चार गद्य रचनाएँ आस्तीक वाजपेयी
23-Mar-2022 12:00 AM 2127

अन्तिम अरण्यः तकनीक और दृष्टि
1.
फीनिश संगीतकार सिबेलियस की महान टेपियोला की संरचना थोड़ी अजीब है। शुरूआत से ही केवल एक ध्ाुन संगीत की बुनावट पर हावी रहती है और अन्त तक ऐसा ही रहा आता है। चरमोत्कर्ष (क्लाइमेक्स) का आभास होता ज़रूर है पर अन्त में आकर वह ध्ाुन या थीम की खामोशी में विलीन हो जाती है।
निर्मल वर्मा के आखि़री उपन्यास ‘अन्तिम अरण्य’ की बुनावट भी सिबेलियस के टेपियोला की तरह की है। पूरा उपन्यास अलग-अलग ध्ाुरियों पर घूमता हैः आख्याता और मेहरा जी, मेहरा जी और मुरलीध्ार, आख्याता और तिया आदि ऐसी ही कुछ ध्ाुरियाँ हैं। इन सभी ध्ाुरियों का कोई क्लाइमेक्स नहीं है। जैसे उपन्यास के अन्त में जब मेहरा जी नहीं रहते, एक किरदार के बार-बार यह पूछने पर कि वे आख्याता के क्या लगते थे, वह खुद से पूछता हैः उनका मेरे साथ क्या सम्बन्ध्ा है ? निर्मल वर्मा किसी भी नतीजे पर पहुँचने से बचते हैं ताकि पाठक खुद अपने नतीजे बना सके और लेखक के आरोपित नतीजों को ढोने पर मजबूर न हो। एक हद तक तो हर पाठक लेखक के विचारों को ढोता ही है पर निर्मल वर्मा अपनी पाठक पर उस बोझ को कम कर देते हैं। एक तरह से इससे उस पाठक को कठिनाई भी होती है जिसे पके-पकाये नतीजों को किताब से आँखों की चम्मच डालकर बिना संकोच खाने की आदत पड़ गयी है। ऐसे पाठक के सामने यह उपन्यास मुश्किल पैदा कर सकता है।
2.
‘अन्तिम अरण्य’ में इनर्शिया है। इस अँग्रेज़ी शब्द के लिए हिन्दी शब्दकोश में जड़त्व और निष्क्रियता दिये हुए हैं जो मुझे उचित नहीं लगे लिहाजा इस लेख के लिए मुझे इनर्शिया ही ठीक लगा। ‘अन्तिम अरण्य’ में इनर्शिया इसलिए है क्योंकि वह पूरे उपन्यास के किरदारों पर प्रकृति हावी रहती है। हावी रहने का अर्थ यह है कि यहाँ किरदारों की आन्तरिक सच्चाई का एक महत्वपूर्ण आयाम प्रकृति है। जब आख्याता पहली बार अन्ना जी या निरंजन बाबू से मिलने जाता है या जब वह तिया के साथ पहाड़ के नीचे पानी भरने जाता है या जब मेहरा जी अपने स्मृतिभ्रंश के कारण भटक जाते हैं और अन्यों द्वारा अलग-अलग जगहों पर पाये जाते हैं, घटना का मुख्य आयाम या कहें स्वयं घटना ही प्रकृति बन जाती है। उपन्यास पढ़ने के बाद आपको इस बात पर भले ही कोई भी दावा करने में संकोच हो कि मेहरा जी ने तिया की माँ को मारा था या नहीं पर यह बताने में आपको कोई परेशानी नहीं होगी कि उपन्यास की कोई घटना कहाँ घट रही है। यहाँ मजे़ की बात यह है कि हर पाठक प्रकृति का वर्णन अलग तरह से करेगा पर सबको यह पता होगा कि वह जगह जहाँ कोई घटना घटी है, कहाँ थी। इसका आशय यह है कि अपने उपन्यासों में प्रकृति की केन्द्रियता होने के बावजूद निर्मल वर्मा अपने पाठक को उसे अपनी तरह से देखने की स्वतन्त्रता देते हैं।
प्रकृति निर्मल वर्मा के इस उपन्यास में एक किरदार है, एक ऐसा किरदार जो बाकी किरदारों की तरह ही सम्पूर्ण अनुभव से बचता है। सम्पूर्ण अनुभव का अर्थ वह अनुभव है जो पाठक और लेखक दोनों के लिए एक-सा हो। इससे उपन्यास में ऊब उत्पन्न होती है।
3.
इस उपन्यास की लय का रहस्य इस बात में है कि इसके प्रकृति समेत सारे किरदारों में जितना सामथ्र्य या जितनी उनमें सम्भावना है, वे उससे कुछ कम ही प्रकट करते हैं। इसका अर्थ यह है कि जैसे जीवन में हमारी सामथ्र्य की समूची सम्भावना को हमारे संयम के कारण प्रकट होने का अवकाश नहीं मिल पाता वैसे ही निर्मल वर्मा के प्रकृति समेत सभी किरदार अपनी सामथ्र्य की सम्भावना को अपने संयम में बाँध्ाकर रखते हैं।
अन्ना जी उपन्यास की सम्भवतः सबसे कम अन्तर्मुखी किरदार हैं। सबसे अध्ािक बेबाक। वे जिस तरह अपने, तिया और मेहरा जी के बारे में बताती हैं वैसा उपन्यास में कहीं और नहीं होता। पर वे भी तिया के बारे में ज़्यादा बात तिया से नहीं, आख्याता से करती हैं। आख्याता मेहरा जी के पास इतना समय रहने और उनके अतीत में दिलचस्पी लेने के बाद भी अपनी ओर से मेहरा जी से कुछ नहीं पूछता। वह उतना ही जानकर रह जाता है जितना मेहरा जी उसे खुद बताते हैं। वह उन्हें जानने और न जानने के बीच उसी तरह असमंजस में फँसा रहता है जैसे तब जब वह प्रकृति के सामने होता है। आख्याता के लिए मेहरा जी मानो प्रकृति का ही रूपक हैं।
‘अन्तिम अरण्य’ के किरदारों को खुद की सच्चाई पर यकीन नहीं है इसलिए वे दूसरे की या प्रकृति की सच्चाई को चुनौती देने या उसे इस तरह समझने से बचते हैं कि वे उससे बेहतर हो सकते हैं। विवेक के इस रूप को महान रूसी प्यानो वादक एमिल जाइलिल्स को सुनकर समझा जा सकता है। उनके बजाने में शक्ति का भाव है, ओज़ है लेकिन सुनने वाले को (कम-से-कम इस सुनने वाले को) उसकी जो बात प्रभावित करती है वह यह है कि वे जितना तेज़ या ऊँचा बजा रहे होते हैं इससे कहीं ज़्यादा तेज़ और ऊँचा बजा सकते थे। अगर वे चाहते तो वे एक्सेलेरेन्डो को ज़्यादा तेज़ कर सकते थे, रिटार्डेन्डी को ज़्यादा ध्ाीमा। उनकी तकनीक में यह सामथ्र्य थी पर वे तकनीक का उपयोग संगीत की उनकी अपनी विशिष्ट दृष्टि को उद्घाटित करने के लिए करते थे, आत्म प्रदर्शन के लिए नहीं। निर्मल वर्मा के किरदारों के बारे में हम कह सकते हैं कि वे उन्हें रचते हुए अपनी शक्ति या सामथ्र्य का इसी विवेक से इस्तेमाल करते हैं। किसी भी बड़े कलाकार वे जाइलिल्स हों या निर्मल वर्मा, की कलाकृति में कला कौशल या तकनीक कलाकार की जीवनदृष्टि के अध्ाीन सक्रिय होती है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व पाठक या श्रोता को महसूस नहीं होता।
4.
निर्मल वर्मा अपने उपन्यास में चरित्रों की आपसी बातचीत या उनकी सोच का विवरण देते समय बहुत कुशलता से बीच में ही कहीं प्रकृति का वर्णन करने लगते हैं, इससे इस बातचीत या सोच का समूचा वर्णन करने को वे स्थगित करते जाते हैं। अपनी बात पूरी हो पाए, इससे पहले ही आख्याता उपन्यास में कई स्थानों पर प्रकृति के विषय में सोचने लगता है या फिर उपन्यासकार प्रकृति का वर्णन करना आरम्भ कर देता है।
उपन्यास के इक्कीसवें पन्ने पर जब आख्याता मेहरा जी से बात करने के बाद बाहर निकलता है तो उसके कमरे के रास्ते तक हवा के एहसास का वर्णन कर या तारों और पेड़ों के बारे में लिखकर निर्मल वर्मा आख्याता की अनिश्चित मनःस्थिति को महफ़ूज़ बनाये रखते हैं।
डाॅक्टर सिंह और आख्याता का पहला संवाद भी इसी तरह की ‘प्राकृतिक’ अनिश्चितता के घेरे में आ जाता है। उनके क्लब से बाहर निकलते ही प्रकृति का वर्णन उस प्रसंग को मानो किसी हद तक रूपान्तरित कर देता है, उसमें अनिश्चितता की बयार को प्रवाहित कर देता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण उपन्यास के अन्त में आता है जब अस्थियों को विसर्जित करते हुए आख्याता अपने और मेहरा जी के सम्बन्ध्ा में सोचता है। उपन्यास में उसी समय निर्मल वर्मा, नदी और फिर कौओं का वर्णन करते हैं। सम्भवतः इन मार्गों से वे यह दर्शाने की चेष्टा करते हैं कि मनुष्य केवल अन्य मनुष्यों से ही नहीं बल्कि प्रकृति से भी सार्थक संवाद करता है। हमारे जीवन की तरह ही इस महान उपन्यास के किरदारों के जीवन में भी सच्चाई किसी एक के द्वारा परिभाषित नहीं होती। वह ऐसा होने से निरन्तर बचती रहती हैं। जिन्हें अपनी और अपने समय की सच्चाई पर कुछ अध्ािक ही यक़ीन हों, वे इस उपन्यास को समझ सकेंगे, इस पर मुझे रह रहकर शक होता है।

विनय पत्रिका

मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ तो कोशिश करता हूँ कि उस किताब से कुछ लिखने की विध्ाि के बारे में भी सीख पाऊँ।
मुझे ‘विनय पत्रिका’ पर बोलना है और मैं शुरुआत में ही कह देना चाहता हूँ कि मुझे ब्रज भाषा बहुत नहीं समझ आती। मैंने इस किताब का हिन्दी-ब्रज द्विभाषिक संकलन पढ़ा है। ऐसी स्थिति में, मैं यह कह लेना चाहता हूँ कि किताब की मेरी समझ बहुत अच्छी तो नहीं होगी।
मैंने इस किताब को अभी पहली बार पढ़ा है। ‘रामचरितमानस’ को पढ़े कई साल हो चुके हैं और तुलसीदास की एक खूबी जो सब से पहले समझ में आती है, वह है कि भाषा अगर उच्चारित की जाए तो ज़्यादा समझ में आती है। ज़ाहिर है इसीलिए ‘रामचरितमानस’ का जगह-जगह पाठ भी होता रहता है और उसे लोग ज़्यादा उद्वृत भी करते रहते हैं। हम ब्रज की तुलना में अवध्ाि को आसानी से समझ लेते हैं। तुलसीदास की कई खूबियाँ असाध्ाारण हैं। सबसे ज़्यादा शायद यह कि वे दो अलग-अलग बोलियों की लय के उस्ताद हैं। इस विशेषता का इस स्तर का कोई दूसरा उदाहरण याद नहीं आता।
विनय पत्रिका रामचन्द्र के प्रति तुलसीदास की श्रद्धा का वर्णन है। लगातार राम की स्तुति के बीच में तुलसीदास इस सिद्धान्त को उद्धृत करते हैं कि संसार भ्रम है, जैसे -
‘हे हरि। यह भ्रम की अध्ािकाई।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-सन्देह न जाई।’
या
‘राम-कृपाभव-निसा सिरानी, जागे फिरिन डसै हौं।
यहाँ एक विडम्बना यह देखी जा सकती है कि इसी पद में बाद में वे राम के बारे में कहते हैं-
‘स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी,
चित्त कंचनहिं कसै हो।’
वे राम के श्याम रूप की प्रशंसा कर रहे है। अगर संसार मिथ्या है तो श्रीरामचन्द्र जी के रूप की प्रशंसा करने का क्या औचित्य है या किसी के भी रूप की प्रशंसा करने का।
योगवाशिष्ठ में राम को ऋषि वशिष्ठ समझाते हैं कि कर्म में संलग्न होकर ही संसार रूपी माया का और ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त हो सकता है।
विचार सागर में (जो अद्वैत के सिद्धान्त को समझने की एक महत्वपूर्ण किताब है) बताया जाता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान और परोक्ष ज्ञान की अनुभूति अहंकार को होती है। इसलिए कर्म और अहंकार को जोड़कर देखा जाता है। तुलसीदास ने लिखा है कि ‘करम-कलाप परिताप पाप-सने सब’। यानि तुलसीदास तो कर्म को ही पाप से सना मान रहे हैं। जिन राम की वे इस पूरी किताब में प्रशंसा करते रहते हैं, उनके बारे में किताब के दो सौ उहंत्तरवें पद में लिखते हैं-
‘राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीन को ?’’
यदि उनको यह प्रश्न पूछना पड़ रहा है तो इसका अर्थ है कि ऐसा अभी तक नहीं हुआ है। वे इस कर्म को साध्ा कर ही शायद संसार से मुक्त होना चाहते है। वे उसे अभी तक साध्ा नहीं पाये हैं लेकिन कोशिश कर रहे हैं।
यदि ऐसे देखा जाए तो लगता है कि तुलसीदास के राम की प्रशंसा करने में और उसी समय संसार को मिथ्या कहने में विरोध्ााभास नहीं है। वे लिखते हैं-
‘बिनु तव कृपा दयालु! दास-हित! मोह न छूटै माया।’
अब किताब की संरचना के बारे में सोचा जाए तो लगता है कि एक स्तर पर यह किताब उपमाओं का व्यायाम है। लगातार श्रीरामचन्द्र की प्रशंसा एक हद के बाद थोड़ी दोहरावपूर्ण जान पड़ती है। लेकिन इस दोहराव में भी एक ऐसा कौशल छिपा है जो आजकल लेखकों में नहीं दिखताः ज़्यादातर समय तुलसीदास की उपमाएँ प्रकृति से उठायी हुई होती हैं। यह तो नहीं पता कि तुलसीदास जी सबसे बड़े रामप्रेमी और रामभक्त थे या नहीं पर इसमें कोई शक नहीं है कि वे एक बहुत ऊँची कोटि के प्रकृति-प्रेमी अवश्य थे।
चिडि़या, पेड़, पत्ते, फूल, गिलहरी, ज़मीन, नदी का पानी इत्यादि को इस कि़ताब में नये-नये रूपों में देखा गया है और इस प्रक्रिया में उन्हें रूपान्तरित होते भी देखा जा सकता है।
यह भी दिलचस्प बात है कि राम की भक्ति के बीच तुलसीदास के नये शब्दों या कहें ऐसे शब्दों का इस्तेमाल करने का कौशल दिखता है जिन्हें आमतौर पर इस सन्दर्भ में इस्तेमाल नहीं किया जाता। वे राम को यहाँ भी ‘मानस’ की तरह ही ग़रीब नवाज़ कहते हैं। पद 191 और 193 इसके उदाहरण हैं। इस शब्द का ज़्यादातर इस्तेमाल अल्लाह के सन्दर्भ में होता रहा है। इसका अर्थ तब कुछ और होता होगा पर तुलसीदास को किसी भी शब्द के प्रचलित अर्थ से उसे हटाकर दूसरे सन्दर्भ में इस्तेमाल करने में कोई मुश्किल पेश नहीं आती। यह भी उनके महाकवि होने का प्रमाण है। महाकवि के सामने शब्द अपने पुराने अर्थ अपने आप त्याग देते हैं।
वे लिखते हैं -
‘कोह-मद-मोह-ममतायतन जानिमन,
बात नहि जाति कहि ग्यान-विग्यान की।
मुझे यह लगता था कि यह विचार कि क्रोध्ा, मद, मोह आदि का ज्ञान-विज्ञान से मूलभूत द्वन्द्व एक पश्चिमी सिद्धान्त है लेकिन ज़ाहिर है तुलसीदास के यहाँ यह पहले से है। यह ग़लती मेरी थी।
राम की भक्ति को साध्ान बनाकर तुलसीदास मनुष्य स्वभाव, प्रकृति, दर्शन और ख़ुद अपनी ख़ामियों की विस्तार से व्याख्या करते हैं। यदि कोई कमतर लेखक होता तो भक्ति एक विचित्र और बनावटी रूप ले लेती लेकिन तुलसीदास के लेखन की शक्ति के ताप में भक्ति वाकई पवित्र बन जाती है। मैं ध्ाार्मिक पवित्रता की बात नहीं कर रहा हूँ क्योंकि वैसे भी मुझे पता नहीं है कि ध्ाार्मिक पवित्रता क्या होती है और न ही मुझमें इस विषय को लेकर जिज्ञासा है। यहाँ मैं प्रयत्न की सच्चाई और लेखन में हर क्षण कुछ महत्वपूर्ण होने की सम्भावना की बात कर रहा हूँ। इस किताब में क्लाईमेक्स का विचार नहीं है। अन्तिम पदों में तुलसी विनय पत्रिका को विषय बनाकर श्रीरामचन्द्र की स्तुति करते हैं। अन्त तक वे इस भक्ति के सहारे इस भक्ति की माया से मुक्त होने की कोशिश करते हैं। इस किस्म के नये-नये भाषिक आविष्कारों और छवियों से भरी किताब को पढ़कर एक विस्मय की भावना भी उत्पन्न होती है। इसमें लेखक की मेहनत दिखती है जो लगातार उसके साथ रहती है। बहुत कम पद ऐसे हैं जिन्हें कमज़ोर कहा जा सके।
मुझे यह भी लगता है कि एक ऐसे समय में जब ज़्यादातर लेखक उत्कृष्ट कविताएँ, उपन्यास या कहानियाँ लिखने की जगह राजनीति पर टिप्पणी करने में लगे हुए हैं, एक शताब्दियों पुराने कवि की किताब किसी भी दल या विचारध्ाारा से सम्बद्धता स्थापित किये बिना आज भी प्रासंगिक है। जीवन को और लेखन को समझने में कारगर है। महान कलाकारों की चीख मानव मानस के अन्तहीन गलियारे में अनन्त काल तक गूँजती है। तुलसी यह भी बताते हैं कि कोरे काग़ज़ों, एक मेज़ और एक कलम के सहारे भी राम मिल सकते हैं।

पुरस्कार प्राप्ति पर वक्तव्य

मैं साहित्य अकादमी, नयी दिल्ली की चयन समिति के सभी सदस्यों का आभारी हूँ जिन्होंने मुझे इस पुरस्कार के लिए चुना है। पुरस्कार बहुत अजीब होते हैं। जब तक ये मिलते नहीं तब तक उन पर कभी ध्यान नहीं जाता और अब जब मिल जाता है, अच्छा लगता है। शायद यह किसी भी किस्म की ख्याति के लिए सही है। ख्याति का स्वभाव ही मनुष्य को बरगलाना होता है क्योंकि उससे यह भ्रम पैदा हो जाता है कि हम अपने समय में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं, जबकि सच्चाई यह होती है कि उस काम से कुछ महत्वपूर्ण नहीं कर रहे होते जो हमारे पहले दूसरे कर गये हैं। यह सही है कि हो सकता है हमने अपने अग्रजों से ज़्यादा चालाकी से लोगों को तंग किया हो। इसे ही शायद परिष्कार कहा जाता है। हिन्दी के लिए यह पुरस्कार मिलना सुखद भी है और मन में संशय भी पैदा करता है। यह कहानी संग्रह के लिए उदयन वाजपेयी की ‘सुदेशना’ को नहीं मिला, उपन्यास के लिए रेणु की ‘मैला आँचल’ को नहीं मिला और कविता संग्रह के लिए मुक्तिबोध्ा की ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ को नहीं मिला। यह सही है कि मुक्तिबोध्ा का संग्रह मरणोपरान्त प्रकाशित हुआ था फिर भी पुरस्कार मिलना चाहिए था। मेरे अनुसार ये तीनों लेखक पिछले पचास सालों में इन विध्ााओं का परिष्कार करने वाले सबसे महत्वपूर्ण लेखक हैं। मैंने इन तीनों से सीखा है और इस तीनों को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत क्यों नहीं किया, यह आश्चर्यजनक है। लेकिन यह भी सच है कि जो मुझे सच लगता है, वह दूसरों को न लगता हो।
मेरे जन्म का सुखद सौभाग्य यह है कि मैं इस कदर ग़लत होता रहा हूँ कि मुझे ग़लतियों से नफ़रत नहीं होती है।
मेरी अपने पिता की सबसे पुरानी यादों में से एक यह है कि वे बाग़ीचे में कुर्सी लगाकर छुट्टी के दिन सुबह से शाम तक पढ़ रहे होते थे। उन्होंने मुझे और मेरे भाई को बहुत ही छोटी उम्र में ढेर सारी किताबें पढ़कर सुनायी थीं और ध्ाीरे-ध्ाीरे हम उनके प्रोत्साहन से पढ़ने भी लग गये थे। मुझे कभी भी अपने एक ठीक-ठाक लेखक होने का गुमान नहीं रहा, लेकिन एक अच्छे पाठक होने का गर्व महसूस होता रहा है। साहित्य हमें कई ऐसी दुनियाओं से रूबरू कराता है जिनसे शायद हम अन्यथा रूबरू नहीं हो पाते। साहित्य हमें हमारी टुच्ची-सी जि़न्दगी की क़ैद से मुक्त कर अन्य जीवन जीने का मौक़ा देता है। इसलिए यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि जो संस्थाएँ साहित्य को प्रोत्साहन देने या किसी उत्कृष्ट साहित्यकार को सम्मानित करने के लिए पुरस्कार देती हैं, वे उन कवियों, लेखकों, विचारकों को पुरस्कार दें जो न केवल अच्छा लिखते हैं बल्कि अलग तरह से लिखते हैं। स्थापित मन्तव्यों को तोड़ते हैं। मैंने जिन तीन लेखकों का पहले जि़क्र किया है, उन्होंने अपनी विध्ााओं में सिर्फ़ अच्छा काम ही नहीं किया है, बल्कि नये किस्म का काम किया है। मुक्तिबोध्ा के पहले किसी ने अपने चित्त के भूचाल को कविता में बिना किसी दूसरे विषय के सहारे केवल भूचाल मात्र की तरह प्रस्तुत नहीं किया था। या यह कहना बेहतर होगा कि मुक्त छन्द की कविता में नहीं किया था। रेणु के पहले किसी ने अपने क्षेत्र की बोली को इस कदर सुन्दरता से पेश नहीं किया था कि वह बोली वैश्विक लगने लगे। हम यह बात स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के साहित्य की कर रहे हैं। मेरे पिता उदयन वाजपेयी के पहले किसी भी लेखक ने कहानियों में दिमाग के भीतर की हिंसा के विध्वंस के विभिन्न आयामों और इन्सान की बिल्कुल अलग और साथ ही अद्भुत और वीभत्स दुनियाएँ कल्पित करने की चेष्टा को रूपायित नहीं किया था। यह बात भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के साहित्य पर लागू होती है। आप सोच रहे होंगे कि मैं बार-बार इस बात पर ज़ोर क्यों दे रहा हूँ कि ये तीनों लेखक एक विशिष्ट काल, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के लेखक हैं। मैं ऐसा इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि मुझे एहसास है कि प्राचीन संस्कृत, ब्रज और अवध्ाी आदि के महान लेखक इन लेखकों से भी कई गुना अध्ािक नये प्रयोगों को और बेहतर ढंग से साकार कर चुके हैं।
हिन्दी में दिये जाने वाले पुरस्कारों की समितियों का पिछले तीन-चार दशकों से दुर्भाग्य यह है कि जिन लेखकों ने प्राचीन साहित्य को नींव बनाकर काम किया है, उन्हें दरकिनार किया गया है। हर एक को तो, ज़ाहिर है, दरकिनार नहीं किया गया लेकिन जो सबसे अलग तरह से काम कर रहे थे या हैं उन्हें तो बिल्कुल ही। तीन उदाहरण कमलेश, वागीश शुक्ल और उदयन वाजपेयी हैं। ये तो लेखक हैं, विचारकों की बात करें तो नवज्योति सिंह और इतिहासकारों में ध्ार्मपाल हैं।
इसका नतीजा यह है कि आमतौर पर जिन कल्पना-विपन्न लेखकों को हिन्दी में पुरस्कार मिलते रहे हैं, उन्हें ही ज़्यादातर युवा लेखक पढ़ते रहे हैं। हम किसी भी किस्म की प्रतिस्पधर््ाा से इस क़दर प्रभावित समाज बन गये हैं कि जिन्हें पुरस्कार मिलते हैं उन्हें ही ज़्यादा पढ़ा जाता है। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे समय के ज़्यादातर युवा लेखक ऊबाऊ लिखने लगे हैं। आखिर ऊबाऊ साहित्य से प्रेरणा लेकर आदमी खुद भी ऊबाऊ ही लिखता है। मैं प्रगतिशील लेखक संघ के खिलाफ़ नहीं हूँ लेकिन यह समझता हूँ कि यदि एक लेखक संघ की वर्तमान या भूतपूर्व सदस्यता किसी भी सम्मान या पुरस्कार की अर्हता बन जाये तो इस विचार से प्रगति नहीं आ सकती। न ही इस विचार का वहन करने वालों में शील की उपस्थिति मानी जा सकती है।
मुझे यह नहीं पता कि अन्य भाषाओं में साहित्यिक पुरस्कारों के क्या हाल हैं लेकिन हिन्दी में तो निश्चित ही इनका वामपन्थ की तरफ झुकाव रहा है। लेखक को यदि यह लगने लगे कि एक विशेष विचारध्ाारा के क़रीब आने पर उसे ख्याति प्राप्त होने की सम्भावना ज़्यादा है तो वह सहज ही उसके निकट आ जायेगा। यह सब लेखकों के साथ सही नहीं है पर कुछ के लिए तो होता ही होगा। यह इसलिए ग़लत है क्योंकि आदर्श तो यह होना चाहिए कि लेखक की राजनैतिक विचारध्ाारा से निरपेक्ष होकर उसके साहित्य का सृजन और आकलन हो पाए।
मेरे यह सब लिखने से यह नहीं मानना चाहिए कि साहित्य अकादमी ने अच्छा काम नहीं किया है पर मैं इन बातों पर ज़ोर इसलिए दे रहा हूँ क्योंकि साहित्य अकादमी के सराहनीय कामों का उल्लेख तो कोई और भी कर ही देगा लेकिन जिन बातों का मैं उल्लेख कर रहा हूँ उनके बारे में कोई और शायद न बोले। लेखकों को आश्वस्त हो पाना चाहिए कि उनके लेखन का विश्लेषण उनकी जाति, ध्ार्म, लिंग आदि से निरपेक्ष हो सकता है और उनकी किसी विचारध्ाारा से सम्बद्धता से भी।
बाकी भाषाओं में और हिन्दी की स्थिति में अन्तर हैं। एक यह है कि यह सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली हिन्दुस्तानी भाषा है। दूसरा यह है कि यह भाषा कई कारणों से सबसे ज़्यादा खतरे में है। स्वतन्त्रता के बाद जब हिन्दी को पूरे देश की भाषा के तौर पर लागू करने की बात उठी तो बाकी भाषाओं को बोलने वाले नेताओं ने इसकी पुरज़ोर आलोचना की। इसका नतीजा यह हुआ कि बाकी भाषओं ने अपनी साहित्यिक सम्पदा का पर्याप्त प्रसार किया और इस रास्ते वहाँ पाठक वर्ग बढ़ा और साहित्य का स्तर भी। हिन्दी बोलने वालों में हिन्दी के बिना पूरे देश की भाषा हुए, भाव वैसा ही आ गया। यहाँ आप हिन्दी साहित्य के काॅलेजों के पाठ्यक्रम को देखिए जिनमें सालों साल कोई बदलाव नहीं आता और साहित्य का प्रचार करने का जो आवेग बाकी भाषाओं में आ गया अपने पर आए संकट के जवाब में, हिन्दी में वैसा भी कुछ नहीं हुआ। एक और दिक़्क़त यह हो गयी कि हिन्दी को सबसे ज़्यादा जिस माध्यम से पढ़ा जाता है, समाचार-पत्र, उनमें कुछ को छोड़कर ज़्यादातर में जिस किस्म की भाषा का प्रयोग होने लगा है, उसका स्तर अच्छा नहीं है। नतीजा यह है कि दिन में अगर इन्सान एक बार हिन्दी पढ़ रहा होता है तो वह भी ग़लत-सलत ही होती है। देखिए यह भी दुर्भाग्य है कि पश्चिम में दुनियाभर के उत्कृष्ट साहित्य के अनुवाद पर जिस किस्म का काम होता है, हिन्दी में नहीं होता। साहित्य अकादमी और अन्य साहित्यिक संस्थाओं को उत्कृष्ट अनुवादकों को ज़्यादा प्रोत्साहन देने के बारे में विचार करना चाहिए। अनुवाद का काम लम्बा होता है और अच्छे अनुवाद करने में बहुत समय और शक्ति लगती है। यदि अनुवादक इस काम के सहारे जीविकोपार्जन कर पाये तभी इस दिशा में बेहतर काम होगा। देश-दुनिया के महत्वपूर्ण साहित्यकारों से बेखबर रहकर ऊँची कोटी की रचनाएँ कर पाना सम्भव नहीं है। हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। मैं जो भी लिख पाता हूँ, उसके लिए न केवल हिन्दी के अपने पूर्वज लेखकों का आभारी रहता हूँ जिन्हें पढ़ने का मुझे सौभाग्य मिला बल्कि दुनियाभर के उन लेखकों का भी जिन्हें मैं अँग्रेज़ी के अनुवादों में पढ़ पाया।
अन्त में दोबारा यह कहना चाहता हूँ कि मैं साहित्य अकादमी का बहुत आभारी हूँ। अगर किसी को मेरा लिखा यह वक्तव्य ऊबाऊ लगा हो तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

मणि कौल आख्यान

आख्यान की परिभाषा को उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में ही भीषण रूप से बदला जा रहा था। हिन्दुस्तान में जि़याउद्दीन डागर और नसीरुद्दीन डागर जो ध्ा्रुपद गा रहे थे उसके स्वरूप को किसी बन्दिश में बँध्ाा नहीं जा सकता था। शोपाँ ने संगीत को कोई विशिष्ट निधर््ाारित स्वरूप दिये बिना ही उसमें अपने देश पौलैण्ड और अपनी खुद की ध्ाुनों को 5-10 मिनट की छोटी कृतियों में प्रस्तुत करना शुरू किया था। वैन गो आग के खेत और सेज़ान हवा में हिलते-झूलते पहाड़ बना रहे थे। चीन और जापान की बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी की चित्रकला में एकरैखिक आख्यान का स्थगन पहले ही आ चुका था। एकरैखिक आख्यान की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि बहुरैखिक आख्यान, जिसका असाध्ाारण उदाहरण महाभारत है, के बारे में बाद में बात करेंगे।
यह सब बतौर भूमिका इसलिए बता रहा हूँ क्योंकि जिनकी कला के बारे में बात हो रही है वे खुद भी फि़ल्मों से ज़्यादा पेंटिंग और संगीत को उद्धत करते थे। वे उनकी सिनेमाई कल्पना के उद्दीपक थे।
महाभारत में एकरैखिक आख्यान को सम्भवतः सबसे मौलिक रूप से स्थगित किया गया है। मौलिक इसलिए क्योंकि एकरैखिक आख्यान की रीढ़ होती है एकरैखिक समय। महाभारत के आख्यान में एक साथ कम-से-कम तीन से चार समय चलते हैं। क्योंकि फि़ल्म का प्रादुर्भाव पश्चिम में हुआ था इसलिए उस पर आज भी ज़्यादातर एकरैखिक आख्यान का प्रभुत्व है।
एकरैखिक आख्यान के एकरैखिक होने का उद्देश्य उसे समाध्ाान तक पहुँचाना होता है। समाध्ाान की खोज तब होती है जब यह माना जाता है कि प्रकृति या समाज में कोई स्थायी हल सम्भव है। यह केवल वह व्यक्ति मान सकता है जिसे लक्ष्य हो कि समाज या प्रकृति में कोई विकृति है जो उससे (यानि उस व्यक्ति से) निरपेक्ष हैः न तो वह व्यक्ति उस विकृति का कारण है और न उसका हिस्सा। यह व्यक्ति मौजूदा विकृति को खत्म कर सकता है, ऐसा उसे प्रतीत होता है। समय के साथ प्रयास करने से एक स्थायी बदलाव लाया जा सकता है। यहीं से एकरैखिक आख्यान निकलता है। ज़ाहिर है यह विचार सबसे पहले यहूदी ध्ाार्मिक दृष्टि में आया था और यही विचार दुनिया के कई महान ध्ार्मों में मिलता है।
जब कला एकरैखिक होने से बचती है, आख्यान थोड़ा ज़्यादा जटिल और समाध्ाान रहित होने की तरफ बढ़ जाता है। आख्यान से यह उम्मीद करना कि सब लोग उसे एक जैसा ही समझेंगे भी कला के सामने बड़ा प्रश्न रहा है। महान कला का गुण होता है कि उसे अलग लोग अलग तरह से समझ पाते हैं, अलग अनुभव कर पाते हैं और वह कलाकृति हर पाठक में अलग भाव उत्पन्न करती है। इसलिए महान कला समाध्ाान देने से गुरेज़ करती है और प्रकृति में समय के बहाव को मानवीय प्रगति के बहाव की तरह देखने से बचती है।
गेब्रिएल गार्सिया मार्कुएज़ अपने उपन्यास ‘वन हन्ड्रेड इयर्स आॅफ साॅलिट्यूड’ के फि़ल्म में रूपान्तरण के प्रति बेहद नाउम्मीद थे। वे सोचते थे कि हर पाठक उर्सुला या ओरिलियानो बुऊन्दिया को अपने विशिष्ट रूप से अपनी कल्पना में रचता है इसलिए हर पाठक के उर्सुला या ओरिलियानो बुऊन्दिया अलग होते हैं। उन्हें एक फि़ल्म के दो अभिनेताओं में बाँध्ाना ठीक नहीं होगा। यह बात तब तो ठीक है अगर आपको लगता है कि किसी उपन्यास का फि़ल्म में रूपान्तरण केवल फि़ल्म के माध्यम से उस उपन्यास के आख्यान को बताना है। एक बात तो यह कि ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि आख्यान का जितना बड़ा हिस्सा किस्सा होता है उससे कहीं बड़ा हिस्सा भाषा होती है। वैसे भी यह विचार एक और स्तर पर ग़लत है क्योंकि जैसे उपन्यास के मौलिक तत्व शब्द होते हैं वैसे ही फि़ल्म के दृश्य और ध्वनि होते है। कोई भी कल्पनाशील फि़ल्मकार किसी उपन्यास का रूपान्तरण नहीं, उसका अपनी विध्ाा में अवतरण करता है। मार्कुएज़ की उम्मीद थोड़ी जागती अगर वे खुद को समक्ष पा सकते उस प्रचण्ड उपस्थिति जो थे मणि कौल।
जब मैंने पहली बार उनकी फि़ल्म ‘दुविध्ाा’ को देखा था, मुझे लगा था कि यह समय को तोड़ने की कोशिश है। मैं आज भी यक़ीन नहीं कर पाता हूँ कि वह फि़ल्म एक कहानी पर आध्ाारित है। वैसा ही ‘अषाढ़ का एक दिन’ के साथ हुआ। मणि कौल कैमरे के इस्तेमाल और ध्वनि के प्रयोग से समय का रूपान्तरण करते हैं। समय को विचलित करते हैं या उनके शब्दों में कहें ‘आन्दोलित’ करते हैं। बहुत बार एक लम्बे शाॅट में कैमरा रुक जाता है फिर उसी शाॅट में चल पड़ता है। इससे समय का प्रवाह बदलता है। कई बार संगीत के प्रयोग से समय को छोटा बनाया जाता है और उसके तुरन्त बाद शोर या खामोशी के प्रयोग से समय को फैला दिया जाता है।
यह तकनीक नयी नहीं है। पाल क्ले ने कैनवास के सफ़ेद का इस्तेमाल कर स्पेस को बड़ा या छोटा किया था इससे भी पहले। महान वीणा वादक जि़या मोहिऊद्दीन डागर आलाप में समय को लम्बा करके जोड़-झाले में समय को छोटा करने के उस्ताद थे। बल्कि समय को आन्दोलित करने का विचार मणि कौल को सम्भवतः ध्ा्रुपद से ही मिला होगा। ज़ाहिर है कि यहाँ समय के आभास की बात हो रही है किसी वस्तुनिष्ठ समय की नहीं। वैसे भी आइन्सटाईन के बाद तो वस्तुनिष्ठ समय के बारे में कहीं भी बात नहीं चल रही है। इस तकनीक का सबसे अद्भुत उदाहरण है उनकी फि़ल्म ‘नज़र’ जहाँ एक कमरे के भीतर के स्पेस के इर्द-गिर्द अलग-अलग समय बुने गये हैं।
स्पेस के स्तर पर भी मणि कौल किसी स्थापित निष्कर्ष पर पहुँचने से बचते हैं। वे पर्सपेक्टिव शाॅट लेने से बचते है। पर्सपेक्टिव का सिद्धान्त यह होता है कि दो समानान्तर रेखाएँ अनन्त में मिलती प्रतीत होती हैं। यह गणित का सिद्धान्त है। पर्सपेक्टिव शाॅट में ऐसा लगता है कि वो क़तारें दूर कहीं मिल रही है या दूर अपने निष्कर्ष पर पहुँच रही हैं। ऐसा मणि कौल करने से बचते है। वे अपने शाॅट की ध्ाुरी को टेढ़ा बनाकर एक अलग स्पेस पैदा करते हैं। यह मिनिएचर चित्रों से आता है। अगर आप लोगों ने वे मिनिएचर चित्र देखे हों जिसमें शिकार दिखाया जाता है तो आपको पता होगा। उन चित्रों में एक तरफ शेर का पीछा करते घुड़सवार होते हैं, एक तरफ महल में बैठे राजकुमार होते हैं और रानियाँ अलग जनानाख़ाने में रहती हैं। सब एक चित्र में टेढ़ी ध्ाुरियों के इस्तेमाल से अपने-अपने स्पेसों में अवस्थित होते हैं। पर्सपेक्टिव में स्पेस एक तरह के निष्कर्ष को प्राप्त होता है और ध्ाुरी टेढ़ी करने से स्पेस का विस्तार सम्भव हो जाता है।
फ्रांसीसी उपन्यासकार लुई फर्डिनान्ड सेलीन अपने लिखने के तरीके से लिखे शब्द और उससे जुड़े भाव में अन्तराल पैदा किया करते थे। यहाँ ‘भाव’ शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ और ‘अर्थ’ शब्द का नहीं। अर्थ को तो, चाहे वह शब्द का हो या दृश्य का या संगीत या आवाज़ या रंग का अच्छा कलाकार अपने हिसाब से बदलता ही है। जेम्स ज्वाइस (श्रंउमे श्रवलबम) ने ‘युलीसिस’ में और वर्जीनिया वुल्फ ने ‘वेव्स’ में शब्द और भाव के बीच कमाल का अन्तराल पैदा किया है। कैमरे के इस्तेमाल से रोशनी और स्पेस में आन्दोलन लाकर मणि कौल दर्शक व श्रोता के लिए फि़ल्म के दृश्य-ध्वनि और भाव में अन्तराल पैदा करते हैं। इस अन्तराल को पैदा करने से द्रष्टा दृश्य के प्रति ज़्यादा सजग हो जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि दृश्य को उसके स्थापित आशय से दूर कर दिया जाता है। भाव को ज़्यादा से ज़्यादा दृष्टा के विवेक पर छोड़ा जाता है, दृश्य को सजग या जीवित बनाकर। इससे होता यह है कि दर्शन क्रियाशील हो जाता है जो पहले निष्क्रिय था। फि़ल्म के सन्दर्भ में दृश्य केवल दृश्य नहीं, ध्वनि भी है। दृश्य के सजग बनने पर वह द्रष्टा को भी ज़्यादा सजग बनने पर मजबूर करता है। इस अतिरिक्त एकाग्रता का असर यह होता कि फि़ल्म देखना उतना निष्क्रिय कर्म नहीं बचता जिसकी हमें आमतौर पर आदत होती है। पढ़ने की आदत की तरह, दूसरों को ध्यान से सुनने की आदत की तरह और खुद का मज़ाक़ उड़ाने की आदत की तरह, सजग सिनेमा को देखने की आदत मुश्किल से डलती है। बल्कि आदत शब्द शायद ग़लत है, इसे रियाज़ कहना चाहिए। सजग सिनेमा देखने का रियाज़ करना होता है।
इस बात से एक प्रश्न यह निकलता है कि क्या फि़ल्म का काम सिर्फ़ मनोरंजन करना होता है या यह एक आध्यात्मिक अनुभव है? मेरे हिसाब से इस द्वैत में तकलीफ़ यह है कि हम फि़ल्मों के बारे में बात करते समय यह याद नहीं रख पाते कि आध्यात्मिक अनुभव से भी तो मनोरंजन हो सकता है। लोगों को अगर कार्लोस फिओन्तिस को पढ़ने में या क्लोड डिब्यूसी को सुनने में मज़ा आ सकता है तो इस किस्म का सजग सिनेमा देखने में भी आ सकता है। अगर हम मानते है कि जिस काम में मनोरंजन होता है, वह अनिवार्यतः आध्यात्मिक नहीं होता तो दरअसल इस मान्यता की आड़ में हम मनुष्य की सम्पूर्णता का अपमान कर रहे होते हैं। इसमें निहित होता है कि मनुष्य को कुछ नया सीखने या अनुभव करने में आनन्द नहीं मिल सकता। इसमें यह भी निहित है कि अगर हमें किसी कलाकृति के बारे में नहीं पता है तो हमें अनिवार्यतः उससे बचना चाहिए। मेरे अनुभव में इससे उल्टा होता है। कुछ नया सीखने में और जब वह समझ में आ जाए, बहुत आनन्द मिलता है।
कई बार ऐसा भी होता है कि जो उपन्यास आपको अच्छा न लगता हो पर जब उसे मणि कौल जैसा कलाकार दूसरी विध्ाा में अवतरित करता है, वह अच्छा लगने लगता है। ‘नौकर की कमीज़’ को पढ़कर मुझे कभी उतना मज़ा नहीं मिला जितना मणि कौल की फि़ल्म देखकर। ख़ुद को बेहतर बनाने या ख़ुश रहने का मौका देना पड़ता है। अगर मैं फि़ल्म में वही देखने की कोशिश करता जो उपन्यास में पढ़ चुका था तो बुरी तरह ऊब जाता, शायद पूरी फि़ल्म देखता ही नहीं।
अभी और बात हो सकती है लेकिन यहीं ख़त्म करते हैं।

© 2025 - All Rights Reserved - The Raza Foundation | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^