उसका मतलब है। भाषा में, सम्प्रेषण के साध्ान की तरह, माध्यम का दृश्य-चेहरा, कहने को, पूरी तरह से खत्म हो गया है। खराब हस्तलेखन, जो सम्प्रेषित किया जाना है, उसके बीच में नहीं आता। चित्रकला में चाक्षुक रूपान्तरण ही अपने में सन्देश है। यदि म् त्र उब्2 को चित्रकला में अपना सच पाना है, तब उसे, इसके अतिरिक्त सुलेखन की अभिलाषा रखनी होगी, चाक्षुक अनुभूति, किसी भी तरह की खूँटाबन्दी नहीं स्वीकारती और न ही सम्प्रेषित सन्देश में कमतर होना।’’23
कला में अनुभव करना और खासकर और विशेष तौर पर आदिवासी कला, यह सर्वोच्च महत्त्व का आशय है। जैसे कि, समाजशास्त्रीय नृशास्त्र के हिसाब से हम सम्भवतः कला का विश्लेषण कर सकते हैं और आदिवासी लोगों के मिथकों का भी उनके सामाजिक सम्बन्ध्ाों की समझ के लिए, पर निश्चित ही हम इतने अख्खड़ भी नहीं हैं कि यह सोचें कि वे अपनी कला का सृजन हमारे विश्लेषण की भूख के लाभ के लिए करते हैं।
किसी एक मिथ या कला को, जाने हुए या जानने योग्य तथ्य के द्वारा अर्थ जानने का पूरा दायित्व सौंपना, साध्ानों के अर्थ को नकारने जैसा है; क्योंकि कला में जैसे कि मिथ में यह हलचल उसकी उत्पत्ति की तरफ जाने की नहीं है बल्कि विपरीत दिशा में उससेे मुक्त होने की सम्भावनाओं की तरफ है। यह ‘यथार्थ’ से एक उड़ान है, कल्पना योग्य यथार्थ बनाने के अनुक्रम में है।
सामाजिक सम्बन्ध्ाों और मनुष्य और प्रकृति के सम्बन्ध्ाों की स्थापना में मिथकों की व्यवहारिक और संरचनात्मक विश्लेषण की सम्भावना की छूट देते हुए भी, वे छँटनी की प्रक्रिया की तरह बनी रहती है, अमूर्त और क्षीण एक किताब रखने वाले के प्रत्यक्ष प्रमाण की तरह उपस्थितियाँ हैं जिनमें क्षमता है हमें रोज़मर्रा की जानने योग्य प्रतिक्रियाओं से बाहर खींच निकालने की, और अनुभव की विस्मयकारी दुनिया मेें ले आने की।
जैसा डाॅ. मैरी डगलस बतलाते हैं, ‘यह कुछ-कुछ शब्दार्थ विज्ञान के टुकड़े बनाने की प्रक्रिया जैसा है जिसमें मिथ का बहुत-सा अर्थ खो जाता है।’24
आदिवासी कला या कला की सामान्य तौर पर व्याख्या करने की कोशिश में उनका सामना करते वक्त, ऐसा लगता है कि हम ‘कला, कला के लिए है’ इस या ‘कला अपने में एक वस्तु है’ के सिद्धान्त को रख रहे हैं, हमारी बात से बगैर पीछे हटे हुए हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि हम अपनी विश्वसनीयता को फिर प्राप्त करें। मनुष्य की कोई भी अभिव्यक्ति, यहाँ तक कि अव्यवस्थित मस्तिष्क की भी, के हम कारण खोज सकते हैं। अनजानी लिखावट को पढ़ा जा सकता है, संकेतों को तोड़ा जा सकता है। इस अर्थ में कला की विषय-वस्तु, उसके सार, उसके óोत या उसके सन्दर्भ के óोतों को खोजा जा सकता है। किन्तु कला सिफऱ् संकेत नहीं है या प्रतिलिपि का चरित्र। ‘सौन्दर्यशास्त्रीय आयाम कभी भी यथार्थ के सिद्धान्त को प्रमाणित नहीं कर सकते।’25
‘कल्पना की तरह, इसकी संरचनात्मक, मानसिक क्षमता, सौन्दर्यशास्त्र का क्षेत्रफल तत्त्वतः ‘अ-यथार्थवादी है’।’26 वह संवेदनशीलता को एक ध्ाड़कता हुआ स्पर्शी आकार देने के लिए नकारती है, छुटकारा पाती है और यहाँ तक कि कारण को छलती भी है। वह अनुमान और उसके प्रमाणों के क्षेत्र में नहीं व्यवहार करती। एक अर्थ में यह विशेष क्षमता है मस्तिष्क के सन्दर्भ में, शरीर की प्रजनन क्षमता की तरह। सिर्फ़ सौन्दर्यशास्त्रीय आयामों में संकर उर्वरण की अनन्त सम्भावना है; जो कि प्राणिशास्त्र के क्षेत्र में असम्भव नज़र आता है, वह कला के क्षेत्र में सर्वस्वीकार तथ्य है। कला की अर्थगत कल्पना के सनकी नियम से संचारित है। यदि हम उसे नियम कहें, यह सिफऱ् इसलिए है कि यहाँ अनिवार्यता है, जिसका हम अनुमान नहीं लगा सकते किन्तु वह पूरी तरह से रूपायित परिणाम है, पूरी आन्तरिक तार्किक संरचना के साथ; एक कलाकृति, वास्तव में, अपनी ही शर्तों पर समझी जा सकती है, उसके सुव्यवस्थित तत्त्व के आपसी सम्बन्ध्ाों के आध्ाार पर। ‘‘कलाकृति, अतः दोषयुक्त नहीं है और अपूर्ण नहीं है, सिफऱ् सुविध्ाा का साध्ान है। यह मूलभूत और अपने में पूर्ण सत्ता है, अपने ही अध्ािकारों में खड़ी और अपनी स्वायत्तता को लिये।’’27
कला, निश्चित ही कला के लिए है, किन्तु यह मनुष्य को सम्बोध्ाित है, यह उसे अनजान की तरफ से, एक आश्चर्यजनक वस्तु की तरह उपहार के रूप में सम्बोध्ाित है।
आदिवासी कला का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि उसमें एक व्यक्ति की भूमिका कलाकार की है। जो भी उत्प्रेरक हो, यह तथ्य बना रहता है कि आदिवासी समुदायों में व्यक्तिगत विलक्षणता कलाकृतियों में अपनी अभिव्यक्ति पाती है, फिर समुदाय भले ही उसे सामूहिक विरासत की तरह स्वीकार कर ले। जैसा सर हरबर्ड रीड कहते हैंः
‘‘मैं मानता हूँ कि अपने उद्गम में यह तत्त्वतः व्यक्तिवादी है कि एक कलाकार की कलाकृति इसके पहले कि वह सामाजिक संकेत ग्रहण कर ले या समुदाय के सांकेतिक प्रतीकों के तौर-तरीके का एक हिस्सा बन जाये, अस्तित्व में आती है। दूसरे शब्दों में, मैं यह मानता हूँ कि ध्ाार्मिक-कला के पहले से कला मौजूद है, या कला किसी भी तरीके से गुण-सम्पन्न हो, मौजूद है। निस्सन्देह, कलाकृति के ध्ाार्मिक, सामाजिक सरोकार और व्यक्तिवादी गुण में फ़कऱ् करना मुश्किल हो जाता है। यह मुश्किल बढ़ जाती है जैसे समाज और गूढ़ होता जाता है और एक व्यक्ति उस समाज में पैठता जाता है और उसे सृजन की सामुदायिक गतिविध्ाियों में भाग लेना होता है। किन्तु आध्ाारतः मैं सोचता हूँ कि यह मनोवैज्ञानिक तथ्य लगता है। मूलतः कलाकृति एक व्यक्ति का सृजन है और सिफऱ् बाद में ही समुदाय के तालाब में फेंका जाता है, जैसा कि है कि निश्चित ही वह व्यक्तिवादी विभिéताएँ प्रकट करता है जो कुछ नृतत्त्वशास्त्रियों को पहेली लगती है, व्यक्तिवादी विभिéताएँ जो हम कुछ आदिवासी प्रतीकों में पाते हैं। मैं सोचता हूँ कि यह व्यंिक्तत्व की विभिéताओं या व्यक्ति की कलाकृति बनाने के स्वभाव में विभिéता के कारण है... इसलिए, मैं इस बात का समर्थन चाहता हूँ कि आदिम कला के सौन्दर्यवादी गुण किसी भी अन्य कला माध्यमों के सौन्दर्यशास्त्री गुणों के समान हैं...।’’28
जैसा विलियम रूबिन कहते हैंः
‘‘कि पारम्परिक आदिवासी कला व्यक्तिगत सृजन कि बजाय सामूहिक थी जिसमें समूह में प्रचलित पद्धतियों के दोहराव शामिल थे, जिन्हें शख़्स ने कारीगरी से थोड़ा ऊपर खींच निकाला। इस कला के साथ मेरे खुद के अनुभव ने स्पष्टतः साफ़ कर दिया कि मेरा यह सोचना सही है कि अच्छी कला सिफऱ् प्रतिभाशाली लोगों के द्वारा बनायी जाती है। मैं, वास्तव में, आदिवासी कलाकृतियों की विभिéताओं से चमत्कृत हूँ बजाय उनकी समानताओं के, उसी शैली की (कम-से-कम वे अपने होने में यूरोपियन पसन्द के प्रमाण रूप नहीं हैं) और खा़स तौर पर उनकी अद्वितीयता के कारण मैं कहूँगा, वे श्रेष्ठ कलाकृति हैं। उदाहरण के लिए, दर्जनों मुखौटे या ग्रेबो मुखौटे जिन्हें मैंने देखा है, कोई भी दो एक जैसे नहीं हैं, यद्यपि वे सब आध्ाारभूत अवयव ध्ाारण किये हैं। और शहरी कलाकृतियाँ, सबसे अच्छे समूह की, सबसे कम विशिष्ट हैं। इन मुखौटों के बीच की विभिéता कुछ वैसी ही है जैसी पश्चिमी मध्यवर्गीय शैली के अज्ञात कलाकारों के बीच की है, उदाहरण के लिए अपने-अपने क्षेत्रों में - किसी भी विशिष्ट शैली के रोमन शिल्पकारों की होती है। और सबसे अच्छी कलाकृति दोनों ही तरह के अपने विशिष्ट गुणों से अपने को अलगाती है, अपनी अभिव्यक्ति और अपने आविष्कार में। वे मूर्तिशिल्प उतने ही स्पष्ट हैं, जैसे ग्रेबो मास्क आदिम कलाकृतियों के बीच निश्चित ही दुर्लभ हैं। आदिवासी कला का बड़ा भाग बहुत अच्छा नहीं है, वह किसी समय का सच्चा उत्पाद नहीं है, यदि विशिष्ट नहीं है - हमारी कला भी।’’29
हमारा भी अनुभव लगभग यही था। कई आदिवासी समुदायों के साथ हमने सम्पर्क स्थापित किया, हमने पाया कि उस समुदाय के ख़ास व्यक्तिगत लोग ही सामान्य तौर पर पहचाने जाते हैं जो इस दिशा में प्रतिभा-सम्पé हैं, और निश्चित ही हमारा यह मूल्यांकन उस समुदाय के सरोकार रखने वाले लोगों के निर्णय से मेल खाता था। यहाँ पर, यद्यपि, शायद आदिवासी समुदायों में एक व्यक्ति का कलाकार होना और हमारे बीच में एक व्यक्ति का कलाकार होना, इसमें फ़र्क है, जुंग कहता हैः
‘‘हमारी एक तरफा सोच को ध्ान्यवाद देना चाहिए जिसमें तथाकथित प्राकृतिक कार्य-कारणों के सम्बन्ध्ाों से हमने यह भेद करना सीखा है कि वस्तुनिष्ठ और ‘प्राकृतिक’ के बीच आत्मपरक क्या है और आत्मिक क्या है। आदिम मनुष्य के लिए, इसके विपरीत, उसके बाहर की दुनिया में आत्मिक और वस्तुनिष्ठ सम्मिलित हैं। किसी भी अद्वितीय के समक्ष वो खुद नहीं है जो अचम्भित है, बल्कि वह वस्तु विस्मयकारी है। यह जादुई शक्तियों से भरी है। जिसे हम कहते हैं कल्पना की शक्तियाँ और यह प्रस्ताव उसे अदृश्य शक्ति की तरह दिखाई देता है जो बग़ैर उसके, उस पर असर कर रहा है। उसका देश न तो भौगोलिक, न ही राजनीतिक सत्ता है। यह वह प्रदेश है जो उसके मिथक को अपने में समोया है, उसके ध्ार्म को, उसकी हर सोच को और उसकी हर इच्छा को, इस हद तक कि वह इनकी प्रतिक्रियाओं से अनभिज्ञ है।’’30
और आगेः
‘‘आदिम मनुष्य अ-मनोवैज्ञानिक है। आत्मिक घटनाएँ एक विषयपरक ढंग से उसके बाहर घटती हैं। यहाँ तक कि जिन चीज़ों के वह सपने भी देखता है, उसे यथार्थ नज़र आते हैं; यह एकमात्र कारण है कि जिसकी वजह से वह सपनों की तरफ ध्यान देता है।’’31
मार्कुस सौन्दर्यशास्त्रीय सिद्धान्तों की भिéता और यथार्थवादी सिद्धान्तों के बीच मतभेद की बात करता है जिनसे उसे आशा है, सुलझाया जा सकता हैः इस प्रकार एक स्वतंत्र संस्कृति के प्रकट होने में ‘कारण का उदात्तीकरण एक प्रक्रिया की तरह निश्चित है, संवेदनशीलता की आत्म उदात्तता की तरह। दमनकारी स्थापित पद्धति में कारण की दमनकारी संरचना और इन्द्रियों के दमनकारी संघटन, दोनों एक-दूसरे के पूरक और एक-दूसरे को सहारा देते हैं।’ फ्ऱायड के शब्दों मेंः ‘‘सभ्य नैतिकता, दमनकारी सहज वृत्ति की नैतिकता है; दूसरे की स्वतंत्रता पहले को नीचा दिखाती है जो उसमें अन्तर्निहित है। किन्तु ऊँचे मूल्यों का मानमर्दन करना उन्हें वापस जैविक संरचना में ले जायेगा, जो मनुष्यता की है और जिससे वे अलगाये जा चुके थे और यह पुनर्मिलन इस संरचना को शायद बदल दे। यदि उच्चतर मूल्य निचले संकायों से अपना एकाकीपन खो दे और उनके विपरीत एकाकी होना बन्द करे, तब बाद वाला शायद संस्कृति के प्रति स्वतंत्र संवेदी हो जाये।’’32
मार्कुस यह भी कहता है कि ‘‘अ-दमनकारी ढंग वास्तव में प्रचुरता का ढंग है; ज़रूरी दबाव अति-प्रचुरता के कारण आते हैं बजाय ज़रूरत के। स्वतंत्रता के साथ सिफऱ् बहुतायत की रीति ही सहजीवी हो सकता है... जहाँ सभी आध्ाारभूत ज़रूरतें कम-से-कम शारीरिक और मानसिक ऊर्जा के खर्च में और कम समय में पूरी की जा सकती हैं।’’33
क्या हम आडम्बरहीनता और प्रचुरता को एक-दूसरे के सामने नहीं ला सकते? और निश्चित ही जो आडम्बरहीन की तरह देखा जा रहा है या नकारा जा रहा है या समाज की ज़रूरतों को प्रतिबंध्ाित कर रहा है, जो बहुतायत के समाज में भौतिक सम्पत्ति के असमान वितरण पर आध्ाारित है, आदिवासी या आदिम अर्थशास्त्र में प्रचुरता हो जाती है? एक मनुष्य जो अपने शिकार पर जि़न्दा रहता है या जंगल से फल-फूल, कन्द इकट्ठा करता है या जो जगह बदलकर के खेती करता है, वह मनुष्य काम में नहीं लगा है बल्कि खेल में लगा है। शायद वह सीज़ोफ्रे़निक दबाव में खेल और काम के सिद्धान्तों के बीच की अनबन का विषय, उसका मुद्दा नहीं है।
यह आदिवासी कला नहीं है, इसलिए, सभी मनुष्यों की कला है और निश्चित ही, आध्ाुनिक समाज में, जैसा हरबर्ट रीड कहते हैंः ‘‘शक्ति का निर्णायक óोत कलाकार को समाज द्वारा दिया गया है, और ठीक-ठीक यही है जो आध्ाुनिक कलाकार में नहीं है। हमें समूह की कोई समझ नहीं है, लोगों की, जिसके लिए और जिसके साथ हम काम कर सकते हैं। यही आध्ाुनिक कलाकार की त्रासदी है, और सिफऱ् जो अंध्ो हैं अपनी सामाजिक अनबन के प्रति और आध्यात्मिक अलगाव के प्रति, वे आध्ाुनिक कलाकार को उसकी दुर्बोध्ाता के लिए दोषी ठहराते हैं।’34
हमें अपनी सामाजिक टूट-फूट और आध्यात्मिक अलगाव को यहाँ आदिवासी कला या कला के प्रति अपनी जि़म्मेदारी की सम्भावनाओं के बीच नहीं ले आना चाहिए। जो मैं यहाँ बताने की कोशिश कर रहा हूँ वह कला के प्रति सहजीवी सरोकार है जो नृतत्त्वशास्त्र से सम्बन्ध्ाित है। यह उग्र सुध्ाारवादी प्रस्ताव है। यह समझ की स्थिर ध्ाारणा को अपने में शामिल नहीं करना है, जितना कि भाग लेने की सक्रिय ध्ाारणा को।
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‘‘19वीं शताब्दी की सबसे बड़ी मनोग्रन्थि, जैसा कि हम जानते हैं, इतिहास था।’’ मिशेल फ़ूको कहता है, ‘‘अपने विकास के कथ्यों के साथ और स्थगन के साथ, संकट और चक्र के, भूतकाल के फिर से संग्रहण के कथ्य और मरे हुए मनुष्यों की महत्ता और दुनिया के बफऱ् से ढँक जाने की ध्ामकियों से, ऊष्मा गतिकीय विज्ञान के दूसरे सिद्धान्तों में 19वीं शताब्दी अपने महत्त्वपूर्ण मिथकीय óोतों को पा लेता है। वर्तमान युग शायद इससे ऊपर अन्तरिक्ष का युग होगा। हम सहकालिकता के युग में रह रहे हैं; हम सéिकटता के युग में हैं, पास और दूर के युग में, साथ-साथ के युग में और विखण्डन के युग में।’’35
जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, हमारे दृष्टिकोण से, हम समकालीनता को संस्कृतियों की सह उपस्थिति की तरह परिभाषित करते हैं। अनन्त के गर्भाशय में एक ही समय में हो रही घटनाओं की तरह।
मनुष्य की नियति क्या है, यदि वह मनुष्य नहीं है? इतिहास ने जैसा हम जानते हैं, पश्चिम के दृष्टिकोण से जानते हैं मनुष्य को अनन्तता की अवस्था के स्तर से, समय के प्राणी के रूप में घटा दिया है। तकनाॅलाॅजी के असमान विकास में, मनुष्य का वैश्विक भाईचारा दो हिस्सों में बँटा नज़र आता है, उसे टुकड़ों में काट दिया गया है, सभी सभ्यताएँ प्रभावी सभ्यता का विषय हो गयी हैं, जो मनुष्य की आत्मा को खो चुकी हैं। मनुष्य होमोसेपियन बनने को बाध्य है, जो कि, निश्चित ही, शुरूआत में नृतत्त्वशास्त्र द्वारा कल्पित किया गया है। हमें अपने समाज में आदिवासी सभ्यताओं की तरफ जाना होगा, भाईचारे की मानसिकता लेकर। और जो हम सबकी उस अचम्भे में भागीदारी है, उसमें ध्ाड़कती उपस्थिति में अबोध्ागम्य जो लगातार हमारे चारों ओर खुल रहा है। हमने पहले भी आदिवासी समुदायों को एक बन्द पद्धति की तरह बरतने की असम्भावना पर बात की है। फिर भी यदि सैद्धान्तिक कारणों से, यदि इस तरह के प्रयास से कुछ निर्देश प्राप्त होते हैं, इस तरह का मार्गदर्शन बदलते यथार्थ की चुनौतियों और ज़रूरतों को आगे बढ़ाने में सहायक ही होगा।
आदिवासी लोगों की जन्मजात सृजनात्मक विलक्षणता का सम्मान करते हुए, जैसे हम अपना सम्मान खुद करते हैं, हम उन्हें देखते हैं कि वे हमारे साथ सामान्य अवस्था में रह रहे हैं। हम देखते हैं कि हमारी नियति उनके साथ अडिग रूप से जुड़ी है, और नये कलात्मक संस्कार तभी पैदा होंगे जब इस सहभागिता को महसूस कर लिया जाये।
सन्दर्भ सूचीः
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