04-Sep-2018 02:15 PM
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लिखकर कहते हैं
आज कुछ है, कोई चीज ज़रूर है जो तीखे यथार्थ-बोध से अधिक कुछ की माँग करती है ताकि जो कुछ कवि के कवि होने में निहित है वह हो सके, यह मनुष्य से सीधो नंगे-बदन साक्षात्कार की खोज है और यह खोज निर्णय लेने की एक आन्तरिक ज़िम्मेदारी के साथ रचना प्रक्रिया के खतरों के साथ ही कोई साहित्यिक महत्त्व की खोज हो सकती है।
रघुवीर सहाय
हर समय की अपनी त्रासदियाँ होती हैं, इस अर्थ में हमारे हिस्से हमारे समय की भयावहता का सामना करना घट रहा है, जैसे कुछ मनुष्य हमेशा ही थोपे जा रहे चलन के विरुद्ध मुखर होते हैं, वैसे ही वर्तमान में भी हैं, भले ही वे अत्यल्पसंख्यक हैं। इस सबके बीच ही निरन्तर साहित्य रचा जाता है और उसमें भी मनुष्यत्त्व की प्रतिष्ठा की आकांक्षा अपनी-अपनी तरह से लेखक व्यक्त करते हैं। कुछ लोग दोनों भूमिकाओं का निर्वाह कर रहे होते हैं। उनके लेखन में तो अपने समय की विद्रूपताओं, हाशिए पर ठेल दिए गए समाजों के साथ बरती जाती असहिष्णुता, प्रमुख आसन्न संकटों के प्रति उदासीनता आदि पर तीव्र प्रतिरोध के स्वर मिलते ही हैं। सार्वजनिक वक्तव्यों, आये दिन होती हिंस्र आक्रामक घटनाओं पर सक्रिय कार्यावाहियों के द्वारा भी उनका अनिवार्य नागरिक हस्तक्षेप प्रकट होता है। हालाँकि बहुसंख्यक समाज जिस तरह अपने समय की क्रूरताओं को सहजता से लेता है, वह ऐसे हस्तक्षेपों से कोई इत्तेफाक नहीं रखता। उसे यह सक्रिय प्रतिरोध बौद्धिकों का एक बेमानी उपक्रम ही लगता है।
ठीक इसी जगह यह सवाल उठता है कि आखिर फिर साहित्य क्यों ? या हमने यह मान लिया है कि साहित्य में तो आप सवाल उठाते रहें, क्रूरताओं पर अफ़सोस करें और बेहतर का स्वप्न रचें लेकिन सामाजिक क्रियाशीलता में ऐसा कुछ न करें जो इनका प्रत्यक्ष प्रतिकार जान पड़े। यह दोहरापन ही क्या हमारा सार्वजनिक चरित्र नहीं बन गया है ? तब तो यह भी स्पष्ट है कि साहित्य की भूमिका किताब में दर्ज होना ही है या फिर किसी सम्भावित डर के चलते सत्ताओं और उनके अन्ध अनुकत्र्ताओं ने ऐसी दुव्र्याख्या का प्रसार कर साहित्य से उसके होने की अर्थवत्ता को ही छीन लेने का सुनियोजित काम शुरू कर दिया है। इसे दूसरे शब्दों में इस तरह भी कहा जा सकता है कि हमने किसी पवित्र स्थल में बैठकर थोड़ी देर प्रार्थना करने के बाद अपने समय की सारी कुरूपताओं पर आँख बन्द कर लेने की वैधता हासिल कर ली है।
लेकिन साहित्य इन डरों से शंकित सत्ताओं से भी नहीं डरता। वह भले ही कोई फौरी व फौज़ी किस्म की निर्णायक कार्यवाही नहीं कर सकता हो लेकिन उसकी सजग-सक्रिय उपस्थिति ही क्रूरताओं का निपट प्रतिरोध है। साहित्यकार को इस कर्म का अनिवार्यतः निर्वाह करना होता है कि उसके रचे हुए साहित्य से समाज में सरलीकृत और सामान्यीकृत मान ली गयी कठोरताओं का संवरण मिल सके। प्रतिरोध में असमर्थ मनुष्य भी अपने होने की आस्था उसमें पा सकें। साहित्य क्रूरताओं का मुखर प्रतिपक्ष बना रहे।
कवि-कथाकार-प्रवचनकर्ता ध्रुव शुक्ल के सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर से प्रकाशित नये कविता संग्रह सुनो भारत पढ़ते हुए इस तरह की बहुत सारी बातें विचार में आती हैं। ध्रुव की कविता वैसे भी अपनी मुखरता से ही ध्यानाकृष्ट करती है, इस संग्रह में यह मुखरता कुछ ज़्यादा ही मुखरित हुई है। संग्रह के शीर्षक से ही मुखर मुद्रा की आहट सुनायी पड़ती है। इस मुखरता का भाव एक-सा नहीं है। जैसे-जैसे कविताएँ पढ़ते जाते हैं, चिन्ता, अफ़सोस, विलाप, छटपटाहट, निरर्थकता बोध, विफलता और रचना संघर्ष जैसी बहुविध ध्वनियों-सी प्रकट होती हैं। स्मृति और कल्पना के कवि का यह वर्तमान सम्बोधित रूप यदि ध्यानाकर्षित करता है तो सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वह यथार्थ की कुरूपताओं की शल्य क्रिया कर हमें किंचित चैंकाते हुए एक भिन्न काव्यास्वाद का अनुभव कराता है, बल्कि इसलिए कि वह टुकड़ों-टुकड़ों में व्यक्त होते यथार्थ की प्रचलित काव्य चेष्टा के बरक्स हमारे समय को समग्रता से उसकी समूची वंचनाओं के साथ प्रतिकृत कर रहा है -
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कवि हमारे समय की ऊपरी चमक-दमक पर केन्द्रित जीवन शैली में मनुष्य होने की सुगन्ध न होने, दिखावट की तत्परता में आन्तरिक सौन्दर्य के लोप होने पर गहरा अफ़सोस व्यक्त करता है, यह क्रम बढ़ते-बढ़ते इतना ज़्यादा भयावह हो चुका है कि हमारी चीजें, हमारे रिश्ते, हमारे प्रतिमान भी ढह गये हैं स्मृति भी छीज रही है। हमने अपनी करतूतों से जो दुनिया बना ली है, वह अब हमारे ही लायक नहीं रही-
दुःख से ही घर छा लेते थे
कभी अकेले गा लेते थे
दुख गाने लायक नहीं बचा
इसी स्थिति से एक व्यर्थपन का बोध आता है-
जिस जीवन को नहीं जानते
उस जीवन को जीते हैं
जिस जीवन से भर सकते हैं
उस जीवन से रीते हैं
जिस जीवन में सूख रहे हैं
उस जीवन को पीते हैं
जिस जीवन से हार गये हैं
उससे भी गये-बीते हैं
यह समय हमारी आपसदारी में आयी विरलता और अविश्वास का तो साक्ष्य है ही, सामजिकता के प्रतिमानों के पतन का भी प्रमाण है, ज़ाहिर है कि राजनीति भी इसी मूल्यहीनता का पल्लवन है, राजनैतिक दलों का काम ‘दुर्नीति पर चलें, नीति पर चर्चा बनाये रखें’ (श्रीकान्त वर्मा) से बहुत आगे पहुँच चुका है। वे साधारण मनुष्य के विचार से पूरी तरह मुक्त हैं, उनमें से कुछ श्रेष्ठता प्रदर्शन के लिए हिंसा और दुव्र्याख्याओं को आसान अस्त्रों की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं:
कोई एक सूखती जाती नदी है
जिसमें डुबकी लेते हुए
फिसलती जा रही है कोई भीड़
नदी के कीचड़ में
धँसते जा रहे हैं लोग
बुदबुदा रहे हैं कोई मन्त्र
भाजपा भाकपा इंका राकपा
जपा सपा लोजपा बसपा
कोई नहीं सुनता, सब बेवफा
कवि का अफ़सोस यह नहीं है कि राजनीति इतनी ग़ैरजवाबदेह और मनुष्यता विरोधी होती जा रही है, वह जिन हाथों में पल रही है, उसका यह चरित्र स्वाभाविक ही है असली अफ़सोस देश की उस बहुसंख्यक आबादी से है जिसकी वोट देने के अलावा कोई सहभागिता राजनीति से नहीं है और वही राजनीति को केन्द्रीय मान लेने की आत्मसमर्पित निरुपाय स्थिति में सहजता से आ चुका है, राजनेताओं के विभाजनकारी अस्त्रों को अपने पक्ष में होने की रुग्ण मनोदशा से नहीं उबरना उसकी नियति बन चुकी है-
बदल गये हैं बीज देश के
बिलख रहे हैं यहाँ किसान
हुनरमन्द असहाय देश के
दो रोटी में अटकी जान
अकड़ रहे देश के नेता
पकड़े परदेशी का हाथ
देश बँट गया जात-पाँत में
कोई नहीं है सबके साथ
दरअसल जनता को भ्रमों, सार्थक जनहितैषी के बजाए बेमानी लोकप्रिय योजनाओं, वैश्विक चमक आदि के दिखावे से लुभाने की कोशिशें राजनैतिक दल करते ही हैं, वे भावनात्मक कुचक्रों और जाति-धर्म-वर्ग-भाषा आदि की संकीर्णता के सहारे अपने पक्ष में उनका अचूक इस्तेमाल भी करते है, वास्तविक और बुनियादी समस्याओं की भीषणता को तमाम सहयोगी माध्यमों से ढँकते-झुठलाते हुए आम मनुष्य के विवेक को निष्क्रिय बना देना उनका सबसे कारगर अस्त्र हैः ध्रुव एक सुन्दर कविता में, एक सुन्दर-से प्रतीक से हमारे इस्तेमाल होने से बचने का आग्रह करते हैं:
आप बाँस के बीज
सम्भलकर रखिए
कोई कहीं आपको बो दे
जब ऊँचाई मिले आपको
अपना झण्डा पो दे
बनें किसी की छड़ी आप
पड़ें किसी को
कोई बिचारा रो दे
जनता को भीड़ में तब्दील कर अपने मतलब का माहौल निर्मित करने का खेल जब इन दिनों इतना ज़्यादा बढ़ चुका है कि सोशल मीडिया में गालियाँ और राष्ट्रद्रोही के आक्षेप सामान्य हो चले हैं, यह कविता बिना लाग लपेट अपनी निजता को हर हालत में बचाने की कवि सदिच्छा व्यक्त करती है, आखिरकार यही वह बुनियादी जगह है जिसमें ही तमाम सम्भावनाएँ हैं, स्वतन्त्र विवेक की यही प्रस्तावना हमें राजनीति के नाम पर बहुधा होती रहती दुर्नीति से बचा सकती है। हम अपनी जरूरतों, समस्याओं, निराकरण के रास्तों और प्राथमिकताओं को खुद ही तय नहीं कर पाये तो जिन्हें हम निर्णय की जवाबदेही सौंपने चुनते हैं, वे कैसे सही चुने जायेंगे-
अपने नाप के प्रतिनिधि
अगर चुने जाएँ
तो सबके काम आ सकती है
संसद भी
सामाज की विवेकहीनता और राजनीति की ग़ैरजिम्मेदारी का असर हमारे पूरे जीवन पर भयानक रूप से पड़ता है। हम तात्कालिकता में जीने वाले, आत्मकेन्द्रित, अपने आसन्न स्वार्थ के लिए अन्य मनुष्यों के हितों की अनदेखी करने वाले, समस्त जड़-चेतन के सहकार की पारम्परिक सम्यक दृष्टि से च्युत ऐसी दौड़ की भीड़ में तेज़ी से बदल रहे हैं कि हमारा वर्तमान तो इस सबसे अस्थिर-अशान्त-निरर्थक है ही, भविष्य के लिए भी हम एक कुरूप दुनिया की प्रस्तावना बन रहे हैं। प्रकृति के प्रति हमारा उपभोगी और अदूरदर्शी व्यवहार कवि को विचलित करता है, ‘हम मनुष्यों ने अपनी अकेले की झूठी सत्ता का दम्भ इतना ज़्यादा बढ़ने दिया है कि जिन चीज़ों के बिना हमारा होना,बचे रहना ही सम्भव नहीं वे ही हमारी ज़्यादितियों की सबसे अधिक शिकार हैं। वृक्षों और पानी के स्रोतों को बचाने के मानवीय कर्म के बजाए हमने तथाकथित दिखावे की उन्नति के आधुनिक प्रतीकों के लिए उन्हें निरन्तर नष्ट किया है। हमने पक्षियों-जानवरों की दुनिया का इस कदर अतिक्रमण किया कि उनकी अनेक प्रजातियाँ ही विलुप्त हो गयीं।’
एक वृक्ष था कभी यहाँ जो सूख गया
बरन-बरन के पंछी उस पर बसते थे
भेद-भाव से भरी हुई इस बस्ती में
आपस में विश्वास नहीं करता कोई
सूख गयी जो यहाँ कभी थी एक नदी
नौकाएँ चलती सब पार उतरते थे
मरे हुए पानी में डूबी आँखों से
बात जोहते रहते हैं बरसात की
हम अपने जीवन की प्रकृति से गहरी सम्बद्धता का जीवनदायी सच नकारने की कुचेष्टा लगातार कर रहे हैं, पानी, वृक्ष, गाय आदि पर अपनी कुछ कविताओं में कवि न केवल हमारे समय का कुरूप सच ही प्रकट करता हैं बल्कि प्रकृति से मनुष्य के अविभाज्य रिश्ते के पुनस्र्मरण से हमें आगाह भी करते हैं। कवि इस रिश्ते की सघनता को यादकर आनेवाली पीढ़ी के लिए प्रकृति से आत्मीय रिश्ते के निर्वाह की प्रार्थना कर हममें पुनर्विचार की सम्भावना ही ढूँढ रहा है:
जितना जीवन आये मेरे बाद
उसके समर्थन में
घूमती रहे पृथ्वी
उसके पक्ष में
बहती रहें हवाएँ
उसे मार्ग दिखाता रहे सूर्य
उस पर छाया रहे पूरा आकाश
अपनी नौका लेकर
जब वह जाए नदी किनारे
उसे पार उतारने के लिए
जल उसका समर्थन करे
यह समय अपनी जिन अच्छी-बुरी बातों के लिए याद रहेगा, उनमें से ‘चुप रह जाना’ उल्लेखनीय है। यह अपनी कायरता, चतुराई, किसी की सहायता नहीं करने की निजी क्रूर रणनीति हो सकती है- परिदृश्य में उभरते वर्चस्व के आतंक पर निरुपाय होना भी है ‘बड़े-बड़े झूठ इतने शोरगुल के साथ प्रचारित किये जाते हैं कि लगता है अपने छोटे-से सच का अनसुना रह जाना ही नियति है, कुछ चुप्पियाँ इसलिए भी होती हैं। कवि इस समय को ‘भेद खोलने का समय’ मानता हैं जिसमें खुले आम बोलना ही चाहिए। उसे इस बात की चिन्ता है कि नहीं बोलने से न केवल हमारी बोलियाँ ही मिटती जा रही हैं बल्कि आतंक की आवाजें ज़्यादा सुनायी देने लगी हैं। कवि का अभिव्यक्ति पर इतना ज़्यादा भरोसा और आग्रह है कि उसके बहुत सारे तरीकों की विविध व्यंजनाओं पर ही एक सुन्दर कविता यहाँ मौजूद है- ‘बोलचाल’।
हम सब व्यक्त होने की छटपटाहट से भरे रहते हैं। हमारे हर्ष और शोक, उलाहने और सलाहें, चिंताएँ और मजबूरियाँ, प्रेम और ईष्र्या ये सब चुप्पियों की खोह से बाहर आने की आतुर, ललक से भरे होते हैं। इन्हें व्यक्त करते ही हम अकेले नहीं रह जाते, हमारी सामाजिक अन्तःक्रिया की धुरी बहुधा हमारी अभिव्यक्ति ही होती है। हम स्वतन्त्र व जागरूक मनुष्य तभी बने रह सकते हैं जब हम बोलने के इन प्रारूपों से निरन्तर और दो-टूक व्यक्त हो पाते हैं-
बोल-बोलकर सब कहते
कुछ लिखकर कहते हैं
कुछ कहते रहते मन ही मन
कुछ दिखकर कहते हैं
कुछ बहकर कहते हैं
कुछ भरकर कहते हैं
कुछ रहते हैं गुपचुप
ज़रा ठहरकर कहते हैं
कुछ कहते हैं बेहतर
कुछ कमतर कहते हैं
जब कहते हैं रमकर
फिर जमकर कहते हैं
ऐसा कोई नहीं
कि जिसको कहने को न हो
इसके-उसके साथ कहीं
कुछ सहने को न हो
वे कविताएँ जिनमें समय की आसन्न चिन्ताएँ ज़्यादा मुखरित होती हैं, कवि के लिए सम्भवतः अधिक मुश्किल रहती हैं। एक तरफ जीवन यथार्थ की कठोरताएँ तो दूसरी तरफ कविता के विन्यास की विनम्रता। कविता इस निर्वाह में बहुधा बहुत कमतर कविता रह जाती है। विचार और नारेबाजी इन कविताओं के अन्तिम निहितार्थ होते हैं। ‘सुनो भारत’ की कविताओं का तेवर तो वही है लेकिन इस उल्लेखनीय आशंका से मुक्त भी। इन कविताओं को पढ़ते हुए यह आभास लगातार होता है कि कोई इन्हें खुद ही गा रहा है, आत्मप्रलाप की तरह, इनमें सुनाने की व्यग्रता नहीं है, खुद गुनने, अफ़सोस करने और अपनी जीवन लय से उसकी संगति बिठाने की व्यग्रता है। दूसरों पर निर्णय देने की अधीरता के बजाए खुद की जवाबदेही पर प्रश्नांकन है। इसीलिये कविता की लय को पकड़ती जीवन लय तथा जीवन लय को प्रतिकृत करती कविता यहाँ सम्भव हो सकी है। ‘सुनो भारत’ में एक सम्बोधन कवि का खुद के लिए भी है।
ध्रुव शुक्ल की इन कविताओं को हमारे समय के अनिवार्य हस्तक्षेप की तरह तो पढ़ा ही जाना चाहिए, इसलिए भी इन्हें पढ़ा जाना ज़रूरी है ताकि हम जान सकें कि प्रत्यक्ष के सम्बोधन में भी समृद्ध कविता सम्भव हो सकती है।
भिन्नता के अर्थ में
प्रस्ताव:
हिंदी की बहुसंख्यक युवा कविता इस कदर यथार्थ आग्रही है कि उसमें स्मृति और कल्पना जैसे कविता के सबसे भरोसेमन्द, उर्वर और अन्यों को सहयात्री मानने व बनाने वाले सृजनात्मक प्रत्यय लगभग नदारद हैं। स्मृति और कल्पना की न्यूनता में क्या श्रेष्ठ सृजनात्मक कर्म सम्भव है ? अपने समय में घटित का सूक्ष्म, सघन व संवेदनशील वर्णन तो कुछ पत्रकार और ब्लाॅगर ज़्यादा निपटता से करते हैं। उनके गद्य और हिन्दी कविता में क्या फ़र्क की उम्मीद नहीं करना चाहिए। कविता इतनी कमज़ोर कैसे हो सकती है कि वह सीमित शब्दों से बनी पंक्तियों का समुच्चय बनकर रह जाए। वह ख़बर की तरह सिर्फ़ तात्कालिक ही हमें अपने में शामिल कर सके। कविता की ज़िन्दगी इतनी छोटी, फिर वह कविता कैसे ?
क्या कविता सिर्फ़ कुछ व्यक्त करने की छटपटाहट ही हो पाती है ? तब तो भाषणों में, रोज़मर्रा में घटित के हर्ष-भरे या दारुण वर्णनों में और कविता में कोई बुनियादी फ़र्क नहीं है।
रोज़मर्रा के जीवन व्यवहार में बरते जाने वाली भाषा, उसके शब्द यदि कविता में भी उसी सामान्य अर्थ के वाहक रहें, किन्हीं नये व भिन्न अर्थों को सम्भव न कर सकें, तो फिर कविता की ये झंझट क्यों ?
भाषा और अनुभव, स्मृति और कल्पना, विचार और कलात्मकता - इन सभी की भिन्नता और इन सबको व्यक्त करने की भिन्नता की उम्मीद क्या किसी सृजनात्मक चेष्टा से नहीं की जानी चाहिए ? सब कुछ पहले ही कहा जा चुका है, इस अर्थ में हम भले ही मौलिक न हों, लेकिन कहे जा चुके को फिर कहते हुए, हमारा फिर से कहना, क्या एक भिन्नता की माँग नहीं करता ?
सारी सृजनात्मक कलाओं के बारे में, उनकी संरचना, सूक्ष्मता, कौशल, संधान, रियाज़, अनुभव, नवता, परम्परा और व्याप्ति आदि सभी कुछ भाषा में बताया जाता है। भले ही समग्रता से सम्भव न हो लेकिन बहुत हद तक भाषाएँ अन्य कलाओं को व्यक्त करती हैं। भाषा का अनुभव अपनी इस व्याप्ति के कारण कुछ ज़्यादा ही विस्तृत हो पाता है। यदि कवि अन्य कलाओं का रसिक हो या भाषा की इस समृद्धि को समझ रहा हो, तो अन्ततः उसे ही भाषा के अनुभव का विस्तार मिल सकता है। इन दिनों की अधिकांश कविताएँ इस बात का असंदिग्ध साक्ष्य हैं कि कवि साहित्य के परिसर से बाहर भाषा का विस्तार देखने नहीं जाते।
हम सभी अन्यों से सीखते हैं, हमारे पास जो उपलब्ध है, जैसे- परम्परा, समकाल। इनमें जो कुछ भी हमारी रुचि या आग्रहों के ज़्यादा नज़दीक होता है, या यूँ कहें कि हम जिनके ज़्यादा नज़दीक होते हैं, उनका अनायास ही हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव न केवल हमेशा सकारात्मक होता है, न नकारात्मक। यदि इस प्रभाव से हम श्रेष्ठता की कोटियाँ अर्जित कर सकें, तो यह सकारात्मक हो सकेगा। यदि हमने दूसरों की तरह व्यक्त होने को अपना लिया है तो यह हमारी सृजनात्मक सम्भावना को बेहद कमज़ोर, अनाकर्षक और अनुल्लेखनीय बना देगा। क्या यह सम्भव है कि कोई नया अपने से पहले के सृजनधर्मियों से सीख तो रहा हो लेकिन उसके किसी भी रचनात्मक उपक्रम पर पूर्ववर्तियों की वैसी छाप न हो जो उसके निजत्व को खरोंच दे? यह गहन अध्यवसाय और सहज सृजनाकांक्षा से ही सम्भव है।
पाठ:
स्मृति, काव्य संग्रह ‘थरथराहट’ की कविताओं की प्रमुख काव्य शक्ति है। इन कविताओं में हम अन्य समयों की उल्लेखनीय आवाजाही पाते हैं। इतिहास और मिथकों तक की आवाजाही वर्तमान के प्रति अधिक सजगता, संवेदना और चिन्ता प्रकट करती है। इस कवायद में अपने समय की अपर्याप्तता का छिछला दुख नहीं, अपने समय को सही व्याख्यायित करने का नैतिक उपक्रम शामिल है। जैसे वाल्मीकि छूटे हुए, खोए हुए, छिपे हुए को निराला में राम की शक्तिपूजा लिखकर, अपनी प्रतीक्षा की थकान थोड़ी कम महसूस कर, पाते हैं। या फिर अश्वत्थामा का भागना, हमारे भागने और समय के बीतने की अफ़सोसजनक, प्रश्नाकुल और न्यूनताबोध से सामना करती निपट सच्चाई है:
ऐसा ही होता है
समय में भागता अश्वत्थामा
भूल जाएगा कि वह क्यों भागता है
भागना ही बच जाएगा, सब ख़त्म हो जाएगा
स्मृतियों का यह संसार परम्परा, साहित्य, इतिहास, कलाओं, प्रश्नों, भिन्नताओं, महापुरुषों, सफल-विफल योद्धाओं, परिवार, रिश्तों-पिता, ताऊ, ताई, माँ आदि का समुच्चय है।
इन कविताओं में कवि का व्यक्त होना एक ज़िम्मेदार मनुष्य का समूची नैतिकता के साथ, कई समयों की उपस्थिति में अपने समय को जानना, प्रश्नांकित करना, उसकी क्रूरताओं के लिए भागीदारी स्वीकार करना, सुन्दर के स्वप्न और सृजनाकांक्षा की पीड़ा को एक साथ जी लेने जैसा लगता है। इन कविताओं में कहे गये से ज़्यादा की सम्भावना का पाठकीय सुख तो मौजूद है ही, साथ ही एक विचार प्रक्रिया का नैरन्तर्य भी सघन रूप से चलता है-
इस दुनिया में सत्य से छुटकारे की आड़ में
भागना ही सत्य की गरिमा है
...
क्योंकि मैं समझ नहीं पाता कि जीवन की
अर्थहीनता सहते हुए भी रोज़मर्रे की निराशा क्यों तोड़ देती है
भाषिक चिन्ता इन कविताओं का अनूठा स्वर है। आमतौर पर जिन कविताओं में भाषा पर विलाप होता है, उन्हीं में भाषा का बर्ताव उन चिन्ताओं से कोई इत्तेफ़ाक नहीं रखता। यहाँ सिर्फ़ लिखा नहीं गया, उसका निर्वाह भी है। शब्द प्रचलित अर्थों से मुक्त होने का साहस करते हैं। अन्य शब्दों से जुड़कर नये अर्थों को व्यक्त कर पाते हैं। उनकी अन्विति काव्याभास को संगति दे पाती है। कवि की भाषिक चिन्ता-व्यक्त करने से शुरू होकर, विचार करने, भाषा के माध्यम से हैसियत अर्जित करने और स्वतन्त्रता के प्रश्नों तक फैलती है:
खुद की पैरवी करते हुए
हम थक गये हैं
अपनी भाषा की कीमत पर
विद्वान बनने की कोशिश करते हुए भी
भाषा के प्रति सजगता और उसमें अपनी विचार प्रक्रिया के अन्योनाश्रयी रिश्ते की सघनता को कविताओं में मिलती सूक्तियाँ चरितार्थ करती हैं। भाषा और विचार की आत्मीय, पारदर्शी और काव्योचित जुगलबन्दी को प्रकट करती ये सूक्तियाँ कवि की विशेष उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं और कविकर्म की सार्थकता का प्रमाण भी:
हमें क्यों इच्छाएँ इतनी अधिक मिलीं
और कौशल इतना कम
...
आत्ममोह कलम से धार छीन लेता है
...
कविता वह समय है
जिसे इतिहास देख भले ले
पर दोहरा नहीं सकता
...
मानवीय होना सही होने से ज़्यादा ज़रूरी था
...
समय का विषाद जब वापस आता है
लिखना कायरता का क़स्बा लगता है
जीने से बचकर जीना
...
परिवार हममें
ऐसा गुँथ जाता है
जैसे गरीबी में भूख
इनमें प्रतीक, उपमा, रूपक भी बनते और बनते-बनते अधूरे से रह जाते हैं। यही बनना और कुछ शेष छोड़ देना कवि का मुहावरा है।
कलाओं को प्रत्यक्ष सम्बोधित व अप्रत्यक्ष ध्वनित दोनों ही तरह की कविताएँ, काव्य पंक्तियाँ इस संग्रह में मौजूद हैं जिनमें क्रूरता की परिणति से लेकर आत्मावलोकन तक को विस्तार मिला है-
बड़े उस्ताद विनम्रता से पीछे हो गये
फैयाज़ खां टूटी कब्र को समेटते हुए
लाचार हो गये
...
वह रास्ता लम्बा नहीं था
दो क़दम का था
बस आश्चर्य के साथ तय करना था
...
जब हम हर क्षेत्र में
प्राचीनत्व को ख़त्म कर रहे हैं तो
शुक्र है कि समय का एक अंश
मंसूर की आवाज़ तले महफूज़ है
कला से निकटता न केवल भाषिक अनुभवों का विस्तार करती है बल्कि नये अनुभवों के लिए नयी भाषिक संरचनाओं की निर्मिति भी सम्भव कराती है।
इन कविताओं को पढ़कर यदि कवि की परम्परा या उस पर प्रभावों के बारे में विचार करना हो तो यह आसान नहीं लगता। किसी के परिवार-कुटुम्ब में ही उसी विधा के एकाधिक सयाने सृजनधर्मी हों तो रचनाकार के समक्ष आसान मुश्किलें व मुश्किलों की आसानी दोनों ही तेज़ी से घटित होती हैं। स्वतः स्फूर्त सृजनात्मकता आवश्यक सीख लेकर अपना मार्ग बनाती है। साही, श्रीकान्त वर्मा, कमलेश, अशोक वाजपेयी इन सभी के काव्य से ‘कविता अनिवार्य सीख’ जैसे कवि ने अर्जित की है लेकिन प्रभाव की स्थिति से पहले वे सब, कवि को अकेला छोड़ गये।
डाण्डी, विध्वंस की शताब्दी, तथास्तु, वाल्मीकि, शोकगीत कविताएँ समय के विस्तार, प्रश्नाकुलता, अफ़सोस, नियतिबोध, व्यर्थपन, मृत्युबोध, निरुपायता को उनके होने की निपटता के साथ व्यक्त करती हैं। गाँधी की दृष्टि और खिन्नता, वाल्मीकि की प्रतीक्षा और थकान, जीवन से ज़्यादा मृत्यु से आक्रान्त अभिमन्यु और इन सबको इनके होने की तरह ही अपने निकट महसूस करते कवि का आत्मालाप, इन कविताओं को फिर-फिर पढ़े जाने के लिए आकृष्ट करता है-
मैं उसी से बना हूँ
जो ढह जाता है
...
मैं वह कीड़ा हूँ
जो बार-बार दीवार पर
चढ़कर गिर जाता है
...
विचार उग नहीं पाते
सपने थक जाते हैं
ये पंक्तियाँ कविकर्म और काव्य प्रक्रिया के सहज, स्वाभाविक और काव्योत्सुक होने का संकेत तो ज़ाहिर करती ही हैं, बेचैन प्रश्नाकुलता से भरे एक नैतिक मनुष्य के होने का भी आभास कराती हैं; जो स्मृति और भाषा, विचार और भाषा, नैतिकता और भाषा, मनुष्य और भाषा, कलात्मक और भाषा जैसे सहज युग्मों का युग्म ही प्रतिकृत करना चाह रहा है, जिसकी आकांक्षा में सिर्फ़ इतना ही है-
मुझे भ्रम दो कि किसी कविता से
संरचना हो सकती है नक्षत्रों की
ढेर सारी अच्छी और कमज़ोर कविताओं के निरन्तर प्रकाशन के समय भी हमें कुछ और कविताओं की दरकार रहती है। हमारा रसिकाग्रह कविताओं को पढ़ने से लेकर उसके अर्थों व संरचना में, उसमें व्यक्त निजी व सार्वजनिक में, उसकी भाषिक गरिमा व काव्य कौशल में, उसकी कल्पना में, स्मृति में, विन्यास में, विचार में, लय में, ठहराव में, तनाव में, अनाश्वस्ति की नाउम्मीदी में; कुछ ऐसा पाना चाहता है जो अब तक के अनुभव से न केवल भिन्न हो बल्कि कविता से हमारे रिश्ते को किंचित यकीन के रिश्ते की ओर ले जाने का आभास कराये। इस अर्थ में कवि आस्तीक वाजपेयी का पहला कविता संग्रह ‘थरथराहट’ सचमुच हममें थरथराहट पैदा करता है, भिन्नता के इस अर्थ में इसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।