26-Oct-2020 12:00 AM
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जनमेजय
राजा का यज्ञ शुरू हुआ और साध्ाुओं
ने गम्भीर मुद्रा साध्ाी।
लाल, काले, पीले, नारंगी साँप आकर
गिरने लगे। यज्ञ कुण्ड से बास आने लगी।
थोड़े सच के टुकड़े, उम्मीद के कार्य
और थोड़ा-सा संकोच भी आहूति में भस्म हो गया
उसका पूर्वज युध्ािष्ठिर जब अकेला कुत्ते के
साथ पहाड़ चढ़ रहा था तब वे बिलों में
छिपे थे। वे अवाक् थे, उनकी खोह स्वर्ग
के रास्ते में थी क्योंकि स्वर्ग के चूहों को भी वही खाते थे।
जनमेजय के पिता को तक्षक ने मारा था
सो वे भी मारे जा रहे थे।
वे रेंगते थे, वे घृणित थे।
यह सही नहीं कि आस्तीक ने यज्ञ रोका।
वह रुक ही नहीं सकता था।
वह अपने हाथ में छोटे-छोटे रेंगते साँपों को लेकर भागा था।
वह जंगल में छिप गया।
वे घृणित थे, उन्हें अकारण मारना उससे भी
घृणित; किसी को भी मारना अकारण
ही था, हर हत्या घृणित थी।
जनमेजय खुद को भी मार रहा था
उसे गेस चेम्बरों से निकलती चीखें
सुनायी नहीं दे रही थी।
उसे यह अभी पता नहीं था कि हिंसा
अन्ततः मनुष्य को प्रासंगिकता से दूर ले जाती है
वह खुद में हार है, उसके सहारे सिर्फ़ उन्हें
हराया जा सकता है जो लड़ ही नहीं रहे थे।
अब नयी शताब्दी में उसने बचपन से
आराम की आहूति दे दी है।
वह न्याय करता है, जनमेजय सोचता है कि
इसके बाद क्या बचेगा या शायद नहीं सोचता।
वह संसार बन चुका है।
अब वह सपने, कल्पनाएँ, बचपन की यादें
भस्म करने लगा है।
वह अकेला हो गया है, अब खुद को भस्म कर रहा है।
वह रात में गहरी नींद हो गया है
अपनी नींद में सपना हो गया है।
वह सपने का ब्रह्मण हो चुका है
वह वैशम्पायन होकर खुद को ही महाभारत
सुना रहा है। फिर एक बच्चा बनकर खुद
अपने ही यज्ञ की उत्पत्ति सुन रहा है।
अपने सपने में वह जनमेजय फिर जनमेजय हो गया है।
मोगरे की तीखी गन्ध्ा में खुद होने के
कई प्रयास और अपनी खुदी से पछताकर
वह सिर्फ़ स्वप्न हो रहा है।
खुद में घट रहा है और सर्प गिर
रहे हैं हवन में।
अन्त में वह खुद भी भस्म हो रहा है
अपने सपनों से दूसरों के सपने भस्म कर रहा है।
अब वह उस पहले भागे हुए आस्तीक को
भी सपने में पकड़ चुका है। वह अब
सब हो चुका है। वह आस्तीक के ही
साँपों की असंख्य पुश्तों को मारता जनमेजय
हो चुका है। वह किसी को खत्म न करने
वाली ताकत बन गया है। वह हर एक तानाशाह
बन गया है। वह हर एक शिकार बन गया है।
फाटक खुल रहा है, पेड़ों के बीच
ठण्डी हवा चल रही है।
बारिश के बाद पत्तियों से
आँसू जैसा पानी टपक रहा है।
रात में कुत्ते भौंक रहे है।
वह पगडण्डी पर गीली मिट्टी पर
खड़ा है। पेड़ की परछाई में छिप
गया है। वह हवा के साथ मिलकर
खुली खिड़की से आ गया है।
अब वह कहाँ है, कहना मुश्किल है।
ऋष्यशृंग
फूलों पर बैठी मध्ाुमक्खियों के ऊपर
चिपके हुए पराग उसने बचपन से देखे हैं।
वह अपने भीषण एकान्त के कोने से जानवर
और फूलों को बढ़ते देख रहा है।
वह घास पर चल कर पेड़ के सामने
खड़ा है। रोशनी उसके ऊपर से
फिसलकर छोटे कीड़ों पर पड़ रही है।
वे रेगतें है और नये पैदा हो जाते हैं।
वह एक इच्छा लिये खड़ा है, शक्ति उसकी
उपमा है और एकान्त उसकी साध्ाना
उसके अन्दर सारे सम्भव एकान्त है।
वह समुद्र की गहरायी में गिरा
जहाज हो सकता है जिसमें असंख्य
नर-मादाओं के कंकाल कमरों में बेतहाशा तैरते हैं।
वह पेड़ पर बैठा रात में चिल्लाता बाज
भी है। इर्द गिर्द के मैदान का विलाप।
वह पेड़ों को पागलों की तरह गले
लगाता है और जीवन प्रस्फुटित हो जाता है
क्योंकि जीवन ही हो सकता है।
वह माँ का न होना पिता के सर्वत्र होने में छिपा चुका है।
अकेला वह भागता है नदी का पीछा
करते हुए, वह बहती है जंगल
की ओर, घाटी से निकलते पत्थरों
पर अपनी कल-कल की गूँज को
जंगल की खामोशी से मिलाते हुए
वह एक के बाद एक उगी झाडि़यों के
भीतर की असंख्य सम्भावनाओं में उसे
ढूँढ रहा है, किसी और की विस्थापित
आकांक्षा जो अब उसके अन्दर है।
वह ध्ाूप की काली सड़क पर पड़ती
तीक्ष्ण ऊष्मा हो सकता है।
मृत्यु के बाद अपनी माँ की
सम्भावनाओं को बारिश की पत्तों पर
गिरती बूँदों और उसके बाद फिर
उगते नये कोपलों में सोख चुका है।
वह बीहड़ बन गया है, सुबह उड़
रहा है, तप कर रहा है, चुप बैठा
है, चिल्ला रहा है। अनवरत हो रहा है
बस हो रहा है।
वह इच्छा फिर आ रही है
और रात के प्रशान्त काले में
किस दिशा में भाग रही है
इसका ठिकाना नहीं है।
वह पाठशाला जाता एक बच्चा
बन गया है। वह दुनिया को
पहली बार देख रहा है, हर बार
वह अपने छोटे पैरों से
मैदान में भाग रहा है, वह
पहली बार हर बार की तरह
आश्चर्यचकित हो रहा है।
उसको देख देवता चिढ़ गये हैं
एक दुबला आदमी जंगल
की झोपड़ी में बैठा आँखों में
ऐसे आँसू लिए जो गिर सकते
हैं पर गिरते नहीं। समूचे ब्रह्माण्ड
की शक्ति को संजोये, इच्छा को
बिना समझे और जिज्ञासा की चटायी बिछाये बैठा है।
जंगल में एक सरसराहट होती है
वह खड़ा हो जाता है, उसके
रोंगटों के साथ पूरा जंगल खड़ा हो जाता है।
मध्ाुमक्खी के शरीर पर रखे
पराग के फूल पर पड़ने
के बाद की तरह वह खिल जाता है।
वह आ रही है।
जलते खेत
सड़क पर ध्ाूल उड़ रही है,
गाँव की पागल ध्ाूल जो सूखे खेतों से बहती है।
खेत में खड़े किसानों की आँखों से बचते हुए, जो आँखें अब
ध्ाूल को अपने से बाहर रखना सीख चुकी हैं।
बड़ी आँखें, झुर्रियाँ, बिखरे बाल,
अम्मा के हाथ में तीन छोटे सन्तरे
बारिश हो रही है,
गाँव के बीच से बह रहा नाला उफान पर है।
खेत भीग रहे हैं।
जिन्होंने गेहूँ नहीं काटे वे
डर से, जो बाहर खड़े हैं ठण्ड
से और जो मेरे सामने खड़े
लड़ रहे हैं, क्रोध्ा से काँप रहे हैं।
सहज क्रूरता मन में सब के बह रही है
कल-कल कर ईष्र्या।
जो समृद्ध है वे ग़रीब होने
का रोना रो रहे हैं और जो वाकई
ग़रीब है, अपमानित होने का इन्तज़ार कर रहे हैं।
वे रो नहीं रहे, वे इस उम्मीद में
हँस रहे हैं कि कोई उनसे ठीक से बात कर ले।
बारिश ने खेतों की मिट्टी को
पिघला दिया है, एक अशोक का
पेड़ बिजली पड़ने से जल गया है।
ये लोग बाहर अपनी क्रूरता और टुच्चापन
और खराब हो गये गेहूँ के बीच थोड़ी
मानवता अपने घर सुरक्षित ले आये हैं
बुढि़या अपने दो सौ रुपये में से पचास
की चाय पिलाने की पेशकश करती है,
सन्तरा देकर कहती है ‘खाओ, पिओ, राज करो।’
बारिश में बाहर निकल जाती है।
थोड़ा-सा
बालकनी के बाहर शहर टिमटिमा रहा है।
हवा ज़ोर से चल रही है।
पेड़ दिख रहे हैं अलग-अलग।
मैं मनुष्य के बनाये इस मकान में
मनुष्यों से दूर रहने का आनन्द ले रहा हूँ।
मुझसे मेरा लेखन दूर हो रहा है।
वह मुझे इस सब रोज़मर्रे के झमेलों में
झूमने के लिए अकेला छोड़ देना चाहता है।
मेरे सामने सूरत शहर की बत्तियाँ भोपाल
के तालाब पर पड़ती रोशनी बन रही हैं।
सफ़ेद दीवार की सफे़दी थोड़ी पीली पड़ गयी है।
उसमें खुले हुए परदे से
थोड़ी सुबह मिल रही है।
इस जगह थोड़ी-सी जगह बची है
कुत्तों के सोने के लिए और थोड़ा-सा
समय बच गया है क़ागज़ पर लिखने के लिए
थोड़ा-सा मेरा बचपन बच गया है जैसे
थोड़ा-सा ध्ाीरज अपमान में बचता है।
मैं जो हूँ की सड़ांध्ा में थोड़ा-सा
मैं जो हो सकता हूँ ताज़ा बचा है।
बहुत थोड़ा-सा शक बचा है अपने विफल
होने के बोध्ा पर। बस एक ताने के बराबर।
काश कि मैं कोई और होता
या कम से कम खुद से निराश नहीं होता
थोड़े-से इंसान बचे हैं जो इंसान हों।
थोड़े-से ही शब्द हमेशा से थे
मेरे पास, अब थोड़ा-सा ही कवि बचा हूँ।
बहुत सारे तनाव के बीच थोड़ा-सा ही सभ्य बचा हूँ।
थोड़ा ही जो बचा हूँ यदि न रहूँ
किसी को थोड़े ही फर्क पड़ेगा ?
पहली बारिश के बाद जैसे कोई खेत
में थोड़ी-सी घास उखाड़ दे।
सूखा पेड़
गुड्डन ताऊ के लिए
एक रास्ता है,
दो तरफ खेत हैं
एक तरफ सूखा पेड़।
पेड़ का खण्डहर, जिस पर मेरी
बिदकी हुई निर्लज्ज इच्छाएँ कूद रही हैं।
मैं जि़न्दगी के रोज़मर्रे से थक गया हूँ।
मुझे अपना सच अपनी पूरी विचित्रता के बावजूद व्यक्त करना है।
वह नहीं है कहने या लिखने लायक,
उसमें मेरी मूर्खताओं और सीमाओं के फर्श पर दुनिया का मैल बिखरा पड़ा है।
इंसान का अहंकार और क्रोध्ा।
उसकी महत्वाकांक्षाओं और शराब का नशा।
टुच्चेपन और ईष्र्या से सने तर्क,
अपनी लगातार छोटी और ऊबाऊ जि़न्दगी को
सही और सार्थक और महत्वपूर्ण बताने वाले झूठ।
उस पेड़ पर अब मुश्किल से मैं
देख पाता हूँ एक पीली चिडि़या जिसकी प्रजाति का मुझे नहीं पता।
उसमें ठण्ड की रात के शहर की सड़क पर चलती
ढेरों गाडि़यों के बीच खड़ी गाय का अकेलापन भी है।
सड़क के बाजू में अपने साथी, किसी गाड़ी से
कुचले हुए पिल्ले को चाटते हुए दूसरे पिल्ले का
आश्चर्य है जो शायद कभी दुःख नहीं बनेगा।
उसमें वे शब्द हैं जिनसे हम संसार
को समझते हैं और ध्वस्त भी करते हैं,
जिनकी शिनाख़्त एकान्त करता है,
जिनसे ढेरों कविताओं के बीच कुछ पढ़ने लायक
पंक्तियाँ लिखी जाती हैं।
लेकिन इससे भी ज़्यादा वे शब्द,
जिनसे हिंसा से टूटे हुए को संभाला जाता है,
जिनसे प्रतिस्पधर््ाा में हारे हुए को दिलासा दिया जाता है।
जिनमें उन देवताओं की स्तुति करते हैं, उनकी
जिन्होंने अगर केवल यही दुनिया बनायी है तो उनकी
इंसानियत पर मुझे शक है, ऐसे लोग जिनकी
दैवीयता पर शक नहीं किया जा सकता।
इनमें ठोंगी बाबाओं से प्रताडि़त लोगों की चीख के शब्द,
और असहाय देवताओं का रुदन भी है।
मेरा अकेलापन अब पीली चिडि़या के घोंसले से उठने वाला है।
थोड़ा-सा सच
गुड्डन ताऊ के लिए
मेरे पास केवल थोड़ा-सा सच बच गया है।
जिसे डिब्बे में बन्द कर मैंने भेज दिया है
ध्ाूल की काली आकृतियों के बीच फर्श का रंग बचा हुआ है।
कहाँ, मैं भूल गया हूँ
शायद वह इस ध्ाूल में ही मिल गया है,
कहीं गया नहीं है, या फिर जाकर
ध्ाूल बनकर लौट आया है,
लोगों की अपमान करने की प्रवृत्ति से डर कर जंगल भाग गया है।
जंगल की घास में, लम्बी घास में मिल गया है, सागौन के लम्बे पेड़ों पर लिपट गया है।
जंगल को पहली बार देखने वाले बच्चे की जिज्ञासा में मिल गया है।
जानवरों की आवाज़ों में और जंगल के सुनसान में भी थोड़ा रिस गया है।
उसे पता है कि जितना वह मेरा सच है
उतना किसी दूसरे का झूठ होगा
सो वह उस दूसरे से बच रहा है।
अपने आशय को खोकर आज़ाद होने की कोशिश कर रहा है।
बाँस के घने झुरमुट में अपना मतलब छोड़ आया है।
अब वह कुछ शब्द भर बचा है आशय से मुक्त।
जंगल में बाकी शब्द भी खो गये हैं
किसी हिरण पर सवार, शेर की
अँध्ोरे में चमकती आँखों के भीतर अब एक शब्द बचा है।
बारिश और सुबह की ओस में घुलकर केवल एक अक्षर बचा है।
एक पहाड़ी कोरबा के हाथ वह अर्थ
और शब्द से मुक्त अक्षर कच्ची
मिट्टी की दीवार पर लिप दिया जाता है।
अब वह कुछ नहीं बचा,
देखो वह आता है अन्त के बाद।
द्रोण
तुझे देने बहुत है मेरे पास
लेकिन ज़्यादातर वे बातें हैं जो
दे पाऊँगा या नहीं, पता नहीं।
यादें और संस्कार के अलावा
कुछ खास नहीं
संस्कार शस्त्र नहीं हैं,
संस्कार हत्या भी नहीं है।
क्या सिखाऊँ तुझे ?
सिखाता हूँ कि युद्ध में जीत असम्भव होती है,
हार निश्चित और पतन स्वभाविक।
हिंसा से हमेशा अपमान होता है,
न्याय नहीं होता।
ध्ानुष उठाओ और सीखो वह सब
जो सिखने के बाद
तुम राजकुमार भले बन जाओ
कभी इंसान नहीं बन पाओगे।
समझ जाओ कि यह लेकर मुझसे भी
लड़ोगे और उससे भी कहीं ज़्यादा
खुद से लड़ोगे।
देखो यह वज्र, इसे थामने पर
घमण्ड मत करना क्योंकि घमण्ड
शस्त्र का नहीं, मनुष्य का गुण है।
यदि इसके प्रयोग को समझ जाओगे
तो खुद को बड़ा वीर मत समझना,
बड़े वीर भयंकर हत्यारे होते हैं।
किसी और से कुशल हत्यारा होना
गर्व की बात नहीं।
तुम्हें अस्त्रों से भी ख़ौफनाक कुछ
और सिखा रहा हूँ, नष्ट करने की अभिलाषा,
हो सके तो भूल जाना।
सत्य और ध्ार्म के नाम पर हिंसा करने से बचना,
यदि हो सके तो सत्य और ध्ार्म को
परिभाषित करने से भी बचना।
यदि यह लगता है कि युद्ध से
कुछ अच्छा हो सकता है तभी लड़ना।
इसका अर्थ बस यह होगा कि तुम
वह नहीं सीख पाये हो जो मैं
सीखा नहीं पाया हूँ और वह
सीख गये हो जो सीखाने से
बचते हुए मैंने सीखा दिया है।
ग़लतियों पर शर्मिन्दा भले हो जाओ
दूसरों की गलतियों पर उन्हें अपमानित मत करना।
दण्ड अपराध्ा पर देना, ग़लती पर नहीं।
अब ध्ानुष उठाओ, मुझे पता है
पशोपेश मे हो, भूल जाओ,
बस ध्ानुष उठाओ और चलो शुरू करते हैं।
मैं प्रार्थना करता हूँ कि मुझे
और तुम्हें इसके लिए
देवता क्षमा करें।
दुर्योध्ान या सत्य
पानी ज़्यादा ठण्डा नहीं था।
तालाब का पानी, हरा पानी, ठहरा पानी।
जब वह तल पर बैठा
तभी उसने देखा
मछलियाँ उसका माँस खा रही थी।
युद्ध के मध्य में दुर्योध्ान ने गदा चलायी
दो वीरों के रथ तोड़े, घोड़ों के मुँह मोड़े।
कुरुक्षेत्र के मध्य में खड़ा वह अपना खौफ़
दूसरों की आँखों में देख आनन्दित हो रहा था।
वह नहीं जानता था कि उसे ऐसा भ्रम दिया गया था कि
वह जीत सकता है,
जबकि युद्ध स्वयं पराजय है।
कोई नहीं जीतता और सब हारते हैं।
वह नहीं जानता था कि उसका हठ उसे छोड़कर
आसमान में मिल जाने वाला था।
वही हठ लोगों का स्वभाव बनने वाला था।
उसका पिता राजा था, इसलिए उसे लगता था
वह राजा बनेगा, यह उसका सच था।
उसका सच दूसरों का सच नहीं था।
सदियों बाद गेलिलियो अदालत में बोलने वाला था
अपनी साँसों के नीचे कि ‘वह हिलती है।’
लेकिन गेलिलियो के सच में विनय था।
उसके सच में केवल उद्दण्डता थी।
क्या उद्दण्ड सच, सच नहीं रहता।
सच से विनय की उम्मीद तो वे भी नहीं करते थे
जो दुर्योध्ान को हरा रहे थे।
दुर्योध्ान को पता था कि उसके सच को
सच का नाम उसकी जीत दे सकती थी।
अमरीकियों के हाथों प्रताडि़त जापानी महिलाओं की तरह
वह जानता था कि विजय ही
जीत को वैध्ाता देती है।
हारे हुओं की चीखें इतिहास के गहरे कोहरे में छिप जाती हैं।
वह नहीं जानता था कि गाँध्ाी शताब्दियों बाद
अपने सच के लिए मार दिये जाएँगे,
जब समय बदलेगा तब उन्हें भी गालियाँ दी जाएगी।
वे लोग जिन्होंने देश के लिए एक दिन
कारावास में नहीं बिताया, कहेंगे
‘गाँध्ाी ने देश तोड़ा।’
क्योंकि सच जब जीतता नहीं
निर्ममता से कुचला जाता है।
दुर्योध्ान पानी की आवाज़ को
अपनी आवाज़ के ऊपर सुन रहा था।
उसे लगा यह उस समय के युद्ध की
ज़मीन पर कम्पन है।
तालाब में वह साफ़ दिख रहा था।
तालाब में जैसे एक समन्दर छिप गया था।
किनारे पाण्डव खड़े थे।
उनमें भी थकान थी और
उनके पास भी एक सच था।
वे भी आँखों में सैकड़ों मृत योद्धाओं का
खून लिये खड़े थे।
दुर्योध्ान ने युध्ािष्ठिर को
तालाब के पानी के पार देखा
दोनों एक दूसरे को देख रहे थे।
ध्ार्मराज को एक क्षण के लिए समझ आया
कि वह दोनों एक ही थे।
वह हस्तिनापुर जिसके लिए दुर्योध्ान लड़ रहा था
कुरुक्षेत्र में खत्म हो गया था
जिस ध्ार्म के लिए युध्ािष्ठिर लड़ रहा था
वह कुरुक्षेत्र से पीठ दिखाकर भाग गया था।
उसे नहीं पता था कि सालों बाद
वही ध्ार्म फुर्तवेगंलर के साथ खड़ा था
जब वह खाली आडिटोरियम में भी
संगीत का संचालन कर रहा था।
उसे यह बताना ज़रूरी लगा था कि
वह हिटलर का नहीं, बिथोवन का जर्मनी था।
दुर्योध्ान जानता था कि कल्पना में सच
को महफूज रखा जा सकता है, क्योंकि
कल्पना जीवन की उत्पत्ति करती है।
वह बाहर निकला, तालाब बिखर गया।
भीम के सामने खड़ा हुआ तो देखा
वही तालाब भीम की आँखों में आ गया था।
भीम वीर था पर वह अपनी
कल्पना से अध्ािक लोगों को मार चुका था।
वह भी दुर्योध्ान की तरह बेइन्तिहाँ
हार चुका था।
लड़ाई के बीच कृष्ण ने इशारा किया
भीम ने गदा उठायी, बलराम दूसरी तरफ
पलट गये, गदा के जाँघ पर पड़ने के एक क्षण पहले
मेरी दिवंगत माँ जीवित होकर मेरे पिता
के साथ बूढ़ी हो रही थी।
सत्य भ्रम में मिल गया,
गदा चली, क्षणभंगुर सत्य गिर गया,
ध्ार्म जीत गया।
दोस्त
दो गौरइयाँ बागीचे में छोटी कटी हुई
घास पर चल रही हैं।
मैं सड़क को बागीचे में बैठकर देख रहा हूँ।
एक लड़का जो सड़क पर चल रहा है
एक सुन्दर लड़की जो सड़क पर खड़ी है
उसे घूरते हुए आगे चला जाता है।
मेरी मृत्यु मेरे पीछे उग रहे छोटे-
छोटे ध्ानिये के पौध्ाों को उखाड़ती है।
वह कभी-कभी ठण्ड में ध्ाूप सेंकने आ जाती है।
मैं उसके साथ जाने से डरता हूँ।
मुझे पता नहीं जब ले जाएगी तो कहाँ ?
वह भी इसलिए डरती है, उसे भी नहीं पता कहाँ।
वह एक दिन बोल रही थी
कि कभी मनुष्य की इच्छा
पूरी नहीं होती सिवाय उसके।
आदमी जवानी में कुछ चाहता है और
बूढ़ा होते-होते वही तीव्रता से चाहता है।
मैं सुन रहा था कि हवा तेज़ चल रही थी
नीम के सूखे पत्ते गिर रहे थे।
तुम कहाँ ले जाना चाहती हो?
उसे भी पता नहीं।
मैं रोज़ कहाँ जाता हूँ?
मुझे भी पता नहीं।
एक दिन ऐसे ही गौरइयाँ चल रही होंगी
और मैं मृत्यु के साथ जाकर देखूँगा कि
वह कहाँ जाती है।
अपनी इच्छाओं को
ध्ानिये के पौध्ाों के बीच बिखेर दूँगा।
कोई दूसरा आकर ठण्ड में
वहाँ बैठकर गर्मी तापेगा।
मैं जब सोकर कल उठूँगा तब उससे यह कहूँगा।
वह वही खड़ी होगी चुपचाप।
दोस्त कुछ कहते नहीं हैं
वे समझते है कि एक समय के बाद
हमारे पास उनके लिए केवल खामोशी होती है
फिर भले ही हमें पता न हो
कि आगे कहाँ जाना है।