23-Mar-2022 12:00 AM
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‘दरअसल इस अन्धविश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए। राॅथ्सचाइल्ड की जीवनी को पढ़कर अपनी धारणाओं को दृढ़ बनाने वाला व्यक्ति जब ईसा मसीह के जीवन के बारे में पढ़ता हुआ अपनी ख़ाता-बहियों और कार्यालय की डायरियों को तलाश करें और अगर वे उसे न मिलें, तो हो सकता है कि वह ईसा मसीह के बारे में बड़ी ख़राब धारणा बना ले और कहेः ‘एक ऐसा व्यक्ति जिसकी औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं है, भला उसकी जीवनी कैसे हो सकती है?’ इसी तरह वे लोग जिन्हें ‘भारतीय आधिकारिक अभिलेखागार’ में शाही परिवारों की वंशावली और उनकी जय-पराजय के वृत्तान्त न मिलें, वे भारतीय इतिहास के बारे में पूरी तरह निराश होकर कह सकते हैं कि ‘जहाँ कोई राजनीति ही नहीं है, वहाँ भला इतिहास कैसे हो सकता है?’ लेकिन ये धान के खेतों में बैंगन तलाश करने वाले लोग हैं। और जब उन्हें वहाँ बैंगन नहीं मिलते हैं, तो फिर कुण्ठित होकर वे धान को अन्न की एक प्रजाति मानने से ही इन्कार कर देते हैं। सभी खेतों में एक-सी फ़सलें नहीं होती हैं। इसलिए जो इस बात को जानता है और किसी खेत विशेष में उसी फ़सल की तलाश करता है, वही वास्तव में बुद्धिमान होता है।’ - रवीन्द्रनाथ ठाकुर1
ये पंक्तियाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने भारतवर्षेर इतिहास में गत सदी के आरम्भ में लिखीं। वे इतिहास की पश्चिमी अवधारणा से आधुनिक होने की हड़बड़ी और जल्दबाज़ी के दौर में भी सर्वथा अप्रभावित थे। पश्चिम में वहाँ की सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत अठारहवीं सदी में ‘इतिहास’ की एक अवधारणा का विकास हुआ, जो दूसरे समाजों को समझने-जानने के लिए सर्वथा अनुपयोगी और अप्रासंगिक थी। भारतीय परम्परा और विरासत को इस इस धारणा के मानकों के आधार पर समझने-परखने का मतलब था, ग़लत निष्कर्षों पर पहुँचना। यह रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अनुसार ‘धान के खेत में बैंगन तलाशने और नहीं मिलने पर धान को अन्न की प्रजाति मानने से इन्कार करने’ जैसा है। इतिहासकार फ्रांसिस टैफ्टने भी मीरां के जीवन और कविता को समझने के लिए इतिहास के पश्चिमी मानकों का इस्तेमाल किया और जब ये इतिहास के पश्चिमी मानकों पर खरे नहीं उतरे, तो उन्होंने मीरां के जीवन और कविता से सम्बन्ध्ाित अधिकांश स्रोत-सामग्री को कुछ हद तक संदिग्ध घोषित कर दिया। उन्होंने 2002 में एक शोध पत्र ‘दि इल्युजिव हिस्टोरिकल मीरां-ए नोट’ लिखा2, जिसकी पर्याप्त चर्चा हुई। सबसे पहले हम फ्ऱांसिस टैफ़्ट की स्थापनाओं पर विचार कर लेते हैं। उन्होंने अपने शोध लेख में राजस्थान के आरम्भिक आधुनिक इतिहासकारों- श्यामलदास, मुंशी देवीप्रसाद, ठाकुर चतुरसिंह और गौरीशंकर ओझा की मीरां के जीवन और कविता सम्बन्ध्ाी धारणाओं पर उनके द्वारा उपयोग में ली गई तीन तरह की स्रोत सामगी (1) राजपूत वंशावलियाँ, (2) चारण-भाटों की धारणाएँ और (3) राजस्थान की भक्ति सम्बन्ध्ाी परम्पराओं के आधार पर विचार किया। अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि- (1) 19वीं सदी के अन्तिम दो दशकों में ‘यूरोपीय शैली’ में इतिहास लिखने वाले (मुंशी देवीप्रसाद, श्यामदास, गौरीशंकर ओझा और ठाकुर चतुरसिंह) के काम से मीरा के जीवन की एक बुनियादी रूपरेखा बन जाती है, (2) इस बुनियादी रूपरेखा में बाद में कई चीज़ें जोड़ दी गईं, जो ‘इतिहास’ की श्रेणी में नहीं आतीं, (3) कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें और अनुसंधान करने से मीरां की अधिक स्पष्ट ऐतिहासिक पहचान उभर सकती है और (4) मीरां का ऐतिहासिक और सन्त रूप, दोनों एक दूसरे से बहुत अलग हैं और दूसरा सन्त रूप बाद में गढ़ा गया है। विडम्बना यह है कि फ्ऱांसिस टैफ़्ट मीरां को ‘ऐतिहासिक’ भी मानती है और इस सम्बन्ध्ा में उपलब्ध साक्ष्यों को ‘आधुनिक इतिहास सम्मत दृष्टि’ से अपर्याप्त भी ठहराती है। वे उन विद्वानों को जो मीरां की ऐतिहासिकता को लेकर आश्वस्त नहीं है, कुछ हद तक ग़लत मानती हैं।3 आरम्भ में मीरां की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध्ा में कुछ हद आश्वस्त भी लगनेवाली टैफ़्ट शोधपत्र के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते मीरां से सम्बन्ध्ाित अधिकांश उपलब्ध साक्ष्यों को सन्देहास्पद ठहरा देती हैं। उनके शोध लेख के अन्तिम निष्कर्ष इस प्रकार हैं-
‘पहला, बावज़ूद अनेक अनिश्चितताओं के, आरम्भिक इतिहासकारों (तालिका-1) के काम से मीराबाई के जीवन की एक प्राथमिक रूपरेखा उभर जाती है। तथापि, विशेष रूप से मुंशी देवीप्रसाद के काम में स्पष्टतः ऐसी परम्पराएँ और व्याख्याएँ सम्मिलित हैं, जिनकी पुष्टि वर्तमान ऐतिहासिक ज्ञान से नहीं की जा सकती है।
दूसरा, निश्चय ही यह मुमकिन है कि हम कुछ ऐतिहासिक उलझनों को सुलझा सकें; ख़ासतौर पर हम श्यामल दास के स्रोतों के बारे में और अधिक जान सकते हैं। तथापि, एक ऐतिहासिक अर्थ में जो हम पहले से जानते हैं उस जानकारी में और महत्वपूर्ण वृद्धि करने के बारे में निहित महत्वपूर्ण अवरोधों के बारे में हमें यथार्थपरक होना चाहिए। ऐतिहासिक उद्देश्यों से भक्ति और राजस्थान की परम्पराएँ बहुत हद तक अविश्वसनीय हैं और यह चाहे जितना आकर्षक हो, हमें मीरा की पदावली के बारे में भी सावधान रहना होगा, जो हमें अपेक्षाकृत हालिया रूपों में ही प्राप्त हुई है। इसलिए अन्त में जहाँ रूपरेखा तो लगभग स्पष्ट ही है, इसके बावज़ूद काफ़ी कुछ ऐसा है जो अस्पष्ट रह जाता है। ऐतिहासिक मीराबाई के बारे में हम जितना जानते हैं या जितना जानने की सम्भावना करते हैं और स्वयं मीराबाई के विवरण जिनमें हालाँकि अन्य एजेण्डाओं पर आधारित ऐतिहासिक सामग्री भी सम्मिलित है, इन दोनों के बीच का भेद बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इन दोनों का पार्थक्य ऐतिहासिक परियोजना के लिए आवश्यक है।’4
ख़ास बात यह है टैफ़्ट ने मीरां की ऐतिहासिकता पर विचार एक यूरोपीयन ‘इतिहासकार’ (हिस्टोरियन) की तरह किया। उनकी दुविधा यह है वे मीरां के ऐतिहासिक अस्तित्व को पूरी तरह नकारती भी नहीं हैं, लेकिन उनके ‘आधुनिक’ इतिहासकार के संस्कार और प्रशिक्षण उनको मीरां के सम्बन्ध्ा में उपलब्ध स्रोत सामग्री को ऐतिहासिक मानने से रोक देते हैं। उनकी मुश्किल यह है कि वे यूरोपीय इतिहास की तय की गई सीमाओं को लाँघने के लिए तैयार नहीं हैं। उन्होंने जो लिखा उसकी मंशा कमोबेश यही है। उन्होंने साफ़ लिखा कि ‘गत दशकों में मीरां पर जिन विद्वानों ने लिखा, उनमें से लगभग सभी धर्म या साहित्य या लोक सहित्य के विशेषज्ञ थे। मुझे यह स्वीकार करने की अनुमति दें कि मेरी अपनी रुचि राजस्थान के इतिहास में है- मैं ऐतिहासिक मीरां और उसके दूसरी तरफ़ विकसित पारम्परिक असंख्य और@या लोकप्रिय मीरांओं में अन्तर करने आग्रह करती हूँ। मैं सोलहवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में वास्तव में जीवन व्यतीत करनेवाली स्त्री से सम्बन्ध्ाित आधारभूत स्रोतों और दूसरी उपलब्ध सामग्री के मूल्यांकन पर ज़ोर देती हूँ।’5 इस तरह वे आधुनिक और उससे भी अधिक एक ‘पश्चिमी ईसाई इतिहासकार’ की तरह विचार करते हुए मीरां की कविता और जीवन से सम्बन्ध्ाी उन सभी उपलब्ध स्रोतों को कुछ हद तक संदिग्ध ठहरा देती हैं, जो पारम्परिक इतिहास, धर्माख्यान और लोक स्मृति में मौजूद हैं। उन्होंने ज़ोर देकर कहा है कि मीरां के जीवन और कविता के सम्बन्ध्ा में मुंशी देवीप्रसाद (आधुनिक इतिहासकार) के काम में ऐसी ‘परम्पराएँ और व्याख्याएँ सम्मिलित हैं, जिनकी पुष्टि वर्तमान ऐतिहासिक ज्ञान से नहीं की जा सकती है’ और भक्ति और राजस्थान की मीरां सम्बन्ध्ाी परम्पराएँ ‘बहुत हद तक अविश्वसनीय हैं।’ मीरां की प्रचलित और उपलब्ध कविता की प्रामाणिकता के सम्बन्ध्ा में भी वे आश्वस्त नहीं हैं और इस सम्बन्ध्ा में ‘सावधान रहने’ का आग्रह करती हैं। वे लिखती हैं कि ‘अनिवार्य रूप से, उनके भजनों के बोली, प्रस्तुति और शायद वैचारिक कारणों से कई रूप उभरे।’6 इस तमाम कवायद का रोचक पक्ष यह है कि वे स्वयं यह मानती हैं कि ‘सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में मीरां नाम की स्त्री ने जीवन व्यतीत किया’7, लेकिन वे इस सम्बन्ध्ा में उपलब्ध स्रोतों की ‘ऐतिहासिकता’ के सम्बन्ध्ा में आश्वस्त ही नहीं हैं।
मीरां के जीवन और कविता को इस तरह इतिहास के पश्चिमी मानकों से समझना-परखना ग़लत है। पश्चिमी इतिहासकारों को अपने ग्रीक और रोमन पूर्वजों की स्मृति के रख-रखाव की पद्धति और ढंग पर बहुत गर्व है। मार्क ब्लाख़ ने तो लिखा है कि ‘औरों से भिन्न हमारी सभ्यता अपनी स्मृतियों के प्रति बेहद सतर्क रही है। हर चीज़ ने उसका झुकाव इसी दिशा में कियाः ईसाई और शास्त्रीय विरासत दोनों ने। हमारे शुरुआती उस्ताद, ग्रीक-रोमन लोग, इतिहास लिखने वाले लोग थे।’8 मार्क ब्लाख़ ने आगे और साफ़ करके लिखा कि ‘ईसाइयत तो इतिहासकारों का धर्म है।’9 विडम्बना यह है कि इतिहास की यही ईसाई पद्धति अब सार्वभौमिक आदर्श और मानक बन गई है। अपने साम्राज्य के अधीन होने कारण विश्व के कई देश-समाजों का आरम्भिक इतिहास पश्चिमी इतिहासकारों ने इसी पद्धति के आधार पर लिखा। विडम्बना यह है कि आरम्भिक अधिकांश उत्साही ‘आधुनिक’ भारतीय विद्वान् भी यही आदर्श और मानक लेकर अपनी विरासत की पहचान और पड़ताल करने निकल पड़े और इस आधार पर पश्चिमी विद्वानों की तरह उन्होंने भी अपने पूर्वजों के स्मृति के रख-रखाव के ढंग को ‘अपरिष्कृत’ मान लिया।10
सभी देश-समाजों का इतिहास एक जैसा हो, यह आग्रह सिरे से ही ग़लत है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने भारतवर्षेर इतिहास में गत सदी आरम्भ में ही सचेत कर दिया था कि ‘दरअसल इस अन्धविश्वास का परित्याग कर दिया जाना चाहिए कि सभी देशों के इतिहास को एक समान होना चाहिए।’11 स्मृति के रख-रखाव का हर समाज का अपना ढंग है। इसे कुछ लोग पुनरुत्थानवाद कहेंगे, लेकिन यह सही है कि बहुत प्राचीनकाल से ही अपनी ख़ास सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरत के तहत बनी-बढ़ी स्मृति के संरक्षण की हमारी अपनी परम्परा भी है। चक्रीय कालबोध और सनातनता की चेतना से इसका विकास अलग और ख़ास ढंग से हुआ, लेकिन इसमें देशकाल के सन्दर्भ भी निरन्तर और सघन है और इसकी परम्परा में इसके पर्याप्त साक्ष्य भी हैं। यह परम्परा भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों के अनुसार बनी, इसलिए इतिहास की पश्चिमी ग्रीक-रोमन ईसाई परम्परा से बहुत अलग है। इसमें इतिहास के ईसाई आदर्श और मानक- युक्तियुक्तता, कार्यकारण सम्बन्ध्ा, तथ्य पर निर्भरता, प्रत्यक्ष अनुभव आदि उस तरह से नहीं हैं, जिस तरह से सार्वभौमिक और कथित ‘आधुनिक’ इतिहास में होते हैं। इस परम्परा में एक तो स्मृति के दस्तावेज़ी ठहराव के बजाय उसको निरन्तर और जीवन्त रखने का आग्रह है, दूसरे, इसमें अतीत के यथार्थ का अमूर्तन इस तरह है कि यह वर्तमान में प्रासंगिक और उपयोगी बना रहे। मीरां के जीवन और कविता को भी इतिहास की पश्चिमी ज्ञान मीमांसा से अलग करके ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। उसके जागतिक स्त्री मनुष्य की यात्रा के मोड़-पड़ावों की पहचान के लिए ज़रूरी है कि उन पारम्परिक देशज इतिहास रूपों, धार्मिक आख्यानों और जनश्रुतियों को सहानुभूतिपूर्वक पढ़ा-समझा जाए, जिनकी पश्चिमी विद्वानों ने सजग अनदेखी की है। ख़ासतौर पर इस काम में उन जनश्रुतियों को भी निगाह में लिया जाना चाहिए, जो हमारे समाज के सांस्कृतिक व्यवहार और भाषा का बहुत ज़रूरी हिस्सा हैं। यहाँ इन सभी को ध्यान में रखकर मीरां के जीवन की रूपरेखा और उसकी कविता के उपलब्ध पाठों की प्रामाणिकता पर विचार किया गया है। यहाँ इस काम में इतिहास के आधुनिक मानकों का ध्यान रखा गया है, लेकिन यहाँ पारम्परिक इतिहास रूपों और लोकस्मृति को अनैतिहासिक मानने की कोई यूरोपीय या औपनिवेशिक अन्तर्बाधा नहीं है।
1.
मीरां के जन्म, विवाह और निधन आदि के सम्बन्ध्ा में ख्यात, बही आदि पारम्परिक इतिहास रूपों धर्माख्यानों और लोक स्मृति में पर्याप्त जानकारियाँ मिलती हैं। ख्यात, बही आदि में मीरां के सम्बन्ध्ा में उल्लेख कम हैं, क्योंकि उसके पति और पिता, दोनों सत्तारूढ़ नहीं हुए और वंश रचना हमारी की परम्परा केवल सत्तारूढ़ को ही निगाह में लेती है। अलबत्ता मीरां के सत्तारूढ़ परिजनों के सम्बन्ध्ा में इसमें पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं। विख्यात मध्यकालीन सांख्यिकीविद मुंहता नैणसी (1610-1670 ई.) की रचना मारवाड़ रा परगना री विगत में मीरां के पिता रत्नसिंह के बडे भाई वीरमदेव और उसके उत्तराधिकारी बेटे जयमल की जन्मपत्रियाँ उपलब्ध हैं। मुरारीदान के संग्रह से मिली नैणसी के समसामयिक विद्वान् उदयभांण चाम्पावत की राठौड़ों री ख्यात में दूदा, वीरमदेव आदि से सम्बन्ध्ाित बहुत प्रामाणिक उल्लेख हैं। इसी तरह मीरां के ससुर महाराणा सांगा के जन्म और सत्तारूढ़ होने के समय के सम्बन्ध्ा में पारम्परिक इतिहास रूपों में लगभग निर्विवाद उल्लेख हैं। इन्हीं विभिन्न उल्लेखों, धार्मिक रचनाओं और जनश्रुतियों के आधार पर मीरां के जन्म के समय और स्थान का निर्धारण किया जा सकता है। मीरां का जन्म 1498 ई. या इसके ‘आसपास’ हुआ। आरम्भिक इतिहाकारों और अध्येताओं ने मीरांकालीन अन्य लोगों के जन्म, राज्यारोहण, निधन आदि की तिथियों का सहयोग भी मीरां के जन्म का समय के निर्धारण में लिया, जो किसी भी तरह ग़लत नहीं है। 1902 ई. में मीरां के पितृकुल के वंशज इतिहासकार ठाकुर चतुरसिंह ने मेड़तिया शाखा के राठौड़ों के इतिहास चतुरकुल चरित्र में अपने कुल की वंश रचनाओं के आधार पर पहली बार मीरां के जन्म का समय संवत् 1555 (1498 ई.) के आसपास माना।12 बाद में हरविलास सारडा, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, गोपीनाथ शर्मा और हरमन गोएट्जे आदि इस धारणा पर कायम रहे।13 अब इस धारणा को पुष्ट करने वाला एक दस्तावेजी साक्ष्य राणी मंगा भाटों की बही भी उपलब्ध है। केहरदान और दाऊदान की इस मौलिक बही की नक़ल 1918 ई. में तैयार की गई। मारवाड़ से सम्बन्ध्ाित इस बही में 906 ई. से जसवन्तसिंह द्वितीय (1838-1895 ई.) तक के अन्तःपुर के विवरण दिए गए हैं। इसके अनुसार भी मीरां का जन्म संवत् 1555 (1498 ई.) में हुआ। बही में राव दूदाजी रै रणवासां री विगत में कहा गया है कि माराजकुंवर रत्नसिंह री बेटी मीरांबाई (खींचियों की दोहिती) हुई। जन्म समत 1555 सावण वद भृगुवार रो ने समत 1605 चेत वद 3 ने द्वारका में राम केयो। चितौड़ रे राणा सांगा रै माराज कुंवर भोजसी नै परणई (परणाई)।14
मीरां के जन्म के समय के निर्धारण में सही और सटीक गणना में खींचतान भी बहुत हुई, जो निरर्थक है, क्योंकि रानियाँ बहियों में तिथियाँ किसी प्रमुख घटना के समय को आधार बनाकर उसके आगे या पीछे के वर्षों की गणना करके लिखवाती थीं, जिसमें पाँच-छह वर्षों के हेर-फेर की गुंजाइश रहती थी। आरम्भिक इतिहासकारों और अध्येताओं ने यही ध्यान में रखकर 1498 ई. के बजाय ‘1498 ई. या इसके आसपास’ को मीरां का जन्म समय माना है। ‘1498 ई. या इसके आसपास’ को मीरां का जन्म समय मान लेने से उसके विवाह, निधन आदि के समय की सही गणना हो जाती है और इसका मेल उसके समकालीन परिजनों के जीवन की प्रमुख घटनाओं की तिथियों से भी हो जाता है। मीरां का जन्म 1498 ई. के आसपास होने की पुष्टि मारवाड़ रा परगना री विगत में दी गई वीरमदेव और जयमल की जन्मपत्रियों से भी हो जाती है। इन पत्रियों के अनुसार वीरमदेव का जन्म 1477 ई. और जयमल का जन्म 1507 ई. में हुआ।15 मीरां के पिता रत्नसिंह वीरमदेव से छोटे थे, इसलिए उनका जन्म 1477 ई. के पहले ही हुआ होगा। मीरां जयमल से बड़ी थी, इसलिए उसका जन्म 1498 ई. या इसके आसपास हुआ होगा।
मीरां का जन्म मेड़ता में हुआ, लेकिन आरम्भ में जानकारियों के अभाव में कुड़की को मीरां का जन्म स्थान मान लिया गया था। यह सही है कि मीरां के पिता रत्नसिंह को जागीर के रूप में कुड़की सहित बारह गाँव (कुड़की, बाजोली, नोया, नींवडी, पालड़ी, आकोदिया, हकधर, नुन्द, पीभाणिया, मोटस, डुमाणी और सुन्दरी) मिले, लेकिन नयी उपलब्ध उदयभाण चाम्पावत की राठौड़ां री ख्यात से सिद्ध है कि यह जागीर रत्नसिंह को 1515 ई. के बाद प्राप्त हुई,16 जबकि मीरां का जन्म यह जागीर मिलने से पूर्व मेड़ता में हो गया था। विभिन्न धार्मिक स्रोतों में भी मीरां का जन्म स्थान मेड़ता को ही माना गया है। नाभादास की भक्तमाल के अनुसार मेड़ते जन्म भूमि, झूमि हित नैन लगै@ पगे गिरधरलाल, पिता ही के धाम में।17 राघवदास की भक्तमाल में भी उल्लेख है कि मात पिता जनमी पुर मेड़ते, प्रीति लगि हैर पीहर मांहि।18 सुखसारण की मीरांबाई की परची में भी मीरां का जन्म स्थान मेड़ता ही लिखा गया है- मीरां जनमी मेड़ते, भगति करण कलुकाल।@बिना बजाया बाजी, महलां सोवन थाल।19
मीरां के माता-पिता के सम्बन्ध्ा में बहुत जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं। मीरां के पिता के सम्बन्ध्ा में मुरारीदान की ख्यात की उपलब्धता से कुछ नई जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं। मीरां का पिता रत्नसिहं राव दूदा के पाँच पुत्रों में से चैथा था। वह दूदा के पाँच पुत्रों में पंचायण से बड़ा और वीरमदेव, रायमल और रायसल से छोटा था।20 मारवाड़ परगना री विगत में उल्लेख है कि उसने रतना नाम के एक मीसण चारण को रतनावास गाँव दिया।21 उसकी मृत्यु महाराणा सांगा और बाबर के बीच 1527 ई. में हुए खानवा के युद्ध में हुई। इस युद्ध में वीरमदेव ने अपने अनुज रायमल और रत्नसिंह के साथ ससैन्य महाराणा सांगा की ओर से भाग लिया था। इसमें वीरमदेव घायल हुआ और रत्नसिंह अपने अग्रज रायमल के साथ काम आया।22
मीरां का विवाह महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ। मुंहता नैणसी री ख्यात में यह उल्लेख है कि भोजराज सांगावत। इणनुं, कहे छे मीरांबाई राठौड़ परणाई हुती।23 इसी तरह रामदान लालस (1761-1825 ई.) कृत भीमप्रकाश में भी उल्लेख है के भोजराज जेठो अभंग कंवरपणे म्रत कीध।24 पारिस्थितिक साक्ष्यों के आधार पर यह माना जा सकता है कि यह विवाह 1516 ई. के आसपास हुआ होगा।25 महाराणा सांगा अपने समय में उत्तर भारत के सबसे बड़े साम्राज्य का स्वामी था और उसने 28 विवाह किए, जिनसे उसके सात पुत्र- भोजराज, कर्णीसिंह, रत्नसिंह, विक्रमसिंह, उदयसिंह, पर्वतसिंह और कृष्णसिंह हुए।26 भोजराज का जन्म सांगा की रानी सोलंकी रायमल की बेटी कुंवरबाई से हुआ।27 उसका निधन महाराणा सांगा के जीवनकाल में ही हो गया था। भोजराज का निधन ठीक कब और कैसे हुआ, इस सम्बन्ध्ा में जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन गौरीशंकर हीराचन्द ओझा सहित अधिकांश विद्वानों के अनुमान हैं कि मीरां के विवाह के कुछ वर्षों बाद ही 1518 से 1523 ई. के बीच किसी समय महाराणा सांगा के गुजरात या मालवा अभियान के दौरान भोजराज की मृत्यु हुई होगी।28 मीरां की कविता में जिस राणा से तनावपूर्ण सम्बन्ध्ा और नाराज़गी का बार-बार उल्लेख आता है, वह भोजराज नहीं है। भोजराज तो सतारूढ़ ही नहीं हुआ और राणा सांगा के जीवित रहते ही उसका निधन हो गया, इसलिए यह संज्ञा उससे सम्बन्ध्ाित हो ही नहीं सकती। राणा सांगा उसने अपने सतारूढ़ मूर्ख और छिछोर देवर विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) के लिए प्रयुक्त की है। विक्रमादित्य से पूर्व 1528 से 1531 तक अल्प समय के लिए सत्तारूढ़ रत्नसिंह से भी मीरां के सम्बन्ध्ा अच्छे नहीं रहे होंगे। रत्नसिंह और उसकी माँ धनाबाई राठौड़ वीरमदेव के खि़लाफ़ थे, इसलिए, ज़ाहिर है, उनके मीरां से भी सम्बन्ध्ा ख़राब रहे होंगे। धनाबाई जोधपुर के राव सूजा के बेटे बाघा की बेटी थी29 और वह अपने बेटे रत्नसिंह को सत्तारूढ़ देखना चाहती थी, जिसमें उसे जोधपुर के राठौड़ौं का समर्थन हासिल था। विवाहोपरान्त मीरां सर्वथा असहाय और असुरक्षित नहीं थी। उसके आर्थिक स्वावलम्बन का प्रबन्ध्ा था और उसे कुछ हद तक पारम्परिक और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त थी। महाराणा सांगा ने अपनी पुत्रवधु के आर्थिक स्वावलम्बन के व्यापक प्रबन्ध्ा किए थे। उसे विवाहोपरान्त मेवाड़ के पुर और मांडल के परगने हाथ खर्च के लिए जागीर के रूप में दिए थे। गुर्जर गौड़ ब्राह्मणों की ख्यात और एक प्राचीन श्लोक (श्री चित्रकूटमुरलीधर नाम मूर्तिव्र्यासासनं द्विजवराय गजाधराय।@प्रददाति मीरां पत्युः स्वस्त्यर्थकामा तस्यान्वयकुलजनः प्रथमो हि व्यास।) से लगता है कि इस भूमि में से 200 बीघा सिंचित भूमि उसने अपने विद्या गुरु पंडित गजाधर को व्यास की पदवी सहित दान में दी, जो कहते हैं कि अभी भी उसके वंशजों के पास है।30
मीरां का अधिकांश विधवा जीवन कष्टमय और घटनापूर्ण था। 1523 और 1540 ई. के बीच परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि मेवाड़ और मेड़ता, दोनों ही सत्ता संघर्ष, अन्तर्कलह और बाह्य आक्रमणों की चपेट में आ गए। मीरां सती नहीं हुई इस कारण भी अन्तःपुर में उसके विरुद्ध माहौल नाराज़गी का रहा होगा। मीरां की कविता में एक जगह है कि भजन करस्यां सती न होस्यां मन मोह्यो घणनामी।31 यह उल्लेख नागरीदास उर्फ सांवतसिंह की पद प्रसंगमाला में भी विस्तार से आता है।32 1513 ई. में रत्नसिंह के निस्सन्तान मरने पर विक्रमादित्य सतारूढ़ हुआ। वह अयोग्य और मूर्ख था-उसने सात हज़ार पहलवान रख लिए और सामन्तों का अपमान और उपेक्षा करने लगा। नतीजतन अधिकांश जागीरदार या तो अपने ठिकानों में चले गए या शत्रुओं से मिल गए। चारों तरफ़ अराजकता फैल गई।33 विक्रमादित्य और उसकी माँ करमेती के मन में मीरां को लेकर शत्रुता और नाराज़गी तो पहले से ही थी। कुलोचित मान-मर्यादा के विरुद्ध उसके भजन-कीर्तन, साधु सत्संग आदि स्वेच्छाचारों से यह और बढ़ गई। विक्रमादित्य ने मीरां पर कई पाबन्दियाँ लगा दीं और उसे कष्ट और यातनाएँ देना शुरू कर दिया। मीरां को ज़हर देकर मारने के प्रयास की चर्चा उसकी कविताओं में एकाधिक बार आती है और इसकी पुष्टि विभिन्न धार्मिक-साम्प्रदायिक चरित्र-आख्यानों और लोक स्मृतियों से भी होती है। मीरां के पदों में एक जगह आता है-ज़हर प्याला राणाजी भेज्याजी, द्यो मीरां न व जाय।@ कर चरणामृत मीरां पी गई, कोई आप जानो रघुनाथ।34 इस तरह एक अन्य पद में उल्लेख इस तरह है-विसरा प्याला राणा जी,..........दोज्यो मीरां रै हाथ।@ कर चरणामृत पी गई भजु (जूं) रुग्नाथ।35 मीरां को मारने के प्रयासों का प्रकरण नाभादास की भक्तमाल और मीरांबाई की परची में भी आता है। भक्तमाल में कहा गया है- दुष्टनि दोष विचारि, मृत्यु को उद्दिम कीयो !@बार न बांको भयो, गरल अमृत ज्यों पीयो।36 परची में भी वृत्तान्त है कि मन्दिर में पूजा करने वाले दयाराम नाम के एक पंडे को राणा ने सिखाकर चरणामृत के बहाने मीरां को ज़हर दिलवाया।37 मीरां को षडयन्त्रपूर्वक ज़हर देकर मारने का प्रकरण लोक की स्मृति में सदियों से है। लोक में ऐसी धारणा है कि विक्रमादित्य के आदेश पर एक विजयवर्गीय जाति के महाजन ने गुर्जरगौड़ और दाहिमा जाति के दो ब्राह्मणों के साथ मिलकर मीरां को ज़हर दिया। लोक में इन तीनों षडयन्त्रकारियों की निंदा करने वाली जनश्रुति-बीजावर्गी बाणियो, दूजो गुजरगोड़, तीजो मीले जो दाहिमो करे टापरो चोड़ अब भी प्रचलित है।38
रत्नसिंह और विक्रमादित्य से प्रताडि़त और दुःखी मीरां अपने पीहर में अपने बड़े पिता वीरमदेव के पास आ गई, लेकिन यहाँ भी उसका जीवन निशिं्चत और निर्विघ्न नहीं रहा। जोधपुर के राव गांगा के समय से ही उसके उत्तराधिकारी मालदेव और वीरमदेव में शत्रुता चली आ रही थी। वीरमदेव स्वतंत्र और स्वाभिमानी प्रवृत्ति का व्यक्ति था इसलिए उसने मालदेव की अधीनता स्वीकार नहीं की। नतीजतन मालदेव ने 1536 ई. में मेड़ता पर चढ़ाई कर दी। वह इतना क्रूर और नृशंस था कि उसने मेड़ता को पूरी तरह तहस-नहस कर दिया। उसने वीरमदेव को कई वर्षों तक निराश्रय यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर कर दिया। मीरां भी कुछ समय अपने परिजनों के साथ यहाँ-वहाँ भटकती रही। मेड़ता से उखड़ने के बाद यहाँ-वहाँ भटकने के दौरान ही कभी मीरां पहले वृन्दावन और फिर द्वारिका गई होगी। मीरां की कविता के अन्तःसाक्ष्यों से लगता है कि वह टोडा तक वीरमदेव के साथ थी। उसके एक अल्पचर्चित पद में यह उल्लेख मिलता है। वह कहती है-जाण न दी जी य्यारे कारणे रे ज मीरां टोडारे बेस मोटी हुई।39 हुकमसिंह भाटी ने यशोधर चरित्र के साक्ष्य से अनुमान लगाया है कि टोडा पर मालदेव का आधिपत्य 1538 ई. में हुआ, इसलिए सम्भावना है कि इस समय तक मीरां वीरमदेव के साथ रही होगी।40
मीरां का अन्तिम कुछ समय वृन्दावन और शेष द्वारिका में निकला। मीरां वृन्दावन जाने से पहले पुष्कर की तीर्थ यात्रा पर भी गई। उसकी कविता में एकाधिक स्थानों पर यह उल्लेख मिलता है।41 वृन्दावन उस समय कृष्ण भक्ति का केन्द्र था। कृष्ण भक्ति के अधिकांश सांस्थानिक सम्प्रदाय यहाँ सक्रिय थे, इसलिए मीरां यहाँ ज़रूर गई होंगी। वीरमदेव के साथ टोडा आदि जिन स्थानों पर वह रही, वे वृन्दावन से बहुत दूर नहीं थे। वृन्दावन में मीरां के प्रवास की पुष्टि धार्मिक चरित्र-आख्यानों और उसकी कविता के अन्तःसाक्ष्यों से होती है। मीरां के वृन्दावन प्रवास में धार्मिक आख्यानों में आए जीव गोस्वामी से उसकी भेंट और उनके स्त्री मुख नहीं देखने के प्रण को छुड़ाने के प्रसंग से भी होती है।42 यह प्रसंग कुछ सच्चाई लिए हुए है, क्योंकि इसका उल्लेख जीव गोस्वामी से सम्बन्ध्ाित चैतन्य गौड़ीय सम्प्रदाय के प्रियादास के साथ पदप्रसंग माला में वल्लभ सम्प्रदाय के नागरीदास ने भी किया है।43 यह सच्चाई है कि सामन्त और लोक प्रसिद्ध होने के कारण मीरां को अपने प्रभाव में लेने के लिए ब्रजमण्डल के सांस्थानिक कृष्ण भक्ति सम्प्रदायों में होड़ लगी हुई थी। वल्लभ सम्प्रदायी मीरां के सम्पर्क में भी थे। जीव गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के छह प्रमुख शिष्यों में से थे और उनका कार्य क्षेत्र वृन्दावन था। कहते हैं कि चैतन्य महाप्रभु स्वयं 1516 ई. के आसपास वृन्दावन आए थे।44 प्रेम और ममता और भावुकता उनकी भक्ति के आधार थे। उनका व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि उनके सम्पर्क में आनेवाला उनके साथ बह जाता था।45 मेवाड़-मेड़ता की उठापटक से त्रस्त मीरां में कृष्ण भक्ति की जड़ें इस समय तक बहुत गहरी और मज़्बूत हो चुकी थीं, इसलिए वह जीव गोस्वामी के सम्पर्क में ज़रूर आई होगी।
मेड़ता पर आधिपत्य के लिए निराश्रय यहाँ-वहाँ भटकते वीरमदेव से अलग होकर मीरां वृन्दावन आयी, लेकिन शान्ति और सुख उसे यहाँ भी नहीं मिले, तो वह अन्ततः द्वारिका चली गई। धार्मिक आख्यानों में इसका संकेत मिलता है। प्रियदास की टीका में कहा गया है कि राणा की मलीन मति देखी बसी द्वारावती।46 लोक ने भी मीरां के द्वारिका प्रवास के लिए राणा को उत्तरदायी ठहराया है। लोक में प्रचलित मीरां सम्बन्ध्ाी हरजसों में यह प्रसंग आता है। मीरां एक हरजस में राणा को देश छोड़ने के लिए उत्तरादायी ठहराती हुई कहती है- आम्बा पाक्या, कळहर कैरी, निंबूडा म्हारे देस। उदपुर रा राणा किण विध छोड्यो देस, मेवाड़ी राणा कण पर छोड्यो देस। (आम पक गए होंगे, केरियां आ गईं होंगी। मेरे देश में तो केवल नींबू हैं। हे उदयपुर के राणा! तू नहीं जानता क्या कि मैंने देश क्यों छोड़ा ?)47
मीरां के विधवा जीवन के अन्तिम वर्ष द्वारिका और बेट द्वारिका में भजन-कीर्तन, पुण्यकार्य और सत्संग आदि में निकले। इतिहास, लोकाख्यान, कविता, जनश्रुतियाँ आदि सभी इसकी पुष्टि करते हैं। मीरां के द्वारिका आने के तीन कारण प्रतीत होते हैं- एक तो उस समय गुजरात भक्ति आन्दोलन का केन्द्र हो गया था, दूसरे यहाँ वह सुरक्षित थी, क्योंकि उस समय यहाँ उसके पितृपक्ष के राठौड़ वंश की एक शाखा वाढ़ेल (वाढ़ेर) का शासन था और तीसरे, यह उसके आराध्य कृष्ण का निवास स्थान था।48 कहते हैं कि मीरां सौराष्ट्र में पहले जूनागढ़ आई। जूनागढ़ से सरसई, सोमनाथ, गौरखमणि, माधवपुर, घेड, सूदामापुरी, पोरबन्दर और नियाड़ी होते हुए वह आरम्भड़ा पहुँची, जहाँ उस समय शिवा सांगा नामक वाढ़ेल राजा शासक था। शिवा सांगा तेरहवीं सदी में मारवाड़ से आए राठौड़ वेरावलजी बीजल का वंशज था। वेरावलजी और बीजलजी ने कच्छ के छोटे रेगिस्तान के पास वेदमती नदी तक का इलाका क़ब्ज़े में ले लिया था और उन्होंने द्वारिका की उत्तरी खाड़ी के किनारे आरम्भड़ा गाँव में नई बस्ती बसा कर वहाँ पर सत्ता कायम की।49 शिवा सांगा स्वयं कृष्ण भक्त था। कहते हैं कि मीरां काफी समय तक आरम्भड़ा में रही।50 मीरां आरम्भड़ा के बाद वह बेट द्वारिका में रही। यहाँ उसने एक मन्दिर बनवाया। मीरां ने बेट द्वारिका में मन्दिर बनवाया, यह उल्लेख इतिहास में सर्वप्रथम पश्चिमी भारत की यात्रा में लेफ्टिनेंट कर्नल टाॅड ने किया। टाॅड ने 1822 ई. में इंग्लैण्ड जाने के लिए उदयपुर से प्रस्थान किया और वह आबू, सिद्धपुर, पाटन आदि होते हुए द्वारिका पहुँचा। बेट द्वारिका सम्बन्ध्ाी अपने वृत्तान्त में उसने लिखा कि ‘जो देवालय मेरे लिए अधिक आकर्षण की वस्तु सिद्ध हुआ वह था मेरी भूमि मेवाड़ की रानी लाखा की स्त्री सुप्रसिद्ध मीरांबाई का बनवाया हुआ सौरसेन के गोपाल देवता का मन्दिर जिसमें वह नौ का प्रेमी अपने मूल स्वरूप में विराजमान था; और निस्सन्देह यह राजपूत रानी उसकी सबसे बड़ी भक्त थी।’51 टाॅड का यह उल्लेख प्रामाणिक होना चाहिए क्योंकि टाॅड को मीरां के बेट में मन्दिर बनवाने की जानकारी मेवाड़ में मिली होगी और उसने इस जानकारी को मन्दिर को साक्षात देखकर प्रमाणित किया होगा। मीरां के बेट में मन्दिर बनवाने की जानकारी बेट के इतिहास और लोक स्मृतियों में भी है। पुरातत्त्व और इतिहास के साक्ष्यों के आधार पर तैयार की गई द्वारिका परिचय में मीरांबाई सम्बन्ध्ाी प्रकरण में एक जगह उल्लेख है कि ‘मीरांबाई आरम्भड़ा पहुँची। उस समय आरम्भड़ा में शिवा सांगा नाम का वाढ़ेर राजा था। वह मीरांबाई की ही तरह रणछोड़ का भक्त था और मीरां के पीहर का था। मीरां काफ़ी समय तक आरम्भड़ा में रहीं। शिवा सांगा को प्रेरित कर बेट में द्वारिकाधीश का मन्दिर बनवाया।’52
धार्मिक चरित्राख्यानों और पारिस्थितिक साक्ष्यों से लगता है कि मीरां की द्वारिका से मेवाड़-मारवाड़ वापसी के प्रयत्न हुए होंगे। बनवीर के पतन के बाद मेवाड़ में अराजकता और संकट का दौर कुछ हद तक समाप्त हुआ। उधर मेड़ता में लम्बी जद्दोजहद के बाद पहले वीरमदेव और उसकी मृत्यु के बाद जयमल सत्तारूढ़ हुए। जयमल से मीरां के आत्मीय सम्बन्ध्ा थे। जिस तरह से मीरां वृन्दावन और फिर द्वारिका गई उससे लोक में मेवाड़ का अपयश फैला। मेवाड़ का पतन लोक में मीरां के शाप के रूप में प्रचारित हुआ। कहते हैं कि उदयसिंह और जयमल दोनों ने ही कुछ सामन्तों को ब्राह्मणों सहित द्वारिका भेजकर मीरां की वापसी के प्रयत्न किए, लेकिन मीरां ने मेवाड़-मेड़ता लौटने से इनकार कर दिया।53 इस प्रकरण को श्रद्धालुओं ने कई तरह से प्रचारित किया। यह प्रसंग सबसे पहले प्रियादास की भक्तमाल की टीका में आता है। उसमें कहा गया है कि राणा मीरां को साक्षात भक्ति स्वरूप जानकर बहुत दुःखी हुआ। उसने ब्राह्मणों से कहा कि मीरां को लाकर मुझे प्राण दान दो। ब्राह्मणों ने मीरां के द्वार पर धरना दिया और उसको राणा की विनती सुनायी। मीरां यह सुनकर रणछोड़ भगवान से विदा लेने मन्दिर में गई और वहीं मूर्ति में विलीन हो गई। वह ब्राह्मणों को नहीं मिली।54 यह प्रसंग कमाबेश इसी तरह नागरीदास कृत पदप्रसंगमाला में भी आता है।55
मीरां का निधन कब और कैसे हुआ यह अभी तक अज्ञात है। मीरां के आरम्भिक अध्येता मुंशी देवीप्रसाद और इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने मेड़ता क्षेत्र के ग्राम लूणवे के भाट भूरदान की जबानी के आधार पर मीरां का मृत्यु समय 1546 ई. माना है।56 केहरदान और दाऊदान की राणीमंगा भाटों की बही के अनुसार उसका निधन द्वारिका में वि. सं. 1605 (1548 ई.) में हुआ। बही में उल्लेख है कि समत 1605 चेत वद 3 ने द्वारका में राम केयो।57 यह मीरां के अदृश्य होने का समय है, जो सब तरफ़ उसके निधन के समय के रूप में प्रचारित हुआ। यह सूचनाएँ मीरां से लौटने का आग्रह करने वाले धरना देने वाले ब्राह्मणों या तीर्थयात्रियों के माध्यम से मेवाड़-मारवाड़ पहुँची होगी और कुछ वर्षों के इधर-उधर के साथ प्रचारित हुई होगी। गुजरात के ऐतिहासिक और साहित्यिक स्रोतों के अनुसार मीरां जब सौराष्ट्र आई तो उसकी उम्र 30 वर्ष की थी। 1540 ई. में कच्छ से आए हुए जाड़ेजाओं ने जामनगर की स्थापना की और चारण भक्त कवि ईसरदास की प्रेरणा से उन्होंने 1560 ई. में द्वारिका के जगत मन्दिर में प्रतिमा स्थापित करवाई, तो मीरां उस समय बेट द्वारिका में विद्यमान थी और उस वक्त उसकी उम्र 60 वर्ष की थी।58 मीरां अदृश्य हो गई- उसने जल समाधि ले ली या वह चुपचाप कहीं चली गई, लेकिन लोक ने इस घटना को उसकी मृत्यु मानकर अपनी तरह से प्रचारित किया। लोक में प्रचारित यह हुआ कि मेवाड़ वापसी के लिए धरना देने वाले ब्राह्मणों की सम्भावित मृत्यु पर ब्रह्म हत्या का पाप लगने के भय से मीरां भगवान रणछोड़ से अनुमति लेने मन्दिर में गई और वहीं उनकी मूर्ति में विलीन हो गई। यह भी प्रचारित हुआ कि मूर्ति में समा जाने के दौरान उसके वस्त्र का कुछ हिस्सा बाहर रह गया।59 सांकेतिक रूप में अभी भी द्वारिका में द्वारिकाधीश की प्रतिमा के श्ाृंगार में वस्त्र का एक हिस्सा इसीलिए बाहर रखा जाता है।
लोक में प्रचारित हो गया कि 1546 ई. के आसपास मीरां भगवान रणछोड़जी की मूर्ति में समा गई। क्योंकि यह घटना 1546 ई. के आसपास हुई, इसलिए इसके बाद मीरां की अक़बर, मानसिंह, तुलसीदास, तानसेन और बीरबल से भेंट से सम्बन्ध्ाित जनश्रुतियों को अनैतिहासिक और कपोल कल्पित मान कर ख़ारिज कर दिया गया।60 कुछ लोगों का अनुमान है कि मीरां का निधन 1546 ई. के आसपास नहीं हुआ। अधिकांश पारम्परिक स्रोतों के अनुसार मीरां की मृत्यु 65-67 वर्ष की उम्र में हुई, इसलिए इस हिसाब से 1498 ई. के आसपास जन्म लेने वाली मीरां का निधन 1563-1565 ई. में हुआ होगा। उनका मानना है कि मूर्ति में समा जाने की कहानी मीरां से मेवाड़ लौटने का आग्रह करने वाले ब्राह्मणों ने अपनी असफलता छिपाने के लिए गढ़ी होगी। मीरां के जीवन की पुनर्रचना करने वाले हरमन गोएट्जे का अनुमान है कि मीरां द्वारिका से चुपचाप निकलकर चली गई।61 उसके अनुसार द्वारिका से अदृश्य हो जाने के बाद मीरां दक्षिण और पूर्वी भारत के तीर्थस्थानों की यात्रा और प्रवास पर रही होगी। इन यात्राओं के सम्बन्ध्ा में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। लोक धारणाओं के अनुसार यहाँ कुछ समय रहने के बाद वह आम्बेर और मथुरा गई। ये जनश्रुतियाँ एकबारगी पूरी तरह अनैतिहासिक और कपोल-कल्पित लगती हैं, लेकिन यदि मीरां का निधन 1546 ई. के आसपास नहीं हुआ और वह 1563-1565 ई. तक जीवित थी, तो इस दौरान के ऐतिहासिक घटनाक्रम और परिस्थितियों के साथ इनका तालमेल बैठ जाता है।
2.
मीरां के ऐतिहासिक स्त्री मनुष्य के अस्तित्व के संकेत धर्माख्यानों में भी विद्यमान हैं। धर्माख्यानों में मीरां के चरित्र निरूपण की शुरुआत सोलहवीं सदी के मध्य उसके जीवन के आसपास से शुरू हो जाती है और अठारहवीं सदी तक निरन्तर चलती है। ख़ास बात यह है कि इन अधिकांश धर्माख्यानों के रचना समय और रचनाकारों की प्रामाणिकता बहुत संदिग्ध नहीं है। इनमें मीरां की निरन्तर मौजूदगी कम-से-कम इस बात का तो सबूत है कि मीरां एक ऐतिहासिक अस्तित्व थी। विडम्बना यह है कि फ्ऱांसिस टैफ़्ट की पश्चिमी इतिहासकार ‘भक्ति और राजस्थान की परम्पराओं को ऐतिहासिक उद्देश्यों के लिए काफ़ी हद तक अविश्वसनीय’ मानती है।62 उनके अनुसार इन परम्पराओं में एकरूपता नहीं है और ये परस्पर विरोधाभासी भी हैं। तीन शताब्दियों तक निरन्तर रहनेवाली और देशव्यापी इन परम्पराओं में एकरूपता का टैफ्ट का आग्रह ही ग़लत है। ये परम्पराएँ विविध प्रकार की हैं और इनमें विरोधाभास भी पर्याप्त हैं, लेकिन इनमें मीरां की मौजूदगी निरन्तर है। धार्मिक आख्यानों में मीरां का पहला उल्लेख राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक हितहरिवंश के अनुवर्ती ओरछा निवासी हित हरिराम की व्यासवाणी में मिलता है, जिसकी रचना 1555 ई. में हुई। मीरां इसमें सन्त-भक्त से अलग, भक्तों का सम्मान करने वाली एक सामन्त स्त्री के रूप में वर्णित है। इसमें केवल इतना कहा गया है कि मीरांबाई बिनु कौ भक्तनि को पिता जानि उर लावै।63 मीरां विषयक प्राचीन उल्लेख रामानन्दी सम्प्रदाय के नाभादास की भक्तमाल में भी मिलता है। भक्तमाल का रचनाकाल 1594 ई. मीरां के जीवनकाल के आसपास का ठहरता है, इसलिए सम्भावना है कि इसमें आए मीरां विषयक उल्लेख प्रमाणिक हैं।64 राधावल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्ध्ाित ध्रुवदास की 1643 ई. के आसपास की रचना भक्त नामावली में ध्रुवदास मीरां को प्रकट भक्ति को खानि कहते हैं।65 नाभादास के भक्तमाल पर उनके शिष्य प्रियादास ने 1712 ई. में भक्तिरस बोधिनी शीर्षक से एक विस्तृत टीका लिखी, जिसका मीरां के भक्त रूप के निर्माण और प्रतिष्ठा में निर्णायक योगदान है।66 दादूपंथी राघवदास की 1660 ई. में रचित भक्तमाल में भी मीरां वर्णित है।67 मीरां विषयक उल्लेख वल्लभ सम्प्रदायी दो ग्रन्थों, चैरासी वैष्णवन की वार्ता और दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता में आते हैं। ये दोनों ग्रन्थ प्रामाणिक माने जाते हैं। गोस्वामी गोकुलनाथ ने वल्लभाचार्य के 84 और विठ्ठलनाथ के 252 शिष्यों की वार्ताएँ सुनाईं, जिनको उनके शिष्य हरिराय ने उनके जीवनकाल (1551-1633 ई.) में ही लिपिबद्ध कर लिया था। इन दोनों ग्रन्थों के मीरां सम्बन्ध्ाी उल्लेखों की ख़ास बात यह है कि इनमें वण्र्य मीरां नहीं है। इनमें वण्र्य वल्लभाचार्य और विठ्ठलनाथ के शिष्य हैं, जिनको गुरु भक्ति और निष्ठा प्रदर्शित करने के लिए मीरां का अपमान और अवहेलना करते दिखाया गया है। चैरासी वैष्णवन की वार्ता में तीन वल्लभ सम्प्रदायी भक्त-शिष्य मीरां का अपमान, अवहेलना और अवज्ञा करते दिखाए गए हैं।68 दो सो बावन वैष्णवन की वार्ता में दो प्रसंग हैं, जो मीरां से सम्बन्ध्ाित हैं।69 परवर्ती पुष्टिमार्गीय रचनाओं में भी मीरां का उल्लेख होता रहा। मीरां के ही वंश में उत्पन्न वल्लभ सम्प्रदायी भक्त नागरीदास उर्फ कृष्णगढ़ नरेश सावंतसिंह राठौड़ (1699-1766 ई.) ने अपनी रचना पदप्रसंग माला में मीरां के कुछ पदों के साथ उनसे सम्बन्ध्ाित प्रसंग अपनी ओर से जोड़े हैं। इसमें मीरां के छह पद और इतने ही प्रसंग आए हैं।70 दादूपंथी चारण कवि-भक्त ब्रह्मदास द्वारा 1759 ई. के आसपास लिखित राजस्थानी भक्तमाल में भी मीरां का चरित्र निरूपण हुआ है।71 गुजरात के विख्यात कवि और वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित दयाराम (1767-1852 ई.) भी मीरां के भक्त रूप का निरूपण पुष्टिमार्गीय भक्ति सिद्धान्तों के अनुसार करते हैं। उनकी तीन रचनाओं- मीरां चरित्र, भक्ति वेल और चैरासी वैष्णव में मीरां का उल्लेख मिलता है।72 महाराष्ट्र में वारकारी सम्प्रदाय के महिपति (1774 ई.) भक्ति लीलामृत में कहते हैं कि मीरां को ज़हर उसके पिता ने दिया था और मीरां ने इसको पिया था, जिससे सारंगपाणि कृष्ण का शरीर नीला पड़ गया।73 रामस्नेही सम्प्रदाय के सुखशारण की रचना मीरांबाई की परची (1798 ई.) में मीरां के भक्त रूप के महिमा मंडन के लिए के एक मौलिक उद्भावना मिलती है। इसके अनुसार पूर्वजन्म में मीरां भगवद्पुराण में उल्लिखित बरसाने के ब्राह्मण की पत्नी थी, जिसने कृष्ण प्रेम के कारण मीरां के रूप में जन्म लिया।74 बड़ौदा निवासी राधाबाई के गरबा मीरां महात्म्य (1843 ई.) में भी मीरां के भक्त रूप का ही विस्तार हुआ है। इसके अनुसार माता ने मीरां को त्याग दिया था और भाई ने उसका विवाह किया। राणा ने मीरां को ज़हर दिया, जो अमृत हो गया। राणा को मीरां एक साथ दस-बीस महलों में दिखायी पड़ी।75
3.
फ्ऱांसिस टैफ़्ट और कुछ भारतीय विद्वानों को मीरां की कविता उसके मूल और प्राचीन पाठों के अनुपलब्धता और भाषा और भाव वैविध्य के कारण भी संदिग्ध लगती है। फ्ऱांसिस टैफ़्ट अनुसार मीरां की उपलब्ध पदावली संदिग्ध है। टैफ्ट इससे सावधान रहने की सलाह देती हैं, क्योंकि यह ‘हाल के रूपान्तरणों में हमारे समाने आई है।’76 मीरां के एक और पश्चिमी अध्येता जाॅन स्टैटन हौली फ्ऱांसिस टैफ़्ट से सहमत तो नहीं हैं, लेकिन मीरां की रचनाओं के मीरां की ही होने को लेकर सन्देह उनके मन में भी है। उन्होंने साफ़ तो नहीं कहा, लेकिन स्वर इस सम्बन्ध्ा उनका भी किन्तु-परन्तु का ही है। वे लिखते हैं कि ‘अन्त में यह कहकर फ्ऱांसिस टैफ़्ट को आश्चर्य में डालना चाहूँगा कि मेरे ख़याल से इन कविताओं को मेड़तिया रानी ने रचा होगा। मैं यह नहीं कह रहा कि वे रची गईं थीं। आप समझ रहे होंगे। लेकिन मैं कह रहा हूँ कि मैं नहीं मानता कि यह असम्भव है। क्या रानियाँ बेहतर कविताएँ लिखती हैं? हम जानते हैं कि कहानियों में ऐसा होता ही है।’77 विडम्बना यह है कि पश्चिमी विद्वान यह तो कह देते हैं कि मीरां की कविता के कई रूपान्तरण हैं और ये सभी हाल के हैं, लेकिन वे इसके लिए ख़ास भारतीय भाषा परिदृश्य और स्मृति की सुरक्षाऔर संरक्षण के ख़ास भारतीय ढंग को अपनी निगाह में नहीं लेते। यह सही है कि मीरां की कविता के उपलब्ध अधिकांश हस्तलिखित पाठ अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी के हैं, ये ज़्यादातर लोक स्मृति पर आधारित हैं और इनमें भावों की एकरूपता और निरन्तरता का अभाव है। साथ ही, आज के हिसाब से इनमें भाषायी वैविध्य भी ख़ूब है-ये राजस्थानी के साथ अलग से गुजराती, ब्रज आदि भाषाओं में भी हैं और इनमें इन भाषाओं का मिलाजुला रूप भी मिलता है, लेकिन ये सभी मीरां की रचनाएँ नहीं है, यह धारणा युक्तिसंगत नहीं है।
भारतीय लोक-समाज का जैसा स्वभाव है उसके अनुसार केवल दस्तावेज़ी, मतलब हस्तलिखित और प्राचीन को ही प्रामाणिक मानने आग्रह ठीक नहीं है। दस्तावेज़ी कविता में उस समय का पता-ठिकाना तो होता है, लेकिन हमारे लोक-समाज का स्वभाव दस्तावेज़ तक सीमित रहने का नहीं है। हमारे लोक की ख़ास बात यह है कि यह दस्तावेज़ को भी अपनी स्मृति में ले जाकर निरन्तर जीवन्त रखता है। भारतीय महाकाव्यों में निरन्तर जीवन्तता इसलिए है, क्योंकि ये ठहरे हुए और दस्तावेज़ी नहीं हैं। इनको लोक-समाज ने अपनी भावनाओं और ज़रूरतों के अनुसार निरन्तर पुनर्नव किया है और इस कारण ही ये सदियों से उपयोगी और प्रासंगिक बने हुए हैं। यदि परम्परा है, तो यह जड़ नहीं होगी, क्योंकि जोड़-बाकी इसका स्वभाव है। जोड़-बाक़ी से ही यह निरन्तर है और इसीलिए परम्परा है। भारतीय लोक-समाज भी अपनी परम्परा और विरासत को दस्तावेज़ों में भी सहेजता है, लेकिन यह केवल इन पर ही नहीं ठहर जाता। यह परम्परा और विरासत को सदियों तक अपनी स्मृति में भी जीवित रखता है। यह समय की ज़रूरतों के अनुसार इसमें इधर-उधर, विस्तार और सरलीकरण भी करता है। सांस्थानिक धर्म, शासन आदि अपने निहित स्वार्थ में विरासत और परम्परा में रद्दोबदल करते हैं, लेकिन लोक का स्वभाव इससे अलग है। तमाम इधर-उधर के बावजूद लोक की स्मृति असल के आसपास ही रहती है। निरन्तर इधर-उधर के बाद भी मीरां की कविता में कुछ ऐसा है, जो असल है और जो असल नहीं है वो कम से कम असल के आसपास ज़रूर है। असल को इसमें रद्द या ख़ारिज नहीं किया गया है। मीरां के पदों की कुछ पंक्तियाँ ऐसी हैं, जो उसके एकाधिक पदों में आती हैं, जो यह साबित करती हैं कि असल उनमें मौज़ूद है। मीरां के पाठों अनुसंधानकर्ता ललिताप्रसाद ने स्वीकार किया कि रूपान्तरण अकसर किसी मूल पद को केन्द्र में रखकर ही होता है। रूपान्तरण करनेवालों की उन्होंने चार कोटियाँ बनायीं, जिनमें से दो आरम्भिक कोटियों में बहुसंख्यक भारतीय जनसाधारण का अधिकांश सम्मिलित है। पहली के सम्बन्ध्ा में उन्होंने लिखा कि ‘कुछ पद मीरां के नाम पर विविध वैष्णव भक्तों के द्वारा गाए जाते हैं, जिनका आधार सचमुच ही मीरां का ही कोई न कोई पद होता है। आधारयुक्त मूल पदावली की दुष्प्राप्यता इस कोटि के भक्तों को बाध्य करती है कि अपनी स्मरण शक्ति से ही काम लें। भक्तों में निरक्षरों की संख्या भी कम नहीं, और न सब समान रूप से मेधावी होते हैं। अतः स्थल-स्थल पर कडि़याँ भूल जाना असम्भव नहीं। किन्तु उच्च कोटि की आत्माभिव्यक्ति सरसरता के साथ प्रायः सरल ही होती रही है। यह नैसर्गिक गुण इन भक्त जनों की अनायास सहायता कर देता है। मिलती-जुलती भूली हुई कडि़याँ जोड़कर पद पूर्ण कर लिया जाता है। कालान्तर में यही पद एक नवीन पद की सत्ता से विभूषित हो जाता है।’78 इसी तरह दूसरी कोटि के लोग उनके अनुसार वे हैं ‘जिनकी मेधा शक्ति पहलों से कम है। समझदारी का उनका दरजा भी न्यूनतर ही है। वे अपने भावोद्रेक में दो-दो, चार-चार पदों की भिन्न कडि़यों जैसी जो जब याद पड़ी, जोड़कर नए पदों की सृष्टि कर डालते हैं। कहीं-कहीं अन्य प्रसिद्ध भक्तों द्वारा रचित प्रसिद्ध दोहों की कडि़याँ उठाकर पदों में जोड़ लेना और अन्त में ‘मीरां के प्रभु गिरधर नागर’ की छाप गा देना भी उनकी प्रथा है।’79
मीरां की कविता में भाव और भाषा का वैविध्य पश्चिमी विद्वानों को अटपटा लगता है। एक-दूसरे से अलग माने जाने वाले सगुण-निर्गुण, प्रेम-ज्ञान, कृष्ण-राम, भक्ति-योग आदि उसकी कविता में एक साथ हैं। भक्ति आन्दोलन की व्याप्ति सम्पूर्ण देश में थी और इस दौरान क्षेत्रीय सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत भक्ति का जो लोकरूप बना वो शास्त्रीय भक्ति के पारम्परिक साँचों-खाँचों से निकलकर सरल हो गया था। आरम्भिक आधुनिक विद्वानों ने भक्ति को सगुण-निर्गुण, प्रेम-ज्ञान, भक्ति-योग आदि के साँचों-खाँचों में बाँटकर सन्त-भक्तों की जो पहचान बनाई वो आधी-अधूरी है। मीरां के साथ भी यही हुआ। उसकी जो लोक भक्ति थी उसका साँचों-खाँचों में विभाजन सम्भव नहीं था। सन्त साहित्य के विख्यात अध्येता परशुराम चतुर्वेदी को मीरां की कविता ने मुश्किल में डाल दिया। उन्होंने पहले लिखा कि ‘दूसरे प्रकार के पद वे हैं, जिनका वण्र्य विषय सन्तमत द्वारा प्रभावित जान पड़ता है और जिनमें न केवल ‘साहब’, ‘सुरति’, ‘नाम’, ‘सुखमणा’, ‘सहज’ एवं ‘निरंजन’ जैसे अनेक शब्दों के प्रयोग मिलते हैं; अपितु जिनमें ऐसी कई बातें प्रचुर मात्रा में मिल जाती हैं, जिनके कारण मीरांबाई को सन्तमतानुसारिणी कहने की प्रवृत्ति हुए बिना नहीं रहती।’80 लेकिन आगे मीरां की दूसरी कई माधुर्य भाव की रचनाओं के आधार पर अपने इस विचार का खण्डन उन्होंने स्वयं ही यह कहकर कर दिया कि ‘इस प्रकार की धारणा को प्रश्रय देना हमें युक्तिसंगत जान नहीं पड़ता।’81 भक्ति आन्दोलन के दौरान भक्ति का एक सरल लोकरूप विकसित हुआ, जिसमें भक्ति के शास्त्रीय और सांस्थानिक रूप घुल-मिलकर आसान हो गए। लोक की भक्ति में सगुण-निर्गुण, प्रेम-ज्ञान, भक्ति-योग, राम-कृष्ण आदि सब एकरूप हो गए और इनको लेकर इसमें कोई परहेज़ और भेदभाव भी नहीं था। मीरां की भक्ति यही लोक भक्ति है, जिसका सगुण-निर्गुण, सन्त-भक्त, ज्ञान-प्रेम, राम-कृष्ण आदि में विभाजन और वर्गीकरण ग़लत है। मीरां सगुणोपासक है, लेकिन गाहे-बगाहे निर्गुण को भी साध लेती है। उसके यहाँ सगुण-निर्गुण एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं। उसके यहाँ आवो मनमोहना जी मीठा थारा बोल भी है और चालो अगम के देस भी है। ख़ास बात यह है वह ऐसी सन्त-भक्त है जो कहती है ओलूं थारी आवै हो महाराजा अबिनासी।
मीरां की कविता में भाव विविधता उसकी लोकव्याप्ति के कारण भी है। भक्ति आन्दोलन में क्षेत्रीय सांस्कृतिक ज़रूरतों के तहत भक्ति के कई मत-मतान्तर और धारणाएँ अस्तित्व में आईं। मीरां की हैसियत एक सामन्त स्त्री की थी, इसलिए उसका सन्त-भक्त रूप ख़ूब लोकप्रिय हुआ। मतों-सम्प्रदायों और इनकी विभिन्न धारणाओं के अनुसार उसकी रचनाओं का रूपान्तरण भी ख़ूब हुआ। आरम्भ में मत-मतान्तर और सांस्थानिक नहीं थे, लेकिन आगे चलकर ये सांस्थानिक भी हो गए। इनमें द्वेष तो नहीं था, लेकिन वर्चस्व के विस्तार की स्पर्धा और आग्रह इनमें बाद में बढ़ गए। मीरां की रचनाएँ कृष्ण भक्ति और राम भक्ति, दोनों सम्प्रदायों में लोकप्रिय थीं, इसलिए इनके आग्रहों और धारणाओं के अनुसार इनमें कुछ रद्दोबदल भी हुए।
मीरां की कविता का भाषायी वैविध्य भी ‘आधुनिकता’ के संस्कार और आदत वाले लोगों को चैंकाने वाला लगता है। मीरां की रचनाएँ आज के हिसाब से राजस्थानी के साथ अलग से गुजराती, ब्रज आदि में भी मिलती हैं और इसमें एक साथ गुजराती, ब्रज, राजस्थानी आदि का मिलाजुला रूप भी मिलता है। इस आधार पर भी मीरां की कविता को अप्रामाणिक माना गया है। दरअसल मीरां की कविता में भाषायी वैविध्य हमें भाषायी वर्गीकरण और विभाजन की औपनिवेशिक समझ के कारण दिखायी पड़ता है। उपनिवेशकाल से पहले तक यहाँ की भाषाएँ और बोलियाँ एक-दूसरे से इस तरह से सम्बद्ध थीं कि इनको पृथक् और वर्गीकृत करना कठिन था।82 जार्ज ग्रियर्सन ने खींच-खाँचकर भारतीय भाषाओं का जो वर्गीकरण और विभाजन किया उससे पहली बार भाषाओं को एक-दूसरे से अलग पहचान मिली। विडम्बना यह है कि खींच-खाँचकर कर किया गया वर्गीकरण और विभाजन तो हमारी भाषायी समझ का हिस्सा हो गया, लेकिन भारतीय भाषाओं की परस्पर घनिष्ठ सम्बद्धता सम्बन्ध्ाी कई बातें जो सर्वेक्षण के दौरान सामने आयीं, उन पर कम लोगों का ध्यान गया। मीरां की कविता के भाषायी वैविध्य को भारतीय भाषाओं की इस परस्पर सम्बद्धता से अच्छी तरह समझा जा सकता है।
भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे से इस तरह जुड़ी हुई हैं कि वे एक-दूसरे से कहाँ और कैसे अलग होती हैं, यह तय करना मुश्किल काम है। अक़्सर वे दूसरी भाषा की सीमा शुरू होने से पहले ही उसके जैसी होने लगती हैं। ग्रियर्सन ने भी सर्वेक्षण के दौरान यह महसूस किया।83 मीरां की कविता की भाषा में गुजराती, राजस्थानी, ब्रज आदि अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं। ये एक ही भाषा के क्षेत्रीय रूप हैं, जो कुछ दूर चलकर एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। जार्ज ग्रियर्सन ने भी भाषा के मामले में भारतीयों के इस ख़ास नज़रिये को लक्ष्य किया।84
मीरां की लोकव्याप्ति मध्यकालीन सन्त-भक्तों में सबसे अधिक है, इसलिए उसकी रचनाओं से मूल, हस्तलिखित और प्राचीन होने की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। लोक की जोड़-बाक़ी और इधर-उधर से उसकी रचनाओं में रूपान्तरण हुआ है, लेकिन यह असल से ज़्यादा दूर नहीं है। मीरां का भाव वैविध्य ‘एकरूप’ और ‘निरन्तर’ की अपेक्षा करनेवालों को निराश करता है, लेकिन यह हमारे मध्यकालीन लोक-समाज के स्वभाव और संस्कार में है। मीरां के उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित पाठों को उनकी भाषा-वर्तनी और व्याकरण के वैचित्र्य के आधार ख़ारिज करने का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि एक तो उस समय व्याकरण और वर्तनी को लेकर पर्याप्त क्षेत्रीय वैविध्य था और दूसरे, इनके लिखिया ऐसे भक्त लोग थे, जिनको लिखने-पढ़ने का बहुत अभ्यास नहीं था। मीरां की रचनाओं के मूल पाठ के निर्धारण को उसकी भाषा से जोड़ कर देखना भी गलत है। उसकी रचनाओं में दिखनेवाला भाषायी वैविध्य हमें भाषायी वर्गीकरण और विभाजन की औपनिवेशिक समझ और संस्कार के कारण दिखायी पड़ता है। पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में जब मीरां की कविता हुई, तो आज के महाराष्ट्र और गुजरात सहित तमाम उत्तर भारत में क्षेत्रीय वैशिष्ट्य के साथ कमोबेश एक ही भाषा प्रयुक्त हो रही थी। मीरां की कविता इसी भाषा में हुई। यह अलग बात है कि बाद में क्षेत्रीय विशेषताओं के मुखर और प्रमुख हो जाने से यह उनके अनुसार राजस्थानी, गुजराती, ब्रज आदि में ढल गई।
पश्चिमी विद्वान् लम्बे समय से अपने जैसी फ़सल का आग्रह हमारे खेतों में कर रहे हैं और ख़ास बात यह है कि उसके अभाव में वे हमारी फ़सल के फ़सल होने पर सन्देह भी कर रहे हैं। सही तो यह है कि ‘सभी खेतों में एक सी फसलें नहीं होती।’ मीरां का जीवन और कविता एक ख़ास प्रकार के समाज और संस्कृति की पैदाइश है। यह समाज-संस्कृति इतनी अलग और ख़ास हैं कि इसको समझने के लिए इसकी अपनी ज़रूरत के तहत बने इतिहास रूपों, धार्मिक आख्यानों, जनश्रुतियों आदि की समझ और उन पर निर्भरता बहुत ज़रूरी है। मीरां की मौजूदगी पारम्परिक इतिहास रूपों, धार्मिक आख्यानों और लोक स्मृति में सदियों से निरन्तर और सघन है। उसकी कविता सदियों से श्रुत से लिखित और लिखित से श्रुत में आ-जा रही है और यह स्मृति के संरक्षण और रख-रखाव का ख़ास भारतीय ढंग है। विडम्बना यह है कि सदियों से हमारे समाज ने जिस मीरां को अपने सिर पर उठा रखा है, जिसकी स्मृति कई रूपों में निरन्तर और जीवन्त है, एक दिन अपने ‘इतिहासकार’ होने का दावा करते हुए कोई उस मीरां से सम्बन्ध्ाित सभी उपलब्ध स्रोतों को संदिग्ध ठहरा देता है। रवींद्रनाथ ठाकुर के शब्दों में हमें उसे उसके जैसे दूसरे लोगों को यह कहना चाहिए कि ‘धान के खेत में बैंगन नहीं होते।’ उनकी बैंगन की तलाश पूरी नहीं होने का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि खेत में धान ही नहीं हुआ। मीरां और उसकी कविता हुई और यह हमारे अपने ढंग से, कई तरह से, सिद्ध और प्रमाणित है।
सन्दर्भ और टिप्पणियाँ
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73. वही, 62.
74. सुखसारण, ‘मीरांबाई री परची,’ परम्परा, संपा. नारायणसिंह भाटी, भाग-69-70 (जोधपुरः राजस्थानी शोध संस्थान), 17.
75. पाठ सी. एल. प्रभात द्वारा मीरांः जीवन और काव्य में पृ. 69 पर उधृत किया गया है।
76. फ्ऱांसिस टैफ़्ट, ‘इल्युजिव हिस्टोरिकल मीरांबाई- ए नोट,’ 324.
77. जाॅन स्ट्रेटन हाॅली, भक्ति के तीन स्वर, 128.
78. ललिताप्रसाद सुकुल, ‘पदावली परिचय,’ मीरां स्मृति ग्रन्थ, संपा. सकलनारायण शर्मा, ललिताप्रसाद सुकुल आदि (कलकत्ताः बंगीय साहित्य परिषद, 1949), झ.
79. वही, झ.
80. परशुराम चतुर्वेदी, ‘मूल प्रस्तावना,’ मीराँबाई की पदावली (जोधपुरः राजस्थानी ग्रन्थागार, संस्करण 2011, मूल संस्करण 1972), 4.
81. वही, 4.
82. जार्ज ग्रियर्सनः भारत का भाषा सर्वेक्षण, भाग-1, अनु. उदयनारायण तिवारी (लखनऊः उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, तृतीय संस्करण 1959), 1ः26.
83. वही, 59.
84. वही, 39.