08-Jun-2019 12:00 AM
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...इतिहास की भट्ठी में सिंकी, समय की रगड़ से धूसर काले पत्थरों की लपेट से गढ़ी संकरी गली में आबाद यही वह मुहल्ला है...
इस गलीनुमा सड़क पर कहर की तरह ढहती नीली,लाल बसें, विशालकाय तिलचिट्टों की शक़्लवाली सरसराती मोटर कारें तथा सड़क के किसी मुहाने पर रह-रह कर देर रात को सूँ सूँ की आवाज़ करती, कूड़ा उठानेवाले छोकरों को अपने रबर के मोटे दस्ताने से चटपट कूड़ा बटोरने का पयाम घनघनाती कूड़ागाड़ी... शुक्र-शनिचर के दिन की खास हलचलें, ‘आश्चर्यलोक में एलिस’ की गहरी सुरंगनुमा खाई में सरक अहरह निराली एवं स्वप्नमयी घटनाओं से भेंटने का अहसास दिलाती हैं...।
तो अन्तर्विरोधों के घनचक्कर में साँस भरते महानगर का यह सबसे पुराना मुहल्ला! जी हाँ, यही दिन में अदना-सी लगनेवाली चीज़ों को, रात के टोनहे घाघरे में डाल, किंवदन्ति के राजकुमारों के भेड़ बन जाने की कथा दुहरा देता है, अपने निजी तरीके से इजाद कर...
युकेलिप्टस के दरख्तों को अपना सन्तरी बना कर खड़ी, दस मंजिलोंवाली २८ नम्बर की हरी इमारत इसी संकरी सड़क पर है। इसी हरी इमारत की सीध में, जीने-मरने की अनेकों-अनेक कथाओं की उधेड़बुन में लगा, सफे़द बुर्राक लिबास में गर्वीले अंदाज़ में तन के खड़ा है, अस्पताल अर्खेरिच! इसी अस्पताल के पीछे से सटी चैड़ी पटरी पर दो दिन लगनेवाली हाट के खुशनुमा शोर-शराबे में इधर-उधर कुछ खोजती महिलाओं के झुण्ड गली की अधमरी समा में रक्त संचार-सा कर देते...कि बीमार-सी लगनेवाली यह पतली सड़क चेतन हो जाती, हरी-हरी सब्जियाँ, लाल, बैजनी, गुलाबी फलों के सजे ढेर, किस्म किस्म के पनीर एवं तरह तरह के सासेज घरेलू महिलाओं की तबियत में चार चाँद लगा देते! जनाब मानुएल का ट्रक में लगा मछली बाज़ार जिसमे ‘सुरुबी’ नामक बड़ी मछली का सुनहला रंग और ‘साल्मोंन’ के बिना काँटे वाले नारंगी रंग के पतले कतले पैसेवाली ख़ानमो की आँखों के लिए जलसा बन जाते! मुर्गी और अण्डे बेचनेवाली दोइयाँ मोर्गादा की ठस्सेदार मुद्रा के तिजारती मिजाज़ की टाप हर गाहक महसूस कर लेता! सौदा माँगते वक़्त अगर आप उनसे ‘मेहरबानी करके’ और सौदा पा लेने पर ‘शुक्रिया’ कहना भूल गये तो मोर्गादा की टेढ़ी नज़र आपकी माँग अनसुनी ही रखेगी!
वोलिबियन सब्ज़ीवाले के एकदम ताज़े हरे, सुर्ख रसभरे सेब, जामुनी प्लम, सन्तरे, टमाटर, किसिम-किसिम के सलाद, लाल, पीले शिमला मिर्च...अरे वाह! सब पे परखतीं निगाहें टिक जातीं, ‘आहा! कितनी ताज़गी और दाम भी गला काटनेवाले नहीं, बल्कि माकूल!’, सलीके से इन्तज़ार में, बतियाती महिलाओं के आगे, हथौड़ी-सी नाक तथा बेल की मानिन्द फूले गालवाले दोन अतीलियो की ठनकती आवाज़ अपने किशोर छोकरों पर बरसती- ‘अरे! काहिलों मूस! ऐसी सुस्ती तुम लोगों के किस भडुए की विरासत है? अएए! मूस! ज़रा जल्दी हाथ चला! गाहक कब से खड़े है! अरे, अपनी कूबड़ सीधी नहीं करोगे तो गटर के सिवा कहाँ जगह मिलेगी रात गुजारने को? रोटी मुफ़्त तोड़ने को नहीं मिलती!..जल्दी कर ओए पिल्ले! टोकरियाँ अभी तक नहीं लगीं और किधर है गाजर का डिब्बा?’
गैरक़ानूनी तरीके से इस मुल्क में दाना पानी की तलाश में आये पारग्वायन और वोलिवियन छोकरों को, सस्ती महावारी पर रखनेवाला पट्ठा अतीलियो अपने को किसी राजा से कम नहीं समझता!
उसके विपरीत हर एक के लिए शरीफ़ अदा से अकेले दस तरह की गीली सूखी सख्त कद्दूकश पे घिसनेवाली पनीर, सिरकेवाले आचार, सोयाबीन सास और पित्सा का बेस बेचनेवाले डाॅन लूका की होती।
हरी इमारत की आठवीं मंजिल।
इसी हाट के ठीक सामने लिफ़्ट से उतर कर शुक्रवार के दिन दो नारी मूर्तियाँ इस नन्हे-से त्योहारनुमा बाज़ार में आतीं-सूखी पनीर के चूरे, लाल शिमला मिर्च, जर्मन सासेज़, बड़े बड़े टमाटरों, प्लम और हरे सेबों से टोकरी भर लेना उनका हर शनिवार का रिवाज़ होता। अतीलिया से कुछ दूर पर अपनी सब्जी की दूकान लगाये दोन पेद्रो उन्हें अपनी सुथरी मुस्कान के साथ जब ‘आज क्या चाहिए सुन्दरियों?’ कहते तो ८९ साल की लम्बी, छरहरी हरी आँखें और लम्बोतरे चेहरेवाली अन्तोनिया एक नन्हा ठहाका लगा कर अपनी लहीम-शहीम, स्वर्णकेशी, विशाल नीली आँखों और शालीन मुद्रा वाली सुन्दरी बेटी देवोरा की ओर मुखातिब होतीं..., चूँकि देवोरा वहाँ से मुख्तसर-सा मौसमी फल और सब्जी खरीद कर मुस्कराती खामोशी से चल देती माँ का हाथ थाम, इसलिए दुकानदार को आगे कुछ पेश करने का मौका हासिल नहीं होता।
हाट अब भी उसी रफ़्तार से लगती। मगर हमारी ये नायिकाएँ अब अप्रस्तुत हो गयीं हैं वहाँ से...। उनमें से एक की निगाह अब अस्पताल की छठी मंजिल के ‘इण्टेसिंव थेरापी’ वार्ड की ओर टँगी रहती है- रोज़ ब रोज़..समय वही- अलस्सुबह जब सुबह की सुनहली धूप खिड़की के काँच को गर्म कर देती तो अन्तोनिया के होंठ कुछ बेताबी से खुलते...नाश्ते की मेज़ की ओर रुख ढरका कर- ‘आ री! मेरी आँख की पुतली! मेरी सुन्दर गुडि़या! जल्दी आ, देख कहीं तश्तरी में सिकें गरम, गरम टोस्ट ठण्डे न पड़ जाएँ...मेज़ पर तेरी मनपसन्द का चेरी का जैम है.! और क्रीम पनीर भी! देख लो तो सही, ब्राजीली काफ़ी से कैसी सुगन्ध उड़ रही है! अख़बार भी आ गया है, मगर नाश्ते से पहले अख़बार में आँखें नहीं गड़ाते न...’
लम्बी, ताड़ के गाछ-सी दुबली पतली माँ अन्तोनिया काँच की खिड़की से चेहरा सटाये, चन्द मिनटों के एकालाप में मशगूल.., हाट बाज़ार की तरफ से बेपरवाह... ‘ऐसा ही होना था क्या?’, एक एक लफ्ज़ चबाते उनके होंठ दुहरा दुहरा कर बुदबुदाते हैं... उनके मानस में एक लम्बी रील चल रही होती जिसके रदीफ़ काफियों में कोई क्रम नहीं... या फिर मन में एक झूलना है- खाली खाली...एक खोयी हुई लोरी जो झूलने के निकट बेताब हो उठी है... खिड़की से नाक चिपकी हुई और बाहर बरसात बे-शब्द जारी मृत्युमय मंजर बन के...
अरे! क्या और क्यों हो गया अन्तोनिया को कि...
ज़रा पीछे की तरफ मुडि़ये...
हरी इमारत की आठवीं मंजिल के फ़्लैट में शनिवार यानि दफ़्तर से छुट्टी का दिन, परिवार के सभी सदस्यों के एक साथ खान-पान का दिन, देवोरा या अन्तोनिया के कोई न कोई परिचित, दोस्त भी अक्सर शामिल किये जाते। अन्तोनिया लोहे की छड़ पर मांस भूनती। फिर बेक किये लाल शिमला मिर्च को सिरके में भिगो कर, ओलिव के भरवें टुकड़ों, और दो किस्म के बनाये सलाद के साथ, बेकरी से लाये गोल गोल ताज़े ब्रेड एक बांस की नन्ही खूबसूरत टोकरी में रख मेज़ पर सजा दिये जाते। मेज़ के बीच फूलों से सजा एक बिल्लौरी काँच का फूलदान हमेशा के रिवाज़ में शान से धरा होता। लाल, उम्दा वाईन की बोतल-ठीक देवोरा की पसन्द- मेहमानों के आगे रख दी जाती। काँच के अण्डाकार प्याले में पहले वाईन ढलती, फिर कप टकराने के बाद एक एक सिप लेकर सब लोग अपनी-अपनी प्लेटों के आगे छुरी-काँटे झुका देते। खाने की शुरुआत होती हैम के टुकड़ों के साथ खरबूज की एक बड़ी-सी फाँक से। फिर प्लेटों में माँस के पके टुकड़ों के साथ सिरकेदार लाल शिमला मिर्च और ओलिव के टुकड़ो के साथ सलादों की बारी आती।
देवोरा की छुट्टी का दिन माँ अन्तोनिया के लिए एक किस्म का त्योहारी दिन होता। शेष दिन अन्तोनिया के लिए घर का कामकाज समेटने, कढ़ाई-बुनायी या नये-पुराने ख़तों और अखबार पढ़ने के होते। ज़माने से अन्तोनिया ने सिलाई का काम करके ही जीविका चलायी। उन्हें लिथुआनी ‘पोल्का’ का भी कुछ शौक था। अब नाचतीं तो क्या, कसेट लगा कर सुनतीं भर। कम्प्यूटर से उनका मेल मिलाप नहीं हो पाया।
खाने-खिलाने के बाद उनका पोता दारीयो और उसकी माँ लेइला विदा हो जातीं तो माँ अन्तोनिया अपने नये मेहमान के आगे अलबम खोल के बैठ जाती- ‘देखिए, ये है साल भर की देवोरा अपने नन्हे द्न्तुले में ‘हुम्हुम म अ’ कर हँसती हुई कितनी प्यारी लग रही है- अपनी लाल टोपी में एकदम गुडि़या जैसी! टोपी में एक फुँदना लगा है न! ..और ये है देवोरा के तीसरे जन्मदिन की फोटो। इसका मुँह केक की गीली चाकलेट से भूरा भालू बन गया है!...इधर है देवोरा के ‘कम्युनियन’ की फ़ोटो जब उसने पन्द्रह साल पूरे किये! हमारी रस्म के मुताबिक, पहला नाच इसका अपने पिता के साथ होता है। देखो, कितने हैंडसम हैं देवोरा के पिता! वे थे लिथुआनिया के और मैं ठेठ ‘अंदालूसीया’ की! किन्तु मिले हम कहाँ? बोयनोस आइरेस में!!
-‘आपका परिचय कैसे हुआ देवोरा के पिता से-’, मेहमान की उत्सुकता पर मेजबान ने बगैर एल्बम से नज़र उठाये बताया-
‘महाशय जी एक फैक्ट्री में मेकेनिक थे। मैं सिलाई, और कपड़ों की मरम्मत करने का काम करके गृहस्थी चलाती थी। एक दिन वे अपने कोट में बटन लगवाने आये थे मेरे पास। उन्हें पहली ही बार देख कर मेरे तन में तितलियाँ फड़फड़ाने लगीं थीं...उनकी निगाह भी मेरी तरफ टिकी कुछ निराले रूप से ही ...हम दोनों की भाषा अलग, रिवाज़ में फ़र्क! मगर प्रेम के लिए तो सारे फ़र्क हवा हो जाते हैं न ! भाषा की क्या दरकार! फिर दिमाग के तेज़ जूलिउस को इस्पहानी सीखने में कुल जमा छह महीने से ज़्यादा लगे भी नहीं! और आठ महीने के परिचय में हमने एक दूसरे से विवाह की गाँठ बाँध ली। पहले जन्मा आन्द्रेउ और फिर उसके बाद देवोरा गोद में आ गयी! देवोरा से जूलिउस को कुछ ज़्यादा लगाव रहा। है भी वह शुरू से ही मेधावान, समझदार, गम्भीर और जिम्मेदार।’
‘फि़लहाल’ कह कर अन्तोनिया अलबम बन्द कर देतीं हैं...।
‘ज़रा चाय बना लूँ’, बोल के उठ खड़ी होती हैं।
उस दिन साइरा, देवोरा की पियानो की भूतपूर्व शिक्षिका और सहेली ने अपनी उत्सुकता चाय आने तक दबा लिया। फिर अकस्मात पूछ बैठी, ‘आखिर आप अन्दालूसिया (दक्षिण स्पेन का एक शहर) से यहाँ इतनी दूर आयीं क्यों और कैसे?’ साईरा के अकस्मात प्रश्न को उस दिन अन्तोनिया ने- ‘फिर कभी’- कह के टाल दिया- ‘पहली बार में ही मेरी जि़न्दगी का इतिहास जान लोगी क्या? कुछ बातें बचा के रखनी होतीं है अगली बार के लिए।’
क़रीब महीने बाद पुनः साइरा शनिवार के भोज में शामिल थी। तीनों महिलाओं के वार्तालाप के चलते, बात-बात में कुछ पहेली के अंदाज़ में अन्तोनिया ने पिछला प्रसंग उठाते बताया, ‘दरअसल सब संयोग की बात है और क़रीब हर संयोग में अक्सर ही किसी बड़ी दुर्घटना का हाथ होता है...मेरा पूरा परिवार अन्दालूसीया के एक गाँव में अंगूर की खेती करता था। पाँव से अंगूर दल कर हम उसका रस निकालते और वाईन बना कर अपने लिए रख कर बाकी सब शहर में बिक्री को भिजवा देते। पीढ़ी दर पीढ़ी, हमारे जीवन का आर्थिक जरिया यही चला आया था। साथ में ओलिव की खेती भी होती और उससे निकाला तेल आमतौर पर हमारे अपने घरेलू इस्तेमाल के लिए होता। तब हमारा वाइन बनाने का रिवाज़ नायब होता था-एकदम किसी बड़े त्यौहार जैसा पूरा माहौल जलसा बन जाता! एक विशालकाय कठौते में अंगूरों को पाँव से कुचलते, उछल-उछल, नाचते गाते पीसा जाता, बच्चे, जवान, औरत, मर्द सभी इसमें शामिल होते। इसके बाद लकड़ी की एक बड़ी नली से सारा रस निकाला जाता, बीज अलग किये जाते, छाना जाता, फिर बड़े-बड़े ड्रम में ठण्डी जगह में साल-दो साल तक रखा जाता। पूरी एक लम्बी प्रक्रिया चलती। सबसे बेहतरीन वाईन वह होती जो बलूत की मज़बूत लकड़ी के ड्रम में रखी जाती-पूरे चार साल तक! यह वाईन बड़ा खर्चीला मसला होने के नाते महज़ शादी ब्याह और क्रिसमस के वक़्त इस्तेमाल किया जाता। अमीरों की बात और है; हमारे लिए तो सबसे उल्लास की घटना थी नाच गा कर अंगूर का रस निकलना! यूँ अंगूर के ताज़े गुच्छे तोड़ कर मुँह में चुभलाने का मज़ा क्या जबान से कभी जा सकता है भला! एक बात और बता दूँ- तेज़ धूप की गर्मी ही अंगूर में रस भरती है और मिठास भी।’
साईंरा के लिए यह नयी बात थी।
-‘ऐसी वाइन काँच के सुन्दर कप में डाल के पहले हिलाते तो वाइन के आँसू कप में चिपक जाते..फिर सिप किया जाता...इससे पता चल जाता कि वाइन उम्दा ढंग से तैयार हो गयी और किस्म बेहतरीन है।’
कुछ पल अन्तोनिया चुप रहीं। जब साइरा ने आँखों से ही प्रश्न किया तो वे बोलीं- ‘तुम ये जानना चाहती हो कि फिर यहाँ कैसे, है न? तो - होनी की कौन कहें-अन्तोनिया की आवाज़ में गमगीनी उभर आती है- ‘एक दिन तो सर पर गाज ही गिरी...अंगूर के समूचे खेत को आग ने जकड़ लिया..जड़ समेत अंगूर की लताएँ भस्म हो गयीं! बगीचे के बीच का हमारा मकान, हमारी छावनी, सब खाक में बदल गये! उस दिन हमारा पूरा का पूरा गाँव एक शादी में गाँव से दूर के गिरजाघर गया हुआ था, इसलिए जान तो किसी की नहीं गयी, मगर उस सर्वनाश से मेरे दिल को इतनी चोट लगी कि उस मुए गाँव में रहने की तबियत ही न बची, न कोई तरतीब ही सूझी! मेरी किशोर उम्र में ही माँ इस दुनिया से जा चुकीं थीं; बाप जान का किसी जवान बेवा से इश्क चल रहा था। फिर हक़ीकत ने इस कदर पलटा खाया, उसमें अपने अंगूर के खेतों के ख़ाक होने के बाद वहाँ बेजारी से बसे रहने का कोई बायस नहीं रहा मेरे लिए! एक रात मैने अपनी पोटली बाँधी और पानी के जहाज पर बिना सोचे समझे बैठ गयी...। कितनी कड़ी सर्दी लगती थी डेक पर, कुछ पूछो मत! किसी न किसी तरह इस देश में लंगर पड़ा। शरणार्थियों की भीड़ में मैने भी अपने को खड़ा पाया...बगल में एक बकुची और एक छोटी पोटली के अलावा कुछ न था साथ में। भूख से पेट कुलबुला रहा था। मगर रहमदिल हर कहीं मिल ही जाते हैं; एक बूढ़ी महिला मुझे अपने साथ ले गयीं। उन्हें अपने घर की देखरख करने के लिए किसी औरत की दरकार थी। यानि देखिये, यहाँ भी इत्तफाक ही काम आया! मगर मुझसे वहाँ ज़्यादा वक़्त टिकना मुनासिब न हुआ...बूढ़ी महिला भली थीं मगर उनके लफंगे भतीजे की बुरी नजर का शिकार होना अपने को गवारा नहीं था किसी हालत में...।
मगर खुदा न खास्ता, साथ में सिलाई, कढ़ाई आदि का अपना हुनर था जिसके बलबूते अपनी जि़न्दगी की गाड़ी चल पड़ी।’
‘यहाँ पहुँचने के कितने वक़्त के बाद आपने कैसे अपने को जमाया।’
‘अरे, यह कहानी लम्बी और गर्दिश से भरी है उसी तरह जैसे शुरू के तमाम गुरबतियों की होती है...छोड़ो भी बिटिया।’
पर जब पूछा ही तो उन्होंने कुछ बीच में छोड़ के दास्तान जारी रखी,
‘हाँ शादी के बाद के दिन आर्थिक कठिनाई के होते हुए भी हम सुखी रहे। अपने दो नन्हे बच्चों को लेकर जूलिउस के साथ वे दिन मेरे सबसे कीमती और खुशहाल दिन थे। मगर बदकिस्मती फरावनी बिल्ली की तरह पीछे से झाँक रही थी... ! जूलिउस तपेदिक का शिकार होके चल बसे हमे छोड़! उनका तन इस शहर की चैरासी डिग्री तक पहुँचनेवाली नमी को बर्दास्त न कर सका...। तब अकेले ही बच्चों को पालना, पढ़ाना-लिखाना और इसके लिए अपने पुराने पेशे में लौटना! आन्द्रेउ अपना घर बसा कर चला गया। अब मेरे पास देवोरा रह गयी है, मेरा हर तरह से खयाल रखनेवाली। इसी ने तो मुझे मज़बूत बना रखा है, वरना इस उम्र में...! नौकरी देवोरा की अच्छी है मगर बहुत मेहनत माँगती है। इसके बावजूद वह अपनी थकान भूल कर, मुझे हर छः माह चेकअप के लिए अस्पताल ले जाना, दवा खरीदना, बाज़ार हाट करना, भतीजे की पढ़ाई का खर्च उठाना, सप्ताहान्त में उसे पार्क ले जाना या बच्चों की फि़ल्म दिखाने ले जाने की जिम्मेदारी निभा लेती है- सभी कुछ बिना शिकवा के! बड़े भतीजे को अच्छी सीख मेरी देवोरा ने ही दी है, वरना आजकल के छोकरे मौज मस्ती, बियर, ड्रग के सिवा और करते क्या हैं? माँ-बाप का भुरता ही तो बनाते हैं...
‘और आन्द्रेउ?’ साइरा के मुँह से निकला।
इस प्रश्न ने अन्तोनिया के तम्बियाए चेहरे पर घने बादल बिछा दिये...सर नीचा किये कुछ देर खामाशी धरे रहीं, फिर चुपचाप बर्तन उठाने के बहाने उठ गयीं...।
देवोरा ने अगले हफ़्ते बाद साइरा के घर में भेद खोला, ‘आन्द्रेउ एक भीषण एक्सीडेण्ट का शिकार होकर मौत के गले लगे...भाभी कम पढ़ी महिला, कोई अकादमिक शिक्षा-दीक्षा पायी नहीं। भाई की अकाल मौत को गले के नीचे उतार नहीं पायी। भारी डिप्रेशन के तहत दवा की गोलियों में इजाफ़ा होने से उनका दिमाग सुन्न होता गया है और शरीर निढाल। छोटे बेटे को ही मुश्किल से सम्भाल पातीं हैं। नौकरी, वे एक हाॅउस ब्रोकर की एजेंसी में करती है हफ़्ते में दो या तीन दिन। नौकरी क्या उठाऊ चूल्हा! एक बहुत मुख़्तसर-सी तनख़्वाह मुआ ब्रोकर देता है हर हफ़्ते जिससे घर का खर्च चलना नामुमकिन!! मैं हाथ न दूँ तो खर्च पूरा कैसे पड़े उनका।’
अपने एल्बम में बन्द इतिहास का यह हिस्सा अन्तोनिया ने आन्द्रेउ की फोटो न दिखा कर अधूरा छोड़ा था...
लेदर और फर कोट बना कर एक्सपोर्ट करनेवाली कम्पनी में सिर्फ़ अठारह साल की आयु में खूब लगन और आत्मविश्वास के साथ काम शुरू कर अब अपनी सख़्त मेहनत और मेधा के बल पर वह एक खासी ऊँचे ओहदे पर पहुँची थी। उसी के वायदे और मेहनत के बलबूते कम्पनी तरक्की पर तरक्की करती गयी। अधिक से अधिक ग्राहक जुटाने में भी देवोरा का ही हाथ रहा। विदेशी खरीदारों को भी पटाना उसे आता था; फ्ऱाँसीसी और पुर्तगाली भाषा की जानकारी की वजह से कोई दिक्कत नहीं। इस सिलसिले में उसका कई बार ब्राजील और यूरोपीय देशों में जाना हुआ। तमाम मीटिगों में भाग लेना, तुरत-फुरत फ़ाईलों की निगहबानी कर लेना, बाज़ार-भाव देख लेना, ग्राहक पटा लेना भी अन्य कामों के साथ शामिल। निर्देशकों की शाबाशी और कम्पनी के मालिक का उस पर भरोसा चुनौती देता हुआ उसे अपनी की धुन में लपेटे अपने काम की सनद देता रहा। कामयाबी का सेहरा भी उसके सर चढ़ता गया...।
काम की व्यस्तता ने कभी उसे अपने बारे में या विवाह और अपना परिवार बसाने के मसले पर सोचने का मौका ही नहीं दिया... अब अच्छी खासी ऊँचाई पर पहुँचने की कीमत चुका चुकी तो अकेलेपन का अहसास जगा, जिसे भुलावा देने के लिए रात को बाख और मोत्ज़ार्ट की क्लासिकल सिम्फनियाँ रह गयी थी जिसे पियानो पर देवोरा पहले बजाती नीला बल्ब जला के...
दफ़्तर से लौटने के बाद शाम के सात बजे से लेकर रात तक देवोरा का समय एकदम अपना होता। कन्धे से भारी बैग और कान के टाॅप्स तथा गले की जंजीर उतार, नहा-धो के ताज़ी हो, आर्म चेयर पर अधलेटी हो जाती... अपने प्रिय संगीतज्ञ बाख की या रूसी सिम्फोनी के साथ आँख मूँद कर एक अलहदा किस्म की कल्पना का संसार रच लेती... खूबसूरत इटेलियन कप में लाल उम्दा वाइन का सिप लेती हुई वह धीरे-धीरे उसे गन्धर्व लोक में झुलाता... अब वहाँ दफ़्तर की सत्रह मंजिली सुरंग-सी लिफ़्ट की बन्दर चढ़ाई, उतराई न होती रोज़मर्रे के रिवाज में... न ही अपनी जि़न्दगी की वह तेज़ ‘शाटों’ वाली दफ़्तरी चाल..चिपचिपाती दफ़्तरी लेई, देवोरा के तन मन से धुल गयी होती...उस समय हर किस्म की परेशानियाँ छिलके की मानिंद उतरी लगतीं...
सप्ताहान्त में कभी-कभी कम्प्यूटर पर माँ या भतीजों के साथ कोई फि़ल्म देखना भी हो जाता। गर्मी की छुट्टियों में समुद्र में तैराकी देवोरा का सबसे सार्थक सुख होता। घण्टों समुन्दरी लहरों का उतार-चढ़ाव खास कर शाम के पहेलीदार आसमान से उसका मिलान करती हुई देवोरा के दिमाग में उड़े-उड़े से ख्याल आते। बेतरतीब मगर धुले... नर्म धूप से नीम गरम बालू पर नीली ‘बीकिनी’ में उस वक़्त देवोरा अपना उज्ज्वल बदन बिछा देती रिलैक्स की मुद्रा में... समुद्र के नीले रंग से गले लगते नीले आकाश की ओर चेहरा ऊपर किये देवोरा के मानस में पहला ख्याल आता अपनी कब्र में पाँव लटकाये माँ का जिसे कभी ख्याल ही नहीं आया कि देवोरा को भी एक पुरुष की और अपने तन से जाए सन्तान की कामना हो सकती है! देवोरा में तो अब उस इच्छा ही ख़र्च हो चुकी... आपस में एक-दूसरे के प्रति असीम ममता-प्यार से देवोरा और माँ खूब जुड़ी हैं। देवोरा का कुछ समय के लिए कोई रोमाँस चला मगर अपने प्रेमी का परिचय माँ अन्तोनिया से कराना नहीं हो पाया... क्यों? यह ‘क्यों’ उसे भय से रंग देता है... उत्तर देने का साहस नहीं! चलो, अब तो बहुत देर हो चुकी।
देवोरा मनोविश्लेषक श्रीमती मिनोती के दीवान पे अधलेटी है... मिनोती ने कुछ पूछा तो उसने मसले को कुछ दूसरी तरफ मोड़ कर कुछ आवेश के साथ उठकर कहा- ‘मेरे साथ कोई अफ़सर या पुरुष कर्मचारी छेड़छाड़ नहीं कर सकता था; इसलिए नहीं की मेरी शकल सूरत में कोई खोट है, और वे रहे दूध के धोये; बल्कि इसलिए की क़ानून में छेड़छाड़ की कड़ी सजा है और मैं भी कोई दब्बू नहीं कि उनकी अश्लील हरकतें गटक जाऊँ! नाकों चने चबवा देती अपने बदन पर हाथ रखनेवाले को! ये वे जानते रहे बखूबी।’
देवोरा उस दिन कुछ आवेश में थी...। दिल का बुखार कहाँ निकालती सिवा नांसी मिनोती के दीवान पर अधलेटी होकर ही तो! वह बोलती गयी..
‘फिर मैं कम्पनी के लिए एक आदर्श कर्मचारी हूँ, किसी बड़े अफ़सर से बढ़कर काम में होशियार जिसकी दरकार कम्पनी के लिए बढ़ती गयी है... कम्पनी का मालिक मेरा ही मुँह जोहता है कि कमबख़्त मैं वफ़ादार इतनी कि कम्पनी की ग़ैरक़ानूनी हरकतों को नजरन्दाज़ कर गयी कई बार! मिसालों में एक ये ही है कि आमतौर पर मामूली कर्मचारियों और माल ढोनेवाले मज़दूरों का वेतन नौ से उन्नीस दिन तक रोक लिया जाता है! क्यों? क्योंकि हिसाब लगाने में कोई न कोई धूर्त बहाना गढ़ा जाता कि माल सही न बिकने पर घाटा हुआ है... कि सभी को सब्र करना चाहिए और कम्पनी का साथ देना चाहिए कुछ सैक्रिफ़ाई कर के... वगैरह-वगैरह तमाम झूठों की कालीन बिछा दी जाती...अब्सर्ड! कभी ऐसा नहीं हुआ! कम्पनी की रेल पर हमेशा पूरनमासी रहती और उनका सूरज हमेशा चमकता रहा है... हक़ीकत ये है कि कर्मचारियों का वेतन कम्पनी के बैंक में जमा सूद से अदा किया जाता, जितना समय पैसा बैंक में जमा रहेगा उतना ही सूद में इजाफा! यही नहीं, सिर्फ़ ३० प्रतिशत कर्मचारी क़ानूनी तौर पर मुलाजिम हैं; बाकी सब ब्लैक में! इस तरह कम्पनी को ब्लैक में काम करनेवालों को, क़ानूनी तौर पर जायज पेंशन पाने के हक़ का पैसा नहीं भरा जाता तथा उन्हें कानूनी तौर पर मिलनेवाला सामाजिक लाभ, बीमारी भत्ता या इलाज की सुविधा आदि से वंचित रखा जाता है! यही नहीं, ब्लैक में काम करनेवालों को नौकरी से किसी वक़्त बर्खास्त करने पर कोई हर्जाना भी नहीं दिया जाता! इसके अलावा सरकारी टैक्स से बचने के अन्य टण्टे भी हैं... रिश्वत की एक ख़ास रकम हमेशा एकाउण्ट में रिजर्व रखी जाती है... दरअसल मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता; ऐसी हरकतों के ख़तरे की तरफ इशारा भी किया मैंने; मगर मालिकों के कानों पर जूँ नहीं रेंगती, हमेशा धूर्त दलीलों से वे लैस रहते! वे अपने हथकण्डे के प्रति इतने आश्वस्त हैं तो मैं क्या कर सकती हूँ? हर कम्पनी का क़रीब यही हाल है। सरकारी तन्त्र में ही भ्रष्टाचार है। आखिर आबकारी इन्स्पेक्टर रिश्वत लेकर काले धन्धे पर पर्दा तो डाल ही देते हैं! मुझे भले काँटे की तरह ये कुकर्म चुभते हैं, पर मैं भी तो अनचाहे ही इस तन्त्र का हिस्सा हूँ जो काले बाज़ार को सिद्ध करता है और आम आदमी की मज़बूरी खरीदता है चन्द कागज़ के टुकड़े थमा कर! लोग बीमार बाप, बूढ़ी थकी माँ, कमज़ोर बीबी और बच्चों की पढ़ाई और भविष्य की बाबत पहले सोचते हैं, नैतिक-अनैतिक का सवाल पिछड़ा रहता है... आँख पर पट्टी बाँधने और कान में ठेठी डालने की बेबसी से कौन अलग रह पाता है आज भला! मन में कसक होती है जिसे बासी डकार की मानिन्द मैं निकाल देती हूँ...अपनी शुरू की महत्वाकांक्षा का शिकार तो मैं अब हूँ ही और उसे भोगना ही है...’
थोड़ा चुप रहकर फिर बोली, ‘मेरी माँ ने हमें हर तरह से लायक बनाने के लिए सारा जीवन सुई-धागे में तन-मन लगा, देह पर इतनी झुर्रियाँ बना लीं..; बड़ा भाई भी दुनिया में रहा नहीं... तमाम जिम्मेदारियाँ... तो अब मछली के काँटे को कैसे गले से निकालूँ? बताओ!’
देवोरा अकस्मात उठकर श्रीमती मीनोती की मनोविज्ञान की किताबों की आलमारी पर फ्रायड और लाकाँ की किताबों पर निगाह घुमाती है। दोनों को उसने पढ़ा है। फ्रायड की लिबिड वाली थ्योरी से वह कभी सहमत नहीं हो सकी...।
मीनोति ने कुछ समझा...
‘तुमने कभी दीवाने ढंग से किसी को प्रेम किया कभी देवोरा?’
चैंकने के बाद संभल कर देवोरा बोली - ‘हाँ, दो बार। मेरा पहला प्रेम सोलह साल की उम्र में शुरू हुआ पर वह चला नहीं। वह ताम्बे के से रंग का, कंजी आँखोंवाला आॅस्ट्रियन था जो हमेशा डरावनी बातें किया करता, कौन कहाँ, कैसे मरा, कैसी हो गयी थी उसकी लाश गन्दे नाले के पानी में फूल कर...; किस मर्दुये ने बीबी का गला छुरी से रेत कर हत्या की या एक्सीडेंट में पूरा शरीर कैसे चिथड़े-चिथड़े हो गया था खून के थक्कों से भरा... रात बेहद काली थी..पानी झमाझम बरस रहा था जब बड़ा चाक़ू लेकर’...वगैरह-वगैरह उसकी बातचीत के खास मसले हुआ करते जिन्हें वह चटकारे लेकर बयान करता! डर के मारे मेरी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती! सोचो ज़रा! उसका पहला आलिंगन और चुम्बन मुझे मिला भी रात को एक कब्रगाह में एक भूतनी की कथा के साथ!! मुझे डराने में उसे खास मज़ा आता था। कहता कि डरी हुई मैं उसे ‘बहुत सुन्दर और प्यारी लगती’ हूँ! मगर एक दिन तो उसने हद कर दी- एक उजाड़ रेल की पटरी पर मुझको लिटा कर, सनसनाती हवा के बीच नाटकीय भाव से बताने लगा कि हिटलर की प्रेमिका तूफ़ानी रात में एक लालटेन लेकर, बफऱ् में पाँव धँसा, अपने नशे में धुत प्रेमी को कैसे खोजा करती थी..‘इतना गहरा प्रेम था उसका..तुम भी मुझसे ऐसा ही प्रेम करोगी न?’
इसके बाद उसने प्रेम में ख़ुदकुशी करनेवालों के नाम गिनाये। ‘मान लो यहाँ कोई रेलगाड़ी धड़ से गुजर जाय तुम्हारे ऊपर...’
मुझे डर से ज़्यादा इतनी वितृष्णा हुई कि तुरन्त वहाँ से तेज़ी से भाग खड़ी हुई...डर में धँसी हुई मैं उसकी शक्ल देखने से बचती रही बहुत समय तक। कुछ समय बाद यह पता चला कि वह एक साइक्याट्रिक सेनेटोरियम में भरती है।’
‘उसके बाद फिर कभी?’
श्रीमती मिनोती का संकेत समझ देवोरा कुछ गमगीनी के साथ मुस्करायी, ‘मेरे जीवन में नेस्तर का आना मुझे अपना सौभाग्य लगा, सर से पाँव तक उसके प्रेम में मैं डूबी...जिसकी इति दो साल के भीतर ही हो गयी...नेस्तर प्रोग्रसिव विचार का था और अच्छा तैराक। मुझे उसकी हर बात मोहती थी... फ़ौजी तानाशाही का तब तक अन्त नहीं हुआ था...सोचिए! समुद्र में डुबो कर इस दुनिया से उस दार्शनिक किस्म के कवि मन वाले शख्स को रुख़सत किया अपनी ही जनता के सामूहिक हत्यारों ने!! चार दिन बाद नेस्टर की फूली लाश समुद्र की सतह पर तैरती मिली...।
उस वक़्त मैं गयी थी दफ़्तरी काम के टूर पर। उसके बाद प्रेम नाम की चीज़ से मेरा नाता ऐसा टूटा तो कभी बन न सका...’
अगले सेशन में देवोरा ने अपनी मनोविश्लेषक को बताया कि उस हादसे के बाद वह पियानो की शिक्षा लेने लगी जिसकी वह शुरू से शौक़ीन रही। शुरू में सिलाई कर गृहस्थी चलानेवाली माँ के लिए पियानो की शिक्षा बड़ा खर्चीला मसला होने के नाते पियानो सीख पाना खटाई में पड़ गया था। मगर अपनी नौकरी में उन्नति से वह इस हैसियत में आयी कि अपना शौक पूरा कर ले। ‘पियानो मेरी गहन, निःशेष पीड़ा का इलाज रहा है एक तरह से।’, देवोरा का गला भर्रा कर ठहर गया..।
अपनी अनेक कामनाओं, ज़रूरतों तथा शादी के विचार को भटठी में झोंकने के बाद, देवोरा की जि़न्दगी एक सपाट पटरी पर चलती रही। उसके शास्त्रीय संगीत के प्रेम में कोई व्यतिक्रम नहीं आया
गर्मियों में सात-आठ बजे जब सूरज का गोला आसमान में न जान किस इन्तज़ार में ठिठका होता...और हाड़ काटती सर्दी के दिनों में लेदर के भारी ओवरकोट को कान तक खीच कर, कन्धे पर गोल बैग लटकाये, ऊँची सैंडिल में खटखट लिफ़्ट की सुरंग में सोलह मंजिल पार करनी होती तो थकान से चूर, अपना बोझ संभालती देवोरा को कवियत्री अलेखान्द्रा पिसर्निक की कविता ‘काला सूरज’ याद आ जाती...
अपनी तनहाई का इजहार उसने कभी किया नहीं...इसकी दवा ‘विबाल्दी’,‘मोत्जार्ट’,‘बाख’ और ‘शोपाँ’ की सिम्फनी में होती।
घर लौट कर माँ की परोसी चाय के बाद अपने स्टडी रूम में घुसकर, आरामकुर्सी पर अधलेटी, आँख बन्द कर, हल्की नीली रौशनी में लिपटी सांझीली खामोशी में ऊबचूभ होती, पिछली यादों की दहकन से मुक्त होने के जतन में देवोरा योग शैली में साँस लेती, ढीला होने की चेष्टा करती...अपने भीतर की साँस को दूसरी किस्म की हवा का निगलना सुनायी देता...गति में कैद गति जैसी तनहाई के अर्थ में डूबी अपनी पसन्द की सिम्फनी में फिर खो जाती...
देवोरा के लिए यह पल जादूभरा होता; ख़ास कर तब जब बड़ी खिड़की के काँच के एक कोने से सरकता चाँद खिड़की के बीचोबीच टंग जाता मानो उसे भी महान संगीतकारों ने बाँध लिया हो अपनी मनमोहिनी माया में...।
देवोरा ने हमेशा संगीत को किसी भी कला से बड़ा दर्जा दिया। मिनोती के आगे बड़े मूड में एक दिन अपनी अनुभूति का जिक्र यों किया, ‘संगीत में सिर्फ़ तैरना होता है चुपचाप अनुभूति के प्रवाह में... संवेदना की बारीकी, शब्दहीन अमूर्तता की लय पहचानती थामती चलती है...समय के भीतर बाहर और उसके पार भी...देखो न! विबाल्दी और बाख की नवीं सिम्फनी को ही उसमें ख़ूबसूरत रंगवाली मछलियों का जल में लहराते हुए तैरना, उछाल मारना... समुद्र की गहराई में पलते अनेक राज़...मेघ गर्जन, जंगल का टोनहा सन्नाटा...साँझ की नारंगी माया...बुलबुलों का फूटना... पपीहे की पी पी पी ई-ई, बालू में लोटती चाँदनी का मुलायम रुपहला सम्मोहन तथा सुर्ख वाइन की चुस्कियाँ...सभी संगीत के अदभुत झूले में पड़े मानस में तिर आते हैं...संगीत का कई मूर्त दृश्यमान, आकार नहीं होता पर कल्पना जिस सहजता से उसकी छवियाँ उकेर लेती है, वह अपने आप में लाजवाब है न? जि़न्दगी की चोटें भी सुख में तब्दील हो जातीं हैं संगीत के अमर पल में...जैसे किसी अमूर्त हस्ती से प्रेम करना हुआ...जिसका जादू कभी गायब नहीं होता...’
अपने अतीत होते वर्तमान का पटाक्षेप करने के जतन में देवोरा अपने से जूझते शब्दों को थूक देती...उसके पास सुनहले रंग नहीं थे तो क्या, उसे समुद्र के गहरे तल में तैरना तो आता था ही।
रात देर से खाने के बाद देवोरा अवश्य देर रात गये तक कोई किताब पढ़ती। फिर रात के सन्नाटे को अन्दर तक ढकेलती बिस्तर पर लुढ़क जाती हाथ में किताब लिए लिए...
यह रफ़्तार शायद ताहम जिन्दगी चलती रहती अगर्चे...२०9० की राजनैतिक सुनामी उमड़ कर इस देश को अपने खतरनाक पंजे में जकड़ न लेती... आर्थिक धुरी के पूरी तरह चरमराने से सभी क्षेत्रों का मेरुदण्ड तेज़ी से हिला...हकीकत ये कि सालों से, अन्तर्राष्ट्रीय कर्ज में नाक तक डूबे हुए, देश का आर्थिक जलपोत अब तेज़ी से डगमगा रहा था...
‘तुम्हे पता है देवोरा? आज देश को दुर्दशा की चरम सीमा तक पहुँचाने में संयुक्तराज्य अमेरिका से अर्थशास्त्र पढ़ कर आये, अमरीका की जी हुजूरी में अपने को धन्य मान फूलनेवाले तत्कालीन अर्थ-मन्त्री का खासा हाथ है ...चोर चोर मौसेरे भाई के अंदाज़ में अपने मगरमच्छ दोस्त उद्योगपतियों को बिना कर्ज-अदायगी की शर्त के, सरकारी कोष का धन दिलवा के देश की लुटिया डुबोने में जनाब एक बार भी हिचके नहीं।’
लेइला के भाई ने देवोरा के आगे खबर उँडेली।
देवोरा के दफ़्तर के दो अनुभवी कर्मचारियों में भी यही वार्ता चली-‘अन्तर्राष्ट्रीय बैंक से उधारी का सिलसिला सौ साल से ऊपर इस देश की राजनीति में बराबर बरकरार तो है ही... अब भडुवे अमरीका के पेट का हण्डा भरने को हम सबकी जेब काटी गयी न! बूढों के पेंशन भी सन् २००० में कटौती से बचे नहीं।’
‘कजऱ् की राशि का बेहद छोटा हिस्सा ही जन-कार्य में कितना लगाया गया? नहीं के बराबर ही तो! सारा धन कुँए में गया... मध्य वर्ग ग़रीबी की रेखा तक पहुँचाने लगा तथा ग़रीब और ग़रीब बनता गया।’
हालत खस्ता अभी थी ही कि दूसरा बड़ा धमाका आ पहुँचा आम जनता के लिए...’
‘अरे सुना तुमने देवोरा बुआ! ‘एल कोर्रालितो’ (जनता के, बैंक में जमा धन की जब्ती) कानून आज रेडियो, टी.वी. में?’ देवोरा के बड़े भतीजे ने सबसे पहले खबर दी थी, ‘तुमको क्या नहीं लगता कि कुछ बहुत बुरा होने वाला है सभी का बुआ?’
देवोरा का जी धक-से रह गया! मगर धीरज का लंगर पकड़े हुए उसने भतीजे को इस झंझट में न पड़ने को बोल दिया।
मुहल्ले में हर जगह एक ही चर्चाः सालों दर साल बैंक में जमा किये अपने निजी पैसे को कोई अब निकाल नहीं सकता... सबकी जान खतरे में है इस बेहया, ग़ैरइन्साफ़ कानून के तहत जिसे लागू करने में, अमरीकी जूठन खा खुश खुश उनकी जय-जयकार करनेवाले घोर पूँजीवादी अर्थमन्त्री का भेजा घोड़े की तरह काम कर रहा है...तत्कालीन राष्ट्रपति से लेकर उनका पूरा लाव- लश्कर ही विश्व बैंक का मुँह जोह रहा है और उनका ‘लुसिफर’ अमेरिका, उनका भेजा सड़ा कर अपने लिए उर्वर खाद तैयार करने में ‘कोर्रलितो’ लगाने के पहले से ही जुटा है...कर्मचारियों के वेतन में कटौती से शुरू! बड़े उद्योगपतियों की पाँचों उगलियाँ घी में! हाँ, छोटे मोटे उद्योग धड़ाधड़ मौत के घाट लगने लगे। बार, रेस्टोरेंट, काॅफ़ी हाॅउस जो छात्र-छात्राओं के बहस के अड्डे और बौद्धिक बातचीतों और योजनाओं के मुकाम रहे तथा प्रेमियों के प्रेम की शुरुआत और फिर सम्बन्ध-विच्छेद के मसले हल करने वाले कोने हुआ करते थे, वहाँ अब इक्के-दुक्के गाहक ही नज़र आते जिनके पीछे अदब से कई बेयरे दौड़ के पेश हो जाते...ये बार और काॅफ़ी हाॅउस जहाँ रोज़ रात जलसे का-सा माहौल होता था, वे अब मरघट की शक़्ल लेने लगे!..
देवोरा ने भी देखा कि आलीशान अमीर मुहल्लों के भोजनालयों के आगे कूड़ेखाने से जूठा खाना निकाल खानेवालों की एक जाति ही पैदा हो गयी है! इस दर्दनाक तथ्य को नजरंदाज कर, देश की डूबती नैया की तरफ से लापरवाह राजनैतिक गण विश्व बैंक का कजऱ्ा चुकाने की प्रथा का निर्दयता से पालन करते और उधर सूदखोर अपने सूद में अबाध रूप से इजाफ़ा करते रहे पूरी आज़ादी से निश्चिन्त! माफि़या बाज़ार गर्मागरम...।
सभी के सर पर चट्टान टूट गिरी ये हालत देख के...।
अर्थ-मन्त्री की शान से एलान की गयी ‘कोर्रालितो’ की खबर ने जनता में भीषण तूफान उठा दिया! सप्ताह भर बाद ही लोगों का बड़ा समूह राष्ट्रीय खम्भे के ध्वज के पास जमा हो गया।
जिस देश में मानवीय, नैतिक मूल्यों के लिए कभी संघर्ष नहीं हुआ; कोई समाजिक क्रान्ति नहीं हुई, उसकी जनता, जेब की कटनी पर भड़क उठती है! मगर इस बार तो हद हो गयी! सरकार की बेहूदी जन विरोधी नीति पर यानी व्यक्तिगत धन की ज़ब्ती पर जो चोट लगी, उससे बौखलाया मध्य वर्ग, तेजाबी विद्रोह पर उतर आया! कम आय वाले कर्मचारी और मज़दूर तो पहले ही खार खाये बैठे थे, उनका ख़ून खौलना लाजिमी ही था...पुलिस का भारी जत्था पहले से ही ‘गुलाबी भवन’ के आगे-पीछे मौजूद भारी भगदड़ मची..पुलिस की पहली गोली एक युवक का सीना चीर उसे रक्त से सराबोर कर गयी! इस हादसे ने आग में घी का काम किया...भागने के बजाय भीड़ के आक्रोश का लावा राष्ट्रपति भवन, और पार्लियामेण्ट के आगे पत्थरबाजी में पूरे ज़ोर शोर के साथ फूटा...पुलिस के दनादन गोली चलाने के हुक्म ने कई जवानों को यमलोक पहुँचाया!! पुलिस के घोड़ों ने भड़क कर कितनों को अपने खुर तले रौंदा! जनता की छाती में उबलता क्रोध का लावा फिर तो और तेज़ी से बढ़ा। पुलिस आँसू गैस, लाठी चार्ज आदि से जितना अत्याचार वरपा करती उतना ही क्रोध से भभकता जन समूह राष्ट्रपति भवन की तोड़फोड़ में आगे बढ़ता...
‘तुम क्या वहाँ मौजूद थीं ?’, भतीजे ने पूछा।
‘नहीं। मेरे पड़ोसी ने बताया जो वहाँ मौजूद था। मैं तो दफ़्तर में ही कैद रही उस दिन जब पाँच मज़दूर हलाल किये गये और तमाम लोग ज़ख्मी...इस हादसे से बच गये लोग, अपने कलेजे पर पत्थर रखकर घर लौटे!’ देवोरा ने सर झटक के कहा। उसका चेहरा लाल हो रहा था।
‘हत्यारों का सिरमौर राष्ट्रपति तो ‘गुलाबी भवन’ की ही छत से हेलीकाप्टर से दुम दबा के भाग निकला!’ भतीजा भभक के तपाक से बोला।
इस यथार्थ से कौन नही परिचित था! कुछ दिन बैंकों के आगे धरना देने और हो हल्ला मचाने से बैंक अधिकारियों के कानों में जूँ क्यों कर रेंगती, उन्हें तो नये बदजात कानून का सहारा मिला हुआ था!..धनपतियों ने अपना धन पहले ही बैंक से निकाल लिया था, उन्हें इस शैतानी कानून के लागू होने का पता पहले ही मिल गया था!.
इस विद्रूपमय हादसे के पश्चात पूरे देश में विद्रोह और अराजकता की इतनी बाढ़ आ चुकी थी कि उन्हें संभाल पाना(फिर संभालता भी कौन?) नदी की बाढ़ रोकने के लिए पत्तों की मेंड़ लगाना हो...देश की हालत समुन्दरी भँवर में फँसे जलपोत की तरह चकराती,डूबती गई...सारी व्यवस्था तितर-बितर!
देवोरा कुछ अपने स्वभाव के तहत और कुछ उहापोह में चकित, दिल पोढ़ कर घबराहट को दिल में दबाये सोचती गयी कि उसका बाल बाँका न होगा...मगर वह भी इसी ‘ज़ब्ती’ कानून की चपेट में आ गयी...उसकी बैंक में जमा वर्षों की कमाई, पूँजी जब्त हो गयी!
उसे अभी अपनी नौकरी का और कम्पनी में अपनी साख बनी रहने का भरोसा था जिसे जल्दी टूटने में देर नहीं लगनी थी...सियासी हवा का आर्थिक रंग जिन दिनों, धुआँधार बदला, उससे भी तेज़ रफ़्तार के साथ उसी रंग में उद्योगपतियों के तेवर बदले...आम लोगों के चेहरे पर हवाईयाँ ही उड़ती रहीं, असुरक्षा की गिरफ़्त उनका आत्मविश्वास कुतरती गयी.. जबकि इस कानून ने, उन अमीरज़ादे और राज्याधिकारियों का एक बाल तक बाँका नहीं किया जो अपना धन स्वीजरलैंड और अमेरिका या फ्लारेंस के बैंकों में जमा करते आये थे...।
दफ़्तरी कर्मचारियों को नौकरी से बखऱ्ास्तगी की नोटिस आने लगी... बेकारी सुरसा बदन बढ़ाती ठठाने लगी...सबके माथे पर जैसे गुनहगारी का पट्टा लग गया हो...नौकरी से पत्ता कट जाने पर, लोग रस्ते में सर नीचा किये गुड़मुड़े से होकर चलते जैसे वे अपराधी हों...बेकारी ने उनके जीवन की सार्थकता ही व्यर्थ कर दी हो जैसे...मध्यवर्ग की रीढ़ चूना चूना होने लगी...आखिर इस आधुनिक तन्त्र के आदमी का माई- बाप नौकरी ही तो है या मज़दूरी! तमाम वे संस्थाएँ जो काम से थके लोगों को राहत देतीं, ज्ञान के रस्ते खोलतीं थीं या मनोरंजन करती आयीं थीं, फटाफट बन्द होने लगीं...दर्शन, विज्ञान,साहित्य, कला, नृत्य शिक्षा, सबकी बोलती बन्द...!
रात को जिन जगहों पर जश्न का माहौल होता था वे मनहूस शक्ल में आ गये थे-जैसे कोर्रिएन्तेस नाम की एवेन्यू रतजगे में राज्य करती है, वह क़रीब सूनी- सूनी रहने लगी। बार या कहवाघरों में काॅफ़ी की चुस्कियाँ लेनेवाले मुट्ठी भर लोग ही होते। जिस देश में कभी भिख़ारी नज़र नहीं आये, वहाँ हर सड़क हर हाथ में टोपी लिए वे नमूदार होने लगे...जैसे किसी भयानक जादूगर ने अपने काले जादू की छड़ी घुमा दी हो... जिस देश की गायें पचास लिटर दूध देती हैं, वहाँ अब दूध-चीज़ मिलना हराम हो गया! अब रोटी, वाइन, जैतून और माँस- सभी के अफ़रात वाले देश की छवि पर राख़ पड़ गयी थी...
देवोरा इस खुराफ़ाती वक़्त के धनजब्ती कानून के धक्के को संभालने की कोशिश में दिल की धुकधुकी के अहसास को महसूस करने से रोक नहीं पायी, मगर कभी इसका इज़हार नहीं किया..उसके दफ़्तर के कई कर्मचरियों की छटनी का श्रीगणेश हो चुका था, फिर भी वह अपने को भरोसा दिलाती कि उसके साथ ऐसा हादसा होनेवाला नहीं...। तब तक उसे चेतना नहीं आयी थी कि व्यवसायतन्त्र और उद्योगपति किसी के नहीं होते; उनकी आत्मा में सिर्फ़ सिक्के खनखनाते हैं; व्यापारी का तो सारा जीवन तराजू पर लोगों को तौलने में जाता है अपने को बटखरा बना के जो कभी सही नहीं होता...देवोरा भी तो उस तन्त्र का सिर्फ़ एक नन्हा-सा पुर्जा भर ही तो थी जिसकी ज़रूरत अब तन्त्र को नहीं होगी-देवोरा के गले यह गद्दार तथ्य उतर नहीं पाया! मगर एक दिन उसके सर गाज़ तो क्या पूरा पहाड़ ही टूट पड़ा...!
कम्पनी के मालिकों और प्रबन्धकों की मीटिंग में उस दिन वह भी शामिल थी हमेशा की तरह। सारी बातचीत अत्यन्त शिष्टता से शुरू हुई... कम्पनी की उन्नति के लिए देवोरा के ३० साल के वफ़ादार कामकाज भूमिका की सराहना करते हुए कम्पनी के निर्देशक असली मुद्दे पर आये- ‘देश की हालत तुम देख ही रही हो देवोरा...कम्पनी को लगातार घाटे का सामना करना पड़ रहा है! अफ़सोस है कि अगर यही हालत जारी रही तो कम्पनी का जनाज़ा निकल जाएगा...कर्मचारियों का वेतन जारी रखने की हालत...तुम समझ रही हो न?...कितने अच्छे और बेहतरीन कर्मचारियों को हमें मज़बूरी में विदा करना पड़ा। और आज हमें अत्यन्त कष्ट के साथ कहना पड़ रहा है कि...’
देवोरा से आगे सुना नहीं गया ...
छुरी में शहद लगा गला काटने के तरीके पर, देवोरा की भावना अन्धड़ में भटकते पत्तों की सी हो आयी...उसकी ३० साल की मेहनत इस कदर मटियामेट हो गयी!! उसे सीधे सड़क की राह दिखा दी गयी कि- जाओ तुम्हारी उपयोगिता अब नहीं रही.!!
कम्पनी की काली रूहों का कोरस देवोरा के कानों में देर तक गूँजता रहा...
एक ही उम्मीद की डोरी बची कि नौकरी की बर्खास्ती का मुआवज़ा तो क़ानून के हिसाब से उसे कम्पनी देगी ही जिसे वह अपनी नन्ही-सी आशा के तिनके से अभी भी थामे रही...मगर मालिकों का नकाब उतरा सो उतरा। कम्पनी सियासी बवण्डर का फायदा उठा, देवोरा का भी पैसा डकार गयी!
देवोराने कानून का दरवाज़ा खटखटाया, मगर तूतीखाने में भला कौन किसकी सुनता? देवोरा अब कितना ही अक्ल के घोड़े दौड़ाए, मामला इतना उलझ चुका कि किसी भी अच्छे नतीजे का सवाल ही नहीं रहा!
जिस चक्रव्यूह में वह पड़ गयी थी उससे निकलना असम्भव था अब..सच पूछो तो समूचा का समूचा देश ही चक्रव्यूह में फँसा था...।
उसका अन्तर एक कटे पंखवाली बुलबुल की तरह कराहता रहा...उसी बगीचे से उसे उखाड़ फेंका गया जिसके एक एक पत्ते, एक-एक पंखुरी को उसने पनपाया, संवारा और खूबसूरत रूप दिया था, तीस साल तक अपने खून से सींच कर ऊँचे अंजाम पर पहुँचाने में उसका ही हाथ रहा! उसी के साथ अब गद्दारी हुई!! जिस झूठ को सच मान देवोरा कम्पनी के ज़हरीले अण्डे पोसती आयी, उसी ने उसके अस्तित्व को तल्ख धुएँ की खाई में फेंक दिया...जिन्हें अपना पासवान समझा, वे जानी दुश्मन निकले...देवोरा की विशाल आँखों में पर्वत टूटने लगे...उसने झटके से कान की वह नीली बाली उतार कर गटर में फेंक दी जिसे कम्पनी के मलिक निकोलस वाल्स ने उसे क्रिसमस पर दी थी...
जिस जहर का घूँट उसे इस वक्त पिलाया गया था, उसे झटके से उगल देना बेहद कठिन हो रहा था...जमीन उसके पाँव तले से खिसकने लगी... अब...
बैंक कब ज़ब्त पैसे निकालने देगा-कोई ठिकाना नहीं। टी.वी. चैनलों ने एलान किया- जैसे भी हो लोगों को चाहिए कि अपने पैसे बैंक से निकाल लें...। यानि बैंक के अधिकारी कर्मचारियों को चैदह-चैदह प्रतिशत उनके दलाल को रिश्वत देकर, मतलब अपनी कुल पूँजी का उनचांस प्रतिशत खोकर आप पैसे बैंक से निकाल सकते है! वरना लोगों का यह सारा छीना-झपटा पैसा विश्व बैंक के खाते में जाना है कर्ज चुकाने को...
उसूलन देवोरा ऐसा नहीं करेगी।
अब डूबते को तिनके का सहारा, सिर्फ़ माँ अन्तोनिया की पेंशन ही शेष रह गयी!
बस स्टाप की ओर चलती देवोरा अपने उलझे ख्यालों में, भटकती रही दूर तक...उसकी कई बसें निकल गयीं! फिर पास के पार्क की एक बेंच पर बैठ गयी माँ क्या कहेगी...? उस पर क्या बीतेगी इस जानमारू खबर से? देवोरा ने पार्क के घने दरख्तों की ओर निगाह घुमाई जो रात की स्याही में रंग कर गहरे हो चले थे...अँधेरा अपना काला डैना फैला कर इधर ही उड़ता चला आ रहा था...रात की बुढि़या जादूगरनी अपनी एक एक टैंगो मुद्रा से एक के बाद एक, शिकार करने के लिए चारा डाल रही थी...क्या हुआ कि टैंगो की एक उड़ती टांग ने इस सुन्दरी को, एक झटके में खींचने की तैयारी कर ली?...देवोरा को ‘हेंसन ग्रेटेल’ की जर्मन लोक कथा याद आ गयी... देवोरा का नरम कलेजा ‘हेंसन ग्रेटेल’ की तरह ही पिंजड़े में कैद हो गया है जिसे किसी भी वक़्त डायन बुढि़या झपट अपने मुँह में भर सकती है...
क्या यही-तूफान के भँवर में मँडराती-देवोरा रह गयी जो मूड में अपने दफ़्तरी साथियों से कहा करती, ‘भविष्य को पाना और संभालना तुम्हारे हाथ में है अगर अभी से उसकी तैयारी करते चलो तो... जो आगे बढ़ता है, वह पीछे का भूलता जाता है...’(क्या सच है यह?) ‘भविष्य कामना, मेहनत और कल्पना में ही मौजूद है तथा उसके अंकुर आमतौर से तेज़ी से फूटते हैं’...यह वही देवोरा है जिसने काम के जूनून में ३० साल तक भविष्य को सुन्दर सिम्फोनी तरह सुना भर, मगर उसे पाया नहीं...पायाः कडुआ, हडहा, धुएँ से घिरा भविष्य का वर्तमान रूप!!
देवोरा ने तो पहले कभी जाना ही नहीं डर के चोर दरवाज़ों की शक्लें!... किन्तु अब? दिल दिमाग तो भूचाल में धसकती इमारत हो गया है! सम्भावना के लिए, वेदना का भी कोई सेतु नहीं...किससे क्या कहना? सब अपने-अपने दायरे में चूहे की तरह कैद हो गये हैं! पराए दुःख से कौन साक्षात् करना चाहेगा?.सबको अपनी पड़ी है। बिना कौड़ी मुफ़्त का सुझाव देनेवाले भी कन्नी काट जाते हैं...
कोई विकल्प न बचने पर, मनों बोझ पाँव में लेकर, प्रेतनी-सी लडखड़ाती देवोरा पाँव घसीटती घर आयी। इतनी थकान ने तो कभी धावा नहीं किया था!
मगर घूम कर देवोरा का दिमाग फिर लेदर कम्पनी की दीर्घाओं में भटक जाता है...जहाँ एक से एक शानदार, फैशनेबुल डिजायन वाले फर-कोट फैशन परेड के लिए टंगे रहते हैं-खूबसूरत लेदर टोपियों के संग। कम्पनी का व्यवसाय महज़ कच्चे माल माल बेचने तक सीमित नहीं रहता अमीरजादों@अमीरजादियों की धजा में चार चाँद लगाने का पूरा सर-संजाम होता-आधुनिकता की पूरी शर्त के साथ, खाशतौर पर इतालवी और फ्ऱाँसीसी फैशन की नकल पर! फैशन शो के माॅडल के लिए सुन्दरी कमसिन युवतियाँ चुनी जातीं।
युवतियों की चुहलबाजी और चटक-मटक में देवोरा की दिलचस्पी न थी। इसलिए वह किसी अफ़वाह के चक्कर से हमेशा दूर रही। दफ़्तर की समस्याएँ आती जातीं रहतीं, उनसे उसका रिश्ता उन्हें हल करने में मलिकों की मदद करने तक रहता। कम्पनी की समस्या घर में लाने से वह बचती।
यूँ भी सभी देवोरा की अहमियत समझते थे...
तो पहलू बदल बदल कर हमारी नयिका अपने आप से संवाद में लगी, तो वह तुम थीं!..ऊँचा सर किये अपने पर फबते नीले लिबास में, कान में बड़ा-सा खूबसूरत टाप्स पहने राजकुमारी की तरह सजी मेरी जान! गोया फूले विष्णुकान्ता की लतरों के बाग में मग्नोलिया...और अब क्या रह गयी हो? एक खोटा सिक्का! एक फटी तौलिया! तुम्हें अब पता चला न कि डर हमारी महत्वाकांक्षा से ज़्यादा प्रबल होता है!...विजय की आकांक्षा में, रस्सी पर डगमगाती दुनिया की आत्मघाती हरकत में, तुम भी तो शामिल रहीं- चाहे न चाहे, समझे न समझे...! तेज़ शाटों वाले समाज का हिस्सा बन, तुमने जानमारू तीखे आघात तो खाये न! जिस तन्त्र को ऊपरी सीढ़ी तक चढ़ाने में तुमने अपना तन- मन ढकेला, उसने तुम्हें कितनी आसानी से काट के छत से फेंक दिया तुम्हे गै़रज़रूरी मान!! क्या अब तुम अपनी शिकस्त से कुछ सीख सकती हो जो तुमने कामयाबी की सीढ़ी पर चढ़ते नहीं सीखा? यह सही है कि तुमने कम्पनी के किसी मामूली कर्मचारी को परेशान नहीं किया, पर कभी उनके नज़दीक आकर उनकी परेशानियों की बाबत भी तो कभी नहीं पूछा! तुम्हारी शिष्ट मिठास क्या महज़ औपचारिकता न थी? उसमें तुम्हारी संवेदना का, दिल का क्या योग था? अपनी तकलीफ का घूँट भी तुम अकेले पीतीं गयी; कभी उसका साझा कर लिया होता किसी जिगरी व्यक्ति से तो शायद मन की हकीकत की दिशा कुछ और होती!...है न? तुम कोई ‘सुपर वुमन’ तो हो नहीं कि हर मसले को सुलझाने का मुगालता पालती गयीं! दिल की हलचलों को एक बार खोल के तो देखतीं!
नींबू-पानी की तरह हर कष्ट को पी जाने की आदत अब त्यागोगी कि नहीं?
देवोरा अपने गुलाबी होंठ भींचती जल्दी अपने कमरे के उसी एकांत में वापस लौटना चाहने लगी जहाँ वह थकान और दिल ऐंठते ख्यालों को धो डाला करती...सफेद झक दीवालों से सटी कांच की खिड़की के पास कटे नाख़ून से चाँद के भोलेपन से अपने जले दिल पर मलहम पाने को शायद...
मगर उसका सर चकरा रहा था...गोया तूफ़ान में, बेताबी से उमड़ते समुद्र में, मानस एक नन्ही किश्ती बन कर भँवरा रहा हो...फिर भी उसकी थरथराती नसें, दफ़्तर के चमकते शीशेदार कमरों में भटकने से बाज नहीं आ रहीं...स्मृति में चलता चलचित्र...बता रहा था कि किस कदर उसे उसके कच्चे यौवन से ही मिथ्या पट्टी पढानेवाले उसे अपने इशारे का गुलाम बनाते गये!!. और वह भी हवा का वही रुख, बन्द आँखों से देख, मंजूर करती गयी...! भला क्यों? यह अब पूछने से फायदा क्या? देवोरा की हार न माननेवाली फितरत में घुन लगी...किसी भी कठिन परिस्थिति में घुटने न टेकने का उसका अहंकार उसका कवच रहा! मगर अब क्या बचा? सब कुछ गैर-इंसाफ़ी से छीन लिए जाने के बाद तीखी कसक के सिवा रहा क्या? किसके पास उजली समझ रह गयी? सबकी हैसियत तो गुड़ीमुड़ी हो गयी... आर्थिक अस्तित्व का खतरा असंवेदनशीलता की ओर ढकेल रहा है न! क्या कोई रूपरेखा है आगत की? अब तो वह बबूल के कांटे की मानिन्द चुभ ही रहा है...
देवोरा का मानस रुकने में नहीं आ रहा... अफ़सोस! अपनी आँखों के सामने उसने कम्पनी के डायरेक्टरों की राक्षसी नीतियों को नजरंदाज़ किया... गोदाम में माल ला कर धरनेवाले मजदूरों को अक्सर ही रात-रात भर मेहनत करनी पड़ती, मगर वेतन वही ढाक के तीन पात! उन्हें हर बार सब्र करने का तोता उपदेश...कम्पनी के घाटे की झूठी खबर का दुहराया रिवाज़...
कम्पनी के माल की नुमाइश के दिनों में कम्पनी के निचले दजऱ्े के कामकरों को सप्ताहान्त में भी सुबह से रात तक नुमाइश के काउण्टर पर रहने का आदेश होता कि उन्हें अपने परिवार के संग पहले से तय किया हर कार्यक्रम रद्द करने पर मजबूर होना पड़ता-अतिरिक्त मेहनत का कोई फ़ायदा पाये बगैर! हर बार गुड़भरी धमकी, ‘बस मालिकों की बात सर माथे पर धरो, वरना...’
कम्पनी का यहूदी नस्ल का प्रमुख, घुटे सिरवाला एक खल्लाट एकाउंटेंट आँखों में उल्लू की मक्कार चमक और चेहरे पर बेरहमी की लिखावट लिये आय-खर्च के हिसाब किताब के झूठे दस्तावेज़ बनाने में सलग्न रहता...
मालिकों के इशारे पर एक पुरानी- धुरानी इमारत की तीसरी मंजिल का एक नीम् अँधेरा, गुफानुमा गुप्त -कमरा इस काम के लिए दर्ज था, आबकारी इंस्पेक्टर की आँखों में धूल झोंकने के लिए...वैसे, कम्पनी से हिसाब किताब की जाँच करने आनेवाले इंस्पेक्टरों को देने के लिए रिश्वत की एक खास रकम हर महीने तैयार रहती-इस सब का पता देवोरा को भी तो था...मगर उसने ज़बान सिले रखा! यद्धपि उसकी अपनी चेतना कम्पनी की धूर्त बाज़ारवादी और अनैतिक हरकतों से धन उगाहने की रीति से कभी सहमत न हुई मगर हाँ वह ‘मगर’ रह गया उसकी छाती पर पछतावे की आरी चलाने को...
बुरा हो कमबख्तों का! बुरा हो तीसरी सदी के श्रीगणेश का और बुरा हो सितम्बर माह का जिसने आम आदमी के पेट पर आरी चला उसकी लुटिया डुबोयी...!
अकस्मात देवोरा को भयानक रूप से तनहा होने के अहसास ने दबोच लिया...जैसे वह एक विराट रेगिस्तान में, तेज़ बवण्डर के बीच, अकेली पड़ गयी हो...
...एकदम घायल घायल..रेत की गुहा में छिपने की चेष्टा में डगमगाती, रेत से करकराती आँखों में अपने समस्त सपनों को रेत होते पाती...एक उजड़े खाली मकान में भयावह चित्कार जैसी हो आयी तबियत...
घर लौट कर देवोरा सीधे अपने म्युजि़क रूम में घुसकर सोफ़े पर ढह गयी.. माँ को बोल दिया कि काम बहुत ज़्यादा होने से वह थक कर चूर है और सिर्फ़ आराम करना चाहती है।
अनन्त रात की मानिन्द एक रात...रक्त प्रवाह पर आरे चलाती खर खर खर रात...
बाख की सिम्फनी जारी है...पर भीतर का तार जो टूटा तो उससे टकरा कर संगीत घायल है...सर में एक सूखी आँधी बैठी है और हरहरा कर छाती तक सरक आती है...लगातार उधेड़बुन की झंझा में लटका सर, टोपी की तरह उड़ा जा रहा है...गर्दन पर लोहे की गद्दी जम गयी है...नसों को विस्फोट की सरहद पर छोड़ देनेवाली चक्र भेदिनी रात के कंटीले बाड़े में, अपनी पीड़ा की घूँटे भरता धकधक कलेजा नाजुक पंछी बन के कैद हो गया है...उस पर समय के किसी दशमलव में कटार भोंकी जाने की सम्भावना मचल रही है...उम्मीद के अंकुर खौफ़ के झटके पर टूटते जा रहे...उसने बीथोवन की नवी सिम्फनी तेज़ की ...जैसे उसके स्वरों में अपना अस्तित्व उड़ा देना चाहती हो...अप्रस्तुत होकर... बादल की तरह बिखर कर...
इसके बाद की रातों में, आरामकुर्सी पर लेटी देवोरा के भीतर टिन की प्लेट फिट होती गयी जो ज़रा-सी जुम्बिश पर करकराती...गले में शुष्क सरसराहट बजती...
देवोरा के नाम-गोत्र में कोई तपता पत्थर जम गया...
...देश के कर्णधारों ने जिस अँधेरे भूलभुलैयानुमा चक्रव्यूह में जन समूह को ढकेल दिया है, उससे निकल पाना किसी के बूते का नहीं... देवोरा कहाँ से बचती!
...अब रात की डायन, इस देश के विद्रूप भँवर में डगमगाते इतिहास पर अदा से पाँव टेके, कहकहा लगा रही है...
सड़क का प्रेत सन्नाटा, रात के टोने- टोटके पर कायम रहा...शुरू से अन्त तक...
...सुबहें होतीं हैं मगर जगानेवाली नहीं...कर्म का सन्देश देनेवाली नहीं... जाग कर क्या होगा?...गली संख्याहीन होती जा रही है...हाट अब नहीं लगती; उसके खरीदार कहाँ बचे!
देवोरा का चेहरा सुबह का पीला, निस्तेज चाँद होता गया...
उस दिन श्रीमती मिनोती के दीवान पर देवोरा शायद अन्तिम बार लेटी।
देवोरा ने अपने दो दिन पहले देखे सपने का जिक्र किया, ‘अजब-सा सपना! मैंने समुद्र में तैरते हुए एकदम तल तक डूबकी लगायी और तैरती चली गयी...कभी बाएँ, कभी दाएँ... दाएँ तरफ मुड़ी तो मुझे कुछ रंगीन पत्थर और छोटी-छोटी धूसर मछलियाँ दिखीं, घोंघें और कोरल झूमते नजर आये...जब बाईं तरफ मुड़ी तो तमाम समुद्री झाडि़याँ और मोटी चपटी काही लताएँ दिखीं जिनके मुँह खुलते और बन्द होते.. उनके आकार-प्रकार भी एकदम अजनबी... तैरती हुई मैं आगे बढ़ी तो एक गुफ़ा दिखायी दी...मैं सीधे वहाँ तैरती घुस गयी...वहाँ तरल अँधेरे के सिवा कुछ न था...गुफ़ा के बाहर एक बहुत बारीक़ पतली-सी रोशनी की शहतीर लिये शार्क मछली का प्रवेश हुआ... उसने मुँह खोला और मैं तुरत अँधेरे के पेट में समा गयी...मुझे जाने क्यों, भय के बजाय एक विचित्र सन्नाटे का अहसास हुआ..एक किस्म की शान्ति भी, जैसे कोई भारी बोझ उतर गया हो... इसके बाद मेरी नींद उचट गयी।’
श्रीमती मिनोति के अन्दर इस सपने को सुन कर किसी अमंगल की आशंका जगी और भीतर कुछ काँप गया...
ग्रहण लगने के बाद राहू ने चाँद को फँसा लिया तो अस्तित्व निचोड़ कर ही कोई उससे अलग होता है...
‘तुम्हारा कोई जिगरी दोस्त नहीं, देवोरा?
सन्दर्भ के बाहर, इस अकस्मात प्रश्न ने देवोरा को चैंका दिया। संभल कर बोली, हाँ थीं-नतालिया और नताशा। नताशा हमेशा स्वप्निल। कोई विचित्र-सा प्रसंग छेड़ कर बोलते हुए खुद जैसे प्रेत हो जाती.. दरअसल उसने बहुत-सा वैज्ञानिक फिक्शन पढ़-पढ़ कर अपना भेजा ख़राब कर रखा था। अफ्ऱीकी बनाम ब्राज़ील के ‘बूडु’ जादू से प्रभावित थी! बात करने का उसके पास अन्य कोई मसला ही न होता। अक्सर रात को हमें गोल मेज़ के घेरे में जबरन बिठा कर मृतकों को बुलाने का कार्यक्रम भी रखती...
रही नतालिया, तो उस पर अपनी मनोरोगी माँ का असर रहा। नतालिया का बाप उसकी छह साल की नन्ही उम्र में ही उन्हें छोड़ कर अपनी नयी नवेली सेक्रेटरी के संग चला गया था। चैदह साल की उम्र में ही नतालिया ने ‘एडगर एलेन पो’ जैसी कहानियाँ और ‘अल्फोंसीना एस्त्रोनी’ जैसी कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थी। उसकी नाक और पलकें भी खूब लम्बी तथा वह हमेशा लम्बे ड्रेस पहना करती।
मेरी उससे अच्छी बनती थी। वर्जीनिया वुल्फ की डायरी हमने साथ पढ़ी, काफ़्का के उपन्यास पर बनी फि़ल्म हमने साथ ही देखी ब्लैक एण्ड व्हाईट में। नतालिया की मेधा में मिला भोलापन, उसकी बातचीत करने का सलीका सब मुझे भाता। मगर किस्मत की उलटी चाल!- उसका लम्बा ड्रेस एक ट्रक के पहिए में फँसा और उसका जीवन अपने संग लपेट ले गया...उसकी एक बड़ी काव्य पुस्तक प्रकाशित करने की आकांक्षा उसके कफ़न के साथ ही दफन हो गयी! उसकी माँ ने उसकी कविता की फ़ाइल उसकी कब्र में ही उसके साथ गाड़ दी।
क्या थी उसकी उम्र उस वक़्त-कुल बीस बरस!
अस्पताल में उसका कटा- फटा तन और निहायत करूण कातर आखें देखने के बाद मैं कितनी बची! बताओ!’
-‘और नताशा?’
‘नताशा का बेमतलब का भुतहा दीवानापन मेरे बर्दास्त से बाहर होता गया। तब दोस्ती का धागा टूटने में देर ही कितनी लगती!’
मनोविश्लेषक डाॅ. मिनोती के दीवान पर यह देवोरा का आखिरी सेसन रहा। घटती के पहरे में फीस न दे पाने की दशा में देवोरा ने मिनोती की बिना फ़ीस लिए सेसन जारी रखने के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया। दिवालिया हो जाने का अर्थ गरिमा से बाहर हो जाना नहीं था उसके लिए।
महीने भर बाद।
साइरा को देवोरा का फ़ोन मिला- ‘पेट में बेहद दर्द है, आँते ठस्स हैं, खाने को कौन कहें, पानी तक नहीं पिया जाता। बताओ क्या करूँ! है कोई कारगर दवा है इसमें तो बताओ।’
‘अस्पताल तुम्हारे घर के एकदम पास ही है, वहाँ दिखाओ।’ साइरा को और कुछ न सुझा तो यही राय दी।
‘गयी थी। मगर डाक्टर ने कुछ खास नहीं बताया, बस जुलाब दिया जिसका कई असर नहीं। तकलीफ़ ठहरना नहीं जानती...’
कोई डेढ़ महीने बाद देवोरा की भाभी लेइला, साइरा को फ़ोन कर उसके घर मिलने गई। साथ में बिथोववेन की जीवनी पर एक किताब भी लौटाने को थी जो देवोरा को साइरा ने पढ़ने को दी थी। लेइला ने जो कुछ बताया उससे साइरा के जी में भूचाल-सा उठ गया... श्रीमती मिनोती के एक दोस्त डाक्टर की मदद से देवोरा की अस्पताल अर्खेरीच में गहरी और बारीक़ जाँच से पता चला कि देवोरा के गर्भाशय के एक कोने में कैंसर का छुपा ट्यूमर है जो तेज़ी से बढ़ने की ताक में है...मानो कोई खूंखार पैंथर अपने शिकार पर छुप कर घात करने के इन्तजार में हो...
‘सिर्फ़ बीस दिन में ही सब समाप्त हो गया... कैंसर सचमुच का राक्षस था, गर्भाशय से होता आँत, लीवर, दिल, फेफड़े -सब को तेज़ी से निगलता गया... वह चीखती रही- ‘मैं मरना नहीं चाहती ..कुछ करो डाक्टर लोग मुझे बचाने को।’ डाक्टरों के वश में कुछ न रहा था। उसे मोर्फिन देकर सुला दिया गया दर्द इतना असह्य था। उससे देवोरा कोमा में चली गयी.. और उसी हालत में तींन दिन रहने के बाद उसने अन्तिम साँस तोड़ी...डाक्टर लोग भी रो रहे थे एक जिन्दादिल सुन्दर स्त्री की आकाल मौत पर!’
‘मैंने देवोरा के कमप्यूटर पर आपका पता पाया तो फ़ोन कर बताना मुझे ज़रूरी लगा। देवोरा आपका बहुत आदर और आपसे स्नेह करती थी।’
लेइला से ही साइरा को मालूम हुआ कि माँ अन्तोनिया देवोरा की लाश देखने अस्पताल नहीं गई। अस्पताल के मृतक रूम से देवोरा की मृत देह लाने उनका बड़ा पोता और साथ में लेइला का भाई ही गये। रस्म के हिसाब से देवोरा का मातम मनाने से अन्तोनिया ने मना कर दिया। यानि किसी को, मृत देवोरा को आखिरी सलाम देने के लिए निमन्त्रित नहीं किया। लाश को ताबूत में रख, फूलों से ढक, मोटर में लाद दफ़न के लिए कब्रिस्तान ले जाने वाले परिवार के सिर्फ़ दो चार लोग और श्रीमती मिनोती अपने पति के साथ, ही शामिल हुए उसमें।
माँ अन्तोनिया को अपने घर उनकी पुत्रवधू ने ले जाना चाहा इस डर से कि उस इक्यासी साल की उम्र में वे ऐसे भीषण सदमे को शायद न झेल पाएँ... मगर माँ अन्तोनिया की जबान पर तो ताला ही लग गया था, बस नकार में सर हिला दिया। देवोरा के चन्द कागज़ साथ लेकर लेईला के जाने के बाद उन्होंने देवोरा की एक एक चीज़ को जूँ का त्यूँ रहने दिया, अपनी जगह से हिलने नहीं दिया...पोते को देवोरा का कम्प्यूटर छूने से मना कर दिया और म्युजि़क रूम में किसी के भी जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। किताबों की धूल वे रोज़ ब रोज़ खुद साफ़ करतीं, तथा मेज़ की सजावट भीद्य फूलदान में नये फूल लगा कर देवोरा की मेज़ पर रख आतीं...
हाँ, एक और तथ्य उनकी रुटीनरी में जुड़ाः रोज़ नियम से उनकी टकटकी अस्पताल के इंटेंसिव थेरपी वार्ड पर लगती...ठीक उसी सुबह के वक़्त से जब देवोरा को वहाँ भर्ती के लिए ले जाया गया था...उस दिन उन्होंने देवोरा के उस इटेंसिव थेरापी वार्ड के कमरे का अपनी खिड़की से आँख भर खासा मुआयना किया था...सूरज की पौ फटती आभा काँच की खिड़की को छेंक लेती तब वे वहाँ से हटतीं...। वह देवोरा के नाश्ते का समय हुआ करता था...नाश्ते के उस खाली वक्त में वे देवोरा का इन्तजार करतीं...फिर देवोरा के दफ्तर का समय होने पर मेज़ समेट लेतीं...
(अन्तोनिया के लिए देवोरा क्या अभी जि़न्दा थी?)
एकान्त में अन्तोनिया सिर्फ़ एक ही वाक्य दुहरातीं- ‘ऐसा ही होना था...क्या इसी तरह...?’
अन्तोनिया खिड़की से अस्पताल के नीचे लगी हाट से ऊपर निगाह उठा अस्पताल के वार्ड नम्बर पाँच की ओर आँख गड़ाने के पश्चात अपने फ्लैट के हाॅल के बीचोबीच खड़ी हो जातीं हैं गुमसुम...
दोनों खिडकियों से छनती धूप की शहतीरें जब ड्राइंगरूम को भी छेंक लेती तो मेज़ की तरफ जाती निगाह के वहशीपन में अकस्मात बूढी अन्तोनिया का मानस कल्पना की भटकन को सार्थक मूर्तता में बदलने की सघनता पर होता... उन्हें नीली आँखोंवाली, साँचे में ढली एक खूबसूरत जवान काया नज़र आती जो आहिस्ते-आहिस्ते एक किशोरी में तब्दील हो जाती...फिर बदलते बदलते उसका रूपान्तरण एक गदबदे मग्नोलिया के फूल जैसे कोमल, खिलखिलाते शिशु में हो जाता...फिर वह शिशु-फरिश्ता उड़ कर अन्तोनिया की गोद में आ पड़ता...अपने दोनों हाथों से बड़े नाजुक अंदाज से अन्तोनियाँ हौले हौले शिशु को अपने हाथों से घेर लेती और लाड़ से झुलाते, पुचकारते बोलती, ‘अरे! तेरा तो कोई वजन ही नहीं ! इतनी हल्की कि गुलाब की एक पंखुरी! अरे, यह तो रेशम का फाहा ही है!...
उधर लोग सोचते और तरह-तरह के अनुमान लगाते-
इतने बड़े फ्लैट का क्या करेंगी अन्तोनिया? कैसे अकेले और क्यों सम्भालेंगी? दीवार से सर टकरायेंगी या गले में फन्दा लगा लेंगी?... तभी किसी का प्रवेश होगा?
मगर नहीं! सारी अटकलबाजी नाकाम...
किसी को क्या पता कि अन्तिम पड़ाव पर अन्तोनिया की जिन्दगी ने एक निहायत अप्रत्याशित और एक झटकेदार मोड़ लिया अब...
रात के कटघरे में खौफ़ की सन्त्रास भरी बयार जब झूला झूल, उम्मीद के फ़फ़ोले फोड़ रही होती...भावनाओं को एक गोले में समेट दुनिया के विद्रूपमय इतिहास पर रात अदा से पाँव टेक कर शैतानी से मुस्करा रही होती... अन्तोनिया ने अपने इक्कानवे साल की वय में वह किया जिसे जि़न्दगी भर करने का प्रयास नहीं किया था...
जिस दिन देवोरा को दफ़न किया गया, उसके चन्द दिन बाद ही माँ अन्तोनिया ने देवोरा के कमरे में जाकर उसकी कपड़े की आलमारी खोली.. पहले एक एक वस्त्र को प्यार से सूँघा, चूमा फिर उसमे से देवोरा की ख़ास पसन्द का नीला ड्रेस निकाल के पहना, देवोरा के गहने के छोटे-से काठ के डिब्बे से उसका टाप्स निकाला, देवोरा शैली का हल्का मेकअप किया, उसी के लैवेंडर का इत्र लगाया कान के नीचे...गोल इयरिंग कान में डाले...। बड़े आईने का आगे खड़ी होकर अच्छी तरह अपनी धजा का मुआयना किया- ‘ठीक’ फुसफुसायीं... उनके होठों पर वही मुस्कान खिंची जो अन्दालूसिया के अपने बगीचे में बड़े-से काठ के हौज़ में पाँव से अंगूर उछलकर पीसते हुए उल्लास से खिंच जाती थी...
अब देवोरा के म्युजि़क रूम में जाकर देवोरा का सबसे सुन्दर बिल्लौरी काँच का प्याला लाल वाइन से भरा और देवोरा की ख़ास पसन्द की बाख की सिम्फोनी लगा दी...फिर कुर्सी पर देवोरा की ही शैली में अधलेटी हो, आँख बन्द कर वाइन सिप करते वे झूमने लगीं...
...रोज़ ब रोज़ रात को यही सिलसिला- दिन को देवोरा के लिए नाश्ते की तैयारी...अटूट चलता रहा,
किसी को पता नहीं चला उनकी इन हरकतों का...