05-Jun-2020 12:00 AM
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विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना, इतिहास यही-
उमड़ी कल थी, मिट आज चली!
महादेवी जी की ये अविस्मरणीय पंक्तियां हैं। मैं नीर भरी दुख की बदली। इस युवा कवि को जब भी पढता हूँ, उसके बारे में सोचता हूँ, तो इन पंक्तियों की याद हो आती है। मात्र चालीस साल की अल्पवय में यह दुनिया उसने छोड़ दी। मुझे याद है कि कोलकता और बाद में आगरा केंद्रीय हिंदी संस्थान में रहते हुए प्रकाश अक्सर फोन किया करते थे। वे जीवन और कविता के लिए जूझ रहे थे। नौकरी मिली तो एक संबल सा मिला। पर आगरा में वे कभी सुकून से नहीं रहे। उनसे बातचीत कर लगता वे किसी न किसी उद्विग्नता में हैं । कोई परेशानी है जो उन्हें अस्थिर किए रहती है। ये वे दिन थे जब उनके पहले संग्रह होने की सुगंध के प्रकाशित होने की वेला थी। वे कविता में जगह बना रहे थे। शायद जब तक डा शंभुनाथ जी वहां रहे, उन्हें एक आश्रय मिला था, उनके न रहने पर वे जैसे निराश्रित से हो गए। एक अपरिभाषित दुख उनके इर्द गिर्द पसरा रहता था। वे गवेषणा पत्रिका से भी जुड़े थे। होने की सुगंध की चर्चा कुछ कुछ हुई। इस संग्रह से बहुत उम्मीद थी प्रकाश को। शायद उतना यश मिल नहीं सका। कुछ कविताएं वागर्थ में प्रकाशित हुई थीं और वे अचानक चर्चा में भी आए थे। पर आगरा में उनके साथ जो घटनाएं घट रही थीं वे जीवनानुकूल न थीं । एक दिन पता चला वे नहीं रहे। आत्महत्या के मोड़ पर आकर वे टूट चुके थे। एक प्रकाश अंतत: झर कर इस मिट्टी के अपूर्व आलोक में समा गया था।
लेकिन यह उनके जीवन की इतिश्री न थी। वे इहलोक से विदा होने के पहले ऐसा कुछ लिख चुके थे जिससे कविता में उनकी अवाज़ पहचानी जा सके। यह आवाज पहचानी अशोक वाजपेयी ने और उनके दूसरे संग्रह आवाज़ में झर कर का प्रकाशन रज़ा फाउंडेशन से किया। उनकी याद में युवा कवियों के लिए प्रकाशवृत्ति प्रकाशन योजना भी शुरू की जिसके अंतर्गत सुशोभित, अंबर पांडेय एवं मोनिका कुमार के संग्रह हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। प्रकाश के आखिरी दिनों में जिस तरह का अवसाद उनके इर्द गिर्द पसर चुका था इन कविताओं में उसकी छायाएं दिखती हैं। यह पांच काव्यात्मक शीर्षकों में विभक्त है :
भीग कर जल जल होता जाता था
आंख के पीछे खिड़की थी
सुकर्ण अवाक् स्वीकृति को सुनता था
प्रार्थना थोड़ी ज्यादा थी करने वाला थोड़ा कम
आत्मन् के गाए गए कुछ गीत
वे जल, आकाश, नदी, रात, रोशनी और प्यास का कोई बिंब खोज रहे थे। कभी ऊपर आकाश नदी-सा बहता प्रतीत होता था कभी नीचे नदी आकाश सी ठहरी हुई। बहते हुए आकाश में प्रकाश भी निश्चिंत बहता प्रतीत होता था तो ठहरी हुई नदी में जैसे एक प्रतीक्षा एक विस्मय ठहरा हुआ लगता था। नदी जल रोशनी आदि को लेकर इतनी तरह की काव्यात्मक युक्तियों का विधान इस खंड में उन्होंने रचा है कि यह देख कर विस्मय होता है कि आत्महत्या करने वाले इस कवि में कविता को लेकर कितना विस्मय भरा था। कितनी प्यास भरी थी। जल में झांकते हुए जल की रोशनी से मुखातिब होना होता था तो नींद जैसे एक नदी जिसमें नींद में बहता हुआ कवि सपने में एक सागर में जागता था। ----ये कुछ पंक्तियां हैं जो एक चित्र सा खींचती हैं और जल रात स्वप्न सागर नदी के कल कल छल छल प्रवाह की ध्वन्यात्मकता से अनेक अप्रत्याशित अर्थ उपजाती हैं।
दूसरे खंड में जैसे उस कविता को पढ़ने की सी प्रतीति होती है: मुझे पुकारती हुई पुकार कहीं खो गयी। प्रकाश में शमशेर की सी अर्थदीप्ति झिलमिलाती है । हो न हो वे उसके रोल मॉडल रहे हों। 'आवाज़ में झर कर' कविता पढते हुए इस अनुभव से गुजरना होता है:
मै जा रहा था भागता धुंध में
थोड़ा घर गया
थोडा बच कर गिर गया
आवाज में झर कर द्वार पर
फूल सा बिखर गया। (पृष्ठ 45)
इसी खंड में 'अ' उपस्थित' में यह वाक्य हमें प्रकाश की भीतरी मनोवेदना से अवगत कराता है। वे लिखते हैं -- ''एक हूक थी पसरा हुआ आकाश था/ एक विस्मय था और अनंत था। '' यहां प्रकाश ऐसे बिम्बों से टकराते हैं जो कवि के भीतर चल रहे अनवरत द्वंद्व का आभास देते हैं। '' वह अनंत में गिरता जाता था/ उससे मिलता जाता था।'' ''कामना अग्नि थी/ अग्निको देखता हुआ वह अचानक गिरा/ कि अग्नि राख थी।'' कवि का कहना कि मैं उपस्थिति से बाहर हो गया था/ अनुपस्थिति के भीतर आ गया था---अपनी अनुपस्थिति का आभास करने वाले कवि चित्त का उदघाटन है। ऐसी कौन सी वेदना थी जो कवि से कहलवाती थी : यह संसार तुम्हारा था/यहां तुम्हारी ही कथा कही जा सकती थी/ कहता था/ और बार बार चूकता था। (हरबार)
आखिरी खंड में बार बार आता आत्मन् कहीं न कहीं प्रकाश का ही आत्मरुप है । प्रकाश को जैसे अपने न होने का आभास हो चला था। जिन अदृश्य दृश्य विकलताओं से वह गुजरता था वह आत्मन् को जैसे सॉंसत में डालता था। बकौल कवि : 'आत्मन् खाता था और रो पड़ता था।'
मुझे 'होने की सुगंध' पर लिखना था, प्रकाश से वायदा था। पर नही लिख सका। वे अपनी परेशानियों का जिक्र मुझसे करते थे। मालूम न था वह इस दुनिया से विदा हो जाएंगे। प्रकाश नही हैं पर उनका न होना इस व्यवस्था पर हमेशा एक प्रश्नचिह्न की तरह रहेगा कि ऐसी आत्माएं अचानक दुनियावी क्रूरताओं को झेल क्यों नही पातीं और अपनी आत्मा पर मानवीय मलिनता का और बोझ डाले बिना अचानक ओझल क्यों हो जाती हैं। प्रकाश के उभरते कवित्व के प्रति मेरा स्नेह था, उनसे मेरी आशाएं थीं । अब जब वे नहीं हैं, मैं यह सोचकर खिन्न हूँ कि मेरा प्रिय आत्मन् इसे न पढ़ सकेगा। अपने आखिरी दिनों में प्रकाश ने एक अच्छी विवेचना अशोक वाजपेयी की कविताओं की भी की थी जिससे उनके भीतर के सहृदय आलोचक का पता चलता है। वे होते तो कविता में घिरते आ रहे सन्नाटे की रंगत कुछ और होती।
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आवाज़ में झर कर। प्रकाश। रज़ा फाउंडेशन व राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।