दो भाई गु़लाब हुसैन सा’अदी उर्दू से अनुवाद : ज़मान तारिक़
22-Mar-2023 12:00 AM 1587

छोटा भाई दिन रात इसी उधेड़बुन में रहता और योजनाएँ बनाता कि किस तरह बड़े भाई की दुष्टता से छुटकारा मिले। बड़ा भाई, उसकी नज़र में आलसी, काम-काज का दुश्मन, मूर्ख और मन्दबुद्धि, पूरी तरह आवारागर्द और किसी काम का न था। हमेशा धूप में लेटा चाय पीता और क़िताब पढ़ता और बीजों से भरी जेबें खाली किया करता और कमरे में हर तरफ जहाँ चाहता, बीजों के छिलके और सिगरेटों के टुकड़े बिखेरा करता।
छोटा भाई चाहता था कि बड़ा भाई खुद को बदले, आदमी बने, काम तलाश करे, अपने जीवन में कुछ माल-सामग्री पैदा करे। मगर वह जानता था कि बड़ा भाई बदलने वाला नहीं, उसमें वो सूझ-बूझ ही नहीं कि इन समस्याओं को समझ सके, छोटे भाई की नसीहतों से कुढ़ने के बजाए उनसे सही प्रभाव ले। और बड़ा भाई अगर कुछ करता तो बस ये कि हर दिन पहले से अधिक बुरा, आलसी और बेकार होता जाता था।
छोटा भाई, हर सुबह, सूरज निकलने से पहले, उठकर काम पर चला जाता, और बड़ा भाई देर से उठता और बिना बिस्तर समेटे, चाय का कप धोए, पर्दे बराबर किये और सिगरेट की राख साफ किये, आवारागर्दी के लिए घर से निकल खड़ा होता। दोपहर के समय जब कमरा धूप से गर्म हो चुका होता, वह वापस लौटता, समीवर जलाकर पानी गर्म करता और सिगरेट का डिब्बा और बीजों का लिफ़ाफ़ा अपने सामने रखकर खुद को कम्बल में लपेट लेता और क़िताब हाथ में लेकर अपनी दुनिया में गुम हो जाता। उसे देखकर ऐसा लगता था कि वह हर प्रकार की व्यस्तता और हर एक चीज़ से आज़ाद है। भरे पेट- क्योंकि वह हमेशा गली के नुक्कड़ से मांस सैंडविच खाकर आया होता- वह समावर की गर्म और मधुर आवाज़ पर कान लगाए क़िताब पढ़ता रहता। मगर बहुत देर न होती कि छोटा भाई, साफ-सुथरा, दरवाज़े से भीतर प्रवेश करता, अपना चश्मा ठीक करता और एक बार ज़ोर से पुकारता। बड़ा भाई क़िताब बन्द करके उठ खड़ा होता और हंगामा रोकने के इरादे से बीजों के छिलके एक रूमाल में एकत्र करने लगता। लेकिन छोटा भाई रूमाल उसके हाथ से लेकर एक तरफ डाल देता और चश्मा उतारकर छिलके समेटने लगता। फिर वह समावर बन्द करता और खिड़की खोलता ताकि ताज़ा हवा कमरे में आ सके। उसके बाद वह पिछले चौबीस घण्टों के कूड़े-करकट को झाड़ू से निचली मंजिल की बालकनी में गिरा देता जिसपर गुस्सा होकर मकान की बूढ़ी मालकिन आकर विरोध करती। फिर वह दिया जलाता, अपने लिए अण्डों का ऑमलेट बनाता और खड़े-खड़े, बड़े भाई की ओर पीठ किये, अपना खाना खाता, कपड़े बदलता, बिस्तर बिछाता और लेट जाता। बड़ा भाई बिना किसी डर-भय के उठकर समावर को दोबारा जला देता; वह जानता था कि छोटा भाई इस बार उसे बन्द नहीं करेगा। तले हुए अण्डों के बाद चाय पीना उसे हद से ज़्यादा पसन्द था। किसी-किसी रात जब छोटा भाई अपने मूड में होता तो उसके चेहरे के भाव कोमल पड़ जाते, वह बैठकर बड़े भाई से बातचीत करने लगता और इस तरह कमरे में भरी वैमनस्य और मनमुटाव की बर्फ़ धीरे-धीरे पिघलने लगती। छोटा भाई रेडियो चलाकर समाचार सुनने लगता। दोनों चाय पीते और एक दूसरे को नाम लेकर पुकारने लगते। लेकिन जब सोने का समय आता और बिस्तर बिछाना होता तो दोनों में झगड़ा और गाली-गलौज फिर से शुरू हो जाती। दोनों उठकर एक दूसरे से उलझ जाते और छोटा भाई जब तक बड़े भाई की नाक समतल और खून से लाल नहीं कर देता, आराम न करता और न सोता। छोटा भाई हमेशा बड़े भाई के आलसीपन, एहसान-फ़रामोशी और आवारागर्दी की शिकायत करता और बड़ा भाई छोटे भाई की बदसुलूकी का दुखड़ा गाता। बड़ा भाई हर चीज़ को भुलाने में असमर्थ होकर बड़ी खिड़की का पर्दा खींच देता और उसके चौखटे के बीचों-बीच दिखाई देते चाँद पर नज़र जमाकर बैठ जाता और आराम से बिस्तर में सोये हुए छोटे भाई की साँसों की आवाज़ सुन-सुनकर कुढ़ता और खुद को जलाता रहता। लेकिन उसे यही सन्देह रहता कि छोटा भाई सो नहीं रहा बल्कि सोने का नाटक कर रहा है और वास्तव में उसके विरुद्ध योजनाएँ बनाने में व्यस्त है; और ये योजनाएँ वह इसलिए नहीं बना रहा कि बड़ा भाई खुशामदी की तरह उसकी जान से चिमट गया है और उसका जीवन बर्बाद कर देने की कगार पर है, बल्कि इसलिए क्योंकि वह बड़े भाई से घृणा करता है और उससे तंग आ चुका है।
एक रात छोटे भाई ने सपना देखा कि बड़ा भाई क़िताबों का एक ढेर बगल में दबाये सीढियाँ चढ़कर ऊपर आया है और उसने ये सारी क़िताबें कमरे के बीच में फैला दी हैं और कमरे के फ़र्श पर जगह-जगह सिगरेट के टुकड़े और बीजों के छिलके बिखेर दिये हैं, समावर जलाकर पानी को उबाल रहा रहा है और उसके जीवन में ज़हर घोल दिया है। और जब उसकी नज़र उसकी इस बखेड़े पर पड़ती है तो वह आपे से बाहर होकर चिल्लाने लगता है कि ‘उठो और ये सारी गन्दगी साफ़ करो। वरना मैं इस कूड़े-करकट को समेटकर तुम्हारी लाश समेत खिड़की के बाहर फेंक दूँगा।’ ये कहकर वह बढ़ता है कि समावर बन्द कर दे, लेकिन बड़ा भाई, पहले से अधिक निडर होकर, उसकी पिंडली को पकड़ लेता है और चीखकर कहता है, ‘क्या कर रहा है, क़ातिल! हट यहाँ से!’ छोटा भाई नाराज़ होकर बीजों का लिफ़ाफ़ा उठाकर बड़े भाई के कल्ले पर दे मरता है। बड़ा भाई गिरकर बेहोश हो जाता है। बीजों का लिफ़ाफ़ा फट जाता है और बीज चारों ओर बिखर जाते हैं। छोटा भाई झुककर बड़े भाई की आँखों को देखता है जो खुली हैं और शान्त और स्थिर होकर चाँद पर जमी हुई हैं। वह तुरन्त उठ खड़ा होता है और लाश को एक कोने में छिपा देना चाहता है। लेकिन उसे कोई जगह नहीं मिलती और उसे केवल यही चारा सूझता है कि लाश को क़िताबों और बीजों के ढेर में छिपा दे। लेकिन सारी कोशिशों के बावजूद बड़े भाई के पैर खुले रह जाते हैं और अचानक बूढ़ी मकान मालकिन अन्दर आ जाती है और चिल्लाने लगती है- ‘क़ातिल! तुम इसे नहीं छिपा सकते!’
छोटा भाई चीख मारकर जाग उठा और बड़ा भाई, जो जाग रहा था और उसकी उखड़ी हुई साँसों की आवाज़ सुन रहा था, उठा और दरवाज़ा खोलकर भागने ही वाला था कि अचानक उसका पैर फिसला और वह सीढ़ियों पर लुढ़कता चला गया। बूढ़ी मालकिन और निचली मंजिल के किरायेदार बदहवास होकर बाहर निकल आए और बुढ़िया क्रोध से काँपती आवाज़ में चीखकर कहने लगी- ‘कल...कल सुबह अगर तुम लोगों ने यह मकान ख़ाली न किया तो... तो... मैं पुलिस को ख़बर कर दूँगी... समझ गये?... कल सुबह...’

(2)
अगले दिन बुढ़िया इस पर तुली बैठी थी कि दोनों भाई जितनी ज़ल्दी हो सके, इस मकान को ख़ाली कर दें। पहले तो उसने निचली मंजिल की किरायेदार के माध्यम से, जो एक काली, जली हुई रंगत वाली महिला थी, अपनी पिछली रात की धमकी को दोहराया। फिर अगले दिन यही बात किसी से लिखवाकर भेजी। मगर जब देखा कि दोनों भाई टस से मस नहीं होते तो खुद सीढियाँ चढ़कर ऊपर आ पहुँची और बोली कि अब वह उन दोनों की उपस्थिति को सहन नहीं कर सकती। उन्होंने मकान के सभी निवासियों का जीना दूभर कर दिया है। हमेशा सीढ़ियों पर पेशाब करते हैं और पूरे घर से सड़ान्ध उठती रहती है। और सबसे बुरा यह कि अपने घर का सारा कूड़ा-करकट झाड़ू से समेटकर निचली मंज़िल की बालकनी में फेंक देते हैं। और कमरे में चारों ओर बीजों के छिलके और सिगरेट की राख बिखरी हुई है और पूरा घर कूड़े के ढेर में बदलता जा रहा है। उसका पारा चढ़ता गया और अन्ततः वह चिल्लाने लगी- ‘और केवल हम लोग नहीं, तुमने पूरे मोहल्ले का जीना हराम कर दिया है। पूरी गली में खरबूजे के बीजों के छिलके फैले हुए हैं। तुम्हारे पेटों में इतने बीजों की जगह कहाँ से निकल आती है? और तुम बीमार भी नहीं पड़ते कि दो-एक दिन के लिए तो शान्ति हो।’
बड़े भाई ने कम्बल हटाया और बोला- ‘बकवास बन्द कर बुढ़िया! तू इस खण्डहर को बड़े वरदान की जगह समझती है। दो तीन दिन ठहर जा, हम खुद यहाँ से निकलकर किसी अच्छी जगह चले जाते हैं।’
बुढ़िया आग बगूला होकर बोली- ‘चुप रह कमीने! अगर तीन दिन के अन्दर यह मकान ख़ाली नहीं किया तो मैं सारा सामान उठाकर बाहर फेंक दूँगी।’
जब छोटा भाई घर पहुँचा तो बड़े भाई ने उसे आरम्भ से अन्त तक पूरी कहानी सुनाई कि किस तरह बुढ़िया आई और क्या बोली और उसने क्या उत्तर दिया। छोटे भाई ने सबकुछ सुनने के बाद चिल्लाकर कहा-
‘तुम्हारा इन बातों से क्या सम्बन्ध है? तुम्हें क्या काम करना है कि मोहलत माँग ली? तुमसे किसने कहा था उससे झगड़ा करने को? अगर हमें बाहर निकाला गया तो यह तुम्हारे ही कारण होगा। मुझे सारे संकट तुम्हारे कारण झेलने पड़ते हैं। तुम्हें क्या अधिकार है इन मामलों में हस्तक्षेप करने का। हज़ार बार तुम्हें समझाया है कि रातों को नशे में धुत होकर घर मत आया करो, सीढ़ियों पर पेशाब न किया करो, बीजों के छिलके मत फैलाया करो।’
उसने क्रोध में तपकर समावर बुझाया, बीजों का लिफ़ाफ़ा उठाया और उसे पीछे की खिड़की से बराबर के उजाड़ में फेंक दिया। फिर अपना चश्मा ठीक करते हुए बोला- ‘अब ये हो ही गया है तो उठो, बाहर जाकर मकान ढूँढो। तुम क्या समझते हो, इस जीवन-काल के लिए मुझे क्या कुछ करना पड़ता है, कितना पसीना बहाना पड़ता है, किस-किस का आदर-सत्कार करना पड़ता है ताकि मकान का किराया भर सकूँ। और इधर तुम हो कि बेपरवाह होकर खाते हो, सोते हो और आवारागर्दी करते हो, अब्बा के भेजे हुए रुपये शर्बत और बीजों में उड़ा डालते हो, मैं तुम्हारी हरकतों से तंग आ गया हूँ। मेरा दिमाग़ बिल्कुल ख़राब हो गया है।’
बड़े भाई ने कहा- ‘अगर तुम तंग आ गये हो और तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है तो इसमें मेरा क्या दोष?’
छोटा भाई बोला- ‘तो फिर किस नाजायज़ का दोष है? तुम्हारा नहीं तो किसका दोष है? सब तुम्हारी हरकतों की वजह से है, तुम्हारी आवारागर्दियों और तुम्हारे विचित्र प्रकार के दोस्तों की वजह से है।’
बड़ा भाई बोला- ‘कौन से दोस्त? तुम्हारे डर से मैं सबसे तो कट गया हूँ।’
छोटे भाई ने कहा- ‘अच्छा हुआ, सब मेरा ही खर्च बढ़ाते थे। तुम क्या समझते हो वो तुम्हारी अदाओं के आशिक़ थे? शराब और सिगरेट की लालच में तुम्हारे आगे पीछे फिरते थे। और इस सब के लिए पैसे कहाँ से आते थे, तुम्हारी मुबारक जेब से? सब मुझ बेचारे की गर्दन पर पड़ता था...’
बड़ा भाई बोला- ‘बहुत खूब! मगर ये नहीं कहते कि उसके बदले में हज़ार बार तुम मुझे अपने कामों से भेजते थे। और अब भी तुम्हारे कपड़े धोने और जूते पॉलिश करने का काम मैं नहीं तो कौन करता है?’
छोटा भाई घूँसा तानकर सामने आया और जवाब देने के बजाय बड़े भाई के चेहरे पर ज़ोर का घूँसा मारा। बड़ा भाई चीख मारकर फर्श पर गिर पड़ा। उसकी नाक से खून बह रहा था।
बूढ़ी मकान मालकिन और निचली मंजिल की किरायेदार औरत ऊपर आयीं और दरवाज़े की ओट से झाँकने लगीं।
बुढ़िया प्रसन्न होकर बोली- ‘बहुत अच्छा हुआ। यह मुर्दा कमीना इसी का पात्र था।’
बड़े भाई ने बुढ़िया की बात सुनी तो उठकर दरवाज़ा खोल दिया। मकान मालकिन और किरायेदारनी डरकर पीछे हट गयीं और बड़े भाई ने ज़ोर से ठहाका लगाया।

(3)
अगले दिन छोटे भाई ने बड़े भाई को मकान ढूँढने के काम पर लगाया। बड़ा भाई घर से पाँव बाहर निकालते ही भूल गया कि किस काम से निकला था, और लापरवाही से सड़कों और गलियों में आवारागर्दी करने लगा। कभी अखबार बेचने वाले के स्टाल के पास खड़ा हो जाता, कभी पुरानी चीज़ें बेचने वाले के पास और कभी क़िताबों की दुकान पर। बीजों से भरा लिफ़ाफ़ा उसके हाथ में था और दो सिगरेटों के बीच की अवधि में वह गली में बीजों के छिलके बिखेरता चल रहा था। और उन चिड़ियों का तमाशा देख रहा था जो पतझड़ के मौसम में थकान से चूर होकर वृक्षों की शरण में जाकर स्वयं को गर्म रखने का प्रयास कर रही थीं। जब चलते-चलते थक जाता तो गली के चबूतरे पर बैठ जाता और या तो क़िताब निकालकर कुछ पन्ने पढ़ता या नया सिगरेट जला लेता।
दोपहर को जब उसने घर लौटने का इरादा किया तो उसे याद आया कि किस इरादे से घर से निकला था। वह कुछ देर और बाहर रहा और जब घर पहुँचा तो छोटा भाई वापस आ चुका था और अपने कपड़े इस्त्री कर रहा था। उसने सर उठाये बिना पूछा- ‘अच्छा, तो फिर क्या रहा?’
बड़ा भाई फ़र्श पर बैठ गया और छिलकों के ढेर में हाथ से टटोलकर खड़े बीज तलाश करते हुए बोला- ‘कोई ख़ाली कमरा तक नहीं मिला। मैं तो थक गया। पूरे शहर में पैदल फिरा हूँ, हर जगह गया हूँ। एक कमरे का मकान कहीं नहीं मिलता। सारे तीन कमरों के, चार कमरों के, पाँच कमरों के मकान हैं, टेलीफ़ोन और बाथरूम और टीम-टाम वाले।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘किस-किस ओर गये थे?’
बड़े भाई ने जवाब दिया- ‘यहीं आस-पास के इलाक़ों में। केवल एक जगह एक कमरा दिखायी दिया मगर वह हमारे काम का नहीं था।’
छोटा भाई बोला- ‘क्यों? हमारे काम का क्यों नहीं था?’
बड़े भाई ने कहा- ‘एक तो वह जगह ठीक नहीं थी जहाँ वह स्थित है, दूसरे उसकी मालकिन भी एक चिड़चिड़ी बुढ़िया थी; तीसरे उसमें पानी नहीं था। और सबसे बढ़कर ये कि इतना छोटा था कि दो आदमियों की जगह नहीं थी। अगर एक आदमी भी पैर फैलाकर सोना चाहे तो उसे अपने पैर खिड़की से बाहर बाग में लटकाने पड़ें।’
छोटे भाई ने कहा- ‘अच्छा?’
बड़ा भाई बोला- ‘अच्छा क्या? इतना छोटा और अन्धकारपूर्ण कि आदमी वहाँ बैठकर एक पन्ना भी नहीं पढ़ सकता।’
छोटे भाई ने कहा- ‘अब बैठकर पढ़ने का विचार तो मन से निकाल ही दो। इसी पढ़ने ने तुम्हें इतना आलसी और निकम्मा बना दिया है। अब तुम्हें बाहर निकलकर कोई काम-काज ढूँढना होगा। फालतू बैठकर पढ़ना बहुत हो चुका। पेट ख़ाली हो तो सब बेकार है।’
बड़ा भाई बोला- ‘जानता हूँ।’
छोटे भाई ने कहा- ‘कल चाहे जो कुछ हो, जाकर वो कोठरी किराये पर ले लो ताकि सामान वहाँ ले जाया जा सके।’
बड़ा भाई बोला- ‘मगर मुश्किल यह है कि...’
छोटा भाई चिल्लाकर बोला- ‘मैं कोई मुश्किल-वुश्किल नहीं सुनना चाहता, समझे?’
गुस्से में आकर उसने गालियाँ देना और कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक टहलना शुरू कर दिया। फिर उसने खाँसकर चश्मा साफ़ किया, अण्डों का ऑमलेट खाया और पढ़कर सो गया। अगला दिन बीत गया, फिर उससे अगला भी। बड़ा भाई प्रतिदिन घर से निकलता, चिड़ियों का तमाशा देखता, छोटे भाई से चुराये हुए सिगरेट फूँकता, बीज खाता और दोपहर को अपनी गढ़ी हुई विचित्र कहानियों के साथ घर लौट आता। वह बताता कि आज कहाँ-कहाँ की धूल फाँकते हुए बदहाल हुआ, किस तरह पैसे बसों के किराये और दूसरी चीज़ों पर खर्च किए, क्या-क्या कठिनाइयाँ झेलीं और इतना कुछ होने पर भी कोई मकान नहीं मिला। और यह कि कोठरी की मालकिन ने भी दो छुट्टे मर्दों को किरायेदार बनाने से मना कर दिया क्योंकि उसकी दो जवान बेटियाँ हैं और वह कोई सरदर्द मोल लेने को तैयार नहीं। छोटा भाई सब कुछ सुनता, सर हिलाता, मगर मुँह से कुछ न कहता।
तीन दिन की मोहलत यूँ बीत गयी। छोटे भाई को पहले से हर चीज़ का अनुमान था। वह बेहद गुस्से की हालत में था और प्रतीक्षा कर रहा था कि अन्तिम दिन आये तो बड़े भाई से बदला ले।
तीसरे दिन मग़रिब के समय बुढ़िया खाँसती हुई सीढ़ी से ऊपर आई और मुट्ठियों से दरवाज़ा पीटने लगी। छोटे भाई ने, जो कुर्सी पर बैठा था, बड़े भाई को इशारा किया कि बुढ़िया को जवाब दे। बड़े भाई ने दरवाज़ा खोला। बुढ़िया ने पूछा- ‘फिर?’
बड़ा भाई बोला- ‘जा रहे हैं।’
बुढ़िया ने कहा- ‘कब?’
बड़ा भाई बोला- ‘बस, कल।’
बुढ़िया ने कहा- ‘तीन दिन की मोहलत समाप्त हो गयी। मैं यहाँ ताला डालने आयी हूँ।’
बड़ा भाई बोला- ‘मोहलत समाप्त हो गयी, पता है। कल जा रहे हैं। अभी ताला डाल दोगी तो सामान कैसे निकालेंगे?’
बुढ़िया चुप साधकर सीढ़ी से नीचे उतर गयी।
‘अब क्या करेंगे?’ बड़े भाई ने पूछा।
छोटा भाई बोला- ‘मुझे क्या पता।’
बड़ा भाई ने कहा- ‘कोई उपाय सोचो।’
छोटा भाई बोला- ‘मैं कोई उपाय सोचूँ? तुम अपने बीमार, टेढ़े दिमाग से कोई उपाय सोचो। और जो कोई पागलपन का उपाय भेजे में आये उसे कर डालो।’
बड़े भाई ने आँखें बन्द कीं और भँवें चढ़ा लीं।
छोटे भाई ने पूछा- ‘ये भांड जैसा मुँह क्यों बना रखा है?’
बड़ा भाई बोला- ‘सोच रहा हूँ।’
छोटा भाई चिल्लाया- ‘निकल जाओ यहाँ से, गधे! गधों जैसी हरकतें कर रहे हो।’
बन्द आँखों और ऊँघते हुए दिमाग के साथ बड़ा भाई सिगरेटों और मांस सैंडविच और खरबूजे के बीजों और खाली बोतलों के बारे में सोच रहा था और उसके कानों में केवल चिड़ियों की आवाज़ें थीं।
छोटे भाई ने चीखकर कहा- ‘खुदा के वास्ते, ज़ल्दी करो!’
बड़े भाई ने आँखें खोलीं और कहा- ‘उपाय सूझ गया! हम में से एक को बीमार पड़ना होगा।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘उससे क्या फ़ायदा होगा?’
बड़ा भाई बोला- ‘ऐसे में बुढ़िया हमें नहीं निकाल सकेगी।’
छोटा भाई बोला- ‘जो कुछ करना चाहते हो करो। बीमार पड़ना है तो बीमार पड़ जाओ। मैं तो खुदा से चाहता हूँ कि तुमसे जान छूटे।’
बड़ा भाई कहने लगा- ‘बहुत खूब! तो मैं बीमार बनकर कोने में लेट जाता हूँ। मुझे बस कुछ सिगरेट, थोड़े से बीज और दो एक उपन्यास मिल जाएँ तो मैं वहीं जड़ पकड़ लूँगा।’
छोटे भाई ने कहा- ‘अच्छा, ये उपाय है!’
बड़ा भाई बोला- ‘कैसा उपाय?’
और बेबसी से छोटे भाई की ओर देखने लगा। छोटा भाई कमरे में टहलने और सहमति में सर हिलाने लगा। यह देखकर बड़े भाई ने कोने में अपना बिस्तर लगाया, कुछ क़िताबें अपने सिरहाने रखीं और बीजों के लिफाफे समेत कम्बल में घुसकर कराहने लगा। बड़ा भाई बीमार पड़ गया।

(4)
अगले दिन दोपहर के समय जब बूढ़ी मकान मालकिन कमरे में ताला डालने के लिए सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर आयी तो उसे पता था कि कमरा खाली नहीं हुआ है। फिर भी वह अनजान बनकर ऊपर पहुँची। सीढ़ियों से ऊपर आते ही उसे बड़े भाई के कराहने की आवाज़ें सुनायी दीं। वह कुछ देर कान लगाये सुनती रही और फिर दरवाज़ा खटखटाकर पूछने लगी- ‘तुम अभी गये नहीं?’
छोटे भाई ने कुछ जवाब नहीं दिया। बड़ा भाई कराहते हुए बोला- ‘मैं मर रहा हूँ। मुझ पर दया करो। मेरी ऐसी हालत है, हम ऐसे में कहाँ जा सकते हैं? मेरा दिल डूब रहा है, टांगें सूज गयी हैं, मुझसे साँस भी नहीं ली जा रही।’
बुढ़िया ने कहा- ‘मेरे सामने ढोंग करने की आवश्यकता नहीं। मैं कुछ नहीं सुनना चाहती।’
बड़ा भाई बोला- ‘खुदा की क़सम, पीर-पैग़म्बर की क़सम, मैं मर रहा हूँ।’
बुढ़िया ने कहा- ‘तो मुझसे क्या मतलब? तुम तो सदा के मरीज हो।’
बड़े भाई ने ज़ोर से आह भरी और छोटा भाई गुस्से में आकर टहलने लगा। वह कभी दरवाज़े की ओर देखता था कभी बड़े भाई की ओर। उसकी आँखें जल रही थीं और वह चाहता था कि बड़े भाई को उठाकर बुढ़िया के मुँह पर दे मारे और दोनों को नरक के सबसे निचले वर्ग में धकेल दे।
बुढ़िया अपने आप से कहने लगी- ‘अगर यह वास्तव में बीमार है तो इन्हें बाहर निकालना खुदा को पसन्द नहीं आएगा।’
यह कहकर वह दो-तीन सीढियाँ नीचे उतर गयी। दोनों भाई कान लगाकर उसके सीढियाँ उतरने की आहट सुनते रहे। बड़े भाई ने कराहना बन्द कर दिया। बुढ़िया जो अभी सीढ़ी पर ही थी, उसे सन्देह हुआ कि कहीं यह मुझे मूर्ख तो नहीं बना रहा?’
वह फिर ऊपर आई और दरवाज़े के पीछे छिप गयी। कमरे से कराहने की आवाज़़ें आ रही थीं। उसने दोबारा दरवाज़ा खटखटाया और गम्भीर स्वर में बोली- ‘जितनी ज़ल्दी स्वस्थ हो जाओ उतना ही अच्छा है।’
बड़े भाई ने दुहाई दी। ‘बहुत अच्छा।’
बुढ़िया सीढ़ियाँ उतरकर नीचे चली गयी और बड़ा भाई काम बिगड़ जाने के डर से अपनी जगह लेटा रहा। पाँच दिन और रातें इसी तरह बीत गयीं कि बड़ा भाई चौबीस घण्टों में एक-दो बार से अधिक बिस्तर से नहीं उठा। वह कम्बल ओढ़े पड़ा रहता और क़िताबें पढ़ा करता। उसके अन्दर क़िताबें पढ़ने की ऐसी लालसा उत्पन्न हो गयी थी कि बीज खाने की चाह भी ठण्डी पड़ गयी थी। दोपहर और रात को जब बुढ़िया सो जाती और उसके खर्राटे पूरे मकान में गूँजने लगते तो वह चुपके से उठता और नान और मांस खाने घर से बाहर निकलता। जूते हाथों में ले रखे होते और चारदीवारी के दरवाज़े से निकलते हुए उसकी घण्टी की जंजीर को पकड़कर ऊपर उठा लेता ताकि कहीं बुढ़िया जाग न जाए। बाहर निकलकर वह तेज़-तेज़ कदम उठाता गली के नुक्कड़ तक जाता और नान में लिपटी हुई मछली के टुकड़े काटते हुए अखबारों के स्टाल पर नज़र डालता, सिगरेट खरीदता और उसी तेज़ी के साथ वापस आ जाता। आँगन के दरवाज़े के पास पहुँचकर वह फिर जूते हाथ में ले लेता, जंजीर को ऊपर उठाता और सावधानी से सीढियाँ चढ़कर ऊपर पहुँच जाता।
इस पाँच दिन-रात की समयावधि में बुढ़िया एक बार भी उसे पकड़ नहीं सकी थी, ये अलग बात कि निचली मंज़िल की किरायेदारनी ने कई बार उसे देखा था और बिना आवाज़ निकाले हँसी थी। लेकिन बड़े भाई को इससे कोई समस्या नहीं हुई थी और वह आश्वस्त था कि वह उसका भांडा नहीं फोड़ेगी। बुढ़िया प्रतिदिन शोर मचाती हुई ऊपर आती और उंगलियाँ नचा-नचाकर धमकियाँ देती। छोटा भाई हमेशा त्यौरी चढ़ाये, आधी नान और दो अण्डे लिए घर में प्रवेश करता, खाना खाता और मकान में पसरे सन्नाटे को अपनी गालियों और शोर-शराबे से तितर-बितर कर देता। वह बुढ़िया की कही हुई बातें दोहराता कि ज़ल्दी से कोई जगह तलाश करो ताकि हम यहाँ से निकलें, और ये कि कब तक कम्बल ओढ़े पड़े गालियाँ खाते रहोगे।
पाँचवें दिन शाम ढलते समय बुढ़िया ने ऊपर आकर दरवाज़ा खटखटाया और जवाब की प्रतीक्षा किये बिना खुद ही दरवाज़ा खोल लिया। वह अपने साथ एक छोटे कद के आदमी को लायी थी जिसके हाथ में एक छोटा सा बैग था। छोटा भाई अभी नहीं आया था। बड़े भाई ने चकित आँखों से बुढ़िया और नवागन्तुक व्यक्ति को देखा। यह क्या बखेड़ा है? बुढ़िया ने मुँह से एक शब्द निकाले बिना बड़े भाई की ओर इशारा किया। हाथ में बैग थामे वह व्यक्ति तसल्ली से बड़े भाई की ओर देखकर मुस्कुराया। बड़े भाई ने पास रखी हुई क़िताब उठाई और उन दोनों से बेपरवाह होकर पढ़ने में लीन हो गया। बुढ़िया नवागन्तुक को सम्बोधित करते हुए बोली- ‘डॉक्टर साहब कृपा करके इसकी जाँच कीजिए। अगर यह बीमार है तो जितनी ज़ल्दी सम्भव हो, इसका इलाज कीजिए। और अगर बीमार नहीं है तो मुझे बताइए।’
डॉक्टर ने सर हिलाया, आगे बढ़कर बड़े भाई के पास बैठ गया और अपना बैग खोल लिया। उसने बैग से स्टेथोस्कोप, ब्लड-प्रेशर मापने का आला, आईना, थर्मामीटर, हथोड़ी, कई टेस्ट-ट्यूब और कुछ काग़ज़ात निकाले और करुण भाव के साथ बड़े भाई से बोला- ‘क्या शिकायत है?’
बड़े भाई ने कुछ जवाब नहीं दिया और उसी तरह क़िताब के पन्ने उलटने-पुलटने में लगा रहा।
डॉक्टर ने पूछा- ‘क्या आप बीमार हैं?’
बड़ा भाई धीमे स्वर में बोला- ‘हाँ।’
डॉक्टर ने पूछा- ‘क्या बीमारी है?’
बड़े भाई ने कहा- ‘मर रहा हूँ।’
डॉक्टर ने सर हिलाकर कहा- ‘बहुत खूब। चलिए, देखता हूँ।’
बड़े भाई ने कहा- ‘क्या करना है आपको?’
डॉक्टर बोला- ‘आपकी जाँच करनी है।’
बड़े भाई ने कहा- ‘किसलिए?’
डॉक्टर ने कहा- ‘ताकि इलाज हो सके।’
बड़े भाई ने पूछा- ‘कौन हैं आप?’
डॉक्टर ने कहा- ‘डॉक्टर हूँ।’
डॉक्टर ने उन मेडिकल उपकरणों की ओर इशारा किया जो बैग से निकाले थे। बड़ा भाई बोला- ‘आपको किसी ने नहीं बुलाया है।’
डॉक्टर बोला- ‘मैं खुद से तो नहीं आया हूँ। इन ख़ानम ने बुलवाया है।’
बड़े भाई ने कहा- ‘इनको क्या आवश्यकता थी। इनसे किसी ने नहीं कहा था।’
बुढ़िया कहने लगी- ‘ये बाल मैंने धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं। कोई मुझसे चालाकी नहीं कर सकता। डॉक्टर साहब, खुदा के वास्ते, आप इसकी अच्छी तरह जाँच कीजिए। अगर यह अकेले आपके क़ाबू में न आये तो मैं मोहल्ले से कुछ लोगों को बुलवा लेती हूँ। वो इसके हाथ पाँव पकड़ लेंगे।’
बड़ा भाई बोला- ‘खुदा की क़सम, अगर तुम पूरी दुनिया को भी यहाँ बुलवा लो तब भी मैं किसी को हाथ नहीं लगाने दूँगा।’
डॉक्टर ने कहा- ‘क्यों?’
बड़ा भाई बोला- ‘मैं डॉक्टरी को नहीं मानता।’
डॉक्टर मुस्कुराकर कहने लगा- ‘अच्छा, समझा, समझा। बहुत खूब। ख़ानम। आपसे आग्रह करता हूँ कि कुछ देर के लिए बाहर ठहरिए। ये आपके सामने बात नहीं करना चाहते।’
दरवाज़े से बाहर निकलते हुए बुढ़िया बड़बड़ाने लगी- ‘मेरे सामने बात करते हुए शर्म आती है, रातों को सीढ़ियों पर पेशाब करते शर्म नहीं आती। मेरे सामने नहीं बता सकता कि क्या तकलीफ़ है!’
डॉक्टर ने उठकर दरवाज़ा बन्द किया और फिर आकर बड़े भाई के पास बैठ गया। फिर उसने मुस्कुराते हुए बड़े भाई के कन्धे पर हाथ रखा और बोला- ‘तो ये बात है!’
बड़ा भाई बोला- ‘हाँ, यही बात है।’
डॉक्टर ने पूछा- ‘तो अब क्या करना चाहते हो?’
बड़े भाई ने कहा- ‘पता नहीं, कुछ समझ में नहीं आता।’
डॉक्टर ने कहा- ‘इसका कोई फ़ायदा नहीं।’
बड़े भाई ने पूछा- ‘फिर क्या करूँ?’
डॉक्टर ने कहा- ‘आख़िरकार यह जगह छोड़नी ही है। या नहीं?’
बड़ा भाई बोला- ‘लगता तो ऐसा ही है।’
डॉक्टर ने कहा- ‘क्या मैं उससे बात करूँ?’
बड़े भाई ने पूछा- ‘किसलिए?’
डॉक्टर ने कहा- ‘ताकि तुम यहीं रहो और वह तुम्हें सताना छोड़ दे।’
बड़ा भाई बोला- ‘केवल बुढ़िया की बात नहीं। मेरे छोटे भाई से भी बात करनी होगी। वह मेरा जानी दुश्मन है। समझता हैं मैं उसके गले का भार हूँ। मुझे एकदम आलसी और नाकारा समझता है। हमेशा मुझे बुरा भला कहता रहता है कि मैं बेकार पड़ा रहता हूँ, आवारागर्दी करता हूँ और जाने क्या-क्या। इस बात पर खौलता रहता है कि मैं कोई काम क्यों नहीं ढूँढता। समझता नहीं कि मुझमें काम करने की योग्यता ही नहीं है। और फिर मेरा खर्च भी ज़्यादा नहीं। दो सफ़ेद नान और सौ ग्राम मांस मेरे लिए पर्याप्त है। थोड़े से बीज और सिगरेट अवश्य मुझे चाहिए होते हैं, और अगर थोड़ा सा शरबत मिल जाए तो पी लेता हूँ, वो भी जब कोई पिला दे। प्रतिदिन एक-दो बार मुझ पर हाथ उठाता है, वो भी बिना कारण। अब कुछ दिनों से बीमार हूँ तो उसने पीछा छोड़ रखा है। मगर अब यह बुढ़िया पीछे पड़ गयी है। समझती है मैं जानबूझकर सीढ़ियों पर पेशाब करता हूँ और बीज केवल इसलिए खाता हूँ कि उनके सारे छिलके मैं फैला सकूँ। मुझे दुनिया का सबसे बड़ा मूर्ख समझती है। मेरे भाई के साथ इतनी बुरी नहीं है। अधिकतर मेरे ही कारण हम दोनों को निकाल बाहर करना चाहती है। और मेरे भाई को भी पता है कि मुझसे जलती है। आज कल में मुझे तर्क-वितर्क और मार खाने के लिए तैयार रहना होगा।’
डॉक्टर अपने सामान बैग में वापस रखते हुए बोला- ‘ये सब तो हुआ। अब चाहते क्या हो?’
बड़ा भाई बोला- ‘शर्बत का एक गिलास मिल जाता तो बहुत अच्छा होता।’
डॉक्टर ने कहा- ‘ये तो कुछ कठिन नहीं। अस्ल समस्या तो मकान की है। मैं एक मकान जानता हूँ जिसका किरायेदार चला गया है और निचली मंज़िल ख़ाली है। तुम वहाँ रह सकते हो। मैं आज रात सब तय कर लूँगा।’
बड़ा भाई पूछने लगा- ‘कहाँ है? किस मोहल्ले में है?’
डॉक्टर काग़ज़ पर उस मकान का पता लिखते हुए बोला- ‘शहर का सबसे अच्छा मोहल्ला है। मुबारकाबाद। मकान नम्बर इकतालीस।’
ये कहकर उसने काग़ज़ बड़े भाई को थमा दिया। बड़े भाई ने पूछा- ‘अब क्या करना होगा?’
डॉक्टर ने कहा- ‘कल सुबह सामान वहाँ ले जाना। मैं एक-आध दिन में तुमसे मिलने आऊँगा। शायद तुम्हारे लिए खुशी की ख़बर लाऊँ।’
वह उठ खड़ा हुआ और बड़े भाई के सिरहाने से मुट्ठी भर बीज उठाकर जेब में डालते हुए कमरे से बाहर चला गया। बुढ़िया जो सीढ़ी के नीचे खड़ी थी, पूछने लगी- ‘डॉक्टर साहब, क्या यह सचमुच बीमार है?’
डॉक्टर ने कहा- ‘जी, ख़ानम। सचमुच बीमार है। उसे बड़ी असाधारण बीमारी है। मगर मैंने ऐसा नुस्ख़ा लिख दिया है कि सुबह तक निश्चित तौर पर ठीक हो जाएगा।’

(5)
छोटा भाई उस दिन ये इरादा करके घर पहुँचा कि आज बड़े भाई से अच्छी तरह हिसाब लेगा। जब कमरे में प्रवेश किया तो अचम्भित होकर अपनी जगह खड़ा रह गया। बड़ा भाई बिस्तर से उठ चुका था, खिड़कियों से पर्दे उतार लिये थे, क़िताबें और सूटकेस बाँध लिए थे और उन्हें एक ओर रख दिया था। छोटा भाई दंग होकर बोला- ‘यह क्या है? क्या हुआ?’
बड़े भाई ने कहा- ‘कल यहाँ से जा रहे हैं।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘कहाँ?’
बड़े भाई ने छोटे भाई को नये मकान का पता दिखाया। छोटा भाई उसे बार-बार मुँह-ही-मुँह दोहराने लगा- ‘मुबारकबाद... मकान नम्बर इकतालीस...मुबारकबाद...मकान नम्बर इकतालीस...’
बड़ा भाई पूछने लगा- ‘कैसा है? ठीक है?’
छोटे भाई ने पूछा- ‘कैसे मिला?’
बड़ा भाई बोला- ‘यह मेरा रहस्य है। तुम्हें नहीं बता सकता।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘कैसा रहस्य?’
बड़ा भाई बोला- ‘छानबीन मत करो। मैं नहीं बताने का।’
छोटा भाई सोच में पड़ गया और और थोड़ी देर बाद बोला- ‘बहुत अच्छा। मत बताओ। मगर मैं इस पूरे सामान की तलाशी लूँगा। विशेष रूप से तुम्हारे सूटकेस की। क्योंकि मैं नहीं चाहता कि नये मकान में भी इसी गन्दगी में गुज़ारा करूँ।’ यह कहकर उसने पास वाला सूटकेस उठाकर खोल लिया। सूटकेस में क़िताबें भरी हुई थीं और क़िताबों के ऊपर गोल लपेटी हुई रस्सी रखी थी। छोटे भाई ने पूछा- ‘यह क्या है?’
बड़ा भाई बोला- ‘इसे हाथ मत लगाओ। फाँसी की रस्सी है। एक बच्चे ने मुझे दी थी।’
छोटे भाई ने रस्सी को उठाकर पिछली खिड़की से बाहर कूड़े के ढेर पर उछाल दिया और बोला- ‘जब तुम पुलिस या जल्लादी के काम पर नियुक्त होगे तो इससे अच्छी रस्सी खरीद दूँगा।’
फिर उसने दूसरा सूटकेस खोला। दूसरा सूटकेस भी क़िताबों से भरा हुआ था और उनके साथ एक बड़ी सी बोतल काले कपड़े में लिपटी रखी हुई थी। छोटे भाई ने बोतल का ढक्कन खोला और उसे सूँघा। उसमें एक गाढ़ा तरल पदार्थ भरा हुआ था जिससे कड़वे बादामों और नेफ्थलीन की गन्ध आ रही थी। छोटे भाई ने बड़े भाई से पूछा- ‘यह निश्चित रूप से जहर की बोतल होगी, क्यों?’ और बोतल को दोबारा काले कपड़े में लपेटकर खिड़की से बाहर फेंक दिया। फिर उसने तीसरा सूटकेस खोला। उसमें बीज भरे हुए थे और उनके ऊपर एक गत्ते के टुकड़े पर बड़े भाई की लिखावट में लिखा हुआ था- ‘आने वाले कल के लिए संग्रहित। मोर्दाद महीना। सन बत्तीस।’
छोटे भाई ने दोहराया- ‘आने वाले कल के लिए? कौन-से आने वाले कल के लिए?
और सूटकेस को उठाया और उसे बाहर फेंकने ही वाला था कि बड़े भाई ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और चीखकर बोला- ‘मत करो। वरना मैं तुम्हारा चश्मा तोड़ दूँगा।’
छोटे भाई ने सूटकेस को मेज़ पर रख दिया और बोला- ‘क्या बकवास है!’
और घूँसा तानकर बड़े भाई की ओर बढ़ा। दूसरी ओर से बड़ा भाई भी उसकी ओर लपका। दोनों गुत्थम-गुत्था हो गये और ऐसी हाथापाई की कि पूरा मकान हिलने लगा। थोड़ी देर बाद बूढ़ी मकान मालकिन और निचली मंज़िल की किरायेदारनी ने ऊपर आकर उन्हें चेतावनी दी कि अगर उन्होंने लड़ना बन्द नहीं किया तो वो चिल्लाकर गश्त करने वाले सिपाहियों को बुला लेंगी। बड़ा भाई जो नीचे पड़ा छोटे भाई की लातों के निशाने पर था, चिल्लाकर बोला- ‘तुम्हें इससे क्या मतलब? क्या हम अपने घर में लड़ भी नहीं सकते।’

(6)
अगले दिन सुबह वो दोनों सामान उठाकर मकान नम्बर 41, मुबारकाबाद में शिफ्ट हो गये। वहाँ उनकी प्रतीक्षा हो रही थी। एक दूसरे से मिले हुए दो कमरों के घर ने, जिसमें एक छोटी सी खिड़की ज़मीन की सतह से कुछ क़दम नीचे लगी हुई थी, दोनों भाइयों को निगल लिया। उन्होंने अपना सामान भीतर वाले कमरे में एकत्रित कूड़े-करकट के आस-पास रख दिया और बैठकर सिगरेट सुलगा लिये। छोटा भाई बोला- ‘यहाँ सामान ठीक करने से पहले तुम्हें क़सम खानी होगी कि तुम स्वयं को बदल डालोगे। और ये चलन छोड़कर कोई काम तलाश करोगे। मेरे लिए ही सही!’
एक बूढ़ा आदमी अन्दर आया और उसने उन्हें मकान दिखलाया। मकान का एक कोना भी सुखद या आरामदायक नहीं था। नमी दीवारों के ऊपर तक पहुँची हुई थी और सीलन और जंग और मरे हुए चूहों की गन्ध पूरे मकान में फैली हुई थी। केवल मकान का बड़ा आँगन ठीक अवस्था में था; वहाँ छोटा सा बागीचा था जिसमें पीले और लाल रंग के फूल थे और एक छोटा सा कुण्ड मुर्दे की आँखों के समान अचम्भित होकर आकाश को ताक रहा था।
मकान की बाक़ी सभी मंज़िलें खाली थीं सिवाय सबसे ऊपर वाली मंजिल के जहाँ एक बड़ा सा धूप भरा आँगन था जिसमें एक जवान औरत वहाँ बन्धी रस्सी पर अपने अन्तर्वस्त्र सूखने के लिए फैला रही थी।
मकान के दोनों ओर उजाड़ थे और एक ओर चौड़ी कच्ची सड़क जिस पर धूल में अटे हुए बदहाल बुलडोज़र कीड़ों की तरह चल फिर रहे थे और न जाने किस कार्य में व्यस्त थे। उस कच्ची सड़क के कोने पर एक क़ब्रिस्तान था जिसमें क़ब्रों के पत्थर आदमी के कद के बराबर थे और दूर से देखकर यूँ लगता था जैसे लोग सफ बाँधकर जमात के साथ नमाज पढ़ने के लिए खड़े हैं।
बड़े भाई ने उसी समय निश्चय किया कि पहली फुर्सत में इस क़ब्रिस्तान की सैर को जाएगा। उसने स्वयं से कहा- ‘हर जुमेरात और ख़ैरात के दिन पेट भरकर अजा का खाना खाया करूँगा, खुर्मा और हलवा खाने को मिलेगा। दूसरे दिनों में मुझे वहाँ कुछ एकान्त के पल नसीब आ जाया करेंगे। शायद कभी ऐसा हो कि उस बुढ़िया का जनाज़ा आए और मेरे कलेजे को ठण्डक मिले।’
कमरे भाँति-भाँति के कीड़े-मकोड़ों से भरे हुए थे, रेशमी परों और टांगों वाली हज़ारों मकड़ियाँ, बड़े-बड़े रंगीन कीड़े जो अपने गिर्द चक्कर काटकर अपनी गुदाओं से छोटे-छोटे सफे़द बच्चों को बाहर निकाल रहे थे, और बिगड़े हुए रूपों वाली बूढ़ी शहद की मक्खियाँ जो उड़ने के योग्य न रही थीं और अब केवल रेंग रही थीं, और माचिस की तीलियों से मिलते-जुलते हरे रंग के कीड़े जो जोड़े बनाए इधर-उधर चल फिर रहे थे।
छोटे भाई ने कहा- ‘बड़ा विचित्र मकान ढूँढा है तुमने। तुम्हें लगता है हम इस गन्दगी के बीच सोएँगे? जब तक तुम इस पूरे मकान की सफ़ाई नहीं कर लोगे और ये सब कीड़े नहीं मार दोगे, सामान नहीं खोला जाएगा।’
बड़े भाई के पास आज्ञा-पालन के सिवा कोई चारा नहीं था। वह नहीं चाहता था कि नये मकान में उनके जीवन का शुभारम्भ घूँसेबाजी से हो। लाचार होकर उसने अपना कोट उतारा, हालाँकि मौसम ठण्डा था, और कीड़े-मकोड़ों का अन्त करना प्रारम्भ कर दिया। मकड़ियों को पकड़ना और मारना आसान था; जब तक उन्हें ख़तरे का आभास होता और वो अपनी टांगें समेटतीं, तब तक मार पड़ चुकी होती और दीवार पर उनके गन्दे खून में सने हुए निशान बाक़ी रह जाते। बड़े मकोड़े बचने के लिए भागते, बड़ा भाई हँसता और उनकी नकल उतारता हुआ उनका पीछा करता और अपने जूते से उन पर आक्रमण करता। लेकिन छोटे कीड़े, जोड़े बनाकर फिरने वाले, किसी तरह हाथ न आते। एक मार सहकर घायल होने के बाद वो कुछ देर चुपचाप पड़े इन्तज़ार करते रहते, और फिर धीरे-धीरे फूलकर अपनी अस्ल अवस्था में लौट आते और आगे चल पड़ते। उनका उद्देश्य पता नहीं चलता था। अगर कोई बूढ़ी मक्खी उनके रास्ते में आती तो उसके गिर्द चक्कर काटते हुए उसे एक गाढ़े तरल पदार्थ में लथेड़ देते और मिलकर उसे खा जाते और आगे बढ़ जाते। बड़ा भाई कह रहा था- ‘मैं भी इन्हीं की तरह हूँ, मैं भी ऐसा ही एक कीड़ा हूँ, मेरा कोई गन्तव्य नहीं, मैं भी इसी तरह चलता रहता हूँ, न थकता हूँ और न मेरा अन्त होता है।’
झाड़ू देने के बाद वह बैठ गया और इधर उधर देखने लगा। मकान बुरी तरह बीमार था। मकान का हर हिस्सा अपनी ख़स्ताहाली की दुहाई दे रहा था। कोई गीली और धुँधले रंग की चीज़ मकान के हर हिस्से को जकड़े हुए थी। वह उठा और संकरे दरवाज़े से निकलकर बाहर आया। छोटा भाई सड़क के किनारे खड़ा धूल और मिट्टी में अटे हुए बुलडोज़रों को देख रहा था। बड़े भाई ने धीरे से छोटे भाई का हाथ थाम लिया और बोला- ‘यहाँ हमेशा नहीं रहेंगे। यहाँ से चले जाएँगे।’
छोटे भाई ने बड़े भाई के हाथ से अपना हाथ छुड़ाया और बोला- ‘क्यों? चले क्यों जाएँगे?’
बड़े भाई ने कहा- ‘यहाँ कोई अजीब-सी बात है। मुझे डर लगता है। ये कीड़े बहुत विचित्र प्रकार के हैं। मुझे लगता है ये मांसाहारी हैं।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘तुम्हें कैसे पता है?’
बड़ा भाई बोला- ‘मुझे पता है। अच्छी तरह पता है।’
छोटे भाई ने कहा- ‘अच्छा बस, मसख़रेपन की आवश्यकता नहीं है।’
बड़ा भाई बोला- ‘ध्यान से सुनो, मैं क्या कह रहा हूँ। इस घर में हम में से किसी एक के ऊपर अवश्य ही कोई मुसीबत आएगी। चलो कहीं और चलते हैं। किसी और मकान में।’
छोटे भाई ने कहा- ‘जैसे कहाँ?’
बड़े भाई ने कहा- ‘उसी बुढ़िया के घर वापस चलते हैं।’
छोटा भाई बोला- ‘दूर हो यहाँ से! बुढ़िया के घर! तुम समझते हो ये इतना ही आसान है? बुढ़िया का घर कोई कारवाँ-सराय नहीं है कि आज खाली किया और कल फिर चले आए। और फिर इस पूरे लड़ाई-झगड़े के बाद किस मुँह से वापस जाओगे?’
ठीक उसी समय एक एम्बुलेंस जिसके पहियों से धूल-मिट्टी के बादल उठ रहे थे, तेज़ी से क़ब्रिस्तान की ओर जाती दिखायी दी। जो व्यक्ति ड्राईवर के बराबर में बैठा था उसने एम्बुलेंस से बाहर निकालकर उनकी दिशा में हाथ लहराया।
छोटे भाई ने पूछा- ‘यह क्या है भला?’
बड़ा भाई ठहरकर बोला- ‘निश्चित रूप से हमें जानता है मगर मुझे याद नहीं आ रहा कि उसे कहाँ देखा है।’
छोटा भाई चश्मे को रूमाल से साफ़ करते हुए बोला- ‘इतनी तेज़ी की क्या आवश्यकता है? उसे ज़ल्दी से ज़ल्दी क्यों दफ़नाना चाहते हैं?’

(7)
‘या मैं और या तुम। हम में से एक को बहुत जल्द मरना होगा। मुझे इस जगह से अजीब तरह की गन्ध आती है। मैं इस मकान से उकता गया हूँ। इस कच्ची सड़क से, इस क़ब्रिस्तान से और इस मकान से।’
छोटे भाई ने जवाब दिया- ‘अब तो यही है। तुमने खुद ढूँढा, खुद पसन्द किया, अब इसी में गुज़ारा करो। मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि प्रतिदिन एक बिल से निकलकर दूसरे बिल में घुसूँ।’
बड़ा भाई बोला- ‘अगर मैं जानता कि इस बिल से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं तो आज ही खुद को हर कष्ट से मुक्ति दिला लेता।’
छोटे भाई ने कहा- ‘ये काम जितनी ज़ल्दी कर लो उतना ही अच्छा है। दोनों को मुक्ति मिल जाएगी।’
बड़ा भाई बोला- ‘अफ़सोस यहाँ कहीं कोई रस्सी नहीं है। अगर तुमने रस्सी फेंक न दी होती तो मैं बता देता कि मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ।’
छोटा भाई गुस्से में आकर दरवाज़े से बाहर जाते हुए बोला- ‘रस्सी कौन-सी ऐसी दुर्लभ वस्तु है। अगर न मिले तो मुझे बताना, तुम्हारे लिए ख़रीद लाऊँगा।’
बड़ा भाई कुछ देर अकेला बैठा सोचता रहा। अँधेरा होता जा रहा था और मग़रिब के समय की उदासी मकान में फैलती जा रही थी। बड़ा भाई खुद से बोला- ‘आज दिल पर अजीब भारी-सी चीज़ रखी हुई महसूस हो रही है। मुझे खुद को इससे मुक्ति दिलानी ही होगी।’
वह मकान से बाहर आया और कच्ची सड़क पर क़ब्रिस्तान की दिशा में चल दिया। जब क़ब्रिस्तान पहुँचा तो रात पूरी तरह आ चुकी थी और इक्का-दुक्का तारे आसमान पर नज़र आ रहे थे। एक लालटेन का धुँधला-सा उजाला दूर से बढ़ता आ रहा था। बड़ा भाई उसकी प्रतीक्षा करने लगा। उजाला क़रीब आ गया और बड़े भाई ने एक झुके हुए बूढ़े आदमी को देखा जिसने कन्धे पर फावड़ा उठा रखा था और लालटेन को शान्ति से हवा में लहराता हुआ चल रहा था। बूढ़े ने उसे देखा तो पूछा- ‘जवान! रात को इस समय किसकी तलाश में आये हो?’
बड़ा भाई घबरा गया और बोला- ‘क्या पिछले दो-एक दिनों में साठ-सत्तर साल की किसी बुढ़िया को यहाँ दफ़नाने के लिए लाए हैं?’
बूढ़े ने कहा- ‘तुम क्यों पूछते हो?’
बड़ा भाई बोला- ‘मेरी जानने वाली है।’
बूढ़े ने सर हिलाकर कहा- ‘जाओ किसी जीवित जानने वाले के पास जाओ। मुर्दों से क्या काम।’
बड़े भाई ने कहा- ‘किसके पास जाऊँ?’
बूढ़ा बोला- ‘जिसके पास जाना चाहो जाओ। जाओ अपनी ज़िन्दगी गुज़ारो।’
बड़ा भाई खुदा हाफ़िज़ कहे बिना लौट आया और कच्ची सड़क पर चलने लगा। चारों ओर से बुलडोजरों की आवाज़ें आ रही थीं और रात में अजीब सी कँपकँपी थी। अब उसे नये मकान से डर नहीं लग रहा था। मकान पर पहुँचकर जैसे ही दरवाज़ा खोलना चाहा, उसका पैर किसी चीज़ से टकराया। उसने झुककर देखा तो वहाँ एक बड़ा-सा गुलदस्ता दरवाज़े से टिका रखा हुआ था। उसमें सूरजमुखी के बड़े-बड़े फूल एक दूसरे से बन्धे हुए थे और उनके साथ एक पत्र रखा था। उसने गुलदस्ता उठा लिया और मकान के अन्दर पहुँचा। गैलरी की बत्ती जलाई और लिफ़ाफ़ा खोला। उसने डॉक्टर के पत्र को पहचान लिया। ‘प्यारे दोस्त! आशा है कि तुम नये मकान में आराम और चैन से होगे और कोई तुम्हें धूप में लेटकर बीज खाने और क़िताबें पढ़ने से मना नहीं करता होगा। आँगन के पीले फूल भी सूरजमुखी की समानता से खाली नहीं। मैं एकबार फिर एक खुशख़बरी लेकर तुम्हारे पास आऊँगा। एक और सलाह यह कि कहीं कीड़े मकोड़ों की उपस्थिति से परेशान मत होना। उन्हें जीवित लोगों से कोई मतलब नहीं। आशा है कि तुम फूलों और धूप और जवान औरतों के क़रीब रहकर बेहद खुश रहोगे।
बड़े भाई ने सोचा- ‘जवान औरतों को मुझसे क्या मतलब’, और गुलदस्ता उठाकर आँगन में चला गया। आँगन में सामने की दीवार पर ऊपर के लोहे के जंगले से छनती हुई रौशनी की परछाईं पड़ रही थी और एक औरत की परछाईं ऊपर दालान में हिल-डोल रही थी। बड़े भाई ने आँगन के कोने तक जाकर सबसे ऊपर की मंजिल के दालान में जवान औरत को देखा जो एक कुत्ते के पिल्ले को गोद में लिये चाँद के उजाले में सैर करवा रही थी। बड़े भाई ने वहाँ खड़े होकर अपनी पड़ोसी औरत पर नज़र जमाए हुए प्रसन्नता से कहा- ‘फूलों और जवान औरत के क़रीब।’

(8)
‘खूब! तो तुम्हें रस्सी नहीं मिली?
बड़े भाई ने जवाब नहीं दिया। वह आँगन में धीमे-धीमे उतरती हुई रस्सी को, जिसके कोने पर एक छोटा सन्दूक बँधा हुआ था, देख रहा था।
सन्दूक नीचे पहुँचा तो उसमें से कुत्ते का छोटा-सा रेश्मी बालों वाला पिल्ला कूदकर बाहर निकला और आँगन के किनारे-किनारे दौड़ने लगा। छोटे भाई ने पूछा- ‘यह क्या तमाशा है?’
बड़ा भाई बोला- ‘ऊपर वाली ख़ानम का है। इस कुत्ते को मैंने उसकी गोद में देखा था।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘ऊपर वाली ख़ानम कौन? तुमने आते ही उससे जान-पहचान भी कर ली?’
बड़े भाई ने कहा- ‘वह उसे बच्चे की तरह गोद में लेकर ऊपर दालान में सैर करवाती है।’
छोटा भाई बोला- ‘खूब, तो तुम बैठे उसको ताकते रहते हो! बीज चबाना, क़िताबें पढ़ना, बेकारी, शरबत और अब ऊपर वाली ख़ानम भी। बधाई हो, स्वागतम!’
बड़ा भाई खुश होकर हँसने लगा। ऊपर वाली ख़ानम को भी उसकी व्यस्तताओं के खाते में डाला जा रहा था। उस दिन के बाद से तीसरी पहर को जब वह टहलकर वापस आता तो नियमित रूप से दालान के ठीक नीचे बैठा रहता। सन्दूक नीचे आता और ऊपर वाली ख़ानम का सुन्दर कुत्ता निकलकर बागीचे में दौड़ लगाता और पेशाब करता और वापस आकर सन्दूक में बैठ जाता ताकि उसे ऊपर खींच लिया जाए। जिस समय सन्दूक ज़मीन पर रखा होता, एक अजीब सी लालसा बड़े भाई को उसे छूने पर मजबूर करती। मगर वह दौड़ता था और खुद को ऐसा करने से रोक लेता था। आखिरकार एक दिन उसने एक छोटा-सा पीला फूल तोड़कर सन्दूक में डाल दिया। यह छोटा-सा पीला फूल अपने स्वरुप में सूरजमुखी के जैसा था। उसके अगले दिन सन्दूक नीचे नहीं उतरा। बड़ा भाई आधी रात तक बैठा इन्तज़ार करता रहा लेकिन सन्दूक नीचे नहीं आया। वह बहुत उदास हुआ और उसे इस बात का दुःख हुआ कि केवल एक फूल सन्दूक के प्रकोप और रोष का कारण बना। उसके अगले दिन सन्दूक बड़ी सावधानी से नीचे आया, बड़े भाई ने, जो खिड़की के पास बैठा बीज खा रहा था, खुद को उससे बिल्कुल बेपरवाह ज़ाहिर किया। पिल्ला सन्दूक से बाहर आया, आँगन में घूमता रहा, फिर फूलों के बीच पेशाब किया, सिगरेट की राख को सूंघा और बड़े भाई की ओर देखे बिना सन्दूक में सवार होकर ऊपर चला गया। बड़ा भाई उस दिन के बाद से और भी अपने आप में गुम हो गया; छोटा भाई छिपकर क़रीब से उसका निरीक्षण करता और कभी-कभार उस पर फ़ब्ती कसता रहता। सुबह को जब वह एक प्याला लेकर कुण्ड की सतह पर गिरी हुई सिगरेट की राख इकट्ठी करता तो बड़े भाई को बुरा-भला कहता कि उसे कोई अधिकार नहीं कि पूरी शाम आँगन में बैठे-बैठे बिता दे और कुण्ड में कूड़ा-करकट फेंके और लोगों का पीछा किया करे। हर दिन सुबह और शाम के समय जब ऊपर वाली ख़ानम सीढ़ियों से नीचे उतरती और वापस ऊपर जाती तो दोनों भाई मौन हो जाते और सीढ़ियों पर चिड़ियों की तरह चहचहाते कदमों की चाप सुना करते।
छोटा भाई बड़े भाई की देख-भाल करते-करते गुस्सैल और चिड़चिड़ा हो गया। बड़ा भाई ऊपर वाली ख़ानम से कभी नहीं मिला था। लेकिन छोटे भाई का दो-एक बार सीढ़ी पर उससे सामना हुआ था और वो एक-दूसरे को जानने लगे थे और उनमें आपस में सलाम-दुआ भी होती थी। और ये जान-पहचान इस हद तक पहुँच गयी थी कि वो बस में साथ-साथ सवार होने लगे थे। ऊपर वाली ख़ानम अकेली रहती थी और कुछ-एक बार छोटे भाई को अपने कमरे में आकर चाय पीने का निमन्त्रण दे चुकी थी। और छोटा भाई, बड़े भाई को बताये बिना ऊपर हो भी आया था। जिस समय बड़ा भाई आँगन में बैठा सन्दूक के नीचे उतरने की प्रतीक्षा कर रहा होता, वो दोनों ऊपर की मंजिल के दालान में साथ बैठे तफ़रीह के तौर पर सन्दूक को हमेशा की अपेक्षा ज़ल्दी या देर से उतारने का खेल खेला करते। जवान औरत ने छोटे भाई को पीले फूल का किस्सा सुना दिया था। दोनों में इस बात पर खूब हँसी-मज़ाक़ हुआ था।
एक दिन जब बड़ा भाई इन्तज़ार में बैठा था, सन्दूक नीचे उतरा और उसमें पिल्ले के बजाय एक सुन्दर फूल रखा था। बड़े भाई ने फूल उठा लिया और उसे देखने लगा। उसका हाथ गीला हो गया और तेज़ गन्ध उसके दिमाग पर चढ़ गयी और आँखों से एकाएक पानी बहने लगा। उसने फूल को मसलकर दोबारा सन्दूक में फेंक दिया। सन्दूक ऊपर गया और फिर नीचे आया। उसमें काग़ज़ का एक टुकड़ा था जिस पर लिखा था- ‘बेकार आदमी, तुम्हें किसने अनुमति दी कि मेरे फूल को खराब करो?’
बड़ा भाई खुद से बोला- ‘एक बार फिर फूल ने सब काम बिगाड़ दिया।’
उस रात जब छोटा भाई नीचे आया तो बड़े भाई को एक कोने में पड़ा देखा। वह घुटनों में सर दिये सो रहा था।

(9)
उसके अगले दिन सन्दूक बार-बार नीचे आता और बड़े भाई के लिए छोटी-छोटी चिट्ठियाँ लाता रहा। हर चिट्ठी में उससे कोई न कोई सवाल किया जाता था। और बड़े भाई को इसके अलावा कोई चारा नहीं सूझता कि हर सवाल का जवाब दे। बड़े भाई से फिर पूछताछ की जा रही थी।
स : ओ नीचे पड़े हुए नाकारा इंसान, अपना परिचय दे।
ज : मैं केवल नाकारा इंसान हूँ, इसके अलावा मेरा कोई नाम पता नहीं।
स : तेरा जीवन-यापन कैसे होता है?
ज : बेकार हूँ, और फिलहाल अपने प्रिय भाई की गर्दन का भार हूँ।
स : काम क्यों नहीं ढूँढता और आलस्य की आदत क्यों डाल रखी है?
ज : मुझे आलस्य पसन्द है। काम करने का शौक नहीं।
स : दुनिया में तुझे किस चीज़ में रुचि है?
ज : धूप से और बीजों से। शर्बत और सुन्दर औरतों में भी रुचि रखता हूँ।
स : क्या उत्तम अभिलाषा है! क्या जीवन भर इसी ढर्रे पर रहने का इरादा है?
ज : अन्त में अब कुछ देर नहीं। दुखी मत होइए।
स : अपने भाई पर दया कर और उसके सर से अपना संकट दूर कर!
ज : जो आदेश।
स : बहादुर बन और काम से लग।
ज : तसल्ली रखिए।

(10)
तीन दिन तक उसने सिगरेट और शर्बत को हाथ नहीं लगाया और न बीज खाये। पूरी शाम कच्ची सड़क के पास बैठा इन्तज़ार करता रहता। जब अँधेरा होता तो अन्दर आकर खाली बागीचे के किनारे बैठ जाता। छोटे भाई ने सारे फूल उखाड़कर बाहर फेंक दिये थे। सन्दूक भी अब नीचे नहीं आता था। केवल एक मर्द और एक औरत की परछाईं सामने की दीवार पर पड़ रही थी जो ऊपर दालान में बैठे आपस में हँसते और मस्ती करते थे। कुत्ते का पिल्ला दालान की कगार तक आकर आँगन में झाँकता और ज़ोर-ज़ोर से भौंककर जंगले की सलाखों से अपना सर बाहर निकालने का प्रयास करता और नाकाम होकर दालान के फर्श को खुरचने लगता।
चौथे दिन शाम को ऊपर वाली ख़ानम दालान में अकेली बैठी थी और पिल्ले को गोद में लिए इन्तज़ार कर रही थी। बड़े भाई ने आँगन की सामने वाली दीवार पर उसकी परछाईं देखी और उसके घुँघराले बालों का सुन्दर प्रतिबिम्ब भी दीवार पर पड़ता देखा। थोड़ी देर बाद औरत अपनी जगह से उठी और जंगले के पास आकर आँगन को देखने लगी। आँगन में अंधेरा था और उसे कोने में बैठा बड़ा भाई दिखायी नहीं दिया। कुछ देर बाद सन्दूक नीचे आया और पिल्ला उसमें से खुश होकर बाहर कूदा। सन्दूक लटका रहा। बड़े भाई ने ऊपर देखा। औरत सन्दूक की रस्सी जंगले की एक सलाख से बांधकर खुद चली गयी थी और पिल्ला आराम से बागीचे की मिट्टी अपनी पंजों से उड़ा रहा था। ऊपर की मंज़िल से दरवाज़े के पटों के एक दूसरे से टकराने की आवाज़ सुनाई दी और फिर औरत की आवाज़ आई- ‘कहाँ थे अब तक?’
फिर छोटे भाई की आवाज़ सुनाई दी जो कह रहा था- ‘ज़ल्दी नहीं आ सकता था। वह सूरज डूबने तक दरवाज़े के पास चिमटा रहता है, हिलता ही नहीं।’
थोड़ी देर बाद बड़े भाई ने सामने की दीवार पर उन दोनों की परछाइयों को आलिंगित होते, चुम्बन करते, फिर अलग होकर कमरे में जाते देखा। बड़ा भाई खुद से बोला- ‘सर्दियों के आने में कितने दिन रह गये हैं? सर्दियाँ ख़त्म होने में कितने दिन रह गये हैं?’
वह कल्पनाओं में डूब गया। एक एम्बुलेंस सायरन बजाती आयी और मकान के सामने रुक गयी। एक आदमी उसमें से नीचे उतरा और एम्बुलेंस का दरवाज़ा बन्द करके मकान के क़रीब आया और दरवाज़े की जंजीर की खड़काई। किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला। दोबारा जंजीर खड़काई। थोड़ी देर बाद कोई भारी-सी चीज़ दीवार के पीछे गिरी। एम्बुलेंस के सायरन की आवाज़ दोबारा गूँजने लगी और वो क़ब्रिस्तान की ओर चल पड़ी। बुलडोज़रों की आवाज़ें जो सूरज डूबने से पहले शान्त हो गयी थीं, दोबारा उठने लगीं।
बड़ा भाई खुद से बोला- ‘मिट्टी के कीड़े फिर आ पहुँचे।’
बुल्डोज़र क़रीब आ गये और मकान के पीछे खाली मैदान में घरघराने लगे। बड़े भाई को पुरानी मोटरों के पेचों और मोहरों के एक-दूसरे से टकराने की आवाज़ें आनी लगीं। बड़ा आँगन के कोने में पड़ा स्टूल खींच लाया और उसे दालान के नीचे रखकर उसपर चढ़ गया। आवाज़ें और साफ़ हो गयीं। एक मर्द और एक औरत की आवाज़ जो सड़क पर खड़े हँस रहे थे और बुल्डोज़रों की आवाज़ें जो धीरे-धीरे दूर हो रहे थे और छोटे-छोटे कीड़ों की आवाज़ें जो जोड़े बनाए अपने-अपने गन्तव्य के क़रीब पहुँच रहे थे।
कमरे के अन्दर किसी चिंगारी जैसी चमक दिखायी दी। बड़े भाई ने खुद से पूछा- ‘यह क्या?’
मकान की दीवार के पीछे कोई मर्द बेसब्री से तेज़़-तेज़़ चल रहा था। और गली में खड़ी एक बूढ़ी औरत कह रही थी- ‘कैसे लोग हैं, तुम्हारे बच्चे को अनावश्यक धोखा दे रहे हैं।’
और ऊपर के दालान से एक मुर्झाया हुआ फूल पत्ती-पत्ती करके नीचे फेंका गया और आँगन में बिखर गया। बड़े भाई ने खामोशी से रस्सी को सन्दूक से अलग कर लिया था और अब रस्सी का बड़ा सा फन्दा बनाते हुए खुद से कह रहा था- ‘अफ़सोस कि यहाँ उजाला नहीं है। अँधेरे में रस्सी की गाँठ नहीं बनानी चाहिए। अशुभ होता है।
उसने फन्दा बना लिया था और अब उसमें अपना सर डाल रहा था कि एम्बुलेंस दोबारा आकर रुकी और कोई उसमें से उतरकर दरवाज़े की ओर आया। उस समय सारी तैयारी पूरी थी और बड़ा भाई फन्दे को अपनी गर्दन में पड़ा महसूस कर रहा था। उसने आराम से साँस ली, धीरे से कहा- ‘शुभ रात्रि!’
उसने स्टूल को लात मार दी और हवा में झूल गया। दरवाज़े की जंजीर खड़की, इसबार तेज़ और ज़ोर से। छोटा भाई दबे पाँव सीढ़ी से नीचे आकर दरवाज़े की ओर बढ़ा और दरवाज़ा खोला। डॉक्टर था जो कह रहा था- ‘मुझे तुम्हारे भाई से काम है।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘उससे क्या काम है?’
डॉक्टर बोला- ‘मुझे बहुत ज़रूरी काम है।’
और अपनी घड़ी पर नज़र डालकर कहने लगा- ‘देर हो रही है। उसे थोड़ा ज़ल्दी बुलाओ।’
छोटे भाई ने पूछा- ‘आप कौन हैं?’
डॉक्टर ने कहा- ‘मैं उसका एक दोस्त हूँ और एक सरकारी काम से जा रहा हूँ। मुझे मदद की ज़रूरत है। बहुत दिनों तक प्रयास करने के बाद आज मुझे उसके लिए ये काम मिला है। मैंने कुछ देर पहले भी आकर दरवाज़ा खटखटाया था मगर कोई घर पर नहीं था। मैंने आस-पास का चक्कर लगाया कि शायद बाहर हो और मुझे मिल जाए। अब और नहीं रुक सकता। देख रहे हो, सफ़र की तैयारी पूरी है। मैंने उसके लिए बीज और क़िताबें भी रख ली हैं।’
छोटे भाई ने प्रसन्न होकर कहा- ‘आप सच कहते हैं?’
डॉक्टर ज़ल्दी से बोला- ‘हाँ, हाँ, मुझे रास्ते में थोड़ी देर ऑफ़िस में रुकना है और फिर प्रस्थान करना है।’
छोटे भाई ने खुश होकर डॉक्टर की बाँहें पकड़ लीं और बोला- ‘अन्दर आइए, अन्दर आइए। वह शायद सो रहा है। मैं उसे अभी उठाता हूँ। मेरे खुदा, तेरी शान!’
वह डॉक्टर का हाथ पकड़कर उसे अन्दर ले गया। फिर उसने दीवार पर हाथ मारकर बत्ती जलाई और गैलरी में मानो दिन का उजाला हो गया। छोटे भाई ने गहरे प्रेम भाव के साथ ऊँची, बिगुल जैसी आवाज़ में नारा लगाया- ‘दादाशी, दादाशी, कहाँ हो भाई जान! तुम्हें काम मिल गया। ज़ल्दी करो, इधर आओ! देर न हो जाए। देर न हो जाए।’
ऊपर वाली ख़ानम दरवाज़े में कान लगाए खड़ी थी, सोच रही थी कि छोटा भाई, बड़े भाई के जाने के बाद उसके पास लौट आएगा। फिर उसने दरवाज़ा बन्द किया और ऊपर दालान में चली गयी ताकि सन्दूक से अपने पिल्ले को वापस ऊपर खींच लाये।

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