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दो कला-मूर्धन्यों का पत्र संवाद : मेरे प्रिय - ज्योतिष जोशी
ज्योतिष जोशी
India
05-Jul-2020 12:00 AM
1436
सैयद हैदर रज़ा आधुनिक भारतीय कला के मूर्धन्य चित्रकार रहे जो 1950 में फ्रांस सरकार की कला अध्येता- वृत्ति पर पेरिस गए थे। वहाँ उन्होंने इकोल द' बोजार में कला शिक्षा ली और वहीं अपना आश्रय बना लिया । फ्रांस में पूरे साठ वर्ष रहने के पश्चात 2010 में वह भारत लौटे थे। यहीं रहते उनकी मृत्यु 2016 में हो गई थी । पेरिस में रहते हुए भी लगातार अपने समकालीनों के संपर्क में रहकर वे अपना निजी सुख-दुख बाँटते थे और कला में आ रहे बदलावों के साथ उसकी बारीकियों की चर्चा भी करते थे । पत्र लिखना उनके शौक में शामिल था, जो आज कला जगत के लिए उनकी यादगार धरोहर बन गया है । पेरिस से उन्होंने अपने प्रगतिशील कलाकार संघ के मित्रों- मकबूल फिदा हुसेन, फ्रांसिस न्यूटन सूजा, के. एच. आरा आदि से तो नियमित पत्र संवाद रखा ही रामकुमार, कृष्ण खन्ना और तैयब मेहता जैसे समकालीन मूर्धन्यों से भी नियमित पत्र-व्यवहार किया।
रज़ा फाउंडेशन ने उनके पत्र-संवाद को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की जो योजना बनाई है, वह निश्चय ही एक बड़े अभाव की पूर्ति की दिशा में सार्थक कदम है तो अपने कला- मूर्धन्यों के अंतरंग को जानने-समझने का सहज माध्यम भी । इसी कड़ी में पहली पुस्तक आई है- 'मेरे प्रिय ' , जो कृष्ण खन्ना से उनके पत्राचार का संकलन है। हम जानते हैं कि कृष्ण खन्ना भी आधुनिक भारतीय कला के मूर्धन्यों में एक हैं । इन दोनों कलाकारों के बीच पत्र-संवाद अनेक स्तरों पर हमें समृद्ध करता है और कला के साथ-साथ जीवन के कई कठिन प्रश्नों का उत्तर भी देता है।
सैयद हैदर रज़ा द्वारा कृष्ण खन्ना को पहला पत्र 27 अगस्त 1956 को पेरिस से लिखा गया है । इस पत्र में रज़ा के प्रारंभिक संघर्ष के साथ अपने कर्म में डटे रहने की उनकी संकल्प-भावना भी दिखती है, जो हम सबके लिए प्रेरणा की तरह है । रजा लिखते हैं- 'हाँ, अब हालात बेहतर हो गए हैं। मैं संकल्प के साथ डटा रहा और कुछ तो हालात ने भी मेरी मदद की। अब सब ठीक है। मेरी कलाकृतियाँ बिक रही हैं । बिक्री के अलावा उन में वृद्धि हो रही है। कलाकृति में तनाव है, उस तरह का रुग्ण तनाव नहीं जो अल्प सामग्री या भावनात्मक स्थितियों के कारण बना हो, हालाँकि मैं अब उनकी भी अवहेलना नहीं करता; लेकिन मेरी कलाकृतियों को हर कहीं नकार दिया गया। क्यों ? वे चीज़ो को समझने में मदद करती हैं,हालाँकि उनकी वज़ह से सामान्य रूप से असहायता का भाव भी आया ।'
पुस्तक के इस पहले पत्र से हमें अनुमान हो सकता है कि एक प्रवासी भारतीय कलाकार के रूप में श्री रज़ा ने किस तरह संघर्ष किया होगा और एक विपरीत वातावरण में कैसे उन्होंने अपनी जगह बनाई होगी। 9 अगस्त 1960 को कानपुर से कृष्ण खन्ना ने रज़ा को पत्र लिखकर अपनी कृतियों में कम होती छवियों की चर्चा की है- 'मेरा नया काम बहुत अलग है कम से कम उस से बहुत अलग जो तुमने देखे हैं, हालांकि मैंने छवि का त्याग नहीं किया है धीरे-धीरे उसमें मेरी रूचि कम होती गई है और उस पेंट में बढ़ती गई है जिसमें वह रूपाकार लेता है । अकबर (अकबर पदमसी) का सोच था कि मैं बहुत अधिक स्वतःस्फूर्त हूँ और मुझे बुद्धि के आधार पर रूप को तरजीह देनी चाहिये न कि भावना के आधार पर।'
इन पत्रों के विस्तार में जाने पर हम रज़ा के निजी संघर्ष, सफलताएं, प्रवास की उदासी और एक कलाकार के रूप में तत्कालीन कला गतिविधियों पर पैनी नजर पाते हैं। 1962 के चीन-सीमा तनाव और तदंतर युद्ध पर रज़ा की चिंता और उनका उस परिस्थिति का आकलन आज के सीमा-विवाद पर भी प्रासंगिक ठहरता है। ठीक उसी तरह कृष्ण खन्ना अपनी कला में आ रहे बदलावों, जीवन के सपने, संघर्षों और परिस्थितियों को बार-बार बताते हैं, पर कहीं निराशा या उदासीनता के भाव नजर नहीं आते। इन पत्रों में हुसेन, पदमसी, आरा, सूजा, रामकुमार, नसरीन, विवान सुंदरम आदि की यथा प्रसंग चर्चा है जो कला-सृजन पर विचार के क्रम में है । कृष्ण खन्ना के पत्र निजी अधिक हैं तो रज़ा के पत्रों में भारत सहित फ्रांस की राजनीति, कला समीक्षा, वैश्विक कला की गति-प्रगति और शायद ही कोई विषय हो, जो छूट गया हो । पुस्तक में श्री रज़ा द्वारा लिखे 49 पत्र शामिल हैं तो श्री खन्ना के 34 पत्र ; यानी पुस्तक में कुल 83 पत्र हैं जो इस लंबे काल खंड के साक्षी ही नहीं बनते वरन एक प्रबुद्ध विचार के रूप में भी सामने आते हैं।
कह सकते हैं कि चौवालीस (1956-2000) वर्ष के बीच पसरे समय को समेटता यह पत्र-संवाद केवल कला नहीं, संस्कृति और जीवन पर दो बड़े मूर्धन्यों का विचार विमर्श है। इससे गुजरना निश्चय ही अपने को समृद्ध करना है । मूलतः अंग्रेजी में लिखे इन पत्रों का बहुत सहज और सुंदर अनुवाद प्रभात रंजन ने किया है जो लगते ही नहीं कि हिंदी में लिखे पत्र नहीं हैं। रज़ा पुस्तक माला के तहत रज़ा फाउंडेशन के लिए इस पुस्तक का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है।
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