04-Sep-2018 06:17 PM
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आरम्भ
भारत में राजनैतिक जागरूकता का दौर आरम्भ होते ही पूरे देश में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध आन्दोलन शुरू हुआ और सभी तबकों में विदेशी वस्तुएँ, विचार, संस्कृति को नकारते हुए स्वदेशी की भावना दृढ़मूल होने लगी। इस प्रक्रिया में औद्योगीकरण का भी विरोध होने के कारण यहाँ के देशज कारीगरों को महत्व प्राप्त हुआ। इस माहौल में देश के विचारकों, कलाकारों ने भी ख़ुद को अपनी परम्पराओं से जोड़ने का प्रयास किया। इस दौर में राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का केन्द्र्र बंगाल बना हुआ था। अतः स्वाभाविक रूप से यहाँ स्वदेशी का प्रभाव अधिक देखा गया। साथ ही ईसाई मिशनरियों का विरोध करते हुए नवहिन्दुत्व का विचार भी यहाँ प्रभावशाली ढंग से उभरा। आर्य समाज और ब्रह्म समाज के जरिए हिन्दू दर्शन प्रस्तुत करनेवाले दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, अरविन्द घोष, विवेकानन्द, महर्षि देवेेन्द्रनाथ ठाकुर, भगिनी निवेदिता वगैरह विचारकों की एक विशाल परम्परा बंगाल में शुरू हुई।
बंगाल के सांस्कृतिक एवं सामाजिक परिवर्तन में ठाकुर घराने की भूमिका अत्यन्त अहम रही है। गगेन्द्रनाथ, अरविन्दनाथ ठाकुर ने ‘विचित्रा’ नाम से एक दल की स्थापना की थी, जिससे रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी जुड़ गये। बाद में यही संस्था भारतीय सौन्दर्यशास्त्र, कला, परम्परा के गहन अध्ययन का केन्द्र्र बन गयी। आगे चलकर आनन्द कुमारस्वामी जैसे सौन्दर्यशास्त्र के अध्येता इसमें शामिल हुए।
नन्दलाल बोस इस दौर के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण चित्रकार हैं। वे उपनिवेशवाद के विरोध से प्रभावित थे और अरविन्दनाथ के ‘विचित्रा’ दल के प्रभाव से ही कलाशिक्षक बने थे। उन्होंने अजन्ता चित्रशैली और मुग़ल तथा राजपूत लघुचित्र शैली का उन्नयन किया। सन 1919 में रवीन्द्रनाथ ने शान्तिनिकेतन में शिल्प-चित्र विभाग के रूप में ‘कला भवन’ की स्थापना की और उसमें नन्दलाल बोस को कला अध्यापक के रूप में नियुक्त किया।
नन्दलाल बोस, असित हलदार, मुकुल डे आदि सभी ने एक ही शैली में कार्य किया। इसी से ‘बंगाल स्कूल’ का आविर्भाव हुआ। इसका स्वाभाविक असर मुम्बई के कला जगत् पर भी पड़ा। मुम्बई में अहिवाशी, चिमुलकर, पलशीकर से लेकर गायतोण्डे तक के चित्रकारों ने इसी शैली का अनुमोदन किया। इस तरह ‘बंगाल स्कूल’ के समानान्तर ‘बाॅम्बे स्कूल’ तैयार हुआ। यह शैली पूरे देश में भारतीय शैली के रूप में स्थापित हुई। सन 1920 तक कलकत्ता स्कूल आॅफ आर्टस् और बाद में जे. जे. स्कूल आॅफ आर्टस् में विशिष्ट भारतीय शैली की पारम्परिक अध्ययन कक्षाएँ शुरू हो चुकी थीं। दोनों कला संस्थाओं में यूरोपीय और भारतीय शैली के परस्पर विरोधी पाठ्यक्रम शुरू हुए। भारतीय शैली यानी अजन्ता भित्तीचित्र, लघुचित्र, साथ में पौराणिक, ऐतिहासिक विषय और लयबद्ध तथा आलंकारिक आकार।
पूरे देश में इसी अलंकार शैली का प्रभाव था। अमृता शेरगिल सन 1934 में भारत आयी। भारतीय नस्ल की अमृता का जन्म यूरोप में हुआ था और उसकी शिक्षा भी वहीं पूरी हुई थी। यूरोपीय कला के पाॅल गोगाँ, वान गोग, मोदिग्लियानी, पाॅल सेज़ाँ आदि उस दौर के विख्यात कलाकारों का उस पर प्रभाव था। विशेषतः पाॅल गोगाँ का प्रभाव तो बहुत ज़्यादा था। परन्तु पाॅल गोगाँ को पूर्वी कला के प्रति, विशेषतः जापानी कला के प्रति आकर्षण था। यही प्रभाव आगे चलकर अमृता शेरगिल पर दिखायी देता है।
अमृता शेरगिल ने भारतीय समाज तथा उसकी जीवन शैली का अध्ययन किया। साथ ही एलोरा-अजन्ता तथा दक्षिण भारत के भित्तीचित्रों का भी विशेष अध्ययन किया। उसने अजन्ता के बाह्य सादृश्य पर आधारित बंगाल शैली की आलोचना की। उसका आरोप था कि नन्दलाल बोस के चित्र मात्र इलस्ट्रेशन हैं, उनमें तार्किकता नहीं है।
पाॅल गोगाँ ताहिती द्वीप पर पहुँचा था और वहाँ की आदिवासी संस्कृति से एकाकार हो गया था। यह जीवन शैली उसके चित्रों में दिखायी देती है। इसी तर्ज़ पर अमृता शेरगिल को भारतीय ग्रामीण जीवन, उसका भीतरी कारुण्य, दुःख क़रीबी लगा। उसी से कला-प्रेरणा ग्रहण करते हुए उसने चित्र बनाये। अजन्ता के अलावा यहाँ के ग्रामीण जीवन में भी वह गहरायी तक गयी थी। इस कारण शेरगिल के चित्रों में मात्र बाह्य सादृश्य शैली नहीं आयी, बल्कि वह अन्तर्बाह्य ठेठ भारतीय शैली बन गयी। इस महत्वपूर्ण प्रभाव से पूरे देश में परिवर्तन आया। बंगाल स्कूल और बाॅम्बे स्कूल पीछे छूट गये और भारतीय कला एक नयी दिशा में प्रवाहित हुई। इसमें मुख्यतः के. के. हेब्बर, एन.एस. बेन्द्रे तथा एम.एफ. हुसैन आदि मुम्बई के कलाकार शामिल थे।
भारतीय कला की ओर भारतीय जीवन के चश्मे से देखने के इस दृष्टिकोण के कारण देहाती, गँवार और पिछड़ी हुई ‘कालीघाट’ कला की ओर देखने की नयी दृष्टि प्राप्त हुई और इस बात पर मुहर लग गयी कि वह उच्च कोटि की कला है। अमृता शेरगिल ने रवीन्द्रनाथ की कविता की तुलना में उनके चित्रों की प्रशंसा अधिक की है। कुल मिलाकर कला से कला की निर्मिति की परम्परा टूट गयी और यथार्थ जीवन से आशय लेकर कला निर्मिति का दृष्टिकोण दृढ़ होने लगा। इस तरह भारतीय कला आकार ग्रहण करने लगी और अमृता शेरगिल के अलावा जामिनी राॅय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि आधुनिक भारतीय कला के महत्वपूर्ण चित्रकार बन गये।
इससे स्पष्ट होता है कि आज़ादी से पहले ही भारतीय चित्रकला का आरम्भ हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व के अनेक देश उपनिवेशवाद की जंज़ीरों से आज़ाद हुए। आज़ाद भारत में कला, साहित्य, नाटक के आन्दोलन शुरू हुए। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के रूप में साहित्यिक आन्दोलन शुरू हुआ। उसी से प्रेरणा पाकर मुम्बई में ‘प्रोग्रेसिव ग्रुप’ नाम से एक चित्रकला संगठन स्थापित हुआ। सूज़्ाा, एम. एफ़. हुसैन, एच. एस. रज़ा, के. एच. आरा, गाडे और बाकरे आदि इस समूह के संस्थापक थे। हुसैन और आरा के अलावा बाकी सभी कलाकार यूरोप चले गये और वहीं बस गये। उस दौर के विख्यात चित्रकार पिकासो, पाॅल क्ले आदि का प्रभाव पूरी दुनिया पर था, जो हुसैन और सूज़ा पर भी दिखायी देता है। परन्तु ऐसे बाह्य प्रभाव से पीछा छुड़ाने के लिए सभी कलाकार अपनी कला को ‘भारतीयता’ में ढालने का प्रयास करने लगे। इसके लिए वे वैदिक दर्शन, गुप्तकालीन कला, भारतीय मिथक चेतना आदि के साथ जुड़ते हुए नज़र आते हैं।
इस तरह उपनिवेशवाद विरोधी आन्दोलन से लेकर भारतीय स्वाधीनता और वर्तमान तक एक ही सूत्र कलाकारों को आपस में जोड़े हुए है।
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रवीन्द्रनाथ ठाकुर
(1861-1941)
रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं कि उनके कवि कर्म का उनके चित्रकार से कोई सम्बन्ध नहीं है।
ओरी बिदाओ
रवीन्द्रनाथ ठाकुर साहित्य, संगीत, नृत्य, नाटक वगैरह कई कलाओं के ज्ञाता थे। एक व्यक्ति का इतनी सारी कलाओं का ज्ञाता होना अपवाद में भी अपवाद माना जा सकता है। उनकी ये सभी कलाएँ मात्र पारम्परिक नहीं हैं, बल्कि उन पर रवीन्द्रनाथ की अपनी अलग छाप है। जब एक ही व्यक्ति में इतनी कलाएँ होती हैं, तब लोग उन कलाओं के बीच परस्पर आन्तरिक सम्बन्ध की बात लगभग मानकर ही चलते हैं। परन्तु रवीन्द्रनाथ के उपर्युक्त कथन से उनकी चित्रकला में अलग से सौन्दर्य मूल्य को ढूँढ़ने का रास्ता हमारे लिए खुल जाता है।
रवीन्द्रनाथ की चित्रकला की साधना उनकी आयु के पैंसठ वर्ष बाद यानी ढलती उम्र में शुरू होती है। तब तक साहित्य, संगीत, नृत्य, नाटक आदि विधाओं में उनका औचित्यपूर्ण सर्जन हो चुका था और सारे संसार ने उनका लोहा मान लिया था। साहित्य के लिए तो उन्हें ‘नोबेल’ पुरस्कार से नवाज़ा गया था। तात्पर्य यह कि रवीन्द्रनाथ के रूप में एक अलग सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य-विचार स्थापित हो चुका था। रवीन्द्रनाथ यदि उपर्युक्त बात नहीं कहते, तो शायद उनकी अन्य कला में स्थापित सौन्दर्य मूल्यों को ही उनके चित्रों के साथ जोड़ दिया जाता। अतः उनके चित्रों की अलग से समीक्षा करना इसी कथन के कारण सम्भव हुआ है।
रवीन्द्रनाथ के अलावा उनकी चित्रकला और अन्य कला सौन्दर्य पर बेबाक टिप्पणी केवल अमृता शेरगिल ने ही की है। अमृता सन 1934 में भारत आयी। तब तक वह पेरिस में थी। वहाँ उसने पिकासो, ब्राक, मातीस आदि का काम अपनी आँखों से देखा था। उसका संवेदनशील मन पाॅल गोगाँ, विन्सेंट वान गाॅग आदि के चित्रों से प्रभावित हुआ था। कुल मिलाकर वह चित्रकला के एक अहम दौर की प्रत्यक्षदर्शी थी। जब वह भारत आयी तब पूरे देश में ‘बंगाल शैली’ का बोलबाला था। चित्रकार नन्दलाल बोस भी खूब चर्चा में थे। सन 1930 के दरमियान रवीन्द्रनाथ के चित्र पेरिस और यूरोप के अन्य देशों में भी प्रदर्शित हो चुके थे। यानी एक भारतीय चित्रकार के रूप में वे स्थापित हो चुके थे।
भारत आते ही अमृता ने भारतीय कला का जायज़ा लिया और भारतीय कला के सन्दर्भ में अपने विचार बेबाकी और दृढ़ता से प्रतिपादित किये। उसका कहना था कि नन्दलाल बोस के चित्र चित्रकला नहीं, बल्कि ‘इलस्ट्रेशन’ हैं और सतही दर्जे़ के हैं। साथ में उसने यह भी कहा कि पूरी ‘बंगाल शैली’ केवल अजन्ता की बाह्य सदृश्य है और भीतर से पोली है। उसकी रवीन्द्रनाथ पर की गयी टिप्पणी तो और भी प्रभावशाली है। वह कहती है, ‘जहाँ तक टैगोर की क्षुद्र कविता का सम्बन्ध है, मुझे उससे गहरी घ्रणा है, जैसी कि मुझे उनके बनावटी व्यवहार से। दरअसल जो काम टैगोर कर सकते हैं वह केवल चित्रकला है।’ (कारी को लिखे पत्र में, सित.-1937) रवीन्द्रनाथ के चित्रों पर की गयी इस टिप्पणी से यही अर्थ निकलता है कि रवीन्द्रनाथ की अन्य कलाएँ और उनके चित्र में कोई अन्तःसम्बन्ध नहीं है।
रवीन्द्रनाथ की चित्रकला की शुरूआत सन 1928 के आसपास मानी जाती है। परन्तु उनके आरम्भिक चित्र कला सर्जन की प्रेरणा से नहीं, बल्कि उस दृश्य-निर्मिति से बने थे जो लेखन के ग़लत ब्यौरे की काटा-पीटी से बनते हैं। यानी, असमान लम्बाई के शब्दों को काटने से बने असमान लम्बाई के आकार समूह, दो शब्दों के बीच की खाली जगहें आदि से रवीन्द्रनाथ को अलग-अलग आकृतियों का आभास होता। फिर शब्दों के रिक्त स्थानों को रेखाओं द्वारा इन शब्द समूहों से जोड़ने पर जो आकृतियाँ उभरतीं, वे उन्हें परिचित लगतीं। रवीन्द्रनाथ उनमें और ज़रा-सा ब्यौरा जोड़ देते और उससे पक्षी या पशु की आकृति का आभास होता। इस क्रीड़ा की निरन्तरता से ही रवीन्द्रनाथ को आकार का अहसास हुआ, जो चित्रकला का एक महत्वपूर्ण आयाम है। ऐसी सहजता से जो सर्जन होता है, उसे कला तो नहीं कह सकते, परन्तु वह कला की एक प्रक्रिया अवश्य है। वह रूप-संवेदना का दस्तावेज़ है।
इस दौर को रवीन्द्रनाथ का दूसरा बचपन ही माना जा सकता है। दुनिया भर की कला-संस्कृतियों का अवलोकन करने के बाद वे शान्ति निकेतन में बस गये थे और यह कला भी उन्हें अपनी बालसुलभ जिज्ञासा से ही अवगत हुई थी।
लेखन पद्धति में सामान्यतः बाएँ से दाएँ का क्रम होता है। शब्दक्रम में सीधी समान्तर रचना होती है। अतः रवीन्द्रनाथ की यह कृति, उससे आभासी बननेवाले पशु-पक्षियों के आकार भी सीधो समान्तर ही हैं। रवीन्द्रनाथ ने स्वतन्त्र रूप से भी ऐसी ही आकृतियाँ बनायी हैं। उन्हें वजन प्राप्त हो इसलिए वे कलम से ही एक दूसरी के समानान्तर, एक दूसरी से स्पर्श कर जाती, टेढ़ी और सीधी आदि अनेक रेखाओं को पिरोते गये। इन आकारों को एक गठन प्राप्त हो जाने से बिना रंगों के भी वे चित्र परिपूर्ण लगते।
अपने चित्रों में पक्षी, पशु, पत्ते, फूल आदि प्राकृतिक तत्वों के आकार आते ही रवीन्द्रनाथ को उनमें रंग भरने की आवश्यकता महसूस होने लगी। शुरू में रवीन्द्रनाथ ने प्रकृति में मुख्य रूप से पाये जानेवाले लाल, हरे और पीले आदि रंगों का चयन किया। इन रंगों का प्रयोग करते समय छायाभेद के लिए फिर कलम और स्याही का इस्तेमाल किया। विरोधी रंग लाल, हरा और पीला ऐसे रंग-संयोजन के कारण उनके चित्रों में मुख्यतः ‘मटमैली’ रंगछटा आ गयी।
रेखा से आरम्भ हुए चित्रों में रंगों का प्रवेश होते ही रवीन्द्रनाथ की रेखा का रूप बदल गया। कलम और स्याही के इस्तेमाल से बननेवाली एक ही मोटायी की रेखा चली गयी और उसके स्थान पर ऊबड़-खाबड़ और असमान मोटायी की बनी रेखा आ गयी। रवीन्द्रनाथ के आकार और उनके पीछे का अवकाश सामान्यतः गहरे रंग का है, परन्तु रेखाएँ तेजस्वी और उजली हैं। रवीन्द्रनाथ की ‘रेखा’ हमेशा शुरू से लेकर अन्तिम चित्र-शृँखला तक बदलते हुए मगर मुख्य रूप में दिखायी देती है। यह रेखा, वस्तु या आकार की बाह्यरेखा या वस्तु के आकार को उभाड़ती नहीं, बल्कि चित्र को एक गति और लय प्रदान करती है। रेखा के कारण आकार रूप धारण करते हैं। रवीन्द्रनाथ की रेखा सभी दिशाओं में अखण्ड और सीधी चलती है। वह ‘बाॅडी लाईन’ नहीं है, अपितु उस रेखा का अपना व्यक्तित्व है, अपना शरीर है।
रवीन्द्रनाथ ने एक तत्व के रूप में रेखा का अनेक पद्धतियों से इस्तेमाल किया है। साथ ही उसका आकार भी स्वाभाविक रूप से बदलता रहा है। चित्रों में कलम के साथ-साथ ब्रश का भी इस्तेमाल है। वहाँ ये रेखाएँ मोटी या घुमावदार नहीं हैं, बल्कि सीधी भौमितिक हैं। इससे चित्र में भौमितिक आकार आते गये। इन भौमितिक आकारों के कारण ही रेखाओं का मुक्त विचरण और ऊबड़-खाबड़पन दूर हो गया और रेखा निश्चित दिशा में जानेवाली और घनता धारण करनेवाली बन गयी।
दरअसल, मोटी और सौष्ठवपूर्ण रेखा ही बंगाली ‘कालीघाट’ शैली के चित्रों की मुख्य विशेषता है। परन्तु रवीन्द्रनाथ की यह रेखा ‘कालीघाट’ से भिन्न है। वह भौमितिक रूप में द्विमिति ढर्रे की है। ऐसे भौमितिक आकार के चेहरे, पक्षी आदि शरीर रचना से ज़्यादा वास्तु रचना के समान लगते हैं। इस कारण उसमें मानवीय भाव अनुभव नहीं होते।
रवीन्द्रनाथ की कला कैलिग्राफ़ी से शुरू होती है। अतः उनकी सभी चित्र-शृँखलाओं के आकार - चाहे पक्षी हो, फूल-पत्ते हो या व्यक्तियों के चेहरे - सभी कैलिग्राफ़ीकल ढंग के हैं। उनमें कैलिग्राफ़ी के शब्द-रूप का लोप होकर भी प्रत्येक आकार से उसका दृश्य-ग्राफ महसूस होता है। रवीन्द्रनाथ ने कलम को साधन के रूप में यहाँ भी कायम रखा है। यहाँ तक कि जलरंगों में भी। उन्होंने पहले प्रकृति-चित्रण या व्यक्तियों के चेहरे बनाए और बाद में पूरी तरह अमूर्त चित्र, परन्तु साधन के रूप में कलम का स्थान हमेशा बना रहा। इस कारण शैलियाँ, रंग, रूप, आकार आदि अलग-अलग होकर भी चित्रों की गठन एकसमान है। कलम की एक जैसी मोटी अखण्ड रेखा या खण्ड-खण्ड रेखाओं से बनी बुनावट कभी प्रिंट मेकिंग के ‘एचिंग’ की तरह लगती है तो कभी शिल्प खोदते समय छैनी के आघात से बनी बुनावट जैसी लगती है। संक्षेप में, ये रेखाएँ ‘टूलमार्क’ जैसी प्रतीत होती हैं। इससे चित्र की बुनावट अत्यन्त सजीव महसूस होती है।
रवीन्द्रनाथ के चित्रों में लगभग सभी ओर सजीव वस्तुओं का चित्रण है। पक्षी, पशु, फूल, मानवीय चेहरे अथवा प्रकृति-चित्रण आदि में समूह चित्रण शायद ही कभी आया है। समूह चित्रण मंे अवकाश, आकार आदि के परस्पर सम्बन्धों से एक ‘कथन’ तैयार होता है। समूह अथवा अवकाश चित्र में यह कथन न होने के कारण हम सीधो चित्र के रंग, रेखाएँ और आकार के भावजगत् में पहुँच जाते हैं और चित्र में कथन अथवा वर्णन के लिए अवसर नहीं रह जाता। इसीलिए मानवीय चेहरा, पशु, पक्षी आदि आकारों में एक ही ‘मानवीय’ भाव प्रकट होता है। यह भाव समान्यतः सम्भ्रम, प्रश्न, व्यथा आदि रूपों में दिखायी देता है।
रवीन्द्रनाथ के चित्रों में यथार्थ का कोई भी संकेत नहीं हैं। उनके प्रकृति चित्रण में भी यथार्थ दर्शन का अभाव पाया जाता है। उनके प्राकृतिक चित्रण विस्तृत नहीं बल्कि संक्षिप्त प्रतीत होते हैं। इस कारण आकार और रंगों की योजना आवश्यकतानुरूप ही की जाती है। साथ ही प्रकृति का विश्लेषण किये बिना ही उसमें एक चित्रसूत्र प्राप्त होता है, जो पक्षी, चेहरे आदि के चित्रण से सुसंगत होता है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के प्राकृतिक चित्र अत्यन्त विशिष्ट होते हैं। चित्र के दृश्य में वे गहरे अँधियारे और बहुत ऊबड़-खाबड़ रूप में रंग भरते हैं। उससे दिखायी देनेवाला आकाश तेजस्वी रंगों की विभिन्न छटाओं से लैस होता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाश योजना प्राकृतिक दृश्य के पीछे से ही की गयी है। कम से कम भारतीय कला में तो यह दिखायी नहीं देता कि किसी चित्रकार ने प्राकृतिक दृश्य में ऐसी योजना की हो। रंगों की तेजस्विता से रंगों की नहीं, आलोक की अनुभूति होती है। आलोक भी सामान्य नहीं, ‘सन्ध्यालोक’। ऐसा सन्ध्यालोक और सामने अँधियारा दृश्य - इससे समूचे चित्र में रहस्यमयता आ जाती है। यूरोप के दृक्-प्रत्ययवादी चित्रकार प्रकाश के ब्यौरे का चित्रण अवश्य करते थे, परन्तु वस्तु से परावर्तित होनेवाले प्रकाश के ब्यौरे का। सम्भवतः जाॅन टर्नर के बाद रवीन्द्रनाथ ही अकेले ऐसे चित्रकार हैं, जो अवकाश के आलोक में रंग भरते हैं। पेड़ों के आकार देखकर तो यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि रवीन्द्रनाथ प्रकृति का चित्रण उसे प्रकृति समझकर नहीं, बल्कि उसे अपना ‘परिसर’ समझकर करते थे। इसी कारण वह दृश्य केवल दृश्य नहीं रह जाता, क्योंकि उसके पीछे अपने भू-परिसर की तीव्र अनुभूति होती है।
अनजाने में शुरू हुई इस चित्रकला में मासूमियत हमेशा कायम रही। उसमें कोई पाण्डित्य, कौशल प्रदर्शन अथवा दर्शन का भार नहीं है। नन्दलाल बोस जैसे अत्यन्त प्रभावशाली और जाने-माने चित्रकार रवीन्द्रनाथ के सान्निध्य में थे, परन्तु रवीन्द्रनाथ पर उनका जरा भी प्रभाव नहीं है। उनसे पहले, गगेन्द्रनाथ, अवनीन्द्रनाथ जैसे प्रभावशाली चित्रकार उनके घर में ही थे, तब भी रवीन्द्रनाथ चित्रकला से अलिप्त रहेे। सन् 1922 में जर्मन चित्रकारों की एक प्रदर्शनी कलकत्ता में सम्पन्न हुई, जिसमें पाॅल क्ले जैसे अत्यन्त प्रभावशाली चित्रकार सम्मिलित हुए थे। रवीन्द्रनाथ की चित्रकला तो इसके बाद शुरू हुई थी, इसलिए उन पर क्ले का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था, परन्तु यहाँ भी रवीन्द्रनाथ स्वतन्त्र हैं।
जर्मनी, जापान और मध्य यूरोप आदि देशों के साथ बंगाल के कलाकारों, विचारकों ने सम्बन्ध बना रखे थे। उपनिवेशवाद का विरोध - यही इसके पीछे मुख्य उद्देश्य था। अतः इस बंगाल कला पर यूरोपीय कला का कोई प्रभाव नहीं है। इसकी तुलना में उन्होंने जर्मन अभिव्यक्तिवाद को अपनाया। बंगाल के चित्रकारों ने अपने चित्र जर्मनी में प्रदर्शित किये।
रवीन्द्रनाथ के चित्र ‘बंगाल स्कूल’ से भी अलग हैं। वे बंगाल स्कूल के चित्रकार नहीं हैं, बल्कि उनके चित्रों के कारण बंगाल स्कूल की परिसीमाएँ कला जगत् के सामने खुल गयीं।
कैलिग्राफ़ी से शुरू हुई रवीन्द्रनाथ की चित्र-प्रक्रिया पक्षी, फूल, पशु, चेहरे, प्रकृति से होते हुए ग्राफ़ तक आती दिखायी देती है। रवीन्द्रनाथ रेखांकन से पूर्व आड़ी-खड़ी रेखाओं का ग्राफ़ अपने हाथों से बनाते और उस बुनियाद पर अपनी आकृति की रचना करते। इससे उनके चित्रों को एक वास्तुरचना का सूत्र प्राप्त हो जाता है। ग्राफ़ के कारण लम्बाई-चैड़ाई-ऊँचाई का बोध बना रहता है। इसी कारण उनके चित्र भौमितिक रूप में प्रकट हुए हैं।
कैलिग्राफ़ी और ग्राफ़ ‘अमूर्त’ रूप के लिए पूरक होते हैं। इस कारण रवीन्द्रनाथ के चित्रों में अमूर्त का सूत्र हमेशा बना रहा। भौमितिक शैली के चित्रों के बाद यह दिखायी देता है कि रवीन्द्रनाथ ने पूरी तरह से अमूर्त चित्र बनाये हैं। फिर भी मूर्त, अमूर्त, प्रकृति, व्यक्ति, वस्तु आदि में बिना कोई भेद किये वे अपनी संवेदनाएँ अंकित करते रहे।
उपनिवेशवाद के विरोध से उभरा ‘स्वदेशी’ पन के अहसास और आज़ादी के बाद उभरे ‘भारतीयता’ के आग्रह के कारण अपनी कला में भारतीय पुराण, अध्यात्म, दन्तकथाएँ, परम्परा, दर्शन आदि का समाहार कर राजा रविवर्मा, नन्दलाल बोस से लेकर सैयद हैदर रज़ा आदि चित्रकार अपनी कला भारतीय होने का दावा करते हैं। परन्तु उनकी कलाकृतियों के मात्र बाह्य सादृश्य अथवा शैली को ही भारतीय पहचान मिली है, भीतरी संवेदनाओं को नहीं।
रवीन्द्रनाथ ने यह प्रतिपादित किया है कि स्वदेशी या भारतीय विचार अथवा अपने काव्य, साहित्य, संगीत आदि कलाओं का उनकी चित्रकला से कोई सम्बन्ध नहीं है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि धर्म और कला में कोई सम्बन्ध नहीं होता और दोनों क्षेत्र स्वतन्त्र हैं। इस कारण रवीन्द्रनाथ के चित्र किसी भी बने-बनाये दर्शन या परम्परा का अनुमोदन नहीं करते, बल्कि अपनी भीतरी संवेदनाओं से उभरी और ठेठ देसीपन को बयान करनेवाली उत्कृष्ट कला की बानगियाँ पेश करते हैं।
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रामकिंकर बैज
(1906-1980)
रामकिंकर बैज का जन्म बंगाल के बांकुरा गाँव में हुआ। बांकुरा पारम्परिक कारीगरों का गाँव है। यहाँ कुम्हार, सुतार, चित्तारी, मिट्टी के खिलौने, माँ दुर्गा की मूर्तियाँ बनानेवाले पारम्परिक कारीगरों की बस्तियाँ थीं। यहाँ के बांकुरा घोड़े तो सुविख्यात हैं। रामकिंकर इसी कारीगरी को घण्टों निहारता रहता और इसी कारण बचपन से उसमें इस कारीगरी के प्रति दिलचस्पी जग गयी।
बांकुरा गाँव भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में स्वदेशी आन्दोलन का केन्द्र्र था। महात्मा गाँधी ने स्वदेशी आन्दोलन तीव्र कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध ‘असहयोग’ की घोषणा की। रामानन्द चटर्जी इस आन्दोलन के नेता थे। वे भी बांकुरा केनिवासी थे। रामानन्द ने रामकिंकर के कुछ काम देखे थे। रामानन्द चटर्जी उसके कलागुण देखकर औपचारिक कलाशिक्षा के लिए उसे शान्तिनिकेतन ले गये। विशेष बात यह कि चित्रकार यामिनी राॅय भी बांकुरा इलाके से ही हैं। उन पर भी इसी कारीगरी का प्रभाव है। बाद में वे कलकत्ता गये।
रामकिंकर बैज सन 1925 में शान्तिनिकेतन गये। रवीन्द्रनाथ को ‘नोबेल’ पुरस्कार इससे पूर्व ही प्राप्त हो चुका था। अतः शान्तिनिकेतन में संसार भर के चित्रकार, शिल्पी, कवि, विचारक आदि का जमावड़ा लगता था। अपने शैक्षिक दौर में ही रामकिंकर को इसका लाभ हुआ। उस समय कलाभवन में अध्ययन विषय के रूप में केवल चित्रकला थी, शिल्पकला नहीं। परन्तु रामकिंकर को बचपन से ही मिट्टी की मूर्तियाँ बनाने का शौक था। यहाँ भी वे हमेशा मूर्तियाँ बनायाकरते। इस दरमियान मिस मिलवर्ड और मिस वाॅन फिलपाॅट जैसी विदेशी कलाकार शान्तिनिकेतन में आयीं। उनसे भी रामकिंकर ने कुछ शिल्पकला के गुर सीख लिए।
शान्तिनिकेतन के माहौल में रामकिंकर एकाकार हो गये। प्रकृति, ग्रामीण जीवन, संथाल आदिवासी, रवीन्द्रनाथ जैसे प्रतिभाशाली कलाकार का सान्निध्य, विनोद बिहारी जैसे सहयोगी और दुनिया भर के विचारकों और कलाकारों का जमावड़ा। रामकिंकर पहले से ही जिज्ञासु थे। इस कारण वे अनेकों से ज्ञान, विचार ग्रहण करते हुए अपनी कला में उनका प्रयोग करते रहते।
बंगाल के अन्य कलाकारों की तरह शुरू-शुरू में वे भी देवी-देवताओं या प्राचीन धार्मिक कथाओं के चित्र बनाते थे। परन्तु जब उनका वास्तविक कला से परिचय हुआ, तब उन्होंने यह सब छोड़कर मुक्त रूप से प्रकृति चित्रण करना आरम्भ किया। परन्तु प्रकृति चित्रण में उन्होंने प्रकृति को कभी अकेले या एकाकी रूप में चित्रित नहीं किया। उनकी दृष्टि से प्रकृति में मनुष्य की सहभागिता अहम थी। इस कारण वे प्रकृति के साथ मनुष्य, पशु, पक्षी आदि के सहजीवन को चित्रित करते रहे। रामकिंकर के चित्रों में प्रकृति का चित्रण इतनी उत्कटता से आता है कि पेड़, व्यक्ति, पशु अलग-अलग न लगकर एक दूसरे में समाहित ही नज़र आते हैं। इसमें यथार्थ को कोई अवसर नहीं होता। ये सारे तत्व उस चित्र में स्थूल प्रतिमा के रूप में ही आते रहते। उनका दृश्यरूप कभी नहीं बनता। जलरंगों का खुलकर इस्तेमाल, जिसमें एक आभासी पेड़, व्यक्ति का अस्तित्व, और अन्य रंग। कुछ मिलाकर उनके लिए चित्र महत्वपूर्ण होता, विषय या दृश्य नहीं। उनके ये चित्र काल्पनिक भी नहीं होते, बल्कि आसपास के परिवेश के, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से भरे होते। रामकिंकर किसी दर्शन या विचार से नहीं, बल्कि जीवन से प्यार करनेवाले कलाकार थे। अतः उनके चित्रों में जीवन भी इसी तरह आता रहा। कोई भी दर्शन अथवा वैचारिक प्रस्तुतीकरण उनके चित्रों में दिखायी नहीं देता।
रामकिंकर के चित्रों का अधिकाअधिक अवकाश आसपास का जीवन, सन्थाल आदिवासी, किसान, ग़रीब मज़दूर आदि को समर्पित था। मेहनत करते ग़रीब मजदूर, खेत में खटते किसान, उनके देह की हरकतें, लय, गति - यही टीपने का उनका लगातार प्रयास होता। इस कारण वे अत्यन्त तेज़तर्रार से चित्र बनाने का प्रयास करते, और इस प्रयास में छोटा-मोटा ब्यौरा देना टाल जाते। इस कारण उनका कोई भी रेखांकन अथवा चित्र गतिशील ही महसूस होता। शिल्पकला के लिए इसी गति को उन्होंने महत्वपूर्ण माना है।
रामकिंकर की कला का सम्बन्ध यूरोप के दृक्-प्रत्ययवादी चित्रकार विन्सेंट वान गोग, पाॅल सेज़ाँ, पाॅल गोगाँ आदि की विचार-संवेदनाओं के साथ जोड़ा जा सकता है। विन्सेंट के चित्रों में भी यही किसान और मेहनतकश जीवन है। पाॅल गोगाँ तो आदिवासी जीवन से ही एकाकार हो गया था। पाॅल सेज़ाँ अपने प्रकृति चित्र में घनवादी तत्व की खोज करनेवाले चित्रकार हैं। इसके बावजूद विन्सेंट और सेज़ा को अमूर्तता के प्रति आकर्षण था। यह ध्यान में आते ही कि उनके मित्र जार्जेस सरा को अमूर्त का अहसास है, वे जार्जेस के चित्र कुतूहल से निहारते थे।
बाहरी शैली, माध्यम और तकनीक की बात छोड़ दें, तो रामकिंकर बैज को भी ऐसे अमूर्त के प्रति आकर्षण है। अमूर्त चित्रों से पूर्व के उनके कुछ चित्र ग़ौर करने योग्य हैं। पाॅल सेज़ाँ की तरह किंकर ने भी प्रकृति को घनवादी रूप में चित्रित किया है। ऐसे घनवादी चित्रों को वे संरचनात्मक संयोजन कहते हैं। यानी सामने उपस्थित प्रकृति की संरचना, समूचा ढाँचा घनवादी रूप में चितारना। इसी से वे अमूर्तवाद की तरफ झुक गये। इस दौर में रवीन्द्रनाथ भी चित्र बना रहे थे। उनके चित्र भी अमूर्त ही थे। परन्तु रामकिंकर और रवीन्द्रनाथ का अमूर्त तत्व पूरी तरह से अलग है। रवीन्द्रनाथ ने इस यूरोपीय कला को कभी गले नहीं लगाया, जबकि रामकिंकर के लिए यह एक यूरोपीय आदर्श था।
दृक्-प्रत्ययवाद का एकत्रित सार पिकासो के चित्रों में मिलता है। बाद में पिकासो ने विरूपीकरण को प्रधान सूत्र मानकर उसे घनवाद में रूपान्तरित किया। रामकिंकर घनवादी चित्र बनाते थे, परन्तु उनके चित्रों में विरूपीकरण बिल्कुल भी नज़र नहीं आता। घनवाद में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। एक कलाकार के रूप में रामकिंकर ने कभी वैज्ञानिक दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। चित्र वे अपनी अन्तःप्रेरणा से बनाते थे। उनकी प्रेरणाएँ यानी उनका परिवेश, किसान, मज़दूर, प्रकृति और जीवन आदि का अखण्ड रूप। रामकिंकर के चित्र में प्रकाश, गहराई अथवा आकार को भी प्रमुखता नहीं है। उन सभी का अखण्ड रूप यानी संरचनात्मक रूप से महत्वपूर्ण है, जो अमूर्त का अंग है।
अमूर्तन घनवादी चित्रकारों से लेकर दृक्-प्रत्ययवादी चित्रकारों तक केन्द्र्रीय तत्व रहा है, जो पिकासो के बाद ही यूरोप में पूरी तरह से छा गया। रामकिंकर के काम में घनवाद और अमूर्तवाद समानान्तर ही दिखायी पड़ते हैं। पिकासो और रामकिंकर समकालीन थे। रामकिंकर में पिकासो के प्रति आकर्षण था। अतः पिकासो का उनपर सीधा प्रभाव है, जो उनके तैलचित्र में दिखायी देता है। रामकिंकर के तैलचित्र और जलरंगचित्र पूरी तरह से अलग हैं। तैलरंगों में जलरंगों की भाँति उत्स्फूर्तता नहीं है अथवा जलरंग में जो पीले और नीले रंगों का संयोजन प्रमुखता से पाया जाता है, वह तैलरंग में नजर नहीं आता। तैलरंग के चित्र भूरे रंग के और रचना प्रधान हैं।
रामकिंकर प्रकृति से बुद्धिवादी नहीं, बल्कि तीव्र संवेदनाशील है। उनका यह व्यक्तित्व चित्रों की अपेक्षा उनके शिल्पों में अधिक मुखर हो उठता है। दो एक अपवाद छोड़ दें तो उनके शिल्प न तो घनवादी हैं और न ही उसपर किसी समकालीन शिल्पकला का स्पष्ट प्रभाव है। उनकी शिल्पकला बांकुरा कला से प्रभावित ठेठ देसी कला है।
यद्यपि रामकिंकर बुद्धिवादी नहीं हैं, परन्तु उनका व्यक्तित्व किसी आदिवासी कलाकार की भाँति तीव्र निष्ठावान है। इसी कारण उनके शिल्प आदिम शिल्पकला से रिश्ता जोड़ते हैं और मातृदेवता अथवा सिन्धु संस्कृति के प्राणियों के आकारवाले खिलौनों से समानता दर्शाते हैं। उनके शिल्प ऐसे उत्कट हैं, मानो एलोरा, खजुराहो, कोणार्क की शिल्प-संस्कृति के वंशज हो। रामकिंकर अपने शिल्प के बारे में स्पष्टीकरण देते हैं, ‘मैं उसका चित्र बनाता हूँ जो मैं दिन में जीवन की वाटिका में देखता हूँ और जो अन्धकार में महसूस करता हूँ उसका शिल्प बनाता हूँ।’ (सेल्फ पोट्रेट, पृ. 91)
चित्रों की अपेक्षा रामकिंकर के शिल्प अधिक स्वाभाविक हैं। इसी कारण वे इस अभिजात्य परम्परा से जुड़ जाते हैं। रामकिंकर और पिकासो एक ही दौर के कलाकार हैं।उनकी सामाजिक-राजनैतिक परिस्थिति भी एक जैसी थी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यूरोप में हिंसा फैली थी। भारत में भी अँग्रेज़ों के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन की घोषणा की गयी थी। यद्यपि यह आन्दोलन शान्तिपूर्ण था, पर संघर्ष तो था ही। पिकासो के घनवाद के पीछे दृक्-प्रत्ययवाद की बड़ी परम्परा थी। नवजागरणवादी आन्दोलन का इतिहास रामकिंकर ने अस्वीकार किया, फिर भी उनकी चित्रकला पर रवीन्द्रनाथ की सम्पूर्ण प्रतिभा का प्रभाव था। पिकासो का झुकाव घनवाद से अमूर्त की तरफ था। रवीन्द्रनाथ द्वारा किया गया अमूर्तन का स्वीकार रामकिंकर के लिए पूरक बन गया और उनके लिए भी अमूर्तन के जरिए अभिव्यक्ति का माहौल अनुकूल हो गया।
घनाकार की लय रामकिंकर को मिल गयी थी। हाथ के मिट्टी के लोंदे को यथासम्भव आकार देते-देते रामकिंकर छोटे-छोटे शिल्प बनाते। उनकी अमूर्तवादी शिल्पकला की शुरूआत श्।द वतहंदपब वितउश् ही से आयी। बाद में इन्हीं आकारों से उन्हें अलग-अलग आकारों का आभास होता गया और वे अभिव्यक्त होते गये। थ्मउंसम थ्पहनतमए डवजीमत ंदक ब्ीपसकए ब्वनचसमए डपजीनद आदि शिल्प-शृँखलाओं से उनका अमूर्तवाद प्रारम्भ होकर आखिर में उन्होंने ‘दीपस्तम्भ’ शिल्प बनाया। ‘दीपस्तम्भ’ (ज्ीम स्ंउच ैजंदकए 1940) भारत का पहला अमूर्त शिल्प है। घनवाद के बाद उत्तर घनवाद के दौर में यूरोप में अमूर्त कला का प्रारम्भ हुआ। घनवाद के दौर में ही रवीन्द्रनाथ और रामकिंकर बैज ने अपने अमूर्तवादी चित्र-शिल्पों की रचना की।
रामकिंकर बैज अथवा रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपनी कला में विषय, शैली, माध्यम, यथार्थवाद अथवा अमूर्तवाद आदि दृष्टियों से भेद नहीं किया। वे अपनी संवेदना के आधार पर शुद्ध कलात्मक रचना करते रहे।
भारत में वास्तुशिल्प की महान परम्परा है। इस परम्परा के अनुसार ही रामकिंकर ने अपने भव्य शिल्प का प्रारम्भ किया। उनका दीवार पर बनाया गया ‘सरस्वती’ शिल्प अथवा रवीन्द्रनाथ के निवासस्थान की दीवार पर बनाया गया ‘शामली’ शिल्प उनकी इस शिल्पकला का आगाज़ था। इन शिल्पों पर ग़ौर करते ही यह ध्यान में आता है कि यहीं से रामकिंकर के शिल्पों के व्यक्ति का आधार ‘सन्थाल’ स्त्री-पुरुषों की काठी बन गये थे।
सामान्यतः शिल्पी पत्थर, चट्टान और लकड़ी आदि माध्यमों में खोदकर शिल्प बनाते हैं। परन्तु रामकिंकर ने खोदकर नहीं बल्कि माॅडेलिंग अर्थात् रचकर बनाये हैं। निर्माण कार्य की सामग्री ही मिट्टी, सीमेण्ट, रेती वगैरह होती है। इस कारण रामकिंकर शिल्प के लिए इसी माध्यम का इस्तेमाल करते थे। परिणामतः उनकी शिल्परचना किसी निर्माण कार्य जैसी होती थी। रामकिंकर ने लकड़ी अथवा चट्टान में बहुत कम शिल्प बनाये हैं। ऐसे शिल्प स्वभावतः भव्य ही होते हैं, परन्तु खुली जगह में ही ऐसा कार्य सम्भव होता था।
रामकिंकर ने शान्तिनिकेतन परिसर में ही भव्य शिल्पों का प्रारम्भ किया था। सन्थाल परिवार, दीपस्तम्भ, मिल काॅल, सुजाता, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गाँधी जैसे उनके शिल्पों की एक शृँखला ही बन गयी थी। सन्थाल परिवार अथवा मिल काॅल का ‘शिल्पखण्ड’ अखण्ड चट्टान में खोदने जैसा लगता है। स्त्री-पुरुष, बच्चे, कुत्ते आदि के साथ बेसब्री से चक्की अथवा हाट की तरफ बढ़ रहा सन्थाल परिवार बेघर विस्थापितों जैसा लगता है। चाल की गति की तुलना में ज़्यादा आगे बढ़ रही देह, विपरीत दिशा में मुड़ा चेहरा, नज़र आदि से रफ़्तार के साथ-साथ फ़ासले का भी अहसास होता है। देहाकृति मज़बूत और खुरदरी, परन्तु चेहरे पर मुस्कान और तृप्ति का भाव। रामकिंकर के शिल्प की स्त्रियाँ लावण्यमयी या शृँगारिक नहीं, बल्कि सशक्त और सख़्त लगती हैं। छोटी-बड़ी आकृतियों में हो रही हरकतों के कारण सम्पूर्ण शिल्प गतिशील और सजीव लगता है। शिल्प के व्यक्तियों के आकार सामान्यतः एक दूसरे से समान्तर हैं। इससे वे एक दूसरे के बिम्ब-प्रतिबिम्ब ही प्रतीत होते हैं। सबसे अहम् बात, शिल्प में हवा का अहसास! शिल्प की गति, हरकत और उसका आगे झुकना आदि से हवा का दबाव महसूस होता है।
रामकिंकर बैज चित्रकार एवं शिल्पी हैं, परन्तु संसार ने उनके शिल्पों को न केवल अपनाया, बल्कि उन्हें भारतीय शिल्प-परम्परा का अभिजात्य अंग भी माना। रामकिंकर की तरह पिकासो भी चित्रकार एवं शिल्पी था। पिकासो के चित्रों के प्रभाव को रामकिंकर स्वीकार करते हैं, परन्तु पिकासो शिल्प के बारे में उनके विचार अच्छे नहीं थे। रामकिंकर कहते हैं, मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पिकासो मुझे प्रिय हैं। उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। पर उनके शिल्प थोथे हैं।’ (सेल्फ पोट्रेट, पृ. 27)
पिकासो अपनी चित्रकला के प्रति जितना सजग था, उतना शिल्पकला के प्रति नहीं। शिल्पकला में वह मनमौज़ी था। अपनी ज़िन्दगी में भी वह काफ़ी बेफ़िक्र प्रकृति का दिखायी देता है और यह प्रवृत्ति उसकी शिल्पकला में भी उतरी है। इसी कारण रामकिंकर बैज को उनकी शिल्पकला विशेष नहीं लगती। दरअसल, रामकिंकर की यह टिप्पणी अत्यन्त जिम्मेदार है। पिकासो पर की गयी उनकी इस टिप्पणी को तत्कालीन शिल्पकला की उनकी प्रतिनिधि आलोचना ही कहना होगा। रामकिंकर के समकालीनों में उनके मुकाबले का एक भी भारतीय शिल्पकार नज़र नहीं आता। इस कारण विश्व स्तर पर रोदा, हेनरी मूर के बाद रामकिंकर बैज के अलावा कोई ग़ौर करने लायक शिल्पकार का नाम सामने नहीं आता।
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अमृता शेरगिल
(1913-1941)
दृक्-प्रत्ययवाद और घनवाद का दौर विश्व कला की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण दौर है। आँखों को होनेवाली अनुभूति, उसका सन्दर्भ और अर्थ खोजने का वह प्रयास था। विन्सेंट वान गोग, पाॅल गोगाँ, पाॅल सेज़ाँ, जार्ज सूरे इनमें मुख्य चित्रकार थे। अलग-अलग आयामों से प्रकृति का, वस्तु का सामने का हिस्सा, उसके पीछे की गतिविधियाँ आदि की कारण-मीमांसा करना उनका मुख्य उद्देश्य था। खड़ी वस्तु को चीरता जाता छाया-प्रकाश, इससे उत्पन्न होनेवाली ज्याँमितियाँ, सभी आकारों के मूल में काम करनेवाले मूलाकार, ध्वनि प्रकाश तरंगों से बनती है या कण-कण से इस तरह के अलग-अलग अनुमानों को सिद्ध करते हुए ये चित्रकार अपने चित्र बनाते थे।
इसी दौर में छाया-चित्रण (कैमरा) की सुविधा प्राप्त हुई और दृक्-प्रत्यय को तकनीकी रूप से एक विशेष दिशा मिल गयी। त्रिमिति का आभास करानेवाला यह द्विमितिक रूप, गति और हरकतों से बननेवाली प्रतिमाएँ, विलम्बित प्रतिमाएँ, उनके एकत्रित रूपान्तर का दृश्यरूप एक विरूपीकरण में परावर्तित हुआ। इस तरह अनेक ज्याँमितियों को अपनी परिधि में समेटकर ही बहुमिति की अनुभूति करानेवाला ‘घनवाद’ बन गया। पाब्लो पिकासो घनवाद का सफल चित्रकार है।
पानी के भीतर रखी छड़ टेढ़ी क्यों नज़र आती है? इसकी अनुभूति ‘विरूप’ में क्यों होती है? इन सवालों के जवाब भौतिक विज्ञान देता है, धर्म नहीं। विरूप अथवा अरूप भौतिक रूप के ही अंग हैं। इसी से अमूर्तन प्राप्त होता है। दृक्-प्रत्ययवादी चित्रकारों को अमूर्तन के प्रति ही आसक्ति थी। परन्तु घनवाद के भौतिक, वैज्ञानिक विश्लेषण से ही अमूर्तन की अनुभूति होती है। अमूर्त यानी मूर्त का विरोध नहीं, बल्कि भौतिक की ही रूपानुभूति है।
दृक्-प्रत्ययवाद और घनवाद तक के उथल-पुथल के दौर में अमृता शेरगिल यूरोप में थी। उसका जन्म सन 1913 में बुडापेस्ट हंगरी में हुआ। उसकी शिक्षा भी यूरोप में ही सम्पन्न हुई। बाद में सन 1934 में वह भारत आयी। माँ हंगेरियन और पिता भारतीय, इस तरह यूरोपीय और भारतीयता की विरासत अमृता शेरगिल को जन्म के साथ ही प्राप्त हुई।
भारतीय जीवन और संस्कृति के प्रति अमृता को विशेष आकर्षण था। भारत आते ही उसने देश भर में भ्रमण शुरू किया। उसने एलोरा-अजन्ता, दक्षिण के भित्तीचित्र, पहाड़ी लघुचित्र, राजपूत, मुग़ल लघुचित्र, मोहेनजोदड़ो, हडप्पा, कुशाण शिल्प, गुप्तकालीन कला और भारतीय समकालीन कला का बाक़ायदा अध्ययन किया। पिकासो, ब्राक़, मातिस की समकालीन अमृता ने वान गोग, गोगाँ के कलाविषयक विचार आत्मसात किये थे। इस कारण उसमें कला के प्रति सूक्ष्म एवं गहरी समझ आयी थी। इस दृष्टिकोण से भारतीय कला का मूल्यांकन करते समय उसने तीखी और स्पष्ट प्रतिक्रियाएँ दी हैं।
अजन्ता और भारतीय लघुचित्र परम्परा पर आधारित पुनरुत्थानवादी आन्दोलन और उससे निर्मित ‘बंगाल स्कूल’ और ‘बाॅम्बे स्कूल’ आदि शैलियाँ भारत में स्थापित हो गयीं। परन्तु अजन्ता और लघुचित्र की अमृता की समझ अलग थी।
राजा रविवर्मा से लेकर भारत के कुछ प्रमुख चित्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनी दक्षिण के त्रावणकोर में आयोजित की गयी थी। इस ‘माॅडर्न इण्डियन आर्ट’ प्रदर्शनी के बारे में अमृता शेरगिल कार्ल खण्डालवाला को लिखती है, श्ॅपजीवनज मगंहहमतंजपवद वत तंजीमत नदकमतमेजपउंजपवदए जीमतम ूंे वदसल वदम चपबजनतम पद जीम ूीवसम बवससमबजपवद जींज बवनसक इम बंससमक हववक . ं ेउंसस चवतजतंपज इल श्रंउपदप त्वलए मअमद छंदकसंस ठवेम ूमतम ीवचमसमेेण् प् तमंससल दमअमत जीवनहीज जींज छंदकसंस ठवेम ूंे ेव मततंजपबण् ब्वदेपदे ेममउे जव ींअम ं ेचमबपंस ंिबनसजल वित चपबापदह वनज जीम ूवतेजण्श् (कार्ल को पत्र, 1937)
इसी दरमियान ‘बाॅम्बे स्कूल’ की एक प्रदर्शनी के बारे में वह लिखती है, श्प् हवज वनत तमअपमू व िजीम मगीपइपजपवद जव बवउउमदउवतंजम जीम ेमतअपबम व िळसंकेजवदम ैवसवउंदण् ज्व ेंल जींज लवन ींअम इममद श्डवेज ज्मउचमतंजमश् ंदक ुनपजम हमदमतवने पे जव चनज पज अमतल उपसकसलण् प् चमतेनमक जीम बंजंसवहनम बंतमनिससल सववापदह ंज जीम चपबजनतम ंज हतमंज समदहजी ूपजी जीम वइरमबज व िपउचतपदजपदह पदकमसपइसल वद उल उपदक श्ीवू दवज जव चंपदज!श् प् ींअम ेमसकवउ ेममद ेनबी ं चतवपिसम बवससमबजपवद व िपदउपजपहंजमक तनइइपेीण् ब्वउचंतमक जव जीम इमेज ेचमबपउमदे व िपजए जीम ूवतेज मगंउचसमे व िठंदहंस ैबीववस ंतम ूवता व िहमदपनेण्श् (कार्ल को पत्र, 1937)
कला की बुनियाद पर खड़ी यह भारतीय कला निराधार होकर अलंकरण में फँस गयी थी। भारत आते ही अमृता में भारतीय जीवन के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ। यहाँ की ग्रामीण जीवन पद्धति, ग़रीब मेहनतकश लोग, उनका काला-साँवला वर्ण, उनका लिबास आदि देखकर उसे अहसास हुआ कि ऊपर से चाहे यह जीवन गन्दगीभरा लगता है, परन्तु इसके भीतर एक सौन्दर्य की आभा विद्यमान है। यहीं से उसकी यूरोपीय पद्धति की चित्रकला पूरी तरह से बदल गयी और इस भारतीय जीवन तथा अजन्ता जैसी यहाँ की परम्पराओं को पचाकर वह अपनी निर्मिति करने लगी। अमृता शेरगिल उद्विग्न होकर भारतीय कला पर केवल टिप्पणी नहीं कर रही थी, बल्कि भारत भर में अपने चित्रांे की प्रदर्शनी भी लगा रही थी। भारतीय चित्रकारों ने भी बिना किसी प्रतिवाद के उसके चित्रों को स्वीकार किया और उसके मार्ग का अनुसरण करने लगे। अमृता शेरगिल के बहाने भारतीय कला में उथल-पुथल मच गयी। परन्तु इसी से भारतीय चित्रकारों को अपने ‘भारतीयत्व’ का अहसास हुआ। अमृता से भी वरिष्ठ चित्रकार के.के. हेब्बार और एन. एस. बेन्द्रे अमृता से प्रभावित हुए। उस दौर के युवा चित्रकार एम. एफ. हुसैन सिनेमा के बैनर बनाते थे। उन्होंने अमृता शेरगिल के चित्रों की नकल उतारते-उतारते चित्रकला सीख ली और अमृता के कारण कला क्षेत्र में आया तूफ़ान हुसैन के माध्यम से भारतीय चित्रकला में बढ़ता ही गया।
धार्मिक-पौराणिक कथाएँ, रोमांटिक कल्पनाएँ, अलंकरण की प्रवृत्ति के स्थान पर ठेठ वास्तविक जीवन के चित्र भारतीय कला में आने लगे। अमृता शेरगिल और रामकिंकर बैज दोनों समकालीन हैं। खास बात यह कि ग्रामीण जीवन, मेहनतकश किसान - यही दोनों की निर्मिति के केन्द्र्र थे। उनकी रचनाओं में शुद्ध देसी संवेदनाएँ इस प्रकार प्रकट होती हैं, मानो एलोरा-अजन्ता की सांस्कृतिक विरासत पर दावा करती हो। अमृता के चित्र और रामकिंकर के शिल्पों का यह दौर स्वतन्त्रतापूर्व का दौर है। यही वह समय है, जब भारतीय कला को सही मायने में यथार्थ जीवन का आधार प्राप्त हुआ था।
पाॅल गोगाँ तथा भारतीय चित्रकारों में प्रकृति चित्रण अनिवार्य रूप पाया जाता है। अमृता शेरगिल के चित्र दोनों परम्पराओं से अलग हैं। उसके चित्रों में प्रकृति अथवा प्रकृति चित्रण के स्थान पर सीधे-सीधे व्यक्ति आते हैं। विषय अथवा विषय के साथ आनेवाले परिसर का ब्यौरा भी चित्रों में अत्यन्त कम है। इसी कारण विषय भी अन्य ब्यौरे के साथ न आकर व्यक्ति की भावमुद्रा में ही प्रकट होता है।
चित्रों में रंग भरने की अमृता की पद्धति यूरोपीय थी। अपनी पद्धति में वह काल्पनिक ढंग से आकार नहीं बनाती थी, बल्कि सामने के चित्र के अनुरूप व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह को ‘माॅडेल’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए उसका चित्ररूप कैनवास पर अंकित करती थी। फिर भी कैनवास के चित्र यथार्थ यानी, छाया-प्रकाश के अनुरूप न होकर यथार्थ की प्रतिमा के रूप में आते। चित्र पूरा होने के बाद उसे उलटा कर यानी ऊपर का हिस्सा नीचे कर उसके रंग-संयोजन का परिष्कार किया जाता, और तब वह चित्र सही मायने में दृश्यानुभव कर पाता। चित्र में अंकित व्यक्ति परस्पर संवाद करते हुए नहीं दिखते, बल्कि ऐसा आभास होता है कि वे ‘आत्मनिवेदन’ कर रहे हों।
चित्र में असमान कद वाले पर एक दूसरे के समान्तर खड़े व्यक्ति, अपने पहनावे के कारण, एक जैसी बनी शारीरिक गठन, अंगों में हरकत न होने से लय का अभाव, पहनावे की अनिवार्य तहें आदि के जरिए सम्पूर्ण व्यक्ति समूह एक ‘मानवीय आकार का परिवार’ अथवा स्थिर चित्रण जैसा स्तब्ध प्रतीत होता है। मथुरा शैली का कनिष्क के पुतले अथवा स्तब्ध खड़े बुद्ध के शिल्प का प्रभाव अमृता के चित्रण पर हुआ है।
चित्र में यद्यपि प्रकृति का अभाव है, फिर भी व्यक्ति के पहनावे से वह सम्बन्धित परिवेश से जुड़ा प्रतीत होता है। अतः चित्र का व्यक्ति मात्र व्यक्ति नहीं रह जाता, बल्कि सम्बन्धित भू-भाग का नागरिक बन जाता है। अपने परिवेश, प्रकृति, समाज, राति-रिवाज़, परम्पराएँ आदि को पचाकर ही नागरिकों की जीवनशैली बनती है। अमृता के चित्र ऐसे ही अलग-अलग भूभाग यानी शिमला, दक्षिण भारत, गोरखपुर, पंजाब, लाहौर, हंगरी आदि परिवेशों के हैं। यह परिवेश वहाँ की प्रकृति के कारण नहीं, बल्कि सम्बन्धित व्यक्ति का रंग-रूप और पहनावे से ही मालूम पड़ता है। शिमला और दक्षिण भारत की प्रकृति बड़ी सुन्दर है, तथापि अमृता को प्रकृति से ज़्यादा इन्सानों में दिलचस्पी है।
नागरिक अपनी भूमि से इतना एकाकार होते हैं कि अन्य परिवेश के लोग अलग और बाहरी प्रतीत होते हैं। अमृता के चित्र में व्यक्ति इसी तरह भौगोलिक संस्कृति के साथ आते हैं। इस कारण, चाहे प्रकृति अलग न हो, फिर भी वह नागरिकों के द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है। समाजशास्त्र, इतिहास आदि का चित्रकला से सम्बन्ध हम जानते हैं, परन्तु नागरिकशास्त्र और चित्रकला का सम्बन्ध भारतीय कला में पहली बार अमृता के चित्रों में ही दिखायी देता है।
अमृता के चित्रों के विषय यथार्थ जीवन से उठाए गये हैं,परन्तु उनमें अंकित व्यक्ति पारम्परिक होते हैं और रंग काल्पनिक। रंगों की तीव्रता और अनेक रंगों की संयोजना के चलते विषय की अपेक्षा रंगों के कारण ही चित्र अधिक प्रभावशाली बनते हैं। पूरे चित्र में रंग ही मुख्य होता है। इसी कारण अमृता के चित्र दो स्तरों पर बनते हैं। चित्र का विषय ग़रीबी, दुख आदि होता है, परन्तु इसके रंग विषय-आशय के साथ नहीं आते, बल्कि उनका अपना अस्तित्व स्वतन्त्र होता है।
अपने चित्रों के बारे में अमृता कहती है, श्प् ंउ चमतेवदंससल जतपदह जव इमए जीतवनही जीम उमकपनउ व िसपदमए बवसवनतए ंदक कमेपहदए ंद पदजमतचतमजमत व िसपमि व िजीम चववत ंदक ेंकए ठनज प् ंचचतवंबी जीम चतवइसमउ वद जीम उवतम ंइेजतंबज चसंदम व िजीम चनतमसल श्च्पबजवतपंसश्ण् ;।उतपजं ैीमत.ळपसए ळममजं ज्ञंचनतए चहण् 42द्ध
रामकिंकर बैज के चित्र और शिल्पों का विषय भी ग़रीब, दुखी, मेहनतकश किसान ही था,परन्तु उनके शिल्प-चित्र जीने की मस्ती, जीवन के अहसास से भरे और ग़रीबी में भी सन्तोषपूर्ण जीवन जीने की गति और लय आदि को वहन करने में समर्थ थे। इसी से रामकिंकर की इस धारणा का पता चलता है कि दरिद्रता में भी सौन्दर्य होता है या ऊपर से गन्दा दिखनेवाला जीवन भीतर से सुन्दर हो सकता है। इसी कारण वे अपने चित्रों के बारे में कहते हैं, ‘मेरे चित्र जीवन की वाटिका है’। अमृता को दरिद्रता के असली सौन्दर्य का अहसास नहीं था। क्योंकि उसके चित्र में लोगों के चेहरे हमेशा निराश, दुखी होते हैं और रंग इसके विपरीत होते हैं -उत्तेजक और तेजस्वी।
अमृता के चित्रों के व्यक्ति स्तब्ध और स्थिर होने के कारण वे ‘फोटो फार्म’ जैसे लगते हैं। चित्र के ये इंसान किसी आलंकारिक आकारों या किसी विशिष्ट शैली के नहीं बल्कि यथार्थ के सुलभीकरण जैसे लगते हैं। आकार का सुलभीकरण और रंगों की वरीयता के कारण चित्र अमूर्तन की ओर झुके हुए हैं।
अमृता शेरगिल का भारत आना भारतीय कला में परिवर्तन का कारण बना। अमृता के कारण भारतीय कला में दो दौर स्पष्ट दिखायी देते हैं - अमृता से पहले की भारतीय कला और अमृता के बाद की भारतीय कला। कला के लिए मानवीय आकार-इस भारतीय परम्परा को बदलकर अमृता शेरगिल ने -मानवीय जीवन के लिए कला-यह नया सूत्र दिया। यह परिवर्तन पारम्परिकता की पुनर्रचना है। यानी आधुनिकता का प्रारम्भ है। इसीलिए अमृता शेरगिल आधुनिक भारतीय कला की मुख्य चित्रकार बन जाती है।
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मक़बूल फ़िदा हुसैन
(1915-2011)
अमृता शेरगिल के कारण भारतीय कला पूरी तरह से बदल गयी। ब्रिटिश यथार्थवाद का विरोध करते हुए स्वदेशी की प्रेरणा से भारतीय परम्परा का पुनरुत्थान करनेवाला आन्दोलन भी अमृता के कारण फ़ीका पड़ गया। इस दौर में अजन्ता, लघुचित्र, वैदिक दर्शन, पुराण, संस्कृत सौन्दर्यशास्त्र आदि बिन्दुओं को जोड़नेवाला भारतीय कला का एक मानचित्र ही तैयार हो गया था। भारतीय कलाकारों पर बस यही धुन सवार थी कि भारतीय परम्परा का कोई एक लक्षण अपनी कला में आ जाए। ऐसे बाह्य लक्षणों के कारण कला में कृत्रिमता, तार्किकता और रोमंटिकता आती है, जिसे उतार फेंककर अमृता की कला ने भारतीय जीवन, ग्रामीण यथार्थ को केन्द्र्र बिन्दु बनाया था। अमृता शेरगिल की कला की इस तीव्र संवेदना की आँच को आनेवाली पीढ़ियों के चित्रकार वहन नहीं कर पाये। इसी कारण अमृता के बाद नये कलाकारों पीढ़ी तैयार हुई ही नहीं।
अमृता शेरगिल से प्रभावित के. के. हेब्बार, एन. एस. बेन्द्रे आदि चित्रकार अत्यन्त मासूमियत से ग्रामीण जीवन, लोकजीवन जैसे विषयों पर काम कर रहे थे। परन्तु उनकी कला में अमृता की कला जैसी जान नहीं थी। अमृता से ही प्रभावित युवा चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन ने अमृता के चित्रों की नकल उतारते-उतारते उनका अध्ययन किया और अपनी चित्रकारिता शुरू की। मक़बूल फ़िदा हुसैन उस दौर में सिनेमा के बैनर बनाते थे। अमृता के प्रभाव की अपेक्षा अमृता के चित्रों से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी निर्मिति शुरू की।
आजीविका के लिए इन्दौर से मुम्बई आये हुसैन खिलौने बनाना, सिनेमा के बैनर और पोस्टर बनाना जैसे काम करते थे। एक तरह से यह चित्रकला का दिहाड़ी मज़दूर बनना ही था। उनके पिता का पत्तर के दीए, ढिबरी, लालटेन बनाना, छातों की मरम्मत आदि काम करना व्यवसाय था। बचपन में जिस कारीगरी को हुसैन ने बड़ी जिज्ञासा से देखा था, वही कारीगरी मुम्बई में खिलौने बनाने में उनके काम आयी।
अमृता शेरगिल के चित्र देखकर हुसैन ने पेंटिंग शुरू की। उसी दौर में चित्रकार फ्राँसिस न्यूटन सूज़ा से उनका परिचय हुआ। सूज़ा के कारण हुसैन का कला और कलाक्षेत्र से परिचय हुआ और वे पूरी तरह से कला में ही रम गये।
भारतीय स्वतन्त्रता के बाद स्वदेशी का विचार पीछे छूटता गया और देशभर में वामपन्थी विचारों की लहर फैल गयी। कला और साहित्य में भी इस प्रगतिशील विचार से अनेक परिवर्तन हुए। नाटक क्षेत्र के लोगों ने ‘इप्टा’ नाम से संगठन स्थापित किया। साहित्य के क्षेत्र में भी ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ स्थापित हुआ। ‘प्रोग्रेसिव’ नाम से कुछ चित्रकारों ने एक ग्रुप बनाया। फ्राँसिस न्यूटन सूज़ा कम्युनिस्ट आन्दोलन के समर्पित कार्यकत्र्ता थे। उन्होंने ने ही कुछ चित्रकार और शिल्पकारों को जोड़कर यह ग्रुप बनाया था।
मक़बूल फ़िदा हुसैन भी इस समूह के सदस्य थे। सूज़ा, के. एच. आरा, बाकरे, गाडे, रज़ा और हुसैन। सतह से ऊपर उठे कलाकार में हमारे सामने ऐसा आदमी खड़ा होता है, जो ग़रीबी से अथवा ग्रामीण, आदिवासी समुदाय से आया हो। परन्तु हुसैन एक ऐसा चित्रकार है जो कला की बुनियादी कारीगरी से ऊपर आया है। इसी कारण उसमें कला और तकनीक का अलग अहसास है। खिलौने बनाने से लेकर सिनेमा बनाने का तकनीक और सिनेमा का बैनर बनाने से लेकर पेंटिंग कला का हुनर हुसैन में एक जैसा था। इन सभी कलाओं की अहमियत हुसैन के लिए एक जैसी थी।
प्रोग्रेसिव ग्रुप औपचारिक ही था। उसके चित्रकारों का एक दूसरे की कला से, विचारों से कोई मेल नहीं था। उनमें हुसैन और आरा का अपवाद छोड़ दें, तो बाकी सभी कलाकार यूरोप चले गये और वहीं बस गये। उस दौर के अत्यन्त महत्वपूर्ण कला समीक्षक मुल्कराज आनन्द और निस्सिम एज़िकल हुसैन और आरा को ‘दख्खिनी कलाकार’ के रूप में सम्बोधित करते थे क्योंकि ये दोनों दक्षिण भारत से मुम्बई में आये थे। दक्खिनी गुण और व्यक्तित्व हुसैन में विशेष रूप से था। दक्खिनी होने के कारण ही हुसैन में हिन्दू-मुसलमानों की साझा संस्कृति और धर्म के अहसास का समाहार था। हुसैन की प्रकृति, जीवन शैली किसी सूफी औलिया जैसी ही थी।
कुछ ही अवधि में प्रोग्रेसिव ग्रुप समाप्त हो गया। उसके लगभग सभी कलाकार यूरोप जाकर बस गये। परन्तु हुसैन ने भारत को नहीं छोड़ा। उन्होंने भारत भर में भ्रमण करते हुए भारतीय शिल्प, वास्तु संस्कृति का अवलोकन शुरू किया। अमृता शेरगिल में जो जिज्ञासा थी, वही हुसैन में दिखायी देती है। हुसैन पर गुप्तकालीन शिल्प का प्रभाव इसी दौर में पड़ा। भारतीय सिनेमा, कला, पुराण, परम्परा, मिथक के प्रति हुसैन आकर्षित थे। राममनोहर लोहिया के विचारों से भी वे प्रभावित थे। इसी प्रभाव से उन्होंने रामायण के दृश्यों पर सैकड़ों चित्र बनाये। बाद में भी उनकी महाभारत आदि पर अनेक चित्र-शृँखलाएँ जारी रहीं।
रामायण, महाभारत, एलोरा, अजन्ता, कालिदास, ग़ालिब, उर्दू काव्य, मिथक वगैरह सभी का समाहार हुसैन की कलाशैली में है। शैली यानी निर्मिति सूत्र। सबका साझा सूत्र यानी प्रतीकवाद। हुसैन के बिल्कुल आरम्भिक चित्रों से लेकर अन्तिम चित्रों तक यह प्रतीकवाद दिखायी देता है। चित्र में बार बार आनेवाले घोड़े, हाथी, बाघ, कमल, मानवीय देह की मुद्राएँ - सारी चिह्न-व्यवस्था हुसैन के चित्रों के विशेष अंग हैं। मानवीय देह की गठन हमेशा गुप्तकालीन शिल्प, खजुराहो तथा कोणार्क की याद दिलाती है।
हुसैन के कई चित्र आत्मचरित्रात्मक हैं। क्योंकि बचपन से उन पर असर करनेवाली आसपास की वस्तुएँ चित्र में प्रतीक-चिह्न की तरह आती हैं। ढिबरी, साइकिल, दिया जैसी सामान्य लगनेवाली बातें चित्र में गहरी भाव संवेदना भर देती हैं। ठमजूममद जीम ेचपकमत ंदक जीम संउचए 1958 चित्र इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय है।
हुसैन जब इन्दौर में रहते थे, तब होलकर रियासत के घोड़े, मुहर्रम में जुलूस के ‘डुल डुल’ घोड़े अथवा प्रतिमाएँ उनके मन पर हमेशा के लिए अंकित हो गयी थी। इसी से प्रेरित होकर हुसैन ने घोड़े के चित्रों की शृँखला बनायी। घोड़ों के अलग-अलग आवेगों से लैस इस चित्र-शृँखला के कारण हुसैन के चित्र पिकासो के चित्रों-से लगते। क्योंकि पिकासो के ‘गुअरनिका’ चित्र में भी आवेगपूर्ण घोड़े का चित्रण है। इसी कारण सभी ने यह मान लिया कि हुसैन पर पिकासो का प्रभाव है। दरअसल, हुसैन ने घनवादी पद्धति के चित्र कभी नहीं बनाये, परन्तु आकृति साधम्र्य के कारण सभी ने उन पर यह प्रभाव मढ़ दिया गया।
चित्र में लोक प्रतीक और लोक प्रतिमाओं का इस्तेमाल होने के कारण हुसैन जनमानस में लोकप्रिय थे। इसमें उनकी रहन-सहन की शैली का भी योगदान था। हर विषय, माध्यम में हुसैन खुद को आसानी से अभिव्यक्त कर पाते थे और इसी कारण वे किसी लोक कलाकार की भाँति सहज थे। उनके चित्रों की रेखाएँ और रंग लोककला की ही देन हैं, जिसके कारण वे लोकाभिरूचि को स्पर्श करते थे। सिनेमा के बैनर आम तौर पर सिनेमा थिएटर, बाज़ार, मेला आदि जगहों पर लगते थे जहाँ लोकसमूह होता, हुसैन का काफ़ी समय वहीं बैनर बनाने में बीत जाता। भड़कीले रंग, साफ़़ और स्पष्ट रेखा, गतिशील रंग-संयोजन आदि बैनर की आवश्यकताएँ होती हैं। इसी से ठोक-पीटकर हुसैन में रेखा, रंग और संयोजन की समझ आयी थी। एक अर्थ में यह लोककला का हिस्सा था, जो कि हुसैन के चित्रों की खासियत है। लोककला के इसी प्रभाव के कारण अनेक समीक्षकों को हुसैन और जामिनी राॅय के बीच आन्तरिक साम्य नज़र आता है। परन्तु पिकासो और जामिनी राॅय का हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं है। कुछ साम्य स्वभावतः है। यदि हुसैन पर किसी का प्रभाव है तो वह है भारतीय प्रतीकवाद का। इसी प्रभाव के कारण हुसैन अन्य किसी भी कलाकार की तुलना में अधिक भारतीय प्रतीत होते हैं।
महाराष्ट्र के पंढरपुर में जन्म और बचपन बीता, इन्दौर में होलकर मराठा रियासत में। बाद में मुम्बई आने पर सिनेमा और सिनेमा बैनर के बहाने प्रभात सिनेमा के ठेठ मराठीपन के प्रभाव में रहे। इसी कारण हुसैन को भारतीय नहीं, बल्कि ‘महाराष्ट्रीय’ या ‘दक्खिनी’ कलाकार कहना ज़्यादा सही होगा। उनकी ‘गजगामिनी’ फ़िल्म में भी यही बात प्रतीकात्मक ढंग से नज़र आती है। ‘पंढरपुर से निकली लड़की’-मुम्बइया बोली का यह वर्णन यानी उनकी ‘गजगामिनी’ की नायिका का पंढरपुर से निकलना और बनारस पहुँचना है। उनकी ‘गजगामिनी’ का रूप यानी नौ गजी साड़ी, सिर पर गठरी और पैरों में पैंजनी। अपनी काले रंग की साड़ी से तो वह अबीर रंग की यानी प्रतीकात्मक रुक्मिणी ही लगती है। इस तरह हुसैन अन्तर्बाह्य एक दक्खिनी कलाकार है।
मक़बूल फ़िदा हुसैन लोकमानस में एकाकार हो चुके थे और अपनी समकालीन घटनाओं की चित्रात्मक प्रतिक्रियाएँ तुरन्त देते थे। लातुर-सास्तुर का भूकंप हो, बाबरी मस्जिद गिरा देने की घटना हो अथवा इन्दिरा गाँधी की हत्या हो, हुसैन उन पर चित्र-शृँखला बनाकर अपनी तीखी प्रतिक्रिया देते थे। इसमें प्रतीकांे का इस्तेमाल होने के कारण वे चित्र केवल प्रसंग अथवा वर्तमान प्रतीत नहीं होते, बल्कि उनमें नाटकीयता आ जाती। प्रतीकों के प्रयोग से उनके चित्र भावाभाव की रहस्यपूर्ण रचना लगते हैं, जो उनकी ‘मदर टेरेसा’ चित्र-शृँखला में नज़र आता है। चित्र में मदर टेरेसा कहीं भी शारीरिक रूप में विद्यमान नहीं है, परन्तु केवल उचित प्रतीकों के कारण ही हम यह जान पाते हैं कि चित्र मदर टेरेसा का है।
हुसैन के चित्र में आयीं स्त्री प्रतिमाएँ उथली और आकर्षक कभी नहीं रहीं, वे सदैव आदर-युक्त देवी के रूप में ही आयीं। मदर टेरेसा और गजगामिनी में यह प्रतिमा खास तौर से नज़र आती है। हुसैन बचपन में ही अनाथ हो गये थे। ऐसा लगता है कि अपनी माँ को कभी देख न पाए इसलिए हुसैन सभी स्त्रियों में अपनी माँ को ही ढूँढ़ते हैं। उन्होंने अपने भीतर के इस कारुण्य को अन्त तक बनाए रखा है। यही कारुण्य उनका और उनकी चित्रनिर्मिति का प्रेरणास्रोत था। उनके नंगे पैरों के कारण यह और भी ज़्यादा तीव्रता से महसूस होता है।
हुसैन की सम्पूर्ण चित्रकला पर भारतीय काव्य परम्परा का गहरा प्रभाव है। चाहे घोड़ों की शृँखला हो या गजगामिनी, सभी में यह काव्यात्मकता नज़र आती है। उसमें भी ग़ालिब या कालिदास, कालिदास की काव्य प्रतिमा, प्रतीक तो हुसैन की प्रतीक शैली के लिए प्रेरक ही हैं।
हुसैन को अन्य कलाओं में भी दिलचस्पी थी। संगीत, नाटक, काव्य, मिथक आदि को तो उन्होंने अपने चित्रों का विषय ही बनाया ही था, परन्तु मराठी के ‘घाशीराम कोतवाल’ नाटक पर भी उन्होंने एक चित्रशृँखला प्रदर्शित की थी। समाज का कोई भी विषय हो, रेखा और रंग विशिष्ट हुसैन शैली के होने के कारण उनका साधारण विषय भी कलात्मक बन जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि कला का अपना कोई दर्शन नहीं होता। वह स्वतन्त्र होती है। हुसैन ने अनेक माध्यमों, तकनीकों में काम किया है, परन्तु अमूर्त होने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। अमृता शेरगिल, रामकिंकर बैज, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि का प्रयोजन अमूर्तीकरण होता था। हुसैन के बाद के कलाकारों की धारणा है कि अमूर्त ही ‘विशुद्ध’ कला है। असल चीज़ है, रंग, रेखा और आकार के जरिए अभिव्यक्त होना। हुसैन के रंग और रेखा में इतना सामथ्र्य था कि एक मामूली-सी रेखा से भी पता चल जाता था कि वह हुसैन की है। इस कारण अमूर्त के लिए कुछ और करने की उन्हें ज़रूरत ही नहीं थी। हुसैन ने किसी शैली, वाद या किसी भी प्रकृति से ख़ुद को नहीं जोड़ा। उनका लक्ष्य सामाजिक और सांस्कृतिक होता था। इसमें कलाएँ, परम्पराएँ, इतिहास आदि को अलग-अलग रूप में देखने की आवश्यकता ही नहीं होती। इसी कारण भारत की लोक-संवेदनाएँ जहाँ केन्द्रित हैं, वहीं हुसैन की दिलचस्पी होती थी। फिर चाहे बनारस हो या हैदराबाद हो; हिन्दी, मराठी, उर्दू हो या रामायण, महाभारत या मदर टेरेसा हो। हुसैन सम्भवतः भारत के एकमात्र चित्रकार हैं, जिनमें लोक संवेदनाओं के प्रति सम्मान का भाव है। हुसैन की सही आलोचना करना या उनके बारे में तर्क करना आलोचकों और रसिकों के लिए भी कभी सम्भव नहीं हुआ। इसी कारण हुसैन के बारे में विवाद होते रहे, परन्तु हुसैन ने कभी उनका प्रतिवाद नहीं किया।
श्वेताम्बरी ‘इन्स्टालेशन’ हो या ‘गजगामिनी’ का विवाद हो। ‘गजगामिनी’ के विवाद की परिणति यह हुई कि उनकी ‘मीनाक्षी’ फ़िल्म प्रदर्शित नहीं होने दी गयी। ‘श्वेताम्बरी’ प्रदर्शित करने पर जहाँगीर आर्ट गैलरी ने उनपर पाबन्दी ही लगा दी। लगता है, हुसैन की प्रतीकात्मक शैली कभी-कभी दुर्बोध बन जाती है और इसी कारण उसे ग़लत अर्थ में लिया जाता है।
दरअसल, ‘श्वेताम्बरी’ एक सुन्दर कलाकृति थी। जैन मत के दिगम्बर और श्वेताम्बर के सन्दर्भ में श्वेताम्बरी का अर्थ लगाने से पूरे प्रदर्शन का आशय स्पष्ट हो जाता है। अत्यन्त सादगी भरा प्रदर्शन - पूरी गैलरी में लय की दृष्टि से मात्र सफेद कपड़ा और ज़मीन पर अख़बार के कागज़ के टुकड़े। परन्तु उसका भाव, अनुभूति श्वेताम्बर साध्वियों तक जा पहुँचती है। नंगे पैर चलने का अहसास हो, इसलिए कागज़ का इस्तेमाल। संवेदना का मामला दर्शकों की अनुभूति पर सौंपा हुआ। परन्तु हमेशा से ज़रा हटकर अनुभव प्राप्त करना यहाँ के रसिकों के लिए असम्भव था। ऊपर से हमेशा की तरह प्रतीकात्मक रचना और हुसैन का नज़ाकत भरा आत्मचित्रण।
प्रतीकात्मकता इस देश की विशेषता है। रामायण, महाभारत, एलोरा, अजन्ता आदि आभिजात्य कलाएँ, साहित्य और अनेक देसी परम्पराएँ प्रतीक रूप में ही तो अभिव्यक्त होती हैं! हुसैन ने ऐसी ही लोकसंवेदनाएँ, व्यक्तिगत अहसास, गंगा, यमुना, सरस्वती, बनारस, पंढरपुर जैसी अमूर्त संवेदनाएँ और छाता, दिये, घोड़े जैसी मूर्त संवेदनाओं को प्रतीकात्मक रूप में अभिव्यक्त किया। लोक परम्परा से लेकर आभिजात्य परम्परा तक का विशाल फलक हुसैन का विषय था। भौतिक परम्परा की तुलना में काव्यशास्त्र, कला-परम्परा को हुसैन ने ज़्यादा तरज़ीह दी। इसी कारण भारतीय अथवा स्वदेशी की बजाय वे देश के ठेठ ‘देसी’ चित्रकार अधिक लगते हैं।
उनकी प्रतीकात्मकता का लोगों ने ग़लत अर्थ लगाया। इस कारण उनका व्यक्तिगत जीवन हमेशा विवादों से भरा रहा। आखिरकार, अपना ही देश त्यागने के लिए उन्हें विवश होना पड़ा और अन्त में करुण स्थिति में विदेश में ही उनका निधन हो गया।
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वासुदेव गायतोण्डे
(1924-2001)
आज़ादी पूर्व स्वदेशी आन्दोलन भारतीय परम्परा के अनुसरण के साथ-साथ औद्योगिकीकरण का विरोध भी करता था। मशीनी उत्पादन की बजाय मानव निर्मित उत्पादन के प्रति उसका आग्रह अधिक हुआ करता था। संक्षेप में, स्वदेशी आन्दोलन को भारतीय कारीगरी परम्परा से जोड़ने का यह प्रयास था क्योंकि भारत की अनेक कारीगरी परम्पराओं से यहाँ की आभिजात्य कलाओं का जन्म हुआ है।
भारतीय आभिजात्य साहित्य का जन्म भी मौखिक साहित्य परम्परा से हुआ है। इसी प्रकार कारीगरी परम्परा यहाँ के आभिजात्य वास्तुशिल्प का मूलाधार था। इस कारीगरी को ही राजाश्रय प्राप्त हुआ, जिसके परिणामस्वरूप उन्नत कारीगरी के अनेक नमूने यहाँ दिखायी देते हैं। भारतीय परम्परा में कला और कारीगरी में अन्तर नहीं था।
कारीगरी में एक लघु-विज्ञान, उसकी एक अंगभूत तकनीक होती है। साहुल लटकाकर भूमि से 90 डिग्री का कोण बनाते या परत पर परत चढ़ाते समय कारीगर को भूमिति के साथ-साथ गुरुत्वाकर्षण का भी ज्ञान होता है। मिट्टी के लोंदे को आकार देने के लिए गति शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता होती है। धागों की बुनाई में विशिष्ट तनाव से बुनाई मज़बूत बनती है। अतः इस भूमिति और गति का अहसास, तनाव, गुरुत्वाकर्षण आदि भीतरी विज्ञान का बोध कारीगर को होता है।
इस निर्मिति निरन्तरता के कारण ही कारीगर निर्मिति में एकाकार हो जाता है। दरअसल, कारीगर के मन में निर्मिति का एक ‘माॅडेल’ पहले से बसा होता है। इसी माॅडेल के द्वारा उसकी कल्पित संवेदनाएँ आकार धारण करती हैं। कल्पना और संवेदना से निर्मित यह वस्तु या वस्तुकला ही कारीगरी अथवा कलाकृति होती है। लौकिक वस्तु में कुछ अलौकिक गुणों का नज़र आना ‘दर्शन’ की अनुभूति है। इसीलिए कारीगरी और भक्ति दोनों समान्तर परम्पराएँ हैं।
संक्षेप में, भारतीय परम्परा के लिए अमूर्तन की अवधारणा नयी नहीं है। इसका अहसास इस कारीगरी की तकनीक, विज्ञान और अध्यात्म से हो जाता है। विज्ञान-अध्यात्म का अहसास अमूर्त ही होता है। ऐसे मूर्त-अमूर्त, सगुण-निर्गुण, द्वैत-अद्वैत की परम्परा मौखिक साहित्य और कारीगरी में एकसमान है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद औद्योेगिकीकरण को अत्यधिक महत्व प्राप्त हुआ। भौतिक आवश्यकताओं की आपूर्ति के लिए सभी क्षेत्रों में औद्योगिकीकरण में वृद्धि हुई, जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ गयी। औद्योेगिकीकरण में निर्मिति चाहे मशीनी हो, परन्तु वहाँं भी कारीगरी की तकनीक का उपयोग किया गया। इसीलिए कारीगरी और औद्योेगिकीकरण में कुछ बुनियादी बातें एक समान हैं। अतः औद्योेगिकीकरण से कला भी प्रभावित हुई है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी में स्थापित ‘बाऊहाऊस’ कला और औद्योेगिकीकरण में मेल करानेवाली कलासंस्था थी। कुल मिलाकर विश्वयुद्ध के दौर का घनवाद और उसके बाद ‘बाऊहाऊस’ की औद्योगिक कला के कारण विश्वभर की कला में भौमितिक आकार का प्राबल्य बढ़ गया। पिकासो के चित्र में घनवादी शैली के साथ-साथ अफ्रीकी आदिवासी शिल्प का भी प्रभाव है। ये शिल्प प्राकृतिक होकर भी स्वभावतः भौमितिक आकार में थे। इस तरह आदिम और आधुनिकता के मेल के कारण ही पिकासो एक आभिजात्य चित्रकार बनता है।
भौमितिक आकार एक अमूर्तन की ही स्थिति है। इसलिए भौमितिक आकार की कला क्रमशः अमूर्तन में ही उपलब्ध होती है। वैश्विक कला के साथ-साथ भारत में भी भौमितिक आकार का अनुसरण किया गया। भारत के कलाकार उसका एक शैली के रूप में प्रयोग करते थे। यहाँ के परम्परागत विषय और भौमितिक शैली के कारण यहाँ की आलंकारिक शैली को भौमितिक शैली के रूप में तुरन्त एक विकल्प मिल गया और आलंकारिक शैली का पूरी तरह से ह्रास हुआ।
भारतीय कला के इस परिवर्तन में चित्रकार वासुदेव गायतोण्डे ने अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। उन्होंने अलंकार शैली से हटकर भौमितिक शैली में काम शुरू किया। बाद में वे पूर्णतः अमूर्तवादी बन गये। वासुदेव गायतोण्डे ने जर्मन चित्रकार पाॅल क्ले के चित्रों का अध्ययन करने के उपरान्त भौमितिक शैली अपनायी थी। पाॅल क्ले ‘थियोसोफ़िक’ विचारधारा के थे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का आध्यात्मिक विचार- यही उसका स्वरूप है। यह विचारधारा भारतीय कारीगर परम्परा के समान होने के कारण गायतोण्डे को भी यह अपनी लगी होगी। व्यक्तिगत रूप से भी गायतोण्डे आध्यात्मिक प्रकृति के थे।
गायतोण्डे चिन्तक भी थे, जो अपने स्टूडियो के बाहर समुद्र के किनारे घण्टों विचारों में डूबे रहते। नज़रों के सामने बस समुद्र और ऊपर आकाश - तरल प्रकृति के अलावा सामने झाड़-झंखाड़ों की जड़वादी प्रकृति भी नहीं। ऐसी तरल प्राकृतिक निरन्तरता से भौमितिक आकार के चित्र शिथिल होकर पूरी तरह से बदल गये और प्रकृति सामने के रूप में अनिवार्यतः रूपान्तरित होकर चित्र की शैली बदल गयी। ‘फार्मलेस’ यानी चित्र ने निराकार रूप धारण कर लिया। भूरे रंग का आकाश, भूरे रंग का समुद्र, बीच में धुँधला-सा क्षितिज, उसे काटनेवाली कुछ रेखाएँ। आकाश और समुद्र के एकत्रित अवकाश का यह ‘पिक्टोरियल’ भी निगुण-निराकार।
वासुदेव गायतोण्डे ये चित्र देखकर ब्रिटिश चित्रकार जाॅन टर्नर (1775.1851) की याद आती है। टर्नर ने अपनी अधिकांश ज़िन्दगी समुद्र के किनारे बैठकर चित्र बनाने में ही व्यतीत की। समुद्र और आकाश - यही टर्नर के चिन्तन का विषय था। बाद में गति के प्रति भी उसे आकर्षण हुआ। समुद्र में आकाश का प्रतिबिम्ब, आकाश की रंगछटाएँ और उसी की पुनरावृत्ति क्षितिज पर! टर्नर को आकाश और समुद्र के बीच की रंगछटाओं के प्रति आकर्षण था। न्यूटन ने प्रकाश का पृथक्करण कर रंगों का अस्तित्व प्रमाणित किया था। प्रिज़्म से प्रकाश का पृथक्करण करने पर जो सात रंग आये, वे इन्द्रधनुष जैसे ही थे। यही है अवकाश का रंगशास्त्र। टर्नर के चित्रों का ऐसा ही विश्लेषण जाॅन रस्किन (1891-1900) ने किया है। रस्किन को इस प्रकृति चित्र में भी रंगशास्त्र मिल गया। न्यूटन के विश्लेषण की तुलना में इस रंगशास्त्र का पृथक्करण अलग था। इस रंगक्रम में पहला रंग पीला था। न्यूटन के रंगक्रम में लाल रंग पहले आता है। अवकाश का रंग और सतह का रंग क्रम बदल देता है। सतह द्विमिति की होती है। रंगों की इस मिति का बोध टर्नर के चित्रों का एक सिद्धान्त भी था।
गायतोण्डे केवल ‘रूप’ चाहते थे। सम्भवतः भौतिक रूपाकार के उस पार अवकाश में आकार ढूँढ़ने का उनका प्रयास था। आकाश-समुद्र टर्नर का ‘माॅडल’ था और गायतोण्डे का भी। खोज का अहसास अलग। यानि दर्पण ही दर्पण में देख रहा है। वासुदेव गायतोण्डे के विश्लेषण का प्रयास करे तो सन्त ज्ञानेश्वर के ‘अमृतानुभव’ ग्रन्थ की याद हो आती है। टर्नर, गायतोण्डे, न्यूटन, गैलिलियो, ज्ञानेश्वर आदि के आयामों से सिद्धान्त का और अनुमानों से अमूर्तन का अहसास होता है।
वासुदेव गायतोण्डे चित्र में ज़रा-सी भी हरकत नहीं चाहते थे। उन्हें रंगों का भी आकर्षण नहीं था। आकाश और रंग को पृथक कर निरभ्र निर्गुण आकाश और उसके प्रतिबिम्ब के साथ समुद्र। मानो दर्पण ही दर्पण में अपना रूप देखे। इसी कारण उनके चित्र भूरे रंग के हैं। टर्नर और वासुदेव गायतोण्डे के इन निराकार चित्र को देखकर और उनका विश्लेषण करने पर हम न्यूटन, गैलिलियो और ज्ञानेश्वर के विज्ञान और आध्यात्मिक विचारों तक पहुँच जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि विज्ञान और अध्यात्म के स्वभाव में अमूर्तता है।
गैलिलियो और न्यूटन ने जिस प्रकार भौतिक वस्तुओं के जरिए ये आविष्कार किये हैं, उसी प्रकार भौतिक कारीगरी में भी ऐसी अमूर्त संवेदनाएँ हैं।
वासुदेव गायतोण्डे जब रंगों का विचार करते हैं, उनके रंग-संयोजन में ऐसा ही तरल अहसास होता है। किसी विषय वस्तु से वे रंग नहीं लेते, बल्कि रंग ‘मात्र रंग’ के रूप में उनका आविष्कार होता है। गायतोण्डे का चित्र में रंग भरना एक क्रिया नहीं, बल्कि वह एक प्रक्रिया है ठीक वैसी, जिस प्रकार प्रकृति में रंग अथवा रंग परिवर्तन की प्रक्रिया है। नारंगी, हरा अथवा पीला बनकर ही पत्ता पेड़ से झरता है। अथवा हरे रंग पर लाल फूल विरोधी रंग का होकर भी सुन्दर दिखता है। इस तरह यह एक भीतरी रंग-प्रक्रिया है। इसी कारण गायतोण्डे अपने चित्र में रंग और रंग लेपन की प्रक्रिया करते हैं। इसके लिए उन्होंने स्वतन्त्र तकनीक को नये सिरे से ढूँढ़ा है।
गायतोण्डे जब रंगों का अध्ययन या रंगों का अनुभव करते, तब चित्र की पुस्तक को उल्टा घुमाकर देखते। विशेषतः लघुचित्र की पुस्तक को। चित्र को उल्टा घुमाने से विषय-वस्तु के अनुसरण से आये रंग अपने आप ही स्वतन्त्र हो जाते हैं। गायतोण्डे को यह रंगानुभव स्वतन्त्र रूप से लेना होता है। गायतोण्डे की यह तकनीक बिल्कुल अमृता शेरगिल के चित्र देखने के ढंग से जा मिलती है। अमृता भी चित्र पूरा होने के बाद उसे उल्टा कर यानी ऊपर का हिस्सा नीचे कर देखा करती। फिर कुछ रंगों में बदलाव करने के बाद ही उसका चित्र पूरा हो जाता। गायतोण्डे इन रंगों की ओर विषय-वस्तु अथवा रंग-संयोजन के रूप में नहीं बल्कि ‘कलर स्ट्रक्चर’ की दृष्टि से देखते। इसी कारण गायतोण्डे के चित्रों के रंग, रंग नहीं लगते, बल्कि उस कलावस्तु की त्वचा लगते हैं।
रंग-संयोजन प्रक्रिया से गायतोण्डे के चित्र में आकारों की उपलब्धि होने लगती है। ये आकार यानी अलग अलग रंगों के अंग ही हैं। वे आकारों को अलग से बनाकर रंग नहीं भरते थे, बल्कि रंग-विभाजन में जो रूप बनेगा, वही उनके चित्र का आकार बन जाता था। यानी गायतोण्डे अपने चित्र में ही आकार की खोज करते थे। मानो आकार अवकाश से ही खोद निकाला हो। अवकाश से ही आकार ग्रहण करने के कारण उस आकार का अपना अस्थिशास्त्र बनता है। इसीलिए इस आकार में उल्टे-सीधो, ऊपरी-निचले पहलू नहीं हैं। ऐसे पहलू का अहसास भौतिक वस्तु में है। इन आकारों को दिशा का बोध है। दिशाएँ अवकाश की ही मितियाँ हैं। इन मितियों में ही आकार होने के कारण वे अमूर्त लगती हैं। ऐसे कई आकारों के समूह सजातीय, विजातीय, परस्पर आकर्षण में आने से उनमें तनाव, सन्तुलन, लय बनती है। इस संयोजित रचना से सम्पूर्ण चित्र में एक सांगीतिक लय उत्पन्न होती है।
गायतोण्डे के चित्र में बुनावट एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पहलू है। यह बुनावट सच्छिद्र त्वचा जैसी सम्पूर्ण चित्र में होती है। इस कारण सम्पूर्ण चित्र में धड़कन का अहसास होता है। इस धड़कन के कारण चित्र सजीव होने का आभास देता है। त्वचा, रंग और स्पर्श को अलग नहीं कर सकते। साथ ही गायतोण्डे के चित्र यह भी अनुभूति कराते हैं कि उनके रंग, आकार, बुनावट अलग नहीं हैं।
वासुदेव गायतोण्डे की चित्र निर्मिति में खड़ा मध्य माना हुआ होता है। बाद में आकार, रंग, बुनावट की रचना से सम्पूर्ण चित्र सन्तुलित अथवा विसन्तुलित रूप में पूर्ण होता है। गायतोण्डे की यह रचना वनस्पतिशास्त्रीय लगती है। कोई भी वनस्पति जब ऊपर की ओर बढ़ती है, तब उसकी शाखा का विस्तार सन्तुलित या विसन्तुलित रचना में ही होता है।
लेखन में हुई ग़लतियों की काटापीटी के कारण बने आकारों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को आशय मिलता था, उसी प्रकार गायतोण्डे भी कुछ अंकन करते थे। यह अंकन यानी प्रत्यक्ष वर्ण नहीं थे, परन्तु वर्णों के अवयव के रूप में इस्तेमाल होनेवाली मात्राएँ, छोटे-बडे़ इकार, उकार जैसे आकारों की क्रमबद्ध रचना होते थे। यह रचना ऐसी सुलझी हुई होती थी कि इस कारण वह ‘वर्णमाला की सारणी’ ही लगती। बाद में गायतोण्डे के ये लिपि जैसे आकार अलग-अलग मोड़ों, लयों से अलग रूप धारण करते और आखिरकार वासुदेव गायतोण्डे के चित्र ‘ज़ेन’ मुनि के चित्रों जैसे लगने लगते। दरअसल, ‘ज़ेन’ जापान का एक दार्शनिक सम्प्रदाय है। ये लोग कैलिग्राफ़िक विधि से साधना करते थे। गायतोण्डे के ये चित्र उस रूप के साथ मेल खाते हैं।
कुल मिलाकर भारतीय अमूर्तता और पश्चिमी अमूर्तता, दोनों में दृष्टिकोण का अन्तर है। यद्यपि उसकी ‘पिक्टोरियल भाषा’ एक है, फिर भी पश्चिमी अमूर्त कला विज्ञाननिष्ठ होने के कारण उसका एक सैद्धान्तिक दृष्टिकोण है। भारतीय अमूर्तता अध्यात्मनिष्ठ और असीम है। वासुदेव गायतोण्डे के चित्र भी इस तरह सैद्धान्तिक न होकर ‘असीम’ हैं।
भारतीय संस्कृति पूर्वजन्म पर विश्वास करती है। अतः इस अवधारणा से जिस तरह अनेक मिथक, कथा, पुराणों की रचना हुई है, उसी तरह चित्र, शिल्प और वास्तु की भी रचना हुई है। मिस्र की संस्कृति से लेकर सिन्धु संस्कृति तक इसके अवशेष मौजूद हैं। विश्व की आदिवासी कलाएँ भी कुछ ऐसी ही विधि अवधारणा से जन्मी हैं। भारतीय आदिवासी कलाएँ विधिचिह्नों के प्रतीकों से तैयार हुई हैं। मध्य प्रदेश की पहाड़ी-कोरवा जनजाति लोगों की धारणा है कि उनके पूर्वज भूमि पर कुछ लिखावट के चिह्न, निशान बनाकर अपने रिश्तेदारों से मरणोत्तर संवाद करते थे। परन्तु बिना किसी वर्ण के भी समान वर्ण, आकार की रचना होती है। यानी वर्णों की काटा-पीटी से रवीन्द्रनाथ ठाकुर में आया आकार का बोध अथवा वर्ण सादृश्य आकारों की गायतोण्डे द्वारा की गयी खोज या आदिवासियों की पुरातन परम्परा से आयी विधि का वर्ण रूप, आदि के चित्रण की परम्परा एक ही है। इसीलिए चाहे अमूर्त हो या भौमितिक हो, या फिर इस तरह वर्णमाला लिपि रूप की संरचना हो - एक ऐसी विशाल परम्परा है जो आदिमता और आधुनिकता को जोड़ती है। आज के समकालीन रूप में वासुदेव गायतोण्डे की कला इसी परम्परा को प्रवाहित रखती है।
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जगदीश स्वामीनाथन
(1928-1994)
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प्रत्येक कला का अपना परिवेश होता ही है। हर कला पर सम्बन्धित परिसर के निशान स्वभावतः अंकित हो जाते हैं। घटित हो चुका इतिहास फिर से भूगोल पर अंकित निशानों में जीवित रहता है। इसी प्रक्रिया से परम्परा से परिचय होता है। इतिहास जैसे-जैसे पीछे की ओर जाता है, वैसे-वैसे ये निशान धुँधले होते-होते नष्ट हो जाते हैं। परन्तु कुछ पुराणकथाएँ, कथाएँ और मिट्टी में दबी वस्तुओं से इतिहास के इतिहास का बोध हो ही जाता है।
सबकुछ ज़मीन पर ही घटित होता हो, ऐसा भी नहीं है। अन्तरिक्ष के ग्रह, तारे, नक्षत्र आदि का भी असर यहाँ के जीवन पर होता है। भूगोल और खगोलशास्त्र दोनों परस्पर नियन्त्रित होते हैं। इसी से भारतीय गणितशास्त्र की कुछ शाखाएँ और भारतीय मिथकों की रचना हुई है। भूगोल और भौगोलिक वस्तु की मिति से उपजी भूमिति और अन्तरिक्ष के ग्रह, तारे, नक्षत्र आदि की ऊर्जा से तैयार होनेवाली अन्तरिक्ष की मितियाँ संरचना की दृष्टि से एक समान हैं। भौतिक वस्तु से उत्पन्न भूमिति मूर्त रूप में होती है और अन्तरिक्ष की मिति अमूर्त रूप में।
पृथ्वी के भीतर की गुरुत्व शक्ति और पृथ्वी के अक्षांश-रेखांश का न्यूनाधिक दबाव, नक्षत्र-तारों की गतिविधियाँ, उनकी ऊर्जा आदि के कारण सम्पूर्ण सृष्टि में कुछ रहस्यमयी घटनाएँ घटित होती हैं। इस रहस्य को खोजने का प्रयास प्राचीन काल से हो रहा है। हमारी परम्परा के अनेक सम्प्रदाय अपने-अपने ढंग यह खोजबीन कर रहे हैं। वैदिक परम्परा और उसे नकारनेवाली अनेक नास्तिक परम्पराओं का अपने-अपने ढंग से अर्थ लगाकर उन्होंने सृष्टि-रचना शास्त्र पर विचार किया है।
भारतीय परम्परा में जटिल और रहस्यवादी प्रकृति की तन्त्र-परम्परा का महत्वपूर्ण स्थान है। यह परम्परा प्रस्थापित वैदिक परम्परा को नकारती है। वैदिक परम्परा के लिए जो बातें त्याज्य हैं, उन्हीं का अनुसरण करनेवाला हठयोग, शिवशक्ति, प्रकृति और पुरुष, लिंगपूजा, कुछ मन्त्र-तन्त्र, साधना, योग आदि इस परम्परा के प्रमुख लक्षण हैं।
आदिवासी, वैदिक, द्राविड़ी, राक्षसी, पिशाची, तान्त्रिक आदि परम्पराएँ एक ही भारतीय परम्परा की उपपरम्पराओं से उत्क्रान्त हुई हैं। अतः उन्हंे पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता। इसीलिए भारतीय परम्परा की वास्तुएँ, शिल्प, चित्र आदि में इन सारी परम्पराओं के सांस्कृतिक द्रव्य मिले हुए हैं। फिर भी अध्ययनोपरान्त कुछ अन्तर दिखायी देता है।
शिवशक्ति और प्रकृति-पुरुष की अवधारणा से आया शिवलिंग शिल्प, नटराज, वास्तु-रचना के जन्तर-मन्तर, काली, कालभैरव, ताण्डव आदि इसी तान्त्रिक परम्परा से आये हैं। खजुराहो, कोणार्क और अनेक हिन्दू मन्दिरों में स्थित मैथुन शिल्प भी सम्भवतः इसी लिंगपूजा का हिस्सा होंगे। भारत के आधुनिक चित्रकार खुद को परम्परा से जोड़ते-जोड़ते कुछ मिश्रित परम्पराओं से भी जुड़ गये हैं। कुछ चित्रकारों ने उसमें से किसी एक ही परम्परा पर अलग से विचार किया है। आधुनिक कला में तान्त्रिक परम्परा से जुड़नेवाले भारतीय चित्रकारों की तान्त्रिक आर्ट नामक एक शैली विकसित हुई, जिससे कुछ तान्त्रिक चित्रकारों का दल भी बन गया। के. सी. एस. पणिक्कर, जी. आर. सन्तोष, बिरेन डे, प्रफुल्ल महन्त आदि ने खुद को साफ़़-साफ़़ तान्त्रिक परम्परा से जोड़ लिया, जबकि एस. एच. रज़ा, जयराम पटेल, प्रभाकर बरवे और अनीश कपूर की कला में भी तान्त्रिक आयाम दिखायी देता है।
आदिवासियों में तान्त्रिक परम्परा मिश्रित रूप मंे है। यह बात आदिवासी चित्रों के खोजकर्ता भास्कर कुलकर्णी और आदिवासी लोगों में से एकाकार हुए चित्रकार जे. स्वामीनाथन के विचारों और क्रियाकलापों में साफ़़-साफ़़ दिखायी देती है।
स्वाधीनता के बाद देश में कम्युनिस्ट विचारों की एक नयी लहर आयी। बुद्धिजीवी वर्ग और अनेक कलाकार तथा लेखक इससे प्रभावित हुए। चित्तोप्रसाद भट्टाचार्य, एफ़. एन. सूज़ा और जे. स्वामीनाथन आदि चित्रकार तो पूर्णतः इसी विचार-आन्दोलन में सक्रिय थे। इसलिए स्वामीनाथन के इस दौर के चित्र सामान्यतः मज़दूर, मेहनतकश और कुछ राजनैतिक विषयों से प्रेरित थे। इस दौर के चित्र चित्तोप्रसाद भट्टाचार्य के चित्रों की तरह थे। एक समविचारी चित्रकार के रूप में यह स्वाभाविक भी है।
जे. स्वामीनाथन मात्र पारम्परिक चित्रकार नहीं थे। अपने तीव्र अनुभवों के कारण उनके चित्रों में ही नहीं, बल्कि उनके जीने की शैली में भी बदलाव आया था। अतः उनकी जीने की शैली बदलते ही उनके चित्रों की शैली भी बदल जाती थी। कई बार ये शैलियाँ परस्पर विरोधी बन गयी हैं। इसी कारण स्वामीनाथन की कलायात्रा एक सीधी रेखा की तरह नहीं है। उसमें साफ़़-साफ़़ बदलाव देखे जा सकते हैं।
किसी बाह्य विचार की अपेक्षा अनुभव पर ही विश्वास करनेवाले स्वामीनाथन आन्दोलन से अलग हो गये और उन्होंने अपना पूरा समय चित्रकला पर केन्द्रित किया। परन्तु पारम्परिक चित्रकार के रूप में नहीं। अनुभव का अन्वय चित्र में अंकित करने के लिए एक ही परिवेश में विचरण करना आवश्यक होता है। परन्तु स्वामीनाथन के विचरण का एक ही विशिष्ट परिवेश नहीं था। भारत भर में भ्रमण करनेवाले स्वामीनाथन के चित्र में इसी कारण अलग-अलग परिवेश का ब्यौरा आता गया।
पहाड़, पेड़, पक्षी आदि स्वामीनाथन के चित्र के अनिवार्य तत्व हैं। उन्होंने हमेशा इसी प्रतिमा से अलग-अलग रचनाएँ की हैं। रचना की विशिष्टता से उनका आशय बदलता रहा है। तत्व को बरकरार रखकर भी आशय बदलने का कारनामा तब होता है, जब अन्वय का पूर्ण बोध हो। अन्वय स्वामीनाथन का विशेष गुण था।
दरअसल, पहाड़, पेड़ अथवा पक्षी आदि कभी अकेले, एकाकी रूप में नहीं होते। पहाड़ों की कतारें, झाड़ियाँ, पक्षियों के समूह; इस तरह उनका जीवन प्राकृतिक होता है। इनमें से एक-एक तत्व को लेकर ही चित्र की रचना की जाती है। पेड़, पहाड़, पक्षी आदि एक ही क्षितिज पर नहीं होते, बल्कि प्रत्येक का अपना अलग क्षितिज होता है। उनमें परस्पर निर्भरता नहीं होती। ये तत्व यथार्थ होकर भी सपने जैसे लगते हैं। स्वामीनाथन की रचना कभी-कभी अतिवास्तव जैसी लगती है। प्रकृति होकर भी प्रकृति चित्र नहीं लगता, बल्कि सृष्टि रचना के बारे में कथन लगता है।
पहाड़ से पृथ्वी की, पक्षी से आकाश की, रंग से अग्नि या तेज की और पेड़ से वायु की, इस तरह सृष्टि रचना शास्त्र के बुनियादी तत्वों की प्रतीकात्मक रचना लगती है। इस कारण पर्वत, पेड़ और पक्षी आदि तत्व अलौकिक और सर्वव्यापी साबित होते हैं।
विशाल अन्तरिक्ष, तीव्र ऊर्जा के लिए बार-बार आता पीला रंग, उचित जगह पर नियोजित पक्षी, वृक्ष, पहाड़ की रचना, ग्रह-तारों की तरह चुम्बकीय आकर्षण से परस्पर नियन्त्रित करनेवाला अमूर्त आकर्षण, जिससे समय का बोध होता है। इस कारण ये सभी चिरन्तन तत्व होने के बावजूद एक जटिल और रहस्यमयता का आभास होता है।
तान्त्रिक दर्शन में ‘काल’ महत्वपूर्ण होता है। इसी कारण काल-महाकाल, काली-महाकाली आदि उनके देवी-देवता हैं। इस काल के बोध से ही जे. स्वामीनाथन के चित्र भीतर इस तरह के तान्त्रिक तत्व लगते हैं। सरल, सीधी रचना; हमेशा के ही तत्व फिर भी ‘मन्त्रमुग्ध’ लगते हैं।
ब्यौरेवार रंगों में संयोजित पहाड़, पेड़, पक्षी आदि तत्व, द्विमिति में रंगाया गया आकाश आदि के कारण समान्तर रचना के उनके ये चित्र लघुचित्र से प्रभावित लगते हैं। रंग-संयोजन, तकनीक की दृष्टि से ये चित्र पहाड़ी, बसोली लघुचित्र के क़रीब पहुँच जाते हैं।
काव्य-बिम्बों की तरह चित्र के आकार और सांगीतिक लय की तरह रंगबोध - इस तरह काव्य और सांगीतिक रचना भारतीय लघुचित्र की खास विशेषताएँ हैं। शास्त्रीय संगीत में समय-असमय के बारे में बहुत सावधानी बरती जाती है। सुबह, शाम, रात के लक्षणों की विशिष्ट रागदारीपूर्ण रचनाएँ होती हैं। प्रकृति का बोध संगीत में एकाकार हो, इसीलिए यह समय-असमय की सावधानी आवश्यक है। यह ‘समय’ भी शास्त्रीय संगीत का एक अहम हिस्सा है। जे. स्वामीनाथन की इस चित्रशृँखला में नीरवता बोध होने के कारण वे लघुचित्र के क़रीब प्रतीत होते हैं।
शास्त्रीय संगीत में प्रकृति के बदलते रूपों का, ऋतुओं का, समय-असमय का, उससे उत्पन्न रस-भाव उत्पत्ति का सूक्ष्म ब्यौरे से लक्षणों का निर्माण होता है। इस तरह अलग-अलग प्रकृति के लिए उसके अनुरूप सांगीतिक राग-रागिनियाँ और लक्षणों से उनकी रचना बनती है। लघुचित्रों ने भी इसी शास्त्रीय सूत्र का, लक्षणों का आधार लिया है। इस कारण इसमें आनेवाले रंग सीधो प्रकृति के अनुरूप नहीं आते बल्कि शास्त्रीय संगीत के लक्षणों के सहारे आते हैं। इसी कारण उसमें सांगीतिक रंग होता है। परन्तु स्वामीनाथन के चित्र के रंग इस तरह ठेठ प्रकृति के अनुरूप न होकर भी उन्हें सांगीतिक लय प्राप्त है।
इस चित्र-शृँखला में व्याप्त सुप्त तान्त्रिकता का बोध जे. स्वामीनाथन के अगले चरण के चित्रों में स्पष्ट होता है। चित्र के प्राकृतिक तत्व - पहाड़, पेड़, पक्षी आदि विलुप्त होकर उसके स्थान पर कुछ रहस्यमय प्रतीक और चिह्न आते हैं। पूरे चित्र की गठन भूरी बन जाती है। पहला चित्र पूरी तरह से बिखर जाता है और उसकी पुनर्रचना होती है। मानो दुबारा की जानेवाली शुरूआत हो। पहले चित्रों की तान्त्रिक रचना से पूर्णतः अलग फिर भी भीतर से संलग्नता बोध बना रहता है। वह ‘तान्त्रिक’ बोध इस चित्र में अधिक स्पष्ट और मुखर हो उठता है।
जीवन के तीव्र अनुभव और जीवनशैली में आये बदलाव के कारण कला की शैली भी बदल जाती है। जे. स्वामीनाथन इस दौर में आदिवासी जीवन के साथ एकाकार हो गये थे। उनका पूरा परिवेश ही बदल गया था। इस आदिवासी जीवन में तीव्र जादुई अनुभवों की प्राप्ति के कारण उनकी सारी प्रतिबद्धताएँ बदल गयीं। आदिवासियों के जीवन में श्रद्धा का अहम स्थान है। ये श्रद्धाएँ अमूर्त होती हैं, अतः उन्हें अन्धविश्वास कहकर आसानी से खारिज भी किया जा सकता है। परन्तु आदिवासियों की इसी गहरी श्रद्धा से उनका कला-सर्जन होता है।
श्रद्धा-मूल्य के कारण ही आदिवासी समुदाय अपनी आदिम सांस्कृतिक कला-विरासत को बरकरार रख पाये हैं। स्वामीनाथन को इसका तीव्र बोध हुआ और उन्होंने भी ख़ुद को इस आदिम परम्परा से जोड़कर उस सांस्कृतिक विरासत को अपने सर्जन का अंग बना लिया। स्वामीनाथन ने इसी सोच से खुद को इस आदिमता के साथ जोड़ा कि मानववंशशास्त्र, समाजवंशशास्त्र और सांस्कृतिक वंशशास्त्र के साथ जुड़कर ही हम अपनी कला को स्वस्थ रख सकते हैं।
समय और पर्यावरण के असर से सनातन अथवा पुरातन वस्तु की बुनावट जैसी बनती है, वैसी बुनावट स्वामीनाथन के चित्रों का प्रमुख तत्व बन गया है। इन चित्रों में समय बाह्य रूप में भी प्रकट हुआ है। चाहे चित्र की शैली, तकनीक, आशय बदल जाए, लेकिन ‘समय’ चित्र में अनिवार्यतः अवतरित होता है। ब्यौरे के अंकन की शैली स्थूल हो जाती है। काव्य, प्रतिमा, रंग विलुप्त होकर चित्र में आनेवाले आकार तथा स्वयंभू की तरह रेखाओं की स्थापना की जाती है। इससे चित्र के सर्जन का नहीं, बल्कि उसके अवतरित होने का आभास होता है।
मुक्त, खुरदरी, फिर भी भौमितिक आकार की रेखाएँ, त्रिकोण-चैकोन के आकार, रेंगनेवाले साँप जैसे कुछ निशान, भूरा रंग, खुरदरी-सी भूरी रेखा, ऊबड़खाबड़ गठन आदि के कारण ये चित्र रूद्र और भैरव रूप प्रतीत होते हैं।
अनेक रंगों की पर्तें आने से कुछ चिह्न, प्रतीक, बिम्ब और रेखाएँ धूमिल बनती हैं और कुछ मुखर हो उठती हैं। इससे ये चित्र अधर््ा-पारदर्शी, पारदर्शी प्रतीत होते हैं। इससे एकसाथ ही खुरदरापन और पारदर्शिता की तरलता अनुभव होती है।
चित्र में आनेवाले चैकोन, त्रिकोण आदि आकार मानक नहीं, मुक्त हैं। ये भौमितिक आकार वस्तुनिष्ठ भूमिति से नहीं आये हैं, बल्कि अलग-अलग ऊर्जा के अहसास से उत्स्फूर्त रूप में आये हैं। भौमितिक आकार, कुछ चिह्न, निशान, प्रतीक आदि से ये चित्र अभिमन्त्रित-से लगते हैं। इसी कारण दुबारा तान्त्रिक बोध स्पष्ट होता है।
ये चित्र पुरातन और अनामिक भित्तीचित्र के अवशेष की तरह हैं। ये रचना ऐसी होती है, मानो उत्क्रान्त होते आये आज के जीवन की मूल स्थिति हो। लगता है, स्वामीनाथन ने यह सफ़र उल्टा करके अपने ही सर्जन की आदिम जड़ें खोलकर दिखा दी हैं।
यहाँ के आदिवासियों को मिलाकर ही यहाँ की परम्परा बहुवंशीय बनती है। हमारी परम्परा में एक के ऊपर एक अनेक पर्तें हैं। एकसाथ वह मुण्डा होती है, द्राविड़ी होती है, राक्षसी होती है, पैशाची होती है, तान्त्रिक होती है और आर्य भी होती है। ये सारी संस्कृति, परम्पराएँ भारतीय होने के नाते देसी हैं। इस परम्परा से जुड़ने हेतु किया गया अनेक शैलियों का सफ़र अन्ततः आदिम रूप तक पहुँच जाता है। उसमें कई सांस्कृतिक द्रव्य हैं, जिनके मिश्रण से वे अपना सांस्कृतिक वंश ढूँढने का प्रयास करते हैं। ऐसे आकर्षण से की गयी निर्मिति आसानी से भारतीय और देशीय बनती है।
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के. जी. सुब्रह्मण्यम
(1924)
भारतीय संस्कृति की दो समान्तर परम्पराएँ हैं-कारीगरी और मौखिक साहित्य। कारीगरी, कला अथवा साहित्य को लोकाभिमुख बनने की प्रक्रिया में वे सहज ही एक दूसरे में घुलमिल जाते हैं। कारीगरी और कला के कारण ही पुराण, मिथक, दन्तकथाएँ आदि को मूर्त रूप प्राप्त हुआ है और कला तथा कारीगरी के निर्माण में भी इन पुराणों, मिथकों का योगदान है। इसी प्रक्रिया से यहाँ के शिल्प, चित्र, वास्तु और रामायण, महाभारत तथा भागवत जैसी रचनाएँ लोकाभिमुख और आभिजात्य बनी हैं।
भारतीय संस्कृति अथवा परम्परा में जो भी मूर्त है, वे सभी इन्हीं दो परम्पराओं के मिश्रण से बनी वास्तुएँ हैं। ये वास्तुएँ यानी भारतीय ‘मन्दिर’; जो कारीगरी की, अमूर्त तत्व और पुराण के ‘कथन’ परम्परा की अर्थात् मूर्तामूर्त की अद्भुत अभिव्यक्ति हैं। मानो भौमितिक आकार की वास्तुओं में काव्य अथवा गणित-काव्य का आच्छादन हो। ये यह सब मूर्तामूर्त तत्वों की सांस्कृतिक विरासत है, जो भूमिति और काव्य अथवा गणित-काव्य जैसी परस्पर विरोधाभासी लगती है, परन्तु रचना के स्तर पर परस्पर पूरक भी है।
भारतीय जीवन, परम्परा और संस्कृति अध्यात्मकेन्द्रित है। अतः यहाँ मन्दिरों की निर्मिति बड़े पैमाने पर हुई है। इस मन्दिररूपी वास्तु परम्परा को राजाश्रय, धर्माश्रय और लोकाश्रय प्राप्त हुआ, जिसके कारण पूरी शक्ति और श्रद्धा से उनका निर्माण हुआ। इसी प्रकार सगुण-निर्गुण भी एक ही है। हमारा परम्परागत दर्शन भी यही कहता है कि मूर्तामूर्त में कोई भेद नहीं है। हमारा सौन्दर्यशास्त्र भी कहता है कि वीभत्स भी लावण्य जैसा सुन्दर है। मूर्त अथवा अमूर्त, लावण्य अथवा विद्रोह को अपनी कला के जरिए साकार करनेवाले अनेक कलाकार हैं। परन्तु परम्परा के दोनों पक्षों को अपनी कला में समाहित करनेवाले बिरले ही हो सकते हैं। के. जी. सुब्रह्मण्यम ऐसे ही एक बिरले कलाकार हैं।
के. जी. सुब्रह्मण्यम ने अनेक माध्यमों, दृश्यकला के अनेक प्रकारों में कला का प्रदर्शन किया है। उदाहरणार्थ, चित्र, शिल्प, भित्तीचित्र, भित्तीशिल्प, मुद्राशिल्प, मिट्टी की मूर्तियाँ, कपड़े पर चित्रकारी, खिलौने आदि। उनमें विचार और निर्मिति की दृष्टि से पारदर्शिता थी। निर्मिति के बाद वे कला का मूल्यांकन किसी और को नहीं सौंपते थे। उसके सम्पूर्ण उत्तरदायित्व का स्वीकार स्वयं करते हुए उस पर लिखते थे। उन्होंने एक प्रदर्शनी के कैटलाॅग में ख़़ुद के बारे में लिखा है, ष्प् ूंदज उल ूवता जव इम ंउइपहनवनेण् प् ूवनसक सपाम पज जव ंचचमंत जव उम मअमतल उवतदपदह ंे ं दमू बवदपिहनतंजपवदण् ।सेव प् ूंदज जव ेजतंककसम जीम अपेपइसम ंदक जीम ंइेजतंबज ूपजी जीमपत वितउे दवू इमबवउपदह तमबवहदपेंइसमए दवू हवपदह पदजव ीपकपदहण् प् जीपदा जींज जीपे इंसंदबपदह व िजीम ंइेजतंबज ूपजी जीम वइरमबजपअम पे वदम व िजीम उवेज ेपहदपपिबंदज बींतंबजमतपेजपब व िजीम जतंकपजपवदंस ंतज व िउल बवनदजतल सपाम पद पजे जमउचसमेण् ॅीपबी ंतम नदकवनइजमकसल पउचतमेेपअम ंे ंइेजतंबज ीमंचे व िेजवदमए इनज ंसेव इतपेजसम ूपजी उलजीवसवहल ंदक तमचतमेमदजंजपवदंस कमजंपसे ंज ेमबवदक हसंदबमण् ज्ीपे पे ूीमतम प् हमज पदजव बवदजंबज ूपजी पजण् प् ूंदज उल ूवता ंसेव जव सपअम पद ेनबी ं जूपसपहीज ्रवदम व िेमदेपइपसपजलण् ।सजीवनहीए जीम पदहतमकपमदजे प् चनज पदजव पज ंतम दवज ूींज जीमल नेमक जव इमए इनज ंतम व िजीपे जपउमण्ष् ;म्गपइपजपवद बंजंसवहनमए ळंससमतल छंअपदहए छमू ल्वताए 1967द्ध
के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्र पहले पहल रंग-रूप की एक गुत्थी लगते हैं। किसी अपेक्षित-अनपेक्षित रंग-आकार की रचना प्रतीत होते हैं। उनके चित्र यानी अमूर्त आकार, भौमितिक आकार, वास्तू, पक्षी, वृक्ष, पशु, कथा, दन्तकथा, आदि का साफ़़-साफ़़ मिश्रण। सब परिचित होकर भी अपरिचित। पुराण कथा, कहानी समझ में आते-आते बीच में अचानक वह विलुप्त हो जाती है। सुन्दर अमूर्त आकार आते-आते कुरूप चेहरा उभर आता है। हिंसा की घटना लगते-लगते वहीं वत्सल पशु दिखने लगता है। तैलरंग और जलरंगों का एक ही पृष्ठ पर आना तो कलाशास्त्रीय परम्परा के अनुरूप नहीं है और वह भी कागज़ या कैनवास की जगह पर काँच पर! यह सब लोककला की तरह उत्स्फूर्त और साफ़़-साफ़़ है।
वास्तविकता का सम्बन्ध भूमि से होता ही है। भूमि के गुरुत्वाकर्षण के कारण भूमि के साथ वास्तविकता हमेशा जुड़ा रहती है। जिस प्रकार वास्तु, वृक्ष, व्यक्ति आदि का भूमि से सम्बन्ध है, उसी प्रकार उनकी छायाओं का भी भूमि से सम्बन्ध होता है। परन्तु छायाओं का सम्बन्ध गुरुत्व से नहीं होता। गुरुत्व से मुक्त होने के कारण वे ‘वास्तविकता’ से सम्बद्ध होकर भी ‘वास्तविकता’ जैसी नहीं होतीं। वस्तुतः वे मुक्त और स्वतन्त्र होती हैं। के. जी. सुब्रह्मण्यम का चित्रावकाश भी इसी तरह वास्तविक भी है और उससे मुक्त भी। उसमें जड़त्व नहीं, बल्कि तरलता है। जड़त्व न होने के कारण चित्र की वास्तुएँ, वस्तु, आकार, व्यक्ति, पेड़, पशु, पक्षी आदि शरीर नहीं लगते बल्कि उनकी कायाएँ प्रतीत होती हैं। गुरुत्व से छिटकी ये कायाएँ अन्तरिक्ष में मुक्त रूप से विचरण करती हैं। ऐसी अनेक कायाओं के समूह पूरे अन्तरिक्ष छिटके रूप में विचरण करते-करते एक-दूसरे में आसानी से प्रवेश कर जाते हैं। इस तरह काया से काया का प्रवेश अथवा परकाया प्रवेश के चित्र में अद्भुत नाटकीयता आ जाती है। यह ‘वास्तविकता’ न होकर भी ‘वास्तविक’ प्रतीत होता है, भूमि पर न होकर भी भूमि पर प्रतीत होता है। पुराण कथाओं की ‘देवभूमि’ की तरह इन चित्रों की भूमि भी अपनी एक ‘देवभूमि’ है।
वास्तविक जीवन एकाकी नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति, वृक्ष, प्राणी, पक्षी, वास्तु आदि अनजाने में परस्पर जुड़ जाते हैं। परस्पर निर्भर जीना - जीवन एक दूसरे में ऐसा रच बस गया है कि चित्र के आकार, काया परस्पर प्रवेश करते-करते उनमें एक दूसरे के अंग, रंग रूप, भाव आदि का सहज ही आदान-प्रदान होता है। फिर एक व्यक्ति के अनेकों हाथ, व्यक्ति भी पक्षी जैसा, पेड़ में इंसान जैसे अवयव और प्राणियों में मानवीय भावना। यानी एक दूसरे से एक दूसरे का जन्म होकर उत्क्रान्त होना और एक दूसरे के पैदा होने के निशान एक दूसरे पर अंकित हो जाना। अपना-पराया, कोई भाव नहीं, कोई द्वैत नहीं, छोटे-बड़े का भेद नहीं। इसमें यही भाव उमड़ता है कि सारी चराचर सृष्टि एक ही है।
जल में रहनेवाले अनेक जलचर जन्तु यूँ ही में एक दूसरे के सान्निध्य में आकर फिर बिछड़ जाते हैं। जल की वनस्पतियाँ, जलचर, आसपास के पानी में दिखते प्रतिबिम्ब, प्रकाश किरणें आदि अलग-अलग बिम्ब जल में पास-पास होते हैं, इस कारण हम उनका परस्पर सम्बन्ध जोड़ देते हैं। पानी में हलचल होती है और उनके आकार बिगड़कर वे किसी और आकार के साथ जुड़ जाते हैं। किसी रंग के आकार में कोई और ही रंग मिल जाता है। इस तरह के ‘रूप-भेद’, ‘रंग-भेद’ के जादू का अनुभव पानी के अवकाश में लगातार होता है। ऐसे बिम्ब और प्रतिबिम्बों का मेल के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्रों में भी दिखायी देता है। चित्र के रंग किसी जैविक द्रव्य की तरह पूरे अवकाश में फैलते जाते हैं, रिसते जाते हैं।
के. जी. सुब्रह्मण्यम अपने चित्र के रंग, रूप और रचना पर अधिकार नहीं जताते। वे सिर्फ़ उनके होने के साक्षी होते हैं। बाद में रचना का सन्तुलन बना रहे, इसलिए चित्र में अनेक खिड़कियाँ या कुछ भौमितिक आकार बनाते हैं। इससे चित्रावकाश में दुबारा छोटे-बड़े अवकाश बनते हैं और पूरा चित्र सन्तुलित हो जाता है। ऐसे छोटे-छोटे चैकोनों का विरामचिह्नों की तरह इस्तेमाल करने से एक विशिष्ट प्रकार का चित्र विधान सम्पन्न होता है।
हवा और जल के कारण परिसर का बोध होता है। इसी प्रकार रंग के कारण भी चित्र में किसी परिवेश का बोध उत्पन्न होता है। पूरे चित्र में फैले हुए व्यक्ति, पेड़, पशु-पक्षी आदि के आकार बिखरने का आभास होकर शरीर और अवयवों की मात्रा, परस्पर नियन्त्रण आदि में सम्बन्ध नहीं रह जाता और एक ही शरीर में अनेक अवयवों का अहसास होने लगता है। अनेक हाथ, अनेक सिर अथवा चेहरे पर कई आँखें या अवयवों में अप्राकृतिक मोड़ या हरकतें। ऐसी आकृतियों से चित्र के आकार भारतीय मूर्तिशास्त्र की परम्परा जैसे लगते हैं। ऐसी रचना से चित्र में कोई पुराणकथा या किसी घटना के होने का आभास मिलता है। एक कथा के रूप में देखते समय वह कथा अखण्ड नहीं रह पाती। बीच में ही विलुप्त हो जाती है और कोई अपरिचित रंग या आकार प्रकट होता है और कोई अर्थबोध नहीं होता।
चित्र में यह अहसास होता है कि कथाबीज कहीं तो है। परन्तु रंग, आकार और रचना के एक पर एक ऐसे कई पारदर्शी परदे आते हैं और उस कथा के अनेक रूपान्तरण बन जाते हैं। कथकली नृत्य में जिस प्रकार कथाबीज ढूँढ़ना पड़ता है, इस चित्र में भी कथा की खोज करनी पड़ती है। इस कथाबीज का विस्तार कथा या काव्य से नहीं, बल्कि भाषा और गणित के एक बीजगणितीय रूप से ही अनुभव होगा।
भाषा के माध्यम से मूल्य प्रस्तुत करने का तरीका बीजगणितीय है। के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्र भी बीजगणित की तरह अर्थ और मूल्य को दर्शाते हैं। शब्द में कई अर्थ होते हैं, परन्तु संख्या के अनेक मूल्य नहीं होते। अर्थात् शब्द बहुवचन है और संख्या एकवचन। शब्द और संख्या की रचना से के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्र एकसाथ एकवचन और बहुवचन भी हैं। संक्षेप में, वे बहुरुपिए जैसे हैं।
के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्रों में भाषा और रूप का सन्तुलन एकसमान है। उनके चित्रों को भाषा और रूप का आधार एकसाथ प्राप्त है। यानी उनके चित्र द्विदल रूप में हैं। दो स्तरों पर होने के बावजूद वे दो नहीं हैं और एकांगी भी नहीं हैं। दरअसल, यहाँ भाषा और रूप - दोनों परिधियों का केन्द्र बिन्दु एक ही है और वह है ‘वर्ण’। वर्ण के दो अर्थ हैं - रंग भी और अक्षर भी। इसीलिए भाषा के लिए वर्णमाला महत्वपूर्ण होती है और रूप के लिए रंगमाला। इन चित्रों में ऐसा दोहरा रूप होने के कारण एकसाथ वे मूर्त भी हैं और अमूर्त भी।
के. जी. सुब्रह्मण्यम ने शान्तिनिकेतन की परम्परा के अनुरूप प्रकृति-चित्रण नहीं किया है। परन्तु उनके चित्र में प्रकृति मूलसूत्र रूप में होती है। पाॅल सेज़ाँ कहते थे कि जिस व्यक्ति को प्रकृति में भौमितिक आकार दिखायी नहीं देते, उसमें प्रकृति की समझ ही नहीं है। इस दृष्टिकोण से के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्रों पर ग़ौर करें तो उसमें प्रकृति का मूलसूत्र दिखायी देता है। प्रकृति भीतर से भौमितिक और बाहर से मुक्त तथा अमूर्त आकारों की प्रतीत होती है। किसी भी फल को काटने पर यह दिखायी देता है कि उसकी भीतरी रचना अत्यन्त अनुशासनबद्ध और भौमितिक है। भौमितिक और मुक्त की एकत्रित रचना के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्रों की अनन्य विशेषता है। इसी के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रकृति से उनका रिश्ता है।
कारीगरी परम्परा से आये हुसैन की तरह के. जी. सुब्रह्मण्यम ने भी खिलौने बनाये हैं। अत्यन्त गम्भीरता से खिलौने बनानेवाले कलाकार ये दो ही होंगे। भारतीय कारीगरी की परम्परा को जोड़ने का उनका यह प्रयोजन सोद्देश्य है। के. जी. सुब्रह्मण्यम के खिलौनों की शैली हुसैन से अलग है। वे साफ़़-साफ़़ घनवादी हैं। उनकेे चित्र में आनेवाले प्राणियों के आकार का त्रिमिति रूप है। के. जी. सुब्रह्मण्यम की चित्रकला पर घनवाद और उत्तर घनवाद का प्रभाव नहीं है, परन्तु उनके भित्तीशिल्प और भित्तीचित्र में यह प्रभाव साफ़़-साफ़़ महसूस होता है। उनके भित्तीचित्रों पर घनवाद के साथ-साथ आदिवासी सन्थाल कला का भी प्रभाव है।
के. जी. के भित्तीचित्र सन्थाल आदिवासी जैसे हैं, परन्तु उनके शिल्पचित्र अलग हैं। देखते ही वे उत्कीर्ण शिल्प जैसे लगते हैं। परन्तु वे एक पर एक मिट्टी की अनेक परतें डालने से बने हैं। लगता है, एक ही मिट्टी की पर्त से काटकर निकालने के कारण उसके आकार कागज़ की हस्तकला जैसे बने हैं। के.जी. सुब्रह्मण्यम ऐसे ही म्युरल्स अथवा भित्तीशिल्प में सजावट करते हुए दिखते हैं। वास्तु के सामनेवाले हिस्से को परम्परागत ढंग से सजाने जैसी यह शैली है। यद्यपि यह सजावट है, फिर भी वह पुरातन और धातु की तरह कठोर और मज़बूत लगती है। ये भित्तीशिल्प पुरातन स्मारक जैसे ही हैं।
के. जी. सुब्रह्मण्यम के चित्र ‘बहुरूपी’ हैं। एकसाथ वे एकवचन भी हैं और बहुवचन भी। मूर्त भी हैं और अमूर्त भी। कुरूप भी हैं और सुन्दर भी। लावण्यमयी भी हैं और वीभत्स भी। कारुण्य, व्यथा, क्लेश, वेदनाओं के साथ-साथ वे प्रसन्न भी हैं। इस तरह वे एकसाथ दोहरे आयाम दर्शाते हैं। इस कारण उन्हें देखते समय एक सम्भ्रम भी होता है और साथ ही कुछ देखने, अनुभव करने का अहसास भी। परन्तु स्थिति कुछ ऐसी बनती है कि उसे अभिव्यक्त करना मुश्किल हो जाता है। इस स्थिति को क्या कहें? कवि केशवसूत का शब्द: झपूर्झा।
के. जी. सुब्रह्मण्यम ने परम्परा, विचार, तकनीक, शैली, प्रकृति -जीने से कुछ अलग खोदकर चित्र बनाने का काम नहीं किया। जीते समय छोटा-बड़ा साफ़़-साफ़़ जो भी उनके सामने आया, उसका उन्होंने चित्र में इस्तेमाल किया। अपनी ही काव्य भाषा में उन्होंने लिखा है:
श्ठमजूममद जीम ेाल ंदक मंतजी ीवअमत सपमि ंदक
क्मंजीए सवंजीपदह ंदक सवअमए हतवजी ंदक हतमल कमबंलए
डंद ेदपचमे ंज बसवनकेण्
ठपतके संदक पद ेचमबजतंस सिपहीज
ठमजूममद ंइेजतंबज इमंनजल ंदक जूपेजमक ंहवदलए
भ्मंतजे उममज नदकमत जतममे इमसवू जीम उववदण्
।सस इतवामद तिंहउमदजे व िेजवतपमे जव इम उंकमण्
।दक ंसस ंककतमेेमक इवजी जव वनत मलमे ंदक वनत उपदकण्श्
9
तैयब मेहता
(1925-2009)
ळवक संनहीेए ैीतप त्ंउातपेीदं च्ंतंउींदें ेंलेए ूीमद जूव इतवजीमते कतंू ं सपदम वद जीम हतवनदकए ंदक वदम व िजीमउ ेंलेए श्ज्ीम संदक वद जीपे ेपकम व िजीम सपदम पे उपदमश् ंदक जीम वजीमत ेंलेए श्जीम संदक व िजीपे ेपकम व िजीम सपदम पे उपदमण्श् ;ै।टत्।श्रय । श्रवनतदमल ूपजी ज्लमइ डमीमजंश्े ैींदजपदपामजंद ज्तपचजलबी.त्ंउबींदकतं ळंदकीपण्द्ध
स्वदेशी आन्दोलन के कारण भारत को आज़ादी मिली। इस आन्दोलन में एक महत्वपूर्ण तत्व ‘अहिंसा’ था, जो विभिन्न धर्म और संस्कृतियों के बीच सेतु का कार्य करता था। इसी ‘अहिंसा’ के पथ पर चलते हुए स्वदेशी आन्दोलन और स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ हुआ था और देश को आज़ादी मिली थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर में जहाँ विश्व भर के अनेक देश ‘हिंसा’ के पथ को अपनाकर आज़ाद हुए थे, वहीं भारत में अहिंसा का आग्रह था।
यद्यपि देश को आज़ादी अहिंसात्मक ढंग से मिली थी, फिर भी देश के भीतर अनेक स्थानों पर हिंसा की वारदातें हुईं। देश का विभाजन यहाँ की सामासिक संस्कृति को छिन्न-भिन्न करनेवाली ऐसी ही हिंसात्मक वारदात थी। इसका असर यहाँ के मुख्यतः लाहौर, कलकत्ता, दिल्ली आदि महानगरों पर हुआ, जिससे देश भर के कलाकार भी अछूते नहीं रह पाये। यह विभाजन धर्म पर आधारित था। परन्तु यहाँ की गंगा-जमुनी संस्कृति में गहरी जड़ें जमा चुके कलाकारों ने संस्कृति को छिन्न-भिन्न करनेवाली पाकिस्तान की नागरिकता को नकार दिया और वे इसी भूमि में बस गये।
जिस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रतिबिम्ब पिकासो के चित्रों में अंकित हुआ है, उसी प्रकार विभाजन के दौर की हिंसा का प्रतिबिम्ब भी अनेक कलाकारों, विशेषतः तैयब मेहता के चित्रों में दिखायी देता है। ‘हिंसा’ के शाश्वत रूप में ही पाब्लो पिकासो और तैयब मेहता की कला-निर्मिति हुई है। उनमें ‘हिंसा’ ही एक बुनियादी सूत्र है। अनेक भारतीय आलोचकों ने लिखा है कि तैयब मेहता के चित्रों पर पिकासो का प्रभाव है। दरअसल, यह प्रभाव कला का बाह्य प्रभाव नहीं है, बल्कि ‘हिंसा’ इस सूत्र की ही ये दो अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।
तैयब मेहता के चित्रांे में यह साफ़-साफ़़ दिखायी देता है कि उन्होंने ब्रिटिश चित्रकार फ्रांसिस बेकन (1909-1992) की कलाकृतियों का अध्ययन किया और उसके चित्रों के आधार पर हिंसा का चित्रात्मक रूप बनाया। बाद में तैयब ने अपनी अलग शैली विकसित की।
पाब्लो पिकासो की ‘गुअर्निका’ तो हिंसा और द्वितीय विश्वयुद्ध के माहौल का साफ़़-साफ़़ बयान करती है। तैयब मेहता की ‘शान्तिनिकेतन ट्रिपटिच कलाकृति’ भी विषय और संरचना की दृष्टि से भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का ब्यौरा देती है। ‘गुअर्निका’ और ‘शान्तिनिकेतन ट्रिपटिच’ए दोनों कलाकृतियों में आशय और रचना के स्तर पर परस्पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है।
प्रत्येक कला का अपना-अपना परिवेश होता है और उस परिवेश के चिह्न सम्बन्धित कला पर सहज ही अंकित हो जाते हैं। इतिहास भी भूगोल पर अंकित चिह्नों से दुबारा जीवित हो उठता है और इसी से उसकी परम्परा की पहचान स्थापित होती है। इतिहास जैसे-जैसे पीछे की तरफ जाता है, वैसे-वैसे ये चिह्न धूमिल होते जाते हैं और एक दिन विलुप्त हो जाते हैं। परन्तु ये चिह्न परम्परा से जुड़े ही रहते हैं। मिट्टी में दबी हुई वस्तुओं के सहारे पुराणकथाएँ, कहानियाँ बनाई जाती हैं और उनके माध्यम से परम्परा का तर्क लगाया जाता है। पुराणकथाएँ इतिहास की तरह भूगोल से जुड़ी नहीं होतीं। इसी कारण वे अलौकिक लगती हैं। फिर भी उनमें लौकिक जीवन के सन्दर्भ मिलते हैं। इसी के चलते वे आज के लौकिक जीवन के लिए उद्बोधक लगती हैं। पुराणकथाएँ भूगोल से नहीं, बल्कि समय के साथ जुड़ी होती हैं। ये कथाएँ अपना-अपना परिवेश बनाती हैं। इस परिवेश को किसी भी समय के साथ जोड़ा जा सकता है। इसीलिए वे सार्वकालिक हैं। इसी कारण भारतीय कला-साहित्य परम्परा को उनका ठोस आधार प्राप्त है।
तैयब मेहता की कला वर्तमान की घटना का सन्दर्भ पुराणों में खोजती है और पुराणकथा को आज का सन्दर्भ देती है। इसीलिए वह लौकिक-अलौकिक रूप में रहती है। पुराणों के ईश्वर, दानव और मानव आदि प्रतिमाएँ परस्पर मिल जाने के कारण चित्र का सामान्य विषय भी वर्तमान जीवन पर व्यापक प्रकाश डालता है।
तैयब मेहता के चित्र ब्रिटिश चित्रकार फ्रान्सिस बेकन के आसपास जाते हैं, परन्तु उनकी पुराण सम्बन्धी दृष्टि बेकन से अधिक व्यापक है। बेकन विषयगत सौन्दर्य के प्रति आस्थावान हैं। परन्तु तैयब मेहता विषयगत सौन्दर्य के साथ-साथ रंग, रेखा, आकार आदि कलागत तत्वों के सौन्दर्य के प्रति भी आस्थावान हैं। विषय के साथ-साथ कला-सौन्दर्य का भी ध्यान रखना, एक विशेष भारतीय प्रवृत्ति है।
भारतीय पुराणों में ईश्वर-दानव और मानव आदि को परस्पर जोड़नेवाली कथाएँ होती हैं। देवता निर्गुण-निराकार होते हैं और मनुष्य जन्म-मृत्यु के फेरे में फँसकर जीवन के रहस्य को ढूँढ़ रहा होता है। वह इस फेरे से मुक्ति की खोज में है। इसी के चलते उसने ‘स्वर्गलोक’ की काल्पनिक दुनिया तैयार की है। वह पुनर्जन्म पर विश्वास करता है और नीति और रीति-रिवाज़ के सहारे आज के भौतिक जीवन को आसान और उन्नत करने का प्रयास करता है। परन्तु सभी प्रकार के प्रयासों के बावजूद वह बार-बार ‘ढहता’ है। तैयब मेहता ने अपने चित्रों के जरिए मानव जीवन की इसी विडम्बना पर भाष्य किया है। तैयब अपने चित्रों में यह रूपक बार-बार प्रयुक्त करते हैं कि मनुष्य चाहे जितना उन्नत हो, अन्ततोगत्वा उसका जीवन पतनशील ही है।
ईश्वर हमेशा से निर्गुण-निराकार रहा है। मनुष्य के जीवन में दानव हमेशा पीड़ा और संकट लाता रहता है और इसी पीड़ा या संकट के निवारण के लिए निर्गुण निराकार ईश्वर मनुष्य की प्रतिमा में ‘अवतार’ धारण करता है। ईश्वर की यह एक ‘लीला’ है। मनुष्य अथवा प्राणी के रूप में जन्म लेना और उस दानव का संहार ही उसका कर्म है। बाद में निर्गुण-निराकार होने के कारण ईश्वर मनुष्य को दिखायी नहीं देता। मनुष्य को दिखायी देती केवल उसकी मनुष्य रूप अथवा पशु रूप की प्रतिमा।
तैयब मेहता अपने चित्र में इसी तरह पुराणों की रचना करते हैं। भारत में ऐसे अनेक कलाकार हैं जो पुराणों के सन्दर्भ में अपनी निर्मिति करते हैं। परन्तु तैयब इन सबसे अलग हैं। तैयब कथा को ज्यों का त्यों ‘इलस्ट्रेट’ नहीं करते। वे दृश्यकला की एक समृद्ध भाषा में उसे रूपान्तरित करते हैं। इस कारण पुराणकथा एक सन्दर्भ के रूप में आती है। बाकी पूरी कला सौन्दर्य की अभिव्यक्ति होती है।
ढहनेवाला व्यक्ति, चारों पैर ऊपर किये औंधा पड़ा बैल, पंख फैला परन्तु उड़ने की गति समाप्त हुआ पक्षी, एक दूसरे के आधार बननेवाले मानवीय आकार, रौद्र और बीभत्स चेहरे, उनका मौन आक्रोश, भीषण तनाव और आकर्षण से विकलांग हुए रिक्शावाले आदि सभी आकारों में तैयब की रचना होती है।
तैयब के चित्र में अवकाश अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। आड़ी-खड़ी रेखाओं से वर्गाकार क्षेत्रफल बनता है। परन्तु इस क्षेत्रफल से अधिक लम्बी आकर्ण की रेखा होती है। तैयब मेहता इस आकर्ण-रेखा का इस्तेमाल कर अपना अवकाश विस्तृत कर लेते हैं। वे अपने चित्र में इस भूमितीय रहस्य का इस्तेमाल करते हैं, इसलिए पहली नज़र में ही उसका प्रभाव पड़ जाता है।
अवकाश के इस तिरछे छेद से यथार्थ-दर्शन का आभास होता है। बाद में ऐसी छेदक रेखाओं से अनेक छोटे-छोटे अवकाश बनते हैं और उनका रूपान्तरण अद्भुत आकारों में हो जाता है। इस तरह बाहरी और भीतरी अवकाश के रूप में उनका विभाजन हो जाता है और रेखा अत्यन्त महत्वपूर्ण बन जाती है। यहाँ अवकाश का विभाजन करनेवाली रेखाएँ, मानवीय आकार अथवा पशु-पक्षियों के आकारों की रेखाएँ आदि का एक मिश्रित ढाँचा बन जाता है।
किसी भी भूमितीय कृति में मिति, छेदक रेखा, स्पर्श रेखा आदि तत्व महत्वपूर्ण होते हैं, जिनमें रेखा ही सबसे मुख्य होती है। तैयब के चित्र में जो रेखाएँ आती हैं, वे चित्र का तत्व बनकर नहीं आती, बल्कि बतौर भूमितीय रेखा वह स्पष्ट और निर्णायक होती है। भूमिति के तत्व कठोर होते हैं, परन्तु रस-रंगभाव के कारण वे लचीले बनते हैं। तैयब के चित्र की रेखाएँ भी कठोर परन्तु लयपूर्ण होती हैं। इन रेखाओं की प्रकृति चित्र के बुनियादी विषय ‘हिंसा’ को उभारती है।
विकर्णरेखा, छेदकरेखा, स्पर्शरेखा और त्रिज्या। विकर्णरेखा के कारण होनेवाला यथार्थ दर्शन का आभास, छेदकरेखा के कारण बननेवाले अनेक क्षितिज, अवकाश, सभी आकृतियों को स्पर्श करनेवाली ये भौमितिक रेखाएँ और मानवीय तथा पशु-पक्षियों की आकृतियाँ - सभी में भूमिति के एक प्रमेय का आभास होता है। ज़िन्दगी का साफ़़-साफ़़ विवरण और ये प्रमेय एकत्रित हो जाने से यह चित्र-रचना ‘स्पष्ट और सुप्रमेय’ बनती है।
ऐसी भूमितीय रेखाएँ और मानवीय प्रतिमाओं के एकत्रीकरण से एक आकार बनता है। इन मानवीय प्रतिमाओं का अनुपात, उनके शरीरावयव, रचना आदि मुक्त और भौमितिक होने से इन आकारों में एक अलग ही लय उत्पन्न होती है। नृत्य, अभिनय, क्रीड़ा, क्रिया अथवा कृति करते समय अवयवों की हरकतों में भी एक लय आती है। उस कृति मंे, अभिनय में, नृत्य में एक कार्य-कारण भाव होता है। तैयब के चित्र के आकार की रचना भी ऐसी ही होती है। इस रचना में शरीरावयवों के आकार का, उनकी हरकतों का आत्यन्तिक महत्व होता है। इसीलिए ये रचनाएँ हस्तमुद्रा या पदन्यास के आकारों की होती हैं। इस रचना में चेहरा विषय के अनुसार स्तब्ध अथवा वीभत्स रूप में होता है। शरीर के बिना भी अवयवों का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व होता है। फिर भी चुम्बकीय आकर्षण की तरह वे शरीर से ही जुड़े रहते हैं।
यथार्थ और प्रतिमा के संमिश्रण से चित्र के आकार बनते हैं। आँख पर उंगली से हल्का-सा दबाव डालने पर एक ही वस्तु की अनेक प्रतिमाएँ बनती नज़र आती हैं। इस चित्र के आकार की रचना भी कुछ इसी तरह की होती है। एक ही आकार से अनेक आकार बनने का आभास होता है। ऐसे ही ‘आॅप्टीकल’ आभास जैसी इस चित्र की प्रतिमाएँ और रचनाएँ होती हैं। धूप में जलती भूमि से उठनेवाली लू के पीछे सारी ‘वास्तविकता’ थिरकती, कम्पित होती दिखायी देती है। उसी प्रकार इस चित्र-रचना में भी कम्पन की तरह एक ही प्रतिमा से अनेक प्रतिमाएँ छूटने लगती हैं। शोले आकाश की तरफ बढ़ते हंै, उसी तरह ये आकृतियाँ भी कभी-कभी उद्रेक से अवकाश में छलाँग लगाती आभासित होती हैं।
रंग स्वयं प्रकाशित होता है और उसका अपना एक तेज भी होता है। रंग बाह्य प्रकाश के सान्निध्य से परप्रकाशित होता है। उसकी अनेक छटाएँ बनती हैं। स्वयंप्रकाशित और परप्रकाशित - इस रूप में रंग का तीव्र और मृदु अहसास बना रहता है। इस विरोधी तत्व के कारण चित्र में तनाव-दबाव उत्पन्न होते हैं और चित्र में हरकतें तेज़ हो जाती हैं। तैयब मेहता के चित्र में ऐसी ही रंग-छटाएँ होती हैं। यानी रंगों का यह बाह्यतेज प्रकाश के तेज से बदलता है। इसलिए तैयब की ऐसी चित्र-रचना में प्रकाश का अस्तित्व होता है। प्रकाश के अस्तित्व के कारण ही ऐसा आभास होता है कि ये चित्र किसी पृष्ठ पर न होकर खुले अवकाश में हैं।
अवकाश, आकार के रंग नज़दीक आते हैं, परन्तु परस्पर स्पर्श नहीं करते। उनकी एक अलग ही आभा उत्पन्न होती है। इसी आभा पर रेखा की योजना होने के कारण रेखा और मुखर हो उठती है। इस तरह वास्तविक रेखा के अभाव से भी दो रंगों के बीच की रेखा तेजस्वी और सजीव बनती है।
प्राचीन काल से भारतीय पुराणों में शिव-शक्ति की एक परम्परा मिलती है। शिव-शक्ति की यह परम्परा लोक-परम्परा है। इस परम्परा के सभी देवी-देवता लोकदेवता हैं। देवी-देवता परम्परा में वाममार्गी और निशाद मानी जानेवाली काली, महिषासुर मर्दिनी आदि देवियाँ तैयब के चित्र की प्रतिमाएँ हैं। इन देवी-प्रतिमाओं के साथ-साथ बैल, बकरी, पक्षी आदि प्रतीक भी आ जाने के कारण वे लोक-जीवन का प्रतिबिम्ब दर्शाती हैं। इस दृष्टि से तैयब के ये चित्र लोक-जीवन से मेल खाते हैं, परन्तु रंग, रेखा और आकार की योजना लोककला से विभक्त होकर नागर जीवन से जुड़ जाती हैं। इस तरह लोक-जीवन और नागर-जीवन के मिश्र रूप से तैयब की कला-निर्मिति होती है। भारतीय मन्दिर परम्परा भी इन्हीं दो शैलियों में है। द्रविड़ शैली और नागर शैली से ये चित्र जोड़ दिये जाने के कारण तैयब की कला समूचे भारतीय कला की ही प्रतिनिधि के रूप में सामने आती है।
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जिव्या सोमा मशे
(1934)
श्।तजपेज ींे दव इमसपअम पद जीमपत वूद जतनजी जव उंाम ंतजएश् त्मबींतक ेंपकण् श्प् ंउ पद जीम उवकमतदपेज ंअंदज.हतंकम जतंकपजपवद ंे ूमसस ंे श्च्तपउपजपअमश्ण् ।सस ंतज कमचमदके वद वजीमत ंतजण् श्रपअलं ूवतो पद ीपे जतंकपजपवदए इनज हवमे इमलवदक पजए ींे ीपे वूद चमतेवदंस ेजलसम ंदक ेनइरमबज उंजजमतण्श् ;त्पबींतक स्वदहए इण् 1945ए ठतपेजवस म्दहसंदकद्ध
श्रपअलं ैवउं डंेीम पे ं ेनइेजंदजपंसए पदसिनमदजपंस उंद पद ीपे बवउउनदपजलण् ॅपजी ंद पदजमतदंजपवदंस ंतजपेजपब तमचनजंजपवदए जीम कपेचंतपजल इमजूममद जीम चतपबम व िीपे ूवता ंदक जींज व ित्पबींतक स्वदह ेचमंो अंसनमे दवज रनेज ंइवनज उंतामज वितबमए इनज जीम कपेजतपइनजपवद व िचवूमत ंदक ूमंसजी पद जीम ूवतसकण् ;क्मदपेम भ्ववामतद्धण्
जिव्या सोमा मशे विश्व मंच के एक अत्यन्त महत्वपूर्ण चित्रकार हैं। प्रत्येक आभिजात्य कला एक परम्परा से आती है। जिव्या सोमा मशे के चित्र वारली चित्र परम्परा से आकर आज आभिजात्य बन गये हैं। जिव्या सोमा के जरिए ही वारली चित्र लोकाभिमुख हुए हैं। आज यह चित्र परम्परा न केवल केन्द्र्रीय बनी है, बल्कि वह वारली जनजाति की पहचान भी बन गयी है।
यह समाज जंगल ‘वार’कर (साफ़़ कर) खेती करता है, इसलिए इसे वारली कहा जाता है। संक्षेप में, इस समाज की कृषि संस्कृति की अपनी प्राचीन परम्परा है। सिन्धु संस्कृति से पूर्व अनेक जनजातियाँ घुमन्तू हुआ करती थीं। नवपाषाण युग में ये जनजातियाँ पशुपालन और खेती-उद्योगों के कारण एक जगह पर स्थिर हुईं। ऐसी अनेक जनजातियों की परम्पराएँ वैदिक परम्पराओं में मिल गयी थीं, जिनसे मिलकर नागर सिन्धु संस्कृति बनी। सिन्धुपूर्व दौर की इन कृषि परम्पराओं को कुलीन आर्य जाति के लोगों ने निषाद परम्परा माना। तब से यह समाज संस्कृति की मुख्य धारा से कट गया। वारली समाज इसी निषाद संस्कृति का वंशज है।
यूरोप में अनेक वादों की शृँखलाएँ हैं, जिनमें से एक दृक्-प्रत्ययवाद में विचार और शैली के स्तर पर वारली चित्र शैली की समानता दिखायी देती है। मात्र बौद्धिक और सैद्धान्तिक चित्र न बनाकर ये चित्रकार खुली हवा में ठेठ यथार्थ जीवन से ही भिड़ जाते हैं। पाॅल सेज़ाँ, पाॅल गोगाँ और विसेंट वान गाॅग आदि इस शैली के मुख्य चित्रकार हैं। खुले माहौल में चित्र की रचना करने के कारण इनके चित्रों में उसी जीवन शैली की अर्थात् किसान, श्रमिक, मज़दूर आदि की संवेदनाएँ आती गयीं। इससे यह साम्य दोनों शैलियों में अपने आप आ गया।
‘मैं शहर का चित्रकार नहीं हूँ। शहर से मेरा कोई नाता नहीं है। मैं किसान हूँ। मुझे खेत में लौट जाना है। मुझे सूर्य के ऐसे प्रदेश में जाना है, जहाँ उसकी गर्मी चित्रकला की इच्छा के अलावा मेरे भीतर का सबकुछ जला देगी।’, ‘मैं किसान ही चित्रित करता हूँ, और मुझे लगता है कि ये औरतें भी किसान ही हैं। हाड़-माँस की बनी। ज़मीन और माँस तो एक ही तत्व के दो रूप हैं!’ ये दोनों कथन विन्सेंट वान गाॅग के हैं। यूरोप के वादों की शृँखला में दृक्-प्रत्ययवाद और अभिव्यक्तिवाद के अनुयायी पाॅल सेज़ाँ, सरा, पाॅल गोगाँ आदि में से प्रत्येक की व्यक्तिगत सोच की दिशा और काम की शैली भिन्न है। जार्ज सुरे का अपवाद छोड़ दें, तो स्टूडियो में बन्द माहौल में काम करने की बजाय खुले में और साक्षात् प्रकृति के सान्निध्य में काम करने से उनमें यह गम्भीरता है। इसी कारण पाॅल गोगाँ और वान गाॅग आदि चित्रकार प्रकृति की तुलना में आदिवासी और किसान-मज़दूरों के जीवन में अधिक एकाकार हो गये। पाॅल गोगाँ ताहिती द्वीप के निवासी आदिवासियों के पास पहुँचा और वान गाॅग आल्प्स पर्वत पर।
विन्सेंट ने केवल प्रखर उजाले में दिखनेवाले तीव्र रंगों के लिए आल्प्स पर्वत की तरफ जाना तय किया था। वहाँ वह किसान और मज़दूरों के जीवन से एकाकार ही हो गया। वान गाॅग कहता है, ‘इस पौधो का ज़मीन से जो रिश्ता होता है, वही रिश्ता खेती में काम करनेवाले किसानों का खेत से होता है। मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि यह सूर्य किसान, पौधो, भूमि, हल - सबको नहला रहा है। इस संसार की लय, जिससे दुनिया की सारी गतिविधियाँ घटित होती हैं, एक बार समझ में आ जाए तो आपको ज़िन्दगी समझ में आती है। यही तो परमात्मा है।’ विन्सेंट वान गाॅग और जिव्या सोमा मशे, दोनों का परमात्मा एक ही है। ऊपर सूर्य और नीचे खेत की दुनिया। वारली चित्र को आदिवासी चित्र समझकर अनदेखा नहीं कर सकते। आज उन्हें विश्व कला के परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा। प्रकृति में जिसे बुनियादी आकार दिखायी नहीं देते, वह चित्रकार ही नहीं है। प्रकृति में ऐसे अमूर्त शास्त्र के तत्व दिखायी दें, ऐसी कड़ी शर्त पूरे दृक-प्रत्ययवादी और अभिव्यक्तिवादी चित्रकारों की ही थी। ऐसा दृक्-प्रत्यय वारली चित्रों में साफ़़-साफ़़ आता है। वारली चित्र में प्रत्ययवाद, अभिव्यक्तिवाद, घनवाद, उत्तरघनवाद, अमूर्तशास्त्र आदि सभी के लक्षण साफ़़-साफ़़ दिखायी पड़ते हैं। भीम-लघुद्वीप से उत्क्रान्त यह कला आधुनिकतावाद के साथ-साथ चलती है। उत्तर सिन्धु संस्कृति की जीवनशैली विलुप्त हो गयी, फिर भी वारली जीवनशैली में वे सभी लक्षणों के साथ दुबारा दीख पड़ती है।
सूर्य, चन्द्रमा, चन्द्रमा की वृत्ताकार आभा, आँखों की पकड़ में न आनेवाले परन्तु महसूस होनेवाले हवा के भँवर, दँवनी, खलिहान, तालाब, चींटियों की बाँबियाँ, ऊँचे वल्मीक, साँपों की कुण्डलियाँ, उन्माद में वृत्ताकार झूमते स्त्री-पुरुषों का तारपा नृत्य, इससे होनेवाला वृत्त का अहसास, पहाड़, झुग्गियाँ, कमर से विभाजित होते मनुष्य-प्राणियों के शरीर का त्रिकोण से साम्य - ये दोनों यथार्थ के ही प्रत्यय हैं। परन्तु चैकोन अथवा चैक पूरी तरह से प्रतीकात्मक, मिथक से आया होता है। समुद्र की रेखा, धरती की रेखा, ग्रामदेवता की रेखा और गोत्र की रेखा - चारों प्रतीकों का एक ही चैक। इस तरह उनके चित्रों में चैकोन, त्रिकोण और वृत्त की अनुभूति होती है।
चन्द्रमा की वृत्ताकार आभा, उसके इर्दगिर्द पूरे आकाश में फैले हुए सितारे - इस तरह इन चित्रों की रचना होती है। कभी पूरे आकाश के सितारों को अमूर्त रेखाओं से जोड़कर उसकी संरचना की कल्पना कर सकते हैं, तो कभी सितारों के पंुज से आकृतियाँ बनती हैं। इन ग्रह-तारों का जिस प्रकार अपना एक मिथक होता है, उसी प्रकार वारली चित्र की आकृतियाँ उस पूरे चित्र में फैली प्रतीत होती हैं। मिथक की तरह वारली चित्र में भी एक कहानी होती है। ये आकृतियाँ उस एक ही कहानी के क्रियाशील तत्व होते हैं। इसलिए वे भी अमूर्त रेखा से परस्पर जोड़ दिये जाते हैं।
वारली चित्र की ‘कहानी’ में वारली समाज की मिथक कथा होती है। यह कहानी किसी के द्वारा पढ़ी गयी या सुनायी हुई नहीं होती। ऐसी कहानियों पर ही कृषि-संस्कृति का दर्शन खड़ा है। चित्र के आधार रूप में कोई कहानी उठायी जाती है और चित्रकला की तकनीक के अनुसार उसकी संरचना की जाती है। इसमें यह आग्रह नहीं होता कि चित्र की कहानी समझ में आ ही जाए। कहानी कृषि-संस्कृति की ही होने के कारण चित्र का प्रत्येक तत्व कृषिकर्म के साथ सक्रिय होता है। वान गाॅग के चित्र का प्रत्येक तत्व इसी तरह सक्रिय होता है। वान गाॅग के चित्र में सूरजमुखी और गेहूँ के खेत के परिसर का दृश्य होता है, उसी तरह धान की बुआयी या कटायी का दृश्य वारली के चित्र में होता है। वारली चित्र चाहे सपाट पृष्ठ पर द्विमिति में अंकित हों, परन्तु उसकी तकनीकी के कारण भूमि पर भी वह बिल्कुल वास्तविक रूप में आभासित होता है। इस चित्र की कहानी में स्त्री-पुरुष के भेदभावपूर्ण अथवा श्रेणी, दर्ज़े के व्यक्ति नहीं होते। व्यक्ति, प्राणी, पशु, वनस्पति एक ही आकृति से आते हैं। इस कारण प्रकृति और जीवन यहाँ एकाकार होता है। उनमें अन्तर नहीं रह जाता। जिव्या सोमा कहता है, मेरे चित्र के प्राणी, जन्तु, पक्षी, इंसान सब मेरे वास्तविकता में देखे होते हैं। बस पेड़ मैं कल्पना से बनाता हूँ। वारली चित्र के पेड़ चाहे जंगल के हो, पर वे बुआयी किये पेड़ों जैसे पंक्तिबद्ध होते हैं। वे राजपूत लघुचित्र की तरह लग सकते हैं, परन्तु उन लघुचित्रों में पेड़ की तुलना में लताओं का इस्तेमाल अधिक होता है। वारली चित्र के पेड़ तने हुए होते हैं। ऊपर पक्षी और बया का घोसला - इस कारण ये काल्पनिक के पेड़ भी यथार्थ प्रतीत होकर पूरे चित्र के साथ एकाकार हो जाते हैं। विन्सेंट के पेड़ लच्छेदार और ऊपर की तरफ बढ़ रहे होते हैं। उजाले के रंगीन कणों से गतिमान होनेवाली हवा, गरमी के न्यूनाधिक दबाव से बननेवाले चक्राकार, आकाश के सितारों पर हवा के वातावरण का हल्का-सा पल्लू लिये धूमिल परन्तु धीरे-धीरे साफ़़ होती हरकतों के वृत्ताकार, प्रखर सूर्य प्रकाश की जलन, भूमि से परावर्तित होती दीख पड़ती लू, उस लूू में काँप रहेे पेड़, खेती, किसान सब एक-दूसरे में मिलकर फिर अलग होते हैं। इससे चित्र में क्षिप्रता आ जाती है। विन्सेंट के रंग सड़ाका शैली के नहीं हैं। सूर्य और मेहनतकश व्यक्ति की साझा जलन, सूर्य की दिशा में झुक रहे पीले सूरजमुखी के खेत, उनकी रफ़्तार आदि को विन्सेंट चित्र में पकड़ने का प्रयास करता है। यही रफ़्तार वारली चित्र में दिखायी देती है। रंग न होकर भी आकृति की रफ़्तार, उनकी कमी महसूस होने नहीं देती। ऊपर आकाश, नीचे ज़मीन। बीच में अलग-अलग गति की वायु का अस्तित्व चित्र में तीव्रता से अनुभव होता है। पृथ्वी, आकाश, तेज, वायु, जल आदि प्रकृति के बुनियादी तत्व इस चित्र में आसानी से पाये जाते हैं।
वारली चित्र की रचना से उत्पन्न होनेवाली लय में अलग-अलग धुनें, नाद अनुभव होते हैं। वारली चित्र हमेशा सामूहिक होते हैं। इन चित्रों में चेहरा महत्वपूर्ण नहीं होता। इनमें नाक, आँखें आदि शरीर के अलग-अलग अंग नहीं होते। एक समग्र देहबोध होता है। ये शरीराकृतियाँ एक कोण में झुकी हुई होने के कारण अत्यन्त चुस्त और गतिशील लगती हैं।
चित्रकला यद्यपि भूमि से सम्बद्ध कला नहीं है, परन्तु वारली इसका अपवाद है। क्योंकि यह कला भूमि से अत्यन्त एकाकार हुई है। भूमि के भौतिक रूप - पहाड़, नदियाँ, पेड़ ही नहीं बल्कि पूरे परिसर से वह जुड़ी हुई है। वारली समाज पेशे से किसान है। अतः यह दिखायी देता है कि यह कला भूमि से कितनी गहरायी तक जुड़ी हुई है। दरअसल, जंगल ‘वारकर’ खेती करने के कारण ही इस जनजाति को ‘वारली’ नाम मिला है। संसार के सारे आदिवासी जंगल में रहते हैं। शिकार अथवा जंगल में उपलब्ध हुए अन्न पर गुज़ारा करते हैं। यही जीवनशैली इनके चित्रों में आती है। परन्तु शिकार, देवी-देवता, रीति-रिवाज आदि के चित्र वारली चित्रकला में नहीं आते। बहुत हुआ तो मछलियाँ पकड़नेवाले मछेरे आएँगे, वरना बाकी सारे चित्र खेती से सम्बन्धित ही होते हैं। क्योंकि यही उनकी जीवनशैली है। इसी कारण संसार भर के आदिवासियों में वारली शैली अत्यन्त विशिष्ट है। वारली अतिप्राचीन जनजाति है, तथापि वह आदिवासी नहीं है।
वारली समाज परिसर के साथ-साथ भूमि के साथ भी अत्यन्त निष्ठावान होता है। अतः भूमि की भूमिति के सारे तत्व वारली चित्रों में परावर्तित दिखायी देते हैं। पैरिस के कलासंयोजक हार्वे ने वारली परिसर को भेंट दी। वह इस भूमि की विशेषता से बिल्कुल अभिभूत हो गया। उसकी इच्छा थी कि लन्दन का विश्वविख्यात कलाकार रिचर्ड लाँग भी यहाँ आये। उसने लाँग के इस दौरे का आयोजन भी किया। दरअसल, उत्तर आधुनिक दौर के बाद प्रायोगिकता चरम पर पहुँच चुकी थी। कला वास्तव या यथार्थ में होती है। उसे अलग करने की आवश्यकता नहीं होती। या फिर परम्परागत रंग माध्यमों को त्यागकर कुछ कला निर्मिति हो सकती है। ‘लैंड आर्ट’ का विशेषज्ञ रिचर्ड लाँग भूमि से जुड़कर काम करनेवाला कलाकार है। इस कला में पत्थर, रेत, मिट्टी के जरिए प्रत्यक्ष भूमि पर पूरे परिसर का अनुमान लगाकर इस तत्व की पुनर्रचना की जाती है। रिचर्ड लाँग की काम की यह पद्धति और वारली परिसर - दोनों का मेल हार्वे की कल्पना में था।
रिचर्ड लाँग वारली में आया और उसने अत्यन्त प्रभावित होकर भूमि पर अनेक विश्वस्तरीय कलात्मक अभिव्यक्तियाँ साकार कीं। झील, पगडण्डियाँ, धान की खेती, वारली की मिथक कथाएँ, परिसर, वारली की मिट्टी का विशिष्ट रंग, भूमि की भूमिति और संरचना, धान की भूसी, हल्दी आदि माध्यमों का प्रयोग कर लैंड आर्ट के रूप में उसने अपनी कलाभिव्यक्तियाँ साकार कीं।
भूमि से एकाकार वारली चित्र और भूमि को माध्यम बनानेवाली रिचर्ड की लैंड आर्ट, दोनों का अद्भुत संगम। बाद में रिचर्ड ने इसी कल्पना को कलाकृति में परिवर्तित कर जिव्या सोमा मशे और रिचर्ड लाँग - दोनों की एक प्रदर्शनी आयोजित की। पैरिस में भी एक विश्वस्तरीय प्रदर्शनी सम्पन्न हुई।
वान गाॅग कहता है, ‘मैं खेती करता हूँ तब मुझे भुट्टे या बाल के अनाज का दाना अपनी ज़िन्दगी के लिए मशक्कत करता नज़र आता है।’ जिव्या सोमा मशे, विन्सेंट वान गाॅग और रिचर्ड लाँग की कलाभिव्यक्ति इसी बीज की धड़कन के लिए है। बीज और उसका अपार अवकाश खेती चित्रकार है। चाहे ये ऊपरी तौर के बौद्धिक अनुसंधान या बौद्धिक सम्बोधन हों, परन्तु उनकी कला एक श्रमिक के कार्य जैसी है। पहाड़, झील, पत्थर, पक्षी - ये सब मात्र प्रकृति के तत्व नहीं हैं, बल्कि प्रकृति से एकाकार बने किसान जीवन के भी तत्व हैं। किसान अपनी जीवनशैली में इन तत्वों का इस्तेमाल करता है। वान गोग, जिव्या सोमा और रिचर्ड लाँग भी उन्हीं तत्वों का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए ये कलाकार कृषक जीवन की गहरायी से मात्र प्रभावित ही नहीं हैं, बल्कि वारली कृषक बने वारली चित्रकार हैं।
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भूपेन खक्कर
(1934-2003)
रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद दुनिया के सामने पेश करने लायक भारत के दूसरे चित्रकार हंै -भूपेन खक्कर। खक्कर भी रवीन्द्रनाथ की तरह चित्रकला में अपवाद हैं। प्रचलित अर्थ में उन्होंने भी कला की शिक्षा नहीं ली और काफ़ी उम्र के बाद चित्रकला का आरम्भ किया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर और भूपेन खक्कर, दोनों ने अपने अपने दौर में कलाक्षेत्र के स्थापित मूल्यों को नकारकर अपनी अन्तःप्रेरणा से अलग कलाभिव्यक्ति की। उन्होंने अपने-अपने दौर में भारतीय कला को एक नया आयाम प्रदान किया। उनके चित्र प्रचलित परिपाटी के नहीं थे। अतः उस दौर में उनकी कला को एक कला के रूप में स्वीकृति प्राप्त होने में काफ़ी समय लग गया।
गगेन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और उनके छात्र नन्दलाल बोस जैसे अत्यन्त प्रभावशाली चित्रकार रवीन्द्रनाथ के घर में ही थे। उनकी शैली के कारण ही उनकी कलाएँ ‘बंगाल स्कूल’ के बाद बतौर भारतीय कला विश्वमान्य हो गयीं। परन्तु रवीन्द्रनाथ की कला से पूरा माहौल बदल गया। अमृता शेरगिल जैसी तरह अत्यन्त मेधावी विचारों की चित्रकार ने भारतीय कला की समीक्षा करते हुए कला को जो गम्भीरता प्रदान की, उससे रवीन्द्रनाथ की कला में और निखार आया। देश की स्वाधीनता के बाद जो कलाकार भारतीयत्व के लिए अथक प्रयास कर रहे थे, इससे ‘प्रोग्रसिव’ और ‘कलकत्ता ग्रुप’ के आन्दोलन सामने आये। भूपेन खक्कर की कला ने उनकी भी मर्यादाओं का प्रदर्शन किया। इससे उनका कला सम्बन्धी दृष्टिकोण प्रभावशाली बन गया और उनके ‘प्लेस फाॅर पिपल’ विचार से प्रेरित ‘नेरेटिव’ कला भारत में सही मायने में प्रचलित हुई।
साहित्य क्षेत्र में ‘लिटिल मैगज़ीन’ नाम से लघु-पत्रिकाओं का आन्दोलन चला, जिसके द्वारा कवियों, लेखकों ने रोमंटिक, रंजक और आयातीत साहित्य को नकारकर ठेठ यथार्थ को, ज़िन्दगी के मूल्य को साहित्य में स्थान प्रदान किया। सम्भवतः इसी आन्दोलन के प्रभाव से ‘प्लेस फाॅर पिपल’ आन्दोलन खड़ा हुआ था। क्योंकि इन आन्दोलनों में अनेक चित्रकार मूलतः लेखक थे। भूपेन खक्कर भी मूलतः लेखक ही थे, जो बाद में चित्रकार बन गये।
जब रवीन्द्रनाथ कला के क्षेत्र में आये, उस समय भारतीय कला आलंकारिक बन गयी थी। उसी प्रकार भूपेन जब कला क्षेत्र में आये तब वह रोमांटिक और रंजक बनी हुई थी। फिगरेटिव चित्रकार अथवा अमूर्तवादियों में अन्तर केवल शैली का था, वरना दोनों एक ही थे। एक तरफ भूपेन के प्रभाव के कारण फिगरेटिव चित्रकारों ने उन्हें अपने क़रीब लाने का प्रयास किया, परन्तु अमूर्तवादी चित्रकारों ने भूपेन को अपना घोर विरोधी माना।
यह साहित्यिक आन्दोलन मात्र साहित्य तक सीमित नहीं रहा बल्कि सांस्कृतिक आन्दोलन भी बन गया। इससे न केवल नाटक-फ़िल्म कला में बदलाव आया, बल्कि चित्रकला भी बदल गयी। इसी कारण इस दौर में साहित्य के सम्पर्क में आये वासुदेव गायतोण्डे, प्रभाकर बरवे, भूपेन खक्कर आदि चित्रकार अन्य भारतीय चित्रकारों की तुलना में अलग और प्रभावशाली प्रतीत होते हैं। बाद के चित्रकारों ने इन्हीं चित्रकारों का अनुकरण करना स्वीकार किया। बरवे और गायतोण्डे की तुलना में भूपेन तकनीक तथा अनुभव की दृष्टि से भी अपवादात्मक थे। अतः उनका अनुकरण सम्भव नहीं था। क्योंकि अपवाद तो आखिर अपवाद ही होता है। वह प्रातिनिधिक कैसे हो सकता है?
वासुदेव गायतोण्डे और भूपेन खक्कर, दोनों परम्परा से मज़बूती से जुड़े हुए चित्रकार हैं। पीछे जाकर देखें, तो यह परम्परा मौखिक और कारीगरी की परम्परा तक जाती है। मौखिक, वाचिक परम्परा से आनेवाले ‘नेरेशन’ की अतिसुन्दर अभिव्यक्ति भूपेन खक्कर के चित्रों में है और कारीगरी की तकनीक, कुशलता, विज्ञान और अमूर्त के अलौकिक अहसास की अभिव्यक्ति वासुदेव गायतोण्डे के चित्रों में हंै।
वस्तु सुन्दर होती है, परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि उसकी छाया भी सुन्दर होगी। वस्तु में रंग होता है, छाया में नहीं होता। सुन्दर वस्तु की छाया कुरूप भी हो सकती है। फिर भी वस्तु और छाया एक ही है। इसी सिद्धान्त के अनुसार वासुदेव गायतोण्डे और भूपेन खक्कर एक-दूसरे की छाया-प्रतिच्छाया हैं। ये दोनों छायाएँ यानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ही बदली हुई प्रतिमाएँ ही हैं। भूपेन खक्कर और वासुदेव गायतोण्डे के चित्रों का एकत्रित ब्यौरा रवीन्द्रनाथ के चित्रों में नज़र आता है। अथवा रवीन्द्रनाथ के चित्रों को तनिक कुरेदकर देखें तो उनमें खक्कर और गायतोण्डे दिखायी देते हैं। भूपेन और गायतोण्डे शैली और विचार की दृष्टि से चाहे अलग हों, परन्तु उनके चित्रों के भीतर से एस्थेटिकली एक ही अभिसरण होता है। इसी कारण भारत के रवीन्द्रनाथ ठाकुर, भूपेन खक्कर अथवा वासुदेव गायतोण्डे को दुनिया चाहती है।
प्रत्येक व्यक्ति में एक ललित और एक दलित अंग होता है। मनुष्य अपने ललित अंग पर गर्व करता है और दलित अंग की चुपके से देखभाल करता है। भूपेन खक्कर ने इंसान को पूरा घुमाकर उसके दोनों -दलित और ललित अंगों के दर्शन कराये हैं। ‘सत्य का दर्शन कराने’ के कारण भूपेन खक्कर ‘सन्त भूपेन खक्कर’ बन जाते हैं। सन्त पारदर्शी होते हैं, पारदृष्टा भी होते हैं।
‘झरझर बहती ज़िन्दगी’ को कलाकृति में उतारना अलौकिक कार्य है। भूपेन ने जीने की थाह लेकर उसे सगुण-निर्गुण और उसके दुर्गुणों के साथ कलाकृति में उतारा है। इसीलिए उनके चित्र मूर्त हैं, अमूर्त भी हैं। मुर्तामूर्त एकसाथ होने के कारण वे ‘परिपूर्ण’ हैं।
भूपेन खक्कर की प्रकृति में भी एक काइयाँपन है। यह काइयाँपन उनके चित्रों में भी होता है। हमारी परम्परा के कुछ हठयोगी, औलिया आदि का बर्ताव कुछ ऐसा ही काइयाँ होता हैं। प्रस्थापित को नकारना उनका असल उद्देश्य होता है। हमारी तान्त्रिक परम्परा में एक सम्प्रदाय ऐसे ही धूर्तयोगियों का है। इनका धर्म है, पवित्र और सुन्दर को त्यागकर पाप और कुरूपता को अपनाना। ज़िन्दगी के अवांछित पक्ष हमेशा अपनाते रहना।
भूपेन की धूर्तता और काइयाँपन के कारण उनके चित्र हमेशा विनोदपूर्ण प्रतीत होते हैं। उनके चित्र गम्भीर होकर भी विनोदपूर्ण होते हैं। चित्रकला में इस तरह विनोदपूर्ण होनेकी दृष्टि से भी भूपेन अपवाद हैं। बिना व्यंग्य, पैरोडी के निर्मल और स्वाभाविक विनोद भूपेन के रंग, रूप, आकार में अत्यन्त स्वाभाविक रूप में आते हैं। मात्र रंग-संयोजन विनोदपूर्ण होना असम्भव बात है, जो भूपेन के चित्रों में सहज ही दिखायी देती है।
जिस वस्तु की चुम्बकीय शक्ति भीतर से खत्म हो जाए, वह संज्ञाशून्य हो जाती होगी। भूपेन के चित्र के लोग भी ऐसे संज्ञाशून्य प्रतीत होते हैं, मानो उनकी भीतरी बौद्धिक संवेदनाएँ गुम हो गयी हों। परस्पर छिटके हुए लोग फिर से क़रीब आकर शारीरिक गतिविधियों के रूप में कुछ हरकतें करते हैं। परन्तु वे हरकतें सुसंगत नहीं होतीं। इससे ऐसा नहीं लगता कि वे कुछ संवाद कर रहे हैं। इसी कारण चित्र के मानवीय समुदाय का कोई सामुदायिक कार्य नहीं होता। अतः ऐसा नहीं लगता कि वहाँ कुछ कथा घटित हो रही है। प्रत्येक व्यक्ति आत्ममग्न अथवा ख़ुद के लिए दुर्बोध-सा होता है। ऐसी विसंगति से भी एक नाट्यरूप घटित होता है।
कथा, कहानी, नीतिकथा, बोधकथा आदि कथा के अनेक प्रकार हैं। कथा का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है। परन्तु बिना किसी उद्देश्य के, बिना किसी बोध के बस कथन करते जाना, ऐसी कुछ बेकार कथाएँ भी होती हैं। भूपेन के चित्र ऐसी ही बेकार कथाओं जैसे हैं, बोधकथाओं या नीतिशास्त्र जैसे नहीं। कथन करना मनुष्य की प्रकृति है, इसीलिए कथा बनाते जाना। कथा जैसी होकर भी कथा न होना, केवल चित्र ही बने रहना, यही चित्र का गुण है। इसलिए भूपेन के चित्र ‘कथाचित्र’ नहीं, बल्कि ‘चित्रकथाएँ’ हैं। मात्र ‘नेरेटिव’ न होकर ‘विजुवल नेरेटिव’ हैं।
भूपेन के चित्रावकाश में चित्र के विषय की तुलना में जल और ज़मीन -दो तत्व अधिक होते हैं। ज़मीन का सुन्दर रूप मात्र भूपेन के चित्र में ही देखने को मिलता है। चित्र में मैदान, खाली परिसर, सड़कें आदि विशेष रूप के होते हैं। क्षितिज के पास ही चित्र समाप्त होने के कारण चित्र में आकाश होता ही नहीं। भूपेन के चित्र में आकाश की तरह सूर्य का प्रकाश भी नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति, वस्तु अपने ही असल गहरे और उजले रंग में दिखते हैं। इस कारण भूपेन मनचाही दिशा में प्रकाश का आभास उत्पन्न कर सकते हैं। इससे चित्र यथार्थ लगने लगता है और उसमें जड़ता नहीं रह जाती। सम्पूर्ण चित्र में एक तरलता आ जाती है और व्यक्ति तथा वस्तु इस तरलता में जुड़ जाते हैं। सम्पूर्ण चित्र में चित्रकार की कल्पना का ‘दृश्य’ होता है। इसलिए साधारण से साधारण ब्यौरे में, रंग में, रचना में वही कल्पना बार-बार आती है। सम्पूर्ण चित्र चित्रकार की भीतरी कल्पना की रचना होती है।
जल तत्व भी उनके चित्र का अधिकाधिक फलक घेरे हुए होता है। परन्तु यह जल उसके जलचरों के बिना होता है। इस कारण मूल विषय से विषयान्तर नहीं होता अथवा अन्य घटना घटित होकर चित्र का विभाजन नहीं होता। इस पानी और ज़मीन के कारण चित्र में परिसर का अहसास बनता है। यानी सामनेवाले व्यक्ति की हरकतों में ठोस वास्तविता आती है। यह परिसर चित्रों का एक अंग ही बन जाता है, जो अधिकाधिक खाली होता है। इससे चित्र की घटना कथा की घटना नहीं लगती बल्कि जीवन की घटना प्रतीत होती है।
भारतीय पुराण साहित्य तथा पुराण कथाओं का प्रभाव कला पर भी है ही। अनेक चित्रकारों ने इन पुराणकथाओं का अपने चित्रों में इस्तेमाल किया है। भूपेन खक्कर के चित्रों में भी पुराणकथाएँ होती हैं। परन्तु यहाँ भी भूपेन अन्य चित्रकारों की तरह पुराणकथा का ज्यों का त्यों इस्तेमाल नहीं करते। उनकी चालाकी यहाँ भी सामने आती है। चित्र में पुराणकथाओं का इस्तेमाल न कर वे खुद को उस पुराणकथा का हिस्सा कल्पित करते हैं और उसके बाद उस कथा का चित्र में इस्तेमाल करते हैं। पुराणों में ख़ुद की ही प्रतिमा ढूँढ़ते हैं। इससे वह पुराण पुराण नहीं रह जाता, बल्कि उसे अर्वाचीन रूप प्राप्त हो जाता है। परम्परागत जीवन का बाहरी जीवन भूपेन के चित्र का आशय होता है। सभ्य और भद्र लोगों के जीवन की परिधि के बाहर अभद्र और असभ्य लोगों के जीवन का वृत्त होता है। भूपेन ऐसे इंसानों की प्रतिमाओं को पुराणों से खोदकर उनका चित्रण करते हैं। यानी पुराण के बाहर का पुराण। यही भूपेन चित्रों का विषय होता है।
प्रत्येक कला की अपनी परम्परा होती है, जो सामान्य लोकजीवन से आती है। लोककला, लोकसाहित्य को ही साधारण चित्रकार अपनी कला का आधार मानते हैं। यहाँ भी भूपेन इस बनी-बनायी लोककला से ख़ुद को नहीं जोड़ते। लोकबुद्धि और लोक संवेदना से वे अपनी निर्मिति करते हैं। लोककला के बने-बनाए आधार, प्रतीक, चिह्नों का वे प्रयोग नहीं करते। बल्कि लोक-संवेदना, लोकबुद्धि यानी मूल से ही लोककला आत्मसात करते हैं। इसी कारण उनके चित्रों में एक देसीपन बना हुआ है।
लोक-संवेदना के कारण ही भूपेन के चित्र लघुचित्रों की याद दिलाते हैं। परन्तु लघुचित्र में जो नैपुण्य, जो कौशल, जो विषय होता है, वह तो भूपेन के चित्र में बिल्कुल भी नहीं मिलता। लघुचित्र में जो भी नैपुण्य या कौशल है वह भी प्राकृतिक नहीं होता। ग्रामीण चित्रकारों को राजाश्रय प्राप्त होने के कारण ही उनकी कला में निखार आया है। आश्रित की तरह रहकर, राजाभिरूचि का पोषण करने के कारण यह कला लोककला से परिवर्तित हो गयी। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि राजा की उच्च अभिरूचि के बारे में न सोचकर अथवा राजाश्रय में न रहकर यह कला वृद्धिंगत हो जाती तो आज भूपेन खक्कर के चित्र में जो देसीपन अनुभव होता है, वह भी उसी रूप में आ जाती। यानी भूपेन के चित्र के बहाने हम परम्परा के पीछे की असली परम्परा की कल्पना कर सकते हैं।
लोक-संवेदना से जो तैयार होता है, वह भूपेन के चित्र की तरह दिखता है। अथवा भूपेन किसी भी वस्तु का, व्यक्ति का चित्रण करे, तो भी वह लोककला की तरह ही दिखता है। इतना वे एकाकार हो गये हैं। लोक-संवेदनाओं की इस तरह थाह लेनेवाला चित्रकार भारतीय कला के परिप्रेक्ष्य में दूसरा नहीं है। इसी कारण एक भारतीय कलाकार के रूप में भूपेन खक्कर का दुनिया ने सहज ही स्वीकार किया है।
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अनीश कपूर
(1954)
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किसी वस्तु को केन्द्र्र में रखकर एक प्रदक्षिणा पूर्ण करने के बाद हम उस वस्तु के भीतर जाते हैं। वहाँ अनेक दिव्य संवेदनाओं का अहसास होता है। हमारी आँखों को वस्तु चाहे तीन मितियों में दिखायी देती हो, परन्तु वस्तु में ऐसी अनेक मितियाँ होती हैं, जो हमें दिखायी नहीं देतीं। ऊपर से उन मितियों की अलग-अलग संवेदनाएँ होती हैं। इससे वस्तु रहस्यपूर्ण अनुभव होती है। यह एक मिथक ही होता है।
‘विष्णु के सहस्र नाम हैं’
‘कलाकार वस्तु नहीं, मिथक की रचना करते हैं।’
- अनीश कपूर
कोई कलाकार जब कोई वस्तु या रूप गढ़ता है, उस रूप या वस्तु को गढ़ना ही उसका उद्देश्य नहीं होता, बल्कि उस रूप से, वस्तु से वह कुछ अभिव्यक्त करना चाहता है। यही अभिव्यक्ति उसका लक्ष्य होती है, जिसे वह रूप अथवा वस्तु से ही हासिल कर सकता है। मानवीय हस्तक्षेप से परे की वस्तुओं मेें भी मनुष्य की मानसिक संवेदनात्मक बातें होती हैं, जो उसे आकर्षित करती हैं। ऐसी स्वयम्भू वस्तुएँ मनुष्य को अपनी स्वनिर्मित वस्तुओं से भी अधिक ‘दिव्य’ लगती हैं।
साम्प्रदायिक परम्परा अथा आध्यात्मिक परम्परा में इसी कारण ऐसी दिव्य बातें अलौकिक प्रतीत होती हैं। साक्षात्-आकार, प्रकटन अथवा स्वयम्भू को उच्च कोटि की अनुभूति माना जाता है। इसी परम्परा को केन्द्र्र में रखकर अनीश कपूर अपनी कलानिर्मिति करते है। भारतीय मिथक, वास्तुपरम्परा, दर्शन, धर्मशास्त्र - सबका प्रभाव अनीश कपूर की कला पर है। इनके प्रति उनमें तीव्र आकर्षण है।
अनीश कपूर विश्व के समकालीन कलाक्षेत्र में अत्यन्त प्रभावशाली कलाकार है। लन्दन में बसे हुए इस कलाकार की मुख्य बात यह है कि वह जन्म से भारतीय है। अर्थात् भारतीय वंश का वैश्विक कलाकार है।
यूरोप की कला-परम्परा विज्ञाननिष्ठ है तो भारत की अध्यात्मनिष्ठ। विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत मेल अनीश कपूर की कला में है। यद्यपि अनीश कपूर की कला भारतीय और यूरोपीय कला के मिश्रण का उत्कृष्ट नमूना है, फिर भी अनीश कपूर अपने आप कोे भारतीय कलाकार ही मानते हैं।
स्वयम्भू वस्तुओं के प्रति अनीश कपूर का अत्यधिक आकर्षण हैै। उसका आग्रह होता है कि मनुष्य का ऐसी निर्मिति में हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। इसी कारण उसकी रचनाएँ भावनाप्रधान नहीं होती हैं। वे उसी प्रकार तटस्थ प्रतीत होती हैं, जैसे विज्ञान। अध्यात्म में मानवीयता की उन्नत स्थिति होना अपेक्षित है। परन्तु वह एक विरक्त स्थिति होती है। अनीश कपूर की आकार निर्मिति भी ऐसी ही तटस्थ और विरक्त भाव से होती है, और फिर भी रंग की दृष्टि से वह कलाकृति अत्यन्त आकर्षक और रसपूर्ण बनती है। अर्थात् स्वयम्भू वस्तु मानवीय हस्तक्षेप के परे हो, परन्तु फिर भी मनुष्य को अपनी मानसिक संवेदनाओं के कुछ बिम्ब उस वस्तु से प्रकट होते दिखायी देते हैं। इसी कारण अनीश कपूर की कला निर्मिति के बजाय ‘निर्माण’ अधिक लगती है।
अनीश कपूर रंग और माध्यमों का इस्तेमाल प्रचलित ढंग से नहीं करता। उसकी किसी भी कलाकृति में रंगद्रव्य नहीं होता। ‘धूलिरंग’ के माध्यम से वह अपनी कला का निर्माण करता है। भारतीय धर्म-सम्प्रदायों में कुछ रंग सम्बन्धित सम्प्रदायों के प्रतीक रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। ये रंग यानी अलग अलग रंगों के गुलाल ही होते हैं। अलग-अलग उत्सवों के समय गुलाल उड़ाना यहाँ की परम्परा है। अनीश कपूर अपनी कलाकृतियांे में इन्हीं धूलिरंगों का प्रयोग करते हैं। वह इन रंगों का मिश्रण नहीं करते, बल्कि मूल रूप में ही उनका प्रयोग करते हैं। ऐसे साम्प्रदायिक रंगों से भी एक तरह से मिथक का अहसास होता है।
कलाकार वस्तु नहीं, मिथक की रचना करते हैं।
अनीश कपूर की रचना सरल होती है। उसका प्रत्येक आकार, तत्व स्वतन्त्र होता है। ऐसे सभी स्वतन्त्र तत्वों की एकत्रित योजना होती है। ऐसे स्वतन्त्र आकार का फिर अपना स्वतन्त्र रंग होता है। ऐसी समूह रचना से वे आकार ही एक-दूसरे के सन्दर्भ ही बन जाते हैं। एक-दूसरे के सन्दर्भ से ही स्वतन्त्र बने रंग परस्पर संयोजन में आते हैं और एक अलग रंग-संयोजन बन जाता है।
चित्र-शिल्प परम्परा में कलाकार चाहे जितना प्रयोगशील हो, पर वह स्थूल रूप में मानवीय आकार, प्रकृति आदि की प्रतिमाओं का प्रयोग करता ही है। परन्तु अनीश कपूर इस परम्परा को हटाकर केवल वस्तुनिर्मिति करता है। ऐसी वस्तुनिर्मिति से वह ठेठ कला के बुनियादी अंग से यानी कारीगरी से जुड़ जाता है। कोई भी कारीगरी तकनीकी ज्ञान के माध्यम से विकसित होती है। अनीश कपूर भी अपनी निर्मिति के लिए विशेष तकनीक विकसित करता है।
कुम्हार पहिए की गति से मिट्टी के लोंदे को आकार देकर कोई वस्तु बनाता है। यह वस्तु खोदकर या रचकर बनायी नहीं गयी है, वह गति की सहायता से निर्मित हुई है। इस कारण आकार की दृष्टि से वह स्वयम्भू प्रतीत होती है। ठीक उसी प्रकार, जैसे नदी के पानी के गतिशील प्रवाह से पत्थर को आकार प्राप्त होता है और वे भी स्वयम्भू प्रतीत होते हैं।
गति के प्रति अनीश कपूर को अत्यधिक आकर्षण है। इस कारण उसकी प्रत्येक निर्मिति गति से ही होती है। गति से ही निर्मिति होने के कारण उसकी कलाकृति के आकार सामान्यतया वृत्ताकार, घनवृत्ताकार अथवा मुक्त, इस तरह निराकार होते हैं। एक ही शक्ति के अनेक रूप अथवा उसकी अनेक मितियाँ अथवा एक ही बीज का असीम विस्तार अथवा एक ही घड़े के अनेक आकार - इस तरह एक में अनेक दिशाओं के रहस्य अनीश कपूर को आकर्शित करते हैं।
‘विष्णु के सहस्त्र नाम हैं।’
गति के आकर्षण में कला का अमूर्त बनना स्वाभाविक है। जाॅन टर्नर, जैक्सन पोलाॅक ऐसे ही चित्रकार थे, जो गति के प्रति आकर्शित थे। गति के आकर्षण से ही अनीश कपूर रंगों के गोले सीधो तोप से दीवार पर दागता है। तोप से दीवार तक के फासले का नाट्य आँखों की क्षमता से परे है। अतः हमें केवल तोप और दीवार पर छिन्न-भिन्न हुए रंगीन आकार ही दिखायी पड़ते हैं। दीवार की इस तरह निराकार की प्रतिमा स्वप्नमय, अद्भुत लगती है। ये आकार कलाकार की कल्पना या उसके विचार नियन्त्रित प्रयोजन के नहीं होते। वे होते हैं, बस स्वतन्त्र, गति का चित्ररूप।
‘स्वयम्भू।’
दो दीवारों के दरमियान नब्बे अंश का कोण बनाकर उसके बीचोबीच पैंतालीस अंशों के कोण में रंग दागने का माध्यम तोप संयोजित होती है। दीवार के कोण पर रंग का प्रहार होने के कारण उस प्रहार की शक्ति दोनों पाश्र्वों में विभाजित होकर स्थिर हो जाती है। दोनों पाश्र्वों में यह प्रहार विभाजित होकर रंग-रचना समान्तर बन जाती है और एक कल्पित चित्र जैसा चित्र सामने खड़ा हो जाता है। अनीश कपूर का यह चित्र अपने भीतर हिंसा का भाव भरता है। रक्त, मांस आदि का आभास करानेवाली घटना सामने खड़ी हो जाती है। दो दीवारों के बीच के कोने में खड़ी रेखा और यह रक्त-मांस का अहसास; अपने आप ही ‘नरसिंहावतार’ के मिथक का रूपक साकार करता है।
‘कलाकार वस्तु नहीं, मिथक की रचना करते हैं’
एक ही दिशा में जानेवाली अथवा वृत्ताकार घूमकर किसी भी दिशा से विहीन - दोनों प्रकारों में गति बहुत तेज़ रूप धारण करती है। एक केन्द्र्र में स्थिर होकर कम्पास जैसी वृत्ताकार घूमनेवाली गति से भी अनीश कपूर अपनी कला निर्मिति करते रहते हैं। पूर्ण वृत्ताकार, अधर््ावृत्ताकार अथवा वृत्त का अल्प हिस्सा (कोष्टक की तरह) अनेक आकार बनाते हैं। भीतर का अहसास एक रहकर बाहर से असंख्य आकार बनते हैं। केन्द्र्र एक ही हो तो भी परिधि असीम होती है।
‘विष्णु के सहस्त्र नाम हैं।’
अनीश कपूर की कलाकृति में गति के साथ-साथ प्रकाश की भी क्रीड़ा होती है। धातुओं का अत्यन्त विशालकाय आयीना भूमि पर रखकर उसमें आकाश का प्रतिबिम्ब तोला जाता है। इससे भूमि पर ही एक आकाश का टुकड़ा अवतरित होने की तरह एक स्वप्निल दृश्य बनता है। झाड़-झंखाड़ में तरल बादलों का रूप जादुई लगता है। कलाकृति देखने के बाद यह दृश्य केवल दृश्य नहीं रह जाता, बल्कि उसमें भी चन्द्रमा के लिए जिद करनेवाले राम का मिथक प्रकट होता है।
अपने परिसर को अपने भीतर समा लेना आयीने का गुण है। अनीश कपूर कभी-कभी इसके विपरीत जाकर अलग ही रूप तैयार करते हैं। धातु से बना उनका आयीना अनेक टुकड़ों में बँटा होता है। प्रकाश अनेक कोणों में परावर्तित होने के कारण आयीना सामने का दृश्य ज्यों का त्यों नहीं दिखा पाता। परिणामतः सामने का दृश्य छोटे-छोटे दृश्यों मंे बिखरकर उसका एक अपरिचित पुनर्रूप बनता है। अर्थात्, रूप का एक मिथक ही तैयार होता है।
‘विष्णु के सहस्त्र नाम हैं।’
अनीश कपूर को रंग, रूप और प्रत्येक वस्तु में मिथक ही मिथक महसूस होते हैं। भारतीय परम्परा में यह धारणा है कि चराचर के हर किसी में आत्मा का अस्तित्व होता है। शायद इसी कारण अनीश कपूर को भारतीय वास्तु, अध्यात्म, कारीगरी, परम्परा -सभी के प्रति तीव्र आकर्षण है। वह कहते हैं, ‘मैं भारतीय हूँ। मुझे इसका गर्व है। भारतीय जीवन मिथकीय दृष्टि से समृद्ध और शक्तिसम्पन्न है।’