20-Jun-2021 12:00 AM
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ज़ीनू के नाम
सुबहे-क़यामत एक दुम गुर्ग थी असद
जिस दश्त में वो शोख़े दो आलम शिकार था
मिजऱ्ा ग़ालिब
पाठक की पैदाइश उस वक़्त होती है, जब लेखक की मौत हो जाती है।
- रोलाँ बार्थ
इंसानों के ज़रिए किये गये तमाम काम असमलैंगिक, असम्बन्ध्ाित, नामुनासिब और
बे मौक़ा होते हैं। चाहे वो शाइर और लेखक हों या व्याकरण के विद्वान।
- हरमैन ब्रोख़
छन्द से ख़ाली कोई शब्द नहीं होता और न ही शब्दों से ख़ाली कोई छन्द।
- नाट्यशास्त्र
ये यक़ीनन मौत की तीसरी कि़ताब है जिसको हाजि़रे खि़दमत करते हुए मैं बस दो या तीन बातें कहना चाहता हूँ। सबसे पहले तो ये कि मेरी तमाम पिछली तहरीरों की तरह इस कि़ताब में भी वही ख़राबियाँ मौजूद हैं जिनकी काफ़ी शोहरत रही है। बल्कि मुमकिन है इस बार पहले से कुछ ज़्यादा ही हों। दूसरी बात ये है कि ज़्ाुबान का एक काम चीज़ों की नुमाइन्दगी करना ज़रूर है। मगर किसी भी रचनात्मक आख्यान में शब्द महज़ बाह्य या आन्तरिक सच की नुमाइन्दगी नहीं करते। वरना इस तरह तो हर कला एक दूसरे दर्जे की वस्तु बन कर रह जाएगी। यानी नुमाइन्दगी करने का महज़ एक माध्यम रचनात्मक भाषा में शब्द आपस में मिलकर जो आख्यान रचते हैं, उसे अपने आपमें एक मुकम्मल और पूर्ण दुनिया होना चाहिए। आत्म निर्भर और स्वोद्देश्य सच्चाई। मेरे लिए परेशानी का कारण यही है क्योंकि इंसानों के शब्द परछाइयों की तरह होते हैं और परछाइयाँ रोशनी के बारे में हमें कुछ नहीं समझा सकतीं। रोशनी और परछाई के दरम्यान की एक ध्ाुँध्ाली सतह होती है जहाँ से लफ़्ज़ पैदा होते हैं। भाषा की ये दो सरहदें जहाँ मिलती हैं वहाँ खींची गयी एक लकीर पर मेरी तहरीर अकेली और बे यार-ओ-मददगार भटकती रहती है। अपने मानी की तलाश में जो भाषा के इस दो मुँह वाले रहस्यमय साँप जैसे रवैय्ये की वजह से कभी एक स्थान पर नहीं ठहरते। मुमकिन है कि इस कि़ताब में ये समस्या ज़्यादा गम्भीर हो। तीसरी और आखि़री बात ये कि यहाँ उर्दू के प्रमाणित शब्दकोष, व्याकरण,... वग़ैरा को अमान्य तो नहीं किया गया है, मगर हर जगह बहुत सख़्ती से पाबन्द भी नहीं रहा गया है। इसलिए कि ये कि़ताब दर अस्ल बहते हुए वक़्त और पानी की कि़ताब है।
- ख़ालिद जावेद
आदत हमें फ़ुरसत फ़राहम करती है और हम सुरक्षित हो जाते हैं। आदत हमें संवेदनशील नहीं रहने देती। आदत संवेदनशीलता की दुश्मन है।
- जे ़ कृष्णमूर्ति
किसी भी फ़नपारे को समझने से ज़्यादा उसको महसूस करना चाहिए, जहाँ तक समझने की बात है हम गणित के एक सवाल तक को नहीं समझते हैं, और न ही महसूस करते हैं। हम वहाँ पहले से कुछ फ़र्ज़ कर लेते हैं। और सवाल हल करने का अभ्यास करते रहते हैं। फिर ये अभ्यास हमारी आदत बन जाती है। हम हर समस्या से आदतन गुज़रना सीख जाते हैं।
- बर्गमैन
तो इस तरह दुनिया ख़त्म हो जाएगी। ध्ामाके के साथ नहीं, बल्कि एक कमज़ोर सिसकी के साथ।
टी ़ एस ़ ईलियट
सुबह के ठीक आठ बजे सरहाने लगे हुए एलार्म ने उसे जगा दिया। सर दर्द से फटा जा रहा था। वह आँखें मलते हुए उठ खड़ा हुआ। खिड़की के परदे से शीशा सरकाया। बाहर वही पीली-पीली-सी ध्ाुँध्ा था। तीन दिन पहले एक ध्ाूल भरी, पीली आँध्ाी आयी थी मगर फिर यहीं आकर रुक गयी, आगे नहीं गयी। अब हवा बिलकुल बन्द थी मगर आँध्ाी का ग़्ाुबार ठहरा रहा। अगर बारिश हो जाती तो ये ग़्ाुबार ध्ाुल जाता मगर बारिश का दूर तक पता न था। कुछ चीज़ें ऐसी ही होती हैं। वह एक जगह पहुँच कर रुक जाती हैं, वह जिन पहियों पर सफ़र करती हैं वह जाम हो जाते हैं।
ये बड़ा मनहूस मौसम होता है, ये बड़ा हब्स पैदा करता है। उसने कहा। हर मौसम ख़राब होता है। उसकी बीवी उकता कर बोली। वह कमरे से निकल कर सीध्ाा ट्ाॅयलेट में चला गया। आठ मिनट बाद, ठीक आठ मिनट बाद उसने फ़्लश की ज़ंजीर खींची। पानी के रेले की गड़गड़ाहट के साथ नाक़ाबिले बरदाश्त बदबू का रेला भी आया। उसने घबराकर नाक बन्द कर ली। फिर नाली बन्द हो गयी। उसने सोचा, सड़ान्ध्ा ही सड़ान्ध्ा है। उसके सर के दर्द में और भी इज़ाफ़ा हो गया। बाहर आया, वाॅश बेसिन पर झुक कर कुल्ली करने लगा। मुँह कुछ नमकीन हो गया और ज़्ाुबान कड़वी। दाँत किरकराने लगे। वह बड़बड़ाने लगा। कई दिन से रात में सो नहीं पाता। मुँह के ज़ायक़े का सत्यानाश होकर रह गया। सोओगे भी तो कैसे? आध्ाी आध्ाी रात को तो उठ कर मेरे ऊपर चढ़ने की कोशिश करते हो। तुम चढ़ने देती हो? हो भी इस क़ाबिल? मेरा क्या यही उपयोग रह गया है, क्या मैं कोई काई लगी चट्टान हूँ कि तुम चढ़ते रहो और फिसलते रहो बल्कि फिसलों कुछ ज़्यादा ही। कड़क चाय बना कर लाओ। रात में बताऊँगा चाय लाओ, फिर मैं जाऊँ नहाने, जल्दी आफि़स पहुँचना है। उसने कहा, दफ़्तर जाकर करते क्या हो, एक पैसे की कमाई नहीं। बीवी रुखाई से बोली। अच्छा, इतने ऐश तो कर रही हो। ऐश? इतना बजट तो बढ़ा नहीं सके कि एक बच्चा ही पैदा हो जाता। यही रट लगा रखी है कि अभी नहीं। तीन साल हो गये, शादी को, इस मनहूस शादी को। देख लेना मैं जल्दी ही इस उम्र से निकल जाऊँगी। चाय, मैंने कहा ना कि चाय की प्याली। गर्म, बहुत गर्म। आज मौसम बहुत ख़राब है। बीवी पैर पटकती हुई रसोईघर की तरफ़ जाने लगी। तुम्हारे हाथ के बनाये हुए मकानों के नक़्शे किसी को एक आँख नहीं भाते। कोई उन्हें पसन्द नहीं करता। पता नहीं कैसे आर्किटेक्ट हो। हो भी या जाली डिगरी है। ऊपर से आफि़स खोल कर बैठे हैं। ग्लोबल कंस्ट्रक्शन कम्पनी, हुँह। वो उसे किचन में इध्ार उध्ार चलता फिरता देख रहा था। उसकी चाल में उत्तेजना थी। वह ज़हरीले अन्दाज़ में मुस्कराने लगा।
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ये एक छोटा-सा शहर है। आस-पास के छोटे छोटे गाँवों से घिरा हुआ। शहर के इलाक़े से वह राजमार्ग बहुत नज़दीक है जो मुल्क के पश्चिमी क्षेत्र को पूर्वी क्षेत्र से मिलाता है। इस शहर में या तो मालदार बनिये हैं जिनकी औलादें डोनेशन के ज़रिए डिगरी पास कर करके अपने क्लिनिक और नर्सिंग होम खोलती जा रही हैं। या फिर कामगार और मामूली कारीगर हैं, बढ़ई, दजऱ्ी, कढ़ाईकार और राजगीर तो यहाँ के दूर दूर तक मशहूर हैं। यहाँ का सुर्मा और फ़र्नीचर विदेशों तक जाता है। ये एक साफ़ सुथरा शहर है। (अब तो ख़ैर सारे शहर में खुदाई का काम चल रहा है।) और मज़हबी उदारता व अम्न ओ अमान के लिए भी पूरे राज्य में शोहरत रखता है। यही कारण है कि जि़ले के सारे बड़े अध्ािकारी अपनी मुलाजि़मत से सेवा निवृत्त होने के बाद मुस्तकि़ल तौर पर यहीं बस जाना चाहते हैं। इसलिए शहरी तरक़्क़ी के नाम पर पिछले पाँच छह सालों से यहाँ कई क़ीमती प्रोजेक्ट पर काम चल रहे हैं और बिल्डर माफि़या शहर में रोज़ ब रोज़ मज़बूत होता जा रहा है। कई छोटे छोटे गाँवों की ज़मीनें कट कट कर कालोनियों में बदल चुकी हैं। शहर फैलने लगा है और आसपास के इलाक़ों में दूर तक फ़्लैट बनते हुए नज़र आते हैं। उनके चारों तरफ़ कई शापिंग माल भी खुल गये हैं और कुछ फ़ैक्ट्रियाँ भी जो लोकल सियासी कशमकश का अच्छा नतीजा है। उन्हीं में वो मशहूर गोश्त फै़क्ट्री भी है जहाँ आध्ाुनिकतम मशीनों के ज़रिए बड़े जानवर जि़बह किये जाते हैं और उनके गोश्त की, अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के मुताबिक़ उम्दा पैकिंग की जाती है और उसे न सिफऱ़् मुल्क के दूसरे हिस्सों में बेहद एहतियात, सफ़ाई और सेहत के सरंक्षण के उसूलों का ख़्याल रखते हुए पहुँचाया जाता है बल्कि कई खाड़ी देशों को निर्यात भी किया जाता है। जि़बह में निकले हुए ख़ून को मशीनों और पाइपों के ज़रिए ज़मीन के अन्दर पहुँचा दिया जाता है। साफ़्ट और कोल्ड ड्रिंक बनाने वाली मशहूर कम्पनियों ने भी अपनी अपनी फैक्ट्रियाँ शुरू कर दी हैं जहाँ उन पेयों का ड्राई फ़ारमूला पावडर की शक्ल में तैयारशुदा रूप में भेजा जाता है मगर पानी नहीं। पानी को स्थानीय स्तर पर ही फ़राहम किया जाता है। आउट सोर्सिंग और सरमाया कारी का ये एक मुनाफ़ा बख़्श कारोबार है। इसके अलावा तालीम के निजी सेक्टर में शामिल किये जाने के बाद से यहाँ इन्जीनियरिंग, मेडिकल और मैनेजमेण्ट कालेज बहुत बड़ी तादाद में खुलते जा रहे हैं। ये शहर छोटा है और फैलाव बर्दाश्त नहीं कर सकता। इसलिए जंगल, खेत, तालाब और झीलें सब सीमेंट के घरौंदों में तब्दील होते जा रहे हैं। यही नहीं जगह जगह फ़्लाई ओवर बनाये जा रहे हैं। इसलिए पिछले कई सालों से ये पूरा शहर उध्ाड़े हुए स्वेटर की तरह नज़र आने लगा है। सड़कें गलियाँ सब खुदी हुई नज़र आती हैं। चलने वालों को इसी मलबे से बच कर निकलना होता है। चाहे उन्हें अस्पताल जाना हो या कचहरी या फिर सड़क किनारे खड़े होकर गोल-गप्पे ही क्यों न खाने हों। बहुत संभल कर चलना होता है। कहीं भी कोई गड्ढा रास्ते में आ सकता है जिसमें कीचड़ और पानी भरा हो। गड्ढे में गिरकर कोई भी अपने हाथ पैर तुड़वा सकता है या फिर सड़क के बीचो-बीच डाली जा रही सीवर लाइन के खुले हुए मैन होल पल भर में किसी के पेट से निकली हुई आँत या केंचुए की तरह आपको शहर के दूसरे हिस्से पर बहने वाली कि़ले की नदी के किनारे पर बनी बायो गैस के प्लान्ट में पहुँचा कर जहन्नम रसीद कर सकती है। इन नयी बनी हुई कालोनियों तक जाने के लिए आपको इतना होशियार तो रहना ही पड़ेगा। चाहे आपके पास बाइक हो, साइकिल हो या रिक्शा हो मगर सबसे ज़्यादा ख़तरा तो पैदल ही चलने वालों को उठाना पड़ेगा और अगर इत्तिफ़ाक़ से बारिश हो रही हो, फिर तो कहना ही क्या।
ये भी एक नयी सोसाइटी बन कर तैयार हुई है। तीन मंजि़ला फ़्लैटों की। इसका नाम लाइफ़ अपार्टमेन्ट है। इस कालोनी के सारे मकान बाहर से पीले रंग से पुते हुए हैं और मकान के अन्दर बाहर के रंग से कुछ कम पीला रंग किया गया है। पिछले आठ सालों से यही रंग फै़शन में है और आर्किटेक्ट मकानों के नक़्शे तैयार करने के बाद इस रंग की सिफ़ारिश करता है। उसका ख़्याल है कि मकानों के डिज़ाइन से इसी रंग का एक ख़ास सम्बन्ध्ा है। इस रंग का फि़लहाल एक फ़ायदा यह भी है कि बाहर फैली हुई पीली ध्ाुन्ध्ा की वजह से ये छोटे फ़्लैट कुछ फैले हुए और लम्बे चैड़े नज़र आने लगे हैं। एक छोटा-सा पार्क। चन्द ज़रूरी सामान की दुकानें और हर वक़्त यहाँ तक कि दिन में भी रौशन नियोन लाइट्स। ये वह बातें हैं जिनसे लाइफ़ अपार्टमेन्ट की तश्कील ओ तामीर होती है। ये जिस ज़मीन पर बनी है वह पहले एक तालाब थी, जिसे पाट पाट कर और मिटटी डाल डाल कर सूखी ज़मीन में बदल दिया गया है। तालाब के किनारे कभी एक बहुत पुराना क़ब्रिस्तान भी हुआ करता था जिसकी क़ब्रें न जाने कब की ध्ांस चुकी थीं और अब वह एक बड़े से गड्ढे में बदल चुका था। एक ज़माने से इस क़ब्रिस्तान में कोई फ़ातिहा तक पढ़ने नहीं आता था। और न ही कोई मुर्दा दफ़्न होने। चन्द साल पेशतर तक कुछ आसेबी कहानियाँ भी इस जगह से मानी जाती थीं। मगर अब शहरी योजना बन्दी और तरक़्क़ी की शानदार और जगमगाती हुई रौशनियों ने अन्ध्ाविश्वास, ख़ौफ़ और दहशत को हमेशा के लिए अपने अन्दर निगल लिया था। अब शायद ही किसी को ये भी याद रह गया हो कि उस तालाब से मिली हुई एक बहुत छोटी और पतली-सी नदी भी बहा करती थी और इस तरह की कालोनियों में बने हुए मकानात की बुनियादें इंसानी पिंजरों और हड्डियों की राख और चूने पर टिकी हुई थीं। वैसे भी इस कि़स्म की बातों को याद करना या याद रखना दोनों ही सिरे से बेतुका था। और किसी हद तक अनैतिक भी क्योंकि नैतिक मूल्यों का सम्बन्ध्ा हमेशा अपने ज़माने से हुआ करता है। ‘ज़माने’ को तो बुरा कहा ही नहीं जा सकता, मुमकिन है कि ज़माना ही ख़ुदा हो। और ये ज़माना एक दूसरी और वैकल्पिक नैतिकता गढ़ रहा था।
लाइफ़ अपार्टमेन्ट में बिजली का कनेक्शन तो बहुत जल्द हो गया था। मगर पानी की कि़ल्लत अभी भी किसी हद तक मौजूद थी। जि़ला जल बोर्ड का पानी चैबीस घण्टे में सिफऱ़् दो बार आता था जिसका कोई वक़्त तै न था। इसलिए उसे स्टोर करके रखना पड़ता था। पानी के स्रोत पूरी दुनिया में तेज़ी से कम होते जा रहे हैं। अगले सौ साल में हमें पानी के बग़ैर ख़ुशदिली के साथ जि़न्दा रहना सीखना होगा और इंसान की नस्ल को पानी का कोई बदल ढूँढना होगा। सोसाइटी की प्रबन्ध्ान समिति ने अपना बोरिंग अलग से करवा रखा था मगर बोरिंग का पानी बहुत खारा था और उसमें कैलशियम मैगनीशियम, सोडियम और पोटेशियम की मात्रा ख़तरनाक हद तक थी। इस पानी में रेत और मिट्टी कण भी मिले हुए थे जिनकी वजह से पानी का रंग ध्ाुंध्ाला और मटियाला था। ज़ाहिर है इस पानी को पीना मुश्किल भी था और ख़तरनाक भी। ख़ास तौर से गुर्दों और फेफड़ों के लिए। बोरिंग के पानी को उबालकर या छान कर बल्कि आर ओ के ज़रिए भी आलूदगी दूर नहीं की जा सकती थी। ये पानी सिफऱ़् ट्ाॅयलेट और किसी हद तक नहाने या कपड़े ध्ाोने में ही बहालते मजबूरी इस्तेमाल किया जा सकता था। ऊपर से तुर्रा ये कि हर दो तीन महीने के बाद बोरिंग बन्द हो जाया करता था। और फिर नये सिरे से कोई दूसरी जगह तलाश करके वहाँ की ज़मीन को खोदना पड़ता और बोरिंग कराना पड़ता। मगर मोहल्ले के ज़लील और निचले वर्ग के लोगों के दरमियान रहने से कहीं बेहतर था कि हर शरीफ़ आदमी को इस तरह की नयी कालोनियों में आकर बस जाना चाहिए। यहाँ इतनी रौशनी थी, इतना सुकून था और बुलन्द समाजी मक़ाम था। सबसे बढ़ कर ये कि यहाँ शरीफ़ों के बच्चों को खेलने के लिए अच्छे अच्छे पार्क हैं और वह अब मोहल्ले के घटिया लोगों के बच्चों के साथ खेल कर बिगड़ेंगे नहीं। अब रहा वह ज़र्द ग़ुबार और रही वह पीली ध्ाुन्ध्ा तो जहाँ नयी तामीर होती है वहाँ ये गु़बार और मलबा होना लाज़मी है। इस गु़बार को देखा ही क्यों जाए। ज़मीन खोदी जा रही है। उसमें गड्ढे किये जा रहे हैं। चारों तरफ़ मिट्टी उड़ रही है या फिर कव्वे। इस गु़बार को देखा ही क्यों जाए, इन कव्वों की काँय काँय सुनी ही क्यों जाए। आँखों पर काला चश्मा लगा लिया जाए और घर से निकलने से पहले और घर पहुँचने के बाद अच्छी तरह मल मल कर नहा लिया जाए। बस इतना ही तो करना है। अपार्टमेण्ट के तक़रीबन तमाम लोग बच्चों के साथ काला चश्मा लगाकर बाहर निकलते हैं। और वापस आकर ख़ुशबूदार साबुनों से नहा लेते हैं। एक मानक जि़न्दगी गुज़ारने के लिए क्या ये ज़्यादा है।
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उसने बीवी की हाथ से लेकर चाय का कप अपने हाथ में पकड़ लिया। बीवी ने जल्दी जल्दी अपने हाथ को ऊपर नीचे करना शुरू कर दिया। ये उसकी मुद्दतों पुरानी आदत थी। उसे ये वहम था कि बार-बार उसका हाथ सुन्न हो जाता है। न तो मेरे अन्दर ख़ून बचा है। सारा ख़ून जल गया है और न ही कुछ और वह बड़बड़ाती। वैसे देखने में वह एक सेहतमन्द और लम्बी औरत थी जिसे सतही नज़र रखने वाले ख़ूबसूरत भी कह सकते हैं। अगरचे औरत को मर्द से ज़्यादा ख़ूबसूरत समझना तमाम जीवों में सिफऱ़् इंसानों का ही बेवक़ूफ़ी भरा फै़सला है। औरत अक़्लमन्द और ताक़तवर तो है बशर्ते ताक़त को उसके असली मानी में समझा जाए। मगर उसकी ख़ूबसूरती के बारे में हमेशा शक किया जाना चाहिए। क्योंकि वह समाज को बनाती है और समाज पर मर्द से ज़्यादा हावी है। चाहे लाख इस समाज को मर्दों का समाज कहा जाये, क्या इस कि़स्म की कोई भी जब्र करने वाली चीज़ ख़ूबसूरत होगी, मगर औरत का समाज पर हावी होना इंसान की नंगी आँखों से हरगिज़ नहीं देखा जा सकता। उसकी ताक़त ख़ून में बाल की तरह बारीक नसों में अपना जाल बना कर समाज की पूरी जे़हनियत की सरंचना को बनाती है। औरत की ताक़त को उस सूक्ष्मदर्शी के ज़रिए देखा जा सकता है जिससे किसी बैक्टीरिया या वायरस को। कीड़े मकोडे़ तक इस मामले में इंसानों से ज़्यादा अक़्लमन्द हैं बल्कि कहना चाहिए कि इंसानी समाज के नरों से ज़्यादा समझदार वही हैं। इसलिए औरत के जिस्म को हसीन समझ लेना एक अन्ध्ो जानवर तक के लिए मुश्किल बात है। औरत के जिस्म का हर हिस्सा इतना ज़्यादा गै़र ज़रूरी गोश्त से भरा हुआ और थुल थुल करता हुआ चर्बी भरा है कि यही एक बात इस बात की गवाह है कि ये ख़ूबसूरती नहीं है। औरतों के जिस्म का रंग भी कु़दरती तौर पर इतना चमकीला नहीं जितना कि एक मर्द के जिस्म का होता है। इसीलिए उन्हें मेक अप की ज़रूरत पड़ती है। नयी नवेली दुल्हन को बग़ैर मेक अप के ज़्यादा दिन देखने से मर्द का दिमाग़ ख़राब हो सकता है। दिन में, घास में पड़ा हुआ, सिकुड़ा हुआ पर डाले हुए एक बेसुध्ा नर पतंगा भी अपने रंगों के लिहाज़ से रात को उड़ने वाली मादा पतंगे से ज़्यादा चमकीला है। मर्द तो सिफऱ़् जंग के लिए पैदा होते हैं और अब तो जिस तरह की जंग होती है उसमें भी मर्दों का कोई ख़ास काम नहीं रह गया है। अब उनका एक ही काम है कि वह औरतों के पेट में अपना बीज डालते फिरें। एक बदअक़्ल आवारा घूमते हुए साँड की तरह और इस तरह उन्हें और भी ज़्यादा मज़बूत बनाते फिरें। अस्ल हाकिम, यक़ीन मानिए कि, औरत ही है। उसने यूँ ही खड़े खड़े चाय का एक घूँट लिया और फ़ौरन मुँह से उसे बाहर निकालते हुए कुल्ली सी कर डाली। चाय है या ज़हर? वह चिल्लाया। मेरे मुँह पर ही कुल्ली कर देते ना। वह ज़ोर ज़ोर से अपना हाथ ऊपर नीचे करने लगी और उसके भूरे बालों का जोड़ा खुल कर बिखर गया जिसकी वजह से उसकी एक आँख ढँक गयी। वह इसी चेहरे से डरता था जब भी उसकी एक आँख माथे से सरके हुए बालों से ढँक जाती और बस एक आँख चेहरे पर नज़र आती। उस एक आँख में एक सर्द और ख़ौफ़नाक हुक्म था। दरअस्ल यही एक अस्ल ज़ालिम हाकिम की आँख थी। किसी देवमालाई किरदार की गु़स्सावर आँख। अगर उसके चेहरे पर दोनों आँखें नज़र आती रहतीं तो वह इस ग़ज़बनाक चेहरे का मुक़ाबला भी कर सकता था मगर माथे पर सिफऱ् एक बड़ी भूरी और लालिमा भरी आँख घूरती नज़र आती है। तक़रीबन एक शैतानी आँख जिस पर कभी गुहेरी तक निकलने की हिम्मत नहीं कर सकती। वो वाक़ई डर गया। उसे मालूम था कि बुुरी नज़र भी एक ही आँख से लगती है और जिस आँख से लगती है, उसमें कभी आँसू नहीं होते। चाय का कप उसने एक स्टूल पर पहले ही रख दिया था। उस सूखी आँख से अपनी आँखें फेरते हुए गुस्लख़ाने में जाकर उसने दरवाज़ा अन्दर से बन्द कर लिया। वह तेज़ से तेज़ गर्मी में भी गर्म पानी से ही नहाता था। उसने सबसे पहले गीज़र का स्विच आॅन किया। वह स्विच आॅन करने पर हल्का-सा स्पार्क करता था। गीज़र की लाल बत्ती रौशन हुई मगर उस लाल बत्ती का कोई भरोसा नहीं था। गीज़र में एक अजीब ख़राबी पैदा हो गयी थी। वह कभी गर्म पानी देता था और कभी बफऱ् की तरह ठण्डा। पूरी सर्दियाँ इसी तरह बीत गयीं। गर्म पानी की अलामत उस लाल बत्ती के नीचे वो काँपता और ठिठुरता रहा। दरमियान में कभी कभी गर्म पानी का रेला भी आ जाता जैसे ख़्वाब में किसी दोस्त का चेहरा नज़र आ जाए। वो अपनी मसरूफि़यत की वजह से (अगर वाक़ई उसकी कोई मसरूफि़यत थी) और कुछ इस यक़ीन की वजह से कि ऐसी अजीब ओ ग़रीब तकनीकी ख़राबियाँ जल्दी दूर नहीं होती हैं। क्योंकि उनका एक अनदेखा रिश्ता इंसानों के मुक़द्दर और नक्षत्रों की चाल से होता है। ये रहस्यमय बातें हैं और फि़लहाल वो रहस्यमय बातों के बारे में सोचना नहीं चाहता था। वो आईने के सामने खड़ा शेव कर रहा था। ये भी एक चटखा हुआ आईना था। चटखे हुए आईने में अपना चेहरा देख कर शेव करने के दौरान अक्सर उससे अन्दाज़े की ग़लती हो जाती। ब्लेड कहीं का कहीं चल जाता। चेहरे पर लगे हुए साबुन के सफे़द गाढ़े झागों में ख़ून की लकीरें शामिल हो जातीं। आईने का न बदलना यक़ीनन उसी की लापरवाही थी मगर वो नहीं जानता था कि आईना चाहे चटखा हुआ न भी हो तब भी हर आईने के सामने खड़े होकर आदमी की आँखें हमेशा अन्ध्ोरे में ग़लती करती हैं। वह मुस्तक़बिल के बारे में तो ज़्यादा ही बेख़बर हो जाता है। साबुन के सफे़द झागों से उसका साँवला चेहरा इस तरह ढँक गया जैसे किसी गड्ढे में काले और सड़ते हुए पानी पर सफे़द रेत और चूना डाल कर वक़्ती तौर पर ढँक दिया जाता है। उसने उस चेहरे से झाँकती हुई आँखों से अपने दाएँ हाथ पर निकले हुए फोड़े के पुराने निशान को देखा। वह हमेशा शेव बनाते हुए उस ज़ख़्म के निशान को देखता। ये निशान हथेली के बिलकुल नीचे कलाई पर उस जगह मौजूद था जो गालों पर रेज़र चलाते वक़्त बार-बार दिख जाती थी। अगर ये ज़ख़्म उसके चेहरे पर अपना निशान छोड़ता और किसी फोड़े की वजह से नहीं चाक़ू या तलवार के किसी ख़तरनाक वार के नतीजे में अस्तित्व में आया होता तो किसी भी औरत के लिए उसकी शख़्िसयत में सेक्स अपील बहुत बढ़ जाती। उसने शेव करने वाले ब्रश से कलाई पर आये हुए इस भद्दे निशान पर साबुन के सफे़द झाग लगा दिये। बिलकुल उसी तरह जैसे दीवार पर उभरे हुए किसी बदनुमा सीलन के ध्ाब्बे पर सफ़ेदी पोत दी जाती है। ग़ुस्लख़ाने की खिड़की के बाहर फैला हुआ पीला ग़ुबार उसी तरह स्थिर व जमा हुआ मौजूद था। आज दफ़्तर पहुँचकर वो उन तस्वीरों से कुछ कोने निकाल कर मकानों के चन्द नक़्शे नमूने के तौर पर बनाएगा जिनका एलबम कई हफ़्तों की मेहनत के बाद वह हासिल कर पाया था। ये क़ब्रिस्तानों की तस्वीरें थीं और शमशान घाटों की भी। क़ब्रिस्तान में जा जाकर तरह तरह की पक्की क़ब्रों की तस्वीरें जो उसने ख़ुफि़या तौर पर अपने कैमरे से ली थीं। कई हफ़्तों से वो शहर के क़ब्रिस्तानों का चक्कर लगता फिर रहा था। कभी फ़ातिहा पढ़ने के बहाने, कभी किसी अज़ीज़ या दोस्त की क़ब्र तलाश करने के बहाने और उन दिनों किसी का अन्तिम संस्कार तो उसने छोड़ा ही नहीं थी क्योंकि क़ब्रिस्तान तक जाने का कोई मौक़ा वो हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। क़ब्रिस्तान के चारों और अब चार दिवारी बना दी गयी थी और बेवजह क़ब्रिस्तान में घूमने फिरने वाले को शक की नज़र से देखा जाने लगा है। वजह ये है कि इंसान बिज्जू जैसे क़ब्र खोदने वाले जानवर से भी बदतर हो गये हैं। बिज्जू तो फिर भी अपना पेट भरने के लिए क़ब्र खोद कर मुर्दे खाता है। मगर इंसान तो क़ब्रों से लाशें निकाल निकाल कर विदेशों के मेडिकल कालेजों में स्मगल करने लगे हैं ताकि उनके अंग निकाल कर उन पर नये-नये प्रयोग किये जा सकें। प्रयोग तो वो भी करना चाहता था। वो मकानों की तामीर में वही रहस्य पैदा करना चाहता था जो क़ब्रों में पाया जाता है। और ये यक़ीनन निर्माण कला में एक नया इज़ाफ़ा होगा गम्भीर सम्मान पूर्वक विचारणीय और रूहानी भी। आज कल इतने ऊट पटाँग कि़स्म के नक्शों पर आध्ाारित मकान तामीर किये जाते हैं और इतने बचकाना, भद्दे और आँखों में चुभने वाले तेज़ रंगों का इस्तेमाल किया जाता है कि उन मकानों में रह कर इंसान सिफऱ़् डिप्रेशन का शिकार हो सकता है। या हिस्टीरिया का या फिर ख़ौफ़नाक सपनों के एक कभी न ख़त्म होने वाले सिलसिले का। इंसानों को अगर हक़ीक़ी सुकून अपने घर में चाहिए तो उसके बनाये हुए मकानों के उन नक़्शों और डिज़ाइनों में मिलेगा जो मुख़्तलिफ़ कि़स्म की क़बरों के असेम्बलाज से तैयार किये जाएँगे। इंसानों की जि़न्दगी में हमेशा मौत की एक झलक, एक आहट ज़रूर शामिल रहनी चाहिए। मौत को अपने घरों की दीवारों से बेदख़ल नहीं करना चाहिए। हम अपने पास नये और पुराने नोट एक साथ जमा करके रखते हैं फिर एक दिन आता है जब पुराने नोट वापस ले लिये जाते हैं और नयी सीरीज़ के नोट बाज़ार में दाखि़ल कर दिये जाते हैं। लोग न मरते मरते थकते हैं और न पैदा होते होते इसी लिए घरों में दोनों रंग शामिल होने चाहिए। जि़न्दगी और मौत की एक जुगलबन्दी। वो जब भी क़ब्रिस्तान से बाहर आता मौत का कोई चीथड़ा उसके जूते के तलवे में चिपक कर उसके साथ बाहर आ जाता। वो उसे अपने पैरों के तलवों में साफ़ और स्पष्ट रूप से महसूस करता। उसकी ठण्डक को, उसकी उदासी को और उसके भेद को या रहस्य को। रहस्य तो किसी भी कि़स्म का हो उसे जाना नहीं जा सकता सिफऱ् महसूस किया जा सकता है। उसे ये एहसास था कि उसकी बीवी भी एक रहस्य है बल्कि ये शादी भी एक रहस्य ही थी जो क्यों हुई, इसकी कोई ख़ास वजह आज तक समझ में नहीं आयी है। बस इतना ज़रूर था कि उन दिनों शादी से कुछ महीने पहले उसकी सेक्सुअल ख़्वाहिश नाक़ाबिले यक़ीन हद तक बढ़ गयी थी। उसे एक ही रात में कई कई बार स्खलन हो जाया करता था। उसे स्खलन से हमेशा ही बहुत डर लगता था। क्योंकि ख़्वाब में नुकीले और लम्बे दाँतों वाली चुड़ैलें पाँव में पायल बाँध्ो छन छन छन करती हुई उसके जिस्म का सारा ख़ून पी जाने के लिए उसकी छाती पर आकर सवार हो जातीं। उसे लगता जैसे वो पीला पड़ने लगा है। इसलिए अब यही एक शरीफ़ाना हल रह गया था और वही उसने तलाश कर लिया। दोस्तों से कह कहला कर एक रिश्ता तै किया और एक औरत को घर में ले आया। औरत जिसके कहने के मुताबिक़ ख़ुद उसके अपने जिस्म में भी ख़ून जल गया था मगर फिर भी वो एक सेहतमन्द औरत थी और हुक्म चलाने की ताक़त रखती थी। बीवी ने किचन में जाकर अण्डे तलाश करना शुरू कर दिये। वो हमेशा अण्डे कहीं रख कर भूल जाती थी। फ्रि़ज मेें अण्डे रखने के वो सख़्त खि़लाफ़ थी। उसका ख़्याल था कि फ्रि़ज में ठण्डक से अण्डों की ज़र्दी जम जाती है और उसे किसी भी जमी हुई चीज़ को पिघलाना सख़्त नापसन्द था। पिघलने का मंज़र उसे घिनौना नज़र आता था। वो तो पिघलता हुआ मक्खन, घी और यहाँ तक कि बफऱ् को भी पिघलता हुआ नहीं देख सकती थी, इसीलिए उसने पावर कट के ज़माने में अपने घर में आज तक मोमबत्ती नहीं जलायी। ये इत्तेफ़ाक़ नहीं था कि अपने शौहर को कहीं भी हाथ लगाने से, छू लेने से या बोसा लेने की रस्मी और नैतिक कोशिश से भी वो नहीं पिघली। उसके जिस्म में द्रव्य पदार्थों और पानी की बहुत कमी थी। उसके होंठ भी सूखे रहते थे और आँखें भी। दिल का पता नहीं, दिल का पिघलना तो महज़ मुहावरा है। अब ये तो बिलकुल साफ़ है कि उन दोनों में मुहब्बत नहीं थी और अगर होती भी तो भी क्या? मुहब्बत और नफ़रत दो ऐसी नदियों की मानिन्द हैं जो थोड़ा सा फ़ासला बरक़रार रखते हुए बराबर चलती हैं, मगर कभी किसी शहर या गाँव में पहुँच कर अलग अलग दिशाओं में निकल जाती हैं। चक्कर काटती हैं, बल खाती हैं, कभी कभी तो साँप की तरह फिर बहुत दूर कहीं आगे जाकर कोई ऐसा स्थान ज़रूर आता है जहाँ दोनों एक दूसरे में मिल जाती हैं। फिर जो पानी आगे बढ़ता है उसमें सिवाय तकलीफ़, ईष्र्या, जलन और ओछेपन के कुछ नहीं होता। ये आगे बढ़ता हुआ पानी मुहब्बत और नफ़रत दोनों से ज़्यादा कमीने और ख़तरनाक समुन्दर में जाकर गिर जाता है।
जहाँ तक उन दोनों के यहाँ बच्चों के न होने का सवाल है तो उसका जि़म्मेदार अपने शौहर और उसकी आर्थिक मजबूरियों को ठहराना एक ग़लत इल्ज़ाम था। वो इस हक़ीक़त को अच्छी तरह जानती थी कि उसके जिस्म में एक भयानक सूखापन था। यूँ तो वो माँ बनना चाहती थी मगर इसे क्या किया जाए कि शौहर से सहवास के वक़्त (अगर इसे सहवास कहा जा सकता हो) बगै़र किसी मुहब्बत और ख़्वाहिश के साथ सूखे हुए होंठ, लार से बिलकुल ख़ाली मुँह, ज़्ाुबान और सूखी हुई योनि के साथ लेटे रहना दर अस्ल बलात्कार के अमल से भी ज़्यादा घिनौना और बदतर था। अगर ऐसी सूरते हाल में इत्तेफ़ाक़ से उसकी कोख में किसी बच्चे का बीज पड़ भी जाता तो वो एक बदनसीब और बिन बुलायी जान ही होती। वो ख़ुद भी बर्फ़ की एक जमी हुई चट्टान थी। उसे अपने आप से भी चिढ़ थी और अपने आप को भी पिघलते हुए देखने से तो उससे भी ज़्यादा। जहाँ तक ख़्वाहिश का सवाल है तो वो जिस्म की एक बड़ी ग़लतफ़हमी है। वक़्त का एक ज़रा-सा पाँसा पलटने पर जिस्म के अन्दर बहने वाले कीमियाई द्रव्यों की मामूली-सी ग़द्दारी से ही वो कीना परवर, मज़ाक़ उड़ाती हुई कटनी रौशनी पैदा हो जाती है जिसमें मुहब्बत, नफ़रत, ख़्वाहिश और ममता सब एक साथ किसी जादुई ताक़त के जे़रे असर सर के बल खड़े नज़र आते हैं। इसलिए अस्ल बात जो बगै़र किसी नैतिक फ्ऱाॅड के और लाग लपेट के, कही जा सकती है वो ये है कि मर्द अपने तक़रीबन हर वक़्त खड़े हुए अंग से आजिज़ था और औरत अपनी सूखी हुई अपंग योनि से।
ठीक उसी लम्हे में बिजली चली गयी। जब उसने फ्ऱाई पैन में अण्डे तोड़े, गर्म गर्म तेल में एक नागवार आवाज़ के साथ ज़र्दी और सफ़ेदी दोनों अपनी अपनी अलग दुनिया में सिकुड़ती जा रही थीं। आज कल सुबह सुबह भी जाने लगी है। वो बड़बड़ाई। गर्मी बढ़ रही है, बिजली जाने का सबसे बड़ा नुक़सान तो यही है कि पसीना आएगा। अन्ध्ोरा तो बर्दाश्त कर ही लिया जाता है। रौशनी कोई इतनी अच्छी चीज़ भी नहीं मगर पसीने में जिस्म पिघल पिघल कर बहता है। जिस्म अपने किनारों से बाहर आने लगता है। नमकीन, गन्दे द्रव्य की शक्ल में और बदबूदार पानी की शक्ल में। बिजली क्यों चली गयी? इतनी देर में बिजली आ गयी। लाॅबी में लगे हुए छत के पंखे के पर अभी पूरी तरह घूम भी न पाये थे कि बिजली फिर चली गयी। उसने बिजली को कोसना शुरू कर दिया और अपने हाथ को ऊपर नीचे करना भी। मगर बिजली को कोसने से बेहतर था कि अपने मुक़द्दर को कोस लिया जाए। बिजली की अपनी एक अलग शख़्िसयत है जैसे पानी की। उसके अपने उसूल हैं और अपनी नैतिकता।
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प्यार मुहब्बत
ग़म ग़ुस्सा
रोने और उत्तेजना में
वो पैदा होती है
पानी से उसकी अज़ीम दोस्ती की
मछलियाँ क़समें खाती हैं
मछलियाँ जो अपनी दुम के
आखिरी हिस्से में उसे सुला कर रखती हैं
शार्क ने उसके झटके को महसूस किया और शिव के ताण्डव जैसा रक़्स देखा
पानी में रक़्स
इस रक़्स के कोई मानी न थे
इस रक़्स में लफ़्ज़ न थे
पाठ्य पुस्तकें कभी काफ़ी नहीं होतीं
रबड़ के दस्ताने पहन कर
लकड़ी पर पैर या हाथ जमा लेने से
हम उससे आज़ाद नहीं हो सकते
उसमें एक भेद है
जो इस नज़्म में नहीं
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क्या साबुन सड़ रहा है? उसने गु़स्लख़ाने मेें बहुत ही अजीब-सी नागवार बू महसूस करते हुए सोचा। गीज़र की टोंटी के नीचे बाल्टी पानी से आहिस्ता आहिस्ता भर रही थी। बिजली चली गयी थी। बस खिड़की के शीशे से पीला गु़बार अपना अक्स पानी पर डाल रहा था। उसने बाल्टी के पानी में झाँका। पानी ज़र्द नज़र आया। बाहर फैले हुए उस घुटन भरे गु़बार को दिल ही दिल में बुरा भला कहते हुए उसने बाल्टी के पानी से मग भर कर अपने सर पर उँडेला। पानी पहले उसकी आँखों में दाखिल हुआ फिर वहाँ से बहता हुआ नाक के नथुनों में और उसके बाद उसकी गंजी और चिकनी खोपड़ी से फिसलता हुआ कनपटियों और कानों के दरम्यान एक पल को रुकता हुआ बहुत तेज़ी के साथ दोनों कानों के अन्दर चला गया। उसके ताज़ा शेव किये हुए चेहरे पर से फिसला और होठों के किनारों को गीला कर दिया। उसने एक साँस मुँह खोल कर ली तो कुछ बूँदें मुँह के अन्दर पहुँच गयीं। पानी अब गरदन से बहता हुआ, उसके कन्ध्ाों, पेट और पीठ तक आकर रुक गया। इससे पहले कि वह दूसरा मग भर पाता, उसने अपने मुँह, चेहरे, आँखें, नाक, कान और यहाँ तक कि अपने दिमाग़ को भी भयानक बदबू के हमले में और घिरा हुआ पाया। उसके मुँह में तो जैसे खारा पेशाब भरा जा रहा था। उसका जी बुरी तरह मतलाया। पेट में उल्टियों का और उबकाईयों का एक तूफ़ान बाहर निकलने को बेचैन था। जिसे रोकते हुए उसने मग को दूर दीवार पर दे मारा और बहुत ज़ोर से चीख़ा। ये कैसा पानी है, दरवाज़ा खोलो। बीवी ने एक बार में नहीं सुना, उसे पसीना आ रहा था। वो पसीने से परेशान थी। उसने नहीं सुना। दरवाज़ा खोलो सुअर की बच्ची, खोल दरवाज़ा। गु़स्से ने उसे दुनिया का सबसे बहादुर मर्द बना दिया। ख़ुद क्यों नहीं खोलता कुत्ते, दरवाज़ा तूने अन्दर से बन्द किया है। औरत दहाड़ी। वो दरवाज़ा खोलता है और ग़ुस्से में बौखलाया नंगा ही बाहर आ जाता है। उसके बदन से फूटने वाली बदबू लाबी में भर गयी है। वो उसके सामने तन कर खड़ी है। अन्दर जाओ, बेहया, बेशरम, औरत चीख़ती है। तूने पानी नहीं देखा कुतिया। सुबह से पड़ी फन्ना रही है। तूने पेशाब और पाख़ाने की चाय मुझे पिला दी। देखा नहीं पानी में क्या मिला हुआ था, सुअर की बच्ची। अन्दर जा बेहया। बाप को गाली मत दे नंगे। नंगा होकर और ज़लील लग रहा है तू और तेरा ये। औरत पूरी ताक़त से चिल्लाती है। उसके सर के बाल खुल गये हैं जिनसे उसकी एक आँख ढँक गयी है मगर अब वो उस चेहरे से नहीं डरा। वो गु़स्से में अपनी पुरानी हस्ती खो चुका है। अभी पूछता हूँ तुझसे, आज तू नहीं बचेगी मेरे हाथ से मारी जाएगी। वो पागल की तरह बड़बड़ाता हुआ दोबारा ग़ुस्लख़ाने में जा रहा है। शायद तौलिया बांध्ाने। औरत उससे भी ज़्यादा पागल होती हुई उसके पीछे पीछे ग़ुस्लख़ाने में घुस आती है, किसी बला या महामारी की तरह। क्या करेगा, मार डालेगा, क्या पूछेगा भड़वे की औलाद। वो बेलिबास, गीला और बदबूदार उसके सामने खड़ा गु़स्से से पागल हुआ काँप रहा है। उसका हाथ ऊपर उठता है। वो औरत को पूरी ताक़त के साथ पीछे की तरफ़ ध्ाक्का देता है। वो थोड़ा-सा पीछे की तरफ़ झुकती है और फिर संभल कर जवाब में उसकी गरदन पकड़ कर दीवार की तरफ़ ध्ाकेलती है। गीज़र के बिलकुल नीचे। अचानक बिजली आ जाती है, गीज़र की लाल बत्ती रौशन होती है। अपने आप को गिरने से बचाने के लिए वो किसी चीज़ का सहारा लेना चाहता है। वो दीवार पर लगे हुए बिजली के साकेट को थाम लेता है। एक ध्ामाका, रौशनी का एक झमाका, शार्ट सर्किट। एक ज़ोरदार झटका खाते हुए उसका मादर ज़ाद बरहना जिस्म किसी भारी पथर की मानिन्द लुढ़कता हुआ बाल्टी से टकराता है। बाल्टी उलट गयी, गन्दे बदबूदार पानी से उसके जिस्म का निचला हिस्सा तर हो गया है। उसके दाँत पहले किटकिटाते हैं, फिर भिंच जाते हैं। मुँह टेढ़ा होकर नीला पड़ने लगा है। नीलाहट आहिस्ता आहिस्ता सारे जिस्म में रेंग रही है। चन्द लम्हों तक के लिए उसका नीला जिस्म किसी आमियाना कि़स्म के संगीत यंत्र की तरह झनझनाता है। फिर बेजान हो जाता है। गु़स्लख़ाने में अब एक बू और भी आकर शामिल हो जाती है, ये मौत की बू है। चन्द घण्टों बाद या ज़्यादा से ज़्यादा एक दिन के बाद, उसके कमरे में अलमारी के नीचे रखे हुए उसके जूतों के तलवों में चिपकी हुई मौत वापस क़ब्रिस्तान की तरफ़ रेंग जाएगी। मौत का ये पसन्दीदा शौक़ है, घर से क़ब्रिस्तान। क़ब्रिस्तान से घर।
साढ़े दस बजे औरत पुलिस स्टेशन फ़ोन करती है। ग्यारह बजे एक पुलिस इन्सपेक्टर दो सिपाहियों के साथ अन्दर दाखि़ल होता है। लाश कहाँ है? बाथरूम में। इन्सपेक्टर सिपाहियों के साथ बाथरूम के अन्दर जाता है फिर नाक पर रुमाल रख कर वापस आता है। हादसा कैसे हुआ? इन्सपेक्टर पूछता है। पता नहीं। औरत जवाब देती है। पुलिस और खुला दरवाज़ा देखकर चन्द पड़ोसी अन्दर आ गये हैं। दोनों में रोज़ झगड़ा होता था। हमारा जीना हराम कर रखा था। एक कहता है। शायद वो मारा गया। दूसरा कहता है। इन्सपेक्टर कड़क कर औरत से पूछता है। ये क़त्ल है? मालूम नहीं। औरत जवाब देती है। सच सच बताओ तुमने क़त्ल किया है। तुम्हें गिरफ़्तार किया जा रहा है। इन्सपेक्टर कहता है। नहीं, हाँ। औरत इन्सपेक्टर की आँखों में अपनी एक खुली हुई आँख डालते हुए कहती है। उसके सर के बाल माथे पर अभी भी लटके हुए हैं और एक आँख उन बालों से बुरी तरह ढंक गयी है। वो अपने एक हाथ को बार-बार ऊपर नीचे कर रही है। इन्सपेक्टर उसकी खुली हुई आँख को ग़ौर से देखता है। वो हैरत अंगेज़ हद तक सूखी हुई है। मगर उसमें एक बेहिस सी चमक है जो मुहब्बत और नफ़रत दोनों की अन्तहीन कमी से पैदा होती है। जवाब दो। इन्सपेक्टर गरजता है। हाँ वो मारा गया। उसी चक्कर में। औरत बड़बड़ाती है। किस चक्कर में? इन्सपेक्टर चैकन्ना होकर दिलचस्पी से सवाल करता है। पानी के चक्कर में। वो पानी के चक्कर में मारा गया। औरत अपने बाल माथे से हटाती है और अब दोनों आँखों से इन्सपेक्टर को देखते हुए इत्मीनान के साथ जवाब देती है।
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लाइफ़ अपार्टमेन्ट के हर घर में अब गन्दा और बदबूदार पानी आ रहा था। तीन दिन गुज़र चुके थे। उन्होंने पीने का पानी नहाने और ट्ाॅयलेट के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। मगर पीने के पानी का एक वक़्त मुक़र्रर था और वो बहुत कम मात्रा में आता था। तीन ही दिनों में वो सख़्त बीमार पड़ गये। बीमार होने वालों में ज़्यादा तादाद बच्चों की थी। उन्हें दस्त आने लगे जिनमें ख़ून मिला हुआ था। उनके पेट में ऐंठन और मरोड़ रहने लगे। फिर उन्हें बेतहाशा ख़ून में मिली हुई उल्टियाँ शुरू हो गयीं। उन्हें तेज़ बुख़ार रहने लगा। यहाँ से आध्ो किलोमीटर की दूरी पर एक नर्सिंग होम था। जब उसमें अब और मरीज़ों के लिए कोई बेड ख़ाली नहीं रहा तो वो शहर के दूसरे अस्पतालों की तरफ़ भागने लगे। मरीज़ों की तादाद बढ़ती जा रही थी। बोरिंग वाले गन्दे पानी की सप्लाई रोक दी गयी। कुछ लोग सोसाइटी छोड़ कर अपने रिश्तेदारों या दोस्तों के यहाँ चले गये। या किसी दूसरी जगह ज़रूरी सामान साथ में रख कर किराये पर रहने लगे। महीने की आखि़री तारीख़ थी जब इस बीमारी में मुब्तला एक आठ साला बच्चे की मौत हो गयी। किसी भी फैलने वाली बीमारी में पहली मौत की ही सबसे ज़्यादा अहमियत होती है। जिस तरह पहली मुहब्बत की। उसके बाद तो सब आम से आदमी बन कर रह जाते हैं। मरीज़ों की क़रीबी और अस्पताल के अमले के बीच झगड़ा शुरू हो गया। सबका ख़्याल था कि महज़ अस्पताल वालों की लापरवाही की वजह से बच्चे की जान गयी है वरना कालरा से आज के ज़माने में कोई नहीं मरता।
मगर क्या ये वाक़ई वही था? यानी महज़ कालरा जिससे अब कोई नहीं मरता। जि़ला सरकारी अस्पताल के इमरजेन्सी वार्ड के सामने एक लम्बी राहदारी में खड़े हुए लम्बी नाक वाले और एक पेशेवर मुक्केबाज़ का-सा चेहरा रखने वाले नौजवान डाॅक्टर ने कहा। उल्टियाँ हो रही हैं, खाल सूख रही है, नस, पट्ठे सिकुड़ रहे हैं। हाथों और पैरों पर झुर्रियाँ पड़ रही हैं। दस्त रुक नहीं रहे हैं। बुख़ार उतर नहीं रहा है। आँखों से चमक ग़ायब हो रही है। यक़ीनन ये लक्षण काॅलरा के हैं, या बिगड़ी हुई पेचिश के मगर एंटी बायटिक दवाएँ असर नहीं दिखा रही हैं। सेलाइन और ग्लूकोज़ चढ़ाने पर भी जिस्मों में पानी की मात्रा बढ़ नहीं पा रही है। एक हज़ार मिली ग्राम पैरासिटामाॅल देने पर भी बुख़ार एक डिगरी भी नीचे नहीं आ रहा है। मरीज़ के जिस्म के दूसरे ज़रूरी अंग गुर्दे, जिगर, फेफड़े और आहिस्ता आहिस्ता अपना काम छोड़ रहे हैं। काॅलरा बैक्टीरिया वाली बीमारी है मगर मरीज़ों के ख़ून की जाँच में किसी बैक्टीरिया का सुराग़ भी नहीं मिल रहा है। दूसरी बात ये कि वायरस से फैलने वाली पेट की बीमारी में इस तरह के दस्त नहीं आते और न ही मरीज़ का जिस्म इस हद तक पीला पड़ जाता है। मगर मुमकिन है कि ये किसी नये वायरस से फैलने वाली बीमारी हो। इस पर तहक़ीक़ शुरू हो चुकी है। मगर याद रखिए जो भी हो रहा है, वो उस पानी के इस्तेमाल की वजह से हो रहा है जिसमें सीवर लाइन का गन्दा पानी आकर मिल गया है। अब हमें करना ये है किसी मरीज़ को बगै़र दस्ताने पहने छूना नहीं है। मरीज़ के गन्दे कपड़ों को जलाना है और उसके बाक़ी चीज़ों को भी। जी, जी, हम अपना काम कर रहे हैं। आप ये कैमरा थोड़ा मुझसे दूर रखिए। जी, अब बिलकुल ठीक है। जी, तो आप लोग भी अपना काम कीजिए। अब मेरे पास और किसी सवाल का जवाब नहीं है। आप लोग चीफ़ मेडिकल आफि़सर से बात कर सकते हैं। सी. एम. ओ., जी हाँ सी. एम. ओ. साहब से। वजह? मैंने बताया ना कि वजह सिफऱ् गन्दा पानी है। पानी से आप लोगों को मालूम नहीं कि कितनी बीमारियाँ फैलती हैं। मसलन मियादी बुख़ार तक। बहुत-सी बीमारियों के बारे में अभी भी पता नहीं। ये कैमरा थोड़ा और इध्ार उध्ार पीछे कर लीजिए। शुक्रिया, जी अब ठीक है। लेकिन पानी की सप्लाई रोक देने के बाद भी केस लगातार बढ़ रहे हैं। एक रिपोर्टर ने पूछा। वायरस नहीं मरता। डाॅक्टर ने जवाब दिया। सूखी हुई सतह पर आम सा वायरस एक घण्टा सक्रिय रह सकता है और गीली सतह या पानी में तो लगातार अपनी नस्ल बढ़ाता रहता है। बाथरूम में टोटियों, बाल्टियों, मग्घों से बहुत होशियार रहना है। इस्तेमाल हो चुके साबुनों को फेंक दीजिए। बाथरूम की दीवारों और फ़र्श को हाथ नहीं लगाना है। ऐसी जगहों पर तो वो बारह बारह घण्टे तक सक्रिय रह सकता है। पानी से बहुत बचना है, बहुत होशियार रहना है। आप लोग तो बाथरूम जाना ही बन्द कर दीजिए।
बाथरूम जाना बन्द कर दें? इसका क्या मतलब हुआ। कैमरा मैन के बराबर में खड़ी हुई चश्मा लगाये एक नज़रों को भाने वाली लड़की ने सवाल किया। लड़की टी वी के किसी चैनल की रिपोर्टर मालूम होती थी। वही मतलब हुआ जो आप समझ रही हैं। डाॅक्टर ने जवाब दिया। तो क्या जंगल में फ़ारिग़ होना पड़ेगा। लड़की बोली, उसके हाथ में माइक था जो उसने डाॅक्टर की तरफ़ बढ़ा दिया। ये .... मैं नहीं जानता। डाॅक्टर ने लापरवाही से अपने कन्ध्ो उचकाने की नाकाम कोशिश करते हुए कहा। इस सूरत में महिलाओं का क्या होगा। उन कालोनियों के आस पास अब ऐसे जंगल या ज़मीनें नहीं बची हैं जहाँ महिलाएँ अपनी शर्म ओ हया को बरक़रार रखते हुए फ़ारिग़ हो सकें और अपनी इज़्ज़त ओ इस्मत भी बरक़रार रख सकें। क्या आपके ख़्याल में ये मुमकिन है? लड़की ने पेशेवराना अंदाज़ में तेज़ी के साथ जुमले अदा किये जिसकी वजह से उसकी आँखों की चमक बढ़ गयी। और कैसे? देखिए हमारा काम सिफऱ़् मरीज़ों का इलाज करना है। हम इस लैंगिक डिस्कोर्स में पड़ कर अपना वक़्त कैसे बर्बाद कर सकते हैं। डाॅक्टर ने जवाब दिया। मगर आप एक जि़म्मेदार शहरी भी हैं और बुद्धिजीवी वर्ग से सम्बन्ध्ा रखते हैं। आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगे कि क्या ऐसी बीमारी से महिलाओं की दिमाग़ी और समाजी जि़न्दगी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने का ख़तरा है। लड़की ने अपना सुनहरा फ्ऱेम का चश्मा उतारा और अपनी आँखों को रूमाल से साफ़ करते हुए पूछा। लड़की की आँखें बहुत ख़ूबसूरत थीं। उसके चश्मे से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत। डाॅक्टर एक पल को उसकी आँखों में देखता ही रह गया। फिर कहा, मर्दों के लिए भी शर्म ओ हया उतनी ही ज़रूरी है जितनी कि स्त्रियों के लिए। क्या आप वाक़ई इस पर यक़ीन रखते हैं? आपने जर्नलिज़्म का कोर्स कब मुकम्मल किया? अच्छा एक माह पहले ही, वेरी गुड। किस इन्स्टिट्यूट से? ओह अच्छा, वो तो बहुत अच्छा इन्स्टिट्यूट है। देखिये मैं लगातार आपसे गुज़ारिश किये जा रहा हूँ कि अपने कैमरे मुझसे दूर रखिए। जी बराहे-करम मुझे कैमरे से वहशत होती है। आप मुझसे ख़ाली वक़्त में मेरे कमरे में आकर मिल सकती हैं। डाॅक्टर ने लड़की की तरफ़ मुस्कराते हुए कहा। और लड़की ने मुस्कराते हुए अपने वैनिटी बैग से सफ़ेद रंग का विजि़टिंग कार्ड निकाला और डाॅक्टर के हाथ में थमा दिया।
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लाइफ़ अपार्टमेन्ट के फ़्लैट आध्ो से ज़्यादा ख़ाली हो चुके थे। चालीस मरीज़ जो शहर के मुख़्तलिफ़ अस्पतालों में भरती थे। उनमें से सिफऱ़् पन्द्रह मरीज़ ही बच सके थे। जि़ला अध्ािकारी और प्रबन्ध्ान के लिए ये एक विचारणीय पल था। जगह जगह बड़े अध्ािकारियों की मीटिंगें होने लगीं। स्थानीय सतह के सियासतदान भी सक्रिय हो गये और मुख़ालिफ़ पार्टियों पर ख़तरनाक साजि़श का इल्ज़ाम ध्ारने लगे। वो बिल्डर भी उनके घेरे में आ गया जिसने लाइफ़ अपार्टमेन्ट्स की सोसाइटी के लिए फ़्लैट तामीर करवाये थे। उस बिल्डर की एक ख़ास सियासी पार्टी के साथ साठ गाँठ थी। ये ख़ास पार्टी कुछ महीने पहले ही सत्ता की कुर्सी से नीचे आयी थी। इसलिए बिल्डर पर मुक़दमा चलवाने की माँगें और अपीलें होनी शुरू हो गयीं। म्यूनिसपल कारपोरेशन के दफ़्तर में बेचारे बिल्डर को बुलाया गया। मीटिंग में जि़ला मजिस्ट्रेट और मेयर के अलावा दूसरे कई बड़े अध्ािकारी शामिल थे। इलाक़े का कारपोरेटर भी मौजूद था। सवाल ये है कि सोसाइटी में पानी उपलब्ध्ा कराने के लिए आपने किस कम्पनी को ठेका दिया था। जि़ला मजिस्ट्रेट ने सवाल किया। वो एक नौजवान आई. ए. एस. आफि़सर था। ट्रेनिंग के बाद उसकी पहली पोस्टिंग इसी शहर में हुई थी, वो सफ़ेद बेदाग़ क़मीज़ और फ़ाखतई रंग की पतलून पहने हुए था। उसकी आँखें उल्लू की तरह गोल गोल थीं जिन पर उसने गोल शीशों वाली ऐनक भी लगा रखी थी। फि़लहाल उसके सुर्ख ओ सफ़ेद चेहरे पर चालाक कि़स्म की ईमानदारी की चिकनाई थी। मगर जल्द ही वो ईमानदारी के इस तेल को अपने सूखे हुए चेहरे पर लगाना छोड़ देगा। किसी कम्पनी को नहीं जनाब। पानी उपलब्ध्ा करने के लिए किसी कम्पनी को ठेका नहीं दिया जाता है। क्यों? क्योंकि पीने के पानी के लिए जल निगम में अजऱ्ी देना काफ़ी होता है। जल निगम की फ़ीस अदा कर दी जाती है और निगम वहाँ अपनी पाइप लाइन बिछा देता है। बिल्डर ने अदब के साथ जवाब दिया। ठीक है। आपको मालूम है कि वहाँ पीने का पानी प्रदूषित हो चुका है। वो पीला और बदबूदार है। उसमें इंसान के पेट से निकली हुई गन्दगी मौजूद है। जि़ला मजिस्ट्रेट ने बिल्डर को ग़ौर से देखते हुए कहा, नहीं जनाब! मुझे इस बारे में इल्म नहीं। आपको किस बारे में इल्म है? बिल्डर ने ख़ामोशी के साथ सर झुका लिया। उसे पहली बार किसी सरकारी मीटिंग में शिरकत करने का सम्मान हासिल हुआ था इसलिए उसने अपनी काली क़मीज़ के कालर में तेज़ नीले रंग की टाई भी लगा रखी थी। टाई की गिरह इतने पक्के तरीक़े से बाँध्ाी गयी थी कि उसके एक छोटे बन्दर जैसे चेहरे को हास्यास्पद बना रही थी। पक्केपन में बेवक़ूफ़ी का एक पहलू हमेशा उभरा रहता है ख़ास तौर पर जब आदमी बिल्डर की तरह जवानी के दौर से बाहर निकल गया हो। सीवर लाइन बिछाने का काम किस विभाग का है? म्यूनिसपल कारपोरेशन के चीफ़ इन्जीनियर ने हाथ उठाया और कहा, हमारा विभाग इस जि़म्मेदारी को निभाता है। ये काम आप की निगरानी में हुआ था? जी जनाब, मगर हम कई मामलों में पी. डबल्यू. डी. वालों से भी मशविरा करते हैं क्योंकि वो लोग सड़कें वग़ैरा बनवाते रहते हैं और सड़क के नीचे ही नालियों के पास थोड़ा ऊपर की तरफ़ सीवर लाइन भी डाली जाती है। चीफ़ इन्जीनियर ने भरोसे के साथ जवाब दिया। मगर शायद जि़ला मजिस्ट्रेट को उसका ये विश्वास से भरा लहजा अच्छा नहीं लगा क्योंकि वो आई. ए. एस. था। जि़ला मजिस्ट्रेट ने बुरा-सा मुँह बनाया और कहा ये आप मुझे मत बताएँ, हम लोगों को सब पढ़ाया जाता है। इन्जीनियरिंग से लेकर शायरी तक। यस सर, सारी सर। मेरा मतलब था कि च्ण्ॅण्क्ण् वालों का भी इस काम में रोल रहता है। चीफ़ इन्जीनियर ने अपनी ग़लती सुध्ाारते हुए कहा। आपके ख़्याल में पीने के पानी में ये गन्दगी क्यों आ रही है? सर हमारा ख़्याल है, ये सीवर लाइन का पाइप कहीं क्रैक हो गया है या किसी जंक्शन पर लीक हो रहा है। ज़मीन खोद खोद कर देखना पड़ेगा कि कहाँ ख़राबी पैदा हो गयी है। अच्छा। हूँ, अब ये बताइये कि आप लोग सीवर के पाइपों की फ़राहमी के लिए किस कम्पनी को ठेका देते हैं? सर, हर बार टेण्डर इशू होते हैं। कोई एक कम्पनी का इजारा नहीं, हम सबको मौक़ा देते हैं और उनके टेण्डर्स का बग़ौर मुतालआ करते हैं। चीफ़ इन्जीनियर ने जवाब दिया। जि़ला मजिस्ट्रेट ने कहा। इन पाइपों की सप्लाई करने वाली कम्पनी और ठेकेदार दोनों को फ़ौरन नोटिस भेजिये। उसका लहजा हुक्म देने वाला था। यस सर, बिलकुल सर। मगर मैं एक बात और कहना चाहूँगा। चीफ़ इन्जीनियर ने शरमाते हुए कहा। हाँ बताइये, क्या बात है? चीफ़ इन्जीनियर ने कनखियों से मेयर की तरफ़ देखा। उसकी मेयर से एक आँख न बनती थी क्योंकि वो मुख़ालिफ़ पार्टी के टिकट पर इलेक्शन जीत कर आया था। चीफ़ इन्जीनियर एक अध्ोड़ उम्र का मोटा आदमी था। इतना ज़्यादा मोटा कि उसके बैठने के लिए ये कुर्सी नाकाफ़ी पड़ रही थी और वो उसमें कुछ इस तरफ फँस गया था जैसे चूहेदान में कोई मोटा सा चूहा फँस कर हाँफ़ता है उसकी तोंद के दबाव की वजह से उसकी क़मीज़ के दरमियान में लगे हुए बटन बार-बार खुल जाते थे जिसकी वजह से उसकी नाफ़ के ऊपर पेट पर सफ़ेद बालों की एक बदनुमा लकीर दिख जाती थी। अचानक हाल का दरवाज़ा खुला। इलाक़े का एम. एल. ए. अन्दर दाखि़ल हुआ। सारे अफ़सरान, जि़ला मजिस्ट्रेट भी अदब के साथ उठ कर खड़े हो गये क्योंकि उनका न उठना प्रोटोकाल की खि़लाफ़वजऱ्ी करता था। अब खादी के सफ़ेद कुर्ते और पाजामे का ज़माना बीत चुका था। वो तेज़ गेरुए रंग का ऊँचा-सा कुर्ता पहने हुए था और उसने मोटी मोटी टाँगों पर नीली जींस मढ़ रखी थी जिस पर औरतों के आड़े तंग पैजामे का गुमान गुज़रता था। उसके कूल्हे भी औरतों की तरह पीछे निकले हुए थे। वो जवान आदमी था और उसकी रंगत जी घबरा कर रख देने की हद तक सफ़ेद थी। गले में गेरुए रंग का अँगौछा डाल रखा था। सर तक़रीबन गंजा था। मगर मूँछें लटक कर ठोड़ी पर आ रही थीं। चन्द माह बेशतर तक वो सिफऱ् एक ट्राँसपोर्ट कम्पनी का मालिक था जिसके ट्रकों पर घटिया शेर लिखे हुए थे। इलेक्शन के बाद वो एम. एल. ए. हो गया, एम. एल. ए. होने से पहले वो शहर में एक बड़े लौंडेबाज़ की हैसियत से मशहूर था अगरचे अब वो औरत और मर्द के प्राकृतिक और नैतिक रिश्ते की अहमियत पर अख़बारात में बयान देने लगा था। एम. एल. ए. ने हाथ जोड़ कर सबको नमस्कार किया और मुस्कराते हुए कुर्सी पर बैठ गया। अब वो सब भी अपनी अपनी कुर्सियों पर बैठ गये। बाहर आँध्ाी आने वाली है। वो बोला। अच्छा। सारे अफ़सरों ने हैरत से आँखें फाड़ कर कहा। सियासी लीडरों की चमचागिरी करने का ये एक पुराना तरीक़ा था। अच्छा आँध्ाी आने वाली है। ओह आँध्ाी, वो कहते रहे। हाँ आना चाहिए, बहुत दिनों से आसमान पर ग़ुबार छाया हुआ था। बहुत दिन हो गये सर जी। एम. एल. ए. ने अँगौछे से माथे का पसीना पोंछते हुए कहा। यहाँ ए. सी. चल रहा है ना। जी सर, चल रहा है। जि़ला मजिस्ट्रेट ने कहा, कूलिंग और बढ़ा दूँ? नहीं मुझे नज़ला हो जाता है। ये ठीक है, एम. एल. ए. ने कहा। तो कार्रवाई चल रही है आप लोगों की? जी बिलकुल, हाँ तो आप क्या कह रहे थे? जि़ला मजिस्ट्रेट ने चीफ़ इन्जीनियर से पूछा जो एम. एल. ए. के आ जाने के बाद से कुछ ज़्यादा ख़ुश और और आत्म विश्वास से भरा नज़र आने लगा था। जी सर, मैं अर्ज़ कर रहा था कि हमारे मेयर साहब के ज़ोर देने पर शहर के चन्द इलाक़ों में रसोई गैस की पाइप लाइन डालने का काम भी एक गैस कम्पनी ने, मेरा मतलब है कि, प्राईवेट गैस कम्पनी ने किया था। उन इलाक़ों में लाइफ़ अपार्टमेन्ट वाली सोसाइटी भी आती है। इस गैस कम्पनी में मेयर साहब की पार्टी के कई ओहदेदारों के बड़े बड़े शेयर हैं। चीफ़ इन्जीनियर बोल कर चुप हो हुआ तो मेयर कह उठा कि आप क्या कहना चाहते हैं? मेयर प्रौढ़ उम्र का एक ख़ूबसूरत आदमी था। उसके चैड़े चकले चेहरे पर एक कि़स्म का ख़ानदानी सम्मान था मगर इस सम्मान में बेरहमी और ग़ुरूर के रंग ज़्यादा शामिल थे। उसके बालों से साफ़ और चिकनी खोपड़ी उन रंगों को और भी चमकीला बनाते हुए छाप छोड़ रही थी। चीफ़ इन्जीनियर ने जवाब दिया, कुछ नहीं बस यही कि गैस कम्पनी ने भी तो सड़कों की खुदाई करवाई थी। तो? तो उससे क्या होता है। सड़क की खुदाई तो बिजली वाले भी करते हैं। ज़मीन के नीचे तार डालने के लिए और टेलीफ़ोन वाले भी करते हैं। इन सबको भी बुलाइए और जवाब माँगिए। गैस कम्पनी - आपको बस गैस कम्पनी याद आयी। मेयर ने नाख़ुशगवार और बुलन्द लहजे में कहा। एम. एल. ए. ने मेयर की तरफ़ हाथ उठा कर इशारा किया और बोलता रहा। मैं चाहता था कि रैम्बो गैस कम्पनी को ये काम सौंपा जाए, वो बहुत शरीफ़ लोग हैं। ये स्टार गैस कम्पनी तो बदनाम रही है। ये तो ग़ुण्डे मवाली कि़स्म के लोगों को अपनी लेबर के लिए हायर करती है। सीवर लाइन के पाइप उन्हीं मज़दूरों ने तोड़े हैं। एम. एल. ए. बोला। आप के पास क्या सुबूत हैं? मेयर ने कहा इंक्वायरी होने दीजिए, सुबूत मिल जाएंगे।
आप क्या कहेंगे? जि़ला मजिस्ट्रेट ने बिल्डर से पूछा, जो अब तक सर झुकाए बैठा था। जनाब मैं क्या कहूँ, मैंने तो सिफऱ् मकान बनवाये हैं वो भी ठेकेदारों के ज़रिए, बिल्डर शर्मिन्दा-सा होकर बोला। अच्छा मगर क्या आपने मकान ख़रीदने वालों से ये वादा किया था कि आप बिजली पानी की सुविध्ााएँ देने के साथ साथ उन्हें पाइप लाइन वाली गैस भी उपलब्ध्ा करा देंगे। जी वादा किया था। अच्छा कितने समय बाद? जनाब, मैंने मेयर साहब के रिश्तेदारों के लिए दो एच. आई. जी. फ़्लैट बुक किये थे। तब मेयर साहब के मशविरे से ये तै किया गया जनाब कि पाइप लाइन गैस की सुविध्ाा हासिल हो जाने से सोसाइटी में रहने वाले लोगों को ज़्यादा अच्छी जि़न्दगी, मेरा मतलब है कि क्वालिटी लाइफ़ मिल सकती है। बिल्डर ने जवाब दिया और मेयर की तरफ़ चोर नज़रों से देखने लगा।
स्टार गैस कम्पनी को भी नोटिस भेजिए। जि़ला मजिस्ट्रेट ने फ़ैसला सुनाया। मेयर एक बार ज़ोर से खाँसा फिर कहा। हम इस बात को फ़रामोश कर रहे हैं कि सबसे पहले बोरिंग वाला पानी जो सबमर्सिबल पाइप के ज़रिए ज़मीन के अन्दर से खींचा जाता है, प्रदूषित हुआ है। ये काम ज़ाहिर है कि स्थानीय सतह पर काम करने वाले प्लम्बरों और नल लगाने वालों ने किया होगा, हमें सबसे पहले उनसे सम्पर्क क़ायम करना होगा कि उन्होंने तै शुदा गहराई में ही बोरिंग की थी। वहाँ से सीवर लाइन कितनी दूर थी। मेरा ख़्याल है कि उन्हीं प्लम्बरों के ज़रिए पाइप लाइन डैमेज हुई है। जनाब हमने सारे प्लम्बरों के ज़रिए पहले ही सारी लाइन चेक करवा ली है। कहीं कोई ख़राबी नज़र नहीं आ रही है। बिल्डर ने अपनी सफ़ाई पेश की। म्यूनिसपल कारपोरेशन के चीफ़ इन्जीनियर ने फ़ौरन ही बात बढ़ायी। सर, मैंने इन्जीनियरों की एक टीम रवाना की थी। उनकी रिपोर्ट के मुताबिक़ पीने के पानी वाली लाइन में कहीं कोई ख़राबी नहीं है। वो सुरक्षित है। जि़ला मजिस्ट्रेट ने बिल्डर की तरफ़ लापरवाही से देखा, फिर कहा। आप उन सारे नल का काम करने वालों और प्लम्बरों को दोबारा बुलवाइये और स्वास्थ विभाग के कर्मचारियों की मौजूदगी में कल उनके साथ मीटिंग कीजिए। कारपोरेटर साहब आप भी शामिल रहियेगा। और एम. एल. ए. साहब को अगर वक़्त मिले तो पब्लिक का हौसला बढ़ जाएगा। एम. एल. ए. ने मुस्कराते हुए जवाब दिया। मैं ज़रूर सेवा में हाजि़र रहता मगर कल मुझे राजध्ाानी जाना है। गृह मन्त्री ने बुलवाया है। कुछ ख़ास बात करने। कोई बात नहीं, ये लोग देख लेंगे। तो आज की मीटिंग बरख़्वास्त, मेरा मतलब है कि ख़त्म हो गयी है। इसके मिनट्स तैयार करके एक घण्टे के अन्दर सारे मेम्बरान तक पहुँचा दो। जि़ला मजिस्ट्रेट ने अपने बूढ़े स्टेनो से कहा जो एक माह पहले मुलाजि़मत से अवकाश प्राप्त हो चुका था, मगर अभी तक किसी ने उसका चार्ज नहीं लिया था। चाय नहीं आयी अभी तक। जि़ला मजिस्ट्रेट ने थकी हुई आवाज़ में कहा और अर्दली को बुलाने के लिए घण्टी बजायी।
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म्यूनिसपल कारपोरेशन के दफ़्तर के सामने भीड़ इकट्ठा होने लगी। ये अजीब दफ़्तर है। इंसानों के मरने जीने का जितना हिसाब कि़ताब उसके पास है, उससे ज़्यादा तो बस यमदूत के पास ही होगा। इस दफ़्तर में एक अन्ध्ोरे और बोसीदा से कमरे में, किसी अलमारी में इंसानों की पैदाइश का रिकार्ड और सर्टीफि़केट रखे हैं और एक दूसरी अलमारी में जो शायद अलमारी के बराबर में ही रखी होगी उनकी मौत के सर्टीफि़केट हैं। इस अलमारी पर ध्ाूल कुछ ज़्यादा ही जमी हुई है। अब ये वहाँ के क्लर्क की आँख ही जानती है या फिर ख़ुदा की आँख कि कौन सी अलमारी में जि़न्दे बन्द हैं और कौन सी में मुर्दे। वैसे अब न जि़न्दों को मुर्दों की फि़क्र है और न मुर्दों को जि़न्दों की। मुर्दे बेचारे तो फिर भी कभी कभी जिन्दों की ख़ैरियत पूछने के लिए उनके घर आ जाते हैं जहाँ से उन्हें भूत की गाली देते हुए ज़लील करके निकाल दिया जाता है। मगर फिर भी ये सवाल रह जाता है कि वो अलमारी कहाँ है जिसमें उनके रिकार्ड मौजूद हैं जो न जि़न्दों में हैं न मुर्दों में। जनसंख्या के रजिस्टर में उनके नामों के आगे सुर्ख रौशनाई से सवालिया निशान बना दिया गया है। ये वो बदनसीब हैं जो जि़न्दा और मुर्दा इंसानों के दरमियान खींची गयी एक सुर्ख़ लकीर पर पड़े हुए कपकपाते हैं। कीड़ों मकोड़ों की तरह।
लोग म्यूनिसपल कारपोरेशन के दफ़्तर के आगे इकट्ठा हैं। वो पूछ रहे हैं कि ख़राबी कब तक दूर की जाएगी। मरम्मत क्यों नहीं की जा रही है और सबसे बढ़ कर ये कि पानी कब तक आएगा। मगर पानी में जो भेद है वो कारपोरेशन के अफ़सरों को और क्लर्कों को नहीं मालूम है। वो इस बारे में जवाब देने से मजबूर हैं।
भीड़ कचहरी में भी है, जहाँ कलेक्टर बैठता है, यानी जि़ला मजिस्ट्रेट जिसे लोग आज भी जि़ले का मालिक या बादशाह समझते हैं। लोगों को यक़ीन है कि उनके बादशाह के पास उनके दुखों का इलाज ज़रूर होगा। मगर बादशाह का ख़ादिम अर्दली सफ़ेद वर्दी पहने भीड़ को बार-बार पीछे हटने का हुक्म देता है। ज़्यादा शोर पुकार मचाने वाले चन्द अति उत्साहित लोगों को हिरासत में लिए जाने की ध्ामकी भी देता है मगर साथ ही उन्हें अर्थ भरी नज़रों से देखता भी जाता है। जि़ला मजिस्ट्रेट ने स्वास्थ विभाग के डायरेक्टर को अपने आफि़स में बुलाया है जिसके रिटायर होने में पन्द्रह दिन रह गये हैं और जो दिल का मरीज़ होने के साथ साथ बहुत नर्वस कि़स्म का आदमी है। उसकी हथेलियाँ हमेशा पसीजी रहती हैं और पैरों के तलवों से आग निकलती रहती है। उसका चेहरा एक ग़मगीन खच्चर के चेहरे से मिलता है। वो जि़ला मजिस्ट्रेट के सामने कुर्सी पर बैठा है। जि़ला मजिस्ट्रेट एक नौजवान आई. ए. एस. आफि़सर है और पुराने अफ़सरों को ख़ास तौर पर वो जो प्रमोशन से अफ़सर बने हैं, नफ़रत की नज़रों से देखता है। वो अपने आपको एक आध्ाुनिक और स्मार्ट ब्यूरोक्रेट समझता है। और पुरानी सड़ी हुई लाल फ़ीता शाही को चमकीली, नयी और हरी फीताशाही में बदल देना चाहता है।
डी. एम. साहब हेल्थ वालों के साथ मीटिंग कर रहे हैं। बाद में आप सबसे बात करेंगे। अर्दली चिल्लाता है। भीड़ में अब अपना अपना कैमरा लिए हुए मीडिया के रिपोर्टर भी घुस आये हैं मगर इनमें वो ख़ूबसूरत आँखों वाली लड़की नहीं है। वो यहाँ से तीन किलोमीटर दूर जि़ला सरकारी अस्पताल में लम्बी नाक वाले नौजवान डाॅक्टर के कमरे में बैठी हुई काफ़ी पी रही है।
आपका विभाग इस सिलसिले में क्या कर रहा है। कम्यूनिटी हेल्थ के नाम पर आपके क्रियाकलापों का रिकार्ड पिछले बीस सालों में मायूस करने वाला रहा है। जि़ला मजिस्ट्रेट अपने सामने रखी फ़ाइलों को टटोलते हुए कहता है। हम, सर हम, जनाब, शहर के तमाम मुहल्लों और कालोनियों की नालियों में हर हफ़्ते चूना डलवाते हैं और मलेरिया या डेंगू के ज़माने में मिट्टी के तेल और डी. डी. टी. पावडर का छिड़काव भी कराते हैं। जनाब, जी हाँ। आपको चूना डलवाने के लिए सरकार इतनी मोटी तनख़्वाह देती है? नहीं सर। जनाब, डाइरेक्टर के माथे पर पसीने की लकीरें बह रही हैं। जि़ले का आध्ािकारी एक फ़ाइल को दूसरी फ़ाइल से अलग करते हुए रख रहा है फिर तीसरे को चैथी से। लाइफ़ अपार्टमेन्ट्स के मामले में आप क्या कर रहे हैं? हम, हमने जनाब, हमने। सर वहाँ हर तरफ़ चूना ही चूना बिखेर दिया है। अब एक मच्छर भी वहाँ पर नहीं मार सकता। जनाब डी. डी. टी. का अच्छी मात्रा में छिड़काव किया है हमने जनाब। अब एक भी मच्छर। डाइरेक्टर ने जल्दी जल्दी अपनी क्रियाकलापों का बयान कर दिया है। तो आपके ख़्याल में ये बीमारी मच्छरों के ज़रिए फैली हैं। जि़ला मजिस्ट्रेट ने सुकून भरे लहजे में पूछा। जी, जी जनाब। नहीं, जी नहीं सर। मगर मच्छरों और गन्दगी से ही ऐसी बीमारियाँ फैलती हैं जनाब। मैंने सुना है जनाब। डाइरेक्टर की आवाज़ लगातार कपकपा रही है। जैसे रेडियो पर किसी स्टेशन या चैनल को सेट करते वक़्त उसकी सुई कपकपाती है। आपने सुना है? आप मेडिकल जर्नल और उनकी ताज़ा तरीन रिपोर्टों को पढ़ते हैं? क्या आप मेडिकल कालेजों और यूनिवर्सिटियों में होने वाले सेमीनारों में तशरीफ़ ले जाते हैं। जि़ला मजिस्ट्रेट पूछता है। मैं जनाब, मैं दिल का मरीज़ हूँ और अगले हफ़्ते मुझे पेस मेकर लगने वाला है। डाइरेक्टर ने अपनी फूलती हुई साँसों के दरमियान कहा। ओह! आप आक्सीजन का सिलेण्डर साथ नहीं रखते? जी हमेशा जनाब। बाहर रखा है। आप के कमरे के बाहर। अर्दली ने अन्दर ले जाने से मना कर दिया। पसीना डाइरेक्टर की गर्दन पर बहने लगा। दो दिन बाद लाइफ़ अपार्टमेन्ट् सोसाइटी में म्यूनिसपल कारपोरेशन के कर्मचारी, बिल्डर की टीम के लोग, प्लम्बर और एम. एल. ए. साहब की एक तहक़ीक़ाती मीटिंग होगी। आपका भी वहाँ रहना निहायत ज़रूरी है। अगर वहाँ की ज़मीन में या पानी में बीमारी के कीटाणु पाए गये तो समझ लीजिए कि ये ख़तरनाक होगा और उसे दूर करना एक टीम वर्क होगा। हमें सबका सहयोग चाहिए। आप भी अपनी जि़म्मेदारी को बख़ूबी समझ लीजिए। आप एक महीने बाद रिटायर हो रहे हैं। जि़ला मजिस्ट्रेट ने कहा। जी नहीं सर, पन्द्रह दिन बाद। अच्छा रिटायर होने के बाद क्या इरादा है। कोई बिज़नेस करूँगा। बीवी भी यही चाहती है और बच्चे भी। बहुत अच्छा ख़्याल है। जि़ला मजिस्ट्रेट मुस्कराता है और कहता है, ज़रूर बिज़नेस कीजिए। चूने के ठेके लेना शुरू कर दीजिए। इसमें बड़ा मुनाफ़ा है। जी क्या फ़रमाया, चूहे के? चूहे के नहीं चूने के। जि़ला मजिस्ट्रेट की मुस्कराहट ज़हर में डूबी होती है। डाइरेक्टर का सर जि़ल्लत और शर्मिन्दगी के बोझ के नीचे दब कर रह जाता है। जि़ला मजिस्ट्रेट घण्टी बजाता है। अर्दली अन्दर आता है। बाहर कितने लोग हैं? तक़रीबन डेढ़ सौ हुकुम। ठीक है उनके सिफऱ़् दो नुमाइन्दों को चुन कर अन्दर भेजो। दोनों नुमाइन्दे अलग अलग मज़हबों के होने चाहिए, क्या समझे? अपने साथ स्टेनो को भी ले लो। क्या समझे? जी हुकुम। अर्दली वापस जाता है। डाइरेक्टर साहब, आप जा सकते हैं। जि़ला मजिस्ट्रेट ने कहा। डाइरेक्टर काँपते हुए पैरों के साथ कुर्सी से उठता है। जि़ला मजिस्ट्रेट अर्दली को बुलाने के लिए दोबारा घण्टी बजाता है। अर्दली अन्दर आता है। काफ़ी भेजो, बहुत गर्म काफ़ी। जि़ला मजिस्ट्रेट उसकी तरफ़ देखे बग़ैर हुक्म देता है।
चश्मा लगाये, ख़ूबसूरत आँखों वाली रिपोर्टर नौजवान डाॅक्टर के कमरे में बैठी हुई काफ़ी के घूँट ले रही है। डाॅक्टर उसे रोमानी नज़रों से देखने के बावजूद उस पर अदब के किसी जुग़ादरी प्रोफ़ेसर की तरह अपने अध्ययन का रोब डालने की कोशिश में लगा हुआ है।
आपने प्ससदमेे ें डमजंचीवत पढ़ी है? डाॅक्टर पूछता है। नहीं, किसने लिखी है? सुज़न सोंटाग ने। डाॅक्टर ने जवाब दिया। अच्छा मैं ने ये नाम पहली बार सुना है। लड़की बोली। ओह! बड़े अफ़सोस की बात है कि आप सुज़न सोंटाग को नहीं जानती हैं। डाॅक्टर ने अफ़सोस और हमदर्दी ज़ाहिर करते हुए कहा। फिर फ़ख़्र भरे अन्दाज़ में बोला। मैं मेडिकल कालेज के लिटरेरी और ड्रामा क्लब का जनरल सेक्रेटरी था। ख़ैर आपने स्टीवन आर. का च्संदज च्ंतंकवग तो पढ़ा होगा। वो तो बेस्ट सेलर रहा है। ख़ूबसूरत आँखों वाली लड़की अपने काले रेशमी बाल ऊपर झटकती है। ध्ाीरे से, अदा के साथ मुस्कराती है और कहती है। नहीं मैंने इस कि़ताब का नाम सुना है। चलिए कोई बात नहीं, मगर मेरे ख़्याल में आपको पहली ही फ़ुरसत में ज्ीम म्उचमतवत व ि।सस डंसंकपमे पढ़ लेना चाहिए। अगर आपको जैसा कि आपने बताया कि आपको बीमारी और उसकी सामाजिकता यानी सोशियोलाॅजी से बहुत दिलचस्पी है। डाॅक्टर ने जोशीले अन्दाज़ में जुमला मुकम्मल किया। जी, मैंने ये कि़ताब पढ़ी तो नहीं है मगर इसके बारे में बहुत सुना है। सिद्धार्थ बनर्जी ने लिखी है ना? जी नहीं, बनर्जी नहीं मुखर्जी। डाॅक्टर ने सही किया। हाट केक की तरह बिकती है ये कि़ताब, मज़ा आ जाएगा पढ़ कर। डाॅक्टर ने कुछ इस अन्दाज़ में कहा जैसे वो कोई पोर्नोग्राफ़ी की कि़ताब हो। ख़ैर मैं आपको दूँगा। घर आइएगा कभी। बहुत कि़ताबें दूँगा और हाँ मैं आपको मैथ्यू जोन्सटन प् भ्ंक ं ठसंबा क्वह भी देना चाहूँगा। आप काफ़ी और लेंगी? जी ज़रूर। मुझे काफ़ी बहुत पसन्द है। लड़की मुस्करायी। मुझे काफ़ी से ज़्यादा काफ़ी की ख़ुशबू पसन्द है। डाॅक्टर ने कहा। पिछले साल यूरोप गया था, वहाँ की लड़कियाँ अपने पर्स में और अपनी जेबों में ब्राज़ीलियन काफ़ी के बीज रखती हैं। काफ़ी की महक से ज़्यादा अच्छी परफ़्यूम या इत्र की महक भी नहीं हो सकती। उसकी महक में ऐसा क्या है? लड़की अपनी नेल पालिश कुरेदते हुए आहिस्ता से बोली। वो दरअस्ल बेहद सेक्सी होती है। नौजवान डाॅक्टर ने इतनी तेज़ी के साथ कहा कि वो लफ़्ज़ ‘सेक्सी’ पर इतना ज़ोर नहीं दे पाया जितना इस मौक़े पर उसे देना चाहिए था मगर इससे पहले उसे अपनी ग़लती का एहसास हा पाता, लड़की ने उससे भी ज़्यादा तेज़ी के साथ अपना जुमला अदा किया। आप का मतलब ‘हाट’ से है ना। सेक्सी का लफ़्ज़ पुराना हो चुका है। कम से कम पाँच साल पुराना। हम मीडिया वाले लफ़्ज़ों को हमेशा उनकी सही पृष्ठभूमि में इस्तेमाल करते हैं। हमें इसकी ट्रेनिंग दी जाती है कि समकालीनता से अल्फ़ाज़ का रिश्ता कभी टूटने न पाये। डाॅक्टर पहली बार कुछ झेंप जाता है। फिर उस झेंप को मिटाने के लिए पूछता है। तो आपने बीमारियों पर कौन सी कि़ताबें पढ़ रखी हैं? मैंने और काफ़ी मँगवाई है। शुक्रिया जब मैं कालेज में पढ़ती थी तो वहाँ के तक़रीबन हर छात्र के हाथ में मारक्वेज़ की स्वअम पद जीम ज्पउम व िब्ीवसमतं हुआ करती थी। मुझे भी पढ़नी पड़ी। उसी ज़माने में अल्बेयर कामू की ‘प्लेग’ का भी अध्ययन किया। और हाँ याद आया चीन का एक लेखक था ली यान, उसके उपन्यास क्पदह के भी कुछ पेज पढ़े थे। मगर आगे नहीं पढ़ पायी। दिल नहीं लगा। लड़की अपनी लिप स्टिक दुरुस्त करने लगती है जो ज़्यादा चंचल रंग की नहीं थी और उसकी भूरी आँखों से मेल खाती थी। डाॅक्टर ने बिना इरादे के अपने निचले होंठ पर ज़्ाुबान फेरी और लापरवाही का इज़हार करते हुए कहा, मगर ये सब तो उपन्यास हैं। उपन्यास में होता ही क्या है। झूठ और लफ़्फ़ाज़ी के अलावा। इतना झूठ बकते हुए उन पर बिजली क्यों नहीं गिरती। उनसे वक़्त गुज़ारी और तफ़रीह बाज़ी के अलावा कोई संजीदा मक़सद नहीं हासिल हो सकता। आप इल्मी और तहक़ीक़ी कि़ताबें पढ़ा करें। दर अस्ल मुझे लिटरेचर की कोई समझ नहीं। आपने पूछा तो बता दिया। लड़की ने कहा। वैसे आपको ये उपन्यास कैसे लगे थे? डाॅक्टर ने पूछा। कुछ समझ में ही नहीं आया। लड़की बोली। वही तो, वही तो। डाॅक्टर ख़ुश होकर कहने लगा। आप बजाए उपन्यास पढ़ने के उपन्यास पर लिखी समालोचनात्मक कि़ताबें पढ़ लिया कीजिए। उनको पढ़ कर आपको ये मालूम हो जाए कि उपन्यासकारों से ज़्यादा अहमक़ और कोई क़ौम नहीं होती और उपन्यास से ज़्यादा अश्लील और नैतिक मूल्यों को ख़राब करने वाली कोई चीज़ नहीं होती। चपरासी काफ़ी के दो कप ट्रे में रखे हुए दाखि़ल हुआ मगर उसके पीछे एक नर्स और वार्ड बाॅय भी थे। क्या बात है? डाॅक्टर ने पूछा। एक मरीज़ और चल बसा है। वार्ड का माहौल बहुत बिगड़ गया है। नर्स ने जवाब दिया। ओह, अच्छा! ठीक है। तुम चलो, मैं काफ़ी ख़त्म करके आता हूँ। डाॅक्टर ने कहा। नर्स कनखियों से लड़की की तरफ़ देखती हुई, वार्ड बाॅय के साथ वापस चली जाती है।
क्या मैं भी आपके साथ वार्ड में चल सकती हूँ। लड़की ने पूछा। मेरे ख़्याल में शायद ये मुनासिब न हो। मीडिया के लोगों को अन्दर जाने की इजाज़त नहीं है। डाॅक्टर ने बेचारगी का इज़हार किया। मैं बस मीडिया की रिपोर्टर हूँ? ख़ूबसूरत आँखों वाली लड़की ने पता नहीं किस तरकीब से अपनी आँखें और ख़ूबसूरत और नशीली बना लीं। उसने लिपिस्टक लगे हुए अपने उभरे उभरे होंठ कुछ इस अन्दाज़ में आगे बढ़ाए जिससे ये पता लगाना मुश्किल था कि वो डाॅक्टर को बोसा देना चाहती है या उसका बोसा लेना चाहती है। डाॅक्टर की साँसें तेज़ हो गयीं। अच्छा मैं कोशिश करता हूँ। तुम अपना कैमरा तो साथ नहीं लायी हो? उसने कहा। नहीं। ये अच्छा है। चलो फिर जल्दी से काफ़ी ख़त्म करें। डाॅक्टर ये कहता हुआ काफ़ी का कप हाथ में पकड़े हुए उठ कर मेज़ की दूसरी तरफ़ लड़की की कुर्सी के क़रीब आ गया। लड़की ने इध्ार उध्ार देखा फिर काफ़ी का एक लम्बा घूँट लिया। डाॅक्टर ने अपना कप मेज़ पर रख दिया। लड़की ने भी अपना कप मेज़ पर रख दिया। लड़की के कप पर लिपिस्टक का निशान आ गया था। डाॅक्टर ने उस निशान को ग़ौर से देखा। फिर वो लड़की के और क़रीब आ गया।
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इमरजेन्सी वार्ड के अन्दर एक औरत बुरी तरह चीखती थी, रोती थी। अपने सीने पर दो हत्थड़ मारती थी। उसके तीन साल के मासूम बच्चे की लाश अभी भी बेड पर मौजूद थी। जिस पर लाल कम्बल डाल दिया गया था। उसके बराबर में चार पलंग और पड़े हुए थे। सामने भी, दूसरी क़तार में पाँच पलंगों पर मरीज़ लेटे हुए थे। मगर इससे हमें ये नहीं समझ लेना चाहिए कि इमरजेन्सी वार्ड में सिफऱ् दस ही मरीज़ थे। दर अस्ल पलंगों की और जगह की कमी होने की वजह से एक पलंग पर दो मरीज़ लिटाये गये थे। यूँ देखा जाए तो वार्ड में बीस लोग भर्ती थे जिनमें से फि़लहाल एक मर चुका था। मरीज़ों की तादाद में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा था। चीफ़ मेडिकल आफ़ीसर की हिदायत के मुताबिक़ इन मरीज़ों को सिफऱ् इमरजेन्सी वार्ड में ही रखा जा सकता था। इन तमाम मरीज़ों से मुख़्तलिफ़ और अलग जो दूसरी बीमारियों और दूसरी वजूहात की बिना पर अस्पताल में भरती थे या जिनके भरती होने के इम्कानात थे, दूसरी तरफ़। शहर के प्राइवेट अस्पतालों और नर्सिंग होमों ने भी ऐसे किसी भी मरीज़ को अपने यहाँ भरती करने से मना कर दिया था। जो लाइफ़ अपार्टमेन्ट्स से आये हों। मगर अब तो ऐसी ख़बरें भी मिलनी शुरू हो गयी थीं कि ये बीमारी महज़ लाइफ़ अपार्टमेन्ट्स तक ही महदूद नहीं रह गयी थी। सूरते हाल की नज़ाकत और संगीनी को देखते हुए इमरजेन्सी वार्ड के बाहर एक लम्बी और गाॅथिक तरीक़े की बनी हुई तक़रीबन सुनसान-सी रहने वाली रहदारी में भी मरीज़ों के लिए पलंग बिछा दिये गये थे। यहाँ भी एक पलंग पर दो मरीज़। दोनों मरीज़ों के जिस्म में चढ़ाई जाने वाली ग्लूकोज़ और सेलाइन की बोतलेें और नलकियाँ आपस में उलझ उलझ जातीं, टकराती रहतीं। वो तड़पते और बार-बार पेट में उठने वाले भयानक नामालूम दर्द के सबब से एक दूसरे की तरफ़ बेचैन होकर करवटें बदलते और एक दूसरे से लिपट लिपट जाते। उनके हाथों और पैरों की उंगलियाँ एक दूसरे की उँगलियों में फँस फँस जातीं। इन्जेक्शन के वास्ते उनकी कलाइयों और पिण्डलियों में पेवस्त सुइयाँ बार-बार बन्द हो जातीं। बोतलों की नलकियों में हवा भर जाती जिसके सबब उनके जिस्म से ख़ून निकल निकल कर दूसरों के कपड़ों और चेहरों पर लग जाया करता। वो दर्द से बेहाल होकर इस तरह चिल्लाते जैसे जि़बह होते हुए जानवर। कभी कभी तो करवटें लेने में वो पलंग से नीचे भी गिर जाया करते और उनके जिस्म के किसी हिस्से की हड्डी टूट जाया करती। वो अपनी देखभाल करने वाले तीमारदारों के बस में न आते थे। यूँ भी वार्ड में एक मरीज़ के साथ सिफऱ़् एक तीमारदार ही रह सकता था। कभी कभी बात बेबात पर एक पलंग के दोनों तरफ़ खड़े तीमारदार एक दूसरे से लड़ना भी शुरू कर देते थे।
इन बदनसीब मरीज़ों को किसी हाल भी चैन न था। उन पर न तो दर्द कम करने के इंजेक्शन असर करते और न ही नींद वाले इंजेक्शन। वार्ड में बेहद गंदगी फैली हुई थी और बेहद सड़ांध्ा भी। वार्ड के तमाम कर्मचारी अगरचे मास्क लगाये हुए थे और दस्ताने पहने हुए थे। फिर भी बदबू थी कि चली आती थी। वो मास्क के बारीक रेशों की दीवार को तोड़ देती थी और नाक में दनदनाती घुसी आती थी। नाक बंद कर लेने और साँस रोक लेने पर भी उस बदबू की आहट को साफ़ महसूस किया जा सकता था। बेचारे सफ़ाई कर्मचारी पर शायद ही इससे ज़्यादा बुरा वक़्त पड़ा हो। उनके दस्ताने हर वक़्त ख़ून मिली हुई उल्टियों और ज़र्द गन्दगी से सने रहते थे। उनकी बाल्टियाँ उस गन्दगी से लबालब भर चुकी थीं मगर अब अस्पताल में ऐसी कोई जगह भी बाक़ी नहीं बची थी जहाँ ये बाल्टियाँ ख़ाली की जा सकतीं। फि़नाइल और डेटाॅल का स्टाक ख़त्म हो चुका था। साबुन और पोंछे के कपड़े अब बाक़ी न रहे थे।
वो सब चिल्ला रहे थे। मरीज़ ही नहीं, लाशों के वारिस ही नहीं बल्कि वार्ड बाॅय, सफ़ाई का काम करने वाले और नर्सें तक सब जानवरों की तरह चीख रहे थे मगर फिर हर एक की चीख पर एक ख़ामोशी हावी थी। लाशों की ख़ामोशी और मौत के सन्नाटे ने वहाँ औरतों के रुदन को भी एक कमज़ोर आवाज़ में बदल करके रख दिया। जब तीन साल के उस बच्चे की लाश को बिस्तर से उठाकर बाहर लाया जाने लगा तो उस पलंग पर उसके बराबर लेटे हुए एक अध्ोड़ उम्र के शख़्स ने मुर्दा बच्चे के लाल कम्बल को पूरी ताक़त के साथ पकड़ लिया। वो नहीं चाहता था कि बच्चे की लाश वहाँ से हटायी जाए। इसमें हैरत की कोई बात नहीं। ऐसा वक़्त भी आ सकता है, जब लाशें जि़न्दों को ख़ौफ़ज़दा करने की बजाए उनको ढारस बँध्ााती फिरें। ख़ास तौर पर वो जि़न्दे जिनके जल्द ही लाशों में तबदील होने के इम्कानात हों। इस कोशिश में बच्चे के गले में पड़ी हुई, तावीज़ की काली डोरी अध्ोड़ उम्र के हाथ में फँस गयी। बच्चे की माँ दिल दहला देने वाली चीख़ें मार रही थी। जब वार्ड बाॅय ने किसी न किसी तरह बच्चे की लाश को उठा कर बाहर स्ट्रेचर पर डाल दिया तो माँ उसके पीछे पीछे इस तरह भाग रही थी जैसे बिल्ली अपने बच्चे को ख़तरे में देखकर उसे बचाने के लिए दीवानावार भागती है। वार्ड के बाहर फैला हुआ पीला गु़बार उसी तरह अपनी जगह क़ायम था। वो वार्ड के शीशों से छन छन कर अपना अक्स मरीज़ों और उनके बिस्तरों पर डाल रहा था जिसकी वजह से वो सब पीलिया के मरीज़ लग रहे थे। उनके बिस्तरों की सफ़ेद चादरें तक ज़र्द दिखायी देती थीं। पूरा शहर बुख़ार के इस गु़बार में जल रहा है और कँपकँपा रहा है। बुख़ार का ये मनहूस बादल, ये पीला मटियाला बादल, अपनी जगह से हिलता नहीं। इध्ार उध्ार जुंबिश तक नहीं करता। आसमान इस ज़र्द ध्ाुंध्ा के बादल में मढ कर रह गया है। इस बादल में कीटाणु ही कीटाणु हैं। काले सफ़ेद कपड़े पहने हुए, घृणास्पद, बदसूरत जोकरों की तरह एक दूसरे के मुँह पर तमाँचे मारते हुए। वायरस और बैक्टीरिया भेस बदल बदल आते हुए जाते हुए। वो इंसान को किसी दरख़्त, घास या पौध्ो से ज़्यादा कुछ नहीं समझते। कुछ भी नहीं।
सुनहरी फ़े्रम का चश्मा लगाये उस ख़ूबसूरत आँखों वाली लड़की ने अपने चेहरे पर मास्क लगा लिया है और हाथों में दस्ताने पहन लिए हैं। वार्ड के अन्दर दाखि़ल होने से पहले ही उसे चक्कर आने लगा है। नौजवान डाॅक्टर मरीज़ों का मुआयना कर रहा है। वो ड्यूटी पर मौजूद जूनियर डाॅक्टर से पूछता है। मरीज़ों के नाख़ून आपने देखे? यस सर, जूनियर डाॅक्टर ने जवाब दिया। कोई ख़ास बात नोट की आपने? जूनियर डाॅक्टर थूक निगल कर रह जाता है। सबके नाख़ून टेढ़े होकर ऊपर की तरफ़ मुड़ रहे हैं। नौजवान डाॅक्टर ने फ़ातिहाना नज़रों से लड़की की तरफ़ देखा जो घबरायी हुई नज़र आ रही है। ओह यस सर, यस सर। जूनियर डाॅक्टर ने जवाब दिया। बच्चे की लाश पोस्टमार्टम के लिए जाएगी और अब तक जितने लोगों की मौतें हुई हैं, उनके पोस्ट मार्टम की रिपोर्टें सी. एम. ओ. साहब के दस्तख़त के साथ फ़ौरन इन्स्टिट्यूट आफ़ वायरोलोजी और माइक्रोबायलोजी सेंटर को रवाना की जाएँगी। क्या समझे। जी सर। जूनियर डाॅक्टर ने सर हिलाते हुए जवाब दिया। नाख़ूनों का टेढ़ा होना रहस्यमय है। ये सिफऱ़् जानलेवा कि़स्म के ज़हर के ज़रिए ही मुमकिन है। अगर ये बैक्टीरिया है तो भी और वायरस है तो भी। मगर नाख़ून टेढ़े नहीं हो सकते और देखिए ये पीले पड़ कर टेढ़े हो रहे हैं। पीले ही हो रहे हैं या ख़ून की कमी है या उस कम्बख़्त पीली ध्ाँुध्ा का उन पर अक्स पड़ रहा है। ये पीली आँध्ाी यहाँ आकर कब से रुकी खड़ी है। इसने तो यहीं ख़ेमा डाल लिया है और हाँ सुनिए। इन्स्टिट्यूट आॅफ़ टाॅक्सिकाॅलजी को भी रिपोर्ट भेजिए। डाॅक्टर ने अपनी बात ख़त्म की ही थी कि नर्स दौड़ती हुई आयी। सर, वो उध्ार बाहर राहदारी में एक की हालत बिगड़ रही है। दोनों डाॅक्टर और नर्स राहदारी में आते हैं। ख़ूबसूरत आँखों वाली लड़की पीछे है।
अट्ठारह उन्नीस साल के एक नौजवान के मुँह से ख़ून की लकीर बहती हुई ठोड़ी तक आ रही है। आँखों की पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयी हैं। वो बेहोश है या फिर मर रहा है। ब्लड प्रेशर नापा कितना है? डाॅक्टर ने नर्स से पूछा। 300@160। ये बहुत है। दिमाग़ की नस फट गयी। ये देखिए इसके भी नाख़ूनों का वही हाल है। टेढ़े होकर आसमान की तरफ़ जा रहे हैं। डाॅक्टर मरीज़ पर झुकता है तो वो कहता है। मुझे बचा लो, अरे कोई मुझे बचा लो। मैं मरना नहीं चाहता। इसी बेड पर नौजवान के बराबर में लेटा हुए बूढ़ा दाढ़ी वाला आदमी रो रो कर कहने लगा। रुई लाओ, ख़ून साफ़ करो। जवान आदमी है बहुत ख़ून बाहर आएगा। रुई का स्टाक ख़त्म हो गया है डाॅक्टर। नर्स कहती है। बाहर से मँगवाओ। जी डाॅक्टर। आर्डर दे दिया गया है मगर सप्लाई नहीं हो पा रही है। तो कोई कपड़ा लाओ। पट्टी लाओ। अब नाक से भी ख़ून निकलना शुरू हो गया है। नौजवान के मुँह और नाक से बहता हुआ ख़ून, बराबर में लेटे हुए बूढ़े दाढ़ी वाले शख़्स की पसलियों को भिगोने लगा। उसने घबराकर दूसरी तरफ़ करवट लेनी चाही तो स्टैण्ड पर लगी हुई ग्लूकोज़ की बोतल निकल कर फ़र्श पर गिर कर टूट गयी। इस ज़बरदस्त झटके की वजह से सुई भी उसकी कलाई से निकल कर गोश्त फाड़ती हुई, दोनों मरीज़ों के सिरों पर डोलने लगी। कुछ देर के लिए ऐसा लगा जैसे ज़लज़ला आ गया हो। अब दाढ़ी वाले की कलाई से भी ख़ून का फ़व्वारा फूट पड़ा। बिस्तर की सफ़ेद चादर में उन दोनों के ख़ून घुल मिल कर रह गये।
मुझे चक्कर आ रहा है, सारा जिस्म सुन्न हो गया है। ख़ूबसूरत आँखों वाली लड़की ध्ाीरे-से कहती है। बस यहाँ से निकल रहे हैं। मुझे सी. एम. ओ. से मिलना है। डाॅक्टर ने भी बहुत आहिस्ता से जवाब दिया। फिर बुलन्द लहजे में नर्स से कहा। अस्पताल में ख़ून तो अच्छी मात्रा में मौजूद है। जी नहीं सर, स्टाक ख़त्म हो गया हैं मेडिकल एसोसिएशन के ब्लड बैंक से मँगवाओ। डाॅक्टर ने नाराज़ होते हुए कहा। जी सर, वहाँ भी स्टाक ख़त्म हो गया है। ं
अस्पताल की राहदारी से निकल कर वो नीचे उतरने वाली सीढि़याँ तय करते हैं। आखि़री सीढ़ी पर पहुँच कर लड़की का पैर फिसलता है। डाॅक्टर उसे सहारा देते हुए उसकी कमर में हाथ डाल देता है। ये चीफ़ मेडिकल आफि़सर के बंगले तक जाने वाला एक शार्ट कट है। दरख़्तों से घिरा हुआ एक सुनसान रास्ता। पेड़ों पर बैठे हुए कुछ कव्वे, उनके सरों पर काँव काँव कर रहे हैं। इध्ार कोई आता जाता नज़र नहीं आता। बाई तरफ़ मुड़ कर स्टाफ़ के चन्द छोटे छोटे क्वार्टर हैं जिनकी तरफ़ एक औरत दूध्ा की बाल्टी लिए हुए जा रही है। एक भूरी बिल्ली ने उनका रास्ता काटा है। सामने घने दरख़्तों का एक झुण्ड है जिसके पीछे थोड़े फ़ासले पर अस्पताल का वो पिछला छोटा-सा गेट है जो एक तय वक़्त में स्टाफ़ के लिए ही खोला जाता है। दरख़्तों के झुण्ड के नीचे पहुँच कर, अचानक डाॅक्टर, लड़की को पूरी ताक़त के साथ अपनी बाहों में जकड़ लेता है। वो लड़की के होंठों का बोसा लेने की कोशिश करता है। लड़की अपना सर पीछे की तरफ़ करती है। डाॅक्टर की लम्बी नाक का बाँसा लड़की के चश्मे से टकराता है। चश्मा आँखों से फिसल कर ज़मीन पर गिर जाता है। वो चश्मा उठाने के लिए नीचे झुकती है तो उसके गहरे कटाव वाले जम्पर में से छोटे छोटे स्तन अपनी आध्ाी झलक दिखाने लगते हैं। डाॅक्टर उसकी कमर मेें हाथ डाल कर, उसे सीध्ाा करने की कोशिश करते हुए अपने होंठ उसके सीने के क़रीब ले आता है पेड़ों पर बैठे कव्वे ज़ोर ज़ोर से बोलते हैं।
नहीं, आज नहीं। मुझे उल्टी आ रही है। बहुत ज़ोर की उल्टी। लड़की घबराई और काँपती हुई आवाज़ में दोबारा कहती है। मेरा जी मतला रहा है। वो वहीं ज़मीन पर उकड़ू बैठ जाती है और सिर झुका कर क़ै करने की कोशिश में उबकाईयाँ लेती हुई खाँसने लगती है। डाॅक्टर उसकी पीठ सहलाने लगता है और उसके बे्रसिअर के सख़्त हुक को भी। मैंने सख़्त मना किया था वार्ड में जाने को। आम आदमी ये सब बर्दाश्त नहीं कर सकता। ख़ैर कोई बात नहीं। अभी ठीक हो जाओगी। नहीं ज़बरदस्ती उबकाइयाँ मत लो। हलक़ छिल जाएगा। डाॅक्टर कहता है और अपनी पतलून की जेब में से विटामिन सी की गोलियाँ निकालता है। लो ये दो गोलियाँ मुँह में रख लो और गहरी गहरी साँसें लो।
कुछ देर बाद लड़की उठ कर खड़ी हो जाती है। पसीने से उसका चेहरा भीगा हुआ है और लिपिस्टक बिगड़ गयी है। जिसे वो ठीक करती हुई कहती है। मैं जाऊँ? इध्ार पिछले गेट से ही बाहर निकल जाऊँ? अच्छा ठीक है, मैं अपनी कार से तुम्हें छोड़ देता मगर आज सी. एम. ओ. के यहाँ ज़रूरी मीटिंग है। अभी तमाम डाॅक्टरों को इसमें शिरकत करना है। डाॅक्टर कहता हैं। नहीं शुक्रिया, मैं चली जाऊँगी। कल काफ़ी पीने कहीं बाहर चलते हैं। दो बजे के बाद मेरी ड्यूटी ख़त्म हो जाएगी। डाॅक्टर मुस्करा कर कहता है। मैं फ़ोन पर बता दूँगी, रात में ओ. के.। और हाँ वो सूज़न सोंटाग की कि़ताब लेने घर कब आओगी? कि़ताब का नाम याद है ना? डाॅक्टर पूछता है। प्ससदमेे ें डमजंचीवत लड़की जवाब देती है।
लड़की अस्पताल के पिछले दरवाज़े से बाहर चली जाती है। डाॅक्टर चीफ़ मेडिकल आफि़सर के बंगले की जानिब क़दम बढ़ाने लगता है। उसका सफ़ेद कोट अचानक न जाने कहाँ से भटक आए हुए हवा के एक झोंके से लहराने लगता है। सिफऱ् एक पल के लिए। शायद वो झोंका एक ध्ाोखा था। पहले ग़ुबार ने सूरज को पूरी तरह ढक लिया है। ध्ाुँध्ा कुछ और गाढ़ी हुई है। गु़बार में कुछ नयी परतें शामिल हुई हैं। इमरजेन्सी वार्ड के अलावा हर तरफ़ ख़ामोशी है। दूसरे कि़स्म के मरीज़ यहाँ आने से डर रहे हैं। जब भरी दोपहर में ये सन्नाटा है तो शाम ढल जाने के बाद यहाँ कैसा लगेगा। रात में जब अस्पताल की राहदारियों में कुत्ते घूमेंगे और आवारा बिल्लियाँ रोएँगी, वो उस मौत को देख कर रोएँगी जो वहाँ आराम से चहल क़दमी कर रही हैं। इंसान मौत से डरते तो हैं मगर उसके क़दमों की हक़ीक़ी चाप नहीं सुन सकते।
मामला अब वाक़ई लाइफ़ अपार्टमेन्ट्स तक ही महदूद न रहा था। जल्द ही दूसरी कालोनियों से भी घरों में गन्दा पानी आने और वहाँ के बाशिन्दों के बीमार पड़ जाने की ख़बरें आने लगीं। ख़बरें सिफऱ् स्थानीय अख़बारों की सुखिऱ्याँ ही नहीं थीं। बल्कि राष्ट्रीय स्तर के अख़बारों में भी यहाँ की ख़बरें छपने लगीं। राज्य के स्वास्थ विभाग ने शहर के बड़े अध्ािकारियों को तरह तरह के निर्देश देने शुरू कर दिये। लोग उन कालोनियों से निकल निकल कर जाने लगे। आलम ये हो गया कि सत्तर से अस्सी फ़्लैटों पर आध्ाारित हर सोसाइटी में महज़ दस या पन्द्रह फ़्लैट ऐसे बचे होंगे जिनमें अभी भी लोग रह रहे थे और उन्हें ये उम्मीद थी कि जल्द ही ये बला टल जाएगी। इध्ार आकर गर्मी भी बढ़ गयी थी। हवा बन्द थी, इसलिए घुटन बहुत बढ़ गयी थी। कुछ लोग इसलिए भी यहाँ से नहीं हटना चाहते थे कि उनके घरों में तमाम सहूलतें मयस्सर थीं। सबसे बढ़ कर नेमत तो एयर कन्डीशन थे तो आखि़र उन्हें दीवारों से उखड़वा कर कहाँ ले जाया जा सकता था और किस के घर में।
एक तब्दीली ये भी घटित हुई थी कि अचानक उस इलाकें में एम्ब्यूलेन्सों की आवाजे़ें ज़्यादा आने लगी थीं। आटो रिक्शा या टैक्सी वगै़रह मुश्किल से ही नज़र आती थीं। आध्ाी रात में जब एम्ब्यूलेन्स साइरन देती हुई गुज़रती तो कुत्ते उसकी लाल रौशनी पर भौंकने लगते। इस तमाशे को चलते हुए डेढ़ हफ़्ता हो चुका था। दूसरे हफ़्ते के आखि़री दिनों में इस तमाम इलाके़ में पीने के पानी की सप्लाई बन्द कर दी गयी। ये क़दम सेंटर फ़ार डिसीजे़ज़ कन्ट्रोल के मशविरे पर उठाया गया था। वैसे तो इस मसअले के हवाले से शहर में तक़रीबन रोज़ाना ही उच्च अध्ािकारियों की मीटिंगें हो रही थीं जिनमें डाॅक्टरों के अलावा सिविल इंजीनियर भी शामिल रहते थे। मगर इस हफ़्ते यहाँ की मिट्टी अण्डर ग्राउण्ड पानी की जाँच परख करने के लिए इन्स्टिट्यूट आफ़ साॅइल रिसर्च वालों की एक टीम भी प्रदेश की राजध्ाानी से आ पहुँची। इस टीम के साथ जिओलाजिकल सर्वे के दो वैज्ञानिक भी मौजूद थे। ये कोई आम बात नहीं थी। मीडिया ने इसे बहुत संजीदगी से लिया था। ये जल बोर्ड के इंजीनियरों, म्यूनिसपल कार्पाेरेशन के अफ़सरों और सियासतदानों की मूशिग़ाफि़यों से कहीं बढ़ कर थी। इस टीम ने प्रभावित इलाके़ और उसके आस पास की ज़मीन खोदनी शुरू कर दी। खोदी गयी मिट्टी के ढेर ऊँचे होते जाते थे। मिट्टी के इन ऊँचे ढेरों पर चील और कव्वों ने आकर बैठना शुरू कर दिया। ये टीम दस लोगों पर आध्ाारित थी। और अपने साथ ज़मीन खोदने आध्ाुनिकतम मशीनें और कई ताक़तवर जनरेटर भी साथ लायी थी। ये काफ़ी हैरत की ही बात थी कि एक छोटे-से नज़र अन्दाज़ कर दिये जाने वाले शहर के एक विशेष इलाक़े में पानी से फैलने वाली एक बीमारी को रोकने या उसकी वजह की खोज-बीन करने के लिए ये क़दम न सिफऱ़् राज्य स्तर पर बल्कि केन्द्रीय हुकूमत के आदेशों के तहत उठाये जा रहे थे। स्थानीय सियासतदान इसका सेहरा अपने सर ले रहे थे क्योंकि इस इलाके़ में एक बाई इलेक्शन भी होना था जिसका दिन क़रीब आ रहा था।
मरने वालों के पोस्ट मार्टम रिपोर्टें और मरीज़ों के ख़ून की जाँचें पाबन्दी के साथ इन्स्टिट्यूट आॅफ़ वायरोलाॅजी को भेजी जा रही थीं मगर अभी तक तो कोई नतीजा सामने आया नहीं था और अगर आया था तो ज़ाहिर है कि उसे ख़ुफि़या रखा जा रहा था। जो भी हो रहा था और जो भी सुनने में आ रहा था वो तरह तरह के अन्देशों और अन्ध्ाविश्वासों का एक लम्बा सिलसिला बन कर रह गया था। अख़बारों में पूरे पूरे पृष्ठों पर ऐसे इश्तहार छापे जा रहे थे जो आम दिनों में नज़र नहीं आते। मसलन उन तथ्यों का प्रसार किया जा रहा था कि स्वास्थ्य के दिशा निर्देशों का ख़्याल रखते हुए विज्ञान ने बहुत ही ख़तरनाक बीमारियों को जड़ से ख़त्म कर दिया है। मुख़्तलिफ़ कि़स्म की दवाइयाँ, सर्जरी के नये उपकरण, मशीनें, सी. टी. स्कैन, एम. आर, आई. और भी बहुत सी ऐसी रेडियाई मशीनें जिनके ज़रिए कैंसर जैसे जानलेवा मर्ज़ तक पर क़ाबू पा लिया गया है। खेती के मैदान में भी रसायनिक खादें, दवाएं और हाइब्रिड बीजों के ज़रिए न सिफऱ़् फ़सल की पैदावार बढ़ी है बल्कि बंजर और रेतीली ज़मीन भी खेती के क़ाबिल हो गयी है। अनाज, फल और सब्जि़यों में पहले से कई गुना ज़्यादा पैदावार होने लगी है मगर एक नकारात्मक पहलू भी सामने आया है और वो ये कि माहौल में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरणीय प्रोग्राम के तहत प्रदूषण के बारे में लगातार आंकड़े दिये जा रहे हैं और एशियाई मुल्क इस ख़तरे से कुछ ज़्यादा ही दो-चार हैं। हवा तो प्रदूषित होती ही है मगर सबसे ज़्यादा ख़तरा पानी के प्रदूषित हो जाने की वजह से है और ज़मीन के नीचे के पानी की सतह न सिफऱ् कम होती जा रही है बल्कि ज़हरीली भी। ये भी मुमकिन है कभी आगे चल कर पानी के स्रोत ख़त्म हो जाएँ। मुल्क के कई राज्यों में पानी के विभाजन पर आपस में विवाद चल रहा है और मुमकिन है कि अगर तीसरी आलमी जंग हुई तो वो सिफऱ़् पानी की स्रोतों पर क़ब्ज़ा करने की नियत से होगी। इन विज्ञापनों में आजकल रोज़ हरे दरख़्तों को काटने से मना किया जाता है और ये आगाह किया जाता है कि हरे जंगलों और दरख़्तों को काटना और वहाँ कारख़ाने और फै़क्ट्रियाँ लगाना एक जुर्म है। पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने के लिए हुकूमत ने बहुत-से क़दम उठाये हैं, जिनकी सूचना आम आदमी तक पहुँचाना बहुत ज़रूरी है। ये क़दम क़ानून बनाने तक पहुँच गये हैं और उनको न सिफऱ़् प्रदेश सरकारों बल्कि केन्द्रीय सरकार के ज़रिए भी लागू किया जा रहा है। उनमें फ़ैक्टरी एक्ट, पर्यावरण एक्ट और जल पर्यावरण का क़ानून भी शामिल हैं। प्रदूषण को कन्ट्रोल में रखने के लिए बाक़ायदा तौर पर एक बोर्ड को भी बनाया गया है जिसकी सिफ़ारिशात पर हुकूमत के ज़रिए अमल किया जाना लाजि़मी है। इस तरह के इश्तेहारात न सिफऱ् अख़बारों में बल्कि टेलीविज़न और रेडियो पर भी प्रसारित किये जा रहे हैं। दीवारों पर पोस्टर भी लगाये जा रहे हैं। ये अच्छे संकेत नहीं हैं। ये किसी बड़े ख़तरे का पूर्वाभास हैं। हद हो गयी कि अच्छी तन्दुरुस्ती को बरक़रार रखने के पुराने और बेकार उसूल भी दुहराये जाने लगे हैं। कसरत करना, सुब्ह का टहलना, पौष्टिक आहार, वक़्त की पाबन्दी वगै़रा के फ़ायदे और शराब पीने या सिगरेट पीने के बुरे प्रभाव गिनवाये जा रहे हैं। ताज़ा फल और सब्जि़याँ खाने पर ज़ोर दिया जा रहा है और गोश्त खाने से होने वाले नुक़सानों के बारे में निर्देश दिये जा रहे हैं। स्वास्थ्य की सुरक्षा के तमाम उसूल रटाये जा रहे हैं जबकि स्वास्थ्य सुरक्षा के मुखिया इनके बारे में कुछ नहीं जानता और अवाम इस कि़स्म के इश्तिहारों पर अपना वक़्त बर्बाद नहीं करना चाहते मगर सबसे बड़ा आभास तो उस वक़्त दिल में घर कर जाता है जब अख़बारों के इन इश्तिहारों में से सतर भी देखने को मिल जाती हैं कि ‘याद रखिए! पाक व साफ़ पानी का न तो कोई रंग होता है और न ही कोई मज़ा और ख़ुशबू।’ काश ये भी बता दिया जाता कि हाइड्रोजन गैस के दो अणु, आक्सीजन गैस के एक अणु से मिलने के बाद जो शै बनाते हैं वो पानी कहलाती है। पड़ोसी मुल्क के वैज्ञानिकों ने पानी की इस तारीफ़ में एक जुमले का नैतिक और मज़हबी इज़ाफ़ा भी कर लिया है। उनके मुताबिक़ इन दोनों गैसों के अणु तब तक आपस में मिल ही नहीं सकते जब तक उन्हें मिलाने में ख़ुदाई मजऱ्ी शामिल न हो। शायद इसलिए चाँद पर पानी शुरू शुरू में दरयाफ़्त नहीं किया जा सका हालाँकि वहाँ आक्सीजन भी थी और हाइड्रोजन भी मगर ये दोनों गैसें ख़ुदा की मजऱ्ी न हो तो मुहाल हैं, ये भी ख़ुदा की मजऱ्ी है।)
पता नहीं इस कि़स्म के इश्तिहार बचकाना हैं या किसी हमलावर फ़ौज के आगे आगे दौड़ते हुए ढोल बजा बजा कर आने वाली मौत से ख़बरदार करने वाले भाण्ड और मसख़रे। ये इससे ज़्यादा और क्या ख़बर दे सकते हैं या इसके अलावा और क्या बता सकते हैं कि साफ़ पानी का न कोई रंग होता है न मज़ा ओर न कोई ख़ुशबू, अगर ख़ुदा चाहे तो।