02-Aug-2023 12:00 AM
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असमिया से अनुवाद : विनोद रिंगानिया
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गजेन्द्रनाथ के लवंग* मिलना बन्द होने के बाद क्या बजालीवासियों को किसी तरह की शारीरिक कमज़ोरी का शिकार होना पड़ा था? इसके बारे में सही-सही ख़बर उपलब्ध नहीं है। लेकिन लवंग न मिलने के कारण दो लोगों के कमज़ोर हो जाने का पता है। उनमें से एक था खुद गजेन्द्रनाथ और दूसरा राहुल। गजेन्द्रनाथ की कमज़ोरी का पता अमृतप्रभा को चल गया था। लेकिन राहुल की कमज़ोरी के बारे में किसी को पता नहीं था। यहाँ तक कि राहुल की माँ शशि को भी नहीं। क्योंकि उन दिनों शशि एक अपरिचित पेट के दर्द से जूझ रही थी।
वरुण और शशि के कमरे से शालिग्राम के घर, पूजाघर से निकलने वाली सुगन्ध से भी सुन्दर गन्ध तैरकर बाहर आया करती थी। आजकल उस कमरे से डिटॉल और दवाइयों की गन्ध आती है। अधिकतर समय शशि उस गन्ध के बीच एक यन्त्रणा को अपने गर्भ में धारण किये रहती। यन्त्रणा जो खुद कोई आकार धारण नहीं कर सकती, केवल धुएँ की तरह फैल जाती है। लेकिन धूप के धुएँ की तरह इस यन्त्रणा की कोई सुगन्ध नहीं है।
वह धुआँ राहुल और नीपा के दिलों में भी चला जाता। दोनों अकेले में सिसकते : ‘क्या हुआ है माँ को। क्या हुआ है माँ को।’
नीपा और राहुल जब उस निस्तेज बिस्तर पर सोयी माँ के पास जाते, शशि अपनी असहनीय यन्त्रणा को ढकने के लिए उठकर बैठने की कोशिश करती। उनको देखकर मुँह पर हँसी लाने की कोशिश करती। लेकिन हँसी कहाँ से आती? शशि बच्चों को देने के लिए हँसी का एक कण भी खोज नहीं पाती। उसकी आँखों से बस टप-टप बहुत सारे मोती बरसते। वे मोती कितने कीमती हैं राहुल-नीपा को तब तक पता नहीं था।
* यह एक तरह की असमिया मिठाई है जिसे मैदे से बनाया जाता है। इसमें मैदे की तीन-चार परतें होती हैं जिन्हें शीरे में डुबा कर मीठा किया जाता है।
डॉक्टरों का डॉक्टर उमेश डॉक्टर आकर शशि को देख जाया करता था। तजो के लाकर दिये साबुन-पानी से हाथ धोने के बाद नीपा की साहित्य की कॉपी से एक पन्ना फाड़कर उस पर पेनिसिलिन का नुस्खा लिख दिया करता था। शान्ति नामक वह सदा गर्भवती नर्स आकर एक दिन शशि के बाएँ कूल्हे में और दूसरे दिन दाएँ कूल्हे में पेनिसिलिन के सफ़ेद इंजेक्शन घोंप दिया करती थी। लेकिन शशि की अनजानी बीमारी के सामने पेनिसिलिन की सुइयों ने हार मान ली।
और जब एक दिन उमेशा डॉक्टर ने घोषणा की कि शशि को कैन्सर हुआ है, राहुल के घर के ऊपर लटका हुआ आसमान स्याह हो गया। कैन्सर का मतलब ही है मृत्यु। कैन्सर का मतलब ही है डिब्रूगढ़ का मेडिकल कालेज। तब तक बजाली के लोग वेल्लोर के बारे में नहीं जानते थे।
असम रोडवेज़ की लाल बस में बैठाकर एक दिन वरुण शशि को डिब्रूगढ़ ले गया। उस दिन रोडवेज के बस अड्डे पर शशि को विदा कहने बहुत सारे लोग आये थे। राधा मामा और हरेकृष्ण मामा बस अड्डे के बरामदे में रखी बेंच के दोनों किनारों पर बैठे थे। उनके आँसू बस अड्डे के तेल-ग्रीज़ से काली पड़ चुकी बेंच के हत्थों से होते हुए नीचे ज़मीन पर गिर रहे थे। शशि के पिता नमाटी मौजा के मौजादार भी आये थे अपनी घोड़ागाड़ी पर चढ़कर। अपनी पहली पत्नी की एकमात्र कन्या शशि के चेहरे की ओर वे देख नहीं पा रहे थे। क्योंकि उस चेहरे पर उनकी पहली पत्नी की आँखों की रोशनी गिर रही थी। इसलिए डिब्रूगढ़ जाने वाली लाल बस के आने का इन्तज़ार किये बिना नमाटी मौजा के मौजादार अपनी घोड़ागाड़ी में वापस लौट गये कि कहीं आँखों से कुछ उतर न आये और उनके रौब में कमी न आ जाये।
दूर गाँव से भी कुछ रिश्तेदार आये थे उस लाल बस अड्डे पर। मालिनी बाइदेउ उस दिन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के स्कूल में नहीं गयी थी। बस अड्डे पर उस स्कूल का चपरासी भी आया था। शान्ति नर्स भी आयी थी, साथ आया था उसका प्रदीप नामक नटखट बालक। वह उस दिन शान्त बना रहा। उस दिन वह रोडवेज की बस पर बने गैंडे के चित्र की ओर एकटक ताकता रहा था। अपनी साइकिल पर हरेश्वर दर्जी भी आया था।
लाल बस जैसे ही पश्चिम की ओर से आयी रुलाई के एक कोरस ने गाड़ी को घेर लिया। रुलाई के उस मेले में शामिल होने के लिए एक भिखारी भी आया था। उसने किसी से भी भीख नहीं माँगी। राहुल के पिता ने उसके थपेड़े खाये सिलवर के कटोरे में एक रुपये का नया नोट डाल दिया था।
हरे रंग की सीट पर बैठाने के बाद गजेन्द्रनाथ ने अपनी बड़ी बहू के लिए सिर के तरफ एक तकिया लगा दिया था। गजेन्द्रनाथ दुनिया में किसी से सबसे अधिक प्यार करते थे तो वह थी शशि।
एक दिन किसी काम से गजेन्द्रनाथ का नमाटी मौजा के मौजादार के घर जाना हुआ था, वहीं मौजादार के साथ बातचीत के दौरान उनकी नज़र शशि पर पड़ी थी। वह कुँवारी लड़की एक टोकरी में मछलियाँ साफ़ कर रही थी। उसे देखते ही गजेन्द्रनाथ ने मन ही मन संकल्प किया, इसी लड़की को अपनी बड़ी बहू बनाकर लायेंगे। गजेन्द्रनाथ को पता था कि शशि की माँ बचपन में ही स्वर्गवासी हो गयी थी और उसकी सौतेली माँ ने विनिमय के नियम से उसे पाला-पोसा था, यही जैसे दोपहर के खाने के बदले टोकरी भर मछली साफ़ करना।
जब वरुण की शादी की उम्र हो गयी, गजेन्द्रनाथ ने बोको हाईस्कूल में मास्टरी करने वाले और अनारकली नाटक में सलीम बनने वाले वरुण को पत्र लिखा, ‘मैंने शादी की तारीख तय कर दी है। शादी के दस दिन पहले आ जाना।’
वरुण ने पूछा था, ‘लड़की कौन है?’
गजेन्द्रनाथ ने कहा था, ‘नमाटी मौजा के मौजादार की लड़की।’
दूसरा प्रश्न करने का साहस वरुण को नहीं हुआ था।
शशि का कष्ट मोचन करने के लिए ही गजेन्द्रनाथ उसे बहू बनाकर लाये थे। प्यार से उसे ‘माको’ पुकारते। यहाँ तक कि शशि के प्रति इतना प्रेम देखकर अमृतप्रभा को भी कभी-कभी ईर्ष्या होने लगती।
गजेन्द्रनाथ के पैर छूने के लिए शशि ने नीचे झुकने का प्रयास किया था। लेकिन दर्द ने उसे ऐसा करने नहीं दिया।
गजेन्द्रनाथ ने कहा, ‘कोई बात नहीं माको। दर्द होगा, रहने दो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। और शालिग्राम तो हैं ही। मैं इतने सालों से दूध से नहलाता आया हूँ शालिग्राम को, वह पुण्य क्या ऐसे ही चला जायेगा। तुम ठीक होकर आओगी।’
गजेन्द्रनाथ ने शशि के सर पर हाथ फेर दिया था। शायद वह हाथ भी थोड़ा थक गया था।
किसी ने राहुल और नीपा को गाड़ी के अन्दर बुलाया। बुलाने वाला एक हाथ था। शशि का हाथ। हाथ ने उन दोनों को ही अपने पास बुलाया था। हैंडल पकड़कर दोनों बस के अन्दर चले गये। माँ ने दोनों को अपनी छाती से चिपका लिया। माँ की आँखों से टपकने वाले मोतियों को राहुल की कमीज़ और नीपा की फ्रॉक ने सोख लिया था। माँ ने उनके एक गाल को हाथ से पकड़कर दूसरे गाल पर चुम्बन लिया था। शशि के बदन में बुखार था। इसीलिए वह चुम्बन इतना गर्म था। उस चुम्बन को जीवन भर राहुल अपनी त्वचा के नीचे लिये घूमता रहा। उस चुम्बन को कोई भी ठण्डा नहीं कर पाया। राहुल को ज़िन्दगी में जितने भी चुम्बन उस दिन का चुम्बन मिले उन सबमें श्रेष्ठ था।
हॉर्न बजाकर जैसे ही ड्राइवर ने बस को स्टार्ट किया राहुल और नीपा नीचे उतर गये। वरुण क्या सोच रहा था, पता नहीं। उसका चेहरा भी उस दिन असाधारण रूप से गम्भीर और करुण हो गया था।
एक कैन्सर रोगी को दर्द से राहत देने की कोशिशों में असम राज्य परिवहन निगम ने सक्रिय भूमिका का पालन किया था। क्योंकि गम्भीरता से घूम रहे चक्कों वाली लाल बस काला धुआँ फेंक रही थी और हाईवे पर आगे बढ़ रही थी। बस के चक्के के नीचे आकर पत्थर का एक टुकड़ा दूर तक छिटक गया। मानो वह पत्थर का टुकड़ा गैंडे के चित्र की ओर एकटक देख रहे प्रदीप को चिढ़ा रहा हो।
जब तक लाल बस आँखों से ओझल नहीं हो गयी, लोग बस अड्डे पर ही खड़े रहे। उन लोगों के बीच और भी कई कैन्सर के मरीज़ थे। वे थे गजेन्द्रनाथ, राहुल, नीपा और तजो। हाँ, तजो के भी कैन्सर था।
राहुल ने दादा की धोती के पल्लू को पकड़कर पूछा था, ‘दादाजी, माँ वापस आयेगी न? माँ ठीक हो जायेगी न?’
एक कैन्सर का मरीज़ दूसरे कैन्सर के मरीज़ से पूछ रहा था तीसरे कैन्सर के मरीज़ के बारे में।
और दूसरा जवाब दे रहा था, ‘वापस आयेगी, वापस आयेगी, शालिग्राम सब ठीक कर देंगे।’
उस गर्म चुम्बन को त्वचा के नीचे लेकर राहुल कहीं स्थिर नहीं रह पा रहा था। घर वापस लौटकर राहुल चुपचाप पूजाघर में घुस गया। भगवान अपने-अपने आसनों पर चुपचाप सो रहे थे, कोई भी जागा हुआ नहीं था। राहुल ने शालिग्राम का ओढ़ा हुआ कपड़ा हटा दिया। चन्दन के साथ तुलसी पत्र तब भी शालिग्राम के शरीर से चिपका हुआ था। राहुल ने शालिग्राम को दोनों हाथों से उठाया और अपनी छाती से चिपका लिया और पूछा, ‘माँ ठीक हो जायेगी न? माँ ठीक हो जायेगी न बोलो शालिग्राम।’
शालिग्राम ने कोई उत्तर नहीं दिया।
इन भगवानों के साथ एक अच्छी बात यह है कि उन्हें कुछ बोलना नहीं पड़ता।
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एक सप्ताह बाद वरुण घर लौट आया। बजाली राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की अध्यक्षता करने के लिए इस दुनिया में वरुण को छोड़कर और कोई नहीं था। शुद्ध उच्चारण करने की कोशिश में नाक से बोलने वाले जगदीश मास्टर और घुटनों से ऊपर धोती पहनने वाले, अपने आपको हमेशा गाँधीवादी दिखाने वाले कंजूस गिरीन मास्टर के भरोसे भारत की राष्ट्रभाषा को नहीं छोड़ा जा सकता था। इसलिए वरुण लौट आया था।
डिब्रूगढ़ से रोडवेज़ की लाल बस में गुवाहाटी तक और गुवाहाटी से काला धुआँ छोड़ने वाली छोटी लाइन की रेल में चढ़कर वरुण पाठशाला लौट आया था। तजो साइकिल लेकर स्टेशन पर तैयार खड़ा था।
वरुण का बैग और गाँठ-गठरी तजो ने साइकिल के पीछे की सीट और दोनों हैंडल पर लटका लिये थे। हैंडल पर लटके दोनों बेग हिलते हुए आपस में बातें करते आ रहे थे। तजो वरुण से शशि के बारे में कुछ पूछता तभी वरुण ने तजो से पूछ लिया, ‘टिकेन मास्टर दो पोथियाँ दे गया था क्या?’
‘पोथियों के बारे में तो नहीं पता। हाँ एक दिन टिकेन मास्टर आया ज़रूर था।’
वरुण चुप रहा।
बस चुप रहने वाले बैग आपस में चहक-चहक कर बातें करते रहे। बैग आपस में इतनी ज़्यादा क्या बातें कर रहे हैं, एक बार तजो ने समझने की कोशिश की। लेकिन उसे कुछ भी समझ में नहीं आया। और वरुण ने बैगों को आपस में बातें करते देखकर भी यह दिखाने की कोशिश की कि उसने कुछ देखा ही नहीं है।
वरुण के मुँह से बात सुनने के लिए उस दिन गजेन्द्रनाथ, अमृतप्रभा, मालिनी बाइदेउ, भानु और राहुल-नीपा के साथ-साथ छोटे बच्चों ने उसे घेर लिया था। वरुण ने राहुल और अन्य बच्चों को वहाँ से भगा दिया। बच्चों को कैन्सर की बातें नहीं सुननी चाहिए, कैन्सर से मृत्यु जुड़ी रहती है।
राहुल-नीपा वहाँ से हट गये। लेकिन जैसे रसोईघर में तली हुई मछली रखी होने पर बार-बार भगाने पर भी बिल्ली लौटकर आती रहती है, वैसे ही राहुल चुपचाप आकर दरवाज़े पर खड़ा हो गया। तली हुई मछली की थाली को अब तक आलमारी में बन्द कर दिया गया था। इसलिए किसी ने अब राहुल की ओर ध्यान नहीं दिया।
बड़ी बैठक में देखते ही चूम लेने का मन करने वाली उस प्यारी टेबल पर मालिनी बाइदेउ चाय का कप रख गयी थी। एक पीढ़े पर बैठकर चाय की चुस्कियाँ लेते हुए वरुण ने शशि और डिब्रूगढ़ के असम मेडिकल कालेज अस्पताल का वर्णन करना शुरू किया था।
शशि को अस्पताल में भर्ती कराकर वरुण एक होटल में रुक गया था। डिब्रूगढ़ गये हुए जब चार दिन हो गये, चौथे दिन यहाँ से राधा मामा चले गये थे। अपनी एकमात्र बहन के पास जाकर राधा मामा छोटे बच्चे की तरह रोने लगे थे। राधा मामा बिना माँ का बच्चा था। हरेकृष्ण मामा राधा मामा से बड़ा था और छोटा था द्विजेन मामा। इसी बड़ी बहन ने उनके लिए माँ की भूमिका निभायी थी। वही माँ अब असहाय होकर बिछौने पर पड़ी है। कैन्सर की मरीज़ दूसरों को क्या दे सकती है, सिवा दर्द भरी कराहटों के।
शशि को उस छोटे बच्चे की तरह रोने वाले राधा मामा के भरोसे सौंपकर वरुण लौट आया था।
वरुण ने अस्पताल के नज़दीक ही एक मारवाड़ी धर्मशाला में राधा मामा के रहने का इन्तज़ाम कर दिया था। आज तक इस दुनिया में कोई असमिया धर्मशाला नज़र नहीं आयी। हालाँकि गृहासक्त असमिया को धर्मशाला बनाने की ज़रूरत ही क्यों पड़ने लगी।
धाराप्रवाह हिन्दी बोल पाने के कारण ही वरुण राधा मामा के लिए धर्मशाला की व्यवस्था कर पाया था। धर्मशाला से अस्पताल के अंकलजी वार्ड में राधा मामा कई चक्कर लगा लेता था। शशि अस्पताल का दिया हुआ खाना ही खाती थी। खाती भी कितना थी? दाल और भात। शशि के पेट में इतनी जगह नहीं थी कि मछली का टुकड़ा अन्दर डाल ले। वह पेट भरा हुआ था दर्द और अन्तहीन शोक से। दाल-भात जैसी साधारण चीज़़ों के लिए जगह छोड़ने को तैयार नहीं था दुख।
इसलिए दाल-भात के साथ दिया गया मछली का टुकड़ा या अण्डा शशि अपने प्यारे छोटे भाई के लिए रख लेती। राधा मामा जब शशि के पास जाता तो वह पूछतीः
तूने रात को खाना खाया या नहीं? तेरा चेहरा तो सूखा हुआ है। धर्मशाला में तो शाकाहारी ही खाते होगे, क्यों?
मारवाड़ी धर्मशाला है। माँस-मछली का कोई काम नहीं है, राधा मामा उत्तर देते।
‘हाय, रोज़ाना कबूतर का माँस खाने वाला यह लड़का, भात पेट में जाएगा कैसे’...शशि ढकी हुई एक तश्तरी की ओर इशारा कर कहती, ‘इसमें मछली का एक टुकड़ा ढककर रखा हुआ है। मैं तो खा नहीं सकती, तू ही खा ले।’
राधा मामा बोलते,
‘अरे, ताकत की ज़रूरत तो तेरे शरीर को है। मैं तो मन करने पर बाहर किसी भी होटल-हाटल में माँस-मछली खा सकता हूँ। मेरे लिए यह सब बचाकर रखने की ज़रूरत नहीं।’
मन न होने के बावजूद राधा मामा को मछली का टुकड़ा या अण्डा खाना पड़ता कि बीमार दीदी को दुख न पहुँचे।
राधा मामा को दिखायी नहीं देता था, लेकिन शशि को दिखता था अंकलजी वार्ड के बरामदे में शरीर पर दो पंख चिपकाये एक ठिगना-सा आदमी घूमता रहता। उसका चेहरा छोटे बच्चे जैसा था, लेकिन वह उम्र में कम नहीं था। आँख और गालों पर चिन्ता की छाप होती, थोड़ा अस्थिर, अशान्त।
शशि के बगल में एक और रोगी था जिसके गले में कैन्सर हो गया था। ‘वह नाटा सा आदमी कौन है जो बीच-बीच में चहलक़दमी करता दिखायी दे जाता है, हमारे वार्ड में भी कभी-कभी घुस आता है।’
आश्चर्य कि कण्ठ लगभग बन्द हो चुके उस रोगी के मुँह से भी आवाज़ निकलती है। शशि को स्पष्ट सुनायी देता है, बगल का मरीज़ कहता है, ‘अच्छा वह? वह मृत्यु का देवता है। हमारा यह वार्ड उसे ख़ास तौर पर प्रिय है।’
रात को सोते समय राधा मामा को एक दिन धर्मशाला में दिखाई देता है मृत्यु का देवता, नहीं कोई और आदमी। उसने देखा कि एक दीवार से दूसरी दीवार पर कील ठोंककर बाँधी गयी रस्सी पर झूल रहा राधा मामा का टेरीलीन का शर्ट एक आदमी ने पहन लिया और और खिड़की से कूदकर भाग गया है। राधा मामा बस देखते ही रह गये। उठ नहीं पाये। यहाँ तक कि मत ले जाओ, मत ले जाओ, कहकर उसे रोक भी नहीं पाये।
सुबह उठने के बाद राधा मामा को भान हुआ कि वह सपना नहीं था। कारण टेरीलीन का वह सफ़ेद शर्ट रस्सी पर नहीं सूख रहा था। और खिड़की खुली थी। तभी राधा मामा के दिल में टीस-सी उठी। कैसे एक सपना वास्तविकता में बदल गया या एक वास्तविकता सपने में बदल गयी।
लगभग एक महीना राधा मामा ने ऐसे ही बिता दिया, धर्मशाला का शाकाहारी भोजन करते और अंकलजी वार्ड का अण्डा या मछली का टुकड़ा खाते हुए। फिर अचानक उनके जाने का समय हो गया। उन्हें प्री-यूनिवर्सिटी के दूसरे वर्ष में नाम लिखवाना था। गजेन्द्रनाथ और वरुण के निर्देश पर मालीगाँव के रेलवे मुख्यालय में रहने वाले वरुण के एकमात्र भाई निरोद को डिब्रूगढ़ आना पड़ा भाभी की सेवा-सुश्रूषा करने के लिए।
निरोद की पत्नी भानु के नये बने कमरे में एक काला बादल छत पर आकर बैठ गया। उस काले बादल के नीचे भानु को यह सोच-सोचकर पसीने आने लगे कि शशि की तीमारदारी के चक्कर में कहीं उसके पति को भी कैन्सर न पकड़ ले।
लेकिन निरोद इतना बुद्धू नहीं था। डिब्रूगढ़ पहुँचते ही उसे बुखार आ गया। पेट खराब हो गया। बाथरूम में गिर जाने के कारण कमर में भयंकर दर्द। कुल मिलाकर डिब्रूगढ़ निरोद को जँचा नहीं। उसे भाभी शशि के पास जाने का समय ही नहीं मिला।
केमोथेरैपी ले रही शशि उधर अंकलजी वार्ड के दरवाज़े पर टकटकी लगाये देखते हुए सोचती, बेचारा निरोद, परेशानी बिल्कुल सहन नहीं कर सकता। डिब्रूगढ़ आकर बेचारे को इतनी दिक्कतें झेलनी पड़ रही है।
एक दिन शशि ने निरोद से कहा, ‘तुम वापस चले जाओ निरोद। मुझे यहाँ कोई दिक्कत नहीं है। आसपास लोग तो हैं ही। नर्सें भी कितनी अच्छी हैं। जाकर पिताजी और भैया को कहना, ‘रेडियेशन पूरा होते ही मुझे घर ले जायें।’
उस दिन निरोद अपनी भाभी के पास चार केले और तीन सेब लेकर गया था। उसने कहा था, ‘भाभी, मैं आज जा रहा हूँ। मेरी भी तबीयत ठीक नहीं है। यह खा लेना (काग़ज के ठोंगे से केले और सेब निकालकर बिस्तर के पास लगी टेबल पर रख दिये थे)। पानी-वानी चाहिए तो पास के रोगियों के रिश्तेदारों से कहना। हमारे ही उधर के लोग हैं। भवानीपुर के। अपना ख़याल रखना।’
यह कहकर निरोद लौट गया था।
जैसाकि निरोद ने बताया था उस समय शशि की तबीयत ठीक ही थी। निरोद के जाते ही शशि के अन्दर से आँसुओं की धारा फूट पड़ी। अपना ख़याल रखने का शशि ने यही मतलब समझा था।
रोडवेज की लाल बस शशि को इतनी दूर ले आयी थी। इतनी दूर जहाँ से आत्मा की पुकार भी सुनायी न दे।
दुनिया में हर आदमी अकेला है। लेकिन काले पड़ चुके चार केले और गँधाने लगे तीन सेब की ओर देखते हुए अंकलजी वार्ड के बिछौने पर पड़ी हुई शशि के समान अकेला इस दुनिया में शायद ही कोई रहा होगा।
लेकिन शशि दूसरी तरह सोच रही थी। निस्संगता का पान करने के लिए उसके पास एक ही सहारा था, कैन्सर की यन्त्रणा। दूसरे बहुत सारे ऐसे अभागे हैं जिनके पास निस्संगता का पान करने के लिए खालीपन के अलावा कुछ भी नहीं होता।
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स्कूल में वरुण का सहपाठी रह चुका अच्युत उन दिनों डिब्रूगढ़ में बड़े सरकारी पद पर था। वह अपनी पत्नी के साथ एक दिन अंकलजी वार्ड में किसी रोगी को देखने के लिए आया था। तभी उसकी नज़र एक बिछौने पर लेटी शशि पर पड़ी। शशि को देखते ही अच्युत ने कहा, ‘अरे ये तो शशि है। अपने वरुण की पत्नी।’ अच्युत ने अपनी पत्नी से कहा। और दोनों तुरन्त शशि के बेड की ओर लपके।
‘शशि तुम यहाँ कैसे?’, अच्युत ने कहा।
‘करीब डेढ़ महीना हो गया, यहीं हूँ।’, शशि के मुँह से शब्द निकले।
‘साथ में कोई नहीं दिखता। तुम यहाँ अकेली हो?’, अच्युत ने फिर से प्रश्न दागा।
‘नहीं, वे मुझे छोड़ गये। उसके बाद मेरा भाई यहाँ था। उसके कुछ दिन बाद निरोद यहाँ रुका हुआ था। निरोद तो बेचारा ख़ुद ही बीमार जैसा हो गया था। मैंने ही उसे लौट जाने के लिए कहा। लेकिन घर से अब तक तो किसी को आ जाना चाहिए था। मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है, पता नहीं घर पर कैसी परेशानी आ गयी होगी?।’ शशि ने एक ही साँस में इतना कुछ कह दिया कि उसे थकान होने लगी।
‘तुम चिन्ता मत करो। हम तो डिब्रूगढ़ में ही रहते हैं। तुम्हारी खोज-ख़बर लेते रहेंगे।’, अच्युत ने उसे ढांढ़स बँधाया।
अच्युत शर्मा की पत्नी, क्या तो नाम था उसका, उसने भी अपने पति का समर्थन करते हुए शशि को सान्त्वना देते हुए कहा, ‘हमारे रहते तुम्हें किसी तरह की चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। तुम अस्पताल का खाना खा रही हो क्या?’
‘हाँ’, शशि ने कहा।
‘आज से तुम्हें यहाँ का खाना खाने की ज़रूरत नहीं है। हम तुम्हारे लिए दोनों वक्त का भात-पानी देकर जायेंगे। ओह, हमारे होते हुए तुम यहाँ ऐसे पड़ी हो जैसे तुम्हारा कोई नहीं है...।’, अच्युत की पत्नी ने कहा। अचानक इतना प्यार मिल जाने के कारण शशि के दोनों गालों पर आँसुओं से दो नम चिह्न उभर गये।
‘वरुण को पता नहीं है क्या कि मैं डिब्रूगढ़ में रहता हूँ? मुझ तक एक ख़बर तो पहुँचानी चाहिए थी।’, अच्युत बोला।
शशि बोली, ‘शायद पता नहीं हो।’
गले और कान में सोने के गहने पहनी पत्नी के सूट-टाइ पहने अच्युत शर्मा को देखकर सबसे ज़्यादा खुशी हुई शशि का सबसे अधिक ख़याल रखने वाली नर्स को। क्योंकि अब शशि के प्रति उसकी जिम्मेवारी थोड़ी कम हो जायेगी।
अचानक कहीं से एक पतंगा आकर अच्युत के कोट के कॉलर पर बैठ गया। अच्युत ने अपनी गरदन को थोड़ा-सा झटक दिया। पतंगा कुछ समझा नहीं और उड़कर खिड़की के हरे पर्दे पर जाकर बैठ गया। पर्दे मे ज़रा-सी हरकत हुई।
दूसरे वार्डों की तरह अंकलजी वार्ड में भी मच्छर-मक्खियों के आने पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं थी। अस्पताल के कर्मचारी बीच-बीच में फिनाइल मिले पानी से फ़र्श पोंछ देते थे लेकिन देखा गया है कि धीरे-धीरे इंसानों की तरह मच्छर-मक्खियों को भी फिनाइल की गन्ध से प्यार हो गया था। नाले का कालापानी और डस्टबिन में गिरे ख़ून के कतरे, मवाद और कै खाते-खाते ऊब चुकी मक्खियाँ बीच-बीच में दिल-बहलाव के लिए वार्डों के अन्दर आ जाती थीं। उनमें से कोई-कोई मज़ाकिया स्वभाव की मक्खी किसी मरीज़ के नाक या गाल पर बैठकर उसके साथ लुकाछिपी का खेल खेलती।
लेकिन पतंगे इतनी आसानी से दिखायी नहीं देते थे। उस दिन का वह पतंगा जो अच्युत शर्मा के कॉलर पर बैठा था, ग़लती से अंकलजी वार्ड में आ गया था या जानबूझकर। इसके बारे में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है।
उसका हरा शरीर एक इंच लम्बा था। स्मार्ट। पतंगे हमेशा स्मार्ट होते हैं। आपको पता नहीं चलता, वे उड़ रहे हैं या कूद रहे हैं। वे तितली की तरह नाचते हुए या भँवरे की तरह गुनगुनाते हुए या मधुमक्खी की तरह सूँघते हुए नहीं घूमते। उनका अचानक से आविर्भाव होता है। वे अन्दर ही अन्दर थोड़े मूर्ख भी होते हैं, कि कहाँ, किस चीज़़ पर बैठना चाहिए। और अचानक वे ग़ायब भी हो जाते हैं।
पर्दे से उड़कर पतंगा शशि के घुटने पर बैठ गया। शशि ने घुटने को नहीं हिलाया। पतंगे ने थोड़ा विश्राम किया। ऐसा लगा मानो वह यह सुनने के लिए आया था कि शशि के साथ अच्युत शर्मा क्या बात कर रहे हैं।
वह पतंगा और अच्युत शर्मा, उनकी पत्नी और शशि के बीच हुए वार्तालाप और मौन का साक्षी बन गया।
अच्युत शर्मा ने कहा, ‘तो शशि आज हम चलते हैं। कल फिर एक बार आयेंगे।’
शशि ने कहा, ‘जी ठीक है, न आने से भी होगा, मेरे लिए इतना परेशान होने की ज़रूरत नहीं।’
अच्युत शर्मा की पत्नी ने कहा, ‘ऐसा क्यों बोल रही हो। कल दस बजे मैं ख़ुद तुम्हारे लिए खाना लेकर आऊँगी।’
पतंगा तब भी शशि के घुटने पर बैठा था हालाँकि अपने स्थान पर बैठे-बैठे उसने अपने शरीर को घुमा लिया। उसने कुछ नहीं कहा। वह निरा साक्षी था। उसके पास कहने को कुछ नहीं था।
उसके बाद साक्षी अपनी दोनों छोटी-छोटी टाँगों पर बल देकर शून्य में छलाँग लगाकर वहाँ से चला गया। उसके पीछे-पीछे कोई नहीं जा सका।
वरुण का सहपाठी अच्युत शर्मा और उसके परिवार के लोग शशि की अपनी परिवार के सदस्य की तरह सेवा-सुश्रूषा करने लगे। वरुण को इसकी जानकारी नहीं थी। दोपहर और शाम के खाने के अलावा वे लोग फल, बिस्कुट आदि भी ले आते थे। अच्युत या उसकी पत्नी दिन भर में कम-से-कम एक बार ज़रूर शशि के पास आते। कैन्सर के रोगी को इस प्रकार सहानुभूति देकर और उसकी सेवा कर वे लोग शायद पुण्य पाना चाह रहे हों।
जब अच्युत शर्मा की चिट्ठी वरुण को मिली, उसे पता चला कि भाई निरोद तो शशि को अकेला छोड़कर कब का डिब्रूगढ़ से जा चुका था। वरुण ही नहीं गजेन्द्रनाथ का सारा परिवार निरोद के ऐसी अमानवीय हरकत को लेकर अचम्भे में था। डिब्रूगढ़ से लौटकर निरोद मालीगाँव के अपने रेलवे क्वार्टर से बाक़ायदा अपनी ड्यूटी में लग गया था।
अच्युत शर्मा पाठशाला* के नामी कारोबारी जयन्त महाजन का लड़का था। जयन्त महाजन किसी समय गजेन्द्रनाथ की बैलगाड़ी में गाड़ीवान का काम करता था। एक बार जब गजेन्द्रनाथ अपनी बैलगाड़ी में कहीं जा रहे थे, उन्होंने देखा कि गाड़ीवान जयन्त बेवजह बैलों को पीट रहा था। यह देखकर गजेन्द्रनाथ को गु़स्सा आ गया क्योंकि वह हर रोज़ अपने हाथों से अपने बैलों को नहलाता था। अपने हाथों से जिन बैलों को रोज़ नहलाता और सहलाकर प्यार करता था, उनकी पीठ पर जब गाड़ीवान की बेंत की मार पड़ने लगी तो गजेन्द्रनाथ का गु़स्सा क़ाबू में न रहा। और गु़स्से में उन्होंने गाड़ीवान की पीठ पर एक घूँसा जमा दिया। उसी दिन से जयन्त गाड़ीवान की छुट्टी कर दी गयी।
वही जयन्त गाड़ीवान एक दिन जयन्त महाजन बन गया। अकूत ज़मीन और धन-सम्पत्ति का कैसे वह मालिक बन गया इसे लेकर पाठशाला वासियों के बीच बहुत-सी कहानियाँ प्रचलित हैं। सच-झूठ का पता नहीं। जयन्त महाजन को अब लोग कर्ता कहकर पुकारने लगे। नियति हास्य देखिए, गजेन्द्रनाथ को भी अपनी बेलतला की चाय दुकान में उस कर्ता का स्वागत लवंग की जगह कर्ता की धोती से भी अधिक झकझक सफ़ेद बरफी और चाय से करना पड़ता।
* यह असम के उस गाँव का नाम है जहाँ लेखक का बचपन बीता है।
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अचम्भे की बात, अंकल जी वार्ड में गजेन्द्रनाथ प्रवेश कर रहे हैं। वे कलफ़ दी हुई सफ़ेद धोती, उस पर सफ़ेद कुर्ता, कन्धे पर एड़ी चादर और पैरों में भूरे रंग की चमड़े की चप्पल पहनकर वार्ड में प्रवेश कर रहे हैं। किसी मारवाड़ी महिला को कोई गुप्त रोग होने पर या डरावना सपना देखने की बीमारी से ग्रस्त किसी व्यक्ति के घर वाले जब गजेन्द्रनाथ ठाकुर को बुलाने आते, तब गजेन्द्रनाथ इसी तरह सज-धजकर जाते। गजेन्द्रनाथ को लेने रिक्शा आता। रिक्शा लेकर जाता और वही छोड़ भी जाता। वापस लौटते समय गजेन्द्रनाथ के होठों के बीच बीड़ी के स्थान पर पनामा सिगरेट दबी होती।
गजेन्द्रनाथ के पीछे-पीछे हाथ में एक भारी-भरकम थैला लिये हुए तजो भी था। थैले में क्या है शशि इसका अनुमान नहीं लगा पायी। शशि को अचानक याद आ गये वे विख्यात लवंग। शशि का मन किया कि काश थैले में से कुछ लवंग निकल आयें।
तजो ने थैले को शशि के बिस्तर पर ही उलट दिया। ढेर सारे सन्तरों से शशि का बिछौना सुगन्ध से भर उठा।
‘इतने सन्तरे क्यों लाये हैं पिताजी?’, शशि ने ससुर की ओर मुँह कर पूछा।
‘ये सन्तरे मैं तुम्हारे वार्ड के सभी मरीज़ों के लिए लाया हूँ। तुम जाने से पहले सबको बाँट देना। आज हम तुम्हें ले जाएँगे। पता है न।’, गजेन्द्रनाथ ने कहा।
लगा कि बन्द दरवाज़ा खुल गया है। और उस खुले दरवाज़े से शशि को दिखायी देने लगा पाठशाला का अपना घर, आँगन में खेल रहे राहुल, नीपा, रिकी आदि, गौशाला, कजली, मूगी, गोबर, गौशाला के सामने लटक रहा कछुए का कवच, अपराजिता के नीले फूल, विशाल गुलाब का पौधा और उस पर रेंगते हुए कार्शला साँप, शालिग्राम का पूजाघर, तरुणी बुआ, अमृतप्रभा, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का अध्यक्ष !
खुशी के मारे शशि की आँखों से गर्म नमकीन बूँदें टप-टप कर गिरने लगीं।
गजेन्द्रनाथ बोले, ‘रोओ मत शशि, तुम्हारे ये आँसू आँसू नहीं हैं, ये मोतियों के मणि हैं। देखो, नीचे पक्के फ़र्श पर गिरकर ये मोती किस तरह छिटक गये हैं। इन मोतियों को पहचानने वाला यहाँ कोई नहीं है।’
गजेन्द्रनाथ की बातें सुनकर शशि के हृदय में जाने कैसा महसूस हुआ। तजो की आँखों से भी आँसू बह निकले। उसने आँसू पोंछते हुए कहा, ‘चाची, कपड़े-वपड़े समेट लो, कहाँ क्या है बताएँ तो मैं सूटकेस में भर दूँ...’
तभी दिखायी दिया कि वह बच्चों जैसे मुँह और पीठ पर पंख वाला ठिगना आदमी चुपचाप वार्ड में घुस आया है। वह शशि के बिस्तर पर पड़े सन्तरों की ओर ललचाई नज़रों से देखने लगा।
जैसे किसी भिखारी को भगाते हैं वैसे ही गजेन्द्रनाथ ने उस पंखों वाले आदमी को वहाँ से भगाते हुए कहा, ‘चल भाग यहाँ से, दूर हो जा, हट - हट...’
पंख वाले ने ऐसी दृष्टि से गजेन्द्रनाथ को देखा मानो कह रहा हो, आप कुछ ज़्यादा ही करते हैं..फिर वह उलटे कदमों से पीछे हटते हुए वार्ड से निकल गया।
शशि सन्तरे गठरी में लेकर वार्ड के दूसरे रोगियों के पास गयी। सबकी कुशलक्षेम पूछते हुए उसने सबको तीन-तीन सन्तरे बाँट दिये।
शशि ने सबका दिल जीत लिया था। उन्हें सन्तरे दिये और बदले में उन लोगों ने आँसू बहाये। इस तरह एक ही साथ बहुत सारे आँसू अंकलजी वार्ड के फिनाइल से साफ़ किये फ़र्श पर गिर पड़े। उनमें से कौन से मोती थे, शशि को पता नहीं।
तजो अब तक सूटकेस हाथ में ले चुका था।
गजेन्द्रनाथ ने कहा, ‘चलो शशि।’
दो नर्सें और रोगियों की तीमारदारी करने वाले चार लोग शशि-गजेन्द्रनाथ-तजो के साथ-साथ बाहर बरामदे तक आये। दोनों नर्सों में से एक शशि को अधिक प्यार करती थी। वह सीढ़ी से नीचे उतर आयी, शशि के दोनों कन्धों को सहारा देते हुए। अस्पताल के फाटक पर पहुँचकर दोनों एक-दूसरे के गले मिलीं। तजो और गजेन्द्रनाथ इस दृश्य को नम आँखों से देखते रहे।
उस समय फाटक पर दो साधारण मक्खियाँ बैठी थीं। पतंगा नहीं था। लेकिन मक्खियाँ इस करुण दृश्य की साक्षी नहीं बनना चाहती थीं।
शशि के कन्धे को झिंझोड़कर किसी ने जगाया, ‘बहनजी उठिये, आपका कोई आया है।’
हल्की नींद से शशि चौंककर जगी और सामने देखा कि वरुण आया है।
वरुण ने पूछा, ‘नींद आ गयी थी क्या?’
‘नहीं, नहीं। बस ऐसे ही पड़े-पड़े कब आँख लग गयी, पता ही नहीं चला।’
शशि गजेन्द्रनाथ और तजो के साथ सपने में भी नहीं जा पायी। काश सपने में कुछ दूर और चल पाती।
लेकिन गजेन्द्रनाथ और तजो के स्थान पर उसके पास राहुल का पिता वरुण आया था राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का सारा कामकाज नकीली आवाज़ वाले जगदीश मास्टर को सौंपकर।
शशि ने पूछा, ‘बस से आये क्या?’
‘हाँ रोडवेज की बस से आया हूँ।’, वरुण ने कहा और पूछा कि खाना खा लिया क्या।
शशि वरुण की आँखों की ओर देखकर बात नहीं करती। शायद इसलिए कि उन आँखों की अभिव्यक्ति उसकी समझ में नहीं आती। खिड़की के हिल रहे हरे पर्दे पर नज़रें टिकाकर शशि ने पूछा, ‘माँ-पिताजी ठीक हैं न। राहुल-नीपा का स्कूल चल रहा है क्या? तरुणी? भानु?’
‘हाँ-हाँ, सब ठीक हैं। बच्चों का स्कूल चल रहा है। तरुणी एक बार बुरी तरह गिर पड़ी थी, सर फट गया था। बाकी सब ठीक ही हैं३’
‘निरोद पाठशाला गया था क्या?’
‘नहीं गया। अच्युत की लिखी चिट्ठी मिलने पर ही पता चला कि वह तुम्हें इस तरह अकेला छोड़कर चला गया। पिताजी के गु़स्से का तो ठिकाना नहीं है। उन्होंने उसे घर आने के लिए पत्र लिखा है। उसे ऐसा अनुचित काम नहीं करना चाहिए था। ख़ैर जो हुआ सो हुआ। कोई चिन्ता करने की ज़रूरत नहीं है। मैं आज डॉक्टर से बात करूँगा। सम्भव हुआ तो कल या परसों तुम्हें वापस घर ले चलूँगा।’
पति की बातें सुनकर शशि के चेहरे पर नहीं बल्कि हृदय के अन्दर कैसी बिजली की रोशनी कौंध गयी थी, इसे वरुण देख नहीं पाया। रोशनी की वह कौंध गजेन्द्रनाथ, राहुल-नीपा, अमृतप्रभा और तरुणी आदि के प्रति न्यौछावर थी।
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राहुल-नीपा को ऐसा लगा मानो रोडवेज़ की लाल बस ने शशि को फिर से लौटा दिया है। क्योंकि उन लोगों ने देखा था कि लाल बस उनकी माँ को उनके पास से दूर कहीं ले गयी। आज उन लोगों ने देखा कि लाल बस पाठशाला के उसी बस अड्डे पर शशि को उतारने के बाद काफ़ी समय तक खड़ी रही। लगा कि शशि को वापस लौटाने के बाद बस ने थोड़ी देर के लिए प्रायश्चित्त भी किया।
शशि के डिब्रूगढ़ जाते समय बस अड्डे पर जितने लोग आये थे आज उतने लोग नहींं आये थे।
आज के बस अड्डे पर दुख-दर्द नहीं था। आज वहाँ उम्मीद की रोशनी थी। वे दोनों कैन्सर के मरीज़ आज भी वहाँ खड़े थे : गजेन्द्रनाथ और राहुल।
शशि की सेहत में थोड़ा सुधार हुआ है। गजेन्द्रनाथ ने सोचा होगा। इस दौरान किसने क्या सोचा होगा ठीक-ठीक पता नहीं। लेकिन इतना पता है कि पूजाघर में शालिग्राम को नहलाने के बाद चरणामृत पीते समय गजेन्द्रनाथ हमेशा सिर्फ़ शशि के बारे में ही सोचते थे। गजेन्द्रनाथ ने दो बार चरणामृत पीना शुरू कर दिया था, दूसरी बार शशि के लिए।
सेहत में पहले से थोड़ा सुधार देखकर गजेन्द्रनाथ को चरणामृत की याद आ गयी।
शशि को एक रिक्शे पर बैठा दिया गया। साथ में बैठे सूटकेस और राहुल-नीपा भी। रिक्शावाला ज़ोर लगाकर रिक्शा चलाने लगा। पीछे-पीछे आ रहे थे गजेन्द्रनाथ, वरुण और कक्षा नौ में पढ़ने वाला राहुल की बुआ का बड़ा बेटा चन्दन दादा। सबके मन में थोड़ी आश्वस्ति और थोड़ा कौतूहल का भाव था।
घर के फाटक पर ही खड़ी थी अमृतप्रभा। मालिनी आँगन में निकल आयी थी। भानु नये कमरे के बरामदे में खड़ी हो गयी। ‘माँ आ गयी, बड़ी माँ आ गयी’ कहकर सारे बच्चे शोर मचाते हुए फाटक से ही शशि के पीछे-पीछे घर के अन्दर दाखिल हुए।
शशि बड़ी बैठक में रखे पीढ़े पर बैठ गयी। छोटे-छोटे बच्चे शशि को पुराने मेहमान जैसे लगे। उनके चेहरे थोड़े लजा रहे थे।
वरुण शशि से भी अधिक थका हुआ लगा। तरुणी बुआ आज बरामदे की कुर्सी से उठकर इधर से उधर चहलक़दमी करने लगी। उसे भी आज बहुत खुशी हो रही थी। वह पी पी पी पी-बो बो बो कह कुछ कहना चाहती थी। वह गजेन्द्रनाथ को कहना चाहती थी कि पिताजी बोउ आयी है। शशि ने उठकर तरुणी के कन्धे पर पड़े कपड़े से उसके मुँह से निकली लार को पोंछ दिया।
शशि के लिए पोंछने लायक और भी बहुत कुछ था। उसने देखा भानु के चेहरे पर नारियल की छाया है, मालिनी के चेहरे पर अहेतुक रोशनी की किरणें हैं, अमृतप्रभा के चेहरे पर दुश्चिन्ता है और वरुण के चेहरे पर थकावट है। लेकिन इन सबको पोंछ देने के लिए शशि के पास कोई कपड़ा नहीं था। काश कि वह अपने आँचल से इन सबको पोंछ पाती। लेकिन नहीं। इस आँचल से उसके आँगन और बगीची में उधम मचाते बच्चों की बहती नाक पोंछने के अलावा और कुछ भी पोंछ पाना मुमकिन नहीं।
डिब्रूगढ़ से लौटने के बाद जैसे शशि एक चाँद बन गयी। और उस चाँद के पास राहुल और उसके भाई-बहन तारों की तरह हमेशा सटकर रहने लगे। पहले शशि अकसर बच्चों के छोटे-छोटे हाथ ऊपर उठाकर एक जादू दिखाया करती थी। वह जादू देखकर बच्चे शशि को किसी अलौकिक शक्ति की अधिकारिणी समझते थे।
शशि ने अब तक वह जादू किसी को नहीं सिखाया था। डिब्रूगढ़ से लौट आने के बाद एक दिन दोपहर को शशि ने वह जादू राहुल को सिखा दिया। एक साधारण-सा जादू। वह सिखाकर शशि उस दिन से राहुल की साधारण माँ बन जाना चाहती थी।
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जैसे गजेन्द्रनाथ नहीं चाहते थे वैसे ही कोई नहीं चाहता था कि घर यन्त्रणा में हमेशा झूलता रहे। शशि की यन्त्रणा के कण गजेन्द्रनाथ से लेकर एक साल के बुलबुल तक फैल गये थे। रात को गहरी नींद में सोये समूचे परिवार को यन्त्रणा सुबह होने तक झुलाती रहती थी। कभी-कभी रात को अचानक राहुल की नींद खुल जाती। वह थाह लेता, बन्द तो नहीं हो गया वह झूलना, नहीं अब भी झूल रहा है। फिर भी वह उठकर जाना चाहता है उस झूलने के स्रोत तक और झूले की रस्सी को हिलाते रहना चाहता। उस यन्त्रणा के दोलन को घर के सभी लोगों ने स्वीकार कर लिया था। यहाँ तक कि तरुणी बुआ, उसे भी अपने अनुर्वर दिमाग़ में महसूस होता उस झूले का हिलना। यन्त्रणा के उस झूले के बीच ही परिवार के सभी आना-जाना करते, फ़र्श पर बैठकर खाना खाते, बरामदे में बैठकर सुस्ताते, आँगन में धान सुखाते- बस किसी अन्यमनस्क जन्तु की तरह राहुल बीच-बीच में उस झूलन के कारण उलझ कर गिर पड़ता।
उसका खेलने में मन नहीं लगता। स्कूल जाने का मन नहीं करता। स्कूल के सबसे चंचल बच्चे को उसके साथी देखते कि वह ठुड्डी को दोनों हाथों पर टिकाकर बैठा है तो उसे हँसाने की कोशिश करते। कोई ब्लैकबोर्ड पर कुछ ऐसा लिखने की कोशिश करता कि राहुल को हँसी आ जाये, कोई चुटकुला सुनाता, कोई गुणामस्ती चोर की नकल करके दिखाता। गुणामस्ती का नाम लेते ही राहुल कहता, ‘चुप कर।’ क्योंकि गुणामस्ती से उसका दुख उलटे बढ़ जाता। क्योंकि गुणामस्ती कोई चुटकुला न होकर एक दुख का नाम था।
वरुण के ज़हन में क्या चल रहा था पता नहीं। लेकिन सभी जानते थे कि मृत्यु ही इस यन्त्रणा का हल है। ज़रूरत न होने पर जैसे रोशनी बुझा देते हैं वैसे ही मृत्यु थी। सभी उससे प्रार्थना करते। मृत्यु के ईश्वर से। पता नहीं कि मृत्यु का अलग से कोई ईश्वर है या नहीं।
शशि के बिछौने के ठीक ऊपर प्रकाश की व्यवस्था नहीं थी। उधर दोनों बड़े बक्सों के उस पार वरुण के बिछौने पर सारी रात एक चालीस वाट का बल्ब जलता था। उस बल्ब की रोशनी शशि को उस दिये की रोशनी जैसी लगती जो किसी के घर किसी की मृत्यु होने पर जलाकर रखते हैं।
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शहीद भवन के अहाते में चलने वाले नर्सरी स्कूल में जब राहुल और नीपा पढ़ते थे, राहुल नर्सरी क में और नीपा नर्सरी ख कक्षा में थे। उस नर्सरी ख में बजाली कालेज के प्रिन्सिपल की एकमात्र पुत्री भी पढ़ती थी। वह राहुल से एक साल बड़ी थी। आसानी से न हँसने वाली चमकती आँखों वाली उस लड़की के लिए राहुल गली-चौराहे पर अच्छी-अच्छी चीज़ें खोजता रहता। हरेश्वर दर्जी की दुकान के बाहर जलाने के लिए ढेर लगाकर रखे हुए रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरनें, सुन्दर-सुन्दर कंकर, किसी के गले के हार से टूट कर गिर गया मोती, चमकने वाला कोई काँच का टुकड़ा, ये सब चीज़ें राहुल की अमूल्य संपत्ति थीं जो वह प्रिन्सिपल की पुत्री को देना चाहता था। राहुल हमेशा कुछ न कुछ खोजकर ले आता और स्कूल जाते समय जेब में बड़ी सँभाल के साथ उन्हें ले जाता। दूसरों की नज़रें बचाकर वह उन्हें उसके हाथ में पकड़ा देता। उसके बदले में वह कभी-कभी उससे एक चुम्बन माँगता। किन्तु उसने कभी भी राहुल का चुम्बन नहीं लिया। वह उपहार बड़ी खुशी के साथ लेती और कभी-कभी अपने हाथ से राहुल के गाल को सहला भर देती। किसी ने उसे नहीं सिखाया था कि चुम्बन मत लेना। शायद उसने सिर्फ़ अपनी माँ को ही चूमा होगा। ऐसा लगता है अपने प्रिन्सिपल बाप के गालों को भी उसने कभी नहीं चूमा होगा, हालाँकि तीखी नाक और गोरे चिकने गालों वाले उस चेहरे की अपनी पुत्री से न सही अन्य बहुतों से चुम्बन पाने की अपार सम्भावना और योग्यता थी। सभी पुरुषों की तरह वह भी एक गठीले शरीर वाला नायक था। दुनिया में ऐसा कौन-सा नायक है जिसने वैध-अवैध हजारों चुम्बनों के बाणों को झेला नहीं है।
इसीलिए किसी को चुम्बन नहीं देने के कारण प्रिन्सिपल की पुत्री नन्दना राहुल के लिए साधारण लड़की नहीं थी।
बाकी सब कुछ साधारण था। चश्मा पहनने वाली कुसुम बहनजी अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाती थीं, उनकी आवाज़ धीमी और मीठी थी और कान्ता बहनजी, वे पहाड़ा सिखाती थीं और क, ख, ग। राहुल को हमेशा पास बुलातीं और उसके दायें गाल के तिल को अपने बॉलपेन से मूँग के दाने जितना बड़ा कर देतीं। राहुल के तिल को मूँग का दाना बनने से एतराज नहीं था। उन कान्ता बहनजी के लिए राहुल का गाल हमेशा तैयार रहता था।
उन दोनों प्यारी बहनजी के प्यार से अधिक ज़रूरत थी राहुल को नन्दना की अंगुलि का एक स्पर्श अपने गाल पर। नर्सरी स्कूल का मतलब ही क्या था- शोरगुल, रोना-धोना और नाक से बहता पानी। तब स्कूल बैग नहीं निकले थे जिन्हें पीठ पर लादा जा सके, टिफ़िन बॉक्स भी नहीं थे ताकि निकालकर दोपहर की धूप खा ली जाये। यह मान लिया गया था कि यूनीसेफ का पावडर दूध और बिस्कुट उन लाल-नीले बच्चे-बच्चियों को ज़रूरी पोषण देने के लिए काफी थे।
नर्सरी की क कक्षा में पढ़ते राहुल को नहाना बिलकुल पसन्द नहीं था। शशि कहती, ‘आज नन्दना आयेगी, तेरे को गन्दा देखेगी तो बात तक नहीं करेगी, तेरे पास तक नहीं आयेगी, चल नहा ले..’। ऐसा कहकर वह राहुल को जैसे-तैसे नलकूप के पास ले जाती और मुँह-आँखों पर साबुन मलकर उसे नहला देती। शशि के बीमार पड़ने के बाद से यह परेशानी का कारण हो गया कि राहुल को कौन नहलायेगा। पिता वरुण की बेंत की मार जब तक पीठ पर नहीं पड़ती, राहुल नलकूप तक नहीं जाता। नहाना हो जाने के बाद भी राहुल बहुत देर तक कमर पर अंगोछा बाँधकर नलकूप के किनारे खड़ा-खड़ा रोता रहता। रसोईघर से निकलने वाली बिल्ली रोते हुए राहुल को देखती- बिल्ली शायद सोचती इंसान के बच्चे भला किस दुख से रोते हैं।
नलकूप के पास से गजेन्द्रनाथ जब अपनी धोती के कोने से राहुल की आँखों और नाक का पानी पोंछकर उसे अन्दर ले जाते और उसके भींगे अंगोछे को जब खोलकर आँगन में बँधी रस्सी पर सूखने के लिए डाल देते तो वह अंगोछा बहुत खुश होता- धूप और हवा जब अंगोछे से पानी सोख लेते तो अंगोछे को बड़ा ही आनन्द आता।
डिब्रूगढ़ से आने के 45 दिन बाद उस दिन शशि को फिर से पेट का वह पुराना दर्द उठा। वह बिछौने पर लेट गयी। उस दिन नलकूप के पास राहुल पिता की बेंत के दाग और दुख पीठ पर लेकर यह ज़िद करते हुए ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था कि आज माँ ही उसे उठाकर अन्दर ले जाये। गजेन्द्रनाथ ने आकर समझाया, अमृतप्रभा ने समझाया, वरुण ने फिर से दो चाँटे लगाये, लेकिन राहुल टस से मस नहीं हुआ। बगीची के केले के पेड़ों ने उसे अपनी हरी आवाज़ में समझाया, ताम्बुल के पेड़ ने अपनी कर्कश आवाज़ में समझाया, यहाँ तक कि नलकूप ने लोहे जैसी कठोर आवाज़ में समझाया पर नहीं। आज राहुल किसी के समझाये समझने के लिए तैयार नहीं। उसके दिमाग़ में कोई कीड़ा घुस गया था उस दिन। वह शैतान के मल से जन्मा कीड़ा था, जिसने उसे ज़िद्दी और असहिष्णु बना दिया। और अपने विष को सारे घर में फैला दिया था।
रोना और रोना। लोर्का की कविता के गिटार की तरह रोना। शशि से तब सहन नहीं हुआ। चीज़ बस्त उठाना शशि के शरीर के लिए बिलकुल मना था, फिर भी वह बिछौने से उठ आयी, घर को एक बच्चे के रुदन से बचाने के लिए। नलकूप के पास से उसने राहुल के नहाये हुए नंगे शरीर को दोनों हाथों से उठा लिया। शशि की आँखों से टप-टपकर गर्म बूँदें उसके नंगे पेट पर पड़ने लगीं। क्या मार्मिक दृश्य था। रुदन को रोकने के लिए एक और रुदन। अमृतप्रभा सबसे छिपाकर अपने आँसू पोंछते हुए गौशाला की ओर चली गयी।
वह महान रुदन शान्त हो गया। शैतान का कीड़ा चुप हो गया। शशि ने जैसे-तैसे राहुल को कमरे के अन्दर लाकर बड़ी चौकी पर खड़ा किया और अपने बिछौने पर गिरकर लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगी।
उस दिन शशि ने जो बिछौना पकड़ा तो फिर छोड़ा नहीं। फिर से भात उसके गले के अन्दर जाने से मना करने लगा। फिर से वह सीलन भरी कोठरी दर्द के धुएँ से भर गयी। फिर से सारा घर व्यस्त हो गया। गजेन्द्रनाथ ने फिर से दो बार चरणामृत पीना शुरू कर दिया। फिर से वरुण को अलस्सुबह बगीची के एक सिरे पर खुदे गड्ढे में एक अलुमिनियम का बर्तन ले जाना शुरू करना पड़ा। फिर से आने लगा डॉक्टरों का डॉक्टर उमेश डॉक्टर, फिर से नीपा की साहित्य की पोथी के पन्नों पर दवा और इंजेक्शन के नाम लिखे जाने लगे। शान्ति नामक नर्स को फिर से उबले पानी में सिरिंज धोना शुरू करना पड़ा। इस बार शान्ति के चेहरे पर भी कहीं से बादलों का एक टुकड़ा आकर ठहर गया। अबकी बार शान्ति ने बच्चों को इंजेक्शन का डर नहीं दिखाया।
शशि ठीक नहीं हुई थी। बुझने से पहले जैसे दिये की रोशनी बढ़ जाती है वैसे ही शशि का चेहरा अच्छा दिखने लगा था। डॉक्टरों के डॉक्टर ने वरुण और गजेन्द्रनाथ के सामने एक दिन ये शब्द उच्चारित किये थे, ‘थर्ड स्टेज’। थर्ड स्टेज का मतलब गजेन्द्रनाथ समझ नहीं पाये थे। बुद्धू की तरह डॉक्टर से पूछा था, ‘ठीक हो जायेगी न?’
‘सिर्फ़ कुछ ही दिनों के लिए ये हमारे बीच हैं।’ डॉक्टर ने गजेन्द्रनाथ की सहनशक्ति पर भरोसा करते हुए यह वाक्य उचारा था। गजेन्द्रनाथ ने मुँह ही मुँह में दोहराया, थर्ड स्टेज थर्ड स्टेज..। गजेन्द्रनाथ ने महसूस किया उनकी छाती के अन्दर थर्ड स्टेज ने कुछ बनाना शुरू किया है।
उस निर्माण का नाम था शोक का शिल्प।
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वह दिन था अनुकूल चन्द्र ठाकुर का जन्मवार। यानी शुक्रवार। राहुल के घर की बड़ी बैठक के एक कोने में एक बड़ी आलमारी के पीछे बड़ा-सा आईना लगा था जिसके कारण उस स्थान का नाम हो गया ड्रेसिंग रूम। वहाँ अनुकूल ठाकुर का एक सफ़ेद आसन विराजमान था। ड्रेसिंग रूम होते हुए भी अनुकूल ठाकुर के सामने कोई भी अपने कपड़े नहीं बदलता था। वहाँ सभी आईने में देखकर अपने बाल सँवारते थे। शशि अपनी माँग में सिन्दूर भरती थी, सिन्दूर भरते समय थोड़ा-सा सिन्दूर ड्रेसिंग टेबल पर गिर जाता था। शशि रोज़ाना शाम को अनुकूल ठाकुर के सामने दिया जलाना और धूप खेना नहीं भूलती थी। शशि की तबीयत खराब होने के बाद से यह काम अब नीपा करती है। नीपा के साथ-साथ राहुल भी रहता। नीपा यदि दिया जलाती तो राहुल दिये की लौ में अगरबत्ती जलाता।
वरुण अनुकूल ठाकुर का शिष्य था। भाई निरोद के साथ घर से भागकर दोनों ने एक दिन अनुकूल ठाकुर की दीक्षा ग्रहण की थी। गजेन्द्रनाथ इस बात को आज भी समझ नहीं पाते कि घर पर एक शालिग्राम के होते हुए वरुण और निरोद को और एक भगवान की ज़रूरत क्योंकर हुई।
वरुण के कारण उसकी पत्नी शशि को भी अनुकूल ठाकुर की दीक्षा लेनी पड़ी। जिन दिनों शशि की बीमारी चल रही थी उन्हीं दिनों एक ऋत्विक (जिन्हें दीक्षा देने का अधिकार होता है) घर पर आये और उन्होंने शशि को दीक्षा दे दी। उन ऋत्विक को जब राहुल दिखायी दिया तो उन्होंने शशि को बुलाकर कहा कि इस लड़के को भी दीक्षा दिलाओ। सबका कल्याण होगा। जैसा कहा वैसा किया। वरुण राहुल को बुलाकर शशि के पास ले गया। और शशि ने अपना तपता हुआ हाथ राहुल के पतले-से हाथ पर रखकर कहा, ‘तुझे भी दीक्षा दिलायेंगे। दीक्षा लेने के बाद रोज़ाना नहाकर ठाकुर के आसन के सामने बैठकर इष्टवृत्ति करनी होगी। यह तुम्हारे लिए अच्छा होगा। हम सबके लिए अच्छा होगा। कल ऋत्विक आयेंगे। तुझे दीक्षा देंगे।’
राहुल के न करने का प्रश्न ही नहीं था। उल्टे इस बात ने उसे उत्फुल्लित कर दिया। अब तक राहुल ने देखा था कि सिर्फ़ माँ और पिताजी ही ठाकुर के आसन के सामने बैठकर मुँह ही मुँह में कुछ बुदबुदाते थे। इसके कारण अनुकूल ठाकुर ने राहुल के मन में एक जिज्ञासा पैदा कर दी थी। अब पता चलेगा कि मुँह में बुदबुदाने का रहस्य क्या है। अनुकूल ठाकुर का शिष्य बनूँगा सोचकर खुशी से नाच उठा राहुल का मन।
दूसरे दिन ऋत्विक आये। वरुण ने राहुल को नहला-धुलाकर ऋत्विक के सामने पेश किया। ऋत्विक राहुल को ड्रेसिंग रूम में अनुकूल ठाकुर के आसन के सामने ले गये। वहाँ सिर्फ़ एक सफ़ेद थोती पहने अनुकूल ठाकुर एक फ़ोटो फ्रेम के अन्दर बैठे थे। धोती के नीचे अनुकूल ठाकुर ने अंडरवियर पहना था या नहीं, राहुल को पता नहीं चला। लेकिन राहुल के मन में एक प्रश्न उठ चुका था, क्या भगवान भी अंडरवियर पहनते हैं? अनुकूल ठाकुर के बदन पर चमक रही जनेऊ इस बात की घोषणा कर रही थी कि वे एक ब्राह्मण हैं।
ऋत्विक ने राहुल को वह बीजमन्त्र सिखा दिया जिसे गुप्त रूप से हृदय में धारण करके रखना होता है। कोई दूसरा न सुने इस तरह उच्चारण करना चाहिए अपने मन ही मन में। ‘राधास्वामी’ ‘राधास्वामी’ कहकर उस बीजमन्त्र का उच्चारण करना चाहिए, ठाकुर रक्षा करेंगे। और ठाकुर को हमेशा इष्टवृत्ति के रूप में कुछ न कुछ पैसे चढ़ाने चाहिए। महीना समाप्त होने पर यह इष्टवृत्ति की राशि ठाकुर के जन्मस्थान देवघर भेजनी चाहिए। यही नियम है। राहुल चूँकि अभी छोटा है और उसकी अपनी कोई कमाई नहीं है इसलिए जब तक वह कमाने नहीं लग जाता इष्टवृत्ति की राशि अपने पिता से ले सकता है। ऋत्विक ने राहुल को अनुकूल चन्द्र ठाकुर के शिष्यत्व की यह प्राथमिक बात ठीक से समझा दी। मार्क्स के भक्तों को जिस तरह कॉमरेड कहते हैं, वैसे ही उस दिन से राहुल भी अनुकूल का शिष्य गुरुभाई बन गया।
दरअसल वह एक बहुत बड़ी साजिश थी। नहाने के नाम पर बिदकने वाले राहुल को नहलाने के लिए एक बहुत बड़ा षड्यन्त्र।
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उस दिन अनुकूल चन्द्र ठाकुर का जन्मवार देश के सबसे छोटे गुरुभाई के लिए सबसे क्रूर शुक्रवार बनकर आया। उस दिन सुबह से ही शशि आधी बेहोशी की हालत में थी। कुछ बोल नहीं पा रही थी, खा-पी नहीं पा रही थी और बस आँखें बन्द किये पड़ी थी। गजेन्द्रनाथ ने शशि की नब्ज़ देखकर कहा, इसे बाहर निकालना पड़ेगा। गजेन्द्रनाथ के कहे मुताबिक शशि को उस नीम अँधेरी डिटॉल की गन्ध वाली कोठरी से बाहर धूप से उज्ज्वल बरामदे में निकाल लाया गया। एक बाँस की चटाई पर बिछौना बनाकर शशि को उस पर सुला दिया गया।
हर शुक्रवार को अनुकूल ठाकुर के आसन के सामने किसी न किसी चीज़ का प्रसाद चढ़ाया जाता था। अकसर जानकी नामक बिहारी दुकानदार की दुकान से लाये बतासों में से दस-बारह बतासों का प्रसाद लगता। कभी घर पर बतासे न रहने पर एक चीनी मिट्टी की प्लेट में थोड़ी चीनी का प्रसाद चढ़ा दिया जाता। निश्चित है कि अनुकूल ठाकुर को डायबिटीज़ नहीं थी। यदि होती तो गुरुभाई लोग उन्हें बतासा-चीनी का प्रसाद बिल्कुल भी नहीं चढ़ाते।
उस दिन भी बतासों का डिब्बा खाली था। इसलिए अनुकूल ठाकुर को खाने के लिए मिली थी केवल चीनी। अनुकूल ठाकुर के साथ उनकी पत्नी, जिन्हें लोग बड़माँ कहते और उनका पुत्र, जिन्हें लोग बड़दा कहते, वे भी आसन पर रखे काँच के फ्रेम में निश्चिन्त होकर बैठे रहते। भगवान अनुकूल ठाकुर के परिवार के खाने के बाद वह प्रसाद लाकर जब राहुल ने अपनी माँ के होठों पर लगा दिया था तो माँ ने होठों को ज़रा-सा खोला था। लगता था शशि को सचमुच थोड़ी चीनी की ज़रूरत थी, या फिर वह राहुल की छोटी-सी अँगुली को होठों से छूना चाहती थी।
यह सब देख रहे गजेन्द्रनाथ ने थोड़ा-सा गंगाजल शशि के मुँह में टपका दिया। गंगाजल कैन्सर से लड़ने गले से अन्दर गया।
दोपहर के बाद चन्दन दादा साइकिल से नमाटी मौजा के मौजादार के पास गये और ख़बर दे दी, ‘आज मामी अधिक बीमार है, सुबह से ही होश नहीं है।’ हरेकृष्ण मामा और राधा मामा तुरन्त साइकिल से आ गये। मौजादार एक मुंशी को साथ लेकर ट्रक में आये। शशि की अन्तरंग सहेली, वरुण की बहन माला बुआ भी आयी हिमानी-पुतली आदि अपने बच्चों को पड़ोसी को सौंपकर। भाभी अधिक बीमार है सुनते ही दौड़ पड़ी। वह भाभी तो है, एक देवी है, इंसानों के साथ कैसे रहेगी? इस तरह अपने ही से बातें करते-करते माला बुआ कब शशि के पास आ गयी, पता ही नहीं चला। माला बुआ ने देखा शशि के चेहरे पर कोई हरकत नहीं है। वह शशि का मुँह हाथों से ज़ोर-ज़ोर से हिलाकर रोने लगी, ‘भाभी, ओ भाभी, इन छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर तुम चली जाओगी? पिताजी को छोड़कर चली जाओगी? पिताजी कैसे रहेंगे भाभी?’ माला के क्रन्दन से वहाँ मौज़ूद सभी लोगों ने अपनी आँखें पोंछ ली।
राहुल को अब समझ में आया कि माँ ने क्यों कल शाम को उसे अकेले में बुलाकर अपने पास बैठाया था और उसे जो कहा था उसका अर्थ अब समझ में आने लगा। वह निर्विकार होकर माँ के चेहरे की ओर ताकता रहा था। उसने लालटेन की मद्धिम रोशनी में साफ़ देखा था कि माँ के चेहरे पर प्यार के कुछ बिन्दु उग आये हैं। रेखा नहीं बन पाये उन बिन्दुओं को उसने अपने हाथ से छूकर देखा। उसके हाथ पर वे बिन्दु चिपक गये।
उसने माँ को कहना चाहा था, माँ तुम ठीक हो जाओगी, ठीक हो जाओगी ! लेकिन उसके मुँह से निकला, ‘माँ, मैं अब कभी भी तुम्हारी गोदी में नहीं चढ़ूँगा। मुझे गोद में लेने से तुम्हारी बीमारी बढ़ गयी। माँ तुम बस ठीक हो जाओ, अब से मैं कभी भी तुम्हारी गोद में चढ़ने के लिए ज़िद नहीं करूँगा। माँ तुम ठीक हो जाओगी न।’ कहते-कहते राहुल के दोनों गाल भींग गये।
राहुल के दोनों भीगे गालों को माँ ने हाथों से अपनी ओर खींचा और अपने गालों से सटा लिया। लालटेन की रोशनी से बिद्ध नियति ने माँ और पुत्र के उन चार गालों को बस आँसुओं से भींगने के लिए छोड़ दिया।
उसके बाद माँ ने कराहते हुए ये शब्द कहे, ‘मैं अब कभी ठीक नहीं होऊँगी मेरे बच्चे, मेरे बारे में मत सोचते रहना। मेरे मरने के बाद पिताजी को एक और माँ लाने के लिए कहना। कहना एक गोरी माँ लाये। बोलोगे न?’
राहुल ने सिर हिलाकर जवाब दिया, ‘बोलूँगा।’
वही थी शशि की अपने पुत्र को दी गयी आख़री नसीहत, जिस नसीहत का मर्म समझने लायक उसकी उम्र नहीं हुई थी। अपनी बात कहकर जब शशि ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी तो राहुल को आश्चर्य हुआ। शायद शशि को अपने बच्चों के भविष्य के कुछ धुँधले दृश्य दिखायी दिये होंगे और वरुण के परिवार की कल्पना कर वह फफक उठी थी।
जिस बात को शशि वरुण को सीधे नहीं कह पायी, गजेन्द्रनाथ को नहींं कह पायी, अन्तरंग सहेली-सदृश्य ननद माला को नहीं कह पायी, वह बात उसने केवल राहुल से कही। कैन्सर की पीड़ा से भी अधिक तकलीफ़ देने वाली थी इस बात की पीड़ा। हृदय को बेधने वाली उस बात का मर्म राहुल अच्छी तरह नहीं समझ पायेगा शायद इसीलिए शशि ने राहुल के सामने पति वरुण के लिए आँसुओं से भींगा हुआ यह प्रस्ताव छोड़ दिया था।
माँ को रोते देख फिर से राहुल की हिचकियाँ बँध गयीं। माँ ने राहुल के आँसू पोंछकर एक ट्रंक की ओर इशारा कर कहा, ‘उस ट्रंक में एक गोल डिब्बा है, तुम लोगों ने उस डिब्बे को पहले नहीं देखा है, चॉकलेट का डिब्बा। पिता ने मुझे छोटे में दिया था, उसमें कुछ रुपये हैं। पिताजी को कह देना उन्हें मेरे श्राद्ध में खर्च कर दे !’
स्वयं टूट चुकी शशि ने जैसे-तैसे अपने आपको सँभालते हुए राहुल को निर्देश दिया, ‘तुमलोग ठीक से रहना। एक-दूसरे को इस तरह प्यार करना जैसे मैं तुम लोगों को प्यार करती हूँ। नयी माँ को माँ कहकर बुलाना। नयी माँ को मेरी तरह प्यार करना।’
अनुकूल ठाकुर के प्रसाद की चीनी की प्लेट हाथ में ले राहुल सिसक उठा। उसे लगा कल माँ की कही बातों का अर्थ उसे आज ही समझ में आया है। लगा उसके दिल को किसी ने अपनी मुट्ठी में कसकर भींच लिया है। तो माँ क्या सचमुच चली जायेगी? माँ मर जायेगी? और फिर कभी वापस नहीं आयेगी? क्या होगा, तब इस घर का क्या होगा?
उसका मन किया कि माँ को अन्तिम बार के लिए चूम ले। उसने माँ के मुँह की ओर झुककर होठों को चूमने का प्रयास किया ही था कि तभी मालचन्द अग्रवाल ने उसे उसके कन्धे से पकड़कर दूर हटा दिया। कहा, ‘धत् क्या कर रहे हो?’
‘माँ का चुम्बन लेना चाहता हूँ।’
‘इस समय चुम्बन नहीं लिया जाता।’, मालचन्द ने थोड़ी तीक्ष्ण दृष्टि से राहुल की ओर देखकर कहा।
राहुल रुक गया। वह चुम्बन, जो वह अन्तिम बार माँ को देना चाहता था, होंठो तक आकर स्थगित हो गया, वह चुम्बन आज भी राहुल के होठों पर काँपता है, अतृप्त है उस चुम्बन की तृष्णा। एक अन्तिम चुम्बन-अब इस दुनिया में राहुल किसको देगा वह अन्तिम चुम्बन जो उसके होठों पर हाहाकार करता रहता है।
29
गजेन्द्रनाथ भागवत पाठ कर रहे थे। राहुल दादा के पास ही मुँह लटकाकर बैठा था। हरेश्वर दर्जी तजो को साथ लेकर बँसवारी की ओर चला गया था। थोड़ी देर बाद कौन से बाँस काटने हैं, उनको हरेश्वर दर्जी ने मन ही मन याद कर लिया। वरुण का मित्र मालचन्द अग्रवाल तो कब का आ गया था। अब मंगलीया अग्रवाल भी आ गया, साथ पत्नी भी है। वह इतनी सुखड़ी है कि मारवाड़ी महिला जैसी लगती ही नहीं। किराना की दुकान चलाने वाले नटीया अग्रवाल के चेचक के बड़े-बड़े दाग़ों से भरे चेहरे से भी सान्तवना के कुछ शब्द निकले। गजेन्द्रनाथ के प्रति उसकी विशेष श्रद्धा है। कौन नहीं आया था उस दिन विषाद के उस आँगन में। आँगन भर गया था औरतों की सिसकियों से। वे बदमाश लड़के, शराब, भांग पीने वाले, परीक्षा में नकल करते पकड़े जाने पर शिक्षकों के साथ मारपीट करने वाले, वरुण जिनका विशेष शत्रु था, उनके मन में भी शशि के प्रति श्रद्धा थी। वे भी बँसवारी की ओर गये थे।
सभी अन्तिम क्षण के लिए रुके हुए थे। बस एक संकेत की प्रतीक्षा थी और उसके बाद आँसू निकल पड़ेंगे किसी वेगवती नदी की तरह। और वह संकेत आया इस तरह : गजेन्द्रनाथ के भागवत पाठ करने के दौरान ही शशि का जो मुँह चित पड़ा हुआ था वह दायीं ओर लुढ़क गया। गजेन्द्रनाथ ने तुरन्त भागवत को बन्द कर रख दिया। नब्ज देखी और अपनी आँखों को हाथों से पोंछ लिया। डॉक्टरों के डॉक्टर उमेश डॉक्टर ने शशि की बन्द पलकों को हाथ से खोलकर उनमें टॉर्च की रोशनी फेंकी। डॉक्टरों के डॉक्टर ने घोषणा की, ‘चली गयी।’
कभी बेलतला की चाय दुकान को रोशन करने वाली चार गैस लाइटों में से तीन जल उठीं। पता नहीं क्यों उनमें से एक नहीं जला पाया तजो। गैस लाइटों में पम्प से हवा भरते समय तजो की आँखों से बहते आँसू देखकर गजेन्द्रनाथ ने कहा, ‘थोड़ी फुर्ती करो। एक लाइट बगीची की तरफ दे आना।’
हरेश्वर दर्जी ने शैतान लड़कों को वे बाँस दिखा दिये जिन्हें काटना है।
राधा मामा एक खूँटे से अपना सर टकराकर दहाड़ मारकर रोने लगा। सारे घर में हाय तोबा मच गयी। राहुल और नीपा राधा मामा के पास गये। राधा मामा क्यों इस तरह रो रहा है। वह क्या माँ से इतना प्रेम करता था। राधा मामा की ओर देखते-देखते दोनों एक-दूसरे को कन्धों से पकड़कर रोने लगे। एक-दूसरे को ‘मत रो, मत रो’ कहते हुए रोने लगे। राधा मामा और राहुल-नीपा के आँसुओं से खूँटे के पास के फ़र्श पर फिसलन हो गयी।
शशि किसकी क्या थी? ऐसा क्या था शशि में कि गजेन्द्रनाथ के अहाते में जल रही गैस लाइट की रोशनी में इतने सारे आँसू चमक रहे थे? गजेन्द्रनाथ ने अपने आध्यात्मिक अनुभव से जाना कि शशि उनकी बहू नहीं थी, उन्होंने अपने पुत्र की शादी शशि से इसलिए नहीं की कि उसे बहू बनाकर घर लाना है। शशि एक दुख का नाम था। उस दुख को ही गजेन्द्रनाथ पहचानते थे। उस दुख के लिए ही गजेन्द्रनाथ जी रहे थे।
गजेन्द्रनाथ को मामा कहकर पुकारने वाले गिरीन पुरोहित बामुनकुची से कब के आ गये थे। बामुनकुची में गजेन्द्रनाथ के पुराने घर से परिवार के सभी लोग आ गये थे। गिरीन पुरोहित ने अन्तिम संकेत का इन्तज़ार किये बिना ही अपनी तैयारियाँ शुरू कर दी। कुश-तुलसी-दूब वे अपने साथ लेकर आये थे। अब उन्हें तिल चाहिए, चावल चाहिए। अमृतप्रभा को खोज रहे हैं, ‘मामी कहाँ गयी। तिल चाहिए, थोड़ा चावल चाहिए !’
तरुणी बुआ को गार्डिनाल की दो गोलियाँ खिलाकर सुला दिया गया था। करवट लेकर सोयी हुई तरुणी के पास चुपचाप आँसू बहा रही अमृतप्रभा गिरीन पुरोहित को दिखायी नहीं दी थी। परिवार में क्या घट गया, तरुणी को पता ही नहीं था। तरुणी के लिए भी अमृतप्रभा का मन रोता है। तरुणी के बिछौने पर तनी मसहरी में घुसकर जैसे तरुणी की ओर से भी थोड़े आँसू बहा दिये अमृतप्रभा ने। अमृतप्रभा ने अपने आपको दिलासा दिया यह कहकर, शशि तो मेरी बहू नहीं थी, वह बच्चों की माँ नहीं थी, वह किसी की कुछ नहीं थी, शशि थी आकाश में उड़ जाने वाली एक चिड़िया की आत्मा!’
गैस लाइट की रोशनी में अर्थी बन गयी। दिसम्बर की ठण्ड थी। गिरीन पुरोहित ने निर्देश दिया, शव को तुरन्त अर्थी पर लिटाया जाये। निर्देश के अनुसार शशि को चटाई-बिछौना सहित अर्थी पर सुला दिया गया।
गजेन्द्रनाथ ने राहुल से पूछा, ‘तुझे माँ को मुखाग्नि देते समय डर तो नहीं लगेगा?’
राहुल ने दादा की धोती का पल्लू पकड़ते हुए कहा, ‘नहीं डरूँगा, आप भी तो साथ रहेंगे।’
दादा ने कहा, ‘हाँ, मैं तो रहूँगा ही।’
दादा ने राहुल से हाफ़ पैण्ट खोलने को कहा और छोटी-सी धोती पहना दी। गंजी भी खोल दी। उघाड़े बदन पर एक गमछा लपेट दिया।
कन्धे पर अर्थी उठाने वालों में से एक वरुण भी था। तीन लोग और थे हरेकृष्ण मामा, मालचन्द अग्रवाल और तजो। तजो थोड़ा नाटा होने के कारण शशि थोड़ी उसकी ओर लुढ़क गयी थी।
रात की निस्तबद्धता पाकर रुदन का स्वर अर्थी के पीछे-पीछे काफी दूर तक चलता रहा। गजेन्द्रनाथ के एक हाथ में पुवाल का जलता हुआ गुच्छा। दूसरे हाथ को राहुल ने कसकर पकड़ रखा था। गैस लाइट सबसे आगे-आगे चल रही थी।
बिसन्नला पुल पर गैस लाइट थोड़ी देर के लिए ठहरी। राहुल ने देखा कि कन्धे पर गैस लाइट ढोने वाला और कोई नहीं बीच-बीच में उसे बरफी के बदले पैण्ट के नीचे की गोरोई मछली को हिलाने के लिए कहने वाला नौकर था। राहुल का मन अपने ही अन्दर सिकुड़ गया।
पुल पार करने के बाद लोग बायें रास्ते से नीचे उतर गये। उन लोगों ने शहीद भवन और आज़ाद भवन पार किया। बजाली राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष वरुण ने अँधेरे में भी एक बार टेढ़ी नज़रों से अपने विद्यालय की ओर देखा। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के उस स्कूल में उस आधी रात को कोई भूत भी हिन्दी नहीं पढ़ा रहा था। यदि इस समय कोई हिन्दी पढ़ा रहा हो तो? यह ख़याल मन में आते ही राहुल के शरीर में एक सिहरन दौड़ गयी।
क्षीण बिसन्नला के पार पर जाकर वह काफ़िला रुक गया। वह स्थान श्मशान होते हुए भी वहाँ भयावहता नहीं थी। जैसे वह कोई कोमल, प्यारा श्मशान हो। शायद बहुत दिनों से कोई मरा नहीं होगा। श्मशान खाली पड़ा था। मात्र एक तुलसी का पौधा था, अकेला, ठण्ड में सिकुड़ता।
जब अर्थी सहित शशि को चिता पर लिटा दिया गया तो उसके मुँह से वेदना का कोई स्वर नहीं निकला। जब मोटी-मोटी लकड़ियाँ उसके शरीर पर लाद दी गयीं, तो लकड़ियों की फाँक से राहुल ने देखा, नहीं माँ को दर्द नहीं हो रहा। जैसे माँ हर चीज़ को बिना किसी प्रतिवाद के स्वीकार कर रही है। माँँ सबसे विदा ले रही थी।
गिरीन पुरोहित के निर्देश पर राहुल ने धुआँ फेंकता हुआ पुवाल का गुच्छा दादा के हाथ से अपने हाथ में ले लिया। मन्त्रोच्चारण के बीच उसने सात फेरे लगाये और सो रही माँ की चिता में आग लगा दी। घी से भींगी लकड़ियाँ आग मिलते ही धू-धू कर जल उठी।
जलती चिता से निकल रहे ताप से बचने के लिए राहुल थोड़ा पीछे की ओर घिसक लिया, और गजेन्द्रनाथ के शुभ्र हाथ को पकड़ खड़ा-खड़ा माँ को देखता रहा। आग की लाल और पीली रोशनी में माँ का सुनहरा हो चुका चेहरा राहुल को प्यारा लग रहा था। राधा मामा के गले से फिर से रुलाई फूट पड़ी। वरुण राधा मामा के पास गया और रोते-रोते ज़मीन पर बैठ चुके राधा मामा को खड़ा कराया और पीठ पर सान्त्वना का हाथ धरे रखा।
अचानक राहुल ने देखा कि आग के बीच से माँ उसकी ओर देख रही है। हाँ, आग के बीच से शशि राहुल को देखकर वापस लौटना चाहती थी।
वरुण को देखकर नहीं।
30
अमृतप्रभा के सोचने के मुताबिक शशि चिड़िया बनकर आसमान में नहीं उड़ गयी थी।
बिसन्नला के किनारे के उस प्यारे-से श्मशान की राख से निकलकर शहीद भवन के गुम्बद के पास से होते हुए शशि चली गयी थी गजेन्द्रनाथ के हृदय के उस कठिन बिछौने पर किसी सात वर्षीय लड़की की तरह गुड़ी-मुड़ी होकर पड़ी रहने के लिए। राहुल और नीपा के हृदय की छोटी कोठरी में एक मोढ़ा लेकर उस पर बैठे रहने के लिए। तजो के हृदय के आकाश में एक तारा बनकर चमकने के लिए। माला बुआ के हृदय में एक गहरा गड्ढा बनने के लिए जिसका पानी कभी नहीं सूखेगा।
और अमृतप्रभा?
हाँ। जैसा अमृतप्रभा ने सोचा था वैसे ही उसके हृदय के आकाश में एक अकेली चिड़िया बनकर शशि उड़ती रही। उस चिड़िया को किसी और ने नहीं देखा।
उसके बाद शशि कहीं-कहीं फैल गयी। जैसे राख उड़कर फैल जाती है। शशि की आत्मा भी उसी तरह फैलकर कहीं-कहीं पड़ी रही।
जहाँ धूप का आना निषिद्ध था वरुण के उस अँधेरे सीलन भरे कमरे में भी गयी थी वह राख शायद टिन के बक्स में बन्द हो जाने के लिए।
लेकिन उस आत्मा को औपचारिक रूप से विदाई भी देनी थी। गिरीन पुरोहित लगातार कई दिनों तक आते रहे। गजेन्द्रनाथ की धोती का पल्लू पकड़कर राहुल बिसन्नला के पानी में पिंडदान करने के लिए गया था। राहुल के चार छोटे भाई पीछे-पीछे घण्टी बजाते हुए गये थे।
छह छोटे-छोटे सिरों पर उस्तरा चलाते हुए रामलाल नाई थक गया था। उसने राहुल और उसके भाइयों के सिरों को अपने घुटनों में इस तरह भींच लिया था कि वे सिर हिला-डुला न सके। सिर मुँडवाते समय राहुल ने रामलाल नाई की झीनी धोती के पार देखा था कि उसके दोनों अण्डकोष ज़मीन को छूना चाह रहे थे।
राहुल का सिर मूँडते समय उस्तरे से थोड़ा-सा छिल गया था और वहाँ से ख़ून निकलने लगा था। रामलाल ने चुटकी में थोड़ी-सी मिट्टी लेकर उस स्थान पर लगाकर ख़ून का निकलना बन्द कर दिया था। और आँखों के इशारे से राहुल को समझा दिया था कि इसके बारे में किसी से न कहे। राहुल ने किसी से नहीं कहा। सिर से ख़ून निकलना। यह तो एक साधारण-सी बात थी। उसके अन्दर से जो ख़ून निकल रहा है उसे कौन रोकेगा?
छह मुँडाये सिर देखकर इस बार अमृतप्रभा की छाती में एक हूक उठी और वह बुक्का फाड़कर रो उठी। छह-छह मुँडाये हुए सिर देखने के लिए मुझे क्यों ज़िन्दा रखा प्रभु। यही सब देखने के लिए मुझे ज़िन्दा रखा है क्या...?
अमृतप्रभा का कलपना देखकर सभी की आँखों से आँसू निकल आये। गौशाला में गायों ने भी अपने शरीर पर पूँछ मारना शुरू कर दिया। यहाँ तक कि गिरीन पुरोहित की आँखें भी भर आयीं। (शायद भगवान ने नहीं कहा होगा, मत रो, मत रो गिरीन पुरोहित)। और लघुशंका करने के बहाने वे बगीची की ओर जाकर अपने आँसू पोंछ आये।
शशि के श्राद्ध में आये लोग जब दोपहर बाद पंछियों की तरह अपने-अपने घर को लौट गये तब तक सूरज डूब चुका था। उस सूरज डूबने की बेला में वरुण के राजस्थानी मित्र मालचन्द अग्रवाल ने सभी के सामने वरुण के दूसरे विवाह का प्रस्ताव रख दिया। हालाँकि वह निरा प्रस्ताव था लेकिन लगता था वह एक घोषणा है।
इस प्रस्ताव पर अमृतप्रभा सहित घर की सभी औरतों की आँखों से आँसू निकल आये। लेकिन उन लोगों ने अपने-अपने पल्लू से वे आँसू पोंछ लिये। इसलिए प्रस्ताव किसी के आँसुओं से भींगकर गल नहीं गया।
सिर्फ़ अमृतप्रभा को इस प्रस्ताव पर गम्भीर आपत्ति थी। अमृतप्रभा ने कहा, ‘रहने दो रे, ऐसा मत करो। इन छह बच्चों को सौतेली माँ के हाथों का भात नहीं खिलाना है। मैं इन सबको सौतेली माँ के हाथों नहीं सौंप सकती। पाप तो मुझे भी लगेगा।’
मालचन्द का तर्क था, ‘आप कैसे सँभालेंगी इतने सारे बच्चों को चाची? आपके तो तरुणी नामक एक बोझ पहले से ही गले से झूल रहा है। जब बच्चों की देखरेख नहीं होगी तभी न आपको पाप लगेगा।’
एक कान से दूसरे कान होते हुए फैल चुका यह विचार विमर्श राहुल ने भी सुना था। उसने सोचा, यही सही समय है कि माँ की कही बात सबको बता दी जाये।
उसने अमृतप्रभा, बड़ी बुआ, माला बुआ सहित जितनी औरतें थीं सबके सामने वह बात बता दी जो उसकी माँ ने उसे सिसकते हुए कही थी, ‘हाँ, माँ मुझसे कह गयी है पिताजी को एक नयी गोरी माँ ला देने के लिए। और कह गयी है कि ट्रंक में एक डिब्बा पड़ा है जिसमें रखे रुपयों को श्राद्ध में खर्च कर दिया जाये।’
राहुल ने यह बात पहले नीपा को भी नहीं बतायी थी। इसलिए उसने सोचा क्या सचमुच माँ ने राहुल को यह बात कही होगी? वह एक अनजानी आशंका से डरकर सिसकने लगी।
वरुण वह ट्रंक खोलकर डिब्बा ले आया और देखा कि सचमुच उसमें रुपये हैं। इस तरह राहुल की बात सच साबित हो गयी। सबने राहुल को घेर लिया। वरुण, मालचन्द और मंगलिया ने उसे प्यार से पूछा, ‘बता तो माँ ने और क्या क्या कहा था।’
राहुल ने वही बातें दोहरा दीं।
उसे पता नहीं था कि उस बात के पीछे कैसा भविष्य छिपा हुआ है।
राहुल की बातें सुनने के बाद औरतों में फिर से हाय तौबा मच गयी। गजेन्द्रनाथ गम्भीर हो गये। उन्होंने सोचा, इन सब बातों पर सोचने के लिए क्या आज श्राद्ध का दिन ही बचा था। उन्होंने मन ही मन शालिग्राम की ओर तिरछी नज़रों से देखा। शालिग्राम सो रहे थे।
जो भी हो, राहुल की बातें सुनने के बाद मालचन्द अग्रवाल के माध्यम से आये वरुण की दूसरी शादी के प्रस्ताव को और भी मज़बूती मिल गयी।
इस तरह शशि की जीवन गाथा का अन्त हुआ और एक नयी कहानी के जन्म की तैयारी शुरू हुई। गजेन्द्रनाथ निर्विकार बैठे थे। ऐसे संकट के समय भी उन्होंने चरणामृत की दुहाई देकर शालिग्राम से कुछ नहीं माँगा। बेचारे गजेन्द्रनाथ।
यह अंश नीलिम कुमार के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास से लिया गया है।