08-Jun-2019 12:00 AM
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प्रकाशाख्या संवित् क्रमविरहिता शून्यपदतो
बहिर्लीनात्यन्तम्प्रसरति समाच्छादनतया
ततोऽप्यन्तःसारे गलितरभसादक्रमतया
महाकाली सेयम्मम कलयताम् कालमखिलम्।। -अभिनवगुप्त (क्रमस्तोत्र)
(‘प्रकाश’ नाम की संवित् शून्य-स्थान से क्रम-रहित स्वरूप में बाहर आती है और फिर (परमार्थ को) ढकती हुई आगे फैलती है। तदुपरान्त जो स्वयम् अक्रम रहते हुए ही अपने आवेग को शिथिल करती हुई (यह संवित् नाम की) महाकाली हैं, वह मेरे सम्पूर्ण (क्रमयुक्त) काल की अपने भीतर (शरण देते हुए) कलना करें।)
स्वाज्ञानकल्पितजगत्परमेश्वरत्व
-जीवत्वभेदकलुषीकृतभूमभावा।
स्वाभाविकस्वमहिमस्थितिरस्तमोहा
प्रत्यक्चितिर्विजयते भुवनैकयोनिः।। -सर्वज्ञात्ममुनि (संक्षेपशारीरक का एक मंगलाचरणश्लोक)
(जीव के भीतर रहने वाली उस चेतना की जय हो जो सम्पूर्ण ‘होने’ का एकमात्र कारण है, और जो केवल चैतन्य होते हुए भी अपने में आश्रय लिये हुए अज्ञान के नाते ‘जगत्’, ‘ईश्वरत्व’ और ‘जीवत्व’ जैसे भेदों की कल्पना करती हुई अपने परम अभिन्न स्वरूप को कलुषित करती है तथा जो इस अज्ञान के विनाश के बाद अपनी महिमा में प्रतिष्ठित अपनी स्वाभाविक स्थिति में अपने को पाती है।)
बृहदारण्यनिविष्टम् विलुठितमाभीरवारनारीभिः।
सत्यचिदानन्दघनम् ब्रह्म नराकारमालम्बे।।
-मध्ाुसूदन सरस्वती (अद्वैतरत्नरक्षण का एक मंगलाचरणश्लोक)
(गोकुल अर्थात्) महावन में (श्लेष से, बृहदारण्यकोपनिषद् में) पैठे हुए, आभीरों की असती नारियों द्वारा लूट लिये गये मनुष्य के रूप में सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म (अर्थात् श्रीकृष्ण) का ही मुझे आसरा है।)
खण्ड 1
प्रारम्भिक
1 भक्ति का ‘कुर्सीनामा’
भारत के मध्यकालीन समाज और साहित्य में भक्ति की दृश्यता कुछ बढ़ी हुई प्रतीत होती है। दृश्यता में वृद्धि की इस प्रतीति को हमारे समकालीन बौद्धिक विमर्श में एक ‘आन्दोलन’ के रूप में प्रस्तुत करना शोभन माना जाता है। यों तो इस ‘आन्दोलन’ शब्द को अँगरेज़ी के ‘मूवमेण्ट’ शब्द का सीध्ाा अनुवाद ही मानना चाहिए और जिस प्रकार अँगरेज़ी साहित्य का इतिहास हमें ‘एज’ और ‘मूवमेण्ट’ में अध्यायबद्ध करके पढ़ाया जाता था उसी के अनुकरण में आध्ाुनिक भारतीय भाषाओं के इतिहास को भी ‘काल’ तथा ‘आन्दोलन’ में अध्यायबद्ध करने की लालसा को ही इस शब्दावली का प्रेरक मानना चाहिए किन्तु इस शब्दावली के अपने दबाव तो काम करते ही हैं। उदाहरण के लिए ‘भक्ति’ और ‘रीति’ दोनों ही ‘काल’ हैं किन्तु रीति आन्दोलन नहीं है जबकि भक्ति है।
इस तरह की प्रस्तुति के निहितार्थों पर कुछ विचार इस आलेख में प्रसंगतः आ सकता है किन्तु इसका उद्देश्य वर्तमान आलोचनात्मक विमर्श से उलझना नहीं है, उस स्रोतस्विनी को सामने ले आना है जिसकी हमारे निकट अतीत देशकाल में प्रत्यक्ष ध्ाारा इस आलोचनात्मक विमर्श का विषय रही है।
यह बात सच है कि ‘भगती द्राविड़ ऊपजी, लाये रामानन्द’ जैसे वाक्य मिलते हैं और श्रीमद्भागवत-माहात्म्य में भी ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि भक्ति द्रविड़-देश में जन्मी, कर्नाटक में बढ़ी, महाराष्ट्र में कुछ बची रही, गुजरात में बूढ़ी हो गयी और फिर वृन्दावन में आकर युवती हो गयी। मेरी समझ यह है कि इस तरह के कथनों का आशय भक्ति का कोई कुर्सीनामा तैयार करना नहीं है, उनका अर्थ यही लेना चाहिए कि भक्ति के उस सर्वसुलभ आकार को छीलने-तराशने में श्रीरामानुजाचार्य आदि के द्वारा प्रणीत वैष्णव सम्प्रदायों का बहुत योगदान है जिस तक पहुँचने के लिए श्रद्धा और प्रेम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए। ये सभी आचार्य दाक्षिणात्य थे किन्तु इस तथ्य को बहुत महत्व देने का कोई मतलब नहीं है, भगवत्पाद1 भी दाक्षिणात्य ही थे। मेरा प्रतिपाद्य यह है कि तुलसी, सूर, या कबीर की ‘भक्ति’ किसी आन्दोलन का परिणाम नहीं है अपितु किसी भी नव्यता से रहित केवल उस प्रयत्नकालीन चिन्तन और उस भावाभिव्यक्ति की ‘भाषा-भणिति’ है जो इस देश में तब से है जब से इस देश में साहित्य है।
1 अद्वैत के परमगुरु आदि शंकराचार्य जी को प्रायः ‘भगवत्पाद’ ही कहा जाता है।
इस साहित्य में ‘भक्ति’ शब्द की उपस्थिति उस सीमित अर्थ में अपेक्षाकृत उत्तरकालीन है जिस अर्थ में हम इसका प्रयोग यहाँ कर रहे हैं। पाणिनि की अष्टाध्यायी में भक्तिः (4-3-95) एक सूत्र है जो ‘मालपुए में भक्ति’ और ‘वासुदेव में भक्ति’ दोनों को बराबर तौलता है। यह मानना पड़ेगा कि इस व्यापक अर्थ में ‘भक्ति’ का प्रयोग आज की हिन्दी में भी है। अस्तु, ‘भक्ति’ के प्रासंगिक विशिष्ट अर्थ पर लौटते हुए, वैसे तो भारतीय वांग्मय में दो सौ से ऊपर ग्रन्थ ऐसे हैं जो ‘उपनिषत्’ के नाम से जाने जाते हैं, किन्तु यदि हम सर्वप्रसिद्ध ग्यारह उपनिषदों तक अपने को सीमित रखें, तो सम्पूर्ण उपनिषत्-साहित्य में केवल श्वेताश्वतरोपनिषत् के अन्तिम मन्त्र में यह शब्द मिलता है। वह मन्त्र यह हैः
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।।
(जिसकी ईश्वर में परा भक्ति होती है, और गुरु में भी वैसी ही परा भक्ति होती है जैसी ईश्वर में, उसी महात्मा को (इस उपनिषत् में) कहे गये ये अर्थ प्रकाशित होते हैं।)
इस मन्त्र में ‘परा भक्ति’ शब्द आया है जिस पर आगे चर्चा होगी। किन्तु फि़लहाल यह कहना है कि उपनिषत्-साहित्य में ‘भक्ति’ की जगह ‘उपासना’ शब्द मिलता है जिस पर हम इस आलेख के शुरू में ध्यान केन्द्रित करेंगे। यह शब्द इस अर्थ में भाषा-साहित्य से सर्वथा विलुप्त तो नहीं हुआ, उदाहरण के लिए गोस्वामी जी ने कवितावली (उत्तरकाण्ड, 84) में लिखा हैः ‘करमु, उपासना, कुवासनाँ बिनास्यौ ग्यानु (= कलियुग में कुवासनाओं ने मोक्ष-प्राप्ति के तीनों मार्गों-कर्म- मार्ग, भक्ति-मार्ग और ज्ञान-मार्ग का विनाश कर दिया है।)’ किन्तु प्रायः ‘भक्ति’ का ही प्रयोग मिलता है।
‘भक्ति’ के लिए ‘ध्यान’, ‘पूजा’, ‘प्रसंख्यान’ जैसे कुछ पर्याय प्राय शब्द और हैं जो यथास्थान आयेंगे और जिनकी समकक्षता पर हमें विचार करना होगा। फि़लहाल एक बुनियादी बात का जि़क्र शुरू में ही कर लेना ठीक रहेगाः भक्ति की जाती है और उसके लिए एक अदद कर्ता तथा एक अदद कर्म चाहिए- भज गोविन्दम् (= गोविन्द को भजो) जब कहा जाता है तो उसमें यह अन्तर्निहित है कि ‘गोविन्द’ अव्वल तो उस व्यक्ति से पृथक् है जो उन्हें भजेगा, और दोयम, उनका एक नाम भी है और एक रूप भी है अर्थात् वे वैसे चाहे अव्यक्त भी हों, भक्त के लिए वे व्यक्त होते हैं। इस प्रकार भक्ति का कर्मत्व भी सिद्ध प्रतीत होता है और उसके लिए द्वैत की आवश्यकता भी प्रतीत होती है। एक तीसरी शर्त और हैः ‘गोविन्द’ और उनका भक्त, दोनों ही नामरूपध्ाारी ‘व्यक्ति’ हैं जिनके बीच भक्ति एक सम्बन्ध्ा स्थापित करती है- यशोदा, गोपियाँ, कंस, सभी किसी न किसी विहित या निषिद्ध सम्बन्ध्ा द्वारा ‘गोविन्द’ से जुड़े हुए हैं।
भक्ति पर जब अँगरेज़ी में बात होती है तब इन गोविन्द को चमतेवदंस हवक कहते हैं- ऐसा ई’वर जो चमतेवद है। व्याकरण की बारीकियों का सम्मान करते हुए हम इस चमतेवद के हिन्दी अनुवाद के रूप में प्रचलित ‘व्यक्ति’ की जगह ‘व्यक्तिमापन्न (= व्यक्ति को प्राप्त हुआ, ‘व्यक्त’)’ रखेंगे।
इस अनुवाद का एक लाभ यह है कि ‘सगुण-निर्गुण-विवाद’ का छोर आसानी से पकड़ा जा सकता हैः श्रीमद्भगवद्गीता (7-24) में आये अव्यक्तम् व्यक्तिमापन्नम् मन्यन्ते मामबुद्धयः का अर्थ ‘निर्गुणवादी’ यह करते हैं कि ‘मुझ अव्यक्त को बुद्धिहीन लोग व्यक्तिमापन्न समझते हैं’ जबकि ‘सगुणवादी’ यह अर्थ करते हैंः ‘मेरे नित्यलीलामय रूप को न जानने वाले निर्बुद्धि मुझे केवल अव्यक्त समझते हैं और यह मानते हैं कि मैं माया से ही व्यक्तिमापन्न होता हूँ’। इस प्रकार ‘निर्गुण पक्ष’ यह मानता है कि ब्रह्म पारमार्थिक रूप से ‘अ-व्यक्त’ है जबकि ‘सगुण पक्ष’ यह मानता है कि ब्रह्म पारमार्थिक रूप से ‘व्यक्तिमापन्न’ है।
जिस समय सगुण पक्ष के लोग ब्रह्म के सगुण रूप को पारमार्थिक बताते हैं उस समय उनके मन में ‘गुण’ का तात्पर्य उन छह गुणों से होता है जो विष्णुपुराण (6-5-74) में इस प्रकार गिनाये गये हैंः
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य ध्ार्मस्य यशसः श्रियः
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णाम् ‘भग’ इतींगना।।
(समग्र ऐश्वर्य, समग्र ध्ार्म, समग्र यश, समग्र श्री, समग्र ज्ञान और समग्र वैराग्य, इन छह गुणों की संज्ञा ‘भग’ है।)
ये छह ‘भग’- संज्ञक गुण केवल एक ही तत्व में अप्रतिबन्ध्ाित रूप से पाये जाते हैं जिसे ‘भगवान्’ कहा जाता है। जब श्रीमद्भागवत (1-3-28) में ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ (= श्रीकृष्ण स्वयम् भगवान् हैं) कहा गया है तो ‘भगवान्’ से यही आशय है। इन छह गुणों को वैष्णवों के यहाँ प्रायः ‘कल्याण-गुण’ कहते हैं और यह माना जाता है कि भगवान् इनसे कभी वियुक्त नहीं होते। इसलिए वैष्णव सम्प्रदायों में प्रायः निर्गुण ब्रह्म की स्तुति करने वाले वाक्यों की संगति यह मान कर बिठायी जाती है कि ‘निर्गुण’ का अर्थ है ‘प्राकृत गुणों से रहित’ अर्थात् उन गुणों से रहित जो सामान्य जीव में पाये जाते हैं। ‘भगवान्’ की यही परिभाषा अद्वैत-सम्प्रदाय में भी स्वीकृत है- उदाहरण के लिए श्रीमद्भागवद्गीता-3-37 की अवतारणा करते हुए भगवत्पाद ने ‘भगवान्’ का यही अर्थ बताया है- किन्तु वहाँ ‘निर्गुण ब्रह्म’ में ये गुण भी अनुपस्थित हैं।
1.1 ‘संराध्ान’
अपि च संराध्ाने प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् (ब्रह्मसूत्र 3-2-24) के भाष्य में भगवत्पाद ने ‘संराध्ान’ का अर्थ ‘भक्ति, ध्यान, प्रणिध्ाान आदि का अनुष्ठान’ बताया है और रत्नप्रभा-कार ने यहाँ ‘आदि’ से ‘जप और नमस्कार’ का तात्पर्य कहा है। स्पष्ट है कि ‘भक्ति’ के प्रचलित अर्थ ही यहाँ अभीष्ट हैं। सूत्र का अर्थ यह है कि भक्ति के द्वारा भक्त लोग उस निष्कल ब्रह्म को देखते हैं। इससे प्रथमदृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि भगवत्पाद को ‘भक्ति’ एक स्वतन्त्र मार्ग के रूप में स्वीकृत है। किन्तु तत्काल ही यह भ्रम दूर हो जाता हैः भगवत्पाद तुरन्त ही यह शंका उठाते हैं कि फिर तो संराध्य और संराध्ाक का द्वैत होगा और इसके समाध्ाान के रूप में ही उन्होंने अगले छह सूत्रों का भाष्य किया है जिनका सारांश यह है कि यद्यपि भक्ति के समय ब्रह्म ध्येय और भक्त ध्याता के रूप में भासमान होते हैं, यह सारा आभास अवास्तविक है, वस्तुतः पारमार्थिक नहीं है। उनका कहना है कि जैसे सर्प-रूप से अभेद होते हुए भी कुण्डलाकार सर्प और वक्राकार सर्प में भेद है उसी प्रकार यहाँ ब्रह्म रूप से अभेद होते हुए भी ध्याता-ध्येय, गन्ता-गन्तव्य, नियन्ता-नियन्तव्य आदि रूप से भेद है; भेद भी है और अभेद भी है। इस प्रकार यह सारा उपक्रम ब्रह्मात्मैक्यज्ञान के उपक्रम से भिन्न नहीं है। अद्वैतेतर वेदान्ती यहाँ प्रायः भक्त और भगवान् में पारमार्थिक भेद स्वीकार करते हैं।
भक्ति के प्रति इन ‘निर्गुण-पक्षीय’ और ‘सगुण-पक्षीय’ स्थापनाओं के बीच का यह अन्तर हमें बराबर मिलेगा।
2 सूफ़ी ‘इश्क़’ और भक्तिः नीमेस्त जि़ हिन्दुस्ताँ...
आगे बढ़ने से पहले एक बिन्दु पर कुछ विचार कर लेना आवश्यक है। मध्यकालीन भारत में इस्लाम की मौज़ूदगी का बहुत महत्व है और मध्यकालीन इतिहास तो पढ़ाया ही गुलाम वंश, खि़लजी वंश, मुग़ल वंश आदि के शीर्षकों में जाता है। मध्यकाल में भक्ति की दृश्यता को भी साहित्य-चिन्तकों ने इस्लाम से जोड़ा है और या तो यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि भक्ति का आश्रय इस्लामी अत्याचार से त्रस्त हिन्दुओं ने लिया या फिर यह साबित करने की कोशिश की है कि भक्ति के उस ‘उन्मेष’ में सूफि़यों का बड़ा योगदान रहा।
जहाँ तक इस्लामी अत्याचार से पीडि़त हिन्दुओं के भक्ति की ओर मुड़ने की बात है, जब हम भारतीय साहित्य में भक्ति की उपस्थिति के प्राचीनतम सूत्रों पर एक नज़र डालेंगे तो इस दावे की असत्यता स्वतः प्रकट हो जायेगी। यह सच है कि मन्दिरों और तीर्थस्थलों के अपमान से उपजे क्षोभ की गूँज कभी-कभार मध्यकालीन भक्ति-साहित्य में सुनायी देती है किन्तु भक्ति-साहित्य उससे प्रेरित नहीं था- भगवद्भक्ति का आश्रय कलिकाल की सारी दुर्दशा ही नहीं, भवसागर के समस्त दुःखों से त्राण पाने का साध्ान है, यह भक्ति की संकल्पना में ही निहित है, और किसी भी ऐतिहासिक काल की सामाजिक विषम स्थितियाँ इस व्यापक दुःख के भीतर ही समाविष्ट रही हैं। किन्तु दूसरे दावे पर कुछ कहना ज़रूरी लगता है क्योंकि भक्ति का प्रेम से समीकरण है और अनेक भक्त कवियों ने ‘इश्क़’ की बात अपनी रचनाओं में की है।
सर्वप्रथम तो इस बहुप्रचारित ध्ाारणा की परीक्षा ज़रूरी है कि सूफ़ी विचार और साहित्य भारतीय वेदान्त से प्रभावित है। इसके प्रमाण बहुविदित हैंः उदाहरण के लिए मन्सूर हल्लाज का प्रसिद्ध उद्घोष अनल हक़ (=मैं ही परम सत्य हूँ) सीध्ो-सीध्ो बृहदारण्यकोपनिषद् (1-4-10) के प्रसिद्ध अद्वैत-प्रतिपादक महावाक्य अहम् ब्रह्मास्मि (= मैं ही ब्रह्म हूँ) का अनुवाद है। यह भी निर्विवाद है कि यह विचार मन्सूर हल्लाज ने अपनी भारत-यात्राओं के दौरान प्राप्त किया। किन्तु इस सूचना का यह अर्थ नहीं हो सकता कि दोनों बातें एक ही हैं। जब अद्वैत-सम्प्रदाय के लोग अहम् ब्रह्मास्मि कहते हैं तो वे कोई विद्रोह नहीं कर रहे हैं, वे एक शास्त्र-समर्थित स्थापना की घोषणा करते हैं जिसके पीछे आप्त-वचन और युक्ति का प्रबल आध्ाार है। किन्तु जब मन्सूर हल्लाज अनल हक़ कहते हैं तो वे अपने अनुभव को इस्लाम की सारी शास्त्र-व्यवस्था के विरोध्ा में प्रस्तुत कर रहे हैं और यह वाक्य प्रतिरोध्ा का वाक्य है। हाफि़ज के शब्दों में, मन्सूर हल्लाज का अपराध्ा यह है कि उसने रहस्य को प्रकट कर दिया जबकि वेदान्त में अहम् ब्रह्मास्मि का प्रत्यक्ष करना ही शास्त्र का निर्देश है।
‘प्रतिरोध्ा’ का सतही अर्थ लेने से कई भ्रम हो सकते हैंः उदाहरण के लिए यह तर्काभास कि जब गोपियाँ कृष्ण के प्रति जारबुद्धि रखती हैं तो वे पातिव्रत्य की मर्यादा का प्रतिरोध्ा कर रही हैं। किन्तु मर्यादाएँ संसार से जुड़ी हैं, और जब संसार के पार जाना ही लक्ष्य है तो इसमें प्रतिरोध्ा कहाँ है ? गोपियों की प्रेमा भक्ति पर यथास्थान चर्चा करेंगे, फि़लहाल इतना ही कि पातिव्रत्य ध्ार्म-पुरुषार्थ का अंग है जबकि प्रेम भक्ति-पुरुषार्थ का और पुरुषार्थ-साध्ान का प्रतिरोध्ा नहीं हो सकता। वस्तुतः भारतीय विचार-सरणि में प्रतिरोध्ा की कोई सम्भावना ही नहीं है क्योंकि प्रतिपक्ष की सत्ता केवल आभासी है।
प्रतिरोध्ा की कविता की अपनी चमक है और अपनी सीमाएँ हैं। इसके लिए सामने एक प्रतिपक्ष होना ज़रूरी है जिसकी उच्चतम सीमा वही नामरूपध्ाारी व्यक्तिमापन्न ईश्वर है जिसकी बात ऊपर कर आये हैं। जब एक व्यक्तिमापन्न को हटा दूसरे व्यक्तिमापन्न को गद्दीनशीन करने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रस्ताव कविता में आते हैं तब वह प्रतिरोध्ा की कविता न होकर साजि़श की कविता होती है। ज्ञात इतिहास की सारी राज्यक्रान्तियाँ इसी कारण प्रतिरोध्ा का नक़ाब ओढ़े हुए साजि़शें साबित हुई हैं। हमारे निकट अतीत में प्रतिरोध्ा के सच्चे कवि आइन्स्टाइन और स्टिफ़ेन हाकिंग जैसे वैज्ञानिक ही हुए हैं जिन्होंने व्यक्तिमापन्न ईश्वर की सत्ता से इन्कार करते हुए भी उसकी जगह कोई दूसरा व्यक्तिमापन्न-मसलन विज्ञान बिठाने का कोई प्रयास नहीं किया है।
इस कसौटी पर मेरी अपनी सीमित पढ़ाई के भीतर फ़ारसी के कवियों में मिजऱ्ा बेदिल के अतिरिक्त कोई प्रत्यक्ष प्रतिरोध्ाी कवि नहीं दीखता और हाफि़ज के अतिरिक्त कोई परोक्ष प्रतिरेाध्ाी कवि भी नहीं दीखता। रूमी समेत सभी सूफ़ी कवियों ने यह किया है कि कु़र्आन के दण्डनायक व्यक्तिमापन्न ईश्वर को एक प्रेयान् व्यक्तिमापन्न ईश्वर में बदल दिया है। इसका यह अर्थ क़तई नहीं है कि जब रूमी यह कहते हैं कि यह दुनिया हमारी कल्पनाओं के प्रतिबिम्बों का समूह है तो इस बात का कोई महत्व ही नहीं है कि यह सिद्धान्त उन्होंने अद्वैत वेदान्त के दृष्टिसृष्टिवादी प्रस्थान से लिया है किन्तु मैं यह ज़रूर कह रहा हूँ कि इसे उन्होंने एक फड़कती हुई सूक्ति के रूप में स्वीकार किया है और इसकी परिणति, अर्थात् यह विचार कि व्यक्तिमापन्न ईश्वर भी हमारी कल्पना ही है, तक इस स्वीकृति को नहीं ले जा सके हैं। ईश्वरवाद के महल के बाहर ठिठके हुए इस अद्वैत के लिए सूफि़यों में से भी गिने-चुनों ने ही खिड़की से कोई कमन्द कभी-कभार फेंकी है। सूफि़यों के इश्क़ को हम मौलाना रूमी के शब्दों में किचिंत परिवर्तन करते हुए नीमेस्त जि़ हिन्दुस्ताँ नीमेस्त जि़ फ़र्गान (= वह आध्ाा हिन्दुस्तान से है और आध्ाा फ़र्गाना से)2 कह सकते हैं।
मैं इस प्रसंग को यहाँ आगे न बढ़ाऊँगा किन्तु ‘इश्क़’ पर विचार इसलिए ज़रूरी हो जाता है कि हमारे अनेक भक्त कवियों ने इस शब्दावली का इस्तेमाल किया है। उदाहरण के लिए राध्ााकृष्ण के विषय में यह दोहा देखिए ः
जद्यपि प्रीति दुहून की कहियत एक समान
पै प्यारी मासूक है, आसिक प्यारो जान।।
इस ‘इश्क़’ को हमें ‘प्रेम’ का फ़ारसी पर्याय ही समझना चाहिए और तात्विक स्तर पर सूफि़यों के ‘इश्क़’ से समीकृत नहीं करना चाहिए। यह कथन एक सरलीकरण है और यथास्थान ‘इश्क़’ तथा ‘प्रेमा भक्ति’ के अन्तःसम्बन्ध्ाों को कुछ और स्पष्ट करने की चेष्टा करेंगे।
3 श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवत
‘भक्ति’ को समझने के लिए आकर-ग्रन्थ श्रीमद्भगद्गीता और श्रीमद्भागवत हैं। मैं इस आलेख में यह मान कर चलूँगा कि श्रीमद्भगद्गीता का स्वारस्य निर्गुण ब्रह्म के प्रतिपादन में है और श्रीमद्भागवत का स्वारस्य सगुण ब्रह्म के प्रतिपादन में। यहाँ यह कह देना ज़रूरी है कि श्रीमद्भागवत को बहुत आसानी से निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादक ग्रन्थ सिद्ध किया जा सकता है। मेरे कहने का आशय इस प्रसिद्ध कथा से स्पष्ट हो जाएगा।
2 पूरा शेर यों हैंः गुफ़्तम जि़ कुजाई तू, तस्ख़र ज़द ओ गुफ़्त ‘ऐ जाँ, नीमेम जि़ हिन्दुस्ताँ नीमेम जि़ फ़गऱ्ान0’ (= मैंने उस (माशूक़) से पूछा, ‘तुम कहाँ से हो ?’ तो वह परिहास करते हुए बोला, ‘मैं आध्ाा हिन्दुस्तान से हूँ और आध्ाा फ़गऱ्ाना से)। जैसा कि सुविदित ही है, फ़गऱ्ाना प्रथम मुग़ल शासक बाबर का जन्मस्थान था और आजकल उज़बेकिस्तान में है। यह शेर डाॅ. बलराम शुक्ल की पुस्तक निःशब्द नूपुर में ‘लज़्ज़ते जान’ शीर्षक वाली ग़ज़ल (संख्या 85) से है। मौलाना रूमी की सौ चुनी हुई ग़ज़लों का यह उत्कृष्ट सानुवाद संकलन राजकमल प्रकाशन से 2018 में प्रकाशित हुआ है और हिन्दी की ग्रन्थ-सम्पदा के संग्रहणीय रत्नों में से एक है।
श्रीमद्भागवत की सबसे प्राचीन और सबसे समादृत टीका श्रीध्ार स्वामी की भावार्थदीपिका है। इन्हीं की लिखी हुई एक टीका श्रीमद्भगवद्गीता पर भी है जो अद्वैत मत के अनुसार है और जिसमें उन्होंने लिखा है कि उन्होंने इसे शांकर भाष्य देखकर उसके अनुसार लिखा है। ऐसा माना जाता है कि श्रीध्ार स्वामी की श्रीमद्भागवत वाली टीका भी अद्वैत मत के अनुसार ही है। कथा यह है कि जब वल्लभाचार्य जी ने श्रीमद्भागवत पर टीका लिखी तो श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे इस बात के लिए असन्तोष प्रकट किया कि उन्होंने श्रीध्ार स्वामी के मत से भिन्न मत अपनी टीका में प्रतिपादित किया है। यह तो सर्वविदित है कि भक्ति के जो विविध्ा सम्प्रदाय मध्यकाल में प्रवर्तित हुए, उनमें चैतन्य महाप्रभु की गौडीय वैष्णव परम्परा अत्यन्त प्रमुख स्थान रखती है। इस कथा से ऐसा प्रतीत होता है कि चैतन्य महाप्रभु को श्रीध्ार स्वामी की यह अद्वैत-परक व्याख्या ही प्रिय थी किन्तु उनके अनुयायियों ने- चाहे वे जीव गोस्वामी हों, चाहे विश्वनाथ चक्रवर्ती और चाहे आध्ाुनिक इस्कान के जन्मदाता स्वामी भक्तिवेदान्त- अपनी टीकाओं में श्रीध्ार स्वामी से सहमति नहीं दिखायी है, भले ही स्पष्टतः असम्मान न प्रकट किया हो।
दूसरी ओर श्रीमद्भगवद्गीता को सगुण ब्रह्म का प्रतिपादक ग्रन्थ सिद्ध करने वाली कई व्याख्याएँ है। यह भी ध्यान देने की बात है कि भगवत्पाद ने और रामानुजाचार्य जी ने श्रीमद्भागवत पर न तो कोई भाष्य ही लिखा है और न ही अपने भाष्यों में उसका उल्लेख किया है यद्यपि भगवत्पाद ने सगुण उपासना को मन्दाध्ािकारियों के लिए ही स्वीकार किया है जबकि रामानुजाचार्य जी का विचार ऐसा नहीं है। तथापि मैंने ‘स्वारस्य’ की बात की है। इस ‘स्वारस्य’ का क्या तात्पर्य है यह एक कथा से स्पष्ट हो जायेगा।
श्रीमद्भागवत पर श्रीध्ार स्वामी की टीका भावार्थदीपिका का उल्लेख ऊपर आ चुका है। उस पर भावार्थदीपिकाप्रकाश नाम की एक बहुत प्रौढ़ टीका वंशीध्ार स्वामी3 ने लिखी है। श्रीध्ार स्वामी ने अपनी टीका के प्रारम्भ में कहा है कि इस टीका को मैं ‘सम्प्रदायानुसार’ लिखूँगा। वंशीध्ार स्वामी ने इस ‘सम्प्रदाय’ का आशय इस प्रकार स्पष्ट किया है कि ‘सम्प्रदाय’ तो अद्वैत ही है तथापि यह तात्पर्य भी है कि श्रीमद्भागवत की व्याख्यानपरम्परा के अनुसार टीका लिखी जाय, अर्थात जिस तरह श्रीमद्भगवद्गीता के भाष्य में भगवत्पाद ने ‘भक्ति’ का अर्थ सर्वत्र ही ‘ब्रह्मात्मैक्यज्ञान’ लिया है, वैसा अर्थ न किया जाय अपितु भक्ति-रस का आस्वाद बनाये रखा जाय तथा हरिलीलावर्णन इस ग्रन्थ का प्रमुख प्रतिपाद्य माना जाय। इसको समझाने के लिए उन्होंने एक कथा लिखी है कि कोई विद्वान् सन्यासी श्रीमद्भागवत का व्याख्यान करते समय ‘नन्दगोपकुमार’ का अर्थ है वेद की रक्षा करने वाला, कुमार का अर्थ है, अविद्या को दूर करने वाला’, तब तक भगवान् कृष्ण प्रकट हो गये और कहा कि ‘इसका अर्थ ‘नन्द नामक अहीर का लड़का’ ही लिखो।’ ‘स्वारस्य’ का यह तात्पर्य स्वीकार करते हुए मैंने श्रीमद्भगवद्गीता के लिए मुख्यतः भगवत्पाद के भाष्य और उनके अनुयायी व्याख्यानों का आश्रय लिया है तथा श्रीमद्भागवत के लिए वंशीध्ार स्वामी की टीका की ओर मुड़ा हूँ क्योंकि उन्होंने श्रीध्ार स्वामी की अद्वैत-परक व्याख्या के साथ-साथ विश्वनाथ चक्रवर्ती जैसे गौडीय वैष्णवों की व्याख्या को भी समंजस किया है।
हम इस आलेख में मध्ाुसूदन सरस्वती जी के सिद्धान्त को समझने की कुछ चेष्टा करेंगे जिन्होंने शांकरोत्तर अद्वैत में श्रीमद्भागवत की सादर चर्चा की है और भगवत्पाद द्वारा प्रतिपादित ज्ञान-मार्ग तथा कर्म-मार्ग के अतिरिक्त एक तीसरे मार्ग के रूप में भक्ति-मार्ग को स्थान दिलाने का पक्ष लिया है। ‘भक्ति’ के लिए मध्ाुसूदन सरस्वती जी का महत्व बहुत अध्ािक है। उनके बाद अद्वैत कभी भी भक्ति के प्रतिपादन से पीछे नहीं हटा। विश्वनाथ चक्रवर्ती जैसे गौडीय वैष्णव भी अपने प्रतिपादनों में उनके ऋणी हैं। गोस्वामी तुलसी दास से उनका स्नेहसम्बन्ध्ा सर्वविदित ही है। यह भी यहीं बता देना ठीक है कि भक्ति को यह महत्व देने के नाते श्रीमद्भगवद्गीता के ध्ानपति सूरि और वेंकटनाथ जैसे अद्वैती व्याख्याकारों ने उनपर भगवत्पाद का विरोध्ाी होने का आरोप लगाया है और अद्वैत-सिद्धान्त को दूषित करने का आक्षेप किया है।
4 ब्रह्म, परमात्मा और भगवान्
गोस्वामी जी ने ज्ञान और भक्ति की तुलना करते हुए (रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, दोहा 115-क के पहले) प्रयोजन की दृष्टि से दोनों को एक ही बताया हैः भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा; उभय हरहिं भव सम्भव खेदा भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है, दोनों ही इस संसार में जन्म लेने के खेद से मुक्ति दिलाते हैं) किन्तु व्यवहार की दृष्टि से (रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, दोहा 119-क के पहले) ज्ञान-मार्ग को कठिन और भक्ति-मार्ग को सुगम बताया है- ग्यान पन्थ कृपान कै ध्ाारा... असि हरि भगति सुगम सुख दाई ज्ञान-मार्ग तलवार की ध्ाार के समान है... ऐसा यह सुगम और सुखदायी भक्ति-मार्ग है।) हम आगे देखेंगे कि यही कथन बहू-सम्मत है और यह भी समझने की चेष्टा करेंगे कि इस स्वीकृति के कारण क्या हैं। तथापि उन्होंने यह भी कहा है ः
निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ
सुगम अगम नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होइं।। -रामचरितमानस उत्तरकाण्ड, दोहा 73-ख
(निर्गुण रूप अत्यन्त सुलभ (= सहज ही समझ में आ जाने वाला) है परन्तु सगुण रूप को कोई नहीं जानता। इसलिए उन सगुण भगवान् के सुगम और अगम अनेक प्रकार के चरित्रों को सुनकर मुनियों के भी मन को भ्रम हो जाता है।)
3 टीकाकार के नाम ‘वंशीध्ार’ के आगे ‘स्वामी’ जोड़ने का कारण यह है कि डाॅ मुरलीध्ार पाण्डेय द्वारा प्रणीत शांकरवेदान्तकोश के पृ 171 और 172 पर ऐसा ही लिखा हुआ है जिससे प्रतीत होता है कि ये भी संन्यासी ही थे। यह ग्रन्थ सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से 2016 में पुनः प्रकाशित हुआ है।
सगुण रूप को समझना क्यों कठिन है इसके लिए यहाँ टीकाकारों ने सामान्यतः यह समाध्ाान दिया है कि सगुण अवतारों में भगवान् की बहुत सी लीलाएँ ऐसी होती हैं जो उनके भगवान होने के गौरवानुरूप नहीं जान पड़तीं- उदाहरणार्थ कृष्णावतार में चीरहरण, रासलीला, द्रोण, कर्ण, दुर्योध्ान प्रभृति का छलपूर्वक वध्ा करवाना आदि, या रामावतार में बालिवध्ा, जानकी-परित्याग आदि और इसलिए जिनका रहस्य समझने में लोगों को कठिनाई होती है जबकि निर्गुण ब्रह्म को समझने में ऐसी कठिनाई नहीं है क्योंकि वहाँ कोई लीला ही नहीं है। ऊपर से देखने में यह तर्क ठीक लगता है किन्तु वस्तुतः यह मनुष्य के अपने बनाये हुए नीतिशास्त्र पर आध्ाारित है और ऐसी कठिनाई एक मुकदमे में सही वकील की तलाश की ही कठिनाई है। गोस्वामी जी ने यहाँ ज्ञान-मार्ग को मन्दाध्ािकारी के लिए और भक्ति-मार्ग को उत्तमाध्ािकारी के लिए उपयुक्त बताया है। मेरी समझ में इस तारतम्य का सिरा कहीं और है।
श्रीमद्भागवत (1-2-11) में कहा गया है ः
वदन्ति तत्तत्वविदस्तत्त्वम् यज्ज्ञानमद्वयम्
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते।।
(तत्ववेत्ता लोग उसी को ‘तत्व’ कहते हैं जो अद्वय ज्ञान है और जिसे ‘ब्रह्म’ या ‘परमात्मा’ या ‘भगवान्’ कहा जाता है।)
इसका सीध्ाा अर्थ तो यही है कि तत्व अद्वैत ही है जिसे कोई ‘ब्रह्म’ कहता है, कोई ‘परमात्मा’ और कोई ‘भगवान्’। श्रीध्ार स्वामी ने यही अर्थ किया है। किन्तु गौडीय वैष्णव आचार्य जीव गोस्वामी ने इन तीन शब्दों में अन्तर किया है और एक तारतम्य भी बिठाया है। वह अन्तर संक्षेप में यह है कि ब्रह्म की शक्तियाँ जब प्रकट नहीं रहतीं, तब उसे ‘ब्रह्म’ कहते हैं और यह उन लोगों द्वारा ग्राह्य है जो इन शक्तियों के सहित ब्रह्म की अवध्ाारणा ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं, जब उस ब्रह्म की अन्तर्यामित्व आदि शक्तियाँ स्फुट होती हैं तब वह ‘परमात्मा’ कहलाता है और जब उस ब्रह्म की सारी शक्तियाँ स्फुट होती हैं तब वह ‘भगवान्’ कहलाता है। उनके अनुकरण पर विश्वनाथ चक्रवर्ती तथा वंशीध्ार स्वामी ने यह तारतम्य और स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘ब्रह्म’ तक पहुँच रखने वालों को ‘ज्ञानी’, ‘परमात्मा’ तक पहुँच रखने वालों को ‘योगी’ और ‘भगवान्’ तक पहुँच रखने वालों को ‘भक्त’ कहते हैं तथा इसकी पुष्टि हेतु श्रीमद्भगवद्गीता (6-46, 47) उद्धृत की है ः
तपस्विभ्योऽध्ािको योगी ज्ञानिभ्योऽप्यध्ािको मतः
कर्मिभ्यश्चाध्ािको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन।।
योगिनामपि सर्वेषाम् मद्गतेनान्तरात्मना
श्रद्धावान् भजते यो माम् स मे युक्ततमो मतः।।
(योगी तपस्वियों से भी अध्ािक है, ज्ञानियों से भी अध्ािक है और कर्म करने वालों से भी अध्ािक है; इसलिए हे अर्जुन, तुम योगी ही बनो।
योगिनों में से भी जो श्रद्धायुक्त होकर मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित किये हुए अन्तःकरण से मुझको ही भजता है, वह मेरे मत में सबसे श्रेष्ठ योगी है।)
‘मार्गों के तारतम्य’ और उसके प्रमाणों की चर्चा आगे भी आयेगी, यहाँ सिर्फ़ इतना कहना है कि श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में जो ‘ज्ञानी’ निम्नतर कोटि का साध्ाक बताया गया है वह जीव गोस्वामी के गौडीय सिद्धान्त में अद्वैत-स्वीकृत ‘ब्रह्मज्ञानी’ माना गया है और इस प्रकार भगवत्पाद ने जिस ज्ञान-मार्ग को उत्तमाध्ािकारी के लिए उपयुक्त बताया है उसे ही जीव गोस्वामी ने मन्दाध्ािकारी के लिए बताया है। तात्पर्य यह है कि गौडीय मत में अद्वैत का तारतम्य उलट दिया गया है। जहाँ तक श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों की बात है, भगवत्पाद ने यहाँ ‘ज्ञानी’ का अर्थ ‘शास्त्रपण्डित’ किया है जिसका स्थान अद्वैत के तारतम्य में ‘ब्रह्मज्ञानी’ से नीचे ही है।
जीव गोस्वामी के मत की चर्चा हमें उस समय करनी होगी जब हम मध्ाुसूदन सरस्वती जी के भक्ति-सिद्धान्त पर बात करेंगे। यहाँ यह जान लेना ठीक रहेगा कि अद्वैतियों के अनुसार जीव गोस्वामी मध्ाुसूदन सरस्वती के शिष्य थे यद्यपि बाद में उन्होंने अपने गुरु के अद्वैत-मत के विरुद्ध गौडीय सम्प्रदाय का ही पोषण किया। गौडीय सम्प्रदाय के लोग इस ‘गुरुद्रोह’ के आरोप से इन्कार करते हैं और कहते हैं कि जीव गोस्वामी ने काशी में जिन आचार्य से वेदान्त पढ़ा था उनका नाम मध्ाुसूदन सरस्वती नहीं, मध्ाुसूदन वाचस्पति था।
5 मोक्ष - प्राप्ति के मार्गः तीन, दो या एक ?
जिन तीन मार्गों का गोस्वामी जी ने ऊपर कवितावली से उद्धरण में नाम लिया है, उनका स्पष्ट उल्लेख इन आकर-ग्रन्थों में है। उदाहरण के लिए ः
योगास्त्रयो मया प्रोक्ता नृणाम् श्रेयोविध्ाित्सया
ज्ञानम् कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित्।।
निर्विण्णानाम् ज्ञानयोगो न्यासिनामिह कर्मसु
तेष्वनिर्विण्णचित्तानाम् कर्मयोगस्तु कामिनाम्।।
यदृच्छया मत्कथादौ जातश्रद्धश्च यः पुमान्
न निर्विण्णो नातिसक्तो भक्तियोगोऽस्य सिद्धिदः।।
तावत्कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता
मत्कथाश्रवणादौ वा श्रद्धा यावन्न जायते।। -श्रीमद्भागवत (11-20-6, 7, 8, 9)
(भगवान् उद्धव से कह रहे हैं) मैंने तीन योग बताये हैं- ज्ञानयोग, भक्तियोग तथा कर्मयोग। इन तीन के अतिरिक्त मोक्षप्राप्ति का कोई चैथा उपाय नहीं है। जिन्हें संसार से वैराग्य हो गया है और जिन्होंने कर्मों का त्याग कर दिया है, उनके लिए ज्ञानयोग है, जिनकी कामनाएँ अभी शेष हैं और जिनको कर्मों से वैराग्य नहीं हुआ है, उनके लिए कर्मयोग है, और जो न तो कर्मों से विरक्त ही हैं तथा न उनमें अत्यासक्त ही हैं, एवं जिनकी रुचि मेरी कथा आदि के श्रवण में किसी प्रकार जागृत हो गयी है उनके लिए भक्तियोग है। कर्म तभी तक करना चाहिए जबतक उनसे वैराग्य न हो जाय या मेरी कथा आदि के श्रवण में रुचि न जागृत हो जाय।)
टीकाकारों ने इन श्लोकों का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि कर्म-मार्ग वस्तुतः कोई मार्ग नहीं, केवल एक द्वार है जो ज्ञान और भक्ति दोनों मार्गों पर ले जा सकता है- यदि वैराग्य हो गया तो ज्ञान-मार्ग पर जो ‘निर्विशेष ब्रह्म’ की प्राप्ति करायेगा, यदि भगवत्-कथा के श्रवण में रुचि हो गयी तो भक्ति-मार्ग पर जो ‘सविशेष ब्रह्म’ की प्राप्ति करायेगा। सारांश यह है कि श्रीमद्भागवत के अनुसार वस्तुतः मोक्ष के केवल दो ही मार्ग ठहरते हैंः पहला ज्ञान-मार्ग जो निर्गुण ब्रह्म को पहुँचाने वाला है, और दूसरा भक्ति-मार्ग जो सगुण ब्रह्म को पहुँचाने वाला है।
छठे श्लोक की (जीव गोस्वामी द्वारा लिखी गयी) टीका में एक वाक्य मिलता हैः ‘अनेन भक्तेः कर्मत्वम् व्यावृत्तम् (= इस प्रकार सिद्ध हो गया कि भक्ति को कर्म कहना ग़लत है)।’ इस वाक्य की आवश्यकता तो इन श्लोकों की अर्थवत्ता के लिए बहुत है- क्योंकि यदि भक्ति का अन्तर्भाव कर्म में ही हो जायेगा तो फिर चूँकि कर्म-मार्ग को अवास्तविक घोषित कर चुके हैं इसलिए ले देकर एक ही मार्ग बचेगा, ज्ञान-मार्ग। अतः यह जानना आवश्यक है कि भक्ति का अन्तर्भाव कर्म में करने वाला मत किसका है जिसका प्रत्याख्यान यहाँ किया गया है।
यह सुविदित है, और आगे हम इस सच्चाई का सामना कुछ विस्तार से करेंगे, कि भगवत्पाद के अनुसार मोक्ष का केवल एक ही मार्ग है, ज्ञान-मार्ग। ऐसा उन्होंने ‘उपासना’ को ‘कर्म’ के भीतर शामिल करते हुए किया है। यह उनके समस्त विश्लेषण से प्रकट है ही, तन्निधर््ाारणानियमस्तदृष्टेः पृथग्ध्यप्रतिबन्ध्ाः फलम् (ब्रह्मसूत्र 3-3-42) के भाष्य में उन्होंने स्पष्ट कह ही दिया हैः ‘उपासनानाम् तु क्रियात्मकत्वात्.... (= चूँकि उपासनाएँ कियात्मक हैं....)’। इसके नाते ‘उपासना’ या ‘भक्ति’ का कोई स्वतन्त्र मार्ग उन्होंने नहीं स्वीकार किया और इस कारण से उन्होंने उसका बहुत विश्लेषण भी नहीं किया है, एक ‘मार्ग’ के रूप में जो वे ‘कर्म’ के बारे में कहते हैं, वही ‘उपासना’ पर भी लागू होता है।
हम देखेंगे कि ‘भक्ति’ को ‘कर्म’ के अन्तर्गत शामिल करने के परिणाम दूरगामी हैं। अद्वैत के अनुसार उपासना अविद्या-दशा में ही हो सकती है। ‘अविद्या’, ‘अज्ञान’, ‘माया’ जैसे शब्दों के साथ सगुण ब्रह्म और सगुणोपासना का अविच्छेद्य सम्बन्ध्ा मानने वाले अद्वैत-सिद्धान्त के प्रति अरुचि जगना उनके मन में स्वाभाविक है जो भक्ति को महत्व देने वाले लोग हैं। विशिष्टाद्वैत जैसे शांकरेतर वेदान्तों के विकास में उस उत्तेजना का बड़ा हाथ है जो अद्वैत द्वारा सगुणोपासना के इस ‘अवमूल्यन’ के नाते जगी।
हम इस ‘अवमूल्यन’ को भी समझने की चेष्टा करेंगे और यह भी समझना चाहेंगे कि किस प्रकार अद्वैत के भीतर ही भक्ति को एक उच्चिष्ठ प्रतिष्ठा देने के प्रयास किये गये हैं।
5.1 ‘सूने वृन्दावन में...’
यद्यपि अद्वैत मत में प्रतिपादित सिद्धान्तों की व्यवस्थित और सम्पूर्ण उपलब्ध्ाि हमें भगवत्पाद के ग्रन्थों से ही मिलती है और भक्ति को प्रध्ाानता देने वाले उपलब्ध्ा वैष्णव शास्त्र उनके बाद तथा उन्हें प्रतिपक्ष मानकर ही रचे गये हैं किन्तु मुझे लगता है कि भक्ति और ज्ञान का विवाद कुछ पहले से चला आ रहा है। मैं अपनी इस समझ का कारण नीचे देता हूँ।
साम्प्रदायिक विश्वास के अनुसार मीमांसा के प्रसिद्ध विद्वान मण्डन मिश्र भगवत्पाद से शास्त्रार्थ में पराजित होकर उनके शिष्य हुए और ‘सुरेश्वराचार्य’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। माना जाता है कि उनके सभी ग्रन्थों को भगवत्पाद ने स्वयम् अनुमोदित किया था। उनका बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक भगवत्पाद के बृहदारण्यकभाष्य पर लिखा गया वार्तिक-ग्रन्थ है। यह बारह हज़ार श्लोकों का ग्रन्थ है और इसकी प्रामाणिकता के बारे में कहा जाता है कि ‘वार्तिकान्ता ब्रह्मविद्या (= ब्रह्मविद्या इस वार्तिक ग्रन्थ पर्यन्त ही है, इसके आगे नहीं)। इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में प्रथम ब्राह्मण पर लिखते हुए इन्होंने कर्म के विवेचन के प्रसंग में यह प्रतिपादित किया है कि कर्म चाहे वैध्ा (= शास्त्रविहित) हो चाहे स्वाभाविक, उसके पीछे फलभोग की लालसा ही होती है। इस सिलसिले में उन्होंने लिखा है ः
उद्विजेताथवा ज्ञानात् सर्वपुम्भोगघस्मरात्
‘अपि वृन्दावने शून्ये’ इति कामिवचस्तथा।। -बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक श्लोक 423
(वैराग्यहीन व्यक्ति भोगलालसा के नाते ज्ञान से उद्विग्न हो उठता है। ‘सूने वृन्दावन में....’ इत्यादि कामियों के वचन हैं ही।)
टीकाकार आनन्दगिरि यह ‘सूने वृन्दावन में...’ वाला परम्पराप्राप्त श्लोक पूरा उद्धृत करते हैं। वह इस प्रकार हैं ः
अपि वृन्दावने शून्ये शृगालत्वम् स इच्छति
न च निर्विषयम् मोक्षम् कदाचिदपि गौतम।।
(हे गौतम, वह (कर्ममार्गी) सूने वृन्दावन में सियार होकर रहना पसन्द करता है किन्तु विषय-मुक्त होकर मोक्ष कभी नहीं चाहता।)
सुरेश्वराचार्य भगवत्पाद के शिष्य होते हुए भी अवस्था में उनसे बड़े थे। अतः यह श्लोक इन दोनों के पहले से चला आ रहा है इसमें कोई सन्देह नहीं। यह श्लोक विद्यारण्य स्वामी ने इस वार्तिक-ग्रन्थ के सारभूत अपने ग्रन्थ बृहदारण्यकभाष्यवार्तिकसार में भी उद्धृत किया है जहाँ उन्होंने इसे रागिगीता (=रागियों की ‘गीता’) का श्लोक बताया है। इस श्लोक से ऐसा प्रतीत होता है कि यह कटाक्ष उन भक्तिमार्गियों के ऊपर है जो मोक्ष को तिरस्कृत करते हुए यह मानते हैं कि भक्ति करने का अवसर ही सर्वश्रेष्ठ है और इस प्रकार जीव तथा ब्रह्म के भक्त-भगवान् रूपी द्वैत को पारमार्थिक स्तर पर भी बनाये रखना चाहते हैं। जहाँ तक ‘सूने वृन्दावन’ में किसी भी रूप में रहने की इच्छा का प्रश्न है, निजी तौर पर मुझे लगता है कि श्रीमद्भागवत के इस श्लोक (10-47-61) की तरफ़ इशारा है जो गोपियों से मिलने के बाद उद्धव जी का वाक्य है ः
आसामहो चरणरेणुजुषामहम् स्याम्
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषध्ाीनाम्
या दुस्त्यजम् स्वजनमार्यपथम् च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीम् श्रुतिभिर्विमृग्याम्।।
(मेरे लिए सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावन में कोई झाड़ी, लता या जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ जिनका इन गोपियों की चरणध्ाूलि से बराबर सम्पर्क रहता है। ये गोपियाँ वे हैं जिन्होंने अपने परिवार और ध्ार्ममार्ग जैसी कठिनाई से छोड़ने वाली चीज़ों को भी छोड़कर मुकुन्द का वह पद प्राप्त किया जो वेदों द्वारा ही खोजा जाता है।)
इस श्लोक में ‘मुकुन्द-पद’ कहने का इशारा तब साफ़ होता है जब हम इस पर ध्यान देते हैं कि ‘विष्णु का पद’ मोक्ष का पर्याय है और तब श्लोक का यह दावा भी प्रकट है कि ब्रह्मात्मैक्यज्ञान के बिना ही, केवल जारबुद्धि से कृष्ण की उपासना करने वाली गोपियों को मोक्ष प्राप्त हो गया। यह पक्ष अद्वैत को नहीं स्वीकार हो सकता और इसलिए भक्तिमार्ग का अद्वैत में समाहार करना एक टेढ़ी खीर है।
इस सन्दर्भ में यह सर्वदा स्मरण रखना चाहिए कि अद्वैत के अनुसार भक्ति-योग कर्म-योग का ही अंग है जो विध्ाि के द्वारा किया जाता है और जिसका फलभोग अनिवार्य है। और तब दो और बातों पर ध्यान रखना चाहिए; पहली यह कि यद्यपि ‘सूने वृन्दावन’ वाले श्लोक को ‘कामियों’ और ‘रागियों’ का वचन कहने में आचार्यों का तात्पर्य उन समस्त लोगों से है जिनकी कर्म और परिणामतः उसके फलभोग में आसक्ति पूरी तरह नहीं हटी है तथापि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि श्रीमद्भागवत के जो श्लोक (11-20-6, 7, 8, 9) ऊपर आये हैं उनमें भक्तियोग का उपदेश ऐसे ही लोगों के लिए किया गया है एवम् जैसा हम आगे देखेंगे, काम, क्रोध्ा, भय, द्वेष आदि भी भक्ति के मार्ग बताये गये हैं और ‘रागानुगा भक्ति’ सर्वश्रेष्ठ मानी गयी है। दूसरी बात यह है कि जिन सुरेश्वराचार्य ने बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक में इस श्लोक का इशारा किया है उन्होंने ही बृहदारण्यकभाष्यवार्तिक का मंगलाचरण करते हुए कहा है कि ‘मैं परब्रह्म की भक्तिपूर्वक वन्दना करता हूँ।’ अतः ‘भक्ति’ का कोई अर्थ उनको स्वीकृत था ही जो इस ‘वृन्दावनी भक्ति’ से भिन्न रहा होगा। इस ‘भिन्नता’ पर भी आगे विचार करना होगा।
6 ब्रह्म से उपाध्ाि का साहित्य और राहित्य
6.1 उपाध्ाि और विशेषण
श्रीमद्भागवत के जिन श्लोकों (11-20-6, 7, 8, 9) की चर्चा ऊपर की गयी है उनकी टीकाओं में कहा गया है कि भक्ति-योग ‘सविशेष ब्रह्म’ की प्राप्ति करायेगा और ज्ञान-मार्ग ‘निर्विशेष ब्रह्म’ की। इन प्राप्तव्यों का अन्तर समझने की चेष्टा करते हैं।
आनन्दमयोऽभ्यासात् (ब्रह्मसूत्र 1-1-12) के भाष्य की अवतारणा करते हुए भगवत्पाद ने कहा है कि एक तरह से वेदान्त-शास्त्र ब्रह्मसूत्र के पहले ग्यारह सूत्रों में पूरा हो चुका है और अब आगे का ग्रन्थ इस उद्देश्य से आरम्भ होता है कि उस असमंजस से उबरा जाय जो इस बात से उत्पन्न होता है कि श्रुतियों में ब्रह्म का दो प्रकार का वर्णन मिलता हैः एक उपाध्ािविशिष्ट और दूसरा उपाध्ािरहित। ‘उपाध्ाि’ से तात्पर्य है किसी विशेषता को ग्रहण करना; जैसा कि प्राकाशवच्चावैयथ्र्यम् (ब्रह्मसूत्र 3-2-15) के भाष्य में भगवत्पाद ने कहा हैः सूर्य का प्रकाश बाँस आदि का आश्रय लेने से कहीं सीध्ाा कहीं टेढ़ा दिखायी देता है, ये सब उसकी उपाध्ाियाँ हैं।
‘उपाध्ाि’ और ‘विशेषण’ में अन्तर है। जब हम कहते हैं कि ‘नीली कमीज़ वाला दिखायी पड़ा’ तब ‘नीली कमीज़ वाला’ विशेषण है क्योंकि ‘दिखायी पड़ने’ के कार्य में ‘नीली कमीज़’ शामिल है किन्तु जब हम कहते हैं कि ‘नीली कमीज़ वाला बोला’, तब ‘नीली कमीज़ वाला’ उपाध्ाि है क्योंकि ‘बोलने’ के कार्य में ‘नीली कमीज़’ शामिल नहीं है। इस अन्तर की जहाँ ज़रूरत पड़ेगी वहाँ करेंगे, फि़लहाल हम ‘उपाध्ाि’ और ‘विशेषण’ को एक मान सकते हैं। इस प्रकार, तात्कालिक चर्चा के लिए, उपाध्ािविशिष्ट ब्रह्म को ही ‘सविशेष ब्रह्म’ और उपाध्ािरहित ब्रह्म को ही ‘निर्विशेष ब्रह्म’ कहा जायगा। वर्तमान सन्दर्भ की सीमाओं में यह प्रयोग आचार्य-सम्मत है। यह दुहरा लें कि ‘उपाध्ाि’, या ‘विशेषण’ अज्ञान की उपज है, जैसे कुण्डली मारकर बैठे हुए सर्प को देखकर यह समझना कि सर्प वह है जो कुण्डली मारता है।
6.1.1 टिप्पन
अद्वैत सिद्धान्त में ‘उपाध्ाि’ का एक अन्य प्रचलित उदाहरण यहाँ प्रासंगिक है।
घड़े में ‘घड़ा-पन’ क्या है ? जहाँ घड़ा बना, वहाँ घड़ा-पन है नहीं क्योंकि घड़ा बनने के पहले घड़ा-पन हो नहीं सकता। किसी दूसरे घड़े से घड़ा-पन आ नहीं सकता क्योंकि तब उस दूसरे घड़े में घड़ा-पन नहीं रहेगा। इस प्रकार घड़ा-पन किसी घड़े को छोड़ता नहीं, जहाँ घड़ा बना, उसके बनने के बाद ही उसमें घड़ा-पन आता है, किन्तु फिर भी घड़ा-पन में कोई क्रिया नहीं है कि वह कहीं से आ जाय। घड़ा नष्ट होने पर भी घड़ा-पन नष्ट नहीं होता किन्तु उसकी प्रतीति नहीं होती। यह नहीं कह सकते कि घड़ा-पन एक घड़े में है और दूसरे में नहीं अतः यही कहना पड़ेगा कि घड़ा-पन वह चीज़ है जो सभी घड़ों में रहती है। किन्तु जो घड़े नष्ट हो गये, जो हैं, और जो आगे बनेंगे, उन सबको ग्रहण करना असर्वज्ञ के लिए असम्भव है। इन जैसी अनेक युक्तियों के आध्ाार पर यही स्वीकार करना पड़ेगा कि ‘घड़ा-पन’ जैसी कोई चीज़ नहीं है, वह वैसा ही है जैसा रस्सी को साँप समझना। ‘घड़ा-पन’, अर्थात् ‘घड़ा-जाति’ एक उपाध्ाि है, मात्र भ्रम।
ठीक यही बात ‘ब्राह्मण-त्व’ आदि के साथ है। उदाहरण के लिए ‘बृहस्पतिसव’ नामक यज्ञ केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं, इस प्रकार जोे भी यह यज्ञ करता है वह अपने को ब्राह्मण मान कर ही उसे कर सकेगा, यह एक अपराध्ा है जिसके नाते उसे (बृहस्पतिसव का पुण्यफल भोगने के बाद) पुनः जन्म लेना पड़ता है और उसे मोक्ष नहीं प्राप्त होता।
(श्री विद्यारण्य स्वामी की कृति है बृहदारण्यकवार्तिकसार। उसमें बृहदारण्यकोपनिषद् (2-4-6) का आशय स्पष्ट करते हुए कहा गया है ः
यो विप्रजातिम् चैतन्यादन्यद्वस्त्वभिमन्यते
कैवल्यात्तम् पराकुर्याद्विप्रजातिः परांगमुखम्।।
ब्राह्मणोऽहमिति भ्रान्त्या बृहस्पतिसवादिषु
प्रवृत्तो लभते जन्मेत्येषैवास्य पराक्रिया।।
विप्रत्ववत् क्षत्रत्वदेवभूतादिकम् जगत्
स्वस्माद्भेदेन पश्यन्तम् क्लेशयेदपराध्ािनम्।।
इस पर महामहोपाध्याय हरिहरकृपालु द्विवेदी की विस्तृत हिन्दी व्याख्या के आध्ाार पर मैंने ऊपर का विवरण प्रस्तुत किया है।)
इस उदाहरण को सामने रखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘जाति-प्रथा’ के विरोध्ा में मध्यकालीन ‘निर्गुण-वादी’ या अन्य सन्तों-भक्तों द्वारा आवाज़ उठाने की जो घोषणाएँ हमारे समकालीन समाजविज्ञानी और साहित्य-चिन्तक करते रहते हैं, उनकी तार्किक आध्ाार-भूमि अद्वैत द्वारा जाति की पारमार्थिक सत्ता का यह अस्वीकार ही है। यहाँ यह जोड़ना ज़रूरी है कि प्राणियों के भीतर भेद की पारमार्थिक सत्ता को मिथ्या मानने पर वे सिद्धान्तकार भी सहमत हैं जिनका अद्वैत की अन्य स्थापनाओं से मतैक्य नहीं है। रहा व्यावहारिक सत्ता का प्रश्न, तो उसे किसी मध्यकालीन आन्दोलन ने अस्वीकार किया हो, ऐसा मेरे देखने में नहीं आता।
6.2 सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म
बाद में चलकर ‘सविशेष ब्रह्म-निर्विशेष ब्रह्म’ के नामयुग्म की जगह ‘साकार ब्रह्म-निराकार ब्रह्म’ और ‘सगुण ब्रह्म-निर्गुण ब्रह्म’ के नामयुग्म अध्ािक लोकप्रिय हुए किन्तु ये नाम भगवत्पाद ने भी इस्तेमाल किये हैंः उदाहरणार्थ अरूपवदेव हि तत्प्रध्ाानत्वात् (ब्रह्मसूत्र 3-2-14) के भाष्य में ‘आकारवान् ब्रह्म’ और ‘अनाकार ब्रह्म’ तथा स्थानादिव्यपदेशाश्च (ब्रह्मसूत्र 1-2-14) के भाष्य में ‘सगुण ब्रह्म’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ आये हैं; दर्शनाश्च (ब्रह्मसूत्र 3-2-21) के भाष्य में दोनों शब्दयुग्मों का एक साथ प्रयोग है। ‘पर ब्रह्म-अपर ब्रह्म’ का भी युग्म प्रचलित है। इस प्रकार यह युग्म उपस्थित होता है ः
1. उपाध्ािविशिष्ट = सविशेष = साकार = सगुण (ब्रह्म) और
2. उपाध्ािरहित = निर्विशेष = निराकार = निर्गुण (ब्रह्म)।
‘स-गुण’ आदि में ‘गुण’ का तात्पर्य कामचलाऊ तौर पर ‘विशेषण’ से है, उदाहरण के लिए जब हम कहते हैं कि कोई चीज़ चमक रही है तब हम उसका एक गुण, अर्थात् चमकीलापन, बता रहे होते हैं। इस प्रकार ‘उपाध्ाि’, ‘विशेषता’, ‘गुण’, ये सब फि़लहाल एक ही समझने चाहिए, आगे जहाँ इनमें अन्तर करने की ज़रूरत पड़ेगी, कर लेंगे। प्रचलित सत्व-रजस्-तमस् की ‘तिरगुन फाँस’ के भीतर इन सभी प्रयोगों का अन्तर्भाव है। हमारे लिए यह याद रखना ठीक होगा कि यह गुणत्रयी ‘अज्ञान’ और ‘माया’ जैसे नामों से जानी जाती है और इस प्रकार ‘सगुण ब्रह्म’ को ‘माया-शबलित ब्रह्म’ कहा जाता हैः ब्रह्म दो हैं, ‘निर्गुण = शुद्ध’ और ‘सगुण = शबलित (= चितकबरा)’।
6.2.1 टिप्पन
समकालीन चर्चा में प्रायः ‘मूर्त ब्रह्म = सगुण ब्रह्म’ और ‘अमूर्त ब्रह्म = निर्गुण ब्रह्म’ समझा जाता है। यह प्रयोग शास्त्र-सम्मत नहीं है। बृहदारण्यकोपनिषद् के दूसरे अध्याय के तृतीय ब्राह्मण के अन्तर्गत आने वाले छह मन्त्रों में ब्रह्म के मूर्त ब्रह्म और अमूर्त ब्रह्म ये दोनों ही रूप सविशेष ब्रह्म के बताये गये हें और निर्विशेष ब्रह्म को ‘नेति नेति = (यह नहीं, यह नहीं)’ से बताया गया है। यही ‘नेति नेति = (यह नहीं, यह नहीं)’ बृहदारण्यकोपनिषद् (4-5-15) में याज्ञवल्क्य द्वारा मैत्रेयी को दिये गये उपदेश का उपसंहार करते समय भी आया है। वस्तुतः जो ब्रह्म शब्दों द्वारा बताया जा सकता है वह ‘सोपाख्य’ है और वह सविशेष ब्रह्म है, निर्विशेष ब्रह्म ‘निरुपाख्य’ है अर्थात् उसे शब्दों द्वारा नहीं बताया जा सकता।
‘साकार’ की जगह ‘स-रूप’ और ‘अनाकार = निराकार’ की जगह ‘अरूप = नीरूप’ कहा जा सकता है, इनका प्रयोग भगवत्पाद ने भी किया है। उसी ‘अरूप = निराकार’ ब्रह्म के दो ‘रूप (= आकार) मूर्त और अमूर्त के नाम से जाने जाते हैं। पृथिवी, अग्नि और जल मूर्त हैं तथा वायु और आकाश अमूर्त किन्तु दोनों ही रूप हैं।
अ-रूप होने में और स-रूप होने में अन्तर क्या है ? ‘सारूप्य = स-रूप होना’ को वृद्धिह्रासभात्क्रमन्तर्भावादुभयसामंजस्यादेवम् (ब्रह्मसूत्र 3-2-20) के भाष्य में भगवत्पाद ने बताया हैः स-रूप वह है जो बढ़ता और घटता है- उदाहरण के लिए सूर्य नहीं बदलता किन्तु जल में उसका प्रतिबिम्ब जल के घटने-बढ़ने के साथ घटता-बढ़ता है और इस प्रकार जल के ध्ार्मों को अपना लेता है इसलिए वह प्रतिबिम्ब सूर्य का रूप है, या यों कहें कि सूर्य उस प्रतिबिम्ब में ‘स-रूप’ हो गया। तात्पर्य यह है कि ‘रूप’ वही है जो ‘उपाध्ाि’।
7. सगुण ब्रह्म उपासनार्थ है
यह सर्वविदित है कि अद्वैत-सिद्धान्त के अनुसार अभेद ही पारमार्थिक है, भेद केवल व्यवहारिक है। अविद्या की दशा में ही भेद और कर्म की सत्ता होती है। यही बात उपासना के लिए भी सच है। न भेदादिति चेन्नप्रत्येकमतद्वचनात् (ब्रह्मसूत्र 3-2-12) के भाष्य का समापन करते हुए भगवत्पाद ने कहा है कि ‘भेद का उपदेश उपासना के लिए है, तात्पर्य तो अभेद में ही है’। यहाँ ‘भेद’ का इशारा सगुण ब्रह्म की ओर है क्योंकि गुण में बदलाव से सगुण ब्रह्म में भी बदलाव होता है। इस प्रकार कहना यह हुआ कि ब्रह्म वस्तुतः अ-रूप है किन्तु उपासकों के हितार्थ उपास्य रूप में रूप ग्रहण कर लेता है। जिन्हें ‘सगुणवादी’ कहा जाता है, उनमें भी इस मत का विरोध्ा नहीं है। उदाहरण के लिए रामपूर्वतापन्युपनिषद् रामानन्दी सम्प्रदाय की साम्प्रदायिक उपनिषद् मानी जाती है और उसका कहना है ः
चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिणः
उपासकानाम् कार्यार्थम् ब्रह्मणो रूपकल्पना।।
(चिन्मय, अद्वितीय, निष्कल और अशरीरी ब्रह्म द्वारा उपासकों के मतलब के लिए ही अपने रूप की कल्पना कर ली जाती है।)
इस प्रकार एक ही ईश्वर सृष्टि करते समय रजोगुणप्रध्ाान होता है और ‘ब्रह्मा’ कहलाता है, पालन करते समय सत्त्वगुणप्रध्ाान होता है और ‘विष्णु’ कहलाता है तथा संहार के समय तमोगुणप्रध्ाान होता है और ‘शिव’ कहलाता है। निर्गुण ब्रह्म में कोई बदलाव सम्भव नहीं है क्योंकि गुण का वहाँ स्पर्श ही नहीं है।
यद्यपि यह प्रस्तुति विवरणात्मक है, सगुण ब्रह्म को ‘अज्ञान = अविद्या = माया’ तथा निर्गुण ब्रह्म को ‘ज्ञान’ से जोड़ने में सगुण ब्रह्म और निर्गुण ब्रह्म के बीच एक तारतम्य तो उपस्थित ही होता है। यही तारतम्य उस उत्तेजना के मूल में है जो मध्यकालीन सगुण बनाम निर्गुण के विवाद में दीखती है। इस तारतम्य को भगवत्पाद के परवर्ती अनुयायी भी बार-बार अग्रप्रस्तुत करते रहे हैं और अन्तस्तद्धर्मोपदेशात् (ब्रह्मसूत्र 1-1-20) पर अपनी टीका वेदान्तकल्पतरु में अमलानन्द सरस्वती जी की यह उक्ति ही अद्वैत-सम्प्रदाय का सिद्धान्त-कथन स्वीकार की गयी है ः
निर्विशेषम् परम् ब्रह्म साक्षात्कर्तुमनीश्वराः
ये मन्दास्तेऽनुकम्प्यन्ते सविशेषनिरूपणैः ।।
वशीकृते मनस्येषाम् सगुणब्रह्मशीलनात्
तदेवाविर्भवेत्साक्षादपेतोपाध्ािकल्पनम् ।।
(निर्विशेष परब्रह्म के साक्षात्कार में असमर्थ जो मन्द लोग हैं उनपर कृपा करके सविशेष ब्रह्म का निरूपण किया जाता है। जब सगुण ब्रह्म की आराध्ाना से उनका मन वश में आ जाता है तब वही सगुण ब्रह्म अपनी कल्पित उपाध्ाि का परित्याग करके उनके सामने निर्गुण ब्रह्म के रूप में प्रकट हो जाता है।)
आगे बढ़ने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि मध्ाुसूदन सरस्वती जी ने श्रीमद्भगवद्गीता की टीका लिखते हुए अद्वेष्टा सर्वभूतानाम्... (12-13) का व्याख्यान प्रारम्भ करते समय इन श्लोकों को सादर उद्धृत किया है। इस बात का महत्व बहुत अध्ािक इसलिए है कि मध्ाुसूदन सरस्वती जी पर भगवत्पाद के विरुद्ध जाकर भक्ति-मार्ग की एक स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करने का आरोप लगाया जाता है। जैसा कि पहले कह आये हैं, मध्ाुसूदन सरस्वती जी के प्रतिपादित भक्ति-सिद्धान्त पर हम इस आलेख में आगे अलग से चर्चा करेंगे।
7.1 अद्वैत में सगुणोपासना की जगह
इतनी दूर आते-आते पाठक को यह तो स्पष्ट ही हो गया होगा कि अद्वैत-वाद ‘पक्का निर्गुनिया’ है और उसे देवता की सत्ता न मूर्ति के भीतर स्वीकार है न मूर्ति के बाहर। फिर इस बात को ठीक से समझना ज़रूरी हो जाता है कि भगवत्पाद ने इतने स्तोत्र कैसे लिखे हैं, सौन्दर्यलहरी और प्रपंचसार जैसे उपासना-परक तन्त्र-शास्त्र के ग्रन्थ कैसे लिखे हैं, और उनकी परम्परा में श्रीविद्या तथा अन्य उपासनाओं की इतनी स्वीकृति किस प्रकार है।
इसका उत्तर भी अब तक स्पष्ट ही हो गया होगाः ऐसा सिद्धान्त से समझौता करते हुए व्यवहार के लिए उन प्रक्रियाओं को स्वीकार करते हुए किया जाता है जिनको अद्वैत वस्तुतः मिथ्या मानता है- कुछ वैसे ही जैसे व्यवहार के लिए काग़ज़ के टुकड़े में हम वास्तविक ध्ान का अस्तित्व मानते हैं। यह समझौता किस हद तक है इसका अनुमान एक उदाहरण से लगाया जा सकता है। तदनन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः (ब्रह्मसूत्र 2-1-14) के भाष्य का समापन करते हुए भगवत्पाद ने कहा हैः ‘अप्रत्याख्यायैव कार्यप्रपंचम् परिणामप्रक्रियाम् चाश्रयति सगुणेषु उपासनेषूपयोक्ष्यते (= इस जगत् की अवास्तविकता का प्रत्याख्यान किये बिना ही सगुण उपासन के निमित्त परिणामवाद को स्वीकार करते हुए उसका उपयोग किया जाता है)’।
इस स्वीकार का महत्त्व इसलिए है कि परिणामवाद अद्वैत का स्वीकृत सिद्धान्त नहीं है। ‘परिणाम’ का अर्थ है ‘तात्त्विक परिवर्तन’ जैसे दूध्ा का दही बन जाना या मिट्टी का घड़ा बन जाना या पृथिवी से अनाज का उगना, और इस प्रकार ‘परिणामवादी’ वे हैं जो ब्रह्म को भी सत्य मानते हैं तथा उससे उत्पन्न हुए जगत् को भी। भक्ति को पारमार्थिक महत्त्व देने वाले विशिष्टाद्वैत प्रभृति सभी सम्प्रदाय परिणामवादी हैं। अद्वैत का सिद्धान्त ‘विवर्तवाद’ माना जाता है। ‘विवर्त’ का अर्थ है ‘अतात्त्विक परिवर्तन’ जैसे समुद्र का तरंग के रूप में दिखना या रस्सी का साँप के रूप में दिखना। अतः विवर्तवाद की दृष्टि से जगत् मिथ्या है (चूँकि वह ब्रह्म का विवर्त है) भले ही उसकी व्यावहारिक सत्ता स्वीकार कर ली जाय। ‘सगुण उपासना’ के उपयोग के लिए परिणामवाद को स्वीकार करने का तात्पर्य यह होगा कि सगुण उपासना भी ‘मिथ्या’ है।
सौन्दर्यलहरी में भगवत्पाद ने परिणामवाद को स्वीकार किया है। इसके नाते कई आध्ाुनिक विद्वान् यह नहीं मानते कि यह भगवत्पाद की रचना हो सकती है क्योंकि अद्वैत तो विवर्त को स्वीकार करता है। भगवत्पाद का जो कथन अभी प्रस्तुत किया गया उससे परिणामवाद का यह स्वीकार पूर्णतया संगत है क्योंकि सौन्दर्यलहरी श्रीविद्या की उपासना का ग्रन्थ है और उपासना के लिए परिणामवाद का स्वीकार सिद्धान्त-समर्थित है। किन्तु परिणामवाद को अद्वैत के भीतर जगह दिलाने का एक रास्ता और है। अठारहवीं सदी के भास्कर राय तान्त्रिक साध्ाना के मूधर््ान्य आचार्य हैं। वे अद्वैत के ढृढ़ अनुयायी थे और तान्त्रिक साध्ाना-साहित्य में भी उन्होंने भगवत्पाद को परमगुरु माना है। वे स्वयं तो परिणामवादी थे ही, उन्होंने यह कहा है कि सारे तान्त्रिक परिणामवादी हैं। ललितासहस्रनाम पर अपने भाष्य में उन्होंने मिथ्याजगदध्ािष्ठाना नाम का व्याख्यान करते हुए कहा हैः
वस्तुतस्तु जगतो ब्रह्मपरिणामकत्वम् स्वीकुर्वताम् तान्त्रिकाणाम् मते जगतः सत्यत्वमेव मृद्घटयोरिव ब्रह्मजगतोरत्यन्ताभेदेन ब्रह्मणः सत्यत्वेन जगतोऽपि सत्यत्वावश्यम्भावात् भेदमात्रस्य मिथ्यात्वस्वीकारेणा.द्वैतश्रुतीनामखिलानाम् निर्वाहः। भेदस्य मिथ्यात्वादेव भेदघटिताध्ााराध्ोयभावसम्बन्ध्ाोऽपि मिथ्यैव। तावन्मात्रेणाविरोध्ो सर्वस्य जगतो मिथ्यात्वकल्पनम् तु वेदान्तिनामनर्थकमेवेति शाम्भवानन्दकल्पलतायाम् विस्तरः।
(वस्तुतः ‘घड़ा मिट्टी का परिणाम है’ की तरह ही ‘जगत् ब्रह्म का परिणाम है’ इस सिद्धान्त को स्वीकार करने वाले तान्त्रिकों के लिए ब्रह्म और जगत् में अत्यन्त अभेद को मानने के नाते ब्रह्म के सत्य होने के भरोसे ही जगत् का अवश्य ही सत्य होना स्वीकार किया जाता है और इस प्रकार भेद को मिथ्या स्वीकार करने से ही सभी अद्वैत-प्रतिपादक श्रुतियों का निर्वाह किया जाता है। भेद को मिथ्या मान लेने पर चूँकि आध्ाार और आध्ोय का सम्बन्ध्ा भेद से ही बनता है इसलिए यह सम्बन्ध्ा भी मिथ्या ही है। इस अविरोध्ा मात्र से ही वेदान्तियों द्वारा सारे जगत् को मिथ्या मानने वाली कल्पना निरर्थक हो जाती है। यह सब विस्तार से शाम्भवकल्पलता नामक ग्रन्थ में बताया गया है।)
शाम्भवकल्पलता नामक ग्रन्थ उपलब्ध्ा नहीं है किन्तु योगवासिष्ठ में ब्रह्म और जगत् का अभेद अनेकत्र प्रतिपादित है। मैं एक उद्धरण देता हूँ ः
सर्गा एव परम्ब्रह्म परम्ब्रह्मैव सर्गता
मनागप्यस्ति न द्वैतमत्राग्न्यर्कोष्ण्ययोरिव ।।
इमे सर्गा इदम्ब्रह्म तेऽत्यन्तावाच्यदृष्टयः
विदार्यदारुरववद्भान्त्यर्थपरिवर्जिताः ।। -योगवासिष्ठ (निर्वाण-प्रकरण उत्तराधर््ा) 58-19, 20
(सृष्टियाँ ही परब्रह्म हैं, परब्रह्म ही सृष्टि-ता है। उनके बीच कोई भेद वैसे ही नहीं है जैसे अग्नि की उष्णता और सूर्य की उष्णता के बीच भेद नहीं होता।
‘ये सृष्टियाँ हैं’, ‘यह ब्रह्म है’, जैसे शब्द वैसे ही निरर्थक हैं जैसे कुल्हाड़ी से फाड़ी जा रही लकड़ी की आवाजे़ं)
इन श्लोकों की टीका में आनन्दबोध्ोन्द्र सरस्वती ने ‘भेद के अभाव और इसके नाते आध्ाार-आध्ोय सम्बन्ध्ा के दुर्वचत्व’ की बात की है। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि भास्कर राय ने ठीक वही कहा है जो योगवासिष्ठ-कार ने। यद्यपि यहाँ हमें थोड़ा रुक कर इसे समझने की चेष्टा करनी चाहिए किन्तु इस प्रसंग पर आगे कभी चर्चा करेंगे जब आवश्यकता होगी।
7.1.1 टिप्पन
केनोपनिषद् (4-6) में उपास्य ब्रह्म की ‘तद्वन’ संज्ञा है जिसे भगवत्पाद ने अपने पदभाष्य में ‘प्राणिजात के द्वारा वन = वननीय = सम्भजनीय’ बताया है और यहीं पर वाक्यभाष्य में ‘अभिवांछा = सम्भजन = सेवा’ अर्थ किया है। समाप्ति तक जाते-जाते भगवत्पाद ने श्वेताश्वतरोपनिषद् का वह वाक्य भी उद्धृत किया है जो औपनिषद साहित्य का अकेला वाक्य है जिसमें ‘भक्ति’ शब्द आया है। केनोपनिषद् (4-6) के इस ‘अभिवांछा’ शब्द पर बाद में विचार करेंगे, यहाँ इतना कहना है कि ‘वांछा = चाहत’ से भक्ति का साहचर्य इससे प्रमाणित होता है।