धर्म-संकट अशोक दत्ता
02-Aug-2023 12:00 AM 2891

देशबन्धु जी शहर से वापस लौटे तो अत्यन्त थकान महसूस की। कपड़े बदले... आराम करने बिस्तर पर लेट गये। शारीरिक थकान के बावजूद वह अपने-आप को चिन्तामुक्त अनुभव कर रहे थे। गत अढ़ाई माह से उन्होंने कितना तनाव झेला, वही जानते थे। राह चलते मुसीबत गले आन पड़े तो कोई क्या करे? घटनाओं का क्रम मस्तिष्क रूपी स्क्रीन पर किसी फ़िल्म की भाँति चलने लगा।
कभी-कभार वह इस क़स्बे की एक तंग गली से गुज़र कर बैंक अथवा बाज़ार जाया करते थे। उस गली में से गुज़रना उनकी मजबूरी थी, क्योंकि उस गली में से बहुत कम लोगों का आना-जाना होता था। वैसे भी उन्हें भीड़-भड़क्का़ पसन्द नहीं था। एक रोज़, उस गली में से गुज़रते हुए किसी महिला की आवाज़ सुनायी दी जो पंजाबी भाषा में बोल रही थी।
‘बच्चा, राम-राम।’
...पीछे मुड़कर देखा। पहले तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि पैंसठ वर्ष का एक वरिष्ठ नागरिक ‘बच्चा’ कैसे हो सकता है? परन्तु बोलने वाली बुज़ुर्ग महिला को देख, उन्हें सन्तोष हुआ कि उन्होंने जो सुना वो सही था। एक अस्सी-पचासी वर्ष की बुज़ुर्ग महिला की दृष्टि में उनकी उम्र के लोग ‘बच्चे’ ही हुए न। वह माता जी उन्हें देख कर मुसकराई थीं और पुनः वैसे ही दोहराया था।
‘बच्चा, राम-राम।’
माता जी के ‘राम-राम’ कहने में अपनेपन के साथ-साथ मातृत्व की भावना भी झलकी थी। उत्तर में ‘राम-राम माता जी’ कह, वह आगे बढ़ गये थे।
बैंक तथा बाज़ार के काम निपटा कर, वह उसी तंग गली से घर वापसी करते थे। उस समय वो बुज़ुर्ग महिला वहाँ खड़ी दिखायी नहीं देती थीं। चूँकि काम के सिलसिले में माह में एक-दो बार बाज़ार जाना ही होता था... जाने का समय भी लगभग वही होता। उस दिन वह बुज़ुर्ग महिला अवश्य मिलतीं। परन्तु परिचय ‘राम-राम’ तक ही सीमित था। एक रोज़ वह बाज़ार जा रहे थे ...माता जी अपने घर के बाहर खड़ी थीं। प्रायः ‘राम-राम’ पहले वही कहा करती थीं। देशबन्धु जी को पहल करने का अवसर नहीं देती थीं। आज भी पहल माता जी की ओर से हुई। उनके ‘राम-राम’ कहने का उत्तर दे, वह आगे बढे़ तो माता जी ने पूछा।
‘काका, तुम इधर किस काम के लिये जाते हो?’
‘...माता जी, बैंक जाता हूँ... वहाँ अपना खाता खुलवा रखा है। पैसों का लेन-देन करना होता है।’
‘अच्छा...अच्छा, तुम बैंक जाते हो। मैं सोचती थी कहीं नौकरी करते हो।’ माता जी को उत्तर पाकर तसल्ली हुई थी।
‘नहीं माता जी, मैं नौकरी से रिटायर हो चुका हूँ।’ कह कर वह आगे बढ़ गये।
अब जब कभी वह उस गली में से गुज़रते, वो माता किसी न किसी बहाने उन्हें बातों में उलझा लेतीं। लगता, बातों के लिये शायद उसे कहीं और स्थान अथवा व्यक्ति नहीं मिलता था। अकेले पड़े व्यक्ति को समय बिताने के लिये कुछ रौनक अथवा चहल-पहल तो चाहिये ही। वह स्वयं इसी समस्या से जूझ रहे थे। पत्नी का निधन होने के उपरान्त, वह अकेले पड़ चुके थे। ये अलग बात है कि माह में एक-दो बार बैंक या बाज़ार जाने के बहाने, किसी न किसी परिचित से मुलाकात हो जाती थी... गप-शप करने से कुछ समय अच्छा व्यतीत हो जाता। घर वापस लौटते ही फिर वही कमरा और वही अकेलापन। दूसरी ओर, वह उस बुज़ुर्ग महिला के विषय में सोचते। पता नहीं जीवन यात्रा के अन्तिम पड़ाव को वह अकेले कैसे निभा पा रही थीं। शायद यही कारण रहा होगा कि वह माता जी उनमें इतनी दिलचस्पी लेती थीं।
उस रोज़़ उसी गली से गुज़रे तो माता जी उन्हे देख कर मुसकराई थीं। इसी अन्तराल का लाभ उठा कर वह झट से बोले।
‘माता जी, राम-राम।’
‘राम-राम बेटा... जीते रहो... तुम्हारी लम्बी उम्र हो।’
आशीर्वाद देने से पहले, उसने खुल कर ठहाका लगाया था। शायद उनकी चतुराई को वह भाँप गयी थीं। कह रही थीं-
‘बेटे, काम निपटा कर, वापसी पर मुझे अवश्य मिलना। बैठ कर बातें करेंगे। राह चलते बात की तो उसका क्या मज़ा?’
बैंक का काम निपटा कर, वह माता जी के घर के निकट पहुँचे। ड्योढ़ी के द्वार खुले थे। वह बे-झिझक अन्दर चले गये। माता जी को आवाज़ दी। वह रसोई में से बाहर निकल कर कह रही थीं।
‘आओ बेटा आओ... सोच रही थी कहीं भूल न गये हों।’
‘नहीं माता जी ...नहीं।
माता जी ने उंगली से इशारा करते हुए कहा।
‘तुम उस कमरे में जा कर बैठो... कुछ देर बाद आती हूँ।’
कमरे में प्रवेश करने से पूर्व... नज़र घुमा कर, घर के चारों ओर देखने लगे। साफ़-सुथरा पक्का घर था... तीन कमरे, स्टोर, रसोई और एक गुस्लख़ाना था। दो कमरों के दरवाज़ों पर ताले लगे थे। वह खुले कमरे में जाकर बैठ गये। कमरा साफ़-सुथरा व सजा-सजाया था। कमरे के एक कोने में, चौकी के ऊपर कुछ धार्मिक चित्र क़रीने से सजा कर रखे गये थे। सब से आगे फ्ऱेम किया चित्र शायद माता जी के गुरु जी का था। बैठने के लिये फ़र्श पर एक गद्दी बिछी थी।’
‘बेटा, बैठे हो? कहीं बोर तो नहीं हुए?’ आवाज़ सुनकर देशबन्धु जी का ध्यान हटा।
सामने बिछे बैड पर माता जी पालथी लगा कर बैठ गयीं। वह पूछ रही थीं-
‘बेटा, मेरे कमरे में बैठकर तुम कैसा महसूस कर रहे हो?’
उनका उत्तर था।
‘बहुत बढ़िया माताजी। आपके कमरे की प्रशंसा किन शब्दों में करूँ... उचित शब्द नहीं मिल रहे ... इतना ही कह सकता हूँ कि यहाँ आकर मुझे ऐसा लगा, जैसे अपनी माँ के कमरे में बैठा हूँ। परन्तु आपको यहाँ अकेला पाकर दुख भी होता है। आपकी ही तरह, मेरी माँ जी भी मुझे ‘बेटा’, ‘काका’, तथा ‘पुत्तर’ जैसे शब्दों से सम्बोधित करती थीं।’
माता जी को शायद ऐसे ही उत्तर की अपेक्षा थी। शान्त लहज़े में बोलीं,
‘कौन कहता है, मैं अकेली हूँ? (कमरे के एक कोने में रखी अपने गुरु जी की फ़ोटो की ओर इंगित करते हुए) वो हैं न मेरे साथ। वैसे दुनियावी तौर पर भी मैं अकेली नहीं हूँ। भरा-पूरा परिवार है मेरा।’
माता जी के मुख से ये वाक्य सुनकर माता जी के विषय में और अधिक जानने की उनकी इच्छा हुई। पूछा-
‘माता जी, भरा-पूरा परिवार, फिर भी आप अकेली...?’
कुछ क्षणों के लिये माता जी के चेहरे पर उदासी छा गयी... चेहरा मुर्झाया-सा दिखने लगा जैसे कोई खोई चीज़ एकाएक याद आ गयी हो। कुछ सम्भल कर बोलीं।
‘क्या कहूँ पुत्तर? समय ही ऐसा चल रहा है। ...बुज़ुर्गों को कोई झेल नहीं पाता... बड़ों का मान-सम्मान ही नहीं...’
बात को घुमा-फिरा कर माता जी चुप हो गयीं। उन्हें शायद अपने घर के भीतर की बात किसी बाहरी व्यक्ति को सुनाने की ग़लती का एहसास हो गया था। बात की दिशा बदलते हुए पूछा-
‘बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?’
‘देशबन्धु, माता जी।’
‘कहाँ रहते हो?’
‘मैं वार्ड नम्बर दो में रहता हूँ... गुरुद्वारे के निकट ही मेरा घर है।’
‘गुरुद्वारे के पास सन्तोष बहन जी भी रहती हैं। उनको जानते हो?’
‘वो मेरी माँ थीं। पाँच वर्ष हो गए उनका निधन हुए।’
‘अच्छा, तभी मै कहूँ, बहुत देर हो गयी उनको मिले हुए। कभी मन्दिर जाती थी तो मिला करती थीं।’
माता जी के साथ बातों में व्यस्त रहने के कारण, उन्हें समय का आभास न हुआ... जाने के बारे में सोचने लगे। माता जी ने उनके मन की बात भाँप ली। कहने लगीं-
‘बेटा, जब कभी इधर आते हो, माँ को अवश्य मिल लिया करो। अकेले रहते, एक घड़ी गुज़ारना भी कठिन होती है। परन्तु क्या करें... मजबूरी है। ईश्वर जिस हाल में रखे... रहना पड़ता है।’
गली में आकर, घड़ी देखी। दोपहर के दो बज रहे थे। डेढ़ घण्टे का समय कैसे बीता, पता ही न चला। एक कमरे में अकेले पड़े रहने से किसी भी व्यक्ति के लिये एक-एक क्षण गुज़ारना कठिन हो जाता है। ईश्वर किसी को अकेलापन न दे। माता जी जैसे बातूनी व्यक्ति के लिये अकेले रहना सचमुच में एक बहुत बड़ी समस्या है... वह मन ही मन सोचते चले जा रहे थे।
अगली बार माता जी के घर गये तो वह घरेलू कार्यों से निवृत्त हो, कमरे में बैठी थीं। उनको आता देख, वह कुर्सी से उठीं और सामने बिछे बैड पर बैठ गयीं। ‘राम-राम’ कह कर वह स्वयं भी बैठ गये।
‘...माता जी, आप पंजाबी बहुत अच्छे ढंग से बोल लेती हैं... आश्चर्य होता है, जम्मू के डोगरा समाज में पंजाबी...?’
माता जी ने स्वभावानुसार ठहाका लगाया। कहने लगीं-
‘बेटा, मैं जन्मी-पली ही पंजाब में हूँ... मायके वाले बटाला शहर में रहते हैं। पंजाबी तो बोलूँगी ही...’
इतनी सी बात से माता को शायद सन्तोष नहीं हुआ था। अपनी बात जारी रखते कह रही थीं।
‘चार भाइयों की अकेली बहन थी मैं। इसी कारण मायके वालों ने मेरा नाम ‘वीरांवाली’ (भाइयों वाली) रखा था। मेरा पालन-पोषण निहायत ही लाड़-प्यार से हुआ। ससुराल घर भी मुझे भरपूर प्यार-सत्कार मिला। मेरे ससुर यहीं थोक की दुकान करते थे। उनके निधन के पश्चात, दुकान चलाने का दायित्व मेरे पति के कन्धों पर पड़ा, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। इसी दुकान की कमाई की बदौलत बड़ी तीन बेटियों को पढ़ाया-लिखाया, उनकी शादियाँ रचाईं। छोटा बेटा कमल अभी पढ़ रहा था।’
माता वीरांवाली जीवन-यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर चाहे पहुँच चुकी थीं, पर इस उम्र में भी वह पूर्ण रूप से चुस्त-दुरुस्त थीं। उनके कहे अनुसार, उन्होंने कभी भी किसी रोग के कारण चारपाई नहीं पकड़ी। हाँ, कभी हलके बुख़ार-जुकाम की शिकायत होती, साधारण दवाई लेकर स्वस्थ हो जाती थीं।
अब, जब भी वह बाज़ार या बैंक जाते, वापसी पर माता जी को अवश्य मिलते। किसी कारणवश कभी नहीं जा पाते तो माता जी उलाहना दिये बिना न रहतीं। आज जब माता जी को मिलने गये तो नाराज़गी भरे अन्दाज़ में बोलीं,
‘बेटा, अब तुम माँ को भूलने लगे हो... ये अच्छी बात नहीं। कभी-कभार माँ को भी याद कर लिया करो?’
वे झेंप गये। बोले-
‘माता जी, किसी काम से कहीं बाहर गया हुआ था... इसी कारण आपके दर्शन न कर पाया।’
माता जी को उस बिन्दु पर लाने के प्रयास में थे जहाँ उन्होंनें अपनी बात को घुमा-फिरा कर बीच में ही छोड़ दिया था। बोले-
‘माता जी, आपके कहे अनुसार आपका भरा-पूरा परिवार है। आश्चर्य होता है, फिर भी आप अकेली रहती हैं। ऐसा क्यों?’
छुई-मुई का पत्त जैसे हाथ के स्पर्श से मुरझा जाता है, माता जी की भी क्षणिक ऐसी ही दशा थी। शीघ्र सम्भल कर बोलीं।
‘क्या बताऊँ बेटा? कुर्ता ऊपर उठाओ, पेट अपना ही नंगा होता है... किसी का कुछ नहीं जाता।’
‘...मेरे पति का निधन हुआ तो कमल को पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर दुकान को संभालना पड़ा... पूरी लगन तथा मेहनत से दुकान को संभाला। व्यापार में वृद्धि भी हुई।... अकेलापन दूर करने के लिये उसकी शादी रचाई। परन्तु उसकी पत्नी से मेरी बन न पायी।’
अब माता वीरांवाली चुप थीं। परिवार के विषय मे वह शायद और अधिक नहीं बोलना चाहती थीं। देशबन्धु जी की ओर से बार-बार मिन्नतें करने पर बोलीं।
‘देखो बेटा, हमारी अगली पीढ़ी का व्यवहार तथा जीने का रंग-ढंग ही विचित्र है। मेरे जैसे बुज़ुर्गों की उनको कोई परवाह नहीं। अपनी मरज़ी हम पर थोपते हैं। भला ये क्या हुआ... दिन को सोते रहना, रातभर जागते रहना... खाने-पीने का कोई समय नहीं... कहीं आना-जाना हो तो घर के बड़े-बुज़ुगों को पूछना तक नहीं... अन्दर-बाहर जाना हो तो सिर-माथे को ढाँपना नहीं ...ईश्वर का नाम नहीं लेना... नित्य-नियम नहीं करना... पुत्र, मैनें सब कुछ सहा।’
माता वीरांवाली कुछ देर रुकीं। आँखों से ऐनक उतार, हथेलियों से आँखों को मला। शीशे साफ़ किये। ऐनक को फिर आँखों पर रखा। बात को आगे बढ़ाते हुए कहने लगीं,
‘बेटा, जब से बहू ने घर का काम-काज संभाला, मैं फ़ाक़ाकशी का शिकार होने लगी। मैं सोच में पड़ गयी। यदि ऐसे ही चलता रहा तो बीमार पड़ जाऊँगी। मैनें इस बात पर भी मिट्टी डाल दी। मैनें कहा तुम लोग जो चाहो करो, मुझे समय पर नित्य-नियम तो करने दो। मुझे सुबह चार बजे नींद से जागने की आदत है... नहा-धो कर पूजा-पाठ करना होता है। उसके पश्चात, कुछ देर ध्यान में बैठती हूँ। छः बजे के क़रीब मुझे फ़ुर्सत मिलती है। एक रोज़ बहू ने अपना मुँह खोल ही दिया।... कहने लगी, मैं उनकी नींद खराब करती हूँ... ऊँचे-ऊँचे स्वर में पाठ करती हूँ। उसकी बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। जो व्यक्ति रात भर सोता नहीं, उसकी नींद भला क्यों खराब होगी? फिर भी मैनें उसकी व्यर्थ बातों की ओर किंचित ध्यान नहीं दिया... नित्य-नियम नहीं छोड़ा। पर मेरे मन को ठेस तब लगी जब मेरे पेट से जना बेटा, पत्नी के बहकावे में आकर मुझ से उलझ पड़ा। मैं मानती हूँ, औरत आदमी की एक बड़ी कमज़ोरी होती है, परन्तु इसका अर्थ ये कदापि नहीं कि तुम लोग सभी रिश्ते-नाते भूल जाओ। क्रोधावेश में मैनें भी जो मेरे मुँह में आया कहा। मैनें दो टूक शब्दों में उन्हें कह दिया कि अब इस घर में वे रहेंगे या मैं। उनके लिये मैं अपने गुरु तथा ईश्वर को याद करना कैसे छोड़ दूँ? यही तो वे चाहते थे। कुछ ही दिनों में घर और दुकान का सामान समेटा और शहर की ओर कूच कर गये। जाते समय मैनें उनको कहा, मुझे एक ही कमरा चाहिये। बाकी दो को ताले लगा जाएँ। कौन इनकी साफ-सफाई करता रहेगा?’
घर लौटते समय, वह अपने विषय में सोचने पर विवश थे। अपने पुत्र के हाथों उन्हें भी ऐसी स्थिति से दो-चार होना पड़ा था, जब वह उनके पास एक प्रस्ताव लेकर आया था। उसने कहा था-
‘पापा, आप जानते हैं, जैसी शिक्षा हमें स्थानीय शिक्षा संस्थानों में प्राप्त हुई। मैं नहीं चाहता, मेरे बच्चे भी वैसी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षा ग्रहण करें। कंपीटीशन का ज़माना है। मेरी इच्छा है, हम शहर में रह कर बच्चों को किसी बढ़िया स्कूल में शिक्षा दिलवाएँ। उस सूरत में हमें शहर शिफ़्ट करना होगा। क्यों न ऐसी व्यवस्था करें कि अपना घर किसी और को किराये पर दे दें, स्वयं शहर जाकर किराये के मकान में रह लें। बच्चों का जीवन सुधर जाएगा। वहाँ स्टेडियम की सुविधा भी उपलब्ध है। पढ़ाई के साथ-साथ कोई गेम भी कर लेंगे। इसमें आपको कोई आपित्त तो नहीं?’
तब वह दुविधा में थे। अच्छे शिक्षा-संस्थानों में बच्चों को पढ़ाना बुरी बात नहीं। वह किस मुँह से उसे मना करते? उनके बच्चे आज तक उलाहना देते नहीं चूकते कि वह उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं दिला पाये। खूब सोच-विचार के बाद उन्होंने कहा था,
‘बेटा, मुझे आपित्त क्यों होगी? बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवाना हर माँ-बाप का कर्तव्य होता है। मैनें तो अपने सामर्थ्य अनुसार ही ये कार्य करना था। तुम्हारी नौकरी अच्छी है... वेतन भी अच्छा ख़ासा पाते हो। ख़र्चा झेल सकते हो तो मुझे आपित्त क्यों होगी? परन्तु एक बात स्पष्ट कह देना चाहता हूँ, ये घर छोड़ कर मैं कहीं नहीं जाने वाला। मेरे लिये छत्त के ऊपर बना कमरा छोड़ जाओ। बाकी का मकान किराये पर दे दो चाहे ताले लगा दो।’
बेटे ने परिवार के साथ उन्हें शहर ले जाने का भरसक प्रयत्न किया, परन्तु वह अपनी ज़िद पर अडिग थे। वैसे सप्ताह में एक बार पूरा परिवार उन्हें मिलने अवश्य आता है।
किसी सगे-सम्बन्धी के बेटे की शादी में सम्मिलित होने के लिये उन्हें दिल्ली जाना पड़ा। विवाह सम्पन्न होने के पश्चात, उन्हें कुछ सम्बन्धियों को मिलने के लिये कुछ दिन रुकना पड़ा। वह आज ही घर लौटे थे। ...पहुँचते ही किरायेदारों से पता चला कि माता वीरांवाली उन्हें मिलने के लिये कुछ दिनों से उनके घर के चक्कर काट रही थीं। सफ़र की थकान के कारण, वह उस दिन नहीं जा पाये। दूसरे रोज़, बैंक जाने के लिये वह उसी तंग गली से गुज़र रहे थे। उन्हें देख कर आश्चर्य हुआ कि माता वीरांवाली अपने घर के सामने नहीं खड़ी थीं। क्या कारण हो सकता है? वह सोचने पर विवश थे। बैंक पहुँचे तो वहाँ बे-तहाशा भीड़ देखी। बैंक के अन्दर जाने के लिये, पूरा दम लगाने के बावजूद, वह भीतर घुसने में सफल न हो सके। वास्तव में, सरकार ने आठ नवम्बर 2016 को नोटबन्दी की घोषणा की थी, जिसके कारण पाँच सौ तथा हज़ार रुपये के करंसी नोटों का चलन तत्काल बन्द कर दिया गया था। इन नोटों को बदलवाने के चक्कर में आतकिंत हुए असंख्य लोग बैंकों के सामने पंक्तिबद्ध खड़़े थे। निराश होकर, वह बिना काम निपटाये वापस लौट आये।
माता वीरांवाली के घर के सामने पहुँचे तो देखा, ड्योढ़ी के द्वार बन्द थे। द्वार खटखटाने पर माता वीरांवाली ने द्वार खोले। उन्हें सामने खड़ा देख, वह कुछ मुसकराईं। परन्तु इस मुसकान में पहले जैसा निखार नहीं दिखायी दिया... चेहरा मुरझाया हुआ था। माता वीरांवाली उनको अपने कमरे में ले गयीं। वे दोनों देर तक चुप बैठे रहे। इस चुप्पी को तोड़ते हुए देशबन्धु जी ने पूछा,
‘माता जी, आप परेशान दिखायी दे रही हैं। कुछ कारण तो होगा परेशान होने का?’
माता वीरांवाली बोलीं-
‘बात ही कुछ ऐसी है पुत्तर। अन्यथा मुझे क्या पड़ी थी तुम्हारे घर के इतने चक्कर काटने की? तुम्हारे बिना मैं किस पर विश्वास करूँ? कुछ दिन पहले कमल (बेटा) मेरे पास आया था। कहने लगा, मेरे पास यदि पाँच सौ तथा हज़ार रुपए के पुराने नोट हों तो उसे दे दूँ... बदलवा कर लौटा देगा। वह तो ये भी कह रहा था कि एक माह बाद ये नोट मिट्टी हो जाएँगे... पुत्तर, मैनें तो साफ़ मना कर दिया। मैनें कहा, बेशक इस घर में ईश्वर की कृपा से किसी चीज़ की कमी नहीं रही, परन्तु मेरी हथेली पर कभी किसी ने एक खोटा पैसा तक नहीं रखा चाहे वो तू हो या तेरा बाप। कमल निराश होकर वापस लौट गया था।’
वह बुत बने माता वीरांवाली की बातें सुन रहे थे। कुछ देर हवा में घूरते हुए माता जी सोच में डूबी रहीं। कुछ देर पश्चात वह उठीं। बाहर आँगन में जाकर चारों ओर देखा... कमरे के भीतर आकर धीमी आवाज़ में उन्हें कह रही थीं,
‘पुत्तर, सयाने कहते हैं, दीवारों के भी कान होते हैं। कुछ बातें पर्दे में रहें तो अच्छा होता है। ...मुझे जो कुछ भी राखी अथवा भैयादूज के अवसर पर भाइयों से मिला... अथवा किसी रिश्तेदार ने दिया, इसलिये संभाल कर रखा ताकि कभी मुश्किल घड़ी आए तो काम में आ सकें। उम्र हो गयी है मुझे पाई-पाई दाँतों से पकड़ते... क्यों दे दूँ किसी को निकाल कर? तुम्हारे बिना, मुझे किसी और पर भरोसा नहीं। अब तुम्हीं सारे नोट बदलवा कर मुझे दोगे।’
देशबन्धु जी ऊहापोह में थे। कहाँ बैंकों के सामने पूरा-पूरा दिन मीलों लम्बी पंक्तियों में खड़े रहेंगे... एक दिन में तो ये काम होने वाला नहीं। नोट बदलवाने की भी एक सीमा निर्धारित है। माता वीरांवाली अपनी परेशानी उन पर थोपने वाली थीं। सहसा मस्तिष्क में एक विचार कौंधा कहने लगे-
‘माता जी, बैंक में खाता क्यों नहीं खुलवा लेतीं?’
माता जी कुछ देर सोच कर बोलीं,
‘पुत्र, पूरी उम्र हो गयी, आज तक बैंक का मुँह तक नहीं देखा। तुम कहते हो तो खुलवा दो खाता।’
देशबन्धु जी को चिन्ता से कुछ मुक्ति मिली। पूछा,
‘माता जी, बैंक में खाता खुलवाने के लिये, पैन-कार्ड तथा आधार-कार्ड की आवश्यकता होती हैं। आपके पास हैं ये दस्तावेज़?’
‘नहीं बेटा, इनका नाम भी आज तुम्हारे मुख से सुन रही हूँ। हाँ, राशन कार्ड है, पर वो भी कमल के पास पड़ा है।’
देशबन्धु जी सकते में थे। निराश होकर बोले,
‘फिर तो माता जी, इनके बिना खाता खोलना असम्भव है।’
अब माता वीरांवाली की भाव-भंगिमा देखने योग्य थी। वह फुरती से उठ कर बैड के उस ओर गईं। उसके नीचे पड़ा सन्दूक बाहर खींचा। जंग खाये ताले को सदियों पुरानी चाबी से खोला। कितनी ही देर उस सन्दूक में पड़े सामान को उलट-पलट करती रहीं। फिर गु़स्से में तमतमाई माता जी ने एक मैली-कुचैली कपड़े की बनी छोटी थैली निकाली और देशबन्धु जी की ओर फेंकते हुए कहने लगीं,
‘ये लो पकड़ो? इतने रुपए हैं... बदलवा के दो या कुएँ में फेंक दो।’
माता वीरांवाली का ये रूप देख, वे स्तब्ध थे। जिस माँ को पेट से जने बेटे पर तनिक भरोसा नहीं, उन पर इतना विश्वास? माता वीरांवाली अपनी परेशानी देशबन्धु जी के कन्धों पर डालकर, ख़ुद आराम से एक ओर बैठी थीं। वह स्वयं दुविधा में थे। कार्य सुगम न था। माता को इंकार भी नहीं कर सकते थे... कितनी ही देर सोच समुद्र में हिचकोले खाते रहे। पास बैठी माता वीरांवाली निश्चिन्त होकर उनके चेहरे पर आते-जाते भिन्न-भिन्न रंगों को निहार रही थीं। ...अन्ततः सोचों के गहरे समुद्र से निकल कर किनारे लगे तो अनमने भाव से नोटों की गिनती करने लगे। राशि उतनी ही थी जितनी माता जी ने उन्हें बताई थी। ये राशि पाँच सौ रुपए के नोटांं में तथा हज़ारों में थी। उन्होंने माता वीरांवाली से मुसकराते हुए कहा,
‘माता जी, आप इतनी-सी राशि के लिये बेचैन हैं। उन लोगों के विषय मे सोचो जिन्होंने लाखों-करोड़ों की राशि घरों की तिजोरियों में बन्द करके रखी हुई है?’
माता जी ने खुल कर ठहाका लगाया और ठेठ पंजाबी भाषा में बोलीं।
‘तुसीं की कैंहदे ओ पुत्तर... तुसां ओ अखान नईं सुनेआ दा... कीड़ी वास्ते ठूठा वी समुन्दर हुंदा ए।’
(तुम क्या कहते हो पुत्तर? तुमने वो कहावत नहीं सुनी हुई कि चींटी के लिये पानी से भरा मिट्टी का छोटा-सा कटोरा भी समुद्र के समान होता है।)
‘ठीक है माता जी। मुझ पर भरोसा रखना। आपके नोट अवश्य बदलेंगे, परन्तु इतनी रक़म को बदलवाने में कम-से-कम एक माह का समय तो लगेगा ही। सरकार ने नोटों को बदलने की एक सीमा निर्धारित कर रखी है। वैसे दस दिन में जितनी रकम बदलवा सका, आपके हवाले कर दूँगा।’
देशबन्धु जी ने पैसे जेब में डाले और जाने लगे। माता वीरांवाली ने उन्हें रोका। वह कह रही थीं।
‘देखो बेटा, ये बात हम दोनों के बीच ही रहनी चाहिये। तुम्हें सौगन्ध है मेरी। किसी तीसरे व्यक्ति को इसकी भनक तक न लगे।’
पूरी मेहनत करने के बावजूद, दस दिन में वह केवल आधी राशि ही बदलवा पाये। ये राशि माता वीरांवाली के हवाले कर दी गयी। नये नोट हाथ आते ही, माता वीरांवाली का चेहरा नये नोटों के गुलाबी रंग की भाँति खिल उठा था।
अगले दस दिनों में उन्होंने बाकी बची आधी रक़म भी बदलवा ली। दोपहर को पैसे लेकर माता वीरांवाली के घर गये, परन्तु बाहरी द्वार पर ताला लगा देख, वापस लौट आए। वह शाम को और देर रात फिर उनके घर गये। दोनों बार घर के द्वार पर ताला लटका मिला। अगले रोज़ वह सुबह-सवेरे माता के घर पहुँचे। फिर भी ताले के ही दर्शन हुए। वह असमंजस में थे। माता जी कहाँ जा सकती हैं? कहीं बेटे कमल के घर न गयी हों? नहीं...नहीं, उसके पास वह जाती नहीं थीं... घर लौटते समय ऐसे अनेक प्रश्नों तथा उत्तरों में खोये रहे। कमरे के सामने पहुँच कर दरवाज़ा खोला। समाचार-पत्र बाँटने वाला लड़का कमरे में समाचार-पत्र फेंक गया था। उन्होंने नीचे पड़ा समाचार-पत्र उठा कर बैड के ऊपर छोड़ा। स्पोर्ट-शूज़ उतारे और पालथी लगा कर बैड के ऊपर बैठ गये। उनकी सोच माता वीरांवाली तथा उनकी आधी बची राशि पर अटकी थी। अपना ध्यान हटाने के लिये समाचार-पत्र पकड़ा और पढ़ने लगे। पहले पन्ने की सुर्ख़ियाँ पढ़ कर दूसरा पन्ना पलटा... देखकर चौंक उठे। शोक समाचार वाले कॉलम में माता वीरांवाली का चित्र छपा था। माता जी के पुत्र कमल की ओर से उनकी मृत्यु सम्बन्धी सूचना छपी थी। उसी दिन बारह बजे उनकी अन्त्येष्टि थी।
माता वीरांवाली के अन्तिम दर्शन तथा दाह-संस्कार के पश्चात, वह शहर से घर वापस लौटे। वे आज कुछ अधिक परेशान थे... माता जी की शेष बची राशि किसको सौंपें? उन्होंने इस समस्या पर गहन विचार किया। फिर कुछ दिन प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया क्योंकि माता वीरांवाली का परिवार अभी उनके मृत्यु सम्बन्धी कर्म-काण्डों में व्यस्त होगा। उनसे निवृत्त हो, शायद कोई न कोई सदस्य इस राशि का अधिकार जताने उनके पास पहुँचे। मृत्यु पूर्व माता जी ने परिवार के किसी न किसी सदस्य को इस विषय मे अवश्य अवगत करा दिया होगा।
दस दिन बीते... पन्द्रह दिन गये... एक माह बीत गया... उनके पास कोई न पहुँचा। चिन्ता और बढ़ने लगी... इस राशि का क्या करें? अपने पास रख नहीं सकते थे... किसी को दे नहीं सकते थे... माता जी की सौगन्ध से भी बँधे थे... किसी को बता भी नहीं सकते थे। इस मकड़जाल से बचने का उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। कभी सोचते, क्यों न इस राशि को माता वीरांवाली की ओर से गुप्त-दान के रूप में मन्दिर के दान-पात्र में डाल दें? क्यों न इसे किसी ग़रीब को आर्थिक सहायता के रूप में दे दिया जाए? ऐसे अनेक प्रश्न उनके मस्तिष्क में उभरते। उन्होंने अपने मस्तिष्क रूपी दूद्धहांड़ी में सोच रूपी मथनी डाल कर खूब मन्थन किया। पर कोई निर्णय नहीं ले पाए। दो माह गुज़र गये... उनके पास कोई न पहुँचा। इस दौरान, वह भीषण तनाव में रहे... अनिद्रा झेली। ....सोचते यदि ऐसे ही चलता रहा, वह निश्चित रूप से पगला जाएँगे। कभी उनको माता वीरांवाली द्वारा कहे वे वाक्य स्मरण हो आते जो उन्होंने पुराने करंसी नोट देते समय कहे थे।
‘ये लो, पकड़ो। इतने पैसे हैं। इन्हें बदलवा के दो या कुएँ में फेंक दो।’
माता जी ने भला ऐसा क्यों कहा? कभी पैसे भी कुएँ में फेंके जा सकते हैं... वो भी इतनी बड़ी राशि?
वह अब और अधिक परेशानी नहीं झेल पा रहे थे। अतः इस समस्या का शीघ्र निवारण करने की ठान ली।
आज रात भर वह सो न पाये। सुबह बिस्तर से उठे... नहा-धो कर कपड़े पहने। घर से बाहर निकले तो साढ़े सात बज चुके थे। बस-अड्डे पर जाकर बस पकड़ी। शहर पहुँचे तो एक घर के सामने रुक गये... कॉल-बैल का बटन दबाया। घर की ड्योढ़ी का द्वार खुला।
‘आपका नाम कमल है... माता वीरांवाली के बेटे हो?’
‘जी, हाँ। कोई काम है? कहिये?’
‘मेरा नाम देशबन्धु है... उसी क़स्बे का निवासी हूँ, जहाँ माता जी रहती थीं। सोचा, माता जी के निधन पर आप से संवेदना प्रकट कर आऊँ। उनके घर वाली गली में से आते-जाते उनसे ‘राम-राम’ हो जाया करता था। जल्दी इसलिये की क्योंकि नौ बजे बाज़ार खुल जाते हैं। आपको दुकान पे भी जाना होता है।’
कमल बोला- ‘आइये, अन्दर बैठते हैं।’
दोनों ड्राइंग-रूम में जा कर बैठ गये। कमल पूछ रहा था,
‘आपको यहाँ पहुँचने में कोई दिक्कत तो नहीं आयी?’
देशबन्धु जी ने अपने बटुए से अख़बार की एक कतरन निकाल कर दिखायी जिसके द्वारा माता जी के निधन की सूचना दी गयी थी। वह कह रहे थे,
‘नहीं....नहीं, मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। इस अख़बार की कतरन में आपके घर का पता लिखा है। ऐसा क्या हुआ कि माता जी इतनी जल्दी चल बसीं?’
‘माता जी को जीवन-भर बुख़ार तक नहीं हुआ। सब कुछ अचानक हो गया।’
उनकी आशा के विपरीत, कमल ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया था। वह चाहते थे कि उन्हें माता जी के पैसों के बारे में कुछ भनक लगे। फिर पूछा-
‘मृत्यु से पहले माता जी ने कोई बात-चीत की थीं?’
कमल उनके कहने का अभिप्राय नहीं समझ पाया। तुरन्त बोला,
‘नहीं जी, उन्हें अवसर ही नहीं मिला। उस रोज़ कुदरती मैं अपने क़स्बे में पुरानी उगाही करने गया था। अचानक सन्देश मिला कि वो फ़र्श पर गिरकर अचेत हो गयी हैं। सारा काम बीच में छोड़कर मैं घर की ओर भागा। ...फौरन गाड़ी में लिटाकर उन्हें अस्पताल पहुँचाया। सी.टी. स्कैन करने के पश्चात, उन्हें वैंटिलेटर पर रखा गया। ...पता चला कि फ़र्श पर गिरने से उनके दिमाग़ में ख्ून के थक्के जम गये थे। डॉक्टरों की भरपूर कोशिश करने के बावजूद, वह होश में न आ सकीं। रात के अन्तिम पहर उन्होंने अन्तिम साँस ली।’
देशबन्धु जी ने पूछा।
‘उनके कमरे में पड़ा सामान तो आप ले आए होंगे...?’
‘जी नहीं, हमने क्यों लाना था? हम तो स्वयं वहाँ जाने के विषय में सोच रहे हैं। सच बताऊँ देशबन्धु जी, शहर में आकर मैं अपने-आप को स्थापित नहीं कर पाया। काम मन्दा चल रहा है... मकान तथा दुकान का किराया तक दे पाने में मुश्किल आ रही है। कुछ दिन पहले मैं और मेरी पत्नी, ये सोच कर घर गये थे कि कहीं कोई माता जी का क़ीमती सामान न ले उड़े। माता जी के आभूषण तथा अन्य क़ीमती सामान निकाल कर अपने साथ ले आये थे...’
बात करता-करता कमल बीच में ही रुक गया। कुछ देर चुप रहने के पश्चात बोला,
‘देशबन्धु जी, एक बात पर मुझे आश्चर्य है। सरकार की ओर से नोटबन्दी की घोषणा के कुछ दिन बाद, मैं माता जी से मिलने गया था... चाहता था कि उनके पास यदि पुराने पाँच सौ व हज़ार रुपए के नोट होंगे, बैंक से बदलवा कर उन्हें लौटा दूँगा। परन्तु माता जी ने ऐसे नोट अपने पास होने से साफ़ मना कर दिया था। हम आश्चर्यचकित थे कि उनके सन्दूक में से हमें दो-दो हज़ार के चलन में आये नये नोटों की एक मोटी रकम मिली। चलो मैं मान लेता हूँ, माता जी ने पुराने नोटों के विषय में मुझ से छिपाव रखा। परन्तु ये नोट बदलवाए कैसे? स्वयं तो वह पंक्ति मे खड़ा होने योग्य थीं नहीं।’
देशबन्धु जी के आने का उद्देश्य पूरा हो गया। एकाएक उठ खड़े हुए... सामने दीवार पर टंगे माता वीरांवाली के चित्र के सम्मुख दो मिनट हाथ जोड़ कर मौन खड़े रहे... मन ही मन सौगन्ध न निभा पाने के लिये क्षमा-याचना की।
कमल अभी वहीं बैठा था। वह उसके पास गये... कमीज़ की जेब से नये-नये गुलाबी रंग के नोट निकाल कर कमल को सौंपते हुए बोले,
‘कमल जी, माता जी के सन्दूक में जो राशि आपको मिली, वो मैनें ही बदलवा के दी थी। उतनी ही बाकी बची राशि मैं आपके हवाले कर रहा हूँ। मैनें तो ये पैसे माता जी को देने थे, परन्तु वे पहले ही चल बसीं। उनकी सौगन्ध ने मुझे जटिल धर्म-संकट में डाल रखा था। अच्छा कमल जी, मैं चलता हूँ।’
कमल के घर से बाहर निकले तो ऐसे अनुभव किया मानो सिर पर उठाया कई मन बोझ कहीं दूर फेंक आये हों। वह एक विकट समस्या से मुक्त होकर वापस घर लौट आये।
उनके दिल व दिमाग़ में चलती फ़िल्म ख़त्म हो चुकी थी। अचानक ठण्डी हवा का एक झोंका द्वार के कपाटों को हिलाता हुआ बैड पर लेटे देशबन्धु जी की सभी सोचों-चिन्ताओं को ले उड़ा... जैसे उनको एक नयी दुनिया की एक नयी ज़िन्दगी दे गया हो... ऐसे अनुभव हुआ जैसे माता वीरांवाली ने आज उनके कृत्य से प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद दिया हो। उन्होंने करवट बदली और गहरी नींद का आनन्द लेने लगे।

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