22-Mar-2023 12:00 AM
1967
जीवन में, मित्रता की अनन्यता के साथ, हमेशा उपस्थित रहे चित्रकार-मित्रों-को...
आसिफ़, आनन्द टहनगुरिया और अजय यादव की स्मृति
वह देख पाता तो देखता कि जेल की दीवार कितनी मजबूत और ऊँची है। ऊँची है इतनी जैसे छू रही हो आसमान। वह देख पाता तो देखता कि जेल की ऊँची दीवारों से देखो तो आसमान, छतरी-सा दिखता है। दिन में नीली और रात में काली छतरी-सा दिखता है आसमान। काली छतरी में, टंके रहते हैं, तारे और चन्द्रमा। नीली छतरी में, सूरज, चन्द्रमा, बादल और मौसम रहते हैं। वह देख पाता तो देखता कि जेल के ऊपर का आसमान हमेशा उदास रहता है। जेल के इस उदास-आसमान की काली छतरी में, तारे और चन्द्रमा दिखते तो हैं, पर उनकी चमक धुँधली होती है। जेल के इस उदास- आसमान की नीली छतरी में सूरज, बादल और मौसम आते तो हैं, पर आते है ऐसे, जैसे यहाँ आने का उनका मन न हो। पर अगर जाते हैं तो जाते हैं खुश होकर। चलो मुक्त हुए, आसमान के इस उदास-टुकड़े से जो जेल के ऊपर छतरी-सा तना है। और यहाँ बने रहने से आसमान की चमक धुँधली हो जा रही है। उदासी-सी धुँधली। धुँधले आसमान में, धुँधला जाते हैं- सूरज, बादल, तारे और चन्द्रमा। मौसम सारे धुँधला जाते हैं। वह देख पाता तो देखता कि मौसम किस तरह धुँधलाते हैं, आसमान के उस टुकड़े में जो जेल के ऊपर छतरी-सा तना है। वह देख पाता तो देखता कि जेल का आसमान धुँधलाते मौसमों का उदास-आसमान है।
वह देख पाता तो देखता कि हवा में कैसे नाचती हैं सूखी पत्तियाँ, जब हवा रचती है, अपनी हँसी का घेरा। रचती है धूल का बवण्डर। बवण्डर गोल-गोल घूमता। हवा के हँसी के घेरे में, धूल के बवण्डर और सूखी पत्तियों के धूसर रंगों का खेल, वह देख पाता तो देखता। वह देख पाता तो देखता, हवा के हँसी के घेरे से बाहर, नाचते-कूदते, भूत-भूत चिल्लाते, दूर भागते बच्चों को। जिन्हें गोल-गोल नाचता हवा की हँसी का घेरा लगता है भूत-सा कि जिसके भीतर हुए तो वह उड़ा कर ले जाएगा अपने साथ, जाने किस दुनिया में और इस दुनिया में वह बच्चा फिर कभी कहीं नहीं दिखेगा। वह देख पाता तो देखता कि बच्चे डरते तो हैं हवा के हँसी के घेरे से, पर हवा का हँसी का घेरा, बच्चों के लिए एक खिलखिलाता-खेल है।
वह देख पाता तो देखता कि बारिश जब पृथ्वी से टकराती है तो कैसे झमाझम मचलती है अपनी बूँदों में। मचलती बारिश की बूँदों में, भींगती है कैसे पृथ्वी। भीगे हुए फूल, पेड़, पौधे दिखते हैं कैसे, वह देख पाता तो देखता। वह देख पाता तो देखता कि कैसा दिखता है भीगा हुआ मनुष्य, इस पृथ्वी पर हो रही बारिश के बाद कैसा दिखता है आसमान, वह देख पाता तो देखता। वह देख पाता तो देखता कि बारिश बस रचती नहीं है सौन्दर्य। वह दुःख-दर्द भी रचती है। कई बार बहा ले जाती है, जीवन का बड़ा-सा हिस्सा। वह देख पाता तो देखता कि बह गये जीवन के बाद बची उस जगह पर, बचा रह जाता है मटमैला जल और कीचड़। मटमैले जल और कीचड़ में उभरे, मृत्यु के दृश्यों को वह देख पाता तो देखता।
वह देख पाता तो देखता कि कैसे उगते हैं पौधे, कैसे खिलते है फूल, कैसे पकते है फल। वह देख पाता तो देखता कि कैसे पेड़-पौधे, पर्वत, जंगल, मौसम-- रचते हैं रंग पृथ्वी पर। और पृथ्वी उनके रचे रंगों को कैसे सहेजती है। सहेज कर कैसे चमकती है पृथ्वी ब्रह्माण्ड में, वह देख पाता तो देखता। ब्रह्माण्ड का हर ग्रह पृथ्वी से ईर्ष्या करता है कि उसके पास जीवन है। मनुष्य है उसके पास। वह देख पाता तो देखता कि मनुष्य ने पृथ्वी को कितना धनी बना दिया है, अपनी बुद्धि और बल के उपयोग से। वह देख पाता तो देखता यह भी कि मनुष्य ने पृथ्वी को कितना निर्धन कर दिया है अपनी बुद्धि और बल के दुरुपयोग से।
वह देख पाता तो देखता कि मनुष्य की उपस्थिति पृथ्वी पर इस तरह है कि जैसे और किसी जीवित प्राणी की नहीं है। वह देख पाता तो देखता, मनुष्य का चलना, उठना, बैठना, नाचना, हँसना, मुस्कुराना...और यह समझ पाता कि अपने चलने, उठने, बैठने, नाचने, मुस्कुराने, हँसने में, हर मनुष्य कितना अलग है। है कितना मौलिक। वह देख पाता तो देखता खुद अपने चलने, उठने, बैठने, नाचने, मुस्कुराने और हँसने को, चाहे वह यह सब आईने में देखता या देखता कैमरे की नज़र से। वह देख पाता तो देखता आईना। कैमरे का जादू वह देख पाता तो देखता।
वह देख पाता तो देखता कि धूप कैसे उतरती है पृथ्वी पर और पृथ्वी में मौजूद हर वस्तु की छाया रचती है। वह देख पाता तो देखता कि मनुष्य कि छाया मनुष्य-सी रहती है हमेशा उसके साथ-साथ। वह देख पाता तो देखता, अपनी छाया को सुबह अपने सामने चलते हुए और शाम को अपना पीछा करते हुए। वह देख पाता तो देखता कि मनुष्य अपनी छाया में जीवित है कि अन्धकार में भी अदृश्य-सी उपस्थित हैं मनुष्य की छाया मनुष्य के साथ। मनुष्य की छाया ग़ायब तो पृथ्वी से ग़ायब मनुष्य। वह देख पाता तो देखता, मनुष्य के साथ ग़ायब होती मनुष्य की छाया को। वह देख पाता तो रख पाता, ग़ायब हो गये मनुष्य और उसकी छाया को अपनी स्मृति में। अभी वह मनुष्य की आवाज़ को रखता है अपनी स्मृति में, जब ग़ायब हो जाती है किसी मनुष्य की आवाज़ उसके आसपास से तो ग़ायब हो जाता है वह मनुष्य, उसके लिए पृथ्वी से।
वह देख पाता तो देखता स्त्री का सौन्दर्य। सौन्दर्य के वे खूबसूरत उतार-चढ़ाव जो सिर्फ़ स्त्री के पास ही होते हैं। वह देख पाता तो देखता, स्त्री की हँसी, स्त्री की मुस्कुराहट, स्त्री के दुःख। वह देख पाता तो देखता। वह देख पाता तो देखता स्त्री के आँसू। वह देख पाता तो देखता कि स्त्री की आँखों में होता है, एक ऐसा समुद्र जो अपनी इच्छा पर, कभी आसमान, कभी जंगल, कभी पहाड़, कभी नदी, कभी झरना, कभी मन के सुनसान में बदल सकता है...तो वह देख पाता तो देखता कि स्त्री की देह से ज़्यादा मुखर होती हैं, स्त्री की आँखें। स्त्री की आँखों में, अपनी लहरों से जीवन को थपथपाता समुद्र होता है। इस थपथपाहट के बिना सूना रहता है पुरुष का जीवन। पुरुष का जीवन कई बार इस जीवन को थपथपाते समुद्र की खोज में ही नष्ट हो जाता है।
वह स्त्री को स्पर्श से और आवाज़ से जानता है। स्पर्श और आवाज़ के तिलिस्म में, वह खोजता रहता है अपने लिए जीवन को थपथपाते समुद्र को जो उसके भीतर बसे अँधेरे में आवाज़ और स्पर्श के जुगनुओं-सा चमकता है कभी-कभी।
वह देख पाता तो देखता कि एक नन्हें बच्चे के पास होती है, सबसे पवित्र, सफ़ेद फूल-सी धवल मुस्कान। ऐसी मुस्कान, ईश्वर के पास भी नहीं रहती है। ईश्वर इस बात पर शर्मिन्दा रहता है कि उसके पास नहीं है बच्चे-सी पवित्र मुस्कान। वह देख पाता तो देखता फ़ोटो में किस तरह ठहर सकती थी उसकी बचपन की मुस्कान, पर उसके बचपन की कोई फोटो कभी खींची ही नहीं गयी है। इस तरह उसके बचपन की मुस्कान गुम गयी बचपन में ही। ना गुमी रहती तो भी वह उसे देख नहीं सकता था कि वह बचपन में जब मुस्कुराता था तो कैसा दिखता था। वह अपनी उस फूल-सी मुस्कान को जो उसके बचपन के पास थी, बिना देखे बहुत पहले ही खो चुका है। अब जो मुस्कान उसके पास है, वह कब, कितने पहले उसके चेहरे पर आयी, यह उसे याद करना पड़ेगा। सच यह है कि उसे मुस्कुराए बहुत दिन हो गये। वैसे भी थका और हारा आदमी इस तरह मुस्कुराता है, जैसे बस अब रोने वाला हो।
पर वह देख पाता तो भी यह नहीं देख सकता था कि ईश्वर कैसा दिखता है। सच में ईश्वर, मनुष्य की कल्पना के बाहर क्या है? अगर ईश्वर ने ही उसे रचा है तो आँखें रचना कैसे भूल गया? यह एक बड़ी भूल थी, जिसके लिए ईश्वर को क्षमा नहीं किया जा सकता है।
ईश्वर जो क्षमा योग्य नहीं था, उसकी कल्पना में एक काले डोलते मनुष्य-आकार-सा आता था जो कुछ-कुछ उसकी तरह ही था। थोड़ा अजीब और पूरा अन्धा। जो बिना देखे, स्पर्श से वस्तुओं को रच रहा था और लगातार ग़लतियाँ कर रहा था। ईश्वर अक्षमता के मामलों में, उससे एक कदम आगे ही था कि उसके पास कान नहीं थे और ना ही स्पर्श था उसकी हथेलियों में। तो इस तरह ईश्वर देख तो पाता नहीं था और ना किसी को छू कर महसूस कर पाता था। वह सुन भी नहीं पाता था कोई आवाज़ या किसी की आवाज़़। तो उससे ज़्यादा बुरी स्थिति में ईश्वर था और इसके बावजूद, आँख वालों का उस पर इतना भरोसा था कि ईश्वर खुद अटपटा महसूस करता था।
उसका भरोसा ईश्वर पर बिलकुल नहीं था। उसकी माँ को था और अन्धे बाप को भी था। उसका बाप ढपली बजाते हुए, सूरदास के पद गाता रहा था जीवन भर। यहाँ तक कि जब वह ट्रेन के नीचे आकर मरा तो भी सूरदास का पद गाते हुए, ईश्वर को पुकार रहा था। मनुष्य ईश्वर को दोष नहीं देता था। जीवन में, कुछ अच्छा होता तो वह ईश्वर को उस अच्छे का श्रेय देते हुए, ईश्वर के प्रति कृतज्ञ बना रहता था। बुरा होता तो वह अपने ही भाग्य को कोसता था कि उसका भाग्य ही ख़राब है तो ईश्वर भी क्या करेगा।
अन्धों की दुनिया में भी ईश्वर की उपस्थिति ठीक इसी तरह थी। ईश्वर एक लाठी-सा उपस्थित था वहाँ भी। अन्धे, यह भरोसा करते थे कि अगर ईश्वर चाहे तो आँखें उन्हें वापस मिल सकती हैं। वे मानते थे कि इस जन्म में अन्धा पैदा होना, पूर्व जन्म के किसी पाप की सज़ा है, जिससे सिर्फ़ ईश्वर ही मुक्त कर सकता है...वह देख पाता तो ईश्वर के सामने काँपती-सी उपस्थित, अन्धों की इस दयनीयता को भी देख सकता था। देख सकता था कि अन्धों की रोती-गाती भीड़, जाने कितने युगों से, ईश्वर को पुकार रही है। जाने कितने युगों से माँग रही है ईश्वर से आँखें।
वह जन्म से अन्धा हैं। वह अपने चेहरे को टटोल रहा है जन्म से। टटोल रहा है अपनी समूची देह। वह जानता है कि उसकी देह अद्भुत उतार-चढ़ावों से बनी है। ऐसे उतार-चढ़ाव जो जहाँ खत्म होते हैं, वहीं से फिर शुरू हो जाते हैं : देह के अनन्त उतार-चढ़ाव। सिर के बालों से लेकर, पैर के नाखूनों तक फैले उतार-चढ़ाव। देह जैसे हर दिन अपने को बदलती है। देह जैसे भीतर ही भीतर भागती है। एक अन्धा आदमी अपनी भागती हुई देह को कभी नहीं पकड़ सकता। भागती हुई देह को, आँख वाला आदमी भी, कभी नहीं पकड़ सकता है। देह ही उसे पकड़ती है और बताती है कि वह उसके पास से खोती जा रही है। आँख वाला आदमी उसे बचाने की जतन करता है, पर बचा नहीं पाता और आख़िरकार खो देता है। अन्धे आदमी को उसकी देह कुछ नहीं बताती है कि अन्धे की देह, पकड़ ही नहीं पाती अन्धे के दिमाग़ को। अन्धा आदमी ही देह को पकड़ता है, अपने स्पर्शों से। अपने स्पर्शों से देह की आवाज़ सुनता है। सुनता है यह कि वह अपनी देह को धीरे-धीरे खो रहा है। वह स्पर्श से खोने की आवाज़ को सुनता है।
जन्म से वह दूसरों के चेहरों को, उनकी आवाज़ों से टटोल रहा है। वह सिर्फ़ आवाज़ें सुन रहा है जन्म से। कोई भी आवाज़ हो। हो कैसी भी। आवाज़ उसके कानों को छूते ही स्पर्श बन जाती है। वह आवाज़ सुनता है और उसे स्थूल में सोचता है। अगर मनुष्य की आवाज़ है तो वह उस आवाज़ से, उस मनुष्य के चेहरे को रचने की कोशिश करता है और यह रचाव उसके अपने चेहरे के उतार-चढ़ाव के आसपास घटित होता रहता है। अगर पानी के गिरने की आवाज़ है तो वह हथेली में गिरती बूँदों को सोचता है। सोचता है पानी का गीलापन। वह पानी में भीगने से पहले, पानी की गीली आवाज़ से भीग जाता है। उसने धूप को नहीं देखा है। नहीं देखा है सूरज को। चन्द्रमा को भी नहीं देखा है। उसने सुबह और शाम को नहीं देखा है। उसने मनुष्य को नहीं देखा है। उसने इन्हें सुना है बस। सुना है उनसे जिनके पास आँखें हैं। इस तरह एक सुनी हुई दुनिया में, मनुष्य... धूप... सुबह... शाम... चन्द्रमा...तारे उसके भीतर आते और जाते हैं। सुनी हुई दुनिया में, मनुष्य...धूप... सुबह... शाम... चन्द्रमा...तारों का आभास, उसके भीतर आता और जाता है। सुनी हुई दुनिया से, दूसरों की देखी हुई दुनिया की तलछट उसके पास रहती है।
बहुत-सी चीज़ों को वह अपने स्पर्श से भी जानता है। हैं जो उसके आसपास। हैं जो उसके स्पर्श की हद में। वह अपने रास्ते में आयी वस्तुओं को, अपनी छड़ी से छूता है। छूता है फिर अपनी हथेलियों से। वह अपने दिमाग में उनका आकार रचता है। रचता है वह उनकी जगह वे कहाँ हैं। अगर कोई उस वस्तु को अपनी जगह से हटाए नहीं तो वह हमेशा उसके दिमाग में, उसी आकार की उसी जगह बनी रहेगी।
इसके बिल्कुल अलग, बहुत सी चीज़ें ऐसी भी हैं जो स्वयं छूती हैं उसे। धूप छूती है उसे : वह सूरज को महसूस करता है। छूती है हवा उसे : वह मौसम को महसूस करता है। छूती है गन्ध उसे : वह सुगन्ध-दुर्गन्ध को महसूस करता है। छूती है आवाज़ उसे : वह महसूस करता है मनुष्यों को, पशु-पक्षियों को और उन वस्तुओं को जिनके भीतर है आवाज़। रोशनी भी छूती है उसे, पर वह रोशनी को महसूस नहीं कर पाता है।
अगर हमारे पास पूरा शरीर है, पर आँखें नहीं हैं तो हमारे पास बहुत-कुछ नहीं रहता है। दुनिया में कितने-सारे रंग है। रंग आपस में मिलकर नया रंग रच लेते हैं। रंगों की असंख्य छवियाँ हैं। पर अन्धे के पास रहता है, बस एक ही रंग। एक ही रंग रहता है : गहरा काला रंग। कोलतार की तरह काला और चिपचिपा। चिपचिपा इतना कि हम कभी उसे अपने मन से छुड़ा नहीं सकते। कितना भी उसे खींच लो वह मन से जुड़ा ही रहता है--रबड़-सा। खीचो-तानो और फिर छोड़ो, तो वापस वहीं। कितनी भी कोशिश कर लो, उसे मन से बाहर खींच पाना मुश्किल ही है। और हम कभी यह नहीं समझ पाते हैं कि यह जो काला है, बहुत से रंगों की तरह, पृथ्वी पर एक रंग ही है। तो आवाज़ें जो बन जाती हैं एक अन्धे की देह का स्पर्श, काले रंग की विविधता को रचती हुई ही बनती हैं स्पर्श। बिना आँख के आदमी के लिए, स्पर्श और आवाज़, काले रंग की विविध छवियाँ हैं। इन छवियों में ही, पृथ्वी को महसूस करता है एक अन्धा आदमी। एक अन्धे आदमी के पास, मनुष्य, पशु-पक्षी और वस्तुओं की आवाज़ ही उनकी पहचान है। अगर वह उन्हें स्पर्श कर पाया तो स्पर्श ही आकृति की पहचान है। आवाज़ और स्पर्श, यह दो छोरों पर, वे चीज़ें है, जिनके बीच हवा में, तनी हुई रस्सी पर, एक अन्धा आदमी जीवन भर चलता है। गिरता है औंधे मुँह और गिरकर फिर उसी रस्सी पर चढ़ता है। यह जो स्पर्श और आवाज़़ की रस्सी है, उसके जन्म से मृत्यु तक तनी हुई रस्सी है। यही तनी हुई रस्सी उसका जीवन है।
वह अन्धा है। उसका बाप भी अन्धा था। माँ के पास आँखें थीं। पर कई बार वह अपनी आँखों को खोने की सोचती थी कि वह उन जैसी हो सके। आँखें थीं, फिर भी माँ के हाथों में एक डण्डा रहता था। जिसका एक छोर माँ के हाथ में था और दूसरा बापू के हाथ में। माँ अपने आँखों के साथ, एक छोर को पकड़े आगे चलती थी। बापू दूसरे छोर को पकड़ा, माँ के पीछे चलता था--बिना आँखों के। दो लोगों के बीच, एक के पास ही आँख थी। दो लोग, एक जोड़ी आँख के साथ, ट्रेन के आने पर, प्लेटफार्म पर, इस छोर उस छोर होते रहते थे। उसका अन्धा पिता, अपने दाहिने हाथ में पकड़े, जर्मन के कटोरे को हिलाता रहता, जिससे सिक्कों की खनक की आवाज़ बिखरती रहती। सिक्कों की खनक से जर्मन का वह कटोरा बदरंग हो चुका था-- जगह-जगह से। पर यह सिक्कों की बिखरती आवाज़, लोगों की भावना को दिशा देती थी। दया की दिशा। और अन्धे पिता के हाथ के कटोरे में सिक्के बढ़ते जाते थे। माँ के चेहरे से कातरता टपकती थी लगातार। वह भी अपने दाहिने हाथ के कटोरे को, अपने माथे की ओर ले जाते हुए, सिक्कों की आवाज़ बिखेरती रहती थी। प्लेटफ़ार्म में, जितनी ट्रेन आतीं- सुबह से लेकर शाम तक, वे दोनों इस प्लेटफ़ार्म से उस प्लेटफ़ार्म तक दौड़ते रहते। बाकी समय प्लेटफ़ार्म के बाहर बैठे रहते एक जगह पर जो दो नम्बर प्लेटफ़ार्म जाने वाली सीढ़ी के नीचे थी और एक नम्बर प्लेटफ़ार्म में नहीं जाने वाले सभी यात्री, इसी सीढ़ी से दो से पाँच तक के प्लेटफ़ार्म के लिए जाते थे। कटोरे में अक्सर खाने का सामान भी गिरता था, यह बचा-खुचा रहता, पर अगर ताज़ा रहता तो उस बचे-खुचे के पास उन्हें पूरा स्वाद मिलता था। अगर खाना उतरा होता तो उसे वे फेंक देते और मन ही मन, देने वाले को गालियाँ बकते और कोसते थे। पता नहीं उनकी गालियों और कोसने का असर, उतरा खाना देने वाले पर क्या होता था...वह चलते-चलते गिर पड़ता था या नहीं...उसके मुँह में कीड़े पड़ते थे या नहीं...पर अन्धे और उसकी पत्नी के भीतर गाली देने के बाद, एक गहरा सन्तोष आता था...यह लगभग कुछ इस तरह का सन्तोष था जो भर पेट खाने के बाद आता है...
इन दोनों ने ही उसे पैदा किया था। पाँच नम्बर प्लेटफ़ार्म के एक छोर पर, मालगाड़ी के एक छूटे हुए पुराने डिब्बे में उसका जन्म हुआ था, जिसमें उस शाम भी बाहर से इतना ज़्यादा गहरा अंधेरा था कि मालगाड़ी के उस डिब्बे के टूटे दरवाज़े से आती शाम की नीली रोशनी, उस अन्धेरे को दूर नहीं कर पा रही थी। माँ के ऊपर, माँ की साथिन भिखारी-औरतें झुकीं हुई थीं... माँ की प्रसव-पीड़ा उनके बीच से फूट रही थी, जैसे दर्द की चिंगारियाँ फूट रही हों... और इन दर्द की चीखती चिंगारियों के बीच वह पैदा हो गया था...माँ और भिखारिन औरतें पसीने से लथपथ थी, पर खुश थी... वे नवजात के रोने की आवाज़ को सुन रही थीं...गनीमत है कि वह मरा नहीं था और ज़िन्दा पैदा हुआ था...आमतौर पर भिखारियों के तीन में से दो बच्चे मरे हुए पैदा होते थे और उन्हें इसकी आदत हो गयी थी...वे मरे बच्चे पर नहीं चौंकते थे... पर जीवित बच्चा उन्हें चौंकाता था और खुश कर जाता था...
उसके पैदा होते ही किसी को यह पता नहीं चला कि वह अन्धा पैदा हुआ है। उसकी माँ को पता चला, पर उसमें समय लगा। सबसे पहले तो उस नन्हें-नवजात को ही पता चला कि वह अन्धेरे में उगती आवाज़ों के बीच है कि उसके लगातार हिलते हाथों और पैरों की लय और उसके रोने की आवाज़, दोनों ही--नहीं दिख रही आवाज़ों में, कहीं गुम हो रहे हैं। बच्चा पैदा होते ही अपने हाथों और पैरों से उन आवाज़ों को सुनने की कोशिश कर रहा था, जिन्हें वह देख नहीं पा रहा था और जो गहरे काले रंग में डूबी हुई थीं। यह जो गहरा काला रंग था, यह उस बच्चे के साथ ही पैदा हुआ था। एक बिना आँखों का बच्चा जब जन्मता है तो उसके साथ ही जन्मता है उसके हिस्से का काला गहरा रंग और उसकी मृत्यु तक उसके साथ बना रहता है।
माँ को जल्द ही पता चल गया कि जिस बच्चे को उसने पैदा किया है, वह चीज़ों को देख नहीं रहा है, बस सुन रहा है। एक अन्धे आदमी के साथ, वह दो बरसों से जीवन चला रही थी और अब अन्धों को इतना तो समझ ही गयी थी कि अपने बेटे के अन्धेपन को पहचान ले। माँ को, पहले से ही इस बात की आशंका थी कि भीख की सहुलियत में, जिस अन्धे आदमी को उसने अपने जीवन में अटका लिया है, उसके साथ सोने का यह परिणाम हो सकता है। जबकि वह यह चाहती नहीं थी कि उसका बेटा अन्धा पैदा हो। वह यह भी नहीं चाहती थी कि उसका बेटा भीख माँगे, जैसे वह और उसका अन्धा पति माँगते हैं। कोख के भीतर जब वह आ गया था, तब से वह स्टेशन पर जितने लोगों को रोज़ देखती, उनमें से कुछ को चुनती और जो आम तौर पर ‘एसी’ में यात्रा कर रहे लोग होते और कल्पना करती कि बेटा हुआ तो मैं उसे ऐसा बनाऊँगी और बेटी हुई तो ऐसी। एक भीख माँगती स्त्री का, इस तरह सोचना किसी को भी हास्यास्पद लग सकता था, पर सोचने में किसका बस है। सोचने से वह अपने को रोक नहीं पाती थी। यह अलग बात है कि माँ ने अपने अन्धे बच्चे के लिए जो सोचा वह कभी पूरा नहीं हुआ। बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता गया, अपने आँखों वाली माँ और बिना आँखों वाले बाप से, भीख माँगने के गुर सीखता गया। यह सीखने का एक सहज तरीक़ा था। बच्चा अपने आसपास से ही सीखता है, फिर बच्चा चाहे आँखों वाला हो या हो फिर अन्धा।
अध्याय- दो
ना देखने का बचपन
भीख माँगते पकड़ लिये जाने पर, माँ के हाथों उसकी पिटाई होती थी। तब वह जहाँ पर माँ की मार पड़ती, स्टेशन की ठीक उसी जगह उकड़ू बैठ देर तक रोता रहता था। यात्रियों की आवाजाही के बीच बैठा, इतना ज़्यादा रोता कि माँ को उसे उठाने वापस आना पड़ता। जब तक वह नहीं आती, वह रोता रहता। रोता अन्धा बच्चा, ज़्यादा दया पैदा करता था यात्रियों के भीतर। बिन माँगे भीख मिलने लगती। सिक्के गिरने लगते, रोते अन्धे बच्चे के आसपास। रोता अन्धा बच्चा, रोते-रोते सिक्के उठाता जाता। इस तरह माँ धीरे-धीरे हारती गयी और भूलती गयी अपने अन्धे बच्चे का भीख माँगना। अब वह रो-रो कर भीख माँगने लगा था। रोता-रोता अब वह प्लेटफ़ार्म की फर्श पर लोटने भी लगता था। लोट-लोट कर रोता अन्धा बच्चा और अधिक दया पैदा करता था। सिक्के उसकी देह पर गिरते थे, बरसते तो ख़ैर अब भी नहीं थे। हुआ यह कि अब वह ऐसा अन्धा बच्चा था जो जब चाहे तब, रो सकता था। अब उसे रोने के लिए माँ की पीटाई कि ज़रूरत नहीं थी। प्लेटफ़ार्म पर घुसती ट्रेन की सीटी की आवाज़ पर वह रो पड़ता था और तब तक रोता रहता, जब तक वह ट्रेन सीटी बजाती फिर प्लेटफ़ार्म से गुज़र ना जाती।
सच यह भी था कि उसकी माँ को यह ठीक-ठीक पता नहीं था कि वह अगर भीख ना माँगे तो उसकी जगह क्या करे? माँ ठीक-ठीक यह जानती नहीं थी कि रेलगाड़ी के ‘एसी’ डिब्बों से, जिन्हें उतरते या चढ़ते वह देखती थी, वैसा बना कैसे जाता है...उसकी माँ भी इसी स्टेशन पर ही पैदा हुई थी। इसी स्टेशन के प्लेटफार्मों पर ही भीख माँगते बड़ी हुई थी। माँ के पास भी, इस स्टेशन से बाहर की दुनिया ज़्यादा नहीं थी। दुनिया जितनी थी उसके पास, उसमें यह जानकारी नहीं थी कि चमकता हुआ आदमी कैसे बना जाता है...यह भी जानकारी नहीं थी कि चमकता हुआ आदमी क्या काम करता है...कि चमकता हुआ आदमी कहाँ और कैसे रहता है...
इस स्टेशन में उस जैसे ढेरों बच्चे थे जो भीख ही माँगते थे और कभी-कभी छोटी-मोटी चोरियाँ भी कर लेते थे। उन बच्चों को यह स्वीकार करने में कभी संकोच नहीं हुआ कि चोरी में ज़्यादा मज़ा है। भीख माँगने के लिए चेहरे को दयनीय बनाना पड़ता है, जबकि चोरी इस दयनीयता से बाहर घटित होती है और भीतर एक अदृश्य ताकत का एहसास होता है। यह अलग बात है चोरी करते पकड़े जाने पर, भीख माँगने से कई गुना ज़्यादा दयनीयता का सामना करना पड़ता है और पिटाई का कष्ट भी झेलना पड़ता है। पर वह अन्धा था और चोरी नहीं कर पाता था। चोरी के लिए आँखें ज़रूरी थीं। वह अपने साथी बच्चों से चोरी को सुनता था और उसका मज़ा लेता था। वे बहुत छोटी-छोटी चोरियाँ थीं। जैसे प्लेटफ़ार्म के दूकानदारों की आँख से बचा कर खाने का कोई सामान, बिस्किट का पैकेट, आलूगुण्डा, मुट्ठी भर भजिया आदि उठा लेना था। प्लेटफ़ार्म के बच्चे हमेशा भूखे रहते थे और खाने कि चीज़ों की ही चोरी करते थे। कभी-कभी कोई बच्चा, उसे भी चोरी की चीज़़ खिलाता और पूछता कैसा है? अच्छा, वह कहता। वह बच्चा इसलिए पूछता कि वह चोरी के बाद की उत्तेजना से लबालब भरा रहता था। पर वह अन्धा था और वह चोरी नहीं कर सकता था तो चोरी की गयी खाने की चीज़ और भीख माँग कर मिली खाने की चीज़ में, वह कोई अन्तर महसूस नहीं कर पाता था। दोनों उसे एक जैसी ही लगती थीं। जबकि जो बच्चे चोरी करते थे, उनके लिए, खाने की उस चीज़ में चोरी का अलग-सा स्वाद रहता था। वह भीख माँगने पर मिली चीज़ से, हमेशा उनके लिए ज़्यादा स्वादिष्ट बने रहती थी।
किसी चीज़ का कहीं पड़ा मिल जाना तो चोरी नहीं थी। चीज़ें आँखें ना होने के बावजूद, उसे मिलती रहती थीं। इसमें वह अपने साथी बच्चों से ज़्यादा भाग्यवान था। प्लेटफ़ार्म में यात्रियों से छूट गयी चीज़ें, उसे ढूँढ लेती थीं। वह प्लेटफ़ार्म टटोलता तो वे मिल जाती थीं। ऐसा रोज़ नहीं होता था, पर होता रहता था। यह कभी-कभार से थोड़ा ज़्यादा ही होता था। उसे लगता था चीज़ें उसके लिए पड़ी रहती हैं, जब तक उन्हें वह टटोलकर पा ना ले। चीज़ें एक अन्धे बच्चे का इन्तज़ार करती रहती हैं कि अन्धा बच्चा पाएगा उन्हें और टटोलेगा कौतुक से, जैसा कोई आँख वाला कभी नहीं टटोल सकता है। चीज़ें एक अन्धे बच्चे के स्पर्श का इन्तज़ार करती हैं और सिर्फ़ इसलिए वे अपने असली मालिक के हाथों से छूट जाती हैं। असली मालिक उन्हें ढूँढता रहता है और वे एक अन्धे बच्चे के स्पर्श के नीचे दुबकी पड़ी रहती हैं।
जब एक बार उसे एक घड़ी मिली थी, एक बेंच में पड़ी टिक-टिक बजती रू अकेली तो उसने उसे बहुत डर कर छुआ। उसके छुअन के नीचे वह गोल थी और गोल को बाँधने के लिए चमड़े का पट्टा था। उसकी छुअन के नीचे वह चीज़ उसके लिए नयी थी। अब तक मिली सारी चीज़ों से वह अलग थी। तुरन्त उसे उसने अपनी हाफ़ पेंट की जेब में डाल लिया था। यह ज़रूरी था, नहीं तो आँखों वाले भिखारी बच्चे, उसे मिली चीज़ को छीन कर भाग जाते थे बेआवाज़ और वह कभी पता नहीं लगा सकता था कि किस बच्चे ने उसकी चीज़ छीन ली है। प्लेटफ़ार्म में आमतौर पर इतना शोर बना रहता था कि उनके पदचाप से भी उन्हें पहचानना मुश्किल था, जिसमें इधर वह माहिर होता गया था। सबसे पहले उसकी माँ और पिता के पदचाप की पहचान उसके भीतर जागी थी, फिर वह इस गुण को साधने लगा और अब इस प्लेटफ़ार्म के बहुत से लोगों को उनके पदचाप से पहचान लेता है। भिखारी बच्चे भी इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि यह अन्धा तब तक पहचान नहीं सकता, जब तक आवाज़ न हो। वह प्लेटफ़ार्म के अपनी साथी बच्चों को, उनकी आवाज़ से ही, उनके नाम को जोड़ते हुए पहचानता था। बहुतों को उनकी आवाज़ से और कुछ को उनके पदचाप से भी। पर जब घड़ी मिली तो वह खुद आवाज़ कर रही थी। उसके जेब से बाहर भी घड़ी की टिक-टिक की आवाज़ गिर रही थी। गनीमत है कि किसी बच्चे का ध्यान, घड़ी की इस गिरती आवाज़ की ओर नहीं गया। हो सकता है, कोई बच्चा आसपास रहा ही ना हो तो घड़ी बच गयी और वह उसे अपनी माँ के पास ले जा पाया, यह पूछने कि यह क्या है?
माँ के मुँह से घड़ी देख जो पहला शब्द निकला, वह था, ‘वाह, वाह’
वह एक सुनहरी घड़ी थी, सुनहरे पट्टे वाली। माँ की ‘वाह’ इसलिए थी कि घड़ी देखते ही उसे लगा था कि वह ठीक ठाक पैसा देकर जाएगी। वह जानती थी कि इस घड़ी को कोई नहीं पहन सकता था। पहने और फँसे। कोई भी पुलिस वाला कलाई में घड़ी देखते ही पकड़ लेगा। चोरी का इल्ज़ाम लगाते हुए, हाथ उठाएगा और घड़ी छीन लेगा। फिर पुलिस वाला उसे बेधड़क पहन कर घूमेगा, जैसे उसने उसे खरीदा हो। छीनने का अधिकार, छीनी हुई वस्तु को, अपनी समझ लेने का, अनैतिक-अधिकार पैदा करता है। यह अनैतिकता, नीचे से ऊपर तक फैली हुई है। अगर पुलिस का सिपाही एक भिखारी से घड़ी छीन सकता है तो सिपाही से हेड कान्स्टेबल घड़ी छीन सकता है और हैड कान्सटेबल से, सब इंस्पेक्टर घड़ी छीन सकता। इसी तरह सब इंस्पेक्टर से इंस्पेक्टर...अपने से कमज़ोर से छीन लो कि तुम जहाँ कमज़ोर हो, तुमसे कोई दूसरा छीन रहा है जो तुमसे ज़्यादा ताक़तवर है। यह एक अनन्त सिलसिला है, जिसका ओर-छोर पता नहीं चलता है। यह सिलसिला पूरी दुनिया में कायम है। यह सिलसिला इस स्टेशन पर भी कायम है।
‘वाह’ के बाद माँ बहुत देर ठिठकी रही। वह खा रही थी कुछ - तीन नम्बर के सूने प्लेटफ़ार्म पर बैठी। अकेली। ‘वाह’ शब्द उसके कौर से भरे मुँह को पार कर बाहर आया था। अब वह सोच भी रही थी। अपने बेटे से घड़ी, वह अपने हाथ में ले चुकी थी और उसे ग़ौर से देख रही थी। घड़ी महँगी लग रही थी। उसके अन्धे बेटे को, यह अब तक पता नहीं था कि घड़ी को कलाई में पहनते हैं और ना उसे यह बताना है। नहीं तो वह घड़ी पहनने कि ज़िद कर सकता है। बच्चे की ज़िद पूरा करने गयी तो मुसीबत ही आएगी। सुनहरी घड़ी पूरे प्लेटफ़ार्म पर फैल जाएगी। प्लेटफ़ार्म पर तब सिर्फ़, सुनहरी घड़ी कि टिक-टिक ही सुनायी देगी और बाकी सब आवाज़ें ग़ायब हो जाएँगी। यहाँ तक कि रेलगाड़ी के जाने और आने की आवाज़ भी नहीं बचेगी। वह भी घड़ी की टिक-टिक के नीचे दब जाएगी। ऐसा ही होता है और ऐसा ही होगा।
‘क्या है...’, माँ की लम्बी चुप्पी को पार कर उसने फिर पूछा। उसका सिर लगातार ऊपर-नीचे हिल रहा था एक लय में, अपने अन्धेपन को, अपनी जिज्ञासा से टटोलता।
‘यह घड़ी है...कहाँ मिली?,’ माँ ने पूछा।
‘घड़ी क्या होती है?’ उसने पूछा। ‘कहाँ मिली’ का उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह जानता था कि ‘कहाँ मिली’ में माँ की कोई दिलचस्पी नहीं रहती है।
‘घड़ी समय बताती है...’ माँ ने कहा।
‘समय...समय क्या होता है?
‘समय जो बीतता है सूरज के साथ...सूरज उगता है तो सुबह होती है...सूरज डूबता है तो रात होती है...समय की घड़ी सूरज से जुड़ी है...’ माँ को समझ नहीं आ रहा था कि एक अन्धे बच्चे को यह कैसे समझाए?
इससे पहले बच्चे ने यह पूछा नहीं था। इससे पहले माँ ने कभी किसी को समझाया भी नहीं था। माँ को उसकी माँ ने भी कभी नहीं समझाया था। माँ की माँ, समझा भी नहीं सकती थी। माँ की माँ पागल थी। माँ की माँ को यह तक पता नहीं था कि माँ किसकी बेटी है। पगली की बेटी जो अब उसकी माँ थी को भिखारियों ने मिल-जुल कर पाला था और जैसे ही वह भीख मांगने लायक हुई, वैसे ही उसे स्टेशन पर भीख मांगने के लिए छोड़ दिया था। तो उसकी माँ के पास जो स्कूल था, वह यही स्टेशन था। स्टेशन ही हमेशा उसका स्कूल बना रहा। बना रहा स्टेशन ही हमेशा उसका घर। माँ की माँ, कब कहाँ ग़ायब हुई किसी को पता नहीं चला। झोंक-झोंक में किसी ट्रेन में बैठ, कहीं निकल गयी होगी और इस स्टेशन को भूल गयी होगी। इसलिए उसकी माँ के पास, अपनी पगली माँ की यादें बहुत ही धुँधली-सी हैं। इतनी धुँधली कि अब माँ का चेहरा उसके जेहन में बनता नहीं है। इसलिए जीवन भर, उसकी माँ को यह लगता रहा है कि वह आसमान से टपकी है, इस स्टेशन पर इसलिए कि एक अन्धे से शादी कर सके और एक अन्धे बच्चे को पैदा कर सके।
‘इसे कहाँ पहनते है ... घड़ी को...’ अन्धे बच्चे ने पूछा।
‘भग... भिखारी इसे नहीं पहनते ...पर इससे जो पैसा मिलेगा ...मैं तेरे लिए कुछ अच्छा खरीद दूँगी...चल एक नयी कमीज़ खरीद दूँगी... नयी कमीज़ पहन कर फिर तू मटकना...’ माँ ने मुस्कुराते हुए कहा जबकि वह जानती थी कि बेटे की मुस्कुराहट तो दिखने से रही। बेटा भी मटकने से रहा। मटकने के लिए, मटकते हुए किसी को देखना ज़रूरी था। ठुमकने के लिए, किसी को ठुमकता देखना ज़रूरी था। कुछ बातें, शरीर की भंगिमाएँ देख कर ही सीखी जा सकती थी। माँ ने सोचा कि अगर वह नयी कमीज़ अपने अन्धे बच्चे के लिए ले पायी तो उसे वह मटकना सिखाएगी। उसकी कमर को पकड़ मटकाएगी उसे। तब पूरा स्टेशन एक अन्धे बच्चे को नयी कमीज़ पहनकर, मटकता और इतराता देखेगा।
‘तूने कभी बताया नहीं कि सूरज भी होता है...होता है तो कहाँ रहता है...अन्धे बच्चे ने कुछ सोचने के बाद, नाराजगी से कहा, ‘कैसे डूबता है...कैसे रहता है सूरज ?’
‘आसमान सूरज का घर है...वह सुबह पूरब से उठता है और उठता जाता है आसमान की ओर और पश्चिम में जाकर धरती में डूब जाता है... जैसे ही सूरज पूरब से उठता है, सुबह होती है और जैसे ही पश्चिम में डूबता है रात हो जाती है...’
माँ की बात बच्चे को समझ में नहीं आयी। बेटे ने तो आसमान भी नहीं देखा था। माँ की बात में अब पूरब और पश्चिम दिशा भी जुड़ आए थे। अन्धे बच्चे के लिए दिशा को समझना अभी तो मुश्किल ही था। वह समझ जाता अगर माँ उसे उगते सूरज के सामने खड़ा कर कहती कि जिधर तू देख रहे हो वह पूरब है...तेरी पीठ की ओर पश्चिम है...दक्षिण तेरे दायें हाथ की ओर है...और उत्तर है तेरी बायीं ओर...
माँ को, अपने अन्धे बच्चे को देख कर दुःख हुआ। बेटे के भीतर, दिन और रात का समय, एक काली अँधेरी सुरंग के भीतर घट रहे थे। वहाँ दिन भी रात थी और रात तो रात थी ही। बेटे का चेहरा प्लेटफ़ार्म की छत की ओर था और ज़ोर-ज़ोर से हिल रहा था, जैसे सूरज को खोज रहा हो आसमान में। वह उसे सूरज दिखा तो नहीं सकती थी, पर महसूस करा सकती थी, उसने सोचा।
‘छुटकू, कल मैं तुझे सुबह ‘एक्सप्रेस’ के गुज़रते ही उठा दूँगी। हम यहाँ से बाहर चलेंगे सूरज देखने...मैं तुझे बताऊँगी की सूरज कैसे उगता है... फिर हम शाम को उसका डूबना और चाँद का आना देखेंगे। कल तैयार रहना...अब चल...बापू को ले आते हैं, मेल आने वाली है...’
मेल एक नम्बर प्लेटफ़ार्म पर आएगी। उन्हें तीन से एक तक पहुँचना है। मेल के प्लेटफ़ार्म में घुसने के बाद, उसके ठहरने तक का समय, उनके पास है। यह बहुत समय है। तीन नम्बर से एक नम्बर पहुँचने तक, उनके पास इतना समय है कि वे इस दूरी के बीच, गाड़ियों का इन्तज़ार करते लोगों से जाते-जाते भी भीख माँग सकते थे।
माँ-बेटे, जब तीन नम्बर प्लेटफ़ार्म के आखिरी छोर पर बापू के पास पहुँचे तो वह गांजे के धुएँ मे डूबा हुआ था। उसके चारों ओर गांजे की खुशबू का घेरा था। उस घेरे के भीतर बापू अकेला नहीं था। साथ उसका दोस्त गोविन्द भी था, जिस माँ और पूरा स्टेशन गंजेड़ी-गोविन्द कहता था जो एक कुली था और जितना कमाता, गांजे में उड़ा देता था।
माँ की गालियों से बचने के लिए, उकड़ू बैठा गंजेड़ी-गोविन्द तुरन्त उठ खड़ा हुआ और सफ़ाई देने लगा, ‘देख मुझे कुछ मत कह, मैं इसे नहीं पिला रहा था। मैं चुपचाप जा रहा था, इसने ही मुझे आवाज़ देकर बुलाया है। तू तो जानती है ना...यह मुझे, मेरे पैरों की आवाज़ से पहचान लेता है...’
यह सच था। वह जानती थी कि उसका अन्धा पति पदचाप से भी अपने क़रीब के लोगों को पहचान लेता है, जैसे वह उसे पहचानता है, सिर्फ़ उसके पदचापों से। कभी यह बात उसे बहुत, अच्छी लगती थी, जब शादी से पहले अन्धा, उसे उसके पदचापों से पहचान लेता था, तब उसे यह प्रेम लगता था। पर अब इधर आकर अन्धे पति का यह गुण उसे भारी लगने लगा है। वह कई बार बिना पैरों की आवाज़ के होना चाहती है। अन्धे अपने क़रीब के लोगों को उनके पदचाप से पहचान लेते हैं, पर साथ ही वे इतनी जिज्ञासा से भरे रहते हैं कि उनके सवालों का जवाब देते-देते आँख वाली पत्नी थक जाती है, क्योंकि पति के लिए देखने का भार भी उसे ढोना पड़ता है। यह एक ऐसा भार है जिसका वजन लगातार बढ़ता जाता है। इसलिए इन पाँच सालों के भीतर, अन्धे की पत्नी को कई बार यह लगा है कि वह इस भार को पटक कर कहीं भाग जाए।
सही है कि गंजेड़ी-गोविन्द तो गांजे की खुशबू से भी महमहा रहा होगा तो उसे पहचानना अन्धे के लिए क्या मुश्किल है। गंजेड़ी-गोविन्द की ओर वह घूरती देखती रही और कहा कुछ नहीं। गंजेड़ी-गोविन्द, उसकी घूरती नज़र को वहीं छोड़ ग़ायब हो गया।
गंजेड़ी-गोविन्द को उसके अन्धे पति से दोस्ती इतनी पसन्द है कि वह फिर आएगा, वह उसे घूरेगी या गाली बकेगी तो वह सुनेगा और फिर आने के लिए ग़ायब हो जाएगा। उसका अन्धा पति और गंजेड़ी-गोविन्द, प्लेटफ़ार्म नम्बर तीन के उस कोने में जो एक तरह से, जो उस अन्धे का ही कोना बन गया था बरसों से, वे आजू-बाजू बैठ, एक ही चिलम से गाँजा पी रहे थे और यह करते हुए भी उन्हें बरसों हो गया था। चाहे आँखें हों या ना हों, मनुष्य अपने जीवन में ऐसे कोने चुनता ही रहता है जो माँ के गर्भ-सी उसे सुरक्षित और आत्मीयता से भरी लगती हैं और वह बार-बार उन्हीं जगहों की ओर जाता है। वे तर्कविहीन जगहें होती हैं, जिनका अर्थ किसी के पूछने पर बता पाना हमेशा मुश्किल रहता है। गंजेड़ी-गोविन्द का साथ, उसके अन्धे पति के लिए, एक ऐसी ही जगह थी। वह कितनी भी गाली बके इस साथ के लिए अन्धे को, अन्धा उसका साथ नहीं छोड़ सकता था। वह जानती थी यह।
‘चल, हो गयी तेरी मस्ती बहुत...अब काम पर लग...’ गांजे में टुन्न अपने अन्धे पति को डण्डे से कोचकते हुए, उसकी माँ कह रही थी। अन्धा उकड़ू बैठा था तो डण्डे के कोचकने से लुढ़कते-लुढ़कते बचा। इस लुढ़कने की खीज, उसके चेहरे पर दिखी। उसकी निर्जीव आँखों की पलकें, खीज से मिचमिचा गयी थी। अगर उसके पास जीवित आँखें होतीं तो वह अपनी पत्नी को ज़रूर घूरता, उसकी इस हरकत पर। पर कुछ क्षणों बाद ही वह डण्डे के उस छोर को पकड़ कर खड़ा हो गया, जिस छोर ने अभी-अभी उसकी दाहिनी कमर को कोचका था।
गाँजे में टुन्न-पति, कोशिश कर बेमन से उठा था। उसके पास अपनी पत्नी का विरोध करने की ताकत नहीं थी। वह उसके सहारे ही था। वह नहीं रहती तो वे भूखे मरते। वह और उसका अन्धा बेटा। आँखें सिर्फ़ उसके पास थी। चीज़ें उसकी नज़रों से गुज़रती थीं तो चीज़ों को लेकर दिमाग़ भी उसके पास ज़्यादा था। अन्धा-पति यह सोच नहीं पाता था कि बगैर उसके जीवन आसानी से कैसे काटा जा सकता है। और यही वह जगह थी कि वह अपनी पत्नी की किसी भी बात का न चाहते हुए भी विरोध नहीं करता था। बहुत कम, कभी कभार ही वह कँझाता था और तब वह ज़ोर से चीखता और उसके चीखने की आवाज़ पूरे प्लेटफ़ार्म पर गूँजती थी। सब अन्धे की इस चीख को पहचानते थे जो महीने दो महीने में एकाध बार गूँजती ही थी। उसकी चीख पूरे प्लेटफ़ार्म पर गूँजती थी। प्लेटफ़ार्म के पुराने लोग, चीख सुन मुस्कुराते और नये लोग चौंक जाते कि किसकी चीख है यह दर्दनाक। उस चीख में अन्धे-पन की लाचारी का दर्द था।
छुटकू-अन्धा जो अपनी माँ से लगा खड़ा था, बस बाप के उठने और माँ के डण्डे के सिरे को पकड़ने का इन्तज़ार कर रहा था। वह इन आहटों की आवाज़ों को अच्छी तरह पहचानता था। बाप उठा तो माँ ने छुटकू का कंधा पकड़ उसे बाप के पीछे खड़ा कर दिया। बाप की कमर में एक रस्सी बंधी थी जो बाप के पतलून की बेल्ट-सी थी। छुटकू-अन्धे की दाहिनी हथेली ने, बाप के कमर में बँधी रस्सी को कसकर पकड़ लिया। अब वे तीनों एक नम्बर प्लेटफ़ार्म पर जाने को तैयार थे। माँ सबसे आगे। माँ के डण्डे का एक सिरा पकड़ा हुआ उसका अन्धा पिता। पिता के कमर की रस्सी पकड़ा हुआ छुटकू-अन्धा।
भीख में छुटकू-अन्धे को शामिल कर लेने का विचार उसकी माँ को बहुत बाद में और अचानक ही आया था। छुटकू जब बस पाँच साल का था तो रोज़ की तरह भीख के लिए निकलने से पहले, छुटकू को खिला-पिला कर, उसकी माँ ने रोज़ की तरह कहा कि यहीं रहना, इधर-उधर ज़्यादा होना नहीं, सहारे के साथ ही रहना। छुटकू का सहारा, प्लेटफ़ार्म में बसती दीवारें, ओवरब्रीज की रेलिंग, साथी आँख वाले बच्चों के हाथ और कन्धे आदि थे। सहारा नहीं थे--हवा, धूप, शाम, रात...सहारा नहीं थे अपरिचित लोग, अपरिचित आवाज़ें... अपरिचित कन्धे सहारा नहीं थे... सबसे विश्वस्त सहारा माँ का हाथ और उसका आसपास था। यह ऐसा सहारा था, जिसकी बराबरी और कोई नहीं कर सकता था। पर छुटकू ने उस दिन अपनी माँ की बात को उस तरह नहीं सुना, जिस तरह वह रोज़ सुन लेता था। सुना नहीं तो किया नहीं। जैसे ही माँ चलने के लिए पलटी तो वह उठ खड़ा हुआ। उठने के लिए बाप की कमर की रस्सी उसका सहारा बनी और वह उसे पकड़े-पकड़े बाप के पीछे-पीछे वैसे ही चलता गया, जैसा उसका बाप, उसकी माँ के पीछे-पीछे जा रहा था। माँ को पता ही नहीं चला बहुत देर। पिता को पता था, पर पिता ने कहा नहीं माँ से। पिता ने उसे एक खेल में बदल दिया था। वह अपने बाएँ खाली हाथ को पीछे ले जाकर, बीच-बीच में उसकी उपस्थिति टटोल रहा था। यह कि वह पीछे है या नहीं...छूट तो नहीं गया। ज़ाहिर है जैसे ही वह छूटता, वह माँ को सावधान कर देता। पर छुटकू खुद बहुत सावधान था। वह कस कर पिता के कमर की रस्सी को पकड़े हुआ था। माँ को बहुत देर बाद अपने इस अचम्भे से पता चला कि आज उसे भीख देने से कोई मना क्यों नहीं कर रहा है। पूरी ट्रेन और प्लेटफ़ार्म के शोर को पार कर लेने के बाद, जब वह थककर पलटी तो उसे अपने बाप के कमर की रस्सी पकड़े, इधर-उधर एक लय में सिर हिलाता छुटकू दिखा।
‘कुत्ता, तू कैसे आ गया?’ माँ ने उससे कहा। उसने कोई जवाब नहीं दिया। एक लय में सिर को हिलाता रहा।
और उस दिन के बाद, वह अपने माँ-बाप के भीख माँगने की यात्रा का, अभिन्न हिस्सा बन गया। वह एक लाभप्रद हिस्सा था और उसकी माँ अब चाहकर भी उसे हटा नहीं पा रही थी।
माँ धीरे-धीरे ‘एसी’ के अभिजात्य लोगों में उसे देखना भूल गयी। वह समझ गयी कि मालगाड़ी के टूटे डिब्बे में, पैदा किये बच्चे के लिए ऐसा स्वप्न देखना व्यर्थ है।
इस तरह वह अपने बाप की, कमर में बँधी रस्सी पकड़, बड़ा होता गया और उसे पता भी नहीं चला कि बाप की कमर की रस्सी, कब उसके हाथ से छूट गयी। बड़ा होना ऐसा ही होता है। आँख वालों की दुनिया में, रोशनी के फैलने-सा होता है वह। पर उसकी दुनिया में वह आवाज़ों के फैलने-सा था। उसके लिए एक धीमी साँस की लय भी अब एक स्पष्ट आवाज़ थी। आवाज़ों को सुनने और पहचानने में, उम्र के साथ वह माहिर होता गया। जैसे-जैसे वह बड़ा होता गया--उसके दिमाग में, ज़्यादा से ज़्यादा आवाज़ें इकट्ठी होती गयीं। प्लेटफ़ार्म की सारी आवाज़ें उसके पास थीं। उम्र जैसे-जैसे बढ़ती गई, आवाज़ें भी बढ़ती गयीं। जिन चीज़ों के पास आवाज़ नहीं थी, जैसे सूरज की धूप, चन्द्रमा की रोशनी, बारिश, जैसे पानी का चहबच्चा, पत्थर के टुकड़े, जैसे प्लेटफ़ार्म की बेंच, खड़ी हुई रेलगाड़ी... जैसे चुपचाप बहता हवा का कोई झोंका... यह ऐसी चीज़ें थीं कि जिनके स्पर्श में ही, उनकी आवाज़़ छिपी हुई थी। इनमें से कुछ उसे छूती निकल जाती थीं, जैसे हवा, धूप, रोशनी, बारिश ...ये सब उस पर बरसती थीं उसे छूने के लिए। और कुछ को उसकी देह छूती थी, जैसे पानी का चहबच्चा जो पैर पड़ते ही छप से बजता था। पत्थर का टुकड़ा, जिसकी ठोकर से पैर की अंगुलियाँ, लहूलहान हो जाती थीं। चीज़ों कि सूची अनन्त थी जिससे उसकी देह टकराती या टकरा सकती थी। पर वह अब उन्हें सुन लेता था। स्पर्श की आवाज़ें, किसी भी सामान्य आवाज़ से कठिन रहती थीं और उन्हें सुनने के लिए बहुत एकाग्रता लगती थी। पर एक अन्धा आदमी जिसे आवाज़ों की दुनिया में ही जीना है, वह इस एकाग्रता को साध ही लेता है। एक अन्धा आदमी एक बार जिस वस्तु से टकराता है, वह फिर बार-बार बिना उससे टकराए उस वस्तु के स्पर्श को सुन लेता है।
छुटकू-अन्धा अब गाने लगा था। वह गाता और अपने आसपास लोगों कि आहट से यह जान लेता कि वह कितने लोगों के लिए गा रहा है। एक के लिए या एक से अधिक के लिए। फिर जाने कब उसकी माँ ने उसे ढपली पकड़ा दी। समय लगा पर गाने की लय पर ढपली से ध्वनि निकलने लगी। छुटकू-अन्धे की आवाज़ थोड़ी भारी और खरखरी-सी थी जो किसी फ़िल्मी या लोक-गीत को, नया रंग दे देती थी। कुछ इस तरह कि लगता था, ऐसा सिर्फ़ छुटकू-अन्धा ही गा सकता है। दूसरा कोई नहीं गा सकता है। उसे मालूम नहीं था कि उसके बाप के सूरदास के भजन सुनने वाले जाने कब से कम हो गये थे। उसका बाप गाता तो उसे सुनने उतने लोग नहीं ठिठकते, जीतने छुटकू-अन्धे के लिए ठिठक कर रुक जाते थे। अब वह ट्रेन में गाता हुआ, एक-दो स्टेशन तक आगे जाता और ट्रेन में गाता हुआ, एक-दो स्टेशन से लौट आता था। लौटने की ट्रेन के इन्तजार में जितनी देर वह खड़ा रहता, प्लेटफ़ार्म के यात्री उसका गाना सुनते रहते। वह अब अपने स्टेशन से गुजरने वाली एक-एक ट्रेन की आवाज़ाही से वैसा ही परिचित था, जैसे चिड़िया अपने उड़ान से परिचित रहती। उड़े कहीं के लिए भी क्यों ना, लौटती अपने घोंसले में है।