दैशिक कलाएँ और चिदाकाश नवज्योति सिंह से उदयन वाजपेयी की बातचीत
22-Mar-2023 12:00 AM 1566

नवज्योति सिंह को संसार छोड़े चार से ज़्यादा वर्ष हो चुके। जब वे गये, उनकी उम्र 60 वर्ष थी। वे स्वतन्त्रता प्राप्त भारत के सबसे अनोखे और प्रयोगशील, लेकिन साथ ही पारम्परिक दार्शनिक थे। दार्शनिकों, लेखकों, चित्रकारों आदि के संसार में उनका नाम बहुत आदर से लिया जाता रहा है, लिया जाता रहेगा। पहले उनका हृदय रोग का इलाज हुआ, फिर कैंसर ने उन्हें घेर लिया। वे हृदय रोग से बाहर आ गये थे, कैंसर से नहीं आ सके। इन दोनों के बीच वे दो बार भोपाल आये। इनमें से एक बार उन्होंने चित्रकला पर व्याख्यान भी दिया। इन दोनों बार हमने उनसे कला के दर्शन पर बातचीत की। योजना यह थी कि पहले दैशिक कलाओं के दर्शन पर विस्तार से बातचीत हो। बाद में कालिक कलाओं पर उतने ही विस्तार से चर्चा हो। हमारा यह सौभाग्य था कि हम उस पाये के दार्शनिक नवज्योति सिंह से दैशिक कलाओं के दर्शन पर बातचीत कर सके। पर हमारा यह दुर्भाग्य था कि जब कालिक कलाओं पर बातचीत का अवसर आया, उनका स्वास्थ्य इस योग्य नहीं रह गया कि वे इस विषय पर चर्चा कर पाते। अपनी बीमारी के दौरान ही उन्होंने इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इन्फोर्मेशन टैक्नोलॉजी, हैदराबाद में स्थित अपने विभाग (सेंटर फॉर एक्जेक्ट ह्यूमेनिटीज़) में ‘वर्ण’ (रंग) पर क़रीब दस व्याख्यान दिये। ये व्याख्यान आज भी यू-ट्यूब पर सुने जा सकते हैं। नवज्योति यह मानते थे कि पश्चिमी सभ्यता का भारत पर ऋण है। वे इस ऋण को चुकाने का यह उपाय मानते थे कि हमें भी पश्चिमी सभ्यता को अपनी ऐसी अन्तर्दृष्टि भेंट करनी होगी जिससे आधुनिक वैश्विक सभ्यता अपने उन सवालों से जूझ सके जिनके समाधान पश्चिमी सभ्यता में नहीं हैं। उन्होंने जीवन से विदा लेने के क्षण तक इस ऋण को उतारने और भारतीय सभ्यता को समृद्ध करने के अपने गहन दार्शनिक प्रयासों को कम नहीं होने दिया। ‘समास’ के पाठकों को याद होगा कि हमने अंक-9 में नवज्योति सिंह से एक बातचीत प्रकाशित की थी। वह पुस्तकाकार ‘विचरण’ नाम से प्रकाशित हो चुकी है। इस अंक में हम इस महान दार्शनिक की दैशिक कला सम्बन्धी बातचीत प्रकाशित कर रहे हैं। यहाँ यह याद रहे कि रंगकर्म, संगीत, नृत्य, सिनेमा आदि कालिक कलाएँ हैं। ये काल में खुलती हैं। जबकि चित्रकला, शिल्प और वास्तुकला दैशिक कलाएँ हैं जो देश (स्पेस) में खुलती हैं।

उदयन : आप अलग-अलग युगों के सन्दर्भ में कला की उत्पत्ति की कहानी बताते हैं, उससे कला का प्रयोजन भी निकलता है, वह कहानी कहिए।
नवज्योति सिंह : यह कहानी नाट्यशास्त्र से शुरू होती है। यह नाट्य-शास्त्र में भी है और अन्य ग्रन्थों में भी बिखरी हुई है। उन्हीं सब जगहों से उठा कर बनायी गयी है।
उदयन : यह कहानी किसी एक ग्रन्थ में नहीं है?
नवज्योति : यह बनायी हुई कहानी है। किसी भी एक ग्रन्थ में नहीं मिलेगी। कहानियाँ ऐसे ही बनायी जाती थीं। पुराण इत्यादि ऐसे ही बनाये जाते थे। पुराण आदि भी किसी बात की निखारने बनाये जाते थे। कहानी का प्रयोजन यही होता है ‘किसी सच को बताना। किसी चीज़ का स्वरूप निखारना।’ उस कहानी से, जिसका आप जिक्र कर रहे हैं- कला की उत्पत्ति निकल आती है और भी बहुत-सी चीजे़ं निकल कर आती हैं।
कहानी बनाना और कहानी कहना एक ही बात है। यहाँ जो सबसे पुराना है, वही सबसे गहरा है। गहरी कहानी है तो वह पुरानी कहानी है, वही पुराण है। कथा या गाथा में गहराई होती है इसलिए ही वह कथा या गाथा होती है। इसी तरह ही कला के सन्दर्भ में युगों की कहानी है। ऐसा नहीं है कि पहले कोई युग हुआ, बाद कोई और युग हो गया। सारे युग तात्कालिक है। एक साथ घट रहे होते हैं। वे गहराई में भी हैं, विस्तार में भी। जहाँ गहराई और अतीत मिलते हैं, उसी स्वरूप को कहानी कहते हैं। उसमें कहा जा रहा होता है। कहानी में कहन है, उसे थाम लिया जाता है। फिर उस पर कहानी बनती रहती है। उस कहानी के अंगोपांग समय-समय पर अलग-अलग जगहों से उठते रहते हैं।
उदयन : इससे अलग-अलग कहानियाँ बनती रहती हैं।
नवज्योति : उसके पीछे जो बात है, वह पकड़ में आ जाये तभी कवि कहानी बनाता है। वह एक किस्म की समाधि है, उसी के विस्तार में जाने से कहानी लिखी जाती है। आदमी उस बात को पकड़ ले और उसे कहने लगे। कहते-कहते कहानी बन जाती है। युगों की कहानी भी ऐसी ही है। युग आदि तो उसके अंगोपांग जैसे हैं। उनके सहारे एक बात कही जा रही है। उसमें से मनुष्य का स्वभाव, उसकी स्थिति, उसकी गहन वृत्तियों बाहर निकल रही है। इन्हें कहने में चतुर्युग की संकल्पना काम आ गयी। वह कहानी का प्लॉट हो गया। सारे पुराण ऐसे ही बने हैं। वे कोई गहरी बात कह रहे हैं। पुराण में सृष्टि प्रक्रिया दिखायी गयी है। बहुत गहरी बात कहने के लिए उसे सृष्टि-प्रक्रिया में पिरो दिया गया है। ऐसे ही यह कहानी भी है जहाँ एक विशेष बात कहने के लिए उसे सृष्टि प्रक्रिया में पिरो दिया गया है।
इतिहास का अर्थ है, जैसा है वैसा ही कहना। जो गहराई है, उसे ही कहना है।
उदयन : इसका आशय और स्पष्ट कीजिए।
नवज्योति : इतिहास शब्द की व्युत्पत्ति यही है : ऐसा ही हुआ है। इसके अन्दर एक दावा हैः जैसा हुआ है वैसा ही इतिहास में उसका व्याख्यान करना है। ‘ऐसा हुआ’ यह निश्चय उसकी गहराई के कारण है। कहानी की गहराई के कारण ही ऐसा निश्चय बन जाता है कि ऐसा ही हुआ है।
उदयन : क्या ऐसा उसके वर्णनों के कारण होता है ?
नवज्योति : केवल वर्णन तो अर्थवाद है। उसमें इधर-उधर की चीज़ें आती हैं। ऐसा भी नहीं है कि आप बिना वर्णन के कह सकते हों। वर्णनों का अपने आप में औचित्य है। उसके बगैर ‘बात’ निकल ही नहीं सकती।
उदयन : लेकिन आप जो कहना चाह रहे हैं, उसके लिए आप नये वर्णनों की कल्पना भी कर सकते हैं।
नवज्योति : कथाओं के दो तत्त्व होते हैं। या तो वे ऐतिहासिक होते हैं या काल्पनिक। दृश्य-श्रव्य के लिए भी। यही नाट्य-शास्त्र में कहा गया है। इन दोनों तत्त्वों में खेल चलता रहता है। कल्पनाएँ ऐतिहासिक हो जाती हैं और इतिहास कल्पना में आ जाता है। जो प्रसिद्ध है उसे लोग इतिहास कहने लग गये। जो स्मृति में आ गया उसे इतिहास कहा जाने लगा। इतिहास की सृष्टि होती है। उसके रचने में गहराई बाहर आती है। वह गहराई के ऊपर रचा जाता है। इतिहास में दावा भी गहराई का है इसलिए भी वह ठीक बैठ जाता है। सारे पुराण ऐसे ही लिखे गये।
अगर सृष्टि प्रक्रिया में देखें तो पूछना होगा कि कलाओं का सृष्टि प्रक्रिया में क्या स्थान है?
उदयन : आपके अनुसार सतयुग में कलाएँ नहीं हैं?
नवज्योति : हाँ, सतयुग में वे नहीं हैं। कला हर किस्म की होती है। चोरी-चालाकी की भी कला होती है। सतयुग में कैसी भी कलाएँ नहीं हैं। उसमें लोग अपने स्वभाव से अपने प्रयोजन देखकर अपनी तपस्याओं में लगे हैं और अपने प्रयोजन ढूँढ रहे हैं, उनकी सिद्धि में लगे हैं। तपस्या सतयुग में होती है। उसमें सारे के सारे लोग तपस्वी हैं। वे अपने-अपने प्रयोजनों को सिद्ध करने में लगे हैं। उन्होंने बड़ी-बड़ी तपस्याएँ की जिनसे क्या-क्या न उत्पत्तियाँ हुई? वेद इत्यादि, और भी अनेक उत्पत्तियाँ।
उस युग में एक खोट आ गयी जिसके कारण उनकी तपस्याओं से निकलने वाले फलों में दोष आ गया। उस युग में सारे लोगों की तपस्या के कारण धर्म आदि व्यवस्थित हो रहा था। पर उसमें एक किस्म की त्रुटि आ गयी।
उदयन : यहाँ आप जिसको धर्म कह रहे हैं, उससे आपका क्या आशय है ?
नवज्योति : धर्म का अर्थ है जो धारण योग्य हो। ऐसी प्रवृत्ति जो धारण के योग्य हो, वह धर्म है। जो धारण के योग्य हो, उसे अपना अधिकरण चाहिए। जैसे आग का धर्म जलना है। आग का अधिकरण लकड़ी है, वह उसमें धारण हो सकती है। इसमें जो योग्यता है, वह धर्म है। ऐसे धर्म हों जिनसे सभी चीज़ें एक-दूसरे की पूरक हो जायें। सतयुग में ऐसा ही है, सब अपनी-अपनी तपस्या कर रहे हैं और एक-दूसरे के कामों में हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं। सतयुग में थोड़ा-सा पुण्य कमाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। हज़ारों-लाखों सालों की तपस्या करने पर थोड़ा-सा पुण्य कमाया जा पाता है पर कलियुग में थोड़ा-सा दान देने भर से भी पुण्य हो जाता है। इसमें पुण्य करना इतना आसान है। सतयुग में घोर तपस्या करनी पड़ती थी। इसलिए वहाँ धर्म के सिद्धान्त बन गये। पर सतयुग में एक त्रुटि आ गयी। त्रुटि यह आयी कि सुख-दुःख की वृत्तियाँ प्रकट होने लगीं। फल के उपलब्ध होने से सुख हो सकता था और न उपलब्ध होने से दुःख। पर सुख-दुःख की वृत्तियों के बाद भी सतयुग चलता रहता है क्योंकि लोगों की तपस्याओं में एकाग्रता बनी थी।
उदयन : सतयुगी दुःख-सुख से निष्प्रभावी बने रहते हैं।
नवज्योति : हाँ। मतलब इन वृत्तियों के बाद भी सतयुग चलता रहता है। इनसे गड़बड़ नहीं होती पर इसमें त्रुटि यह आ गयी मनुष्यों का सुख की ओर झुकाव हो गया और दुःख से दूर भागने की प्रवृत्ति आ गयी। ऐसी प्रवृत्तियाँ आ गयीं कि दुःख से भाग लें और सुख की ओर जाएँ। इस प्रवृत्ति से तपस्याएँ भंग होने लगीं। उससे एक-दूसरे के पूरक रूप जो धर्म थे, उनकी स्थापना होना बन्द हो गया। इस तरह सृष्टि चल नहीं सकती। एक बहुत बड़ा संकट उत्पन्न हो गया। इस पर ब्रह्मा से आग्रह किया गया कि आप ऐसा उपाय बताओ कि सुख की लालसा और दुःख के तिरस्कार से आने वाली कमियाँ खत्म हो सकें। क्योंकि इसके कारण धर्म का सारा तन्त्र गड़बड़ा रहा है। यह नाट्य-शास्त्र का आरम्भ है। ऊपर बतायी गयी कमी को दूर करने नाट्य की सृष्टि हुई। इस समस्या के निवारण के लिए।
उदयन : सुख की लालसा और दुःख के तिरस्कार से उत्पन्न हुए धर्म के संकट से निवारण के रूप में नाट्य की उत्पत्ति हुई।
नवज्योति : इसी कारण बहुत-सी वृत्तियाँ आ गयीं। ऐसा सोचा गया कि उनसे बाहर निकलने के लिए कुछ करना था। इसीलिए नाट्य-शास्त्र में कहा गया कि क्रीड़ा का तन्त्र बनाओ। सभी समाजों में क्रीड़ा का तन्त्र जो कि नाट्य शास्त्र है, आ गया। सतयुग में सुख-दुःख की बात को कहानी कहने के लिए जोड़ दिया गया है। इसके कारण कहानी में गति में आती है। नाट्य-शास्त्र में यह लिखा हुआ नहीं है कि यह त्रेता का दस्तावेज है, यह सब कहानी बनाने के लिए किया गया है। कहानी में अर्थ-प्रकृतियाँ रहती हैं। उनमें कारयित्री शक्ति होती हैं। उसी के कारण कहानी का अगला चरण उठता है। इसीलिए इस बात को सृष्टि प्रक्रिया में डाल दिया गया है। नाट्य की रचना त्रेता में हुई। यह सतयुग में नहीं है। नाट्य-शास्त्र का संकल्प यह है कि चूँकि सृष्टि के होने से दुःख-सुख भी हैं इसलिए ऐसी कृतियों की आवश्यकता है जो हैं नहीं, अनुकृतियाँ हैं। उनमें आप दोबारा से सृष्टि कर सकते हैं। ऐसा करने से वहाँ सारा कुछ सुख या मनोरंजन हो जायेगा। इसलिए अनुकृति शास्त्र का विषय-वस्तु बन गयी। अनुकृति करने मंच की ज़रूरत है। वो अलग पदार्थ है। शास्त्र में पदार्थ होते हैं। विषय-वस्तु के अनुरूप पदार्थ होते हैं। उसमें मंच आ जाता है, संगीत, अभिनय आदि। इन पदार्थों से शास्त्र बनता है, उसकी प्रक्रिया बनती है। यह बात नाट्य-शास्त्र में दो तीन श्लोकों में आयी है। वह इसकी एकवाक्यता है।
उदयन : यहाँ एकवाक्यता यह है कि दुःख और सुख को केवल सुख में अन्तरित करना?
नवज्योति : नहीं सुख में नहीं बदलना। ऐसा रूपान्तरण करना है, ऐसी अनुकृति की रचना करना है कि धर्म के अन्दर पूरकता आ जाए।
उदयन : आप यह कह रहे हैं कि नाटक देखने वाले प्रेक्षकों या सामाजिकों में धर्म की पूरकता स्थापित हो जाती है।
नवज्योति : हाँ। वे नाट्य की किसी भी स्थिति में धर्म और अधर्म के द्वन्द्व को देख पाते हैं। इस तरह देख पाने से उनका परिष्कार होता है। उनके अन्दर धर्म और अधर्म की समझ का परिष्कार हो जाता है। इस परिष्कार से धर्म-अधर्म के बीच सन्तुलन बन जाता है, समाज के सदस्यों के कामों के बीच पूरकता आ जाती है। सुख के प्रति लालसा और दुःख के प्रति तिरस्कार के भाव को हटाने के लिए केवल सुख चाहिए पर वैसा नहीं हो सकता। सुख और दुःख तो होते हैं लेकिन उन्हें बाँध कर रखना होता है। नीलकण्ठ में जैसा ज़हर को बाँध लिया गया वैसा ही। उससे ज़्यादा सुख-दुःख का औचित्य नहीं है। इसके बाद अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए काम करना होता है। सुख-दुःख उस प्रयोजन में बाधा देते हैं। इनसे हटने का तन्त्र बनाओ जिसमें ये न हों। आप अपने को भूल कर प्रेक्षागृह में या ऑडिटोरियम में बैठो। उस समय अपने सुख-दुःख को एक तरफ रख दो और नाटक देखो या फ़िल्म देखो। नाटक की पहली शर्त है : डूबना। यह डूबना चुटकी मार कर हो जाता है। उसके बाद सामने घट रही कथा में क्या धर्म है, क्या अधर्म यह पूरी तरह आपके ऊपर है। आप उसका विश्लेषण करते हैं। निदेशक लोग आपको बेवकूफ़ बनाते हैं। पहले आपको अधर्म की तरफ ले जाते हैं, क्लाईमेक्स के बाद बताते हैं कि धर्म क्या है। ऐसी ड्रामें बाज़ी होती है।
उदयन : इससे धर्म-अधर्म की समझ परिष्कृत होती है।
नवज्योति : इसी प्रयोजन के लिए नाट्य की सृष्टि हुई।
उदयन : अनुकृति में साक्षित्व या साक्षी-भाव तो अन्तर्भूत ही है।
नवज्योति : नाटक देखते समय साक्षित्व पद सबसे ऊपर हो जाना चाहिए। जब आप डूब जायेंगे, आप पूरे के पूरे साक्षी हैं। आपके जीवन का रोना-धोना किनारे रखा हुआ है। आप उस समय विशुद्ध रूप से साक्षी होते हैं। मनुष्य को साक्षित्व पद में लाना जिससे वह देख पाये कि सुख-दुःख से क्या होता है, यही नाटक का प्रयोजन है। नाटक में ऐसा सुख, ऐसा दुःख चलता रहता है और उसके अन्त में आप उनका निष्कर्ष निकालते हैं जिससे धर्म की सृष्टि होती है। मैं अपने छात्रों को ‘तारे ज़मीन पर’ फ़िल्म की कहानी का उदाहरण देता हूँ। उसमें एक बच्चा है जो कहीं बैठ नहीं पाता। न वह स्कूल में बैठ पाता है न कहीं और। उसने सबको तंग कर रखा है। वह अपने सहपाठियों से भी तंग है, उनके पास से भाग जाता है। वह घर छोड़ कर भी भाग जाता है, इधर-उधर घूमता है। माँ-बाप को भी तंग कर रखा है। मुहल्ले के लोग भी उससे तंग हैं। वह कहीं फिट ही नहीं हो पा रहा। इसलिए सब लोग इस निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि ऐसे बच्चे का कुछ नहीं हो सकता। उसे बोर्डिंग स्कूल में छोड़ दिया जाता है। सारा रोना-धोना उसमें आ जाता है। लेकिन असली रोना अन्त में है जब सब लोग खुश हैं। मतलब बच्चे हल्ला मचा रहे हैं, खुश हो रहे हैं। प्रिंसिपल बड़ा खुश नज़र आ रहा है, टीचर खुश हैं, उसका भाई भी खुशी-खुशी खेल रहा है। सब खुश हैं। उसके माता-पिता कह रहे हैं कि इसको, इस बच्चे को ऐसा क्या हो गया कि यह इतना अच्छा हो गया। वे चमत्कृत हैं। लेकिन उस समय दर्शक रो रहें हैं। वे किस बात पर रो रहे हैं? उनकी फ़िल्म में दिखायी जगह से संवेदना (एक्पैथी) तो है नहीं, फिर भी सारे दर्शक रो रहे हैं। वो इसलिए रो रहे हैं क्योंकि उन्हें यह बोध होता है कि उन्होंने बच्चे पर पहले जो निर्णय लिया था वह ग़लत था। इससे धर्म की स्थापना हुई। यहाँ धर्म का विश्लेषण हुआ। अच्छी फ़िल्म वो है जो दर्शक को अपने आप पर रुलाए। इसमें हुआ यह है कि आपको साक्षी पद पर बिठा दिया और वहाँ ऐसी क्रीड़ा की या ऐसा खेल खेला कि धर्म-अधर्म का एक किस्म का परिष्कार हो गया। यही स्थापित करने नाट्य की सृष्टि हुई। यह त्रेता युग में होता है। आदमी नाटक देखता है, देख लिया, फिर वह घर जाता है। वहाँ पर नाटक नहीं है। फिर वह कहने लगता है, सारी दुनिया नाटक है। कलाओं पर एक आक्षेप हुआ कि उससे नशा होता है। इसकी आदत हो जाती है, कि आप अपने आपको भूल जाते हैं। कि वह पलायन जैसा कुछ है। नाटक आदि देखकर आप समझदार हुए और अपनी सृष्टि में आपके जो भी उद्देश्य वगैरह हैं उनकी पूर्ति में लग गये। इस दौरान जहाँ-जहाँ भी धर्म-अधर्म की बात आयी, उसे सुलझा लिया। जितना हो सका सुलझा लिया, नहीं सुलझा सके, तो नाटक कर लिया उसमें इस अनुसुलझे प्रश्न को सुलझा लिया। इस तरह त्रेता चलता रहता है। नाटक के भीतर के व्यक्तित्त्व मर्यादाओं के स्कन्ध हैं। उसमें तो वे साँस भी नहीं ले सकते। अमिताभ बच्चन साँस ले या संदीप चटर्जी ले पर उनके चरित्र को साँस लेने की जगह नहीं है। दरअसल नाटक के चरित्र मर्यादाओं के स्कन्ध के सिवा कुछ नहीं है। और नाटक की कथा इन मर्यादाओं के बीच टकराव की तरह चलती है। इस टकराव को रंगनिदेशक या कविगण सुलझा देते हैं। इस पर सब लोग वाहवाही करके घर लौट जाते हैं, परिष्कृत होकर। त्रेता की सृष्टि इस तरह चलती रही। लेकिन इसमें एक त्रुटि आ गयी : यह समझ में आ गया कि केवल मर्यादाओं पर चलकर धर्म-अधर्म स्थापित नहीं हो पायेगा। धार्मिक व्यवस्था नहीं आ पायेगी। क्योंकि अनुकृति की वास्तविकता मर्यादा की भी वास्तविकता है। मर्यादा साक्षित्व में होती है। उसकी वास्तविकता दिखती है। मर्यादाएँ परलोक में होती हैं और जीवन क्रियालोक में है। इसलिए लोगों ने मर्यादाओं के अनुरूप जीना चालू किया। ऐसे ही रामचन्द्रजी भी जीने लग सके, मर्यादाओं के अनुरूप। इससे उनकी प्रतिभा, शौर्य और कीर्ति चारों ओर फैल गयी। आज भी बहुत सारे लोगों के नाम में राम ही राम हैं। वे इतना सफल हुए। लेकिन लव-कुश ने राम के अश्वमेध का घोड़ा पकड़ लिया, उनको राम में एक खोट या त्रुटि पता चल गयी। उन्हें ताकत इस त्रुटि को जानने से ही आयी। मर्यादाओं से बना हुआ शिष्ट उत्तम पुरुष और उसमें भी एक त्रुटि आ गयी। इससे त्रेता में संकट उत्पन्न हो गया। त्रेता युग थम गया। एक बार भारत-पाकिस्तान की सरहद से छह किलोमीटर दूर वाल्मिकी आश्रम में गया। वहाँ वह पेड़ है जिससे अश्वमेघ का घोड़ा लव-कुश ने बाँधा था। वहाँ वाल्मिकी लोग जाते हैं। वह उनका तीर्थस्थान है। वहाँ ज़रूर जाना चाहिए। वहाँ लोगों ने बहुत बड़ी हनुमान की मूर्ति लगा दी है। अकाली लोगों ने कहा है कि वे वहाँ आलीशान मन्दिर बनाएँगे। काशीराम वाल्मिकी थे। मायावती ने अकालियों को कहा तो वे बोले कि वहाँ बड़ा मन्दिर बनाएँगे। अभी तक उन्होंने वहाँ तालाब को पक्का कर दिया है। काम चल रहा है। कुछ वर्षों में काफ़ी कुछ हो जायेगा। वहाँ हनुमान की मूर्ति है। हनुमान की समस्या बड़ी थी। एक ओर राम ने प्रतिज्ञा कर ली कि सीता के बारे में मैं सोचूँ तक नहीं, उन्हें यानी सीता को मेरे चित्त में ही नहीं आना चाहिए।
उदयन : यह तब की बात है जब उन्होंने सीता-परित्याग कर दिया है।
नवज्योति : परित्याग का अर्थ यह है कि सीता मेरे चित्त में भी न आये। नहीं तो मेरा धर्म टूट जायेगा।
उदयन : मर्यादा बिखर जायेगी?
नवज्योति : राजधर्म एक तरफ पति धर्म दूसरी तरफ। उन्होंने पतित्व को त्याग दिया। हनुमान को इसमें बड़ी समस्या महसूस हुई : ऐसे कैसे सीता को भूल जाएँ? इसलिए वे कभी सीता के सामने नहीं आये और न लव-कुश के। लेकिन वे वहीं वाल्मिकी आश्रम के चारों तरफ छुप-छुप के जीते रहे। सारा जीवन उन्होंने वहीं बिताया। वे सीता की देखभाल करते रहे पर उनके सामने नहीं आये ताकि राम का व्रत न टूट जाये।
उदयन : इस दृश्य में रहते हुए लव-कुश क्या त्रुटि नज़र आयी?
नवज्योति : त्रुटि यह हो गयी कि राजा और पति की मर्यादाओं के बीच के द्वन्द्व का कोई समाधान सम्भव ही नहीं हुआ। वह असमाधेय ही रहा। यह ठीक है कि राम समाधान करके बैठे रहे और सीता भी इसी तरह समाधान करके बैठी रहीं पर वे वास्तविक समाधान नहीं हैं। ऐसा वाल्मिकी ने बच्चों को सिखा दिया। इससे उनमें बहुत ताकत आ गयी और उन्होंने अश्वमेघ का घोड़ा रोक लिया। इससे राम चक्रवर्ती नहीं हो पाये। इस खोट से यह स्पष्ट हो गया कि नाट्य का धर्म सम्बन्धी समाधान चलेगा नहीं। कुछ और बनाना पड़ेगा। यह सोचा गया कि नाटक में डूबने से काम नहीं चलेगा, सभाएँ शुरू करना चाहिए। सभाएँ होनी चाहिए। उसमें बड़े-बूढ़े लोग आकर बैठें और धर्म-अधर्म के औचित्य का विश्लेषण करें। यह धर्म है या यह ऐसा नहीं है आदि। किसी विशेष परिस्थिति में क्या हो, क्या न हो। और उस विश्लेषण से जो भी समाधान निकलता है, वह बताएँ।
उदयन : इसका आशय यह है कि नाट्य तो चले ही साथ ही सभाएँ भी बुलायी जाएँ।
नवज्योति : नाट्य तो तब से चलता ही रहा, तब से नाट्य की सृष्टि हो गयी। नाट्य के साथ सभाएँ आ गयीं। इससे द्वापर की शुरुआत हो गयी। द्वापर के आगमन में यही संशय है लव-कुश का। उन्होंने कहा कि यह ऐसे नहीं चलेगा कि धोबी ने कुछ कह दिया और आपने स्वीकार कर लिया। आपको सारे नतीजे सोचने होंगे। जब आप सब सोच चुके, आप एक मिश्रण बनाओ, जिससे धर्म में साम्यता बनी रही। इसके लिए सभाएँ होनी चाहिए। सभाओं में जितना भी समाधान निकलना है, निकल जाएगा। इससे महाभारत निकला।
उदयन : क्या इसीलिए नैमिषाण्य में सभा हो रही है।
नवज्योति : हाँ, लोग नाटक देखते रहे और सभाओं में जाते रहे। सभाओं में निर्णय होते रहे और धर्म दोबारा से स्थापित हो गया। त्रेता की त्रुटि का एक निवारण आ गया। उस युग में विदुर लोग आ गये और भी सबने अपनी-अपनी बात रखी, सबने मिल-जुलकर समाधान निकाल लिया।
उदयन : चूँकि महाभारत द्वापर का ग्रन्थ है जिसमें सभाएँ ही धर्म की स्थापना का काम कर रही हैं, तो क्या महाभारत को सभा की तरह भी देख सकते हैं?
नवज्योति : महाभारत में तरह-तरह के चरित्र आ गये। बहुत विचित्र लोग आ गये। रामायण में विचित्र चरित्र इसके मुकाबिले कम ही हैं। उसके अन्दर दो-चार तरह के ही चरित्र हैं। एक राम हैं, एक सुग्रीव और एक रावण किस्म के चरित्र हैं।
उदयन : महाभारत में बहुत से संवाद हैं, जो सभा का लक्षण है।
नवज्योति : हाँ, गीता भी संवाद है। पूरा द्वापर सभाएँ करते-करते निकल गया। नाटक या कलाएँ बहुत सीमित स्थान और काल में घटित होती हैं। इनका सारे जीवन में विस्तार नहीं हो सकता। वह मनोरंजन है। आप उसके लिए टी.वी. देख लें। बाकी समय में तो आपको सोना है, लोगों से मिलना है, कुछ काम करना है। आप नाटक को फैलाकर पूरी ज़िन्दगी को ढँक तो नहीं सकते। कला में यह एक किस्म का बन्धन है। कलाएँ कभी कृति नहीं हो सकतीं, वे अनुकृति ही रहती हैं। उनका अपना स्थान है। अपना स्थान मतलब नीलकण्ठ जैसा। अगर ज़हर भी है तो आपने उसे बाँध कर रखा है। वैसे वे चल रही हैं। लेकिन द्वापर में भी एक और जबरदस्त त्रुटि आ गयी।
उदयन : क्या यह कहा जा सकेगा कि त्रेता का इतिहास रामायण है?
नवज्योति : त्रेता का इतिहास दरअसल रामायण है। यह बात लोकसिद्ध है। आप किसी से भी बात करेंगे, वह तुरन्त कहेगा या कहेगी कि रामायण त्रेता के बारे में है। महाभारत द्वापर के बारे में है। इतिहासकारों के पूछिए तो वे कहेंगे, महाभारत ट्राईबल समाज के बारे में है, इसके बाद रामायण आती है। चतुर्युग की कल्पना के सन्दर्भ में रामायण के त्रेता में होने की और महाभारत के द्वापर में होने की प्रामाणिकता है। पुराण भी प्रामाणिक होते हैं। उसके अंश पहले कहे जा चुके होते हैं। द्वापर में देखा गया कि मिलजुलकर सभा में विचार करके भी काम नहीं चल रहा। इसका कारण द्रौपदी का मुस्कराना था। जैसे कहीं तितली फड़फड़ायी और उससे सारी सृष्टि बिगड़ जाए। उसी तरह द्रौपदी हँस भर दे, और उससे सारी चीज़ें उलट-पलट जाएँ। ऐसा होता है। इसी को यादृच्छा कहते हैं। लोगों में तरह-तरह की इच्छाएँ हैं, इससे ही घर्षण हो जाता है, धर्म-अधर्म टूट जाता है। ऐसा नहीं कि द्रौपदी ने सोचा कि मैं महाभारत करूँगी इसलिए वो हँसी थी। उसकी हँसी वैसे ही निकल गयी जैसी बच्चों की निकल जाती है। उसी से महाभारत हो गयी।
उदयन : लव-कुश के मर्यादा रूप राम की त्रुटि देखने से त्रेता समाप्त हुआ और द्वापर द्रौपदी की हँसी से। इन दोनों ही स्थितियों में धर्म की पूरकता के विखण्डन का संकेत मिल गया था।
नवज्योति : त्रेता के अन्त में लव-कुश को पता लग गया कि मर्यादाओं पर चलकर (मर्यादा-पुरुष के सहारे) धर्म-अधर्म की व्यवस्था बन नहीं सकती। इससे यह निकला कि गुरूओं आदि को पकड़ा जाए, उनके चारों ओर बैठा जाए, कोई बात हो तो उनके पास जाया जाए, और पूछा जाए कि आप बताएँ कि क्या करें। सभाएँ की जाएँ। यह सब मिल-जुलकर किया जायेगा। इससे द्वापर की व्यवस्था चल रही थी। उसमें महाभारत हो जाएगी, यह किसी को पता नहीं था। महाभारत से ही द्वापर का अन्त हुआ। लोगों को मार दिया गया। महाभारत में यह हुआ कि अर्जुन ने पूछा कि मैं अपने गुरूजनों को कैसे मार दूँ। इस पर कहा गया, मार दो। इस इजाज़त में मुश्किल है। यह प्रसिद्ध भी बहुत है आजकल। इसमें से ही समाधान भी निकला जो कलियुग में चला। आपको कोई विराट रूप देखना पड़ेगा, उसके बगैर धर्म-अधर्म की साम्यता नहीं बनने की। विराट रूप यानी बहुत बड़ा रूप जिसमें समग्रता आ जाए। अगर वह रूप देख पाओ तभी धर्म-अधर्म की साम्यता आयेगी।
उदयन : यानी मनुष्य से बड़ा कोई रूप...
नवज्योति : बहुत बड़ा, सृष्टि से बड़ा रूप अगर वह देख पाओ तो उससे साम्यता, धर्म-अधर्म की पूरकता आयेगी। आजकल यह चल रहा है। लोग लगे हैं, उसके बारे में प्रयोग करने में। सतयुग में लोगों ने तपस्याएँ कीं। फिर मर्यादाओं पर लोग चलते रहे, कोई यह सोचकर या वह सोचकर। उसी तरह द्वापर में साथ बैठकर वार्तालाप करने से, सभाएँ करने से साम्यता बनती रही। लड़ाई क्यों करते हो, आपस में बैठकर बात कर लो। त्रेता में राम कभी झूठ नहीं बोलते लेकिन अगर वे भी वैसे बोलने लगे तो साम्यता कैसे उत्पन्न होगी। त्रेता के मर्यादा का निराकरण आज भी चलता है। मतलब आपको अधिकार भाव को देखना है। अधिकारी के अनुरूप रहो। यानी मर्यादा पुरुषोत्तम को देखकर उसके अनुरूप अपना जीवन जिओ। यह त्रेता का उपाय है पर आज भी चलता है। ऐसे समाधान कई बार आते हैं, इसको देखो, उसको देखो आदि। सादृश्यता से जो न्याय के तर्क चलते हैं, वे ऐसे ही हैं। दूसरा यह है कि आप अपना काम करो, दूसरे को अपना काम करने दो, आप उसमें दख़लंदाजी क्यों कर रहे हो। आप उससे दूर रहो। इस तरह मुश्किल हल हो जायेगी। यह सतयुग का समाधान है। जब लोग अपने-अपने काम में लगे रहते हैं, धर्म के मसले का समाधान हो जाता है पर दरअसल वह समाधान होता नहीं, इसलिए त्रेता युग आता है और नाटक का जन्म होता है। लेकिन सतयुग का समाधान आज भी हो रहा है। त्रेता का मर्यादा का समाधान भी चल रहा है। यह आपका धर्म है कि आप अच्छे दोस्त बनें, अच्छे पति बनें, या अच्छी बेटी बनें। यह त्रेता का समाधान है। द्वापर का यह है कि चार लोग बैठ जाओ और बात ख़त्म करो। कलियुग का समाधान ठीक-से पता नहीं है।
उदयन : लेकिन आप यह जो विश्वरूप वाला समाधान कह रहे हैं?...
नवज्योति : कलियुग में यह शुरू हुआ। कलियुग में ऐसे रूप बहुत बने। तरह-तरह के दर्शन बने। कोई मेडिसिन कर रहा है तो उसका विषय सीमित है, इलाज करो। उसी तरह वास्तुशास्त्र है। उसकी विषय भी सीमित है। मगर दर्शन सभी विषयों में चलेगा। वह मेडिसिन में भी चलेगा, वास्तुशास्त्र (या स्थापत्य) में भी चलेगा। दर्शन भी विश्वरूप ही है। बड़े-बड़े दर्शन बनाए गये, बड़े-बड़े प्रयोजनशास्त्र बनाये गये। सारी भाषाएँ देखकर पाणिनी ने ग्रन्थ बना दिया। बड़े-बड़े शास्त्र बन गये कलियुग में। हिप्पोक्रेटस ने एथिक्स के बारे में बता दिया। उसे वह सब नज़र आ गया। ऐसी-ऐसी चीज़ें देख ली गयीं कि जिससे कलियुग चल सके। कहीं कहा जाता है कि आप अपने काम से काम रखो, कोई कहता है कि ज्ञान की तरफ़ जाओ, कोई मर्यादा पुरुषोत्तमों की ओर देखता है। ऐसी बातें आजकल चला करती हैं। ये सारी बातें इन्हीं सब युगों की बातें हैं। ऐसे परिस्थिति में तरह-तरह के विकल्प बनकर आये। इनमें जो मोटे विकल्प थे, वे सभ्यताएँ कहलाये। द्वापर में सभ्यताएँ नहीं होती थीं। त्रेता में भी। सतयुग में भी। लेकिन यह प्रश्न उठेगा कि सतयुग में सभ्यताएँ नहीं थी, इसका क्या प्रमाण है? तो इसका प्रमाण इस बात की गहराई में है। इसके अन्दर ऐतिह्य प्रमाण है। एक रास्ता है यूनानी। उसके अनुसार अगर धर्म-अधर्म की स्थापना करना ही है कलियुग में, तो रास्ता यही है कि पहले आप यह स्वीकार करो कि आप सबके धर्म-अधर्म को लेकर नहीं चल सकते। इतना ज़रूर है कि कुछेक लोगों में धर्म-अधर्म हो सकता है। अगर उनमें समस्या आती है, उन्हें बाहर निकाल दो। जैसे अगर किसी संस्थान में लड़ाई हो जाए तो उनसे कहा जाता है कि आप संस्थान के बाहर जाकर लड़ाई करो। संस्थान के भीतर मत लड़ो। संस्थान को मत बिगाड़ो। मतलब यहाँ कुछ लोगों की व्यवस्था बन सकती हैं, बाकी लोग बाहर रहेंगे। इससे ही शहर की कल्पना उत्पन्न हुई। सिटी स्टेट (नगर राज्य) का अर्थ यही होता है। इसे ही ‘पुर’ या ‘पोलिस’ कहा गया है। इन्द्र इसे ही तोड़ता है, तभी वह पुरन्दर है। शहर तोड़ने का उसका काम मशहूर था। यूनानी रास्ते से शहरों की सृष्टि हुई। इसमें यह हुआ कि सब लोगों की व्यवस्था सम्भव नहीं है, केवल कुछ लोग हैं जो शहर में रहकर अपनी-अपनी उत्कृष्टताओं को पाने का प्रयास करते रहेंगे। यह एक किस्म का आभिजात्यवाद है, एलिटिसिज़्म है जो आजकल चलता है। शहर में रहने वालों को सिटिज़न कहते हैं। कोई तुच्छ सिटिज़न है, कोई नाममात्र के हैं, कोई असली सिटिज़न है। केवल वे अपनी उत्कृष्टता की प्राप्ति में लगे रहते हैं। यह एक समाधान है। इसे लेकर दुनियाभर में स्कूल बने। बनते रहे, बिगड़े भी। ईसाई लोग आये और इन्होंने इसे तोड़ दिये। इन्होंने शुरू में बहुत शहर तोड़े। ये लोग सामूहिकता का तर्क लाये : हम लोग तो एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जीने वाले लोग हैं, एक-दूसरे को झप्पी मारकर जीने वाले लोग हैं और ये शहर वाले इसको तबाह कर देंगे। कम्यूनिटी बनाना है तो सबको साथ में होना चाहिए। कम्यूनिटी का विचार ईसाई विचार है, ‘कम्यून’ का विचार। सब साथ में रोएँ-धोएँ। आप के कन्धे पर कोई रोए, आप किसी और के कन्धे पर, इसी तरह सब चलेगा। यही कम्यूनिटी है।
इसके अलावा दूसरी बात यह आयी कि अगर व्यक्ति मर्यादाओं पर चलने वाला हो या पंचायत पर चलता हो, लोगों से विचार-विमर्श कर चलने वाला हो, उससे काम चलने वाला नहीं है, उसे जादुई होना चाहिए। वह शिष्ट हो। मतलब वह जैसा भी हो, उससे उत्तम कोई और न हो। ऐसा उत्तम पुरुष- फिर भले ही उसकी मर्यादाएँ उत्तम न हों - लेकिन वह व्यवहार से और हर दृष्टि से उत्तम हो, उसका पौंचा पकड़ लिया जाए। वह जिधर खींच रहा है, उधर खिंच जाओ। यह भी एक तरीका है। यह भी कलियुग का एक समाधान है। ये तीन तरीके हैं : पहला यूनानी, दूसरा ईसाई, तीसरा इस्लामी। शहर निर्माण यूनानियों का समाधान है और पौंचा पकड़ना इस्लाम का समाधान है। आज लड़ाई हो रही है बिन लादेन और यूरोप, अमरीका आदि की। यह शहर की पौंचा पकड़ने वालों से लड़ाई है। देखा जाए तो यूरोप तो ईसाई है, उन्होंने यूनान को स्वीकार कर रखा है, यह भी एक तनाव उनके बीच में है। वहाँ इस बात का बहुत रोना-धोना होता रहता है। वे कहते रहते हैं कि यहाँ तो शहर बन गये, पागलों जैसा काम हो रहा है, कम्यूनिटी कहाँ चली गयीं। यूरोप में यह लड़ाई चल रही है जिसमें एक ओर यूनानवाद है दूसरी ओर पैगम्बरवाद। अल्लामा इक़बाल कह रहे हैं कि ईसाईयों के पैगम्बरवाद में यह त्रुटि है कि उन्हें कर्मों पर विश्वास नहीं है। हम लोग (इस्लाम में) कर्मों पर विश्वास रखते हैं। लेकिन यहाँ इक़बाल उन कर्मों की बात नहीं कर रहे जो पूर्वजन्म के हों, उनका आशय इसी जन्म के कर्मों से है। अच्छा किया, बुरा किया, शैतान इधर है, खुदा उधर है। कभी आप इधर गिरते हैं कभी उधर। इक़बाल ने अपने शोध प्रबन्ध में यह लिखा है कि आधुनिकता दरअसल मुसलमानों की बनायी हुई है जिसका ईसाईयों ने अपहरण कर लिया है। यह उनके यूनानियों के अध्ययन के कारण हुआ। इस्लाम ने भी यूनान का अध्ययन किया था। लेकिन उन्होंने यह अलग ढँग से किया था। जिम्मेदारी हरेक की है, यह नहीं कि वह केवल नागरिकों की ही है। यह अभिजात्यवाद है। इस्लाम यूनान को इस तरह पढ़ते हैं। इक़बाल का यह आरोप था कि आधुनिकता का लक्षण तो अतीत से विच्छेद है। वह उसी दिन हो गया था जब पैगम्बर मोहम्मद आये थे। उनके बाद के समय के गुण ही अलग थे। उनके पहले की बात अलग थी, उनके आने के बाद अलग।
कलियुग का तीसरा समाधान यह रहा : स्मृतियों के सहारे चलो, भूलो कुछ मत। उन्हें सम्भाल कर रखो। स्मृतियों के सहारे जियो। आप स्मृतियाँ पकड़ लो, उसमें हरेक में स्वतन्त्रता बनी रहेगी। कहा जा रहा है कि ईरान में स्वतन्त्रता नहीं है। जो सहकर बाहर आ रहा है, वह परतन्त्र है। और पैगम्बरवादी कह रहे हैं कि हम स्वतन्त्र है। और ये कह रहे हैं कि वे स्वतन्त्र नहीं हो सकते क्योंकि उनके पास स्मृतियाँ नहीं है। अपना विश्लेषण करने की उनके पास ताकत ही नहीं है। वे तो अपने मुँह को बन्द करके बैठे हैं और उन्होंने पौंचा पकड़ा हुआ है। अगर कलियुग में आपको जीना है तो स्मृतियाँ पकड़ लो। यहाँ पर कई लोगों को त्रुटि दिखायी दी। आपने अपनी स्मृति की ओट में दूसरों की स्मृतियाँ दबा रखी है। भारत की इस्लाम और पश्चिम की यही आलोचना है। वे कहते हैं कि दलितों की स्मृतियाँ कहाँ हैं, औरतों की स्मृतियाँ कहाँ हैं। वह आपने दबा रखी है। और अल्पसंख्यकों की स्मृतियों का तो मानो यहाँ कोई काम ही नहीं है। उन्हें तो बाहर ही रखा जाता है। इस्लाम की मान्यता है कि पैगम्बर के ‘रेवेलेशन’ के पहले और बाद के समय एक बहुत बड़ा विच्छेद है। ‘रेवेलेशन’ के पहले का अलग ही समय था, उसके बाद का समय अलग समय है। अतीत से कटाव इन्होंने चालू कर दिया। आधुनिकता ने इसे इस्लाम से ग्रहण कर लिया, कम्यूनिटी को एक तरफ लिया, यूनान एक तरफ। इन सबका ताकतवर मिश्रण बना, यूरोप में और वहाँ से सारी दुनिया में गया और दुनिया भर में शहर बने।
उदयन : आप इसमें जो भारतीय समाधान बता रहे हैं, स्मृतियाँ का, वह किस का समाधान है?
नवज्योति : वह यही है कि गहराई में ही अतीत है।
उदयन : और उसी में रास्ता है...
नवज्योति : यह बहुत ज़रूरी है। इसमें लोग कहते है कि इतना ज्ञान है, इतने दर्शन है। ज़िन्दगी तो इसके मुकाबिले बहुत छोटी है। इसमें अब क्या कर सकते हैं ? इतना पढ़ नहीं सकते। इसके लिए हम लोगों ने एक कहानी बनायी थी : एक लड़के को यह विचार आया कि क्या कक्षाओं में जाना, यह सब करना, क्या बक़वास है ! अगर आपको सीधा ज्ञान चाहिए, आप एन्साईक्लोपीडिया पढ़ो। ‘ए’ की एण्ट्री से लेकर शुरू हो जाओ। पढ़ते रहो। लोगों ने एकाध दो साल बाद पूछा कि कहाँ तक पहुँच गये तुम? तो उसने कहा यह ज्ञान का एन्साईक्लोपीडिया है ऐसी वैसी चीज़ नहीं है, अभी तो मैं ‘ए’ में ही हूँ। ‘ए’ में एब्सर्ड भी है। इसको लेकर लोग यह कहें कि इन सब चीज़ों की क्या ज़रूरत है। जीवन ही छोटा है, सत्तर साल या अस्सी साल। इसमें आप सब कुछ पढ़ नहीं सकते। तो फिर इसकी कोशिश ही क्यों करना? यह बेकार है। लेकिन इस समाधान में एक बात है कि अतीत गहराई में बहुत कम समय में भी हासिल किया जा सकता है। उसके लिए समय का विस्तार ज़रूर नहीं है। इसलिए सच के लिए अस्सी साल भी बहुत हैं। साठ साल भी बहुत हैं। गहराई और लम्बाई में एक किस्म की साम्यता है। कभी गहराई, कभी विस्तार। जब अवकाशीय विस्तार कालिक विस्तार जैसा हो जाए तब वह सत्य हो जाता है। इसे सांख्यिकी में अरगोडिक थियोरम’ कहते हैं। उसमें ऐसा है कि आप एक सिक्का लो, उसे सौ बार उछालो और सौ सिक्के लो और उन्हें सौ बार उछालो, दोनों के परिणाम एक जैसे होंगे। उसी गहराई के कारण हम लोग ज्ञान का प्रयोजन दुनिया भर में कह पाते हैं। वरना ज्ञान का क्या प्रयोजन है? सनातन परम्परा में अरगोडिसिटी की बात बनी हुई है। इस्लाम में अरगोडिसिटी नहीं है।
उदयन : वहाँ स्मृति का प्रयोजन नहीं है।
नवज्योति : वहाँ ऐसा भाव है कि हमारे पास सच है। हमें सच मिल गया है। सच एक तरह की घटना है जो घट गयी है। वह मोहम्मद साहिब को उद्घाटित हो गया। उसे इस तरह से देखना या पढ़ना है कि वह अपने आप पूरा रहे।
उदयन : लेकिन वह तो पूरा है ही।
नवज्योति : उसे पूरा बनाते रहना पड़ता है। चुनाव करना पड़ता है। कुरान को बनाया गया, उसे बना कर रखा गया। वह बहुत मेहनत का काम है, अभी भी चल रहा है। आपको उसकी एकवाक्यता बनाकर रखनी होगी। ऐसे बहुत से अध्येता हैं जिनको इस कोने से उस कोने तक कुरान पता है। कोई भी बात होती है, वे कुरान के उसे इस कोने से उस कोने तक जोड़ लेते हैं। इतने बाईबिल जानने वाले लोग नहीं है जितने और जिस तरह से कुरान को जानने वाले हैं।
उदयन : आप कह रहे हैं कि आज ये तीन समाधान हैं : यूनानी, पैगम्बरी और स्मृतिमूलक।
नवज्योति : अब चीन को समझना है। मुझे लग रहा है कि मुझे चीन जाना चाहिए।
उदयन : इन तीनों समाधानों के सन्दर्भ में कलाओं की क्या स्थिति है?
नवज्योति : इनमें स्तर हैं : एक सतयुग के स्तर पर, ऐसे ही त्रेता के, ऐसे ही द्वापर के स्तर पर और कलियुग के स्तर पर। चिर कालिक कला के लिए तो चारों स्तरों को जोड़कर देखना होगा। वरना कलियुग में आजकल कला वह है जिसे कला-आलोचक कला मानते हैं।
उदयन : लेकिन क्या हम उसकी भूमिका इन चारों स्तरों के सन्दर्भ में देख सकते हैं?
नवज्योति : इन सभी में कला का अपना स्वभाव दिखेगा। आजकल जो चल रहा है, यह दिखेगा नहीं। उसमें कला का वास्तविक स्वरूप दिखेगा। कला का अर्थ अनुकृति से है, और उसी से रहेगा। कला का प्रयोजन धर्मों में साम्यता लाना है। उसके लिए जो प्रयास हैं, उनको कला कहते हैं। वह प्रयास सतयुग में भी था।
उदयन : पर वह कला के बगैर ही हो जाता है।
नवज्योति : ऐसा नहीं कि धर्मों में साम्यता का प्रयास कला के बगैर न हो सके। वह हो जाता है पर पूरी तरह से नहीं हो पाता।
उदयन : यानी जो तरह-तरह के लोगों ने जो तरह-तरह के विचार आदि धारण किये हुए, उनके बीच पूरकता बनी रहे।
नवज्योति : उनके बीच तारतम्य बना रहे, पूरकता बनी रहे, एक-दूसरे से घर्षण न हो, वह सब करने की भूमिका कला की होती है। अनुकृति ऐसी हो जिसमें सामाजिकों का पूरा जीवन आ जाए, सिर्फ़ नाट्य-क्षण ही न हों उसमें। इसमें एक-दूसरे से मिलजुल पंचायत बनाना बहुत ज़रूरी है। पंचायतों की सृष्टि हुई महाभारत में। वैसे तो द्रौपदी के पाँच पति थे। हालाँकि ऐसा देखना कुछ ज़्यादा ही दूर की कौड़ी हो जायेगा। लेकिन इतना अवश्य है कि उस समय एक-दूसरे से बात करके समाधान खोजने का दबाव ज़्यादा बढ़ गया। मिल जुल कर बात करके साम्यता को बनाए रखना। इसी परामर्श के चलते गान्धारी ने अपनी आँखों पर पट्टी चढ़ा ली और कहा कि मैं अपने बच्चों को देखूँगी भी नहीं। ऐसे हठों से गड़बड़ी हो जाती है। बड़े-बड़े लोग ग़लतियाँ कर रहे थे। कृष्ण ने भी कीं और उनको भी उनकी सज़ा मिली। कृष्ण को मर्यादापुरुष नहीं माना गया। वे विराट रूप से आये।
उदयन : इन तीनों ही परम्पराओं (इस्लाम, ईसाइयत और सनातन) के पीछे किसी विराट रूप की धारणा है। एक जगह अल्लाह है, दूसरी जगह ब्रह्म...
नवज्योति : यूरोप में लोकतन्त्र है। उनका समाधान लोकतन्त्र है। सनातन परम्परा में लोकतन्त्र की खोज से शायद कुछ निकल आये। पर पता नहीं।
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उदयन : चित्रकला के आरम्भ या उत्पत्ति की कल्पना यूरोप, भारत या अन्य सभ्यताओं में अलग-अलग है, इसलिए कला की हैसियत भी अलग-अलग समाजों में अलग-अलग है। कम-से-कम भारत और यूरोप की कलाओं की उत्पत्ति की क्या गाथा हैं?
नवज्योति : यूरोप में चित्रकला रेनेसाँ से शुरू हुई है, ऐसा समझ लें। रेनेसाँ की चित्रकला का वहाँ बड़ा मान है। वे बिल्कुल ‘फोटो फ़िनिश’ जैसी हैं। प्रकाश का भी स्थान ऑक्टिकल यथार्थवाद वहाँ बहुत होगा। तभी हल्के, गहरे और चमकीले सभी तरह के रंग भी आये। इनके साथ ही ‘पर्सपेक्टिव’ (परिप्रेक्ष्य) मूल रूप से आया। तब तक ‘पर्सपेक्टिव’ किसी भी चित्रकला पद्धति में नहीं था। न भारत, न जापान में न चीन आदि में। इससे बाहर निकलने में यूरोप को दो ढाई सौ साल लग गये। वे उन्नीसवीं शती में ही पर्सपेक्टिव से बाहर निकल सके। इसका कारण यह था कि जो चित्र का अनुभव आँख से आकर मन में होता है, उसमें पर्सपेक्टिव नहीं होता। भले कोई आदमी पास हो या दूर, वे एक ही आकार के होते हैं। आपकी दृष्टि में वे बराबर आकार के होते हैं। पर्सपेक्टिव दिखता नहीं है, वह दृष्टि में ही नहीं है। लेकिन रेनेसाँ के चित्रकारों ने पर्सपेक्टिव में चित्रकला की। पर्सपेक्टिव में एक केन्द्रीय बिन्दु होता है। जैसे राजनीति में सिंहासन होता है। उनमें देखने का बिन्दु विशेषाधिकार सम्पन्न होता है। लेकिन हम लोग जो सामान्यतः देखते हैं, उसमें पर्सपेक्टिव नहीं होता। उसमें कोई विशेषाधिकार सम्पन्न बिन्दु नहीं होता, वह आपको खोजना पड़ता है। दुनियाभर की चित्रकला पद्धतियों में चित्र को किस दृष्टि से देख जाए, इसमें बहुलता है। ये तरह-तरह की हैं। उनमें पर्सपेक्टिव है ही नहीं। चीनी चित्रों में उल्टा है। चित्र के अन्दर फोकल बिन्दु है। आप देखेंगे कि चिड़िया है, पत्थर है, लेकिन कहीं बहुत गहराई में बादल है और वहाँ अन्दर छोटे-छोटे से गाँव हैं। यहाँ भारत के मिनिएचर में टेढ़ा-मेढ़ा है, छत सीधी कर दी, सब कुछ सीधा कर दिया और दिखा दिया कि इधर से कैसे दिखता है, उधर से कैसा दिखता है। दुनियाभर की चित्रकला की पद्धतियों में पर्सपेक्टिव का विचार नहीं था। पर्सपेक्टिव में एक किस्म का विशेषाधिकार है और उसके कारण आभिजात्यवाद उसमें अन्तर्भूत है। जब यूरोप इससे बाहर आया, उसकी चित्रकला दुनिया की चित्रकला के थोड़ी क़रीब आ गयी। पर्सपेक्टिव तो ऑप्टिक्स (प्रकाश विज्ञान जिसमें लैंस आदि का अध्ययन होता है) से हुआ। ऐसा नहीं है कि ऑप्टिक्स केवल यूरोप में हुआ हो। यह विज्ञान अरब और फ़ारस में भी बहुत थी। लेकिन उनमें पर्सपेक्टिव वाला हिस्सा नहीं है। उसमें वे जैसे गुम्बद बनाते थे, अगर उसमें शुरू में चौबीस कोण हैं तो ऊपर जाकर चार ही कोण बच जाते थे, या शुरू में चार कोण है, फिर चौबीस हो गये। वे इस तरह करते थे। फोटो रियलिज़्म से यूरोप को एक बड़ा विशेषाधिकार मिला था। उन्हें लगा मानो तैल रंग वहीं आविष्कृत हुए हैं। इसी तरह की प्रवृत्तियाँ यूरोप आ गयीं और विशेषाधिकार की तरह कला का विचार वहाँ आ गया। इटली के फ्लोरेंस के मदीची परिवार से कला में पर्सपेक्टिव की शुरुआत हुई। उन्होंने कलाकारों को आश्रय दिया, जैसे माईकिल एंजिलो को पहचान दी। बड़े-बड़े गिरजाओं को भीतर से चित्रित किया गया। इसी परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न उठा कि चित्रकला क्या होती है, तब इसे समझने के लिए अतीत के कई विचारों को खोजा गया। उसमें ही वहाँ कोरिन्थ की कहानी निकल आयी जिसमें कहा गया कि चित्रकला की उत्पत्ति छाया में देखी गयी है।
उदयन : यह कोरिन्थ की कहानी है?
नवज्योति : यह कहानी है, कोरिन्थ की युवती की। कोरिन्थ एक जगह है जहाँ एक युवती थी। उसकी कहानी ‘प्लिनी’ ने लिखी है। वह खगोलशास्त्री था और इतिहासकार किस्म का भी था। वह इतिवृत्त (क्रोनिकल्स) लिखा करता था। उसके इतिवृत्तों में यह कहानी आ जाती है। यह कहानी निकाली गयी रेनेसाँ काल में। उसमें ऐसा है कि एक तरफ प्रकाश रखा गया, मान लो मोमबत्ती रखी गयी, उसके बाद आदमी बैठा और इस कारण जब उसकी छाया दीवार पर पड़ी तो इस छाया को दीवार पर ही अंकित (ट्रेस) कर लिया गया। इस कहानी के रास्ते चित्रकला को समझें तो कहेंगे कि चित्रकला वह होती है जो छायाओं को पकड़ती है। यूरोप में चित्रकला की इस तरह की समझ बनी।
उदयन : कोरिन्थ की युवती का अपने आदमी की छाया को अंकित (ट्रेस) करने का किस्सा क्या है?
नवज्योति : उस युवती का प्रेमी अगले दिन सुबह युद्ध पर जाने वाला था। युवती को लग रहा था कि ये चला जायेगा और अगर यह वापस नहीं आया तो? इसलिए वह उस क्षण को (जब वे साथ थे) ठहरा लेना चाहती थी, चित्र में इसके लिए उसने उसकी छाया को ट्रेस कर लिया (दीवार पर)। इस विषय पर रेनेसाँ में क़रीब पचास चित्र बने होंगे। इसी तरह का एक चित्र स्टालिन का भी बना है जिसमें स्तालिन की ‘म्यूज़’ (देवी) उसकी छाया अंकित रही है। इस तरह वह स्तालिन को अमर कर रही है। बाद में उन्होंने चित्रकला उत्पत्ति की और भी कहानियाँ ढूँढ ली। जब यूरोप में पर्सपेक्टिव टूट गया और उसके बाद तरह-तरह के प्रयोग होने लगे : प्वाईंटलिज़्म, इम्प्रेशनिज़्म, एक्सप्रेशनिज़्म आदि। ये प्रयोग यह प्रश्न भी उठा रहे थे कि चित्रकला क्या है? क्या वह छाया को पकड़ना है, इस तरह या उस तरह? इसी में ‘दादाइस्ट’, ‘क्यूबिस्ट’ आदि सब भी आ गये। इसी में अतियथार्थवाद-साल्वाडोर डाली- वगैरह भी आये। इसके बाद यूरोप में कुछ बड़ा हुआ नहीं। जादुई यथार्थवाद अवश्य आया पर वह भी चित्रकला में उतना नहीं है जितना साहित्य या फ़िल्मों में आया था। इस किस्म की खोज यूरोप में प्रयोगधर्मी चित्रकलाओं में होती रहीं।
बाकी जगहों की तरह हमारे यहाँ भी चित्रकला औद्योगिक कला थी। औद्योगिक कला में काम का बँटवारा होता है। लाइन कोई बनाता है, रंग कोई और भर रहा है। यह काम इस तरह से चलता था। परिकल्पना किसी और की है। इसी तरह आज की आधुनिक कला में परिकल्पना एक करता है, रेखांकन कोई और करता है, रंग कोई और भरता है, या आकार कोई बनाता है। चित्रकला यूरोप के अलावा ज़्यादातर जगहों में इस किस्म की थी। इसमें कुछ परिवार या समूह शामिल थे, यह दुनियाभर में होता था। आज यूरोप में प्रयोगधर्मी कला करना या कलाकार होना ही विशेषाधिकार हो गया। ऐसे ही चित्रकला की पद्धतियाँ दुनिया भर में फैल गयी हैं। लोग इसकी नकल करते रहते हैं। यह अभी भी चल रहा है। उन्हीं पद्धतियों के भीतर ही बाकी दुनिया के कलाकार अपना तरीका खोजते हैं। इसमें चित्रकारों को लगता है कि हठधर्मिता से कोई नयी चीज़ निकल आयेगी। हठधर्मिता क्या होती है? यह सोचना कि मैं तो ऐसे ही चित्र बनाऊँगा। उसी में प्रयोग करते हैं, पचासेक चित्र बना कर देखते हैं, फिर तय करते हैं कि थोड़ा बदल कर अब मैं ऐसा करूँगा। फिर वैसा करके देखते हैं। यूरोप में जो प्रयोग हुए, उनमें विचार था। मैंने एक बार हीगल को उद्धृत किया था : जीवन्त रूपाकार की तरह कला मर चुकी है। अगर कला को जीवित रहना है, उसे विचार के रूप में ही जीना पड़ेगा। इसे अपना नया आधार खोजना पड़ेगा।
उदयन : वह रोज़मर्रा के जीवन से बाहर निकल गयी।
नवज्योति : वह काम अब औद्योगिक कला करती है। आधुनिक समय में प्रयोग में नवीनता सब जगह पायी जाने लगी है, उसके भीतर की हठधर्मिता उनकी अपनी संस्कृति से आ जाती है। हमारे चित्रकार कहेंगे कि हमारे यहाँ मिनिएचर चित्र हुए हैं, सो हम उसी शैली में काम करके देखेंगे। या हम बिन्दुओं पर ही काम करेंगे। इसी तरह किसी ने किसी को पकड़ लिया, किसी और ने कुछ और को। आजकल चित्रकला इस तरह हो गयी है। बाकी औद्योगिक कला ‘पब्लिक कला’ बन गयी है। उसमें पुराने किस्म की औद्योगिक कला का हिसाब कम है। उसमें आधुनिक प्रयोगधर्मिता आ गयी है।
केवल कुछ ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने कला-कर्म का औद्योगिकिकरण किया है। इसमें कई बड़े नाम है जैसे अनीश कपूर। वो बैठकर इधर-उधर स्केच करता है बाकी लोग उससे कलाकृति बनाते हैं।
उदयन : आप औद्योगिक कला में क्या मूल्य देखते हैं?
नवज्योति : ये तो कमर्शियल कला है।
उदयन : उसकी बात मैं नहीं कर रहा। आपने कहा कि मिनिएचर कला भी औद्योगिक रही है। उसमें सहकार के कारण क्या मूल्य आते हैं?
नवज्योति : उसमें चित्र का जो प्रारूप है, उसका जो लावण्य है, उसके भीतर जो तरह-तरह के षड़ंग हैं, वे सब विचारों के आधीन होते हैं। उनको नज़र में रखते हुए वे की जाती हैं। उसके बाद उनमें एपरेण्टिसशीप का भी विचार है। इससे बच्चे सीखते भी जाते हैं, वे उसी तरह सीखते जाते हैं जैसे संगीत में रियाज़ किया जाता है। संगीत में शार्गिद परम्परा का बहुत महत्व है। औद्योगिक कला में प्रशिक्षण चाहिए होता है। उसका दायरा बँधा होता है। अगर किसी उस्ताद ने लाइन बना दी, शिष्य उससे लाइन लगाना सीख जायेगा। उसके बाद उसका स्तर उठेगा। इस पद्धति में सबसे अधिक महत्व प्रशिक्षण का होता है। ऐसी पद्धति भारत में थी और इसके साथ ही अच्छे-अच्छे चित्रकार भी हुए जैसे नैनसुख, मानकू आदि। उस दिशा में कुछ कला हो रही है पर कला के सिद्धान्तों को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति है। प्रयोगधर्मी कला के अनुसार चित्रकला है क्या? इसमें अगर स्पष्टता हो तो बात बने। लेकिन यहाँ स्पष्टता है नहीं। अभी तो पश्चिम में लोगों की समझ यही जान पड़ती है : अच्छी कला वही जो आलोचकों को पसन्द आती है। आलोचक कहेगा तभी गैलेरी स्वीकार करेगी। पहले भी वाहवाही की कीमत थी। राजे-रजवाड़ों के अगर आपको ज़्यादा बुलावे आते थे, तो आप बड़े कलाकार माने जाते थे।
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(यहाँ आकर यह बातचीत अचानक ‘अक्षर’ की अवधारणा पर होने लगी। इस प्रत्यय पर नवज्योति से समास-9 में हुई बातचीत से प्रकाश डल सकता है। यह है पुराना प्रत्यय पर नवज्योति ने इसकी नयी व्याख्या की है।)
नवज्योति : अक्षर का हो पाना ही समाधि है। अकेले अक्षर का। नग्नतम, न्यूनतम, मूल जगत...
उदयन : वहाँ अपने चित्त को अवस्थित करना ही समाधि है?
नवज्योति : इसमें बड़ा रहस्यवाद है। बौद्धों में तो बहुत है, शून्य (अक्षर) को लेकर। बौद्धों में इसको लेकर चर्चाएँ होती हैं। निर्वाण को शून्य माना गया है। प्रासंगिक बौद्ध इस तरह से मानते हैं क्योंकि प्रसंग में ही शून्य होता है। अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग कहा है।
उदयन : लेकिन क्या वे सभी शून्य विशिष्ट हैं?
नवज्योति : अत्यन्त विशिष्ट। जिसे विशेष कहा जाता है : कोई भी नहीं, बस वही, वह केवल शून्य है। हर विशेष दूसरे विशेष से अलग होता है। इसीलिए दुनिया में यह फैलाव है। दुनिया में फैलाव ही न हो अगर अक्षर न हो। यह प्रपंच अक्षर से ही है। ‘अक्षर’ को लेटिन में ‘प्वाइंट’ कहते हैं। ‘प्वाइंट’ से ही प्रपंच। प्रपंच यानी पंच। उसकी धातु है ‘पुंग’। प्रपंच, सरपंच, पंचायत। इस फैलाव को प्रपंच कहते हैं। अक्षर में सीमाएँ नहीं हैं, ये ‘प्वाइंट’ हैं, छोटे-मोटे जैसे भी है। प्वाइंट मतलब जो अत्यन्त विशेष हो। मतलब हर चीज़ से भिन्न।
उदयन : सिर्फ़ अपनी तरह !
नवज्योति : जिसे ‘पर्टिकुलर’ कहते हैं, वह सिर्फ़ प्वाइंट होता है। इस प्वाइंट की वजह से चीज़ों में अलग-अलग फैलाव आया है। जब आप अंग्रेज़ी में कहते हैं, ‘मेक यूअर प्वाइंट’। या ‘स्टिक टू यूअर प्वाइंट’ या ‘व्हॉट एस द प्वाइंट इन ऑल दिस’ तब यह पूछा जा रहा होता है कि आपका शून्य कौन-सा है? आपका ‘अक्षर’ क्या है? यह अक्षर समझ से बाहर हो गया। यूक्लिड का शून्य आ गया, बिना लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई का। उसे यूक्लिड ने प्वाइंट कह दिया। इससे बड़ा अन्याय नहीं हुआ। ‘यूक्लिडियन प्वाइंट’ आधुनिकता का सबसे बड़ा अन्याय है। इससे जो लॉजिकल (तार्किक) प्वाइंट था, जो ज्ञान का अंग था (स्टिक टू यूअर प्वाइंट वाला प्वाइंट) उसे भाषा में दफ़ना दिया गया।
उदयन : यह यूक्लिड के विचार से हुआ !
नवज्योति : उसका प्वाइंट लम्बाईहीन, चौड़ाईहीन और ऊँचाईहीन है। जहाँ दो रेखाएँ एक-दूसरे को काट रही हों, वहाँ वह होता है। इस ‘प्वाइंट’ का क्या मतलब है? यह तो प्वाइंट है ही नहीं। लाइबनीज़ ने कहा कि अगर आप एक रेखा बनाते हो तो उसके बीच में अनन्त सम्भव प्वाइंट हैं और उसकी किनार पर जो प्वाइंट है, वह सम्भव नहीं वास्तविक ‘प्वाइंट’ है। अगर आपने कम्पास से उस रेखा को बीच से काट दिया, (वह बनाना सम्भव था लेकिन जब आपने उसकी दो रेखाएँ बना दी) तब वहाँ किनार पर वास्तविक प्वाइंट बन गया। आपने एक लकड़ी का टुकड़ा लिया और सोचा कि उसे आधे आयतन का बनाना है। इसलिए आप उस लकड़ी को लाखो-करोड़ों तरीके से काट सकते हैं। लेकिन जिस तरह से आपने उसे काटा, वह वास्तविक है। लाइबनीज़ ने अरस्तू को ख़ारिज करते हुए उसमें भेद किया : सम्भावित प्वाइंट और वास्तविक प्वाइंट। जैसे इंटीग्रल होता है। मान लो उसमें आप ‘ग’ और ‘कग’ को जोड़ रहे हैं, ‘ए’ से ‘बी’ तक। ‘ए’ और ‘बी’ वास्तविक प्वाइंट है, वे सीमाएँ हैं। जबकि कग वैसे ही है, हवाबाज़ी वाला प्वाइंट। लाइबनीज़ ने वास्तविक प्वाइंट को ‘रेस कोजीटॉन’ संज्ञान की वास्तविकता कहा। यह रेस मेंटेलिस है, इसे मानस ने दिया है।
उदयन : यह ‘संज्ञान की वास्तविकता’ है !
नवज्योति : यह ‘वास्तविक प्वाइंट की वास्तविकता का संज्ञान’ है। आपने लकड़ी के टुकड़े को ऐसे काटा है, पर आप किसी और तरह से भी उसे काट सकते थे। आपने शिल्प में किसी जगह एक तरह से किया, दूसरी तरह से नहीं किया तो वह वास्तविक रूप से एक तरह का हो गया। वास्तविक प्वाइंट क्रियाओं से उत्पन्न होता है। प्रयास (एफर्ट) ही प्वाइंट को स्थापित करने की प्रकृति है, जीवन में वास्तविक प्वाइंट को स्थापित करने की प्रकृति। हर कला में वास्तविक प्वाइंट (बिन्दू) बनाये जाते हैं। उन वास्तविक बिन्दुओं से ही अनुभूत सामग्री बनती है। अनुभूत सामग्री जो चित्रकार उस शरीर में (चित्रित आकार में) डालता है, वह उन वास्तविक बिन्दुओं से ही बनती है। रेखा ऐसी बनायी फिर वैसी बनायी, पहले ऐसा रंग फेंका फिर वैसा रंग फेंका। इन सबसे वास्तविक प्वाइंट अस्तित्त्व में आता है।
उदयन : मान लीजिए मैं नाटक कर रहा हूँ और यह बता रहा हूँ कि थककर आ के बैठ गया। तब यह कुर्सी जिस पर मैं बैठा हूँ, अनुभाव है। इस अनुभाव की रचना...
नवज्योति : अभिनय में संचारी भाव, विभाव आदि है, उन्हें भरना पड़ता है। जो भरता है, वह विभाव होता है। यशोदा पहले बच्चा देखती है, उसी के बाद चाँद लाती है, वहाँ बच्चा हो या न हो, वह विभाव होता है। इन भावों के साथ अनेक संचारी भाव होते हैं। वो ऐसा करती है वैसा करती है। वहाँ वह प्वाइंट डालती है। वह इसको पकड़ती, उसको पकड़ती है, इसमें अनुभाव भी रहते हैं, बहुत सारे। इन सबसे वह स्थायी भाव की रचना करती है। भावों का एक प्रारूपण बनाया जाता है।
उदयन : वो जैसे-जैसे कर रही है, नये-नये प्वाइंट डालती जा रही है?
नवज्योति : लाइबनीज ने कहा है कि प्वाइंट ‘जीनस फेस्ड’ है : उसके दो चेहरे है, बायाँ और दाँया। प्वाइंट लम्बाईहीन, ऊँचाईविहीन आदि नहीं है। वह ‘स्ट्रक्चरल’ है।
लाइबनीज ग़ैर-यूरोपीय दृष्टि के अपेक्षाकृत निकट है। उसका कहना था कि वास्तविक यथार्थ ‘मोनाड’ है। मोनाड मतलब ईकाई, मतलब ‘एकत्व’। अनन्त अनेक हैं। ‘मोनाड’ में कोई खिड़की नहीं है। उसमें न कोई चीज़ आती है, न उससे कोई चीज़ जाती है। उसमें सिर्फ़ बिम्बन होता है। उसमें बाकी सब सृष्टि का बिम्बन हो जाता है। उसके बाहर कुछ नहीं, वह अन्दर बिम्बों से भरा रहता है। इसका दृष्टान्त है आपकी आत्मा। हरेक व्यक्ति मोनाड है, उसका दिमाग मोनाड है, उसमें कोई रिसाव नहीं है। इसमें कोई घुस नहीं सकता, आ नहीं सकता है। ऐसे ही अनन्त मोनाड हैं। इनमें आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। सिर्फ़ इतना है कि एक मोनाड के अन्दर बाकी मोनाड बिम्बित है। यह एक इन्द्रजाल की छवि है। यह एक भूलभुलैया का रूप है। हर मोनाड में अनन्त के प्रारूपण बनते हैं।
उदयन : हरेक मोनाड की अनन्तता अलग-अलग होगी।
नवज्योति : दिमाग का अध्ययन अनन्तता का अध्ययन है। कैलकुलस उसी से बनी है। न्यूटन और इसकी लड़ाई है कि वह किसने बनायी है। लाइबनीज के नोटेशन्स आज सबसे भ्रमित है। न्यूटन के नोटेशन्स भ्रमित है। इसने सीमा की परिस्थितियाँ (बाउण्ड्री कनडिशन्स) बाहर निकाल दीं। इन्टीग्रन को जोड़ने के बाद निकाला। एक जगह से दूसरी तक मेरी मर्ज़ी है, मैं कैसे जोड़ूँ, यहाँ से जोड़ूँ या वहाँ से जोड़ूँ, आपको मतलब क्या? ये चीज़ें लाइबनीज के बाद भी चलीं। एक था हुर्सल का गुरू ब्रेनटेनो। उसका कहना था कि हरेक मानसिक स्थिति में एक तिर्यक कथ्य होता है और सीधा कथ्य होता है, हरेक संज्ञान में। इनके बीच एक आकार होता है। उससे भूत-भविष्य वगैरह बनता है, उसी से काल बनता है, देश (स्पेस) उससे बनता है। इन्हीं प्वाइंटों से देश-काल बनते हैं। लाइबनीज कह रहा था कि देश-काल वास्तविक नहीं हैं। ये सब तुलनात्मक (रिलेटिव) हैं और विशिष्ट हैं। देश-काल निरन्तर नहीं होते, उनके बीच में प्वाइंट आते हैं। देश में कैसे प्वाइंट आते हैं और काल में कैसे? इसका अध्ययन किया जाता है। ब्रेनटेनो मानता था, सबसे ऊँचा विज्ञान मनोविज्ञान है। गणित नहीं है। इसी से फिनॉमिनॉलॉजी निकली।
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उदयन : आपने दो तरह की कलाओं का ज़िक्र किया है। एक कालिक हैं, दूसरी दैशिक। इन सबके सन्दर्भ में आपने भयजीत की कथा कही है। हम पहले दैशिक कलाओं पर आते हैं। ऐसे कौन-से मूलभूत तत्त्व हैं जो सभी दैशिक कलाओं में मिल जाएँगे। उसके बाद उनके विशिष्ट लक्षणों पर विचार कर लेंगे।
नवज्योति : दैशिक कलाओं यानी चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला या स्थापत्य कला का सामान्य तत्त्व यह है कि इन कलाओं को अनुभवगम्य होने के लिए जो भी सामग्री आवश्यक होती है, वह एक ही काल में उपलब्ध हो जाती है। मूर्तिकला, स्थापत्य कला और चित्रकला आदि में यही होता है। मूर्तिकला का कल्पना-व्यापार होने के लिए सारी सामग्री तात्कालिक रूप में मिल जाती है। कालिक कलाओं में ऐसा नहीं होता, जैसे गान है या नृत्य उनमें कुछ सामग्री पहले मिलती है, कुछ बाद में। उसी के बाद उसका पूरा स्वरूप बनता है, तभी ये अनुभवगम्य होती हैं।
उदयन : यह सच है कि इन कलाओं में सारी सामग्री की उपलब्धि की एक काल में शक्यता है। यानी वह एक ही काल में प्राप्त हो जाती है लेकिन दर्शक के इनका अनुभव ग्रहण में एक किस्म की क्रमता होती ही है।
नवज्योति : हाँ, उसका अनुभव होने में क्रमक रहेगी पर उस अनुभव का कारण चित्र में बाँधा गया है। चित्र में है क्या? तरह-तरह के रंग (पिगमेण्ट्स) हैं। पिगमेण्ट यानी पदार्थ-भौतिक वस्तु। वह भौतिक सामग्री जिससे चित्र बनता है, वह सामग्री एक ही क्षण में पूरी उपलब्ध रहती है। ऐसा नहीं कि ऊपर के वर्ण इत्यादि बाद में आयेंगे, नीचे के वर्ण पहले आ जाएँगे। जब आप देख रहे हैं तब ऐसा हो सकता है कि आँख पहले एक कोने को देखे, बाद में दूसरे कोने को आदि। पर आँख किसी भी कोने से देखना आरम्भ कर सकती है।
उदयन : क्या यह कह सकते हैं कि ये कलाएँ अपने स्वरूप में दैशिक भले हों पर वे दर्शक के अनुभव में दैशिक बनी रहें, आवश्यक नहीं है?
नवज्योति : नहीं ऐसा नहीं है। दरअसल ऐसी कला के दैशिक होने के लक्षण दर्शक के अनुभव की प्रक्रिया में भी दिखते हैं। यह इस तरह कि ऐसी कला दर्शक का समय लेती है, और अपना समय नहीं देती। जैसे चित्र और मूर्तिकला है, उसे अनुभव करने दर्शक को अपना समय देना पड़ता है। दर्शक जो समय देता है उसमें वह चित्र के चारों ओर नहीं जा सकता पर वह मूर्ति के चारों तरफ चला जाता है। स्थापत्य में दर्शक के समय का प्रकार अलग हो जाता है। इन तीनों के धर्म में अन्तर है। वे बाद में निकाले जा सकते हैं। पर इनका सामान्य लक्षण यह है कि इन कलाओं का जिस परिमिति में दृश्य बनता है या जो इन कलाओं की कारण सामग्री है, वह सारी की सारी एक काल में उपलब्ध होती है। कलात्मक अनुभव या कल्पना के अनुभव की कारण रूपी सामग्री एक पल में उपलब्ध होती है। जबकि संगीत में, नृत्य या नाटक में वह एक ही समय में उपलब्ध नहीं होती। उसमें सामग्री को निखारने में समय लगता है। लेकिन इसके फलस्वरूप श्रोता के मन में जो बैठता है, वह दैशिक होता है। स्थायी भाव दैशिक होता है। संगीत आदि कालिक कलाओं में स्थायी भाव दैशिक होता है, वह अन्दर होता है। बाहर की कारण सामग्री कालिक होती है। दैशिक कलाओं की कारण सामग्री दैशिक होती है और कार्य सामग्री में तरह-तरह की गतियाँ चलती रहती हैं। उसमें सारी सृष्टि की गतियाँ होती हैं। जब चित्र बनता है, उसमें सारी गतियाँ होती हैं तो इनके अन्दर काल होगा। दैशिक कलाओं का कार्य कालिक होगा और कालिक कलाओं का कार्य दैशिक होगा। यह इस तरह होगा कि इन कालिक कलाओं के कार्य में तात्कालिकता होगी। स्थायी भाव आयेगा। दैशिक कला के कार्य में तात्कालिकता नहीं होगी। सिर्फ़ कारण सामग्री में तात्कालिकता होगी।
उदयन : दैशिक कलाओं का एक लक्षण तो यह हो गया। क्या कोई अन्य लक्षण भी होंगे?
नवज्योति : दैशिक कलाएँ भी कई प्रकार की हैं। जैसे दर्शक मूर्ति के चारों तरफ घूमने में समय निकाल सकता है। पर चित्रकला में चारों ओर नहीं घूम सकते। चित्रकला में एक तरह की तथ्यता (फेक्टनेस) होती है। वह न्यासज्य नहीं है। वह चारों ओर फैलने वाली चीज़ नहीं है। मूर्ति न्यासज्य वस्तु है। इन दोनों के बीच भी कई तरह की कलाएँ होती हैं, जैसे चित्रों में ‘एम्बोस’ तकनीक का इस्तेमाल आदि। चित्र दो आयामी होते हैं और मूर्ति तीन आयाम में होती है। चित्र में जिस तरह अनुभव कारण सामग्री से बँधा होता है, मूर्ति में कारण सामग्री में अनुभव का बँधाव उससे अलग होता है। चित्र को बनाना कारण सामग्री के भीतर किया जाता है। अंग्रेज़ी में जिसे इनवोल्यूशन कहते हैं। वह अन्दर की ओर झुका रहता है। कारण सामग्री एक-दूसरे की परस्परता में विकसित होती है। लेकिन शिल्प में वह बाहर होता है। इसे अंग्रेज़ी में रेडिएण्ट कहते हैं। मूर्ति जैसी भी बने, चाहे जोड़ कर या घटा कर, उसका कारण रूप उसकी सतह से बाहर होता है। सतह के भीतर तराशा नहीं जाता। अगर आप मिट्टी लें और उसे तराशें तो अन्दर की मिट्टी का कोई मतलब नहीं होता। वह अन्दर से खाली है। जो उसके बाहर है, वही अर्थपूर्ण है। मूर्तिकला बाह्यमुखी और चित्रकला अन्तर्मुखी है। यह इस दृष्टि से है कि चित्रकला में जो कार्य होना है, वह उसके अन्तर्मुख होने से होता है, जबकि मूर्ति कला में जो कार्य होना है, वह इसके बाह्यमुखी द्रव्य पर होना है। जैसे आपने गाँधी का शिल्प बनाया तो उसमें कार्य उसके बाहर ही बाहर होता है पर हमें गाँधी उसके अन्दर दिखते हैं। चित्र के बनने में अन्दर से कार्य किया जाता है, उस इलाके में जहाँ चित्र बन रहा है, जहाँ कल्पना बनेगी, जिसमें अनुभव बनेगा, उसके अन्दर ही काम करना पड़ता है और शिल्प में जहाँ बन रहा है, उसके बाहर काम करना पड़ता है। शिल्प में काम बाहर किया जाता है और वह अन्दर बन जाता है। चित्र में अन्दर काम किया जाता है और वह बाहर बन जाता है। चित्र में जितना काम किया जाता है, वह उससे कहीं अधिक व्यापक होता है। चित्र के अनुभव की मोटाई क्षितिज से लेकर आपके भीतर तक की होती है। जबकि शिल्प बहुत छोटा होता है। उस पर बाहर से काम किया जाता है और वह अन्दर घटित होता है। चित्र की कार्य सामग्री बाह्यमुखी होती है, चित्र फैल जाता है, अन्दर फैल जाता, बाहर फैल जाता है। उसका घन बन जाता है। मूर्ति की कार्य सामग्री अन्दर होती है, उसका घनत्व इतना नहीं होता। आपने गाँधी का शिल्प देखा तो आपको सीधी गाँधी की आत्मा दिख जाती है। आत्मा विभु है, सारा विभु आपको दिख रहा है, यह बात दूसरी है। दूसरे शब्दों में मूर्ति का कारण बाहर से आ रहा है, वह बाह्यमुखी है जबकि कार्य अन्तर्मुखी है। वास्तुकला साँस की कला है। वह अन्दर और बाहर साँस लेती है। उसमें अन्तर्मुख और बाह्यमुख का खेल बराबर चलता रहता है। उसमें दोनों का संयोजन है। जैसे चित्रकला का मूल स्वरूप दो आयामी और मूर्तिकला का तीन आयामी होता है, उसी तरह वास्तुकला घनाकार होती है जिसमें खिड़की होती है। वास्तुकला में घनाकार (क्यूब्योइड आकार) बन्द नहीं होता, उसमें साँस आती है। उसमें खिड़की होती है। उससे साँस कभी अन्दर आती है, बाहर जाती है। कभी उसका अन्तर्मुख निखरता है, और बाह्यमुख कारण सामग्री होती है, कभी बाह्यमुख कार्य सामग्री होती है और अन्तर्मुख कारण सामग्री होता है। ऐसा चलता रहता है। ऐसा होने से दर्शक का काल बिल्कुल अलग हो जाता है। चित्र और मूर्तिकला में दर्शक को अपना निजि काल समर्पित करना पड़ता था, चित्र देखने या मूर्ति देखने के लिए। लेकिन वास्तुकला में नींद सम्भव है, वह उसमें सो सकता है। अपना साक्षी भाव त्याग सकता है। स्थापत्य कला की यह विशेषता है कि उसमें आप अपनी निजि उपस्थिति रख सकते हैं। इसमें आप किसी और के काल में ‘अवस्थित’ होकर इसका अनुभव कर सकते हैं चिन्तामुक्त होकर। आप सो सकते हो, अपना काल छोड़ दे सकते हो। अगर आप चित्र या मूर्ति के सामने अपना काल छोड़ दें तो चित्र या मूर्ति ग़ायब हो जायेंगे। पर स्थापत्य में ऐसा नहीं होता। कहा जाता है कि ‘घर घर कुछ कहता है!’ इसका आशय है कि कहानियाँ और काल दीवारों पर लिपटे होते हैं। वहाँ किसी के काल लिपटे रहते हैं, किसने बनाया, कब बनाया, क्यों बनाया, यह सब स्थापत्य की दीवारों पर चिपका रहता है।
उदयन : या उसका काल भी जो उसमें पहले रह चुका है...
नवज्योति : बिल्कुल। इसलिए स्थापत्य सामाजिक कला है। इसका आशय यह है कि इसका कभी भी अनिवार्यतः एक कर्त्ता नहीं होता। यह औद्योगिक, सामाजिक कला है। इसमें हरदम कई कर्त्ता होते ही हैं। जैसे चित्र में होते है, उसे बनाया किसी ने, देखा किसी और ने। उसमें भी एक अलग तरह से अनेक साक्षी आ जाते हैं लेकिन स्थापत्य में कला की कारण सामग्री में ही कई कर्त्ता होते हैं। खिड़की के बाहर दुनिया दिखती है। कभी नहीं भी दीखती। दुनिया आपको खिड़की के अन्दर देखती है, आप दुनिया को खिड़की के बाहर देखते हैं। ऐसा चलता रहता है, यह श्वास जैसा है। गृह प्रवेश के पहले पुताई क्यों की जाती है? क्योंकि घर की दीवारों पर दूसरा काल चिपका हुआ है, पुताई उसे मिटाने के लिए की जाती है। नहीं तो वह काल परेशान कर सकता है।
उदयन : क्या आप यह कह रहे हैं कि हर घर ‘हॉण्टेड’ (भुतहा) है?
नवज्योति : बिल्कुल। हॉण्टेड घर इसलिए सम्भव है क्योंकि दीवारों आदि पर भूत-प्रेत चिपके रहते हैं। आपको एक आयोजन करना पड़ता है कि ये सब निकल जाएँ। गृह प्रवेश की विधि यही है।
उदयन : घर के भूत को बाहर निकालना।
नवज्योति : उसमें यह प्रयास होता है कि वहाँ जो भी रह रहे हैं, वे शुभ रहें। आप भूत को बाहर नहीं निकाल सकते। वह तो घर के स्वभाव में है। दूसरों का काल उसमें लगा हुआ है। वह भले ही आपने आज ही क्यों न बनाया हो। मूर्तिकला से भी जुड़ा अनुष्ठान है जिसमें आप प्राण प्रतिष्ठा की बात करते हैं। उस मूर्ति में जान डालने की बात।
उदयन : लेकिन जो भी अनुष्ठान हैं, वे उन कलाओं को देखने या अनुभव करने के रास्ते सुझाते हैं।
नवज्योति : हाँ, यह ठीक है। चित्र और मूर्तिकला में प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान होता है। स्थापत्य में गृह प्रवेश का अनुष्ठान। इसमें खिड़की दरवाज़े बने हैं तो आपको उसमें प्रवेश करना है। अन्दर जाना है, बाहर आना है। यह याद रखना चाहिए कि स्थापत्य की कारण सामग्री में अनेक लोगों के काल लगे हैं। कोई आदमी भले यह कहे कि अपना घर मैं खुद बनाऊँगा। इतना बड़ा कोई अहंकारी हो नहीं सकता। वास्तु में त्याग का भाव होता है। वहीं से वास्तुकला प्रोफ़ेशनल बनी। चित्रकला भी प्रोफ़ेशनल बनी और बाद में मूर्तिकला भी। पर वे प्रोफ़ेशनल वास्तु के अधीन बनीं। वास्तुकला इस तरह की जाती है कि उसका भोग कोई और कर सके। सबसे शुद्ध कला वही होती है। आप उससे जीवननिर्वाह कर सकते हैं लेकिन आप उसे बनाते दूसरों के लिए हैं। वास्तु के अन्दर बनने वाले के अनुभव में दूसरों का काल होता है। वास्तु साँस लेती है, वह जीवन्त होती है। वह धड़कते रहती है। आप किसी इमारत में जाते हैं तो आपको वहाँ या तो अच्छा लगता है या ख़राब। किसी जगह जाकर आप अस्वस्थ भी हो जाते हैं। आप अपने काल को त्याग कर सो जाते हैं। चित्र या मूर्ति के सामने आप केवल तब सोयेंगे जब आप थकान से चूर-चूर हों। पर वास्तु में अपनी इच्छा से सोते हैं, अपनी इच्छा से ही अपना काल त्यागते हैं। चित्र और मूर्तिकला को आपका काल/समय चाहिए। वास्तु को कभी-कभार आपका काल चाहिए और नहीं भी चाहिए। श्रेष्ठ स्थिति वह है, जब वास्तु को आपका काल नहीं चाहिए। दूसरों पर भरोसा करने का भाव वास्तुकला में आता है।
उदयन : यह विचार कि जब आप कुछ न भी कर रहे हों, पुरखे आपकी रक्षा करते हैं, यह वास्तुकला से ही आया होगा।
नवज्योति : आप ऋणी हैं क्योंकि आप अपना काल त्याग सकते हैं। काल त्यागने की ज़रूरत आपके शरीर को है। चित्र को घेरकर वास्तुकला बना सकते हैं। बड़ौदा के गुलाम मुहम्मद शेख ने ऐसा किया है। यह कुछ ऐसा है कि मैं तो सिर्फ़ अपने लिए ही घर बनाऊँगा।
उदयन : अब तक आपने दैशिक कलाओं के सामान्य लक्षणों की चर्चा की है। अब हम इन तीनों दैशिक कलाओं पर बारी-बारी से आते हैं। हम चित्रकला से शुरू करते हैं। चित्रकला में भी हम रेखा की आपकी धारणा पर बात करते है। चित्रकला परलोक में कैसे घटित होता है, उसके सृजन अक्षर कैसे सक्रिय होता है?
नवज्योति : जो बात सामान्य रूप से कही है, उसे पारिभाषिक रूप से भी कह सकते हैं। चित्र की परिधि या मूर्ति की या वास्तुकला की, उनके अक्षर भिन्न है। यानी यह कह सकते हैं कि इन तीनों में परिधि-अक्षर भिन्न हैं। चित्र में रंग फेंकते हैं या कहें कि आप सतह के ऊपर रंग चढ़ाते हैं। अगर कैनवस काला है तो उस पर दूसरी तरह से रंग चढ़ाते हैं। यह रंग चढ़ाना क्या है? जैसे एक रंग चढ़ाते हैं, वैसे ही कई-कई रंग चढ़ाते हैं। लेकिन अन्त में जितने भी रंग चढ़ाए गये हैं, अदृश्य हो जाते हैं। शुरू में चढ़ाये रंग दृश्य से ग़ायब हो जाते हैं। ये अपने आप ढँकते जाते हैं और जो निकल कर आता है वह चित्र की कल्पना होती है। उसके भीतर से चित्र निकलता है। रंग उस चित्र के सिर्फ़ कारण हैं। अन्त में आपको रंग नहीं दिखते, चित्र दिखता है। चित्र बनाने की प्रक्रिया सामान्यतः कुछ ऐसी होती है : जब चित्र बनाना शुरू होता है, एक स्ट्रोक लगाया जाता है। या दो या तीन। हर चित्र में स्ट्रोकों की संख्या सीमित होती है, उन्हें गिना जा सकता है। एक-एक स्ट्रोक को गिना जा सकता है। हर स्ट्रोक की शैली को देखा जा सकता है अगर आप चित्र बनाने की प्रक्रिया का विडियो बना लें। हर स्ट्रोक के अन्दर बहुत-सी विशेषताएँ होती हैं, वे ज़रूर होंगी पर वह होता एक ही है और एक काल में होता है। स्ट्रोक क्या चीज़ है? इससे चित्र कैसे कार्य रूप में आ गया? आपने एक रंग का धब्बा लगाया और उसे कैनवस ने सोख लिया। वह कैनवस से जुड़ गया। काम तो यह हुआ, इसमें चित्रकला कहाँ से आ गयी। चित्र का ऐसा स्वरूप होता है कि वह रंग से नहीं बना होता। रंग बहुत सारी सामग्री को छिपाता है। जैसे आपने एक रेखा बनायी, पेंसिल से या क्रियोन से या किसी भी सामग्री से। उस रेखा से चित्र नहीं बनता। उसके पीछे पूरा ब्रह्माण्ड छिपा हुआ है, जो दिख नहीं रहा। उसके पीछे गहराई छिपी हुई है, जिसको रेखा ढँक रही है। वह सामग्री तिर्यक (टेंजेंशियल) है। रेखा अपने पीछे के क्षेत्र को छिपा रही है। वह रेखा उस क्षेत्र का कोना है। दूसरी रेखा के प्रभाव से पहली का क्षेत्र थोड़ा झुक जाता है और वह दिखने लग जाता है। जो क्षेत्र अदृश्य था, जिसे पहली रेखा ने ढँका हुआ था, वह निखर आता है, दिखने लग जाता है। यह देख कर ही चित्रकार चित्र बनाता है। वह यह देखता है कि जो क्षेत्र छिपा हुआ था, वह निखर कर बाहर आ रहा है कि नहीं। फिर वह रंग का कोई और धब्बा कैनवस या कागज़ आदि पर डालता है, उससे भी कुछ और क्षेत्र निकल आते हैं जो उन रेखाओं और रंगों ने ढँक रखे थे। चित्रकार एक-स्ट्रोक, दो-स्ट्रोक, चार, छह, दस-स्ट्रोक लगाता चलता है। वह तब तक स्ट्रोक लगाता रहता है, जब तक ये स्ट्रोक दिखें नहीं, केवल वह क्षेत्र दिखे। शुरू में जो चीज़ दृष्ट थी, वह अन्त में अदृश्य हो गयी (स्ट्रोक) और जो शुरू में अदृश्य थी, वह अन्त में दृश्य हो गयी (दृश्य)। जब ऐसा हो जाता है, वह कहता है चित्र पूरा हुआ। जब दर्शक आता है, उसे स्ट्रोक दिखते नहीं है, वह सीधे दृश्य देखता है। चित्रकार घुमा-फिरा कर, मोड़ कर, सिलकर, नौंचकर छिपे हुए क्षेत्रों को बाहर निकाल कर लाता है। वह क्षेत्र कितना होता है? वह क्षितिज से लेकर आपके मानस पटल तक फैला होता है। वह चारों तरफ फैला हुआ होता है। आप छोटा-सा चित्र देखते हैं, नौ इंच गुणित नौ इंच का, लेकिन उसमें सूरज भी है, बादल भी है, ज़मीन भी है, वह आपको इतना बड़ा दिखेगा मानो आप बैठे हैं, सामने शाम हो रही है। वह क्षेत्र इतना फैल जाता है। वह चिदाकाश है। आपने भौतिक आकाश या दिक् में रंग फेंके और उसका परिणाम यह होता है कि चिदाकाश में रंग आ जाते हैं। आपने जो बनाया वह केवल शरीर था, लेकिन चिदाकाश में आत्मा से जुड़ जाता है। चित्रकला का शरीर ऐसा है कि वह अन्दर की ओर झुका हुआ है और उसे बनाने वाला चिदाकाश खुला हुआ है। शुरू में आपके कैनवस या कागज़ पर डाले हुए रंग आपको दिखते हैं, बाद में उन्हें छुपाया जाता है। इसका कारण यह है कि जितने भी ब्रश स्ट्रोक्स हैं, वे दिखने नहीं चाहिए। उनका दिखना दोष है। मैं एक क़िस्सा सुनाता हूँ। शान्ति निकेतन का कला-विभाग हर साल एक प्रदर्शनी करता है। वह कभी मुम्बई, कभी चैन्नई आदि में प्रदर्शनी करते हैं। इस बार उन्होंने वह प्रदर्शनी हैदराबाद में की। वह उन विभागों के अध्यापकों की ही प्रदर्शनी थी। मैं वहाँ गया। पहली बार एक चित्र देखकर उसे खरीदने की इच्छा हुई। वह एक प्रिंट था, बाद में वहाँ मौजूद विभागाध्यक्षों आदि ने कहा कि आप खरीदिए नहीं, आपको वह प्रिंट भेज दिया जाएगा। बाद में पता चला कि वह प्रिंट उत्तर-पूर्व के किसी चित्रकार का था, जो शान्ति निकेतन में पढ़ाता था। उसमें एक ऐसा बिन्दु बना था, जिसके अभाव में वह चित्र गिर जाता। उस चित्र में उपस्थित दृश्य उस एक बिन्दु के अभाव में गिर पड़ता। चिदाकाश गिर पड़ता। चित्र ने क्या कहर बरपा दिया, उस एक बिन्दु से। मैंने पता किया कि इसकी कीमत कितनी होगी। लोग हँसें कि ये क्यों कीमत पूछ रहा है, इसके पास पैसे-वैसे तो हैं नहीं। मुझे जानने वाले कई थे, गैलेरी का मालिक मेरे शोध छात्र का ससुर था। बहरहाल मुझे बताया गया कि यह चित्र पन्द्रह हज़ार का है। मैं खरीदने तैयार हो गया। मुझे कहा गया कि आप गैलेरी से क्यें लेते हैं, आप सीधे चित्रकार से ही ले लें, वह आपको यह चित्र पाँच हज़ार में दे देगा। फिर शान्ति निकेतन के किसी प्रोफ़ेसर ने मुझे कहा कि मैंने चित्रकार से बात की है, वह बढ़िया आदमी है, वह आपको यह चित्र भेंट कर देगा। वह भेंट आज तक नहीं आयी।
उदयन : उस चित्र में ऐसा क्या था? मुझे पता है, उसे कह पाना नामुमकिन है, पर आप कोशिश कीजिए।
नवज्योति : उसमें एक ऐसा बिन्दु था, जिससे सारे चित्र में गहराई आ गयी थी। उससे चित्र के स्पेस में एक चरित्र आ गया। मैंने यह जिसे भी बताया, वह उस चित्र को देखने के बाद यह मान गया। वह चित्र इस बात को स्पष्टतः व्यक्त कर रहा था : दृश्य और अदृश्य के बीच जो द्वन्द्व है, वह कारण सामग्री और कार्य के बीच का द्वन्द्व है। कारण मात्र कारण है। वह दरअसल कारण है नहीं। आप जितनी भी पेंटिंग देख रहे हैं, वे पेंटिंग नहीं हैं। पेंटिंग तो चिदाकाश में बन रही है। चित्र तो चिदाकाश में बन रहा है। आप उस चिदाकाश को खींचते हैं, दबाते हैं, संकुचित कर रहे हैं, उसे फाड़ रहे हैं, ऐसी कुल मिलकर सात क्रियाएँ होती हैं। चित्रों में आपको इनके अलावा और कोई क्रिया नहीं मिलेगी। ये चित्रकला के ‘अक्षर’ हैं। चिदाकाश में आप क्या करते हैं? कोई चीज़ सामने ले आते हैं, कोई चीज़ पीछे कर देते हैं। यह आगे-पीछे की व्यवस्था है। मेरे पास एक चित्र है, जिसमें मधुमक्खी का छत्ता है, वह एक ऐसा त्रिकोण है, लगता है कि तीन दीवारें हैं, जिनके मिलने की जगह के कोने पर वह छत्ता है। उसमें यह पता नहीं लगता कि वह छत्ता अन्दर है या बाहर। चित्रों में कारण कार्य से अत्यन्त अलग हो जाते हैं। इनके बीच में अक्षर आता है।
उदयन : चिदाकाश में कौन-सी दूसरी क्रियाएँ हो सकती हैं?
नवज्योति : एक क्रिया फाड़ने की है। एक ऐसा चित्र है, जिसमें एक चित्रित हाथ बाहर निकलकर चित्र को फाड़ रहा है। एक और क्रिया है, अन्दर और बाहर पैदा करने की। एक क्रिया है, संकुचन और विस्तार की। इस तरह की एक दूसरे से द्वन्द्वरत सात क्रियाएँ हैं।
उदयन : मैं आपको आपके बनाये सिद्धान्त का अपवाद बताता हूँ। आप कह रहे हैं कि चित्र बनाते समय ब्रश-स्ट्रोक्स को गायब कर दिया जाता है लेकिन वॉन गॉग के जितने भी चित्र हैं, उनमें आपको एक साथ स्ट्रोक या ट्यूब से निकाले रंग का आकार भी दिखता है और उनसे बना चित्र यानी इमेज भी दिखती है। यह अपूर्व उदाहरण है। यह करके वे चित्रकला में ऐसी बात ले आये, जो अब तक थी नहीं।
नवज्योति : यह सही है। बात यह नहीं है कि ब्रश स्ट्रोक्स गायब हो जाते हों। पर यह बात भी है कि गायब होते हैं। वॉन गॉग ने जितने भी ब्रश स्ट्रोक्स लगाये, उनको देखने से उनसे बना दृश्य गायब हो जाता है। इन स्ट्रोक्स को चिदाकाश में शैली (स्टाइल) कहा जाता है। वॉन गॉग की एक शैली है कि वह मोटे-मोटे स्ट्रोक्स लगाता है।
उदयन : वह कई बार सीधे ट्यूब से रंग केनवस पर लगा देता था।
नवज्योति : वह कई तरह से रंग लगाता है। वे मोटे-मोटे और छोटे-छोटे स्ट्रोक्स होते हैं। अगर आप जलरंगों से या किसी और तरह के रंगों से बनाया चित्र देखें, वहाँ भी शैलीगत फ़र्क हो जाता है। प्रश्न यह है कि आपके स्ट्रोक्स लगाने की शैली क्या है। जलरंग में स्ट्रोक्स अलग होते हैं, तैल रंगों में अलग। दूसरे माध्यमों में अलग।
उदयन : अगर इसमें कुछ जोड़ने की कोशिश करूँ तो कहूँगा आपके ही सिद्धान्त के अनुसार वॉन गॉग में ऐसा है कि बिन्दू या इमेज बनाने के कारण स्ट्रोक्स चिदाकाश में धीरे-धीरे गायब हो जाते हैं, वे चिदाकाश तक पहुँचकर वहाँ अदृश्य हो जाते हैं। असल में वहाँ यानी चिदाकाश में घुलते हैं।
नवज्योति : हाँ, वे घुलते हैं और उनकी आत्माओं का कुछ शेष वहाँ रह जाता है। हम किसे शैली या स्टाइल कहते हैं? यही विषय है, हमारे शोध छात्र सुनील का; चित्रकला में आइकन और स्टाईल्स। यहाँ यह सोचना ठीक नहीं कि केवल स्ट्रोक्स ही शैली या स्टाइल होते हैं। दरअसल कई स्ट्रोक्स के बार-बार आने वाले संयोजन को शैली या स्टाइल कहते हैं। हम जिन्हें लोककलाएँ कहते हैं, उनमें भी शैलियों की विभिन्नता है : वारली चित्रकला ऐसी है, मधुबनी वैसी है, उनके बीच का अन्तर शैलीगत (स्टाइलिस्टिक) अन्तर है। शेर मधुबनी में बना है, शेर ही वारली में बना हुआ है, शेर जनगढ़ कलम के चित्रकारों का भी बनाया हुआ है, पर उनकी शैलियाँ अलग हैं। जो लोग कला समझते हैं, वे शैली पर विचार करते हैं, उसे देखते हैं, वे स्ट्रोक्स भी देखते हैं, उन पर विचार करते हैं। कोई कहता कि फलाँ चित्रकार ने स्ट्रोक्स पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर दे दिया है? क्योंकि चित्रकार की रुचि ऐसी भी हो सकती है। वे यह सब चित्र के बनने के गुणों को देखने के लिए करते हैं। यह सब चिदाकाश में नहीं आता।
उदयन : फिर चिदाकाश में होता क्या है?
नवज्योति : चिदाकाश में जो वस्तु आती है, उसको शैलियाँ दिखाती ज़रूर हैं। जैसे रंग-सम्बन्ध की शैलियाँ। ब्रश-स्ट्रोक्स के संयोजन की शैलियाँ। या हम जिसकी भी शैली कहते हैं, वह दिखती है। शैली इस पर भी निर्भर करती है कि चित्रकार किस तरह के और कौन-से रंगों का इस्तेमाल करता है। मान लीजिए उसके यहाँ केवल चार रंग ही होते हैं, वह उन्हीं से सारे रंग बनाएगा।
उदयन : चित्रकार की पसन्द भी इसमें भूमिका अदा करती है। जैसे जैराम पटेल अधिकतर काले रंग का ही उपयोग करते हैं।
नवज्योति : शैली वस्तु के आधार पर भी हो सकती है। जैसे क्यूबिज़्म है।
आकार वस्तु का गुण नहीं होता। यह बात अरस्तू और कणाद दोनों ही मानते हैं। भारत में और पश्चिम में भी यह मान्यता है कि आकार वस्तु का गुण नहीं होता। जहाँ वस्तु का अन्त हो जाए और परिवेश का आरम्भ, उसे आकार कहते हैं। वह वस्तु के ठीक बाहर होता है और वस्तु के बाहर जो चीज़ है, आकार उसके ठीक अन्दर होता है। आकार कल्पित होता है। कल्पित तो क्या वह वास्तविक बिन्दु से बना होता है। चित्रकला में आकारादि बनते हैं, शैली में वे ही होते हैं। उनमें रंग होते हैं, कौन-से रंगों की भरमार है, कौन-से रंग कम हैं, उनका किस तरह का अनुपात है।
उदयन : हम आकार पर कुछ देर और ठहरते हैं। आप कह रहे हैं कि आकार ‘लिमिनल’ है। यानी वह वस्तु में नहीं है, उसके ठीक परे है।
नवज्योति : शून्य तत्त्व है। यह वस्तु पर टिका हुआ है, एक दृष्टि से और वस्तु के बाहर जो चीज़ें हैं, उस पर भी टिका हुआ है।
उदयन : यह दोनों पर टिका हुआ है।
नवज्योति : दोनों पर। पर उसकी अपनी सत्ता शून्य है। शैली इन आकारों की बनी होती है। रंग दो किस्म के होते हैं। एक तरह के रंगों को सब्ट्रेक्टिव और एक को एडिटिव रंग कहते हैं। इस पर न्यूटन और ग्येटे में ज़ोरदार बहस भी है। न्यूटन कहता था कि अगर सभी रंगों को जोड़ दें तो सफ़ेद हो जायेगा। ग्येटे कहता था कि अगर सभी रंगों को जोड़ दें तो काला हो जायेगा। इनके बीच बड़ी लड़ाई थी कि रंग क्या हो जाता है। प्रकाश में जो रंग हैं, वे जुड़कर सफ़ेद हो जाते हैं। पेंटिंग में कौन-से हैं? वहाँ दृश्य में पिगमेण्ट रंग हैं और जो शुरू में अदृश्य था, उसमें दूसरे रंग हैं। प्रकाश का रंग सिर्फ़ प्रकाश का नहीं, चिदाकाश का रंग है। अगर आप यह कहेंगे कि अगर कहीं रंग है तो उसमें ज़रूर पिगमेण्ट होना चाहिए या प्रकाश होना चाहिए लेकिन लोगों के सपनों में बहुत रंग आते हैं। वहाँ कोई सूर्य नहीं है, यानी प्रकाश वहाँ स्रोत नहीं है न ही वहाँ कोई पिगमेण्ट है। सपनों में आने वाले रंगों में न तो प्रकाश है न पिगमेण्ट। वे चिदाकाश के रंग हैं इसलिए ऐसा माना जा सकता है कि रंगों की दो कारण सामग्रियाँ हैं। एक प्रकाश (या उजाला) और एक रासायनिक। रासायनिक रंग की कारणता प्रकाश के रंगों से अलग होती है। प्रकाश और रासायनिक रंग के बीच साम्य नहीं है। साम्यता चिदाकाश से की जाती है। जैसे वाइन टेस्टर्स होते हैं वैसे ही शुरू-शुरू में मुद्रण व्यापार में ऐसे लोग होते थे जो बताते थे कि किस रंग में कौन-सा और कितना दूसरा रंग जोड़ा जाए कि मनचाहा रंग आ जाए। यह उनकी विशेषता थी क्योंकि वे चिदाकाश के रंगों के सहारे यह कर लेते थे। चिदाकाश का रंग प्रकाश-रंगों और पिगमेण्ट रंगों के बीच के अन्तर्रंग (अन्तःभाषी) हैं। वे इन दोनों के बीच में आते हैं और इन दोनों के बीच की बातचीत इन्हीं के कारण होती है। असली रंग तो चिदाकाश के रंग हैं। दरअसल शैली चिदाकाश के रंगों में होती है। चिदाकाश में अक्षर इत्यादि हैं, उनसे शैली उत्पन्न होती है। यह सोचना ठीक नहीं कि स्ट्रोक से आकार होता है, स्ट्रोक की परिधि आकार नहीं होती। आकार अलग चीज़ है। एक दोष बहुत से उन वैज्ञानिकों और दार्शनिकों में मिलता है, जो रंग पर लिखते हैं या चित्रों का अध्ययन प्रकाशित करते हैं। वे आकार को भौतिकता से भ्रमित कर लेते हैं। आकार भौतिक नहीं होता। हम आकार शैलीगत ढँग से देखते हैं : किस तरह के अक्षर आये हुए हैं। किसी चित्र में अक्षरों की कैसी रचना है। यह देखना कि किसी चित्र में बिन्दु (प्वाईंट) किस तरह से फैलाये गये है : वहाँ कैसा प्रपंच खड़ा किया गया है। यह मुश्किल काम है, पर इसे किया जा सकता है।
उदयन : क्या आप अपने शोध-छात्रों को ऐसा कुछ करने को कहते भी हैं?
नवज्योति : मैं उन्हें यह करने को कहता हूँ कि वे ‘ै’ के आकार का चित्र बनाएँ, उसे बनाकर उसे भरें और इस प्रक्रिया में जितने भी ब्रश-स्ट्रोक्स लगते हैं, उनका लेखा-जोखा रखें। आपने उस ‘ै’ आकार का क्या बनाया, यह महत्वपूर्ण नहीं, भले ही वह साँप हो या जैसी भी आपकी कल्पना हो। इस प्रक्रिया में शामिल हर स्ट्रोक का विवरण लिखो। यह दर्ज करो कि वह आकार किस तरह रूपान्तरित हो रहा है। मानो आप कुछ बना रहे हैं और आपको अचानक लगा कि यह जम नहीं रहा- मसलन आप बना तो रहे थे भू-दृश्य पर वह बना गया कुछ और - तब आप अगले स्ट्रोक से उसे ढँक देंगे। इस जगह आकर आपकी कल्पना बदल गयी और आपने चित्र में दूसरी कल्पना डाल दी। इस तरह दो तीन रूपान्तरण हरेक शोध-छात्र के चित्र में होते थे। शुरू में ये लोग किसी शैली के वशीभूत चित्र बनाते थे पर शैली मूल तत्त्व नहीं है लेकिन उन्हें शैली से मूल तत्त्व पकड़ने में नहीं आता तो कल्पना से उसे मोड़ देते थे और उसे छिपा देते थे। दरअसल चित्र बनाना दोषों को छिपाना भी है। यही कुछ शिल्पकारी है। अगर स्ट्रोक दिख रहे हैं तो एक विचार से यह आपकी ग़लती है तो उससे कुछ अलग करना होता है। उसे छिपाना होता है। मसलन अगर आपने एक लाइन खींच दी अब उसका क्या करें? उसे छिपाना है। तो उसे मोटा कर दिया या उसे फैला दिया। इसलिए शैली चिदाकाश का हिस्सा है पर वह चिदाकाश का केन्द्रीय हिस्सा नहीं है। चिदाकाश का एक गुण शैली है लेकिन वह मूलभूत नहीं है।
उदयन : वह तात्त्विक नहीं है?
नवज्योति : वह तत्त्व तो है, सो तात्त्विक है पर वह तत्त्व मौलिक नहीं है।
आज के दौर में चित्रकार अपनी हठधर्मिता खोजते हैं और उससे क्या हो सकता है यह करके दिखाते हैं। वॉन गॉग ने एक तरह से स्ट्रोक्स लगाये और उन्हीं से सब कुछ बना दिया। जब स्ट्रोक्स छिप गये तो आपको लगा तूफ़ान आ रहा है या गिरजाघर खड़ा है या जूते नज़र आ रहे हैं। इसमें स्ट्रोक्स छिप रहे हैं लेकिन वे दिख भी रहे हैं, उसने यह दिखा दिया कि स्ट्रोक्स छिप भी सकते हैं और साथ ही दिख भी सकते हैं। यह उसकी शैली बन गयी। अभी जो चित्रकार हैं, वे अपनी-अपनी शैली पकड़ लेते हैं। कोई-कोई चित्रकार एक ही चीज़ को पकड़ कर बैठ जाते हैं और कहते हैं कि मैं तो सिर्फ़ झाड़ी बनाऊँगा। मैं जो भी बनाऊँगा, वह झाड़ी जैसा ही होगा। इसी ‘फ़ेटिश’ में से अपनी विशेषताएँ निकालते हैं। वे अपने मूल्य उसी से निकालते हैं। यह बात उन सब के साथ हो रही है, जिन्होंने पश्चिम से सीखा है। इन शैलियों में कुछ अच्छा भी होता ही है।
चित्र में चिदाकाश को खींच सकते हैं, दबा सकते हैं, तोड़ सकते हैं, उसको ढँक सकते हैं। उसके साथ बहुत सारी क्रियाएँ सम्भव हैं। आप चिदाकाश को तोड़ते-मरोड़ते हैं और उनके सहारे जैसा चिदाकाश को बनाते हैं, उससे जो अर्थ निकलते हैं, वे अर्थ प्रकृतियाँ हैं। वह अर्थ नहीं है। वह तो देखने वाले कुछ और ही निकालेंगे। आप चिदाकाश को तोड़-मरोड़कर उसमें से अर्थ निकालते हैं कि यह एक मेहनतकश व्यक्ति का जूता है (वॉन गॉग), ‘मेहनती आदमी’ आदि यह सब उसमें से निकल रहा है। आपने चिदाकाश को अक्षरों से इस तरह बनाया था कि उसमें से वैसा अर्थ निकल आये। यह अर्थ निकलना, चिदाकाश के कारण हो रहा है। चिदाकाश में तोड़-मरोड़-खींचने आदि क्रियाओं से सहारा लिया जाता है, स्ट्रोक्स का, पिगमेण्ट्स का। चिदाकाश के कारण ही अर्थ का स्फोट होता है। दरअसल स्ट्रोक्स आपकी स्मृति से रगड़ खाते हैं, उससे चिदाकाश बनता है। आपके भीतर अनन्त स्मृति पड़ी हुई है। स्ट्रोक्स उसका मन्थन करते हैं। चिदाकाश स्ट्रोक्स से जिस तरह जुड़ा हुआ है, उसी तरह वह स्मृति से भी जुड़ा हुआ है। चिदाकाश से आप थीम नहीं निकाल सकते, उसके लिए स्मृति चाहिए। चित्रकला की थीम का एक अलग ही स्तर होता है (वह अर्थप्रकृति नहीं होती) उसी जगह चित्र के आलोचक आते हैं कि वे उसका विश्लेषण कर सके। अर्थ-प्रकृतियाँ होती हैं, सन्धियाँ होती हैं और अवस्थाएँ आदि होती हैं। इन सब के संयोग से ही अर्थ-प्रतीति होती है। चित्रकार ने चिदाकाश को जो रूप दिया था, उसे तोड़ा, नौंचा, दबाया, खींचा आदि था, उस कार्य से एक समर्थ या क्रियमाण स्थिति बन गयी, जिससे दर्शक को अर्थ-प्रतीति या अर्थ-स्फुरण होता है और उसके बाद यह कहा जाता है कि ‘भई क्या बात है?’ या ‘रोथको के चित्र ने तो रुला दिया’ आदि। रोना आना भी अर्थ ही तो है। अगर कोई पूछेगा कि चिदाकाश में वह कहाँ है तो इसका क्या जवाब है! वैसे चिदाकाश का एक तरह का कार्य था पर वह भी एक कारण है। चित्रकला का मूल कार्य चिदाकाश ही था। चिदाकाश में अनुकृति रहती है। अनुकृति में सारे अर्थ आ जाते हैं। चिदाकाश कारण रूप से एक अनुव्यवसाय हो जाता है। उस अनुव्यवसाय में तरह-तरह के अर्थ आते रहते हैं। लोग कह सकते हैं कि एक ही किस्म के अर्थ आये हैं पर फिर उन्हें खींच कर अलग-अलग भी किया जा सकता है। लोग ऐसा करते ही हैं। वे कहेंगे कि नहीं आप लोगों के मन में जो अर्थ आ रहे हैं, उनसे अलग अर्थ भी हैं। इस तरह किसी भी चित्र की कई व्याख्याएँ हो जाती हैं। क्योंकि वह अनुव्यवसाय है, अनुकृति नहीं। उसका व्यवसाय चिदाकाश है। वह मूल कार्य है। व्यवसाय है।
उदयन : अनुव्यवसाय का तात्कालिक कारण चिदाकाश में चित्रकार द्वारा की गयी तोड़-फोड़, खींचा-तानी आदि ही है।
नवज्योति : चिदाकाश का कारण पिगमेंट हैं। चिदाकाश पिगमेंट का कार्य है। जब वह आँखों के सामने आया तो उसका अर्थ व्यापार हुआ। उस पर आपने कुछ सोचा-विचारा। सोचा कि यह चित्र इतना महँगा क्यों है, इसे तो मैं भी बना सकता था। क्योंकि चिदाकाश में तो चित्र की कोई कीमत लिखी नहीं होती। इसीलिए आपको गुस्सा आ रहा है कि इसमें क्या है, इसे तो मैं कर देता हूँ। यह सब अनुव्यवसाय है।
उदयन : यह दर्शक की अपनी प्रकृति पर निर्भर करेगा।
नवज्योति : दरअसल वह आपकी स्मृतियों पर ही नहीं, आपके संस्कारों पर भी रगड़ खा रहा है। इसमें आपकी प्रवृत्तियाँ भी शामिल हैं। स्ट्रोक्स, रंग संधान आदि आपके संस्कारों पर रगड़ खाते हैं, वे कारण थे चिदाकाश के। अब चिदाकाश प्रत्यक्ष बन गया। प्रत्यक्ष में आने पर जो संस्कारों से रगड़ हुई थी, उसके सन्दर्भ में अनुव्यवसाय शुरू हुए जिसमें मसलन आपको लग सकता है कि आप मसूरी में बैठे हैं। या गोवा में। या ऐसी किसी जगह जहाँ पानी तक नहीं, पर फिर भी लग रहा है बारिश हो गयी है। हालाँकि चित्रकार ने पानी की एक बूँद तक नहीं बनायी तब भी। ऐसी-ऐसी बातें दिमाग में आ जाती हैं। इनको देखकर कला-आलोचक कथाएँ लिख देते हैं। वह कथा चित्र को देखने का आधार बन जाती है।
उदयन : अब हम क्यों न शिल्प पर विस्तार से विचार करें। यह ठीक है कि दैशिक कलाओं के सामान्य लक्षण बताते समय आपने शिल्प पर भी विचार किया था पर अब हम शिल्प के विशिष्ट लक्षणों पर आ सकते हैं।
नवज्योति : पहले सभी दैशिक कलाओं के कलाकारों को शिल्पी ही कहते थे। किसे शिल्पित किया जाता है? चिदाकाश को। चित्रकार को भी शिल्पी ही कहते थे। वास्तुकार को भी। रूप देना, तराशना। आप चिदाकाश को रूप देते हैं, उसे तराशते हैं। चिदाकाश को तोड़ना-मोड़ना, उसको इस तरह तोड़ना-मोड़ना कि वह व्यवस्थित हो जाए।
उदयन : मूर्तिकार कौन थे?
नवज्योति : चित्र में भी जो आकार है, वह मूर्ति है। मूर्ति बनाना यानी प्रतिमा बनाना। ऐसा नहीं था कि उसे कैसे या किसमें बनाया जाए। ये तो आजकल, सब अलग अनुशासन हो गये हैं। प्रश्न यह होता था कि किसी की मूर्ति बनानी है तो किस माध्यम में कैसा करना श्रेष्ठ होगा और यह भी कि किस माध्यम की आपको पकड़ है, आपके कौशल का स्वरूप क्या है? उसी हिसाब से प्रतिमाएँ बनायी जाती थीं। पहले मूर्तियाँ ही ज़्यादा बनती थीं, चित्र कम ही बनते थे। अजन्ता में निश्चय ही चित्र हैं, पर वे कम ही थे। किन्हीं भी मूर्त पदार्थों के स्कन्ध से मूर्ति बनती है। मूर्त पदार्थ चार होते हैं। भौतिक पदार्थ पाँच हैं, उनमें चार मूर्त हैं। एक पदार्थ ‘विभू’ यानी आकाश है। महाभूतों में सिर्फ़ आकाश है, जिसे आप बाँध नहीं सकते, जिसे आप परिधि में नहीं डाल सकते। कलाएँ चार भूतों (मूर्त पदार्थों) से बनती हैं। चिदाकाश को देखने का एक तरीका यह है कि आप चित्र में पानी भर दें। आपको यह सोचना भर है। यह एक विचार-प्रयोग है। अगर आप ऐसा करते हैं तो सोचिए कि वह पानी कहाँ से निकलेगा? वह उसमें अटक जाएगा या सारा बह जाएगा! इस आधार पर आप चित्रों का वर्गीकरण कर सकते हैं। एक रैखिक परिप्रेक्ष्य वाले चित्र में वह ज़मीन पर बैठ जाएगा। हिन्दुस्तानी चित्रों में पानी के बैठने की जगह ही नहीं है, वह बह जाएगा। अगर आप विचार-प्रयोग करते हुए चिदाकाश में आग लगा दो तो कौन-सी चीज़ें बच जाएगीं। पश्चिम में तो ‘मोर्बिडिटी’ बहुत है, वहाँ इसीलिए बहुत-सी चीज़ें बच जाएँगी। पर हमारे चित्रों में केवल दीवारें आदि ही बच पायेंगी बाकी सब जल जाएगा। यह भी वर्गीकरण का आधार बन सकता है।
उदयन : शिल्प में अक्षर कहाँ होते हैं?
नवज्योति : वे उसकी परिधि में हैं और बहिर्मुखी हैं। दरअसल वे परिधि के बाहर जो निकल रहा है, उसमें हैं। मूर्ति में जो बाहर निकल रहा है, वही शिल्प है, जो अन्दर निकल रहा है, वह मूर्ति के लिए अप्रासंगिक है। मेरे पास एक शिल्प है, जिसमें आदमी के आकार की चादर-सी रखी हुई है। अन्दर खाली है। वह आदमी नज़र आता है। उसके अन्दर क्या है, क्या नहीं, इससे फ़र्क नहीं पड़ता।
उदयन : ऐसा ही एक महावीर का शिल्प है, जिसमें पीतल की हल्की मोटी चादर में महावीर का आकार काट कर निकाल लिया गया है। वह काट कर हटाया गया स्थान महावीर जान पड़ता है।
नवज्योति : मेरे पास पश्चिम के किसी कलाकार का एक शिल्प है। अन्दर की सामग्री शिल्प के लिए बेकार है। शिल्प बाह्यमुखी होता है, चित्र अन्तर्मुखी। शिल्प की सतह बाहर की तरफ़ निकलती है, वही तराशी जाती है। जैसे कि वह चादर वाला शिल्प है, जिसका मैंने ज़िक्र किया, उसकी अन्दर वाली सतह से शिल्प नहीं बनता। वह चिदाकाश से सम्बन्धित नहीं है। वह केवल बाहर की सतह से सम्बन्धित है। बाकी स्मृति से भर जाता है। यह चित्र से बिल्कुल उल्टा है।
उदयन : शिल्प की इस स्थिति के कारण उसकी ग्राह्यता में क्या फ़र्क पड़ता है, चित्रकला की तुलना में।
नवज्योति : पहली बात तो यह है कि शिल्प की रचना के समय शिल्पकार का चलन बिल्कुल अलग होता है। शिल्प में कलाकार सतह पर काम करता है। कहीं मिट्टी डाल दी, कहीं तराश दी। उसका पूरा ध्यान सतह पर होता है। वह सतह की बाह्यमुख सामग्री को देखता है। जबकि चित्र में काम करते समय कलाकार उसके भीतर की सामग्री को देखता है। शिल्प दो आयामी होता है क्योंकि सतह भी दो आयामी ही होती है। पर वह वक्र होती है और उसका वक्राकार स्वरूप तीन आयामी हो जाता है। चित्र की वक्रता दो आयाम के भीतर होती है। चिदाकाश न तो दो आयामी होता है या तीन आयामी। उसमें घन भी होता है पर वह उतना नहीं होता जितना भूत द्रव्य में होता है। भूत द्रव्य में घनत्व ठोस होता है, चिदाकाश ठोस नहीं होता। पर वह भरा होता है। उसमें पीछे आगे वस्तुएँ होती हैं। शिल्प की बाह्यमुखी सतह से ही चिदाकाश पर आरोपण अन्तर्मुखी होता है। चित्रकार का चलन चित्र के अन्दर की तरफ होता है पर उससे चिदाकाश बाहर की तरफ बनता है। उसका आयाम स्ट्रोक्स के आयामों से अधिक होता है। शिल्प में तराशने के आयामों से चिदाकाश का आयाम कम होता है। आप, माल लें राजा भोज के शिल्प की सतह देखते हैं, यह देखते हैं कि उस पर प्रकाश कैसे पड़ रहा है लेकिन आपको दिखते हैं भोजराज। कई लोगों को उसमें शिल्प नहीं भी दिख रहा है। किसी शिल्प के भीतर गाँधी भी दिख सकते हैं। वहाँ गाँधी कहाँ हैं? वे शिल्प की सतह से बने हैं। उसमें क्या पदार्थ है, पत्थर या धातू या मिट्टी, उसका उतना असर नहीं है। पर इतना तो है कि अलग-अलग मूल पदार्थों से कुछ अलग-अलग असर पड़ता ही है। पर पदार्थ बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं है। शिल्प बनाने में परिवेश पर काम करना होता है। उसे परिवेश में ही तराशा जाता है। आपने जो पदार्थ लिया है, उनकी कीमत उतनी नहीं है, शिल्प में पदार्थ के परिवेश पर काम होता है। जब शिल्पी पदार्थ को तराशता है, वह पदार्थ के बाहर के परिवेश को तराशता है। सतह के बाहर जो अनुभव होगा, वह उसको छूता है। ऐसा करते हुए वह शिल्प के बाह्यमुखी तत्त्व को छूता है। वह बाह्यमुखी तत्त्व तो शून्यस्थ है।
उदयन : एक तरह से यह कह सकते हैं कि शिल्पी पत्थर को तराशते हुए शून्य को रूप दे रहा है।
नवज्योति : हाँ, वहाँ शून्य की स्थापना हो रही है। शून्य की स्थापना से ही चिदाकाश आरोपित होता है। शिल्पी शून्य को किस तरह छूता है, कैसे तराशता है? वह देखता/देखती है कि उसके तराशने से चिदाकाश बन रहा है या नहीं। वह गाँधी या भोज लग रहा है या नहीं। वह सोचता है कि ऐसे तराशे तो शायद न लगे ऐसा बनाये तो लग सकता है। शिल्प कला में यह चलता रहता है। शिल्प औद्योगिक कला भी है। उसे एक बार बना लिया तो उसका ‘मोल्ड’ बनाना पड़ता है यानी उसमें तकनीकी का उपयोग होता है। कई बार तकनीकी भी खेल कर जाती है। कई बार नेगेटिव मोल्ड बनता है, मोम का या धातु का शिल्प बनाने के लिए। आपको अन्दर की धातु पर भी ध्यान देना पड़ता है। ध्यान चिदाकाश के लिए नहीं है, वह तो शिल्प की निर्मिति के लिए है। चिदाकाश सतह से ही बनता है। बाहरी सतह से।
चित्रकला और शिल्प में एक और अन्तर हो जाता है (वैसे तो सतहें दोनों ही हैं, एक सपाट सतह है, दूसरी वक्र!)। दिशाओं की दृष्टि से देखें तो शिल्प सभी दिशाओं में फैला होता है पर चित्र एक या दो दिशाओं में। वह क्षेत्रिक है और शिल्प घनिक है। इसका आशय है कि चिदाकाश और दृष्टा का सम्बन्ध चित्र और शिल्प में अलग हो जाता है। दृष्टा शिल्प के चारों ओर घूम सकता है, यह बात साधारण लगती है पर चित्र के चारों ओर कोई नहीं घूमता। उसके पीछे कुछ नहीं होता। अब यह हो सकता है कि कोई प्रयोगशील चित्रकार चित्र के पीछे भी कुछ लगा दे। चित्र और शिल्प दोनों में ही आप प्रवेश नहीं कर सकते। हालाँकि विचार-प्रयोग के लिए शिल्प में फिर भी प्रवेश हो सकता है पर चित्र में नहीं। कई बार चिदाकाश पूरा घूमने से बनता है। जब आप चित्र देखते हैं, आपकी आँख कुछ समय लगाती है, इस कोने से उस कोने को जाती है, आजकल आई-ट्रेकर हैं जो बता सकते हैं कि चित्र देखते समय आपकी आँखें कहाँ-कहाँ जा रही थी। इसी तरह शिल्प को भी देखने में समय लगता है। लेकिन ये दो समय (चित्र और शिल्प में लगने वाले) इन दोनों में अलग हो जाते हैं। चित्र देखते समय आप एक जगह खड़े हो गये और शिल्प में आपको समय लगाने के लिए इसके चारों ओर घूमना पड़ता है। शिल्प देखने में दृष्टा के समय की प्रतिबद्धता चाहिए होती है। जैसे कोई भी चित्र बिना दृष्टा के समय के फलित नहीं होता वैसे ही शिल्प भी बिना दृष्टा के समय के फलित नहीं हो सकता। शिल्प को भी दृष्टा के जीवन का समय चाहिए तभी वह चिदाकाश में फैलता है। चाहे वह चित्र हो या शिल्प। पर समय का इन दोनों कलाओं में, दिक् की तुलना में अलग सम्बन्ध है। दिक् यानी पदार्थ। हम उसे आकाश कह देते हैं, पर आकाश ऐसा देश होता है, जिसमें गुण होता है। दिक् ऐसा देश है, जो गुण रहित है। दिक् से काल का सम्बन्ध शिल्प और चित्र में अलग हो जाता है। दोनों बनाते तो चिदाकाश ही हैं, दोनों से ही गुणात्मक क्षेत्र बनते हैं। आकाश का फैलाव गुणात्मक होता है, दिक् निर्गुण होता है, इसमें कोई विशेषताएँ नहीं होतीं। सिर्फ़ दिशाएँ ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, चारों तरफ होती हैं। शिल्प में लगने वाले समय का कुछ शिल्पी इस्तेमाल भी कर लेते हैं। वे एक तरफ एक चीज़ बनाते हैं, दूसरी तरफ दूसरी चीज़ बना देते हैं। हैदराबाद में यूरोपीय शिल्प बहुत हैं। गोएटे का एक शिल्प है जिसमें एक आदमी है और एक औरत है। वह एक तरफ से आदमी है दूसरी तरफ से औरत है। इस तरह के शिल्प भी बनाए गये, इसका कारण शिल्प के चारों ओर घूमने की आवश्यकता है, जिसमें अलग ही उपलब्धि होती है। उससे आप चिदाकाश में क्या रच सकते हैं, उसकी सम्भावना बदल जाती है। हमारे यहाँ के शिल्पियों ने आधा ही शिल्प बना दिया। दीवार के ऊपर बना दिया और आधा दीवार के अन्दर डाल दिया। पर इसके बावजूद आप पूरे की कल्पना कर लेते हैं। यहाँ आप सोच लेते हैं कि आप घूम गये हैं। आप दीवार के अन्दर जाने से तो रहे पर चूँकि शिल्प में दृष्टा घूम सकता है तो आप ऐसे शिल्पों में ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि आप घूम गये हो। चिदाकाश का विचरण दोनों में ही है। इनका अनुव्यवसाय तो विचरण ही होता है। शिल्प में आप चारों ओर विचरण कर सकते हैं, चित्रकला में ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि उसका फ्रेम सख़्त है। आप चित्र के अन्दर जाकर विचरण कर लीजिए। शिल्प के परिवेश में आप विचरण करते हैं। फिर चाहे वह शिल्प दीवार पर ही क्यों न बनाया गया हो। ऐसे बहुत-से शिल्प दीवार पर उकेरे गये हैं।
उदयन : यह जो आप चित्र और शिल्प में विचरण का फ़र्क बता रहे हैं, उसी के सन्दर्भ में एक फोटोग्राफ़ की याद आती है। मैंने यह तस्वीर जेनेवा में देखी थी। फोटोग्राफर ने एक बड़े-से लगभग पारदर्शी रेशम के कपड़े पर फोटो का पोज़िटिव बना लिया। इस फोटो में विवस्त्र लड़की की पीठ दिख रही है। वह विवस्त्र लड़की पीछे देख रही है। बस इतनी ही तस्वीर है। वह रेशम हवा में लटकाया हुआ है। चूँकि रेशम पर बनी तस्वीर हवा में लटकी है, उससे आपको शिल्प का अनुभव होता है और इसलिए आप रेशम के पीछे जाकर देखते हैं और दंग रह जाते हैं जब आप पाते हैं कि वहाँ भी आपको पीठ ही नज़र आ रही है। आप शिल्प की प्रत्याशा में उस लटकती तस्वीर के चारों ओर जाते हैं पर पाते हैं कि वह दो आयामी तस्वीर ही है। यहाँ चमत्कार इस बात में है कि वह लटकती तस्वीर (रेशम) शिल्प नहीं है।
यह तस्वीर का अनुभव नहीं, ‘यह शिल्प नहीं है’ का अनुभव है!
नवज्योति : यह काल और दिक् में विचरण से लक्षित होता है। एक मुल्ला नसरूद्दीन हुए हैं। वे सूफ़ी थे। उनका ऐसा था कि वे जो भी दुनिया को बनाना चाहते थे, मज़ाक में या चुटकुले में बताते थे। जैसे जापानी काउन होते हैं। वह षष्ठपदी कविता होती है, काउन, उसमें गुत्थी होती है। मुल्ला नसरूद्दीन का स्वभाव था कि मज़ाक करो। उनकी क़ब्र है। क़ब्र मूर्ति होती है। उसमें एक दीवार का हिस्सा है जिसमें दरवाज़ा है, जिस पर कुण्डा लगा है, कुण्डे में ताला लगा है। क़ब्र के दूसरी तरफ़ जाएँगे वहाँ भी कुण्डा है, जिसमें ताला लगा हुआ है। दोनों तरफ एक-सा ही है। जो भी अन्दर है, वह बन्द है। अगर आप एक तरफ से नहीं जा पा रहे तो दूसरी ओर चल के जाएँगे पर वहाँ भी कुण्डे में ताला लगा है। वह क़ब्र भी देश-काल के विन्यास को लेकर ही बनायी गयी है। मुल्ला का एक किस्सा मुझे बहुत अच्छा लगता है, उसे मैं यहाँ बिना किसी प्रसंग के ही सुना देता हूँ। सूरज डूब गया, शाम हो गयी। गाँव के बाहर एक पेड़ था। उस पेड़ पर लालटेन टंगी हुई थी। मुल्ला उसके प्रकाश में कुछ खोज रहे थे। उधर से गाँव के लोग आ-जा रहे थे। उन्होंने पूछा, ‘क्या हुआ मुल्ला, क्या हुआ?’ मुल्ला नसरूद्दीन बोले, ‘मेरी चाबी खो गयी है। मैं घर कैसे जाऊँगा!’ वे लोग भी ढूँढ़ने लग गये। वे काफ़ी देर तक ढूँढ़ते रहे, वह मिली ही नहीं। वहाँ प्रकाश था पर चाबी मिली नहीं। गाँव के लोगों ने पूछा, ‘मुल्ला ये बताईए कि वह चाबी कहाँ खो सकती थी, वह आपके पास कब थी? आप बताएँ तो हम अपनी खोज को उसके अनुरूप बना लेंगे। और उससे निश्चय चाबी मिल जायेगी!’ वे सब खोजते रहे, चाबी मिली नहीं। मुल्ला बोले, ‘वह चाबी तो गाँव के दूसरी तरफ़ खोयी थी!’ तब गाँव वालों ने कहा कि क्या आप पागल है, तब यहाँ क्यों ढूँढ़ रहे हैं। मुल्ला बोले, ‘जहाँ रोशनी थी वहीं ढूँढ़ रहे थे। अँधेरे में टटोलने का क्या मतलब है?’ इस तरह के मज़ाक हैं, मुल्ला नसरूद्दीन के।
एक बार मैं हैदराबाद के क़ब्रिस्तान गया, वहाँ का चौकीदार बोला, ‘यह क़ब्र एक बूढ़े-से इंसान की है। यह क़ब्र बहुत मशहूर है क्योंकि इसमें से सुगन्ध निकलती है और कुछ लड़कियाँ यहाँ आकर रोती हैं और उस पर लेटती हैं।’ कुछ क़ब्रों पर आप रात भर लेट सकते हैं। उससे सन्तुष्टि होती है। आप पूछ सकते हैं कि किसी क़ब्र से महक कैसे आ सकती है? तो उसका जवाब ये है कि अगर आपमें आस्था है तो महक ज़रूर आयेगी। मृतक था ही ऐसा आदमी, जिससे लोग बहुत प्यार करते थे। उस क़ब्र पर लोग चादर चढ़ाते हैं, उसे छूते हैं। कई लोगों को महक आ जाती है और जिन्हें आती है, वे बार-बार आते हैं। आपको नहीं आती तो न सही, आपमें आस्था नहीं है। दरअसल जब शिल्प स्मृति से रगड़ खाता है, ये सब चीज़ें हो जाती हैं। गाँधी की मूर्ति में आपको वीरता दिख जाती है। अगर आपने गाँधी को जाना है तो वीरता दिख भी सकती है। मूर्ति तो बूढ़े आदमी की है पर आप उसे देख कर सोचते हैं कि गाँधी में क्या दृढ़ता थी जबकि बूढ़े की मूर्ति में दृढ़ता कहाँ है? ये सारी चीज़ें अनुव्यवसाय से हो जाती हैं। चिदाकाश में अनुव्यवसाय चाहिए, फिर उससे गन्ध भी आ जाती है। लोगों के चिदाकाश के अनुव्यवसाय अलग-अलग हो सकते हैं। और चिदाकाश वही है जो उसने (शिल्पी ने) बनाया है, सतह को तराश कर। दरअसल वह सतह को उतना नहीं जितना परिवेश को तराशता है। सारे शिल्प स्वभावतः पदार्थ को नहीं, परिवेश को तराशने से ही जन्म लेते हैं। जब उसमें शून्यता बनती है, तभी उसमें चिदाकाश आता है। आप चिदाकाश के अन्दर जाकर तराश नहीं करते, उसके बाहर ही बाहर तराशते हैं। चित्रकला में आप चिदाकाश के अन्दर बैठकर तराशते हैं। इस तरह चित्रकला का शिल्प बिल्कुल अलग है, शिल्पकला का अलग। इन दोनों को बनाने की क्रियाओं में अन्तर है लेकिन कई चीज़ों में समानता भी है। इन दोनों ही कलाओं में जो चिदाकाश बनता है, उसमें कालिक वस्तुएँ रहती हैं। चिदाकाश जीवन्त चीज़ है, जिसमें सब कुछ चल रहा है। अगर उसमें गाँधी हैं, वे चल रहे हैं, उसमें गाँधी की सारी जीवनी आ गयी। इन सब चीज़ों से अनुव्यवसाय हो जाता है। अनुव्यवसाय वही होता है जो शिल्पी/चित्रकार चाहता था। वह ‘प्रॉम्टेड’ अनुव्यवसाय है। वह अक्षर इत्यादि से संचालित होता है। वह अपनी मर्जी से नहीं होता। अक्षरों आदि के निर्देश में होता है। शिल्पी चाहता था कि चिदाकाश में ऐसी गति हो कि मसलन उसमें गाँधी का व्यक्तित्व आ जाए। गाँधी की अपनी जो विशिष्टताएँ हैं, वे सब की सब आ जाएँ, समय के आर-पार ऐसा हो क्योंकि वे विशिष्टताएँ चिरकालिक हैं। यह सब अनुव्यवसाय चलता रहता है। जितनी भी दैशिक कलाएँ हैं, वे बाह्य रूप से दैशिक हैं और अन्दर से कालिक हैं।
उदयन : जैसे गाँधी का एक शिल्प है जिसमें वे लाठी लेकर आगे जा रहे हैं और पीछे लोग चल रहे हैं। इससे गाँधी के विषय में एक तरह का अनुव्यवसाय होगा। दाण्डी मार्च से जुड़ा अनुव्यवसाय। यानी शिल्प में शिल्पी अनुव्यवसाय की सीमा तय कर सकता/सकती है कि उसका दर्शक कहाँ-कहाँ तक जायेगा/जायेगी।
नवज्योति : यह शिल्पी करता है। उसमें जितने भी चिह्न हैं, वे उसने जानबूझकर बनाए हैं। मसलन लाठी डाली है, उन सबको झुका हुआ बनाया है, सबकी चलते हुए की मुद्रा बनायी है। मुद्रा चलायमान वस्तु का अंकन होता है। शिल्पों में मुद्राएँ होती हैं, चित्रकला में मुद्राएँ उतनी नहीं होतीं। चित्र से रचित चिदाकाश में जो चल रहा है, उसका पूरा परिवेश चल रहा है। चूँकि वहाँ चिदाकाश को भीतर ही भीतर बनाया गया है वह चलता है। वहीं मानो किसी नर्तक का शिल्प है तो चिदाकाश में वह पूरा-पूरा नर्तक चलता है। उसकी आत्मा और शरीर सब। शिल्प उस चलन की विशिष्टता को मुद्रा में पकड़ लेता है। उस मुद्रा में सारे भाव आ जाते हैं। जैसा चित्रकला का संगीत से सम्बन्ध है, वही शिल्प का नृत्य से है। जैसे चित्रकला बाहर दैशिक है और अन्दर कालिक है। संगीत बाहर कालिक है, अन्दर दैशिक है। ऐसे ही शिल्प का बाहर दैशिक है, अन्दर कालिक और नृत्य बाहर कालिक है, अन्दर दैशिक है। उसमें तरह-तरह के भाव हैं। शिल्प में भी भाव आरोपित होते हैं। ये भाव क्षणों के मुद्रांकन में आ जाते हैं। शिल्प में एक क्षण में भाव को अकालिक रूप से पकड़ा हुआ है। उसे ही मुद्रा कहते हैं जो तरह-तरह की होती हैं। शिल्प में सबसे अधिक बोलती मुद्राएँ होती हैं। इसमें काल का इस्तेमाल मुद्राओं के संकेतन को व्यक्त करने किया जाता है।
उदयन : इसी प्रसंग में वास्तुकला क्या है?
नवज्योति : वास्तुकला में जीवन भरा पड़ा है। उसका साम्य नाटक से है जो बाहर से कालिक और अन्दर दैशिक। वास्तुकला में इससे उलट है। दैशिक और कालिक कलाओं की निर्मिति में उपयोग में आने वाले भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ एक अन्तर यह है कि कालिक कलाएँ स्थूल शरीर से बनती है और दैशिक कला स्थूल पदार्थों से बनती हैं पर वे पदार्थ निर्जीव होते हैं। नृत्य, संगीत में शारीरिक क्रियाएँ किसी जीव की शारीरिक क्रियाओं से बनती हैं। दैशिक कलाओं का शरीर निर्जीव पदार्थों से बनता है। कालिक कलाओं में मानवीय शरीर का उपयोग होता है। आपको अभिनेता चाहिए, नर्तक/नर्तकी चाहिए, संगीतकार चाहिए, उसी जगह चाहिए जहाँ संगीत, नृत्य या नाटक हो रहा हो। पश्चिम में इसको उलटने की कोशिश हुई। संगीत लिख दिया है, सारी संगीत रचनाओं की स्वरलिपियाँ बना दी गयी। आप उसे कभी भी गा/बजा लीजिए। लेकिन इनमें भी शरीर तो चाहिए भले ही किसी और का शरीर ही क्यों न हो।
उदयन : अब वास्तुकला के विस्तार में जाना चाहिए। आपने शुरू में इस पर कुछ-कुछ कहा ज़रूर है पर इस पर विस्तार से विचार ज़रूरी है। यह बेहद व्यापक कला है।
नवज्योति : वास्तु सबसे विचित्र कला है। सबसे प्रचलित कला है। चित्रकला उतनी प्रचलित नहीं है। अब तो चित्र सब ओर हैं पर अब चित्रकला फोटोग्राफ़ी हो गयी है, कम-से-कम लोकप्रिय स्तर पर। आजकल चैत्रिकता (विजुएलिटी) बढ़ गयी है। कालिक कलाएँ कम हो गयी हैं। संगीत कम हो गया। संगीत लोग अवश्य सुनते हैं पर कलात्मक दृष्टि से संगीत में भी प्रयोगात्मकता कम है। ‘सोनिक’ कथ्य भी बढ़ गया है। पर वास्तु पहले भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। वास्तुकला उपभोग के लिए बनी है। भोग के लिए बाकी सब कलाएँ भी बनी हैं पर उनमें दृष्टा के काल का सम्बन्ध वास्तु की तुलना में अलग है। वास्तु में दृष्टा का काल ज़रूरी नहीं है। यह ज़रूर है कि दृष्टा को वास्तु को समझने घर के अन्दर आना पड़ता है और वास्तु-पुरुष का उससे सन्निकर्ष होता है और उसमें काल लगता है। पर वास्तुकला का चिदाकाश वास्तु-पुरुष होता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि वहाँ चित्त-पुरुष को चिदाकाश कह देते हैं। ऐसे ही शिल्प में मूर्ति-पुरुष है या मुद्रा-पुरुष है। ऐसे ही वास्तु-पुरुष होता है, जो वास्तु का चिदाकाश होता है। उसमें समय तो चाहिए पर वहाँ (वास्तु के) सन्निकर्ष में दृष्टा के काल की हरदम माँग नहीं होती। बल्कि उसका उल्टा होता है। वास्तु-पुरुष की छाया में आप सो सकते हैं। आप अपना मन शान्त कर सकते हैं। ऐसा होना कला की बहुत बड़ी उपलब्धि है। सोना शरीर का धर्म है। इसकी मनुष्य को आवश्यकता होती है और वास्तुकला वह उसे देती है। यह इसलिए है क्योंकि दृष्टा के काल का सम्बन्ध वास्तुकला से बिल्कुल भिन्न है। वास्तुकला भी दैशिक है। वास्तु-पुरुष के सारे अंग तत्काल उपलब्ध रहते हैं। वे एक ही काल में या एक समय में उपलब्ध हैं। पर आपको उसका स्वाद लेने में कई पल लगेंगे। जो कई पल आपको चित्रकला और शिल्प में लगते थे, वे ज़रूरी थे। वास्तुकला में ज़रूरी नहीं हैं। आपको वास्तु-पुरुष के सन्निकर्ष में भले कुछ पल लगें, पर उस सन्निकर्ष में आप अपना काल हटा भी सकते हैं, आप वहाँ सो सकते हैं।
उदयन : आप वास्तुकला में अपने काल को स्थगित कर सकते हैं।
नवज्योति : यह उसकी बहुत बड़ी उपलब्धि है। इसीलिए यह सबसे लोकव्यापी कला है। इसकी ज़रूरत आपको हर रोज़ पड़ती है। वास्तु नैसर्गिक भी होती है। ऐसी वस्तुओं की व्यवस्था जिसमें आप अपने काल का समर्पण कर पाएँ, वह वास्तु-व्यवस्था है। जैसे चित्रकला में अन्दर-अन्दर काम किया जाता है, शिल्प में बाहर-बाहर वैसे ही वास्तु में अन्दर-बाहर दोनों में ही काम करना होता है। वह एक साथ नहीं हो सकता इसलिए कभी अन्दर काम होता है, कभी बाहर। इस कभी अन्दर कभी बाहर में कोई क्रम नहीं है। इसलिए वह कालिक भी नहीं है। जैसे श्वास होता है कि समय लगता है पर यहाँ वास्तु में अन्दर-बाहर में क्रम नहीं है। वास्तु ‘श्वासवान’ होता है। उसका चिदाकाश फड़कता है। कभी बाह्यमुखी होता है, कभी अन्तर्मुखी। इस फड़कने से ही वास्तु बनती है। एक ग्रन्थ है प्रणव-वेद। पाँचवा वेद है, जैसे नाट्यशास्त्र भी पंचम वेद है। यानी चारों वेदों से अलग। उसके अनुसार वास्तु में घनात्मक ईकाई होती है, जिसमें श्वास चल रही होती है। वह निर्जीव है पर उसमें श्वास चलती है। लेकिन श्वास में क्रम नहीं है। जैसे जीवों में श्वास चलती है, जिसमें पहले वे साँस भीतर लेते हैं फिर बाहर छोड़ते हैं, वहाँ श्वास क्रमिक है पर वास्तु में श्वास अक्रमिक है। यह एक विशिष्ट कल्पना है। वास्तु की घनात्मक ईकाई होती है, जो धड़कने लगती है। इन ईकाईयों को जोड़ कर वास्तु बनती है।
उदयन : यानी इसमें बहुत-सी अ-क्रमिक श्वास लेती ईकाईयाँ हैं।
नवज्योति : बिल्कुल। जब आप दीवार खड़ी करते हैं तो वह अन्दर भी है और बाहर भी है। आप उसमें जो द्रव्य डाल रहे हैं, वह अन्तर्मुख भी है, बाह्यमुखी भी। पर एक साथ अन्तर्मुखी और बाह्यमुखी नहीं है। वह कभी अन्तर्मुखी होता है, कभी बाह्यमुखी। वह वैकल्पिक है। जैसे खिड़की है, उसका मुँह खुला हुआ है, या वास्तु की नाक खुली हुई है जिससे सामग्री अन्दर आती है, बाहर जाती है। वास्तु में ऐसी घनात्मक ईकाई होती है। आप रहने के लिए घर बनाते हैं। उसकी परिधियाँ अन्दर-बाहर भिन्न हैं। पहले सोने के लिए भीतर जाते थे, जीने के लिए बाहर आते थे। आते-जाते समय घर खुले होते थे। वनवासी लोगों के घर तो अभी भी ऐसे ही होते हैं। पुराने गाँवों में घर ऐसे ही हुआ करते थे। अन्दर तो कभी-कभी जाते थे। बाकी सभी कामकाज बाहर होता था। चूल्हा, खाना-पीना, नहाना सब बाहर। बैठना गप्प मारना आदि। वह सारा परिवेश मिलकर ही वास्तुकला बनती है। उसका सम्बन्ध ‘रहने’ से है। आप जहाँ भी रहते हैं, वह वास्तु है। आप बाहर भी घूम रहे हैं तो वह वास्तु है। सड़क भी वास्तु है, बगीचे भी वास्तु है, इन सब चीज़ों में वास्तु है। आजकल लोग उसे लैण्डस्केपिंग कहते हैं। सड़क पर भी वास्तु होती है। कई-कई ऐसी सड़कें होती हैं, जिन पर बहुत दुर्घटनाएँ होती हैं, वहाँ वास्तु-पुरुष को शान्त करना पड़ता है। उसका इलाज करना पड़ता है। अन्दर-बाहर, बाहर-अन्दर आना-जाना, यह वास्तु है। कभी अन्तर्मुखी हो जाओ, कभी बाह्यमुखी। जैसे यह प्रश्न उठता है कि ‘स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी’ वास्तु है या शिल्प। दूर से देखो तो वह शिल्प दिखता है, पर उसके अन्दर जाकर आप ऊपर तक चढ़ गये तो वह वास्तुकला हो गयी। अगर आप उसे बाह्यमुखी देखो तो वह शिल्प हो गयी और अगर अन्दर जाकर आपने कुछ खा लिया, या आराम किया, वहाँ कुछ देखा तो वह अन्तर्मुखी हो गयी। उसकी परिधि (एन्क्लोज़र) दोनों ही हैं। और उसके डिस्क्लोज़र या वास्तु के चिदाकाश में एक विशेष उपलब्धि होती है : आपको उसमें सान्त्वना मिलती है। वहाँ आपको अच्छा लगता है। यह अच्छा लगना चित्रकला और शिल्प कला में भी होता है पर थोड़ा होता है और वह दृष्टा के काल के खर्च पर होता है। वास्तु में दृष्टा का यह काल व्यय नहीं होता। लेकिन कुछ ऐसी वास्तु भी होती हैं, जो परेशान कर देती हैं। कुछ वास्तु आपको व्यस्त कर देती है। कुछ ऐसी होती है, जो पलायन करवा देती है। वास्तु में तरह-तरह के गुणात्मक चिदाकाश होते हैं।
उदयन : काल के समर्पण के अलावा वास्तु के और कौन-से तत्त्व होते हैं? काल के समर्पण का एक असर यह भी होता है कि दूसरे का काल आपको पूरी तरह ग्रस सकता है, जिससे ‘भूत-बंगला’ जैसी सम्भावना उत्पन्न होती है। यह सम्भावना केवल वास्तु में है, शिल्प में नहीं। चित्र में भी नहीं है।
नवज्योति : उन कलाओं में वि-मत हो सकता है पर वहाँ ‘हॉण्टिंग’ नहीं है। यह वास्तु में ही सम्भव है कि आप कहें कि ‘हर घर कुछ कहता है’ या ‘दीवारों के भी कान होते हैं’ आदि।
उदयन : शिल्प के कान नहीं होते।
नवज्योति : जैसे शहर का द्वार होता है, उसे लोग शिल्प कहते हैं पर वह वास्तु होता है...
उदयन : क्योंकि वह शहर को वास्तु में बदल रहा है...
नवज्योति : लोग उसके ऊपर उभरे हुए आकार देखते हैं...। जहाँ भी इन कलाओं का मिश्रण होता है, वहाँ इनके तत्त्वों के कारण विश्लेषण करने में आसानी हो जाती है। जैसे ‘एम्बोस्ड’ चित्र जो तमिलनाडू में बहुत किया जाता है, लोक कलाकारों को यह सिखाया जाता है, उसके ऊपर वे कुछ मोती आदि लगा देते हैं। वह शिल्प और चित्र के बीच की कृति है। उसी तरह शिल्प और वास्तु के बीच की कृति या चित्र और वास्तु के बीच की कृति। ऐसे कई भ्रामक कला-रूपाकर बनते हैं। इन तत्त्वों की समझ के कारण उनका विश्लेषण बेहतर हो जाता है। जैसे ‘रिलीफ़’ होते हैं। या ‘म्यूरल’ होते हैं, वे शिल्प हैं या चित्र हैं। उन कृतियों का विश्लेषण इन तत्त्वों के कारण अच्छे से हो जाता है।
उदयन : जैसे साँची में पत्थरों पर ‘रिलीफ़’ है...
नवज्योति : एलोरा में पूरा का पूरा पहाड़ काट दिया गया है। वह वास्तु है। उन्होंने मन्दिर पहाड़ काट कर बनाया है। श्रमण बेला-गोला भी पहाड़ काटकर बनाया गया है, वह बहुत ही बड़ा है। पर वो वास्तु नहीं, शिल्प है।
मैं पिछले साल बच्चों को लेकर बाहुबली दिखाने गया था, कनार्टक में। वह मूर्ति एक पत्थर की बनी है। वह बहुत ऊँचा है। वहाँ पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़कर जाया जाता है। हम लोग हज़ारों सीढ़ियाँ चढ़ कर वहाँ ऊँचाई पर पहुँचे। हम ऊपर पहुँचे ही थे कि बारिश शुरू हो गयी। मूसलाधार बारिश! इतनी अधिक मूसलाधार कि कहा नहीं जाए। हम वहाँ ऊपर केवल दस-बारह लोग ही थे। पुजारी वगैरह मिलाकर। वहाँ बैठने की जगहें थे। लोग बैठ गये थे। बारिश पूरे शोर के साथ हो रही थी। खूब पानी भरने लगा। लेकिन तब भी क़रीबन तीस प्रतिशत मूर्ति पर पानी नहीं गिर रहा था। उसके कुछ इलाकों पर पानी गिर रहा था, कुछ पर नहीं। उतने अंश सूखे थे। मूर्ति के पेट पर उभार हैं, उनमें से कुछ पर गिर रहा था, कुछ पर नहीं। परम्परा में शिल्प पुरुष को स्थापित करना होता है। अगर आपने परिवेश को तराश कर शिल्प बनाया है, आपने मूर्ति के चारों ओर का पहाड़ हटा कर शिल्प बनाया हो, उस शिल्प के बनने के बाद उसकी प्राण प्रतिष्ठा करनी थी। शिल्प-पुरुष को निकालना होता है। उसके लिए अभिषेक होता है। शिल्प के ऊपर से दूध डालते हैं, घी डालते है और भी क्या-क्या डालते हैं। ये सारी सामग्रियाँ मूर्ति की सारी सतह छू लें, ऐसा किया जाता है। इन सामग्रियों से सारी सतह छू ली गयी, उसके बाद उसमें चिदाकाश ठहर जाता है। उसके पहले तक वह मूर्ति में ठहरता नहीं है। जब यह मूर्ति बनी, ह्वसेला राज्य था। उनका प्रधानमन्त्री था चामुण्ड राय। उसने यह मूर्ति बनवायी थी। ये जैन लोग थे। उनकी एक रानी वैष्णव हो गयी थी। उनकी मूर्ति बेहद खूबसूरत है, उनका नाम था शान्तला देवी। उस शिल्प में जो मुन्दरी है, पत्थर की, उसे हिलाया जा सकता है। उस विराट बाहुबली की मूर्ति का जिसका हम ज़िक्र कर रहे थे, उसका अभिषेक हो नहीं पा रहा था। बहुत कोशिश की गयी पर वह नहीं हो पाया। उसकी सारी सतह को दूध या घी से छू पाना हो नहीं पा रहा है। इससे बड़ी बेचैनी हो गयी। चामुण्ड राय और उसके लोग परेशान हो गये। कई साल गुज़र गये। अभिषेक की पचासों कोशिशें हुईं पर सब विफल। उसकी माँ ने कहा कि यह अभिषेक तब ही हो पायेगा, जब चामुण्डा राय का यह अहंकार कि ‘मैंने इसे बनवाया है’, ख़त्म हो जायेगा। उनका कहना था कि मेरे बेटे (चामुण्डा राय) का अहंकार ही अभिषेक में बाधा बन रहा है। चामुण्ड राय को यह बात समझ में आ गयी और उसने अपना अहंकार छोड़ा तब जाकर पूर्ण अभिषेक हो पाया। यह इसलिए बताया कि प्राण प्रतिष्ठा में कैसी-कैसी मुश्किलें आती हैं। बाहुबली का अभिषेक हर दस साल में होता है। पहला मस्तकाभिषेक होता है जिसमें मूर्ति के ऊपर से घी या दूध डाला जाता है पर इस मूर्ति ऊपर से डालने भर से अभिषेक नहीं होता। आपको नीचे से भी डालना पड़ता है।
उदयन : आप वास्तु-पुरुष को शान्त करने की बात कर रहे थे। वह क्या है?
नवज्योति : आजकल शान्ति के लिए स्टेंडर्ड ढँग वैदिक मन्त्र है, शान्ति-सूत्र। उसे पढ़ दिया जाता है। लेकिन प्रणव वेद (पंच वेद) की अपनी पद्धतियाँ थी, वास्तु-पुरुष को शान्त करने की। प्राण प्रतिष्ठा की भी। जब दूसरी विज्ञान कांग्रेस हुई थी, उसके दो शुभारम्भ हुए थे। एक में मैं और मेरा लड़का यजमान थे। उसमें कुल मिलाकर दो-तीन दर्शक थे। उसके एक-डेढ़ घण्टे बाद पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमण ने विज्ञान कांग्रेस का औपचारिक शुभारम्भ किया था। उसमें दो-चार हज़ार लोग थे। चैन्नई आई.आई.टी. के पास एक पार्क है, दूसरी ओर राजभवन है। बीच में एक जगह है गाँधी मण्डपम्। उसी के आगे अन्ना विश्वविद्यालय का फाटक है। उस मण्डपम् पर गणपति स्थपति के पिता को कहा गया कि गाँधी के पूरा होने पर मण्डपम् बनाओ। राजगोपालाचार्य ने उनसे ऐसा कहा था। पहले राजगोपालाचार्य भारत के गवर्नर थे पर धीरे-धीरे वे तमिलनाडू के ही गवर्नर रह गये थे। उन्होंने सोचा था, वहाँ गाँधी के नाम पर वास्तु-प्रतिष्ठा की जाए। कई यन्त्रियों, वास्तुविदों ने इसका विरोध किया। उनका कहना था कि यह स्थपति (गणपति स्थपति के पिता) मन्दिर आदि भले बना दें पर मण्डपम् अलग बात है। उसमें स्थायित्व यह कैसे लायेंगे। लेकिन राजगोपालाचार्य ज़िद पकड़ गये कि इतना बड़ा काम तो ये स्थपति ही करेंगे। लेकिन वह मण्डप बहुत बड़ी है और अभी भी है। उसके ऊपर कोई भी स्तम्भ नहीं है। उसके ऊपर छत है। उसे गणपति स्थपति के पिता ने ही बनाया है। आगे यूनानी रंगमंच की तरह बैठने की जगह है। मैं गणपति स्थपति के पास गया। उसने कहा कि हम पारम्परिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी कांग्रेस कर रहे हैं, आप वास्तु पुरुष को जाग्रत करो। उसका धन्यवाद करो, उसको हमारा संकल्प बताओ। उससे आशीर्वाद माँगों। उसी मण्डप में कांग्रेस का शुभारम्भ ऐसा होना चाहिए। गणपति स्थपति बोले, ‘ठीक है!’ स्थपतियों के अपने ब्राह्मण होते हैं जिन्हें विश्वब्राह्मण कहते हैं। वे अनुसूचित जाति के होते हैं। वे मैसूर में रहते हैं। हमें कहा गया कि उन विश्वब्राह्मणों को बुलाया जाए, वे यह सब कर सकते हैं। हमने उन्हें बुलाया, वे खुश होकर आ गये। हमने पूरा अनुष्ठान डिज़ाइन किया था। यह लिखा गया था कि क्या-क्या होगा। उस अनुष्ठान में उस मण्डप में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को बुलाया जायेगा। उनके साक्षित्व में वास्तु पुरुष को पुकारा जायेगा और वे विश्वब्राह्मण अपने प्रणव वेद से ऋचाएँ पढ़ेंगे। इससे वास्तु-पुरुष जाग्रत हो जायेगा। मैं उसका यजमान था। मैं और मेरा बेटा। उसमें संकल्प लेना होता है। वह क्या था? एक तो यह कि सारी कर्मठ जातियों के बीच मैत्री बने, उनमें सौहार्द्र बने। दरअसल वे आपस में कटे हुए हैं, यह कटाव ख़त्म हो। दूसरा संकल्प यह लिया कि इन जातियों के कौशल बने रहे, सब जगह पर। इन दो प्रतीज्ञाओं के लिए सारा अनुष्ठान डिज़ाईन किया गया था। इससे कांग्रेस की स्थापना हुई। क्या हुआ कि स्मित कोठरी वहाँ किसी तरह से आ गया। उसने इस अनुष्ठान की दो-एक तस्वीरें ले लीं। फिर यह चर्चा भी वहाँ थोड़ी बहुत हुई कि ये लोग कुछ रहस्यमय कर रहे हैं। संस्कृत वाले प्रणववेद को तुच्छ नज़र से देखते हैं। वे कहते भी हैं कि इन्हें संस्कृत आदि आती नहीं, ये क्या पंचम वेद कह रहे हैं। प्राणप्रतिष्ठा के समय वास्तुकार नहीं रहता। उसे ब्राह्मण लोग आकर करते हैं। यजमान तो रहता है पर वास्तुकार नहीं। हम वहाँ पर विशेष कार्य कर रहे थे, वास्तु पुरुष को जगा रहे थे। हम यह उस मण्डप में कर रहे थे जिसे लेकर यन्त्रियों आदि में बहस हो चुकी थी।
उदयन : यानी वास्तु-पुरुष का यह अनुभव रहा होगा कि ऐसी बहसें कहाँ हो चुकी हैं।
नवज्योति : उसी के कारण वह मण्डप बना था। उसी पर हम अपनी पारम्परिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी कांग्रेस में विचार करने वाले थे। हम भी यही कह रहे थे कि इन्हें मान-सम्मान मिले। इसलिए वैसा आनुष्ठानिक शुभारम्भ करना बिल्कुल उचित था।

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