सम्पादकीय
29-Dec-2019 12:00 AM 4698

कई वर्ष पहले की बात है, मैंने एक कहानी सुनी थी। एक बार एक हिन्दी लेखक जो लिखना शुरू ही कर रहे थे, अपने गुरू से बोले कि चूँकि वे केवल लेखन ही कर सकते हैं इसलिए वे अपनी पढ़ाई छोड़ देते हैं। वे युवा थे और किसी ऐसे महाविद्यालय में पढ़ते थे जिसमें साहित्य की पढ़ाई नहीं होती थी। उनका साहित्य और अन्य कलाओं, दर्शन आदि के अलावा कुछ और पढ़ने का मन नहीं होता था और वे यह सोच रहे थे कि अगर उनके गुरू इज़ाजत दे देंगे, वे अपनी यह पढ़ाई छोड़ देंगे और अपना पूरा समय साहित्य आदि के अध्ययन में ही व्यय करेंगे। गुरू ने उनकी बात को ध्यान से सुना और कुछ देर बाद बोले, ‘आप केवल लिखना चाहते हैं क्योंकि आप अपने भीतर उसी की चाहना अनुभव करते हैं, यह अच्छी बात है। एक तरह से आपको वह पता लग गया है जो अनेकों को जीवनभर नहीं लग पाता। आप यह जान गये हैं कि आपका स्वाभाविक धर्म क्या है। पर आधुनिक समय में इतने भर से बात बनती नहीं है। संयोग से या शायद सायास इस समय को इस तरह गढ़ा गया है कि साहित्य, कलाएँ और चिन्तन की तमाम पद्धतियाँ व्यापक सामाजिक उपक्रमों में अर्थहीन होती चली जा रही हैं। समाज को यह अहसास होना लगभग बन्द हो गया है कि साहित्य और कलाएँ उसके लोकतान्त्रिक जीवन के लिए अनिवार्य है। आधुनिक समाज यह लगभग भूल गया है कि साहित्य और कलाओं में न सिर्फ़ आपको सौन्दर्य का अनुभव होता है, वह अनुभव फैलकर आपके रोज़मर्रा जीवन में भी आ जाता है पर साथ ही यह इनकी ही बरकत है कि समाज के सभी सदस्य अपनी अद्वितीयता या एकवचनात्मकता को अनुभव कर पाते हैं। समाज की इस विस्मृति का परिणाम यह हुआ है कि लेखकों को अपने श्रेष्ठ लेखन के बावजूद जीविकोपार्जन के लिए कोई और काम-धन्धा करना ही पड़ता है। अगर आप अपना यह विशेष अध्ययन छोड़कर केवल लेखन करना चाहेंगे, आपको अपने जीविकोपार्जन के लिए या तो हिन्दी विभाग में अध्यापन करना होगा (वह केवल तभी मुमकिन होगा जब आप वहाँ स्नातकोत्तर अध्ययन के उपरान्त शोध प्रबन्ध आदि लिखकर एक और ऊँची डिग्री पा सकेंगे) या आप मजबूरन पत्रकारिता करेंगे। इन दोनों ही जगहों पर आपके लेखन के कमज़ोर हो जाने के खतरे बने रहेंगे।’ युवक को अपने उस्ताद के इस कथन पर भरोसा नहीं हुआ बल्कि यह कहना चाहिए कि वह उसमें अन्तर्निहित अभिप्रायों को समझ नहीं सका। वह कुछ देर सोचता रहा, फिर उससे न रहा गया। उसने उस्ताद से पूछ ही लिया, ‘हिन्दी का अध्यापन या उसकी पत्रकारिता करने में हजऱ् ही क्या है?’ उसके उस्ताद एक जाने माने अपूर्व लेखक थे जिनसे वह युवा लेखक बेहद मुतास्सिर था। उस्ताद को पहले तो आश्चर्य हुआ क्योंकि वे सोचते थे कि इन दोनों ही ग़लत विकल्पों के दोषों को वह युवक खुद समझ लेगा। वे उन लेखकों में नहीं थे जिन्हें हर बात देर तक समझाने की आदत होती है। वे बोले, ‘अगर आप हिन्दी विभाग में पढ़ाने लगते हैं, आप जब भी कबीर की कविताएँ पढ़ेंगे, आप यह भूल नहीं पायेंगे कि आप किसी भक्तिकालीन कवि की कविताएँ पढ़ रहे हैं। कबीर की कविता तब बहुत हद तक भक्तिकालीन कविता का उदाहरण बनकर रह जा सकती है। आप हमेशा ही उनकी तुलना अन्य भक्ति कवियों से करते रहेंगे और इस तरह कबीर के काव्य की अद्वितीयता पर सीध्ो-सीध्ो पहुँचने या उन्हें एक अत्यन्त व्यापक, सर्जनात्मक सन्दर्भ में रखकर देखने की जगह, उसे एक तयशुदा, जड़ीभूत सन्दर्भ में रखकर पढ़ने को बाध्य हो जायेंगे। इस तरह आप सभी कविताओं को उनके जड़ीभूत तयशुदा सन्दर्भों में रखकर ही पढ़ सकेंगे और ऐसा करने पर आप ज़्यादातर किसी भी कवि का अपपाठ करेंगे। यह सम्भव है कि इस तरह आप साहित्य से घिरे रहकर भी उसके आस्वादन करने के अयोग्य हो जाएँ। यह इसलिए कहा जा रहा है कि ऐसा होते बार-बार देखा गया है। ‘आपके लिए पत्रकारिता इसलिए उपयुक्त नहीं है कि उसमें आप अपनी भाषा को एक तरह का कर देंगे। इसमें शक नहीं कि पत्रकारिता आधुनिक समय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है या निभा सकती है। और पत्रकार इस समय राज और समाज के बीच उत्पन्न हो गये अन्तराल को पार कर समाज की बात राज तक पहुँचाने का एक नितान्त महत्वपूर्ण कत्र्तव्य निभा सकता है। वह राजकीय सदस्यों के न्यायबोध को जागृत करने का प्रयास करता है। पर इसके लिए उसे एक ख़ास तरह की भाषा भी विकसित करना होती है। यह भाषा अत्यन्त सपाट और तथ्यपूर्ण होती है। पत्रकारिता में रूपकात्मक भाषा का स्थान केन्द्रीय नहीं होता। वह धीरे-धीरे सपाट होती जाने को अभिशप्त है। इस प्रक्रिया का भी आपके लेखन पर गहरा असर पड़ेगा अगर आप पत्रकारिता को अपने जीविकोपार्जन का साधन बनाते हैं।’ यह सुनकर युवक चुप हो गया। यह कि़स्सा जब-जब भी मेरे दिमाग में आता है, मैं सोच में पड़ जाता हूँ पर साथ ही यह पाता हूँ कि हिन्दी लेखन में हाथ अजमाने निकले उस युवक को कितनी बढि़या सलाह दी गयी थी। अगर हम अपने विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों का सर्वेक्षण करके यह पता करने का प्रयास करें कि इनमें काम करते और इनसे पढ़कर निकले कितने लोग साहित्य के गहरे आस्वादक हो सके हैं, हमें गहरी निराशा हाथ लगेगी। हिन्दी पत्रकारिता में कुछ अपवाद छोड़कर अधिकांश पत्रकार लेखक साधारण लेखन ही कर सके हैं। इससे यही साबित हो सकेगा कि ये अपवाद उस नियम को ही पुष्ट करते हैं जो उस युवक को बताने की उसके उस्ताद कोशिश कर रहे थे।

5 नवम्बर, 2019-उदयन वाजपेयी

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