दो पत्र (जो गन्तव्य तक पहुँच नहीं सके) अनामिका अनु
23-Mar-2022 12:00 AM 2353

वे पत्र जो गन्तव्य तक नहीं पहुँचते हैं वे हर्फ़ दर हर्फ़ मरते रहते हैं। एक दिन काग़ज़ उन्हें खा जाती है।
हमारा चेहरा भी एक पत्र है जो न पढ़ा गया तो लकीर दर लकीर मरता जाता है।

प्रिय अस्त,
तुम मेरी जि़न्दगी में इंजीकरी से आये और तुम्हें पसन्द करने लगी। कननदुड़ा चर्च के आस-पास तुम्हारे हाथों के घने बालों को याद करते हुए मैंने एक कविता लिखी थी। कल शंखमुगम के तट पर उन पन्नों की नाव बनायी और उन्हें बहा दिया अरब सागर में कि जब लाल सेब खारे शरबत में डूब रहा हो, क्षितिज के पास का नीला पानी आपको बता दे कि मैं अब भी लिखती हूँ।
आपकी मुस्कान की नाव पर चटख किरणों को उतरते देख कर वह शंखमुगम के तट पर लेटी जलपरी मुस्कुरा उठती है और आर्ट म्यूजियम के दीवार पर लगी सारी तस्वीरें खिड़कियों से झाँकने लगती हैं। सब पूछती हैं, कब मिलोगे?
पार्वती कल दुबई चली गयी। मोहिनीअट्टम करते-करते निरंजना रोने लगी। तुम क्यों नहीं रोते? तुम चीख कर रोना, नाम लेकर रोना, वह रुदन मुझ तक पहुँच जाएगा।
ये ‘हाय हाय’ जो तुम रोज़ करते थे, किसकी हाय लगी थी तुमको। ‘मेरी जान’ जो कहते थे न! मुझे बड़े फि़ल्मी लगते थे, मैंने आज तक तीन घण्टे बैठकर कोई फि़ल्म नहीं देखी। तुम्हें देखती, फुरसत कहाँ थी?
कावालम्ब चलोगे मेरे साथ, नाव पर बैठकर जाएँगे। मुझे अय्यपा पणिक्कर के स्मृतियों वाले कावालम्ब से मिलना है। अय्यपा कहते हैं बीमार प्रेमी को प्रेमिका का एक स्पर्श चंगा कर देता है। बीमार प्रेमिका को भी प्रेमी का स्पर्श चंगा करता होगा न! बोलो न! अय्यपा सच ही कहते होंगे न?
मैं बीमार हूँ, कई दिनों से भोर दलान पर इन्तज़ार कर रही है, आँगन नहीं आयी। मैं उठ नहीं पा रही हूँ कि बुला लाऊँ।
नारियल के फूलों के सूखे सहपत्रों को रख दिया है, गुड़ और कूटी चावल भी, लग रहा है मानो बस कल ही हो अट्टुकाल पोंगाला। तुम आ जाओ, मैं उत्सवों का ऋण उतार दूँ, वर्षों से जमा हैं...
आओगे न! साथ में तरलि अप्पम बनायेंगे, भाप में पकती तरलि की खुशबू में भींगकर मैं एक गीत लिखूँगी, विरह का गीत।
आओगे न! उस जंग लगे दरवाज़े से जिसकी कुण्डी नहीं लगती।
पन्द्रह दिन हुए, सपने में तुम ला पोदेरोसस, 500 सी सी नाॅरटन पर चढ़कर आये थे। तुम्हारा आला सफ़ेद बिल्ली दाँतों से दबाकर ले गयी दूसरी ओर जहाँ काले पत्थर का बना विशाल दीप शतक भर से खड़ा है किसी की प्रतीक्षा में। बिल्ली खाते वक़्त कई बार झपटती है मुझे। तुम से प्रेम में मुझे बहुत सी खरोंचें मिली हैं। केले के थम-सी चिकनी कोमल त्वचा पर पंजों के कितने निशान हैं। रोजारियो में जन्में एक डाॅक्टर पर मेरा दिल आ गया है। लड़कियाँ उसकी तस्वीर वाली शर्ट पहनकर घुमती रहती हैं सड़कों पर, मेरे मन में कैक्टस की पूरी फसल लहलहा उठती है। मेरा मन मैंगोस्टीन होना चाहता है। मैं उसकी खट्टी-मिट्ठी खटास में सिहरना चाहती हूँ। तुम्हें याद है! बारिश में तिरूवनन्तपुरम के जनरल अस्पताल के वार्ड नम्बर नौ के पास मिली थी तुमसे, ठीक बारह बजे। विटामिन की गोलियाँ लेकर आये थे तुम।
डाॅक्टर! तुम्हारे हाथ में बन्दूकें अच्छी नहीं लगतीं।
मैं कड़ी और कड़वी हूँ। तुम्हें मुलायम और मीठी चीज़ें इतनी पसन्द क्यों है? डाॅ. श्यामला कह रही थी, कैंसर वाले पाॅलिप हैं। बच जाऊँगी। गर्भाशय निकाल देंगे। 7 बजकर 14 मिनट में 21 दिसम्बर याद आ रहा है, इमामबाड़ा के दरवाज़े पर खुदी ठण्ड में ठिठुरती दो मछलियाँ साथ में आना चाहती थीं। मुझे कह रही थीं कि उन्हें पेरियार में छोड़ दूँ, जिसके तट पर शंकराचार्य की जन्मस्थली है।
हम गये थे न वहाँ, उस दिन हम दोनों ने गुलाबी पहना था। आज डाॅक्टर श्यामला ने भी गुलाबी साड़ी पहन रखी है, गुलाबी पत्थर की माला भी। गुलाबी शायद किसी ध्ार्म या राजनीतिक पार्टी का रंग नहीं है। यह बेटियों का रंग है कहती थी नानी, निरंजना ने डट कर कहा था- ‘नीला है लड़कियों का, नीला आसमान हमारा है। हमें गुलाबी हवा मिठाई नहीं बनना।’
मुझे मेरे शहर के जाति, ध्ार्म पूछते लोग शकुनि या ध्ाृतराष्ट्र लगते हैं, जिनकी या तो आँखें अन्ध्ाी हैं या मन। चलो न! इन अन्ध्ाों के बीच से भागकर फिर पेरियार के तट पर चलते हैं वहाँ ‘तकषि का कुत्ता’ पढ़कर साथ में खूब रोऐंगे, प्यार लौट आएगा। तुम अगर आ सको तो आना और जल्दी आना।
वलीयथ्थुड़ा पुल के पास तुम्हारे दायीं कलाई के तिल को छूते ही फ्लेमिंगो के झुँड उड़ कर करी पत्ते के पेड़ पर चले गये थे। उस शाम लाख दीयों से सज गया था पद्मनाभास्वामी मन्दिर। 2006 का पोंगल याद है तुम्हें? कितनी भीड़ थी शबरी माला में। कडला पायसम (चने दाल की खीर, कोकोनट मिल्क में बनती है) से तुम घुल रहे थे मेरी यादों में और मैं समुद्र को समर्पित पिता के अस्थिकलश को आँखों में समेट रही थी, पाॅलिन कोस्टका को दिल की अल्मारी में तह लगा रही थी। भूल गये पाॅलिन आंटी को उसने बीस जीवों का माँस खाया था, गिलहरी का भी। उसके खेत और घर की चैखटें समुद्र के भीतर विहार कर रही हैं। उसे याद कर मन पुली (इमली) हुआ जा रहा है। तुम, आंटी और पापा, सबने दिल को घोड़ा बना दिया है, भाग रहा है वह घोड़ा। मैं हाँफ़ रही हूँ। बगल में एक क़ब्रगाह है...
उस तिल की कसम, आओगे न!
जब भी आना ऋषभ की तरह मत ताकना मुझको, मुझे श्रीवड्डाकुनाथन मन्दिर के चारों भव्य गोपुरम याद आने लगते हैं। बताओ न इस मन्दिर को बनाते वक़्त परशुराम को अपने पाप याद आये थे? वरुण देवता ने क्या सोच कर दे दी थी अपनी ज़मीन। बताओ न! शंकराचार्य के माता पिता ने क्या कहा था शिव से, मैं भी नन्दी के कान में वही कहना चाहती हूँ। मेड़म का महीना है। मैंने तुम्हारे लिए मोर के पंख और एक सतरंगी छतरी खरीदी है, उसमें सितारे, रेशम के ध्ाागे और नन्ही-नन्ही घण्टियाँ लगी हैं। भोले तो घी के टीले में दबे हैं, त्रिरूवामबाड़ी कृष्ण मन्दिर, पारामेकावु देवी मन्दिर, वड़ाकुण्ठा मन्दिर के पुजारी नज़र की लड़ाइयों में पारंगत हैं। उन्हें क्या जीतना है मैंने जार्ज से पूछा तो वह कह रहा है मुझे छतरी बनाने दो आन्ना। ख़तीब से पूछा तो वह बोला रस्सी पकड़ा दो पंडाल का काम अभी बाक़ी है।
सभी ध्ार्म के लोग लगे हैं मन्दिर की झाँकी की तैयारी में।
तुम पश्चिम के गो पुरम से आना और नाग की प्रतिमा के पास करना प्रणय निवेदन और मैं उसे ठुकरा कर लौट जाऊँगी। पीपल पेड़ पर बैठे कौवे करेंगे एक स्त्री और देव के मिलन की प्रतीक्षा। मैं चन्द नींद की गोलियाँ खाकर सो जाऊँगी। जो देखूँगी वह स्वप्न दोष नहीं है। खुबानी टपक रही है पेड़ों से...

तुम्हारी,
आन्ना
13 फरवरी 2009
रात्रि 9ः21
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बारह बरस बाद हरूफ़ टकराए इश्क़ की पंक्ति में ः

मेरी आन्ना,
तुम आना अशेष शेष बनकर। तुम रंग लेकर आना, जिद्द भी। तुम कद लेकर आना, स्वर भी। तुम विचार पहन कर आना और अपने दर्शन साथ लाना। तुम्हारे साँवले रंग पर मैं मर मिटूँगा, मैं रात को तुमसे ज्यादा ख़ूबसूरत नहीं कहूँगा। तुम्हारी नन्ही-नन्ही आँखों में मैं अपनी उंगलियों से लाऊँगा काजल। तुम सिन्दूर, बिछिया, महावर का अनुशासन तोड़ कर आना। तुम मत फँसना व्रत-त्यौहार के चक्कर में, तुम न मुझसे बँध्ाना, न जुदा होना।
मैं तुम्हारी कलाईयों पर चढ़ाना-उतारना चाहता हूँ चूडि़याँ। इसे प्रेम का रस्म समझकर तुम हँस देना। तुम एक दिन यह रस्म भी तोड़ देना।
मैं जब आॅफिस से लौटूँ तो एक कप गुनगुनाती चाय माँगकर हँस देना। मैं जब भी भीगकर आऊँ तुम मुझसे कलम माँगना मैं काग़ज़ भी थमाऊँगा, खाली सी। तुम उसपर नज़्म लिख देना।
आन्ना तुम ज़रूर आना। अगले जन्म में ही सही मगर आन्ना बनकर ही आना। नाज़ नख़रों के साथ मुझसे मिलना। मैं माँग में सिन्दूर नहीं डालूँगा, न पैर में बन्ध्ान।
हम चलेंगे तट पर। बैठेंगे और उड़ते फ़्लेमिंगो के झुण्ड से करेंगे अनकही बातें। तलवे के नीचे से जो नदी बहेगी तुम्हें छूकर मुझ तक आएगी। तुम कामनाओं को जीना मैं तुम्हें जिऊँगा।
तुम जो नैतिकता गढ़ोगी मैं उसे ध्ाारण करूँगा। तुम जो पंथ गढ़ोगी मैं उस पर चलूँगा।
मैं तुम्हारे लिए वह सब लाऊँगा जो तुमने कभी चाहा था पर कभी कहा नहीं। मैं वह भी लाऊँगा जो पहले चाहकर भी मैं ला न सका।
तुम अल्हड़ता से आना। मुझे सुघड़ता की नहीं कामना। तुम हँसकर आना, मैं रोकर गले मिलूँगा। तुम मिट्टी लाना, मैं ध्ाूल में रमना चाहता हूँ।
तुम हटहट ध्ाूप लेकर आना मैं साँवला होना चाहता हूँ। तुम कद लेकर आना मैं छोटा बहुत हूँ।
तुम आना सिफऱ् मेरे लिए ही नहीं अपनी कामनाओं के लिए भी आना। सिफऱ् मुझसे मिलने के लिए ही नहीं, खुद से मिलने भी।
मैं तुम्हें मैथिली गीत सुनाऊँगा, तुम मलयालम में लिखना एक प्रेम-पत्र। अपनी भाषा में वह सब कहना जो टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में हम कह न सके एक-दूसरे को।
जब तुमने मुझे खुद से अलग किया था मैं पुरूष था, अगर लौटा तो मनुष्य बनकर लौटूँगा और मुमकिन हो सका तो उससे भी बेहतर बनकर लौटूँगा, मैं स्त्री बनकर लौटूँगा। मैं प्रसव की ताप, गर्भ का भार और ध्ौर्य के सुख को भोगना चाहता हूँ, मैं तुम होना चाहता हूँ। मैं तुम एक हो पाएँगे न...
ब्रह्मपुत्र के तट पर बैठकर तुमने मुझे अनिरुद्ध और उषा की प्रेमकथा सुनायी थी। तुम्हें शायद याद नहीं होगी। कल जब वहाँ गया तो मुझे कृष्ण और वाणासुर ब्रह्मपुत्र की लहरों पर युद्ध करते मिले। लहरें उफन रही थी। रक्त बह रहा था। सुखोई बेस के पास टीन की छप्पर वाली दुकान पर चाय पी बिल्कुल मीठी नहीं लगी। नीला वाला छाता टूट गया था, बारिश हो रही थी भीगता हुआ घर लौटा, घर पहले से बहुत गीला था। मैं बारह वर्षों से इसके साथ ही रोया हूँ अब दीवारें झुककर अपना कन्ध्ाा दे देती हैं, छत माथा सहलाती है और रसोई चलकर शयनकक्ष तक आ जाती है। जो कभी नहीं आती वह तुम हो और मेरी बेटियों के भोर के रियाज़ की आवाज़।
याद है सुखविन्दर की शादी में हम अबोहर गये थे। पंज पीर टिब्बा के पास कितने किन्नू खाये थे हम दोनों ने। याद है मुझे तुमने कहा था तुम खट्टे-मीठे हों किन्नू की तरह। बताओ न अबोहर को पंजाब का कैलिफोर्निया क्यों कहते हैं? कैलिफोर्निया में ही है डैथ वैली, मौत की घाटी, वहाँ बहुत गर्मी पड़ती है शायद इतनी कि यादें पिघलकर पानी और फिर भाप बनकर लौट जाएँ नक्षत्रों के पास और एक दिन संघनित होकर बरस जाएँ तुम्हारे खुले आँगन में। सुग्गापंखी हरी काई आँगन में फैल जाए फिसलन बनकर और तुम उसपर फिसलने के डर से कभी न चलो।
एक बार फिर किपशायर चलोगी मेरे साथ। माउण्ट सरमाती बुला रही है, किफिर का पृथ्वी स्टेशन भी। इस बार सर्दियों में सरमाती बर्फ से ढंक गयी थी। सालोमी और मिमी की गुफाएँ बुलाती हैं लोकगीतों से गुँज उठती है घाटी। ‘लवर्स पैराडाइज़’ उदास है। बुरांश के लाल-गुलाबी फूल तुम्हें बुला रहे हैं आन्ना, बस अब आ जाओ।
तुम्हारे घर के पास वाली सड़क मुझे कभी नहर लगती है, कभी नदी लगती है, कभी समन्दर। मैं तैरना नहीं जानता, मैं डूबने से डरता हूँ।
तुम कहती रही हो डूब कर आना, उबर कर नहीं, तैर कर भी नहीं।
अगर आया तो डूबकर ही आऊँगा। अगर उबर गया तो उबरकर तुम तक ही पहुँचूंगा, तुम्हारे तट से लगकर ही रोऊँगा। आन्ना हम दोनों के बीच जो जल है वह पार करके आऊँगा। मैं आऊँगा और ज़रूर आऊँगा...

तुम्हारा,
अस्त
रात्रि 1ः29
14 फरवरी 2021

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