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कृष्ण बलदेव वैद
SAMAS ADMIN
12-Dec-2017 12:00 AM
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21-5-2002
ठीक तो हूँ, ठाक अभी नहीं हुआ। एक वहमनुमा सन्देह सता रहा है कि जिस ‘रोग’ को दूर करने के लिए ऑपरेशन करवाया, वह दूर नहीं हुआ! पेशाब अभी भी बार-बार और कम बिक़दार में आता है, एक धार में नहीं आता।
3-6-2002
कल शाम हम ताज होटेल में रामकुमार की एक बड़ी नुमाइश देखने गये। लक़दक़ रौशनी और चकाचौंध थी। चित्र चमक रहे थे, रंगों की रौनक थी। दीवारें खिली हुई थीं। सब चित्र ख़ूबसूरत और आरामदेह। कहीं किसी क्रख़्तगी की खरौंच नहीं थी, कहीं कोई दाग़ नहीं था। राम में से सन्तोष फूट रहा था-एक आत्म-केन्द्रित सन्तोष। रॉथको के चित्र देखते समय आप अँधेरे में उतरते चले जाते हैं, स्वामी के चित्र चैन भी देते हैं, बेचैनी भी, राम के ये चित्र उसके पहले के काम जैसे ही हैं। कहीं-कहीं कुछ रंग शोख़ हैं-लाल और नीले ख़ास तौर पर। सब कुछ सजा-धजा लगता है-बना-ठना। शान्ति मिलती है लेकिन गहरी शान्ति नहीं। अतिसुन्दर। केनवस में कहीं कोई ख़ाली जगह भी होनी चाहिए। रामकुमार भी हुसैन की तरह अपने आपको दोहरा रहा है। खुरदरेपन की अपेक्षा राम (या निर्मल) से नहीं होनी चाहिए।
कुछ देर निर्मल के साथ खड़े बैठे उखड़े-उखड़े से मज़ाक होते रहे-काम के बारे में नहीं, बीमारियों के बारे में, पुराने ज़माने के बारे में। दोनों जैसे फूँक-फूँक कर बोल रहे हों। हरारत भी, ठण्डक भी।
ऑपरेशन से बहाल हो गया हूँ। खून बन्द हो गया है, पेशाब ठीक आ रहा है, दर्द नहीं, लेकिन यह कहने से हिचक रहा हूँ कि सब कुछ ठीक हो गया है।
हिन्द-पाक तनाव जारी है। फ़ौजें आमने-सामने डटी हुई हैं। दोनों पर दूसरों का दबाव है। मैं नहीं समझता कि लड़ाई के खौफ़नाक नतीजों से दोनों मुल्कों के लोग और नेता पूरी तरह से आगाह हैं।
4-6-2002
लड़ाई के डर से हमें यहाँ से भागना नहीं चाहिए। अरुन्धती राय का एक लेख टाईम्स में छपा है। उसका गहरा प्रभाव पड़ा। उसने कहा है कि वह दिल्ली छोड़कर कहीं नहीं जाएगी, क्योंकि अगर उसके दोस्त, पेड़, कुत्ते, गिलहरियाँ वगै़रह नहीं रहेंगे तो वह कहीं और जा बस जाने के बाद करेगी क्या, ज़िन्दा किसलिए रहेगी। वह लड़ाई के ख़िलाफ़ तो है ही, अपनी जान बचा ले जाने के ख़िलाफ भी है। लेकिन एक पोज़िशन यह भी हो सकती है : जान गँवाने से किसी को क्या फ़ायदा होगा ? क्यों किसी पागल फै़सले के कारण जान गँवायी जाए ? अगर भागना बुज़दिली है तो बुज़दिली बेवकूफ़ी से बेहतर क्यों नहीं ? इस दलील में भी दोष हैं।
मेरी दुआ यही है कि लड़ाई टल जाए। काम बन्द है। इन बादलों के साए में काम की ज़िद्द ग़लत नज़र आती है। वायस न जाने कैसे आखि़र तक काम करता रहा।
आज बरसों बाद हेनरी जेम्स की एक किताब, ज्ीम म्दहसपेी भ्वनते ले बैठा। उसकी तहरीर की ताज़गी। नफ़ासत, ज़हानत, सजगता, गहराई, शगुफ़्तगी, शालीनता।
मेरी डायरी की ज़बान सपाट क्यों ? मैं तर्क के तक़ाजों का गु़लाम हूँ। मुझे दूसरों के आवेग पसन्द आते हैं, अपने आवेगों पर मेरा अंकुश कभी कम नहीं होता, क्यों ?
हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत अनुभवों और हालातों की दी हुई सीमाओं में बँधा रहता है, उस बन्धन से मुक्त होने के लिए कसमसाता रहता है- उसकी यह कसमसाहट ही उसका असली जीवन, उसके जीवन का असली मर्म।
कल राम की नुमाइश देख मैं एक बार फिर उसकी लगन और ज़िद्द से प्रभावित हुआ। उसके दोहराव और उसकी सीमाओं के बावजूद उसके काम में उसकी ईमानदारी की आभा मौजूद है और मैं उसकी इस आभा की क़द्र करता हूँ।
मुझे अब उपन्यास की तरफ़ लौटना चाहिए- उसे किसी ऐसे अँधेरे में ले जाना चाहिए जहाँ किसी भी बाहरी उजाले का दख़ल न हो, जहाँ बैठ मैं बाहरी आलाइशों से आज़ाद होकर उड़ सकूँ, फड़फड़ा सकूँ। मेरी उड़ान और फड़फड़ाहट एक दूसरे का पर्याय।
मुझे सफलता पर अपने सन्देह को नहीं छोड़ना चाहिए। यही सन्देह मेरा मर्म। विफलता ही मेरा आदर्श। तमाम आरज़ी फिसलनों के बावजूद। लेकिन विफलता के लिए भी काम अनिवार्य है। अब काम से मुराद उसी काम से है, जिसके बगैर रहा न जा सके।
5-6-20002
अनाम दास का पोथा देखने गये थे, अभी लौटे हैं, कारन्त का संगीत मधुर था, वह न होता तो बैठ न पाता। आचार्य जी प्रगतिवादी उपदेश देते सुनायी दिए। एक बार फिर रंगमंच की विपन्नता का अहसास हुआ। हमारे अभिनेता कच्चे है। उन्हें आवाज़ की शिक्षा चाहिए-वे चीखते-चिल्लाते रहते हैं। बम्बईया फ़िल्मों के असर से वे आज़ाद नहीं हो पाये। यही आरोप निर्देशकों पर। आलस्य का कुप्रभाव भी है।
जंग के बादल अभी छटे नहीं हैं लेकिन लोगों में घबराहट की कोई लहर दौड़ती दिखायी नहीं देती।
6-6-2002
उपन्यास पर आज उखड़ी-उखड़ी-सी बैठक हुई। कल की-सी आमद आज नहीं उतरी।
उर्वशी का दबाव जारी है कि हम वहाँ उड़ जाएँ। हम उतावले नहीं।
देश में न तो अफ़रातफ़री है न जोशोख़रोश। न अमन की पुकार। उदासीनता हमारा राष्ट्रीय स्वभाव। कहीं कोई चिन्ता नज़र नहीं आती। टीवी पर जंग की बात-बहस ऐसे होती है जैसे जंग कोई मामूली झमेला हो।
बद्री विशाल पित्ती का फ़ोन हैदराबाद से। उन्हें मेरे तीनों नाटक चाहिए। किताबें कल उन्हें मिल जाएँगी।
7-6-2002
उपन्यास पर काम का आज तीसरा दिन। अब खुदा करे नागा न हो, जंग भी न हो। ओम थानवी का फ़ोन। मैंने पूछा जंग की क्या सम्भावना है ? बोले, एक फ़ीसद भी नहीं।
8-6-2002
महेन्द्र भल्ला का नाटक, ‘दिमागे हस्ती, दिल की बस्ती, है कहाँ, है कहाँ,’ अच्छा लगा। काला ह्यूमर। सुरेश शर्मा का अभिनय खूब, बजाज का निर्देशन भी।
11-6-2002
परसों ‘उसका बचपन’ देखने गये।
कई लोगों को बुला लिया था, डॉ. कोतवाल समेत। मुझे यह मंचन पुरशोर और कर्कश लगा। बुनियादी दोष उसमें यही है कि होहल्ला बहुत है। वीरू की भूमिका जिस आदमी ने की वह गुणी तो है लेकिन वीरू का मर्म उसकी समझ और अदाकारी से ग़ायब था। सब पात्रों को रोते-पीटते ही दिखाया गया है। उपन्यास के मौन को शोर में बदल दिया गया है। मेरी इन आपत्तियों के बावजूद दर्शक निराश नहीं थे। शायद मैं हैरान और परेशान इस बात पर भी होता रहा कि मैंने यह उपन्यास लिखा भर नहीं, यह जीवन भी भोगा है।
फिर भी वीरू के मन और मौन के साथ न्याय इस प्रस्तुति में नहीं हुआ।
कल फिर गया। अकेला। अशोक वहाँ मिल गये थे। उनके साथ कुछ देर आई.आई.सी. में बैठा। अशोक ने कल सुबह फ़ोन किया था कि वे मेरे पिचहत्तरवें जन्मदिन पर कुछ करना चाहते हैं। अशोक को प्रस्तुति पसन्द आयी। उनके अनुसार उपन्यास को भूलकर ही प्रस्तुति का मज़ा लिया जा सकता है।
जन्मदिन आयोजन पर बात हुई। नाम तय हुआ है- ‘कृबव : एक अलग रास्ता।’
12-6-2002
अशोक के प्रस्ताव की अपेक्षा मुझे नहीं थी, सुझाव उन्हें उदयन ने दिया। मैं इसी सम्भावना पर ख़ुश हो रहा था कि जन्मदिन पर मेरी कुछ नयी पुरानी पुस्तकें प्रकाशित हो जाएँगी।
15-6-2002
परसों की शाम अखिलेश और ध्रुव के साथ गुज़री। खाने के बाद वे क़रीब ग्यारह बजे गये और मैं थक गया। कल घबरा कर डॉक्टर कोतवाल को फ़ोन किया। उनने तसल्ली दी। कहा, चिन्ता मत कीजिए, आराम कीजिए, किसी इलाज की ज़रूरत नहीं, अपने आप सब ठीक हो जाएगा।
रचना ने जब से नयी नौकरी शुरू की है, निहायत मसरूफ़ रहती है।
कल से उपन्यास ने एक नया मोड़ लिया है, जिसकी मुझे कोई आहट पहले सुनायी नहीं दी थी। आज भी कुछ दूर उसी मोड़ पर चला। अब जो नीला प्रसंग शुरू हुआ है, उसे मनोयोग से आगे ले जाना चाहिए, उतावली के बगै़र। अपने ही इस अलग रास्ते पर चलते रहना चाहिए, जो दूसरों को दलदलीय नज़र आता है।
16-6-2002
आज नागा होते-होते नहीं हुआ। सुबह की समाधि होने नहीं दी। शाम को शून्य के हमले के बावजूद लिखने बैठा। जो लिखा उससे तसल्ली तो नहीं हुई लेकिन कुछ लिख लिया इससे हुई। वहाँ जाने का दिन क़रीब आ रहा है और हौल उठना शुरू हो गया है। जाना नहीं चाहते।
18-6-2002
गुज़ेल ने एक लम्बे ख़त में अपने रूसी जीवन की कुछ झलकियाँ दी है।
इस इन्तहा पर मैं क्या चाहता हूँ ? यही कि इस इन्तहा पर मुझे कोई चाह न हो। चाह के बगै़र काम करता रहूँ, जीवन जीता रहूँ, जलन और बुझन से आज़ाद रह कर, हर प्रकार की पीड़ा और भीड़ा को अपनी नियति मानकर, अनासक्त भाव से, अहंकार से यथासम्भव मुक्त रह कर, अनावश्यक पेचीदगियों से परहेज़ करता हुआ, अपेक्षा और आकांक्षा की कमन्दों से आज़ाद रहकर सोता, जागता, रिसता, रीझता, चुकता हुआ...।
इस इन्तहा पर इक गूना बेख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए।
इस वक़्त घर में और घर के बाहर ख़ामोशी है- कुत्ते ख़ामोश हैं, परिन्दे ख़ामोश हैं, लोग ख़ामोश हैं। कबूतर कहाँ गये ?
यह उपन्यास अन्त के बारे में है। शायद मेरा अन्तिम उपन्यास भी।
19-6-2002
गर्मी बला की है। आज शाम नये नाटक के ख़याल ने करवट ली।
कुछ देर पहले अशोक का वह ख़त मिला जो उनने मेरे जन्मदिन के आयोजन के सिलसिले में लोगों को लिखा है।
21-6-2002
आज सुबह एक नया नाटक शुरू हो गया, उपन्यास को एक तरफ़ धकेल कर। एक मयान में दो तलवारें ...नामुमकिन। दिन भर रुक-रुक कर उसी में रमा रहा। बीस पृष्ठ लिख लिये। अभी कह नहीं सकता यह किधर जाएगा, क्या गुल खिलाएगा, कितना सार्थक सिद्ध होगा लेकिन यह अंक रुकेगा नहीं। इस पर ज़्यादा बात या बहस यहाँ नहीं करूँगा। अवचेतना को अपना काम करने दूँगा। वह तर्क के अंकुश से आज़ाद ही रहे तो बेहतर होगा।
सिंघवी साहिब का ख़त। ‘उसका बचपन’ पढ़ लेने के बाद। उन्हें भी उपन्यास मंचन से अधिक मार्मिक लगा। जिस दिन हम ‘उसका बचपन’ देखने गये थे, वे और उनकी पत्नी संयोग से हमारे साथ ही बैठे हुए थे।
22-6-2002
नाटक पर कुछ काम हुआ। कल से कम लेकिन हुआ। इसमें आमद अभी तक के चारों नाटकों से ज़्यादा है हालाँकि इससे मैं अभी तक पूरी तरह से सन्तुष्ट और आश्वस्त नहीं हूँ।
उपन्यास और कहानी की अपेक्षा नाटक मुझे कम कठिन विधा लगती है। शेक्सपीअर के बावजूद।
कल और परसों की बैठकों में इस नाटक का यह प्रारूप पूरा हो जाएगा।
24-6-2002
नाटक, जिसका नाम अब ‘मोना लिज़ा का मेहमान है’, का यह प्रारूप आज पूरा हो गया। अभी तक किसी भी नाटक का पहला प्रारूप मैंने इतने कम समय में और इतनी आसानी से पूरा नहीं किया। अब ख़ाली महसूस कर रहा हूँ। ख़ाली और ख़त्म। इस ड्राफ़्ट को अब कुछ देर (महीने) पड़ा रहने दूँगा। साथ वहाँ ले जाऊँगा। इस साल के अन्त तक अगर दो नाटक और लिख सकूँ तो सात नाटक हो जाएँगे। लेकिन उपन्यास फिर रुका रह जाएगा।
‘मैं जा रहा हूँ’ शीर्षक से कोई रचना, नाटक या कुछ और।
25-6-2002
उपन्यास पर काम करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहा। पुराने पहले नाटक को फिर पढ़ा। उसमें इतने दोष नज़र आये कि उसे सुधारने का ख़याल फिर तर्क कर दिया। उसका सदा से बड़ा दोष तो यही है कि वह पुराने ढंग का है। दूसरा दोष उसका सस्ता सतही मनोविज्ञान। लेकिन उसमें नाटकीयता है, जान भी है, सस्पेंस इतना कि ख़ुद मुझे नज़र नहीं आ रहा था कि आगे क्या होगा। उसे आज जो नया नाम दिया, ‘वाह प्रेम विवाह’, वह भी ठीक नहीं। उसे बचाने का लोभ अभी लुप्त नहीं हुआ। बेहतर यही होगा कि उसे भूल जाऊँ।
आज कुछ पुराने और ख़स्तहाल प्रारूपों को फाड़कर फेंक दिया। उनमें कहानियाँ भी थीं, नाटक भी, रेडियो नाटक भी- हिन्दी में भी, उर्दू में भी।
अब शाम की सैर को तो छोड़ ही दिया है।
26-6-2002
आज उपन्यास की तरफ़ लौटा। उसे कुछ आगे सरकाया। उसमें एक और नया मोड़ भी आया। लेकिन फिर नाटक की ख़ब्त ने शोर मारना शुरू कर दिया। उसी नाटक को एक नया रूप देने की प्रेरणा मिली। आठ सफ़हे लिख डाले। पुराने प्रारूप को पास तो रखा लेकिन नया नये ढंग से चल निकला है। और अब इसे अगले चार-पाँच दिनों में ख़त्म कर डालने का इरादा है।
आमद के इस रेले से ख़ुश हूँ।
28-6-2002
नाटक पर जो परसों लिखा था रद्द कर दिया। दिनभर घर में ही रहा, अक्सर रहता हूँ और बेज़ार या बेक़रार नहीं होता। बरसों से बेक़रारी पर काबू है। और एक ज़माना था जब घर में बैठे रहना नामुमकिन लगता था। वह ज़माना अमरीका जा रहने के बाद नहीं लौटा।
29-6-2002
आज शाम अशोक राजकमल प्रकाशन के एक आयोजन के केन्द्र में थे। सवालों के जवाब दे रहे थे। अशोक की-सी प्रखर ज़हानत मैंने कम लेखकों में ही देखी है। कोई उबाऊ क्षण नहीं था। सवाल उतने दिलचस्प नहीं थे जितने जवाब। मुझे भी बोलने के लिए कहा गया। मैं हस्बे मामूल संक्षेप में ही बोला। अच्छा बोला। और अच्छा बोल सकता था लेकिन बोलते-बोलते मुझे लगा कि मैं कुछ कह नहीं रहा। वैसे जो मैंने कहा किसी और के कहने से कम नहीं था।
2-7-2002
‘उसके बयान’ को फिर से निकालने का सुझाव विश्वनाथ जी को दिया था, उनने मान लिया है। अब यह किताब भी 27 तक छप जाएगी। 27 को सात किताबें मुझे मिलेंगी : उसके बयान, परिवार अखाड़ा (राजपाल), बिमल इन बॉग, जवाब नहीं (नेशनल), उसका बचपन, गुज़रा हुआ ज़माना, बदचलन बीवियों का द्वीप (राजकमल)। तीन नयी, चार पुरानी। आनी मान्तों के सवालों (पेरिस में प्रकाशित हो रही मेरी दो पुस्तकों को लेकर) के जवाब आज उसे भेज दिये।
8-7-2002
कल रात के एक स्वप्न में यह संकेत था कि सितम्बर में अमरीका जाते हुए पैरिस में एक हफ़्ता रुकने का इरादा ठीक नहीं। सो सुबह उठते ही वह इरादा तर्क कर दिया, चम्पा से बात करने के बाद। चम्पा पहले भी उत्सुक नहीं थी। स्वप्न में भी यही संकेत था कि चम्पा वहाँ नाख़ुश रहेगी, क्योंकि घूम फिर नहीं सकेगी।
राज किशोर का फ़ोन। वह किसी खोजी पत्रकार की तरह मुझे कुरेद रहे थे। मुझे अजीब लगा।
9-7-2002
आज नाटक, ‘कहते हैं जिसको प्यार’, में एक नयी राह निकली। अब उसका यह ड्राफ़्ट हो जाएगा। पैरिस में न रूकने के फ़ैसले ने बहुत-सी चिन्ताओं को ख़त्म कर दिया।
‘बदचलन बीवियों का द्वीप’ के प्रूफ़ आज मिले। और ‘उसका बचपन’ और ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ के आवरण। कल ‘जवाब नहीं’ के प्रूफ़ आएँगे। अब अगले कुछ दिन प्रूफ़ देखने में बीत जाएँगे। प्रूफ़ देखने की ज़हमत का मज़ा अलग ही होता है।
23-7-2002
गर्मी के कारण मुरझाया हुआ रहता हूँ। इधर-उधर जाता रहा। भीष्म को साहित्य अकादेमी का फ़ेलो बना लिया गया। उस आयोजन में शामिल हुआ। दो दिन पहले दयाकृष्ण और अशोक के साथ रहा। पिछले तीन दिनों से ‘बहुवचन’ के लिए पुरानी डायरियों में से कुछ निकालने के कारण पुरानी पीड़ाओं का घोल पी रहा हूँ।
परसों निर्मल का फ़ोन आया कि वह 27 को मेरे जन्मदिन के आयोजन में नहीं आ सकेगा। लेकिन बाद में खाने पर पहुँच जाएगा। उसने बताया कि उसे उस आयोजन की ख़बर नहीं थी। जब मैंने उसे याद दिलाया कि अशोक ने तो एक महीना हुआ सबको सूचित कर दिया था। तब उसने कह दिया कि वह सूचना उसे भूल गयी थी। ख़ैर मुझे उससे यही उम्मीद थी।
हर झुँझलाहट के बाद मुझे जो रंज होता है, वह मुझे प्रिय है, वह मुझे बचा लेता है। अरमान और अफ़सोस बहुत हैं लेकिन होना एक भी नहीं चाहिए। अब हर घड़ी ग़नीमत, हर साँस एक उपहार। अब एक ही ख़याल : अफ़सोस हम न होंगे। कल टैक्सी में बैठा-बैठा इस अफ़सोस में लिपटा रहा।
24-7-2002
दिन धूप और परेशानी से शुरू हुआ। कार अचानक रूक गयी। ऐनक बनवाने और कुछ फोटोकॉपी करवाने घर के पास ही कहीं था। कार मकेनिक को फ़ोन किया। उसने आकर कार ठीक कर दी। लेकिन ऐनक बनवाये और फ़ोटाकॉपी करवाये बगै़र ही घर लौट गया।
आ रहे जन्मदिन को लेकर मैं उदास क्यों हूँ। बार-बार मेरी आँखें भीग क्यों जाती हैं ? उदासी का एक कारण यह कि बच्चे यहाँ नहीं होंगे। और यह भी कि बच्चे मुझे पढ़ नहीं सकते, पूरी तरह सराह नहीं सकते। और यह भी कि अब अन्त दूर नहीं। तो क्या मैं चाहता हूँ कि अन्त न हो ? नहीं। अफ़सोस यह है कि काम कम किया, पूरी तरह डूबकर शायद नहीं किया, ‘घर’ से घिरा रहा। और शायद इस दुनिया को छोड़ जाने का रंज भी है : अफ़सोस हम न होंगे।
26-7-2002
कम शाम राजकमल की तीन किताबें आ गयीं। तीनों खू़बसूरत हैं। आकर्षक आवरण।
आज नेशनल की दो किताबें भी आ गयीं। वे भी सुन्दर हैं। राजपाल की कल मिलेंगी।
इस वक़्त उजड़ा हुआ हूँ। हैरान हूँ कि कैसे इस उम्र तक पहुँच गया। माता-पिता याद आ रहे हैं। उनके अन्त के समय मैं अमरीका में था।
27-7-2002
जन्मदिन की जानलेवा उदासी। आँखों में आँसू, दिल में दर्द, दिमाग़ में धुँध। उदासी का मूल कारण मोह। मायूसी भी उसी की जायी। शाम तक मैं ख़ाक हो चुका होऊँगा।
29-7-2002
कल विद्यानिवास मिश्र अचानक आ गये। फूलों का एक बड़ा-सा हार लेकर। अपने एक मुरीद के साथ। एक डेढ़ घण्टा बैठकर चले गये। अधिक समय अपने और अज्ञेय के बारे में ही बोलते रहे। उनका आना अच्छा लगा। उन्हें इतना आभास ज़रूर है कि मैं उनका नक़्क़ाद हूँ और मेरे मन में कुछ बातों को लेकर हल्की-सी रंजिश है, जिसे दूर करने के लिए ही वे शायद आये।
उनके जाने के कुछ देर बाद प्रोग्राम के मुताबिक उदयन और वागीश जी आये। उदयन और मैंने आनी की भेजी हुई शराब पी, खाना खाया, हँसे, ‘विमल इन बॉग’ के कुछ पन्ने पढ़े।
कृष्णा का बहाना अभी सुनने को नहीं मिला। अब वहाँ जाने की तैयारियाँ और तकलीफ़ें शुरू हो गयी हैं। ऐनक बनने दे आया हूँ। नवम्बर में फ्राँस जाने के लिए वीज़ा यहीं से बनवा कर साथ ले जाऊँगा।
उस दिन भीष्म पहली क़तार में बैठा ऐसे देख और दिख रहा था, जैसे हैरान हो रहा हो कि मैं भी बोल सकता हूँ, कोई मेरे बारे में भी बोल सकता है, मैं भी लिखता हूँ और मेरे काम को पढ़ने वाले कुछ और लोग भी हैं। यही भाव निर्मल के चेहरे पर भी होगा- उसका कोई और आयोजन स्थगित हो गया था और वह कुछ देर से पहुँच गया था।
सबसे ज़्यादा ख़ुशी मुझे अपनी किताबों से हुई।
आयोजन का श्रेय अशोक को।
30-7-2002
अन्त की आहटें। शीर्षक बुरा नहीं। जन्मदिन के बाद की उदासी उस दिन की उदासी से ज़्यादा। खून की धारा के कारण चिन्तित हूँ। गाउट की अंगड़ाइयों से भी। प्रोस्टेट के ऑपरेशन के बाद यह आशंका बराबर बनी हुई है कि ऑपरेशन गै़रज़रूरी था, कि वह सफल नहीं हुआ।
2-8-2002
आज फ्ऱेंच वीज़ा ले आया। अभी टिकिट तय नहीं हुआ।
आज गिरिराज किशोर और प्रियंवद कुछ देर के लिए घर आये। ‘अकार’ के अगले अंक में वे मुझ पर कुछ विशेष देना चाहते हैं। यह जानकर मुझे हैरानी हुई। प्रियंवद कुछ अक्खड़ तो लगे लेकिन चुस्त और चौकस भी।
रमेश दवे कल शाम यहीं थे। वे मुझ पर जो किताब बना रहे हैं उसके बारे में बात हुई। किताब के जो खण्ड मैं पढ़ चुका हूँ उन पर मैंने अपनी राय दी, सुझाव दिये, कहा कि वे उतावली न करें, पुस्तक को पकने दें। वे उतावली में नज़र आते हैं। चाहते हैं कि अलग-अलग लिखे और छपे हुए अपने निबन्धों का एक संकलन भर कर दें।
आलोक भल्ला सवाल और स्वप्न का अनुवाद अँग्रेज़ी में कर रहे हैं। शायद कल मिलें।
आज थोड़ी देर आई.आई.सी. बार में बैठा था। एक सूरत देखकर एक सुर्रियलिस्ट कहानी का ख़याल आया था। एक बुजुर्ग को देखकर यह ख़याल कि मैं क्यों वैसी शान से अपना बुढ़ापा नहीं गुज़ार पा रहा। उसकी उम्र ज़रूर 80 के क़रीब होगी। वह वॉद्का और पाइप पी रहा था और कई लोगों को पिला रहा था। मैं बुख़ीली क्यों करता रहता हूँ, क्यों नहीं खुल कर ख़र्च करता- हुसैन की तरह।
5-8-2002
ज्योत्स्ना मिलन कल तीन घण्टे यहाँ रहीं। उन्हें यह मलाल है कि उन्हें मेरे जन्मदिन पर बोलने के लिए नहीं बुलाया गया। सुरूर में आ जाने के बाद उनके मुँह से बातें हवा की तरह बहना शुरू हो जाती हैं। वे किसी की हमराज़ नहीं हो सकतीं, क्योंकि कोई राज़ उनके अन्दर टिक नहीं सकता।
कल रात का एक ख़्वाब ख़ौफनाक था। दो-तीन बार बिलबिलाया। कुछ बहुत ख़ूबसूरत जानवर-शेर, चीते वगै़रह- मुझे खा जाने की धमकी दे रहे थे। पिता समेत कुछ मृत सम्बन्धी भी नज़र आये, वह कैफ़ियत मेरे बयान से बाहर है। परलोक की परछाइयाँ। उसकी दहशत।
6-8-2002
आज कल कभी-कभी किसी पेड़ या पक्षी या दृश्य या याद या आकश को देखते हुए अनायास अपना अन्त दिख जाता है तो एक मीठी-सी उदासी सारी चेतना में घुल जाती है : अफ़सोस हम न होंगे। एक कसक। सिहरन हैरानी। महसूस होता है सामने असीम समन्दर है और उसमें गुम हो जाने से पहले मैं आखि़री बार इस दुनिया को देख रहा हूँ।
नीलम के फ़ोन से पता चला कि कारन्त कैंसर से पीड़ित हैं। प्रोस्टेट के कैंसर से, जो अब जिगर तक जा पहुँचा है।
8-8-2002
‘मोना लिज़ा की मुस्कान’ को आज फ़ाइनल कर दिया। दूसरा नाटक शायद कल हो जाए।
शाम को जब कार में बैठा तो एक दरवाज़े का शीशा लुढ़का हुआ नज़र आया। घर के पास ही सड़क के किनारे एक खोखल में बैठे उसी मकेनिक के पास गया जिसके पास ऐसे ही किसी काम के लिए एक बार पहले जा चुका हूँ। उसके पास दो चार टूटे-फूटे औज़ार हैं। लेकिन उसने सब ठीक कर दिया। उसने जो माँगा वह मैंने दे दिया। वह उससे चार गुना भी माँग सकता था। कुछ मिस्त्री/मकेनिक, बहुत नेक और कुशल। ज्ञान, जिससे मैं कार की सर्विस करवाता हूँ, भी एक ऐसा ही नेक और ईमानदार मिस्त्री है।
9-8-2002
आज दूसरे नाटक का अन्तिम ड्राफ़्ट भी हो गया।
विमल कुमार- युवा कवि- का फ़ोन। उनसे क़रीब डेढ़ घण्टा बात फ़ोन पर ही। उनके सवालों के जवाब देता रहा। वे इण्डिया टुडे में कुछ लिख रहे हैं। कई विषयों पर बात हुई- जन्मदिन आयोजन, मेरी उपेक्षा को लेकर, समकालीनों के बारे में, हिन्दी साहित्य की स्थिति के बारे में, आलोचना, सामाजिकता कुछ सूचियाँ भी उसने मुझ से बनवा लीं। प्रवास के बारे में, अपनी रवानी पर हैरानी।
13-8-2002
हिन्दी (पत्रिका) के ताज़ा अंक में आनी मान्तो का एक लेख है, मुझ पर और मेरा नाटक। आनी का लेख बढ़िया। नाटक (अनुदित) भी बुरा नहीं : व्नत व्सक ॅवउंद। त्रिलोचन की कविताएँ अँग्रेज़ी रूप में बेजान लगीं। तेजी का तरजुमा भी।
14-8-2002
आज ख़रीददारी के लिए निकले। कॉटेज एम्पोरियम में सुस्त, नमकहराम, कामचोर, बेईमान, बातूनी, अशिष्ट कारिन्दों की भीड़। ग्राहक कम। किसी को ग्राहक में कोई दिलचस्पी नहीं।
19-8-2002
परसों थके टूटे यहाँ पहुँचे। अरोचक सफ़र के बाद। रास्ते में कोई हादसा हुआ न हैरानी। सफ़र के साथी सब सूखे, सहायक सब रूखे। कहीं कोई शरारा नहीं था। पुराने, तीस-पैंतीस-चालीस साल पहले के हवाई सफ़र याद आते हैं, जिनके दौरान अक्सर एक मुक़ाम ऐसा आता था, जब मुसाफ़िर उड़ने से लगते थे, कुछ देर के लिए, जब बातचीत शुरू हो जाती थी, अजनबी होंठ खुल जाते थे, अजनबी आँखें चमक उठती थीं। अब नहीं।
उपमन्यु चटर्जी का उपन्यास ‘दि लाइट बर्डन’ पढ़ लियाः दिलचस्प और दिलेर। परिवार की जो तस्वीर यहाँ दी गयी है, वह हिन्दी उपन्यासों में नहीं मिलती। जु़बान शगुफ़्ता, उपमाएँ उत्तम, मज़ाह माशाअल्लाह।
कोइट्ज़े का उपन्यास ‘दि एज ऑफ़ आयरन’ भी पढ़ लिया। यह भी पसन्द आया। एक लम्बे पत्र के रूप में लिखा गया है। दक्षिणी अफ्ऱीका की दशा/दिशा। लेकिन वैसी उस्तादी नहीं जिस पर अश-अश कर सकूँ।
ज्योत्स्ना के इस घर में धूप की रौशनी बहुत है। यह पहले घर से बड़ा भी है, बेहतर भी लेकिन अभी पूरी तरह जमा नहीं। जमेगा भी शायद नहीं।
हम जो दो तस्वीरें वहाँ से लाये थे, उनके शीशे रास्ते में ही टूट गये हैं। हर्षा की तस्वीर बच गयी है। सीरज सक्सेना को फिर फ्रेम करवाना पड़ेगा।
उपमन्यु चटर्जी के उपन्यास में जु़बान के चटख़ारे के अलावा एक बाज़ियाना अन्दाज़ भी है, परिवार और पारिवारिक रखरखाव का मज़ाक, उसकी हवा निकालने की सफल कोशिश, सम्बन्धों की असलियत, नेरेशन का लचीलापन मियाँ बीवी की अनबन एक नितान्त नया रूप।
20-8-2002
शशि थरूर का उपन्यास ‘दि ग्रेट इण्डियन नॉबल’ पढ़ रहा हूँ। इसमें भी खूबियाँ तो हैं लेकिन कुछ ऐसी कमियाँ भी हैं जो इसे एक सतह या स्तर से ऊपर नहीं उठने देतीं। ‘पैगम्बरी’ का प्रयास मुझे खलता है। महाभारत को आधार बनाकर आधुनिक भारत का नक्शा खींचने की कोशिश में प्रयोग का पुट है, कॉमिक दृष्टि भी है लेकिन उपन्यास के वे हिस्से जिनमें अँग्रेज़ चरित्र हैं, कमज़ोर है।
21-8-2002
आज सुनील खिलनानी की किताब शुरू की। देश भक्ति और नेहरू भक्ति से भरपूर। सलमान रुश्दी का निबन्ध,
'Imaginary Homelands'
फिर पढ़ा। इस बार अधिक प्रभावित हुआ।
22-8-2002
अभी-अभी एक गहरे स्वप्न में से गुज़र कर उठा हूँ- ख़ाना ख़राब और वीरान। स्वप्न को काग़ज पर उतारना आसान नहीं। उसके कुछ हिस्से साफ़ हैं, कुछ स्याह : मैं किसी जगह में चम्पा के साथ हूँ। वह जगह हमारा घर नहीं। किसी बात पर झुंझला वहाँ से बाहर निकल बाज़ार में आ जाता हूँ। फिर किसी बस या ट्रक में सवार हो जाता हूँ पर उसके चलते ही उतर जाता हूँ, यह सोच कर कि किसी ग़लत जगह पर न पहुँच जाऊँ। और फिर इन्तहाई हताशा की हालत में वहीं पड़ रहता हूँ, जैसे कोई बेघर कहीं भी सर डालकर घड़ी दो घड़ी सो जाए। फिर हिन्दी लेखक दिखने वाले दो शख़्स वहाँ आ जाते हैं। उनके नाम स्वप्न में भी मुझे याद नहीं आते, उनकी सूरतें स्वप्न में दिखायी दी थी, अब वे साफ़ नहीं। अब सिर्फ़ उनके लबों और बेढंग दाँत नज़र आते हैं और उनकी झूठी मीठी और गुनगुनी मुस्कराहटें वे दोनों मेरी हालत पर हैरान होते हैं, मेरी तारीफ़ में कुछ कहते हैं, जिसे सुनकर मुझे अपनी हालत पर और तरस आता है, मेरी आँखें नम हो जाती हैं। वे मेरी उम्र और मेरी हिम्मत और चुस्ती का ज़िक्र करते हैं। वे बताते हैं वे मुझसे मिलने आये हैं- मेरे साथ कुछ समय बिताने। स्वप्न में मुझे उनकी नियत या सच्चाई पर शक नहीं होता। यह सब दिल्ली के ही किसी बाज़ार में हो रहा है। मैं उन्हें अपने साथ ले लेता हूँ लेकिन अपने घर की तरफ़ चलने के बजाए मैं चम्पा के माता-पिता के घर की तरफ़ चल देता हूँ, वहाँ पहुँचकर उन्हें चाय पिलाने के लिए। मेरे मन में यह सवाल नहीं उठता कि मैं उन्हें अपने घर क्यों नहीं ले जा रहा। रास्ते की बातें अब याद नहीं। यह याद है कि स्वप्न में मुझे यह ख़याल आता है कि वहाँ पहुँचकर उन्हें हैरानी होगी। फिर हम वहाँ पहुँच जाते हैं। वह जगह साफ़ नहीं। दूर से एक नौकर नज़र आता है और एक काली औरत जो शायद चम्पा की कोई मौसी है। पास जाकर मैं उनसे पूछता हूँ कि ऊपर का कमरा ख़ाली है या नहीं। कोई साफ़ जवाब नहीं मिलता। वह नौकर हमारे साथ हो लेता है। अब हम ऊपर जा रहे हैं। लगता है जैसे कोई चढ़ाई चढ़ रहे हों। इस मुक़ाम पर मुझे दिखायी देती है कि हम तीनों ने क़मीज़ और पाजामा पहन रखा है। रास्ते में हम हाथ धोना चाहते हैं तो वह नौकर कहता है, ऊपर जाकर धोना। हमारे हाथ कीचड़ से लथपथ हैं, ख़ासतौर पर मेरे। ऊपर कोई कमरा तो दिखायी नहीं देता, पानी नज़र आ जाता है। एक हौज़ सा है जिसमें अपने गन्दे हाथ धोने में मुझे हिचक होती है। नौकर ग़ायब हो गया है। मेरी घबराहट बढ़ जाती है। अब मैं एक ऐसे मकान में हूँ जिसमें कुछ स्कूली लड़कियाँ अपने स्कूल की वर्दी पहने दीवारों पर कूची फेर रही हैं। एक बूढ़ा आदमी और एक औरत भी वहाँ हैं जिन्हें मैं नहीं पहचानता। मैं उनसे पूछता हूँ, यह घर मिस्टर बाली का है ? उस वक़्त मेरे जे़हन में सतीश है, पिताजी नहीं। वह आदमी नाराज़ हो कहता है, नहीं जी, उनका घर तो उधर है, आपको इतना भी मालूम नहीं ? मैं खिसिया कर उस से मुआफ़ी माँग उधर चल देता हूँ। वे दोनों लेखकनुमा आदमी अब मेरे साथ नहीं लेकिन मुझे लगता यही है कि वे मेरे पीछे-पीछे आ रहे हैं। अब मुझे उनकी चिन्ता उतनी नहीं जितनी उस घर तक पहुँचने की। जब मैं उस घर के पास पहुँच जाता हूँ तो वह एक अजीब-सी झूठी और खोखली इमारत में बदल जाता है- जो ख़ाली है, बनावटी नज़र आती है, और जिसके बारे में मुझे यह ख़याल आता है कि वह महज दिखावटी है, असली नहीं। और फिर मुझे याद आ जाता है कि वहाँ अब कोई नहीं रहता, कि वे लोग तो कब के अपने नये घर में चले गये हैं। अब मैं उन दोनों के लिए इधर-उधर नज़र दौड़ाता हूँ। वे कहीं नज़र नहीं आते। मैं घबराकर जाग उठता हूँ। जागने पर मेरी कैफ़ियत बेकैफ़ है, मेरा आलम लुटापिटा महसूस होता है जैसे सब कुछ न होने के बराबर हो, जैसे मैंने सारा जीवन ऐसी चीज़ों, जगहों की तलाश में बरबाद कर दिया हो जो थी ही नहीं।
शाम : खिलनानी की किताब, दि आइडिया ऑफ़ इण्डिया, का एक और खण्ड पढ़ा और पाया कि उसमें कोई नयी दृष्टि या बात नहीं।
इस वक़्त उड़ भी रहा हूँ, गिर भी। यह मौन, यह एकान्त, यह सुख, यह शान्ति। ग़नीमत है। यही ग़नीमत है।
23-8-2002
सुबह के सवा चार बजे हैं। मैं स्वरूप विभोर हूँ। दूर/पास कहीं एक माल गाड़ी गुज़र रही है। उसकी आवाज़ की एक सुस्त लकीर। बीच-बीच में उसका इंजन किसी बूढ़े थके जानवर की तरह चिंघाड़ देता है।
स्वप्न : मैं हिन्दुस्तान में कहीं हूँ और वहाँ से कहीं और जा रहा हूँ। कुछ लोग मुझे छोड़ने मेरे साथ जा रहे हैं- शायद किसी रेलवे स्टेशन पर। उनमें अशोक वाजपेयी भी हैं। वे एक कार में उस जगह के लिए चले गये हैं। मैं एक दूसरी कार में बैठ ही रहा होता हूँ कि ख़याल आता है मेरी अपनी कार तो वहीं खड़ी है, उसे साथ क्यों नहीं ले जाया जा रहा। सो मैं अपनी कार के बारे में पूछताछ करने के लिए उसकी तरफ़ चल देता हूँ। मदन सोनी कुछ और लोगों के साथ उस दूसरी कार में बैठा मज़े ले रहा है और मुझे छेड़ रहा है कि मैं अपनी कार वहीं क्यों नहीं छोड़ जाता। मुझे उसका मज़ाक बुरा तो नहीं लगता लेकिन यह अफ़सोस ज़रूर होता है कि वह कार से उतर कर मेरी मदद क्यों नहीं कर रहा। ख़ैर! मैं अपनी कार की तरफ़ चल देता हूँ। वह मुझे दूर से दिखायी दे रही है। वह पॉट्स्डैम वाली पॉटिएक कार है, जिसका रंग अब काला नज़र आता है। स्वप्न में मुझे हैरानी नहीं होती कि वह पुरानी कार वहाँ कैसे ? कार और मेरे बीच पानी का फै़लाव नज़र आने लगता है, मैं चिल्लाने लगता हूँ- राजू! राजू! अपनी तरफ़ से मैं अशोक के ड्राइवर के लिए चिल्ला रहा हूँ, जिसका नाम राजू नहीं। मेरी चिल्लाहट पर एक औरत भी ‘राजू, राजू’ चिल्ला देती है, ऐसे जैसे वह मेरी आवाज़ को उस पानी के फैलाव के उस पार पहुँचा रही हो। फैलाव बढ़ता जा रहा है। मैं अपनी कार तक पहुँचने की कोशिश में जुटा रहता हूँ। अब मैं पानी के किनारे-किनारे एक ऊँचे बाँध पर चल रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि कहीं से नीचे झाँककर राजू को फिर आवाज़ दूँगा। चलते-चलते मैं बहुत दूर निकल जाता हूँ लेकिन जानता नहीं कि बहुत दूर निकल आया हूँ। कुछ और लोग दिखायी देते हैं, कई और पानी, कुछ वाहन भी। पानी बाढ़ में बदल गया है। मैं बार-बार नीचे झाँकता हूँ लेकिन नीचे पानी के सिवा कुछ भी नहीं। बीच-बीच में यह ख़याल भी आता है कि वे लोग मेरा इन्तज़ार कर रहे होंगे, हैरान हो रहे होंगे, मैं कहाँ खो गया, मेरी गाड़ी छूट जाएगी। अब अगर मुझे मेरी कार मिल भी जाए तो इतने पानी के पार मैं उसे चलाऊँगा कैसे ? इन ख़यालों के बावजूद मैं कार की तलाश को छोड़ता नहीं। अब मुझे यह यकीन हो गया है कि मैं बहुत आगे निकल आया हूँ, इसलिए मैं मुड़कर वापस चल देता हूँ। आसपास पानी ही पानी है। शायद बारिश भी शुरू हो गयी है। दो गन्देमुन्दे बच्चे अब मेरे साथ चल रहे हैं। एक कहता है, सीपियाँ लोगे साब? और फिर वह सीपियाँ चुनकर अपनी हथेली मेरे सामने फैला देता है। सीपियाँ कीचड़ सनी हैं। मैं उससे कहता हूँ कि अगर वह मेरे ड्राइवर को बुला लाए तो मैं उसे पैसे दूँगा। वह कहता है कि वह उसे बुला लाएगा। दूसरा लड़का भी कुछ कहता है। वह पहले से छोटा है। मैं पानी से घबराया हुआ हूँ, वे दोनों नहीं। बल्कि वे मुझे तसल्ली दे रहे हैं कि हमें आगे जाकर कोई रास्ता मिल जाएगा। मुझे कोई रास्ता दिखायी नहीं देता। अब पानी में बहुत कुछ बहा जा रहा है। दूर एक बेढब-सा पूल दिखायी देता है लेकिन वह मेरी पहुँच से परे है। कार का सवाल अभी तक मुझसे, मेरी चिन्ता से, चिपका हुआ है- फिर मेरी नींद खुल जाती है।
पानी मेरे स्वप्नों में अक्सर आता है।
24-8-2002
एक और स्वप्न : कल रात एक जगमगाते अस्पताल की लॉबी में था, जहाँ कुछ दवाइयाँ तीन ख़ूबसूरत नुमाइशी शेल्फ़ों में सजी हुई थी। शेल्फ़ों का ढाँचा मेज़ पर रखे जाने वाले उन लैम्पों जैसा था जिन्हें इधर-उधर मोड़ा जा सकता है। मैं बार-बार उनकी नज़ाकत पर हैरान हो रहा था। एक सफ़ेद पोश नर्स भी थी, जिससे मैंने कुछ बातें कीं, जो अब मुझे याद नहीं। मैं वहाँ क्या कर रहा था, यह भी अब मुझे याद नहीं। वह अस्पताल बहुत बड़ा नहीं था। मैं उस नर्स से पूछना चाहता था कि उसमें कितने बिस्तर हैं लेकिन मैंने पूछा नहीं। मैं उससे कहना चाहता था कि वह मुझे उस अस्पताल की ‘सैर’ करवा दे लेकिन मैंने कहा नहीं। नर्स विदेशी थी। वह कोई काम नहीं कर रही थी। बीच-बीच में वह ग़ायब हो जाती थी और मैं दवाइयों के उन शेल्फ़ों को देखने लगता था।
फिर इसी स्वप्न के एक और हिस्से में मैं एक और इमारत में था, जहाँ चम्पा कुछ ख़रीद रही थी और मैं औरतों के एक गुच्छे को देख रहा था। वे आपस में बतियाये जा रही थीं। फिर मैं एक स्कूल की पुरानी इमारत के सामने खड़ा था, जिसमें से कुछ लोग कुछ टूटी-फूटी सीढ़ियों से उतर रहे थे। वे उस स्कूल के मास्टर थे। उनमें से किसी ने मेरी तरफ़ नहीं देखा था। इमारत भुरभुरी लेकिन भव्य थी।
और फिर इस स्वप्न श्रृंखला का अन्त एक ऐसे नुक़्ते पर हुआ जिस पर मैं किसी से कहीं पहुँचने का रास्ता पूछना चाह रहा था लेकिन सूझ नहीं रहा था कि उसे उस जगह के बारे में कैसे बताऊँ- उसका नाम वगै़रह मेरी ज़बान पर नहीं आ रहा था।
शाम
आज लायब्रेरी गया और कुछ किताबें ले आया। यहाँ की जीवनियाँ न जाने क्यों इतनी मोटी होती है जबकि उनमें होता अक्सर कूड़ा ही है। अधिकतर अनावश्यक होती है, अनावश्यक तथ्यों और ब्यौरों से अटी हुई। तुच्छताओं और तारीखों से लबालब।
नजीब महफूज़ की एक किताब The Echoes of an Autobiography लाया। नेडीन गॉर्डियर ने भूमिका में उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे हैं। मेरी राय और है। मुझे इसमें दानाई दिखायी दी न दीवानगी।
सुबह की समाधि में जो लिख रहा हूँ उसका सर-पैर अभी मालूम नहीं। हो सकता है हो ही नहीं लेकिन अगर जारी रहे तो कुछ न कुछ इसमें से निकलेगा। उस कुछ न कुछ में कुछ न कुछ काम का भी होगा।
मोटी किताबों को यहाँ महत्वपूर्ण माना जाता है, उसी तरह जैसे मोटी महिलाओं को वहाँ।
25-8-2002
कैथरीन फ्ऱैंक लिखित इन्दिरा गाँधी की जीवनी पढ़ ली। वही भारत में जिसकी भर्त्सना हो रही थी। पिछले वर्ष। मुझे यह माकूल नज़र आती है लेकिन घुटी-घुटी-सी भी, फिर भी शायद ही किसी भारतीय जीवनीकार ने इतनी मेहनत की हो। रिचर्ड राइट की एक नयी जीवनी भी पढ़ रहा हूँ।
यहाँ आये हुए आज नौ दिन हो गये। जो दो कहानियाँ शुरू कर रखी हैं, वे आगे तभी चलेंगी जब मैं अपने अवचेतन को दबाने के बजाए उसके साथ बहना शुरू कर दूँगा।
जेनेट विण्टरसन की दो-तीन किताबें एक साथ शुरू कर रखी हैं- उनकी उड़ान मुझे अच्छी लग रही है। चेख़फ़ की कहानियाँ फिर पढ़ रहा हूँ। आज ‘टेरर’ पढ़ी। चेख़फ़ कभी अतिभावुक नहीं होता, कभी गुरू गम्भीर नहीं होता, हमेशा विडम्बना को साथ रखता है। बेलिहाज़ नज़र। गै़ररूमानी।
इराक़ पर हमले का माहौल रचा जा रहा है। उसी तरह जैसे अफ़गानिस्तान पर रचा गया था। उससे अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ। इसीलिए शायद इराक़ की तरफ़ रुख़ किया जा रहा है। बुश कुछ न कुछ कर दिखाना चाहता है, भले ही उससे तबाही के सिवा कुछ भी हासिल न हो। अमरीकी विदेश नीति अन्धी। उधर अभी मुसलमान अपनी बेवकूफ़ियों के शिकार हैं।
27-8-2002
आज चेख़फ़ की श्। क्तमंउ ैजवतलश् पढ़ी। लम्बी कहानी। बिखरी हुई संरचना लेकिन ग़ज़ब का प्रभाव। एक विख्यात बूढे़ प्रोफ़ेसर (डॉक्टर) का व्यथाबोध। कहीं वैसा गिचगिचापन नहीं जैसा हमारे तथाकथित भारतीय लेखकों में अक्सर नज़र आता है। चेख़फ़ की मार्मिकता मोमी नहीं होती। रुलाने या रिझाने की कोशिश कहीं नहीं। इस कहानी में हौल की तस्वीरें कमाल की हैं। सभी किरदार अकेले और खोये-खोये लेकिन लेखक निर्लिप्त, निर्मम, कड़ा। उनसे अलग और ऊपर। अनुवाद की अनिवार्य ख़ामियाँ इन अनुवादों में भी होंगी लेकिन उनके बावजूद मुझे आनन्द आ रहा है। जिस बेरहमी से किरदार अपने आपको लताड़ते हैं, और चेख़फ़ जिस विडम्बनापूर्ण करुणा से जीवन के अन्याय और शून्य और अभाव और दुःख को आंकता है- इस कोटि का गहरा लेखन उन्नीसवीं सदी के रूसी लेखकों ने ही दिया है।
29-8-2002
आज मार्गुरीट यंग का वह भारी भरकम उपन्यास, मिस मेकिन्ताशे माई डार्लिंग, फिर उठाया। अनाइस नीन की भूमिका पढ़ी। उपन्यास के कुछ पन्ने पढ़े और हैरान हुआ कि इतने विलक्षण उपन्यास को क्यों इतने कम लोग जानते हैं। क्यों इसका मुक़ाम मूसिल या केनेटी के मुक़ाम का-सा नहीं। अनाइस नीन इस उपन्यास का गुणगान किया करती थी। उसी के कहने पर मैं एक बार न्यूयार्क में मार्गुरीट यंग के अपार्टमेंट में उससे मिलने गया था। एक मोटी, मस्त, ख़ब्ती, बातूनी बुढ़िया वहाँ तरह-तरह के गुब्बारों और खिलौनों से घिरी बैठी थी- एक गद्दी-सी पर- और बोले जा रही थी। उन दिनों वियतनाम जंग का विरोध अमरीका में ज़ोरों पर था। दो पादरी भाई, जो विरोधियों के नेताओं में गिने जाते थे, वहाँ बैठे हुए थे। कई खू़बसूरत मदमस्त या मेरूआनमस्त लड़कियाँ भी थीं। रौशनी धीमी थी, गाँजे का धुआँ था। मार्गुरीट की आवाज़ की लय याद है। वह ख़ुद भी किसी न किसी नशे में डूबी हुई थी। यह याद आता है कि उसने यह कहा था कि मशहूर लोग कितने अकेले और उदास होते हैं क्योंकि कोई उन्हें फ़ोन करने की हिम्मत नहीं करता। वह ख़ुद एक हल्के में काफ़ी मशहूर थी।
अनाइस नीन के साथ मेरी दोस्ती और गहरी और दिलचस्प और पायदार हो सकती थी उसी तरह जैसे एलन डूगन, आर्चिबाल्ड मेक्लीश, रिचर्ड पायरिएर, आई, टॉम बायल, जेम्ज़ डिकी के साथ। लेकिन मुझमें ही कोई दोष है कि मैं पीछे हट जाता रहा, बार-बार।
31-8-2002
उदासी आज उखड़े-उजड़े हुए बेआब बादलों की तरह आती-जाती रही, गला रुन्धता रहा, आँखें पुरनम होती रहीं, वक़्त कटता-फटता रहा, आहें फूटती रहीं। सुबह की सैर के दौरान दो बूढ़े दिखायी दिये। दोनों मुझ से बड़े लगे और कम वीरान। पब्लिक लायब्रेरी में दो-तीन घण्टे गुज़ारे। अनावश्यक किताबों की भरमार। जगमगाता मुर्दा माहौल।
चेख़फ़ और नाबॉकॉफ़ का अन्तर। नाबॉकॉफ़ जादूगर, चेख़फ़ उस्ताद कारीगर। नाबॉकॉफ़ की ज़बान उड़ती है, चेख़फ़ की उड़ना चाहती है। लेकिन चेख़फ़ को मैंने अनुवाद में पढ़ा है और ज़बान का मुक़ाबला नाबॉकाफ़ के उन उपन्यासों के साथ कर रहा हूँ जो उसने अँग्रेज़ी में लिखे। यह ग़लत है। हो सकता है मूल रूसी में चेख़फ़ की ज़बान भी उड़ती हो।
1-9-2002
परिवार पीड़ा का दूसरा नाम। हर प्रकार और कोटि की पीड़ा का। लेकिन परिवार का कोई विकल्प अभी तक विकसित नहीं हुआ। भविष्य में हो सकेगा ? परिवार पर हो रहे सब प्रहारों के बावजूद उसकी सम्भावनाएँ अभी समाप्त नहीं हुई। संयुक्त परिवार तो अब भारत में भी समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। मैं ख़ुद परिवार पर कई प्रहार कर चुका हूँ लेकिन परिवारमुक्त नहीं हुआ, न ही होना चाहता हूँ।
परिवार और प्यार का आपसी बैर अनिवार्य है। दोनों को लचीला और खुला होना पड़ेगा। खुली शादी, खुला प्यार। नैतिकता को भी लचीला होना चाहिए।
सुदूर भविष्य में मनुष्य का रूप क्या होगा। आज से दो या पाँच या दस हज़ार बरस बाद ? हो सकता है आज का परिवार तब अप्रासंगिक हो जाए, असम्भव भी। आज का प्यार भी। जेनेटिक एन्जनीयरिंग विकास प्रक्रिया को कैसे प्रभावित (विकृत ?) करेगी ? हर प्रकार के फ्रीक पैदा हो सकते हैं, किये जा सकते हैं।
नये मानव के बारे में श्री अरविन्द का वैकल्पिक स्वप्न और प्रयास ?
4-9-2002
गहरे गम्भीर स्वप्न यहाँ ज़्यादा आते हैं, हर रात आते हैं। उजाला होते ही हवा हो जाते हैं। उसी वक़्त उठकर उन्हें पकड़ना चाहिए या फिर जागते ही।
5-9-2002
इराक़ पर हमले का माहौल। टी.वी. पर नाबालिग बहसें ज़्यादा, समझदार नुक़्ताचीनी कम औसत अमरीकी को इराक़ में कोई दिलचस्पी है न उसके बारे में कोई जानकारी। वह आँख मूँद कर मरने-मारने को तैयार। कुछ समझदार लोग भी हैं जो इस माहौल के ख़िलाफ़ हैं, हमले के ख़िलाफ हैं। लेकिन बुश और चेनी हमले पर तुले हुए हैं। सद्दाम हुसैन को मिटा देने पर। इराक़ को तबाह कर देने पर। वहाँ प्रजातन्त्र स्थापित करने के बहाने। उनके हथियारों को नष्ट कर देने के बहाने। उनकी एटम बम बना लेने की क्षमता को ख़त्म कर देने के बहाने।
आज सुबह सैर के दौरान अनायास एक उड़ान आयी और मैंने उन तमाम छोटी-बड़ी समस्याओं पर नज़र डाली जो मुझे परेशान करती रहती हैं। और मैंने यह फ़ैसला किया कि अगर मैं उनको सुलझाने में विफल रहूँ, उनमें से एक का भी समाधान न कर सकूँ तो भी कोई बड़ी आफ़त नहीं आ जाएगी। सिफ़र तक पहुँच जाऊँ या समझूँ कि पहुँच गया हूँ तो भी क्या! अगर सेहत और बिगड़ जाती है, बिलकुल बहरा और अन्धा हो जाता हूँ, लाचार हो जाता हूँ, अगर कोई भी उम्मीद बर नहीं आती, अगर कुछ भी लिखा नहीं जाता, अगर सब मेरे ख़िलाफ़ हो जाते हैं, अगर मैं मिट जाता हूँ तो भी क्या ? अब जो होना है, हो चुका है।
इसी ख़याल को एक ख़ूबसूरत रचना का रूप देना चाहता हूँ।
8-9-2002
"Irony has to contain an element of suffering in it (otherwise it is the attitude of a know-it-all)."
"....creative writing is a battle to achieve a higher species of moralits."
"I treat life as something inpleasant that one can get through by smoking! (I live, in order to smoke.)"
"I have a minimal need to communicate : I am a deviation from the standard type of writer."
"I consider it to be more important to write a book than to rule an empire - and also more difficult."
Rabert Musil, Diaries
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