चम्पू एवं अन्य कविताएँ संगीता गुन्देचा
20-Jun-2021 12:00 AM 1497

पडिक्कमा’

(इस चम्पू कविता में प्राकृत भाषा के जिन शब्दों का प्रयोग है, वे हैं -
- पडिक्कमा = परिक्रमा ।
- मिच्छामि दुक्कडम = (आप मेरे) दोषों को मिथ्या करें ।
- काउसग्ग = काया का उत्सर्ग।
- इसके अतिरिक्त हं सं आदि ध्वनियाँ मन्त्रों से हैं)


बारिश बारिश बारिश बारिश
बारिश बारिश बारिश बारिश
बारिश बारिश बारिश बारिश
बादल बादल बादल
बारिश बारिश बारिश

वह चल पड़ी है

बादल बादल बादल बादल
उन्हें निमोनिया हो गया है

’ पडिक्कमा में जिन दो तिथियों की परिक्रमा है, वे हैं - 2 सितम्बर 2019 छमछरी यानि संवत्सर और 8 नवम्बर 2019 देव उठनी ग्यारस। छमछरी के दिन मेरे पिता, जिन्हें हम बाउजी कहते हैं और देव उठनी ग्यारस के दिन मेरे बड़े भाई, जिन्हें हम विमल दा के नाम से पुकारते थे, का निधन हुआ।
बारिश बारिश बारिश
वे गिर पड़े हैं

बादल बारिश
बारिश बादल
बारिश निमोनिया
बारिश कैथेटर
बारिश कलाकन्द
बारिश घर
बारिश वार्ड 723
बारिश गंगापुर
बारिश घाटी नीचे
बारिश मादरचोद

बादल बादल बादल बादल
बारिश बारिश बारिश बारिश
वह बस पहुँचने को है

बादल बादल बादल
पाताल वासी क्षमा करें
जल थल मय्यल वासी क्षमा करें
पेड़-पौध्ो जीव-जन्तु क्षमा करें
घट घट क्षमा करे

बारिश बारिश बारिश
माँ की आँखों में उतरता है शून्य

बादल बादल बादल
वह बस पहुँचने को है
और तुम कहीं नहीं हो

बारिश बारिश बारिश
घोड़े पर सवार ध्ाूली बई
रथ पर सवार भेरु बा
बादल बादल बादल बादल
बारिश बारिश बारिश बारिश

क्षिप्रा मिच्छामि दुक्कडम’’
शत्रुंजय मिच्छामि दुक्कडम
राम नाम मिच्छामि दुक्कडम
सत्य है मिच्छामि दुक्कडम
राख मिच्छामि दुक्कडम
फूल मिच्छामि दुक्कडम
नीरू मिच्छामि दुक्कडम

बादल बादल बादल
बारिश बारिश बारिश
बादल मिच्छामि दुक्कडम
बारिश मिच्छामि दुक्कडम
शब्द मिच्छामि दुक्कडम
अर्थ मिच्छामि दुक्कडम

वह अपने गन्तव्य पर पहुँच गयी है
मिच्छामि दुक्कडम
मिच्छामि दुक्कडम
मिच्छामि दुक्कडम
’’ ‘मिच्छामि दुक्कडम’ का शाब्दिक अर्थ है, ‘मिथ्यामि दुष्कृतम्’, मेरे दोषों को मिथ्या करें। मेरे बारे में आपके जो पूर्वग्रह हैं, आप उनसे मुक्त हों।
अब वे हर जगह हैं

श्रां श्रीं श्रूं श्रः बादल बादल बादल बादल
द्रां द्रीं द्रौं द्रः बादल बादल बादल बादल
हं सं थः थः बादल बादल बादल बादल
ठः ठः जः जः बादल बादल बादल बादल

बारिश बारिश बारिश बारिश
बादल बादल बादल बादल
बारिश बारिश बारिश बारिश
बादल बादल बादल बादल
बाउजी बाउजी बाउजी बाउजी
विमल विमल विमल विमल
बाउजी बाउजी बाउजी बाउजी
विमल...

काउसग्ग’’’


वियोग

बिछिया सौंपी
कंगन सौंपे
करध्ानी सौंपी
बाजूबन्द सौंपे
फूल चढ़ाये तुम्हारी देह पर


’’’ काउसग्ग - काया का उत्सर्ग।
तट छूटा
वट छूटा
घट छूटा

रह गयी अकेली जोहती बाट
चले गये निठुर तुम किस घाट!

परछाईं

सखि! गयी थी मैं तो घाट पर
छप-छप की कुछ देर
पानी में
कमलों पर
परछाईं दिखी उसकी
गयी थी मैं तो घाट पर

कमल-पँखुरियों को छुआ
भीतर तक महसूस किया
गुलाबी रंग और स्पर्श उसका
गयी थी मैं तो घाट पर

बूँद-बूँद शरीर को
बूँद-बूँद हर अंग को नहलाया
जल से
किया आचमन
गयी थी मैं तो घाट पर
छप-छप की कुछ देर
देखा नहीं
उस ओर

पारिजात के फूल

भरी ध्ाूप में एक पत्ता टूटकर गिरता है
सरोवर के जल में
कँपकँपा जाती है देह उसकी
वाक्य से बहकर दूर चला जाता है; तुम्हारे नाम का पहला अक्षर

मैं हमेशा षोडशी रहूँगी
क्योंकि तुम ज्ञानवान् हो
मैंने पूछा ः
क्या तुम मेरी गोद डहरिया के लाल फूलों से भर दोगे ?

वह सोचता रहा, सोचता रहा,
बोलाः तुम वृक्ष की टहनियाँ हो जाओ
मैं एक-एक कर सारे बनफूल सजा देता हूँ

काल के वृक्ष से
पारिजात के फूलों-सी झरती हैं ः
कथाएँ
कभी-कभी उनकी गन्ध्ा से
सुवासित हो उठते हैं ः
शब्द


जतन

मैं उतर पड़ी थी सरोवर में
जेठ मास की पूर्णिमा के दिन
वस्त्र उतारकर नीले कमलों के बीच
मेघों ने देखा ः
बिदेस गये पथिक घर लौट आये

मैंने ग्राम देवता के सम्मुख
ले जाकर रख दिये थे; खिचड़ी और अनाज
उजाले की प्रथमा को
उनका प्रसन्नमुख देखते ही बनता था

मन्त्रों से फूँकी हुई हल्दी की गाँठे
वस्त्र में लपेटकर
मेरी सखि ने गाड़ी थीं
उस अदृश्य पेड़ के नीचे

मैंने नहीं किया कोई जतन
ये तो बरस थे सोलह
जो असाढ़ मास के पहले ही दिन समाप्त हो गये
मैंने नहीं किया कोई जतन
हे पथिक !
नहीं किया कोई जतन
तुम्हे बुलाने का


संयोग

प्रेम के कई अर्थ होते हैं,
एक अर्थ होता है-
विरह

विरह के कई अर्थ होते हैं
एक अर्थ होता है-
मृत्यु

मृत्यु के कई अर्थ होते हैं
एक अर्थ होता है-
पुनर्जन्म

पुनर्जन्म के कई अर्थ होते हैं
एक अर्थ होता है-
संयोग

संयोग के कई अर्थ होते हैं
एक अर्थ है-
अभी-अभी रामायण से उड़-
कमरे की खिड़की पर झुकी
अमलतास की डाल पर
आ बैठा है
केलि करता
क्रौंच पक्षी का
यह जोड़ा


अर्थ

मैं कहती हूँ घर
अर्थ कुछ और होता है

मैं कहती हूँ प्रेम
अर्थ कुछ और होता है

मैं कहती हूँ आग
अर्थ कुछ और होता है

मैं कहती हूँ शब्द
अर्थ कुछ और होता है

सारे नाम तुम्हारे नाम में कल्पित हैं
मैं कहती हूँ तुम
अर्थ कुछ और होता है


शब्द

मेरी अँगुलियों के पोर-पोर में रक्खा है;
स्पर्श -
एक शब्द

मेरी जिह्वा पर फैला है;
स्वाद -
एक शब्द

आकाश - शब्द
वायु - शब्द
अग्नि - शब्द
जल - शब्द
पृथिवी - शब्द

शब्द शब्द शब्द

हे जगन्नाथ स्वामी! नयनपथ गामी
सामथ्र्य कहाँ भर सकूँ इनमें कोई
- अर्थ


अबूझ

गंगटोक के अतिथिगृह में
साढ़े पाँच बजे सुबह
फ़ोन की घड़ी का
वाॅक इन द फाॅरेस्ट ध्ाुन में
अचानक बजता है अलार्म

रूम्टेक बौद्ध मठ में
भूटान से अध्ययन करने आया
गहरे कत्थई वस्त्रों में लिपटा
युवा भिक्षु झुककर
करता है नमस्कार

संगीत की श्रुतियों-सी महीन
झुर्रियों से भरे चेहरेवाली स्त्री
अपनी बरौनियों और भँवों को तिरछा कर पूछती है,
‘पनीर के साथ पीने के लिए लगेगा कुछ और’
इस सवाल का जवाब देने से पहले
मय पूछती है बेख़ुदी से,
‘क्या तुम जि़न्दा हो ?’

जो मरता है वह मरने से पहले
छलांग लगाकर छू आता है
कंचनजंघा की हज़ारों फीट ऊँची चोटी को

जो मरता है वह मरने से पहले
करता है प्रणाम
महात्मा बुद्ध की भूमिस्पर्श मुद्रा को

जो मरता है वह मरने से पहले
खोजता है तीस्ता के हरे जल में
डूबे गोल पत्थरों को

कंचनजंघा

ओ बादलों से एकाकार हुए
कंचनजंघा के श्वेत पहाड़
गंगटोक की छोटी-सी खिड़की से
तुम्हारी केवल कल्पना की जा सकती है

अपनी छोटी-छोटी अँगुलियों से
तुम्हारी ओर इंगित करता है लखपा
रोशनी से चैंध्ािया गयी आँखें
तुम्हें बादलों से अलगा नहीं पातीं

क्या तुमने पहना है
बादलों का शिरस्त्राण ?
काँध्ो पर कोहरे का दुःशाल ?
तुम्हारे शरीर में फैली झीलों से
खिल आते हों पù
सम्भव है

ओ कंचनजंघा के श्वेत पहाड़ !
मैं तुम्हारी शरण में हूँ

अन्ध्ाायुग
(अप्रतिम रंगनिर्देशक श्री रतन थियाम के लिए)

विदुर अन्ध्ो हो गये हैं न्याय से
अश्वत्थामा देव की मार से
अपनी प्रतिज्ञा से भीष्म
दुर्योध्ान अभिमान से
भरी सभा में हुए तिरस्कार से द्रौपदी
अपने द्वन्द्वों से कर्ण और
युध्ािष्ठिर ध्ार्म से

गान्ध्ाारी ओ गान्ध्ाारी!
केवल तुम्हारी आँखों पर पट्टी नहीं बँध्ाी है
केवल मैं अन्ध्ाा नहीं हूँ

लेकिन कृष्ण ?
किस चीज़ ने अन्ध्ाा किया कृष्ण को ?
तुम्हारे श्राप के भाजन बने वे ?

गान्ध्ाारी ओ गान्ध्ाारी!
केवल तुम्हारी आँखों पर पट्टी नहीं बँध्ाी है
केवल मैं अन्ध्ाा नहीं हूँ
ये सब अन्ध्ो हो गये हैं
अपने-अपने औज़ार से

दो गद्य

1.
यदि कविता प्रार्थना की तरह लगातार हो रही है, हम उसमें शामिल भर हो सकते हैं। इस शामिल होने में अक्सर हम पाते हैं कि शब्द और अर्थ एक-दूसरे के इतने पास हैं, इतने पास कि हमारे लिए वहाँ कोई अवकाश नहीं है। पर कभी-कभी शब्द और अर्थ के बीच कोई दरार दिखायी दे जाती है, जहाँ से थोड़ा सा प्रकाश (या अन्ध्ाकार) रिसता या फूटता दिखायी देता है, वह थोड़ी देर हमारे साथ खेलता है, फिर विलीन हो जाता है।
इसे ही हम कविता लिखने या पढ़ने के अनुभव के नाम से पुकार सकते हैं।

2.
मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा संस्कृति में किस तरह की भाषा-लिपि का इस्तेमाल किया जाता था, यह अज्ञात है। सुविख्यात फि़ल्मकार और चिंतक कुमार शहानी कहते हैं कि मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा की खुदाई में मिले बर्तनों, मटकों और शिल्पों आदि पर चित्रित नृत्य मुद्राओं के संकेतों को यदि बूझा जा सके, हमें वहाँ की अज्ञात भाषा-लिपि के कुछ संकेत अवश्य मिल जाएँगे।
हम सबके भीतर भी मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा की तरह अज्ञात भाषा-लिपि का वास है। इस अज्ञात-भाषा लिपि से, आचार्य आनन्दवधर््ान के शब्दों में कहें तो, ध्वनित होते संकेतों को बूझने के प्रयास में ही कविता या संगीत का जन्म होता है। इस अज्ञात भाषा-लिपि से ध्वनित होते संकेतों के रूपान्तरण के प्रयास में ही मिट्टी की कला, चित्रकला या तमाम तरह की कलाएँ जन्म लेती हैं।

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