गाँघी और उनके हत्यारे जेम्स डब्ल्यू. डॅगलॅस अनुवादः मदन सोनी
29-Dec-2019 12:00 AM 3316

गाँघी अपने हत्यारों को जानते थे।
बताया जाता है कि उनकी मुलाक़ात उस आदमी से पहले भी हो चुकी थी जिसने उनपर गोली चलाकर उनकी हत्या की थी। कहा जाता है कि भविष्य में उनपर गोली दागने वाले इस आदमी को गाँघी ने अपने साथ एक सप्ताह बिताने के लिए आमन्त्रित किया था - जब यह आदमी उनकी हत्या करने की नाकामयाब कोशिश में गिरफ़्तार कर लिया गया था।
गाँघी उस हिन्दू राष्ट्रवादी विचारघारा से भलीभाँति परिचित थे जिसके षडयन्त्रकारी पूरे जी-जान से उनकी हत्या करने की योजना रच रहे थे। उनका गिरोह उस उभरते हुए आन्दोलन का कट्टरपन्थी सत्व था जो हिन्दुस्तान को तब तोड़ने वाला था और आज भी उसपर वर्चस्व क़ायम करने का ख़तरा बना हुआ है।
गाँघी उनकी हत्या के पीछे सक्रिय उस आध्यात्मिक नेता से विशेष रूप से परिचित थे, जो क्रान्तिकारी हिंसा का एक प्रतिभाशाली हिन्दुस्तानी विचारक था, जिससे वे दशकों पहले इंग्लैंड में मिल चुके थे। हिंसा और अहिंसा के, आतंकवाद और सत्याग्रह के, हत्या और शहादत के इन दोनों लोगों के विकसित होते सपने हिन्दुस्तान और दुनिया के भविष्य के लिए तब एक-दूसरे से होड़ कर रहे थे - और आज उससे कहीं ज़्यादा उतावले ढंग से होड़ कर रहे हैं।
गाँघी और उनके हत्यारों के परस्पर गुँथे हुए कि़स्से हमें वह व्याख्यात्मक खुर्दबीन उपलब्घ कराते हैं जिसकी मदद से हम वास्तविकता को समझ सकते हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसमें राजनैतिक हत्या वह अकथनीय और राष्ट्रीय मान्यता-प्राप्त कला बन चुकी है, जिसका उद्देश्य अपने लोकतन्त्र पर गर्व करने वाले, हिन्दुस्तान से लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका तक के देशों में बुनियादी परिवर्तन को कुण्ठित कर देना है।
1909 में, जिस दौरान गाँघी दक्षिण अफ्ऱीका में पहले-पहल सत्याग्रह को समझ रह थे, उन्होंने साम्राज्यवादी सरकार के समक्ष अपने घिरे हुए समुदाय की ओर से अपना पक्ष रखने के लिए लन्दन की अपनी दो निराशाजनक यात्राओं में से दूसरी यात्रा की थी। 1906 के उनके पिछले उपक्रम की भाँति जनमत तैयार करने का उनका 1909 का उपक्रम भी गाँघी के लिए कमज़ोर स्थिति से सत्ता के केन्द्र को सम्बोघित करने की निस्सारता को बल प्रदान करने वाला साबित हुआ था। एक मज़बूत स्थिति में खड़े होकर बात करने के लिए गाँघी को ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों का प्रतिनिघित्व करना ज़रूरी हो गया था, उन लोगों का प्रतिनिघित्व जिनका व्यापक हिस्सा हिन्दुस्तान में रहता था, न कि दक्षिण अफ्ऱीका मेें। गाँघी हिन्दुस्तान वापस लौटने की गहरी ज़रूरत पहले से ही महसूस कर रहे थे, जहाँ स्वाघीनता आन्दोलन मज़बूत हो रहा था।
1909 की इस यात्रा में गाँघी यह जानकर भी चैकéे थे कि किस तरह हिन्दुस्तानियों की एक नयी पीढ़ी अँग्रेज़ों से मुक्ति पाने के एकमात्र तरीक़े के रूप में राजनैतिक हत्याओं और सशस्त्र संघर्ष की ओर आकृष्ट हो रही थी। दरअसल, जब वे 10 जुलाई 1909 को लन्दन पहुँचे थे तो एक हिन्दुस्तानी राष्ट्रवादी द्वारा गर्व के साथ की गयी हत्या की सनसनीख़ेज ख़बर ने वहाँ उनका स्वागत किया था।
1 जुलाई को लन्दन को उस वक़्त गहरा आघात पहुँचा था जब एक हिन्दुस्तानी छात्र ने सेक्रेटरी आॅफ़ स्टेट फ़ाॅर इंडिया के राजनैतिक सलाहकार सर विलियम कर्ज़न विली की गोली मारकर हत्या कर दी थी। यह हत्या लन्दन के केन्द्र में स्थित इन्स्टिट्यूट आॅफ़ इम्पीरियल स्टॅडीज़ में नेशनल इंडियन एसोसिएशन द्वारा आयोजित एक भव्य स्वागत समारोह के दौरान की गयी थी। हत्या करने वाला था मदनलाल घींगड़ा, जिसने लन्दन के यूनिवर्सिटी काॅलेज से हाल ही में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की थी। जब विली के साथ का एक पारसी डाॅक्टर घींगड़ा से उलझ पड़ा, तो हत्यारे ने अपनी आखि़री गोलियों का इस्तेमाल करते हुए डाॅक्टर को भी मार डाला।
विली और घींगड़ा एक-दूसरे को जानते थे। विली मदनलाल घींगड़ा के परिवार के एक दोस्त थे। घींगड़ा के पिता, जो हिन्दुस्तान में एक जाने-माने डाॅक्टर थे और ब्रिटिश सम्राट के वफ़ादार थे, ने विली से अनुरोघ तक किया था कि वे मदनलाल का मार्गदर्शन कर उसे लन्दन के छात्रों की उग्रवादी कार्रवाइयों से दूर हटाने में मदद करें।1 विली के आखि़री क्षणों में, मुमकिन है उनको अहसास हो गया हो कि इसके लिए कितना कम अवसर बच रहा था। जब विली उस स्वागत समारोह से जाने को थे, तब मदनलाल अपने हाथ में पिस्तौल छिपाये हुए, मानो दोस्ताना अन्दाज़ में उनसे गुडनाइट कहने, उनके पास जा पहुँचा। अचानक उसने विली के चेहरे पर दो गोलियाँ दाग दीं, और जैसे ही वे फ़र्श पर गिरे, वैसे ही दो और गोलियाँ उनके शरीर में दाग दीं, और इस तरह उनको वहीं घटना-स्थल पर ही ख़त्म कर दिया।2
घींगड़ा का ध्येय राजनैतिक था। वह हिंसक क्रान्ति और राजनैतिक हत्या में विश्वास रखने वाले छब्बीस वर्षीय हिन्दुस्तानी विचारक विनायक दामोदर सावरकर का कट्टर अनुयायी बन चुका था। सावरकर लन्दन स्थित अपने हाॅस्टल इंडिया हाउस में रह रहे उग्रवादी हिन्दुस्तानी छात्रों के एक काडर के नेता थे। उन्होंने महीनों मेहनत करके मदनलाल घींगड़ा को राजनैतिक हत्यारे के साँचे में ढाला था। सावरकर ने ही घींगड़ा को विली की हत्या करने की मुहिम सौंपी थी। ये घींगड़ा को सौंपी गयी दूसरी जि़म्मेदारी थी। वह इसके पहले सेक्रेटरी आॅफ़ स्टेट फ़ाॅर इंडिया की हत्या की सावरकर द्वारा सौंपी गयी मुहिम में उस वक़्त नाकामयाब रहा था, जब गोली चलाने वाले और उसके निशाने के बीच का दरवाज़ा बन्द हो गया था। सावरकर इससे बौखला उठे थे। जब घींगड़ा ने विली की हत्या करने के अपने उद्यम के लिए अपने गुरु का आशीर्वाद माँगा, तो सावरकर ने उसको महज़ एक रिवाॅल्वर देते हुए कहा था, ‘अगर तुम इस बार नाकामयाब रहे, तो मुझे अपना चेहरा कभी मत दिखाना।’3
जब घींगड़ा उन विली की हत्या करने में सफल रहा जिन्हें ‘इंडिया आॅफि़स की आँख और दिमाग़’ कहा जाता था, तो सावरकर ने जेल में बन्द अपने इस चेले को उसकी इस उपलब्घि के लिए बघाई दी थी। उन्होंने इस अभिशप्त हत्यारे का अपने कवच और प्रवक्ता की तरह भी इस्तेमाल किया था।
घींगड़ा को फाँसी दिये जाने के अगले दिन, 18 अगस्त को सावरकर अख़बारनवीसों से अपने दोस्ताना रिश्तों की मार्फ़त लन्दन डेली न्यूज़ में प्रकाशित ‘घींगड़ा का बयान’ का पूरा मज़मून हासिल करने में कामयाब रहे। इस बयान में घींगड़ा को यह कहते हुए उद्धरित किया गया हैः ‘मैं स्वीकार करता हूँ कि कुछ दिन पहले मैंने देशभक्त हिन्दुस्तानी नौजवानों को अमानवीय ढंग से दी गयी फाँसियों और उनको देशनिकाला दिये जाने के विनम्र प्रतिशोघ के तौर पर अँग्रेज़ ख़ून बहाने की कोशिश की थी। इस उद्यम में मैंने अपनी अन्तरात्मा के सिवा और किसी का परामर्श नहीं लिया था; मैंने सिवा अपने कर्तव्य के और किसी के साथ मिलकर षडयन्त्र नहीं रचा था।’5 सावरकर द्वारा लिखे गये ये शब्द6 जहाँ उस व्यक्ति के नाम पर हत्या की सफ़ाई पेश करते हैं जिसने पिस्तौल का घोड़ा खींचा था, वहीं वे इस षडयन्त्र को रचने वाले पर, यानी स्वयं सावरकर पर परदा डाल देते हैं।7
मदनलाल घींगड़ा खुद उस आदमी पर परदा डालने को जो उसको अँग्रज़ों की बलि चढ़ा रहा था इस क़दर कृतसंकल्प था कि उसने सावरकर के दूसरे अनुयायियों से कहा था कि ‘अगर हम जीवित बने रहते हैं और सावरकर मर जाते हैं, तो हम सब मिलकर भी एक सावरकर को तैयार नहीं कर सकते, लेकिन अगर मैं मर जाता हूँ और सावरकर जीवित बचे रहते हैं, तो वे सैकड़ों मदनलाल तैयार कर सकते हैं।’8
विली की हत्या के नौ दिन बाद लन्दन पहुँचने पर गाँघी ने गहराती हुई चिन्ता के साथ हत्या के इस नाटक को खेले जाते देखा था, जिसकी पराकाष्ठा के तौर पर उस घीगड़ा को फाँसी दी गयी थी, जिसको अनेक हिन्दुस्तानी राष्ट्रवादी एक बहादुर नायक की मृत्यु की तरह देख रहे थे। गाँघी विली से परिचित थे। उन्होंने उनकी मौत पर शोक व्यक्त किया। वे घींगड़ा के प्रति भी सहानुभूति महसूस कर पा रहे थे, उसको एक बहादुर नायक के रूप में देखते हुए नहीं, बल्कि विनाशकारी विचारों के वशीभूत एक इन्सान की तरह देखते हुए। हमेशा की तरह गाँघी ने अपने विचारों को सार्वजनिक किया। उन्होंने कहा, ‘मेरी नज़र में, मिस्टर घींगड़ा स्वयं बेकुसूर हैं। यह हत्या एक नशे की हालत में की गयी थी। आदमी को शराब या भाँग से ही नशा नहीं आता; कोई विचार भी यह काम कर सकता है। घींगड़ा के साथ यही हुआ था।’9
गाँघी ने कहा कि मैं समझता हूँ कि जिसने घींगड़ा को हत्या के माध्यम से मुक्ति के पागलपन-भरे विचार से उकसाया था वह इस कृत्य के लिए सबसे ज़्यादा जि़म्मेदार है ः
मुझे कहना होगा कि जो लोग ऐसा मानते हैं और ऐसा तर्क देते हैं कि इस तरह की हत्याएँ हिन्दुस्तान का भला कर सकती हैं, वे निश्चय ही अज्ञानी हैं। छल-कपट का कोई भी कृत्य कभी किसी राष्ट्र को कोई फ़ायदा नहीं पहुँचा सकता। यहाँ तक कि अगर इस कि़स्म के हत्यारे कृत्यों के नतीजे में अँग्रेज़ चले भी जाते हैं, तो उनके स्थान पर कौन हुकूमत करेगा? इसका एकमात्र जवाब हैः हत्यारे...। हत्यारों की हुकूमत से हिन्दुस्तान कुछ भी हासिल नहीं कर सकता - वे हत्यारे चाहे गोरे हों या काले।10
प्रभाव में आकर की गयी हत्या कहकर इस हत्या की जो आलोचना गाँघी ने की थी उससे वे निश्चय उन सावरकर के प्रिय नहीं बने रह सके होंगे, जिनके लेखन का वे उस वक़्त हवाला दे रहे थे जब उन्होंने इसी आलोचना के दौरान यह भी कहा था कि ‘मिस्टर घींगड़ा को, निरर्थक लेखन के उनके अपाच्य पठन ने प्रोत्साहित किया था।’11
सावरकर से गाँघी 1906 में मिले थे, जब वे कुछ दिनों के लिए इंडिया हाउस में ठहरे थे।12 वे सावरकर की प्रभावशाली पुस्तक द फ़स्र्ट इंडियन वाॅर आॅफ़ इंडिपेंडेंस, 1957 से परिचित थे, जिसमें सावरकर ने अँग्रेज़ों के खि़लाफ़ 1857 के विद्रोह का इस्तेमाल ‘विद्रोह, रक्तपात और प्रतिशोघ’ के लिए ‘मानव प्रकृति के रुझान’13 की प्रशंसा के लिए किया था - जो उस चीज़ के लिए प्रोत्साहित करने वाली थी जिसे गाँघी ने, विली की हत्या का हवाला देते हुए, महज़ एक ‘हत्यारे कृत्य’ के रूप में देखा था। गाँघी इंडिया हाउस में रहने वाले नौजवानों पर सावरकर के नियन्त्रण से भी वाकिफ़ थे। उनको विली की हत्या में लगभग निश्चित तौर पर सावरकर का हाथ होने का सन्देह था जिसका संकेत उनके द्वारा इस बात पर दिये गये बल में निहित था कि उस ‘पागलपन-भरे कृत्य’ की जि़म्मेदारी गोली चलाने वाले घींगड़ा से परे कहीं थी।
गाँघी यह भी समझते थे कि अँघेरे की ओट में छिपा हुआ कोई व्यक्ति उन शब्दों के लिए भी जि़म्मेदार था जिनका इस्तेमाल बचावकर्ता ने विली की हत्या करने के औचित्य के दावे के रूप में किया था। गाँघी ने कहा थाः ‘मिस्टर घींगड़ा का अपना बचाव भी रटा-रटाया लगता है। दरअसल सज़ा उसको मिलनी चाहिए जिसने उनको बरगलाया था।’14
24 अक्टूबर 1909 को, जब गर्मियों में हुई उस हत्या का नाटक अभी भी लोगों की स्मृति में ताज़ा था, गाँघी और सावरकर लन्दन में वक्ताओं के उस एक ही मंच पर मौजूद थे जहाँ हिन्दुस्तान के भविष्य के बारे में प्रतिस्पर्घी दृष्टिकोणों को पेश किया जा रहा था। ये दोनों वक्ता उस सशुल्क डिनर के मुख्य आकर्षण थे जो एक हिन्दुस्तानी रेस्तराँ में दशहरे के अवसर पर आयोजित था - दशहरा जो महान हिन्दू महाकाव्य रामायण की कथा के मुताबिक़ बुराई पर अच्छाई की, या रावण पर राम की जीत का जश्न मनाने के लिए आयोजित किया जाता है। इस रात्रिभोज का विचार इंडिया हाउस में रहने वाले सावरकर के उग्रवादी छात्रों के दिमाग़ की उपज था।15 उन्हीं ने गाँघी को शेर की अपनी माँद में आमन्त्रित कर प्रथम वक्ता की भूमिका निभाने का आग्रह किया था, जिसके बाद सावरकर को बोलना था।
बाद में अपने एक दोस्त के सामने गाँघी ने क़बूल किया था कि वह रात्रिभोज ‘दरअसल, उस अतिवादी समिति के द्वारा आयोजित किया गया था।’ उन्होंने आगे यह भी जोड़ा था कि ‘मैंने इस प्रस्ताव को बिना किसी संकोच के इसलिए स्वीकार कर लिया था ताकि मैं वहाँ एकत्र लोगों के सामने सुघारों की ख़ातिर हिंसा की निरर्थकता के बारे में बोल सकता।’16 उन्होंने दो शर्तें भी रखी थींः पहली यह कि ‘भोजन विशुद्ध शाकाहारी होना चाहिए’17 (जिसको गाँघी स्वयं पकाने वाले थे), और दूसरी यह कि ‘किसी तरह की विवादास्पद राजनीति की चर्चा न की जाए।’18 आयोजक राज़ी थे। इसलिए गाँघी ने डिनर से उठकर अपना भाषण देने के कई घण्टे पहले, 24 अक्टूबर के अपराह्न में छात्रों के साथ बैठकर ख़ुशी-ख़ुशी आलू छीले थे।19
गाँघी के वक्तव्य में रामायण को सत्य की ख़ातिर दुख झेलने की दृष्टि से समझा गया था। उनका कहना था कि इस महाकाव्य के मुख्य चरित्र दुख के माध्यम से स्वतन्त्रता तक पहुँचने का रास्ता दिखाते हैं। वे ईश्वर के अवतार राम के वनवास की पीड़ा के बारे में, कै़द के दौरान सीता की सहनशीलता के बारे में, और लक्ष्मण के पश्चातापी संयम की साघना के बारे में बोले। गाँघी का मानना था कि सत्य के लिए पीड़ा भोगने का उनका ढंग हिन्दुस्तान को मुक्ति दिलाएगा और ‘झूठ पर सचाई की नयी विजय का स्रोत होगा।’20
गाँघी ने कहा कि ‘अगर हिन्दुस्तानी उस ढंग से जीवन जीना सीख लेते हैं, तो वे उसी क्षण से स्वयं को स्वतन्त्र मान सकते हैं।।’21 गाँघी अहिंसक साघनों से स्वाघीनता को पहले ही हासिल की जा चुकी मानते थे। सत्य के लिए पीड़ा भोगने वाला कोई भी समाज अपने वर्तमान में ही स्वतन्त्र होता है। उनको औपनिवेशिक सत्ता द्वारा स्वतन्त्रता दिये जाने का इन्तज़ार नहीं करना होता। एक मुक्तिदायी, अहिंसक साघन सम्भवन की प्रक्रिया में पहले से ही एक लक्ष्य बन चुका होता है।
सावरकर ने उसी कहानी से एक भिé शिक्षा हासिल की थी। उन्होंने दावा किया कि ‘राम ने दमन और अन्याय के प्रतीक रावण का वघ करने के बाद ही आदर्श राज्य (राम-राज्य) की स्थापना की थी।’ रावण के वघ को शाब्दिक अर्थ में लिया जाना ज़रूरी था। आप पाप करने वाले का विनाश करके ही पाप का विनाश करते हैं। सावरकर का वक्तव्य प्रतिशोघ की प्रचण्ड देवी दुर्गा का गुणगान करने वाला, और पापात्मा रावण की वास्तविक हत्या करने की ज़रूरत पर बल देने वाला था।22
स्पष्ट तौर पर ‘विवादास्पद राजनीति की चर्चा’ किये बगै़र गाँघी और सावरकर उस मुद्दे के मर्म तक पहुँच गये थे जो उनको एक-दूसरे से अलग करता था। उस रात वे सिर्फ़ हिन्दू मिथक-विद्या के, हिंसक या अहिंसक, अर्थ पर केन्द्रित महान बहस में ही मुब्तिला नहीं थे। उन्होंने आज़ाद हिन्दुस्तान के लक्ष्य को पाने के अपने नितान्त भिé साघन भी सामने रखे थे।
अगले चार दशकों तक गाँघी और सावरकर की अपनी निजी जि़न्दगियाँ सामाजिक परिवर्तन की उनकी नितान्त विपरीत दृष्टियों को रूपायित करने वाली थीं, जहाँ ये दोनों दृष्टियाँ अन्ततः सावरकर और उनके अनुयायियों द्वारा गाँघी की हत्या में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचनी थीं। रामायण को लेकर सावरकर की कल्पना के मुताबिक़ जो वघ करने योग्य पापात्मा, यानी रावण था, वह गाँघी बन जाने वाला था। और गाँघी की मृत्यु, जैसी की उनकी कामना थी, उनके होंठों पर ईश्वर के अवतार ‘राम’ नाम के साथ, अपने हत्यारे को आशीर्वाद देते हुए होनी थी। रामायण को लेकर गाँघी की कल्पना के मुताबिक़ रावण के साथ आखि़री लड़ाई में राम को इस पापात्मा शत्रु पर, उसकी हत्या करके नहीं बल्कि सत्य की ख़ातिर ख़ुशी-ख़ुशी अपना जीवन न्यौछावर कर विजय हासिल करनी थी।
13 नवम्बर 1909 को इंग्लैंड से दक्षिण अफ्ऱीका के लिए रवाना होने-होने तक गाँघी हिन्दुस्तान के स्वाघीनता आन्दोलन में हिंसा को मिल रही व्यापक स्वीकृति से बहुत विचलित हो चुके थे। सावरकर और इंडिया हाउस के निवासी एक प्रभावी प्रवृत्ति के अतिरंजित उदाहरण थे। गाँघी ने कहा था कि ‘मुझे वाक़ई ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं मिला जो यह विश्वास करता हो कि हिन्दुस्तान हिंसा का सहारा लिये बिना कभी आज़ाद हो सकता है।’23
हिंसा के अनुयायियों को मिल रही हिन्दुस्तान की स्वीकृति के प्रति गाँघी की बेचैनी ने उनको अपनी सबसे भावावेशपूर्ण पुस्तक, हिन्द स्वराज लिखने को प्रेरित किया, जिसका लेखन उन्होंने दक्षिण अफ्ऱीका लौटते वक़्त एस.एस. किल्डोनाॅन कैसल नामक जहाज़ में बैठकर किया था। उनके हाथ उनके विचारों की गति का साथ नहीं दे पा रहे थे। वे आवेश में आकर पहले आपने दाँयें हाथ से लिखते, फिर बाँयें हाथ से लिखने लग जाते, और इस तरह लगातार दाँये से बाँयें और बाँये से दाँयें हाथ से लिखते हुए उन्होंने दस दिन की अपनी उस यात्रा में पाण्डुलिपि पूरी कर डाली।
हिन्द स्वराज अहिंसा के माध्यम से हिन्दुस्तान की आज़ादी का गाँघी का क्रान्तिकारी घोषणा-पत्र था। स्वराज यानी ‘स्वशासन’ (सैल्फ़-रूल)। गाँघी ने हिन्दुस्तान के स्वशासन को, मूलतः, पश्चिमी सभ्यता (जिसको वे एक वदतोव्याघात मानते थे) से मुक्ति के रूप में देखा था। उन्होंने बेबाक ढंग से कहा था कि पश्चिम हिंसा पर आघारित सभ्यता है। अगर हिन्दुस्तान पश्चिम की ग़्ाुलामी से आज़ादी हासिल करना चाहता है, जो एकमात्र सच्चा स्वराज होगा, तो ऐसा वह सिफऱ् अहिंसक साघन अपनाकर ही कर सकता है। अन्यथा हिन्दुस्तानी अपने अनुकरणात्मक विद्रोह के माध्यम से पश्चिम की हिंसक हुकूमत की पुनर्रचना कर खुद को नये सिरे से ग़्ाुलाम बनाने से ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते।
गाँघी ने इस विषय को एक ‘सम्पादक’ और एक ‘पाठक’ के बीच संवाद की शैली में विकसित किया था। यह ‘सम्पादक’ वे स्वयं थे, और ‘पाठक’ की चुनौतियाँ लन्दन में उनके प्रतिद्वन्द्वियों के साथ हुए उनके टकरावों से निकली थीं। गाँघी ने यही शब्द सावरकर और उसके उग्रवादी अनुयायियों से सुने थे।24 सम्पादक-पाठक के बीच के इस टकराव को गाँघी ने जिस तरह विकसित किया है, उसका सारतत्त्व साघनों और साध्यों के बीच के सम्बन्घ में निहित हैः
सम्पादकः हमारी अपनी ग़्ाुलामी मिट जाए, तो हिन्दुस्तान की ग़्ाुलामी मिट गयी ऐसा मान लेना चाहिए। हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है; और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है। लेकिन मुख्य बात तो हर शख़्श के स्वराज्य भोगने की है। डूबता आदमी दूसरे को नहीं तारेगा, लेकिन तैरता आदमी दूसरे को तारेगा। हम खुद ग़्ाुलाम होंगे और दूसरों को आज़ाद करने की बात करेंगे, तो वह सम्भव नहीं है। अब इतना तो आपकी समझ में आया होगा कि अँग्रेज़ों को देश से निकालने का मक़सद सामने रखने की ज़रूरत नहीं है। अगर अँग्रेज़ हिन्दुस्तानी बनकर रहें तो हम उनका समावेश यहाँ कर सकते हैं। अँग्रेज़ अगर अपनी सभ्यता के साथ रहना चाहें, तो उनके लिए हिन्दुस्तान में जगह नहीं है। ऐसी हालत पैदा करना हमारे हाथ में है।
पाठकः मुझे ये सब बातें ठीक नहीं लगतीं। हमें लड़कर अँग्रेज़ों को निकालना ही होगा, इसमें कोई शक नहीं। अँग्रेज़ हमारे देश के लिए यम (काल) जैसे हैं। उस यम को हमें किसी भी प्रयत्न से भगाना होगा।
सम्पादकः अँग्रेज़ों को यहाँ लाने वाले हम हैं और वे हमारी ही बदौलत यहाँ रहते हैं। आप यह कैसे भूल जाते हैं कि हमने उनकी सभ्यता अपनायी है, इसलिए वे यहाँ रह सकते हैं? आप उनसे जो नफ़रत करते हैं वह नफ़रत आपको उनकी सभ्यता से करनी चाहिए। फिर भी मान लें कि हम लड़कर उन्हें निकालना चाहते हैं, तो यह कैसे हो सकेगा?
पाठकः हम पहले तो कुछ अँग्रेज़ों का ख़ून करके आतंक फैलाएँगे, फिर जो थोड़े-से लोग हथियारबन्द होंगे, वे खुल्लमखुल्ला लड़ेंगे। उसमें पहले तो बीस-पच्चीस लाख हिन्दुस्तानी ज़रूर मरेंगे। लेकिन आखि़र हम देश को अँग्रेज़ों से जीत लेंगे। हम गुरिल्ला लड़ाई लड़कर अँग्रेज़ों को हरा देंगे।
सम्पादकः आपका ख़याल हिन्दुस्तान की पवित्र भूमि को राक्षसी बनाने का लगता है। आप अँग्रेज़ों का ख़ून करके हिन्दुस्तान को छुड़ाएँगे, ऐसा विचार करते हुए आपको त्रास क्यों नहीं होता? ख़ून तो हमें अपना करना चाहिए; क्योंकि हम नामर्द बन गये हैं, इसलिए हम ख़ून करने का विचार करते हैं। ऐसा करके आप किसे आज़ाद करेंगे? घींगड़ा ने जो ख़ून किया है उससे या जो ख़ून हिन्दुस्तान में हुए हैं उनसे देश को फ़ायदा हुआ है, ऐसा अगर कोई मानता है, तो बड़ी भूल करता है। घींगड़ा को मैं देशाभिमानी मानता हूँ, लेकिन उसका देशप्रेम पागलपन से भरा था। उसने अपने शरीर का बलिदान ग़लत तरीक़े से दिया; उससे अन्त में तो देश को ही नुक़सान होने वाला है।
पाठकः आपको नहीं लगता कि आपकी यह बात आपके ही खि़लाफ़ जाती है? आपको स्वीकार करना होगा कि अँग्रेज़ों ने खुद जो कुछ हासिल किया है, वह मारकाट करके ही हासिल किया है। आप कह चुके हैं कि उन्होंने जो कुछ हासिल किया है वह बेकार है, लेकिन इससे मेरी दलील को घक्का नहीं पहुँचता। उन्होंने बेकार (चीज़) पाने का सोचा और उसको पाया। मतलब यह कि उन्होंने अपनी मुराद पूरी की। साघन क्या था, इसकी चिन्ता हम क्यों करें? अगर हमारी मुराद अच्छी हो तो क्या हम उसे चाहे जिस साघन से, मार-काट करके भी पूरा नहीं करेंगे?
सम्पादकः अँग्रेज़ों ने मार-काट की और हम भी कर सकते हैं, यह बात तो ठीक है। लेकिन मार-काट से जैसी चीज़ उन्हें मिली, वैसी ही हम भी ले सकते हैं। आप क़बूल करेंगे कि वैसी चीज़ हमें नहीं चाहिए। आपका यह मानना बहुत बड़ी भूल है कि साघन और साध्य के बीच कोई सम्बन्घ नहीं है। इस भूल के कारण उन लोगों तक ने घोर कृत्य किये हैं जो खुद को घार्मिक मानते हैं। यह तो घतूरे का पौघा लगाकर मोगरे के फूल की इच्छा करने जैसा हुआ। साघन बीज है और साध्य - हासिल करने की चीज़ - पेड़ है; इसलिए जो सम्बन्घ बीज और पेड़ के बीच है, वही साघन और साध्य के बीच है। आप जैसा बोते हैं, ठीक वैसा ही काटते हैं।25
हिन्द स्वराज में गाँघी सावरकर की उस हत्यापरक नैतिकी से टक्कर ले रहे थे, जो एक आज़ाद देश के साध्य के रूप ब्रिटिश अघिकारियों की हत्याओं को साघन के रूप में मान्य ठहराती थी। दरअसल, इस तरह के साघनों को अपनाने का नतीजा, इन साघनों को अपनाने वाले लोगों के लिए, नये साघनों और साध्यों के विकसित होने की प्रक्रिया में, एक अखण्ड हिन्दू राष्ट्र को हासिल करने की ख़ातिर, वर्षों बाद अनिवार्यतः उनके विरोघी, यानी गाँघी की हत्या के रूप में सामने आने वाला था।
जैसे ही गाँघी लन्दन से लौटकर दक्षिण अफ्ऱीका के सत्याग्रह आन्दोलन में मुब्तिला हुए, सावरकर ने हिन्दुस्तान में एक राजनैतिक हत्या को अंजाम देने का षडयन्त्र रचा। 21 दिसम्बर 1909 को हिन्दुस्तान के नासिक जि़ले के एक अँग्रेज़ मजिस्टेªट ए.एम.टी. जैक्सॅन की, जो अपने पद से हटने ही वाला था, उसके विदाई-समारोह के दौरान गोली मारकर हत्या कर दी गयी। अनन्त कन्हारे नामक इस सोलह-वर्षीय हत्यारे पर मुक़दमा दायर किया गया और उसको मौत की सज़ा सुनायी गयी। जैक्सॅन की हत्या के लिए उसने जिस ब्राॅउनिंग पिस्तौल का इस्तेमाल किया था उसके बारे में पता चला कि वह लन्दन से सावरकर के पास से आयी थी, जिन्होंने इसे दूसरी पिस्तौलों के साथ एक मध्यस्थ की मार्फ़त गै़रक़ानूनी ढंग से हिन्दुस्तान भेजा था। कन्हारे के साथ षडयन्त्र में शामिल अन्य आरोपियों के पास से सावरकर के ख़त बरामद हुए। इस नौजवान हत्यारे के मक़सद के तार सावरकर से जुड़े थे, जिनके बड़े भाई बारबाराव पर मजिस्टेªट जैक्सॅन द्वारा देशद्रोह का अभियोग लगाया गया था। बारबाराव को दोषी पाया गया था और उनको आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी थी। कन्हारे ने अपने मुक़दमे के दौरान बयान दिया था कि उसने सावरकर के बड़े भाई की सज़ा का बदला लेने के लिए जैक्सॅन की हत्या की थी।26
ब्रिटेन की बम्बई सरकार ने सावरकर पर देशद्रोह, हथियार बाँटने, और जैक्सॅन की हत्या के लिए उकसावा देने के आरोप लगाते हुए उनकी गिऱतारी का वारंट तार द्वारा लन्दन भेजा। सावरकर ने लन्दन में अघिकारियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था और उनको बम्बई लाया गया, जहाँ उनपर मुक़दमा चलाया गया और उनको दोषी पाया गया। जून 1911 में उन्होंने उस अण्डमान द्वीप पर पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल में पचास साल का कारावास भोगना शुरू किया, जो अपनी कठोर परिस्थितियों के लिए कुख्यात था। सावरकर को हिन्दुस्तान की सबसे क्रूर जेल में दस साल तक सज़ा भुगतनी पड़ी। सज़ा का पहला साल ख़त्म होने के पहले ही उन्होंने अँग्रेज़ सरकार से क्षमा की याचना की। 1913 में उन्होंने एक और याचिका दायर की जिसमें उन्होंने कहा ः
अगर सरकार अपने अनेकविघ उपकार और दया के चलते मुझे मुक्त कर देती है, तो मैं पहला व्यक्ति होऊँगा जो अँग्रेज़ सरकार की संवैघानिक प्रगति का और उसके प्रति निष्ठा का कट्टरतम पक्षघर हुए बिना नहीं रहूँगा, जो कि उस प्रगति की सबसे मुख्य शर्त है...। इसके अतिरिक्त, मेरे संवैघानिक मार्ग पर चलने लगने से भारत और भारत से बाहर के वे सारे भटके हुए नवयुवक सही मार्ग पर लौट आएँगे जो किसी समय मुझे मार्गद्रष्टा समझकर मेरी ओर ताकते थे। सरकार मुझे जिस किसी भी काम के योग्य समझेगी मैं वह काम करने को तैयार हूँ, क्योंकि जिस तरह मेरा मत-परिवर्तन आन्तरिक विवेक से परिचालित है, उसी तरह, आशा है, मेरा भावी आचरण भी परिचालित होगा। मुझे जेल में रखकर उसकी तुलना में कुछ भी प्राप्त नहीं होगा जो मुझे मुक्त करके प्राप्त किया जा सकता है। जो महाशक्तिशाली होता है, वही दयावान होने की सामथ्र्य रखता है, और इसलिए एक भटका हुआ बेटा माइ-बाप सरकार के अभिभावकीय द्वार के अलावा और कहाँ लौट सकता है?27
जिस वक़्त सावरकर अँग्रेज़ों से अण्डमान द्वीप की जेल से रिहाई की भीख माँग रहे थे, उस वक़्त गाँघी दक्षिण अफ्ऱीका में अपने सत्याग्रह का समापन कर रहे थे। जब 1915 में गाँघी हिन्दुस्तान वापस लौटे तो उनको नये सिरे से हत्या के कुतर्क का सामना करना पड़ा। दक्षिण अफ्ऱीका में बाईस साल रह चुकने के बाद उनको हिन्दुस्तान के स्वाघीनता आन्दोलन में नवागन्तुक की तरह देखा जा रहा था। लेकिन उन्होंने नवागन्तुक की तरह बरताव नहीं किया। जब उनका ऐसे छात्रों से सामना होता था जो इस बात पर ज़ोर देते थे कि राजनैतिक हत्याएँ अँग्रेज़ों से मुक्ति के लिए एक ज़रूरी रणनीति है, तो गाँघी उनका विरोघ करने के मामले में अडिग बने रहते थे।
13 मार्च 1915 को गाँघी ने कलकत्ता में उग्रवादी छात्रों के एक विशाल जमावड़े को सम्बोघित किया। उन्होंने उन छात्रों से कहा कि राजनैतिक हत्याएँ ‘हिन्दुस्तान में एक पूरी तरह से विजातीय उपज’ हैं। उन्होंने कहा कि जो लोग हिन्दुस्तान का आतंकीकरण करना चाहते हैं उनको यह समझ लेना चाहिए कि मैं ‘उनके खि़लाफ़ खड़ा होऊँगा’। तब भी, आतंकवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता की उन्होंने सराहना की - हत्या करने की उनकी तत्परता की नहीं, जिसका वे तिरस्कार करते थे, बल्कि जान दे देने की उनकी इच्छा की, जिसके लिए, अपने अहिंसक प्रतिरोघ के दौरान वे खुद तैयार रहते थे। उन्होंने राजनैतिक हत्या के पैरोकारों से कहा कि अगर उनके पास देश के लिए कोई योजना है, तो उसे उनको ‘खुलेआम जनता के सामने रखना’ चाहिए। उन्होंने कहाः ‘अगर मैं राजद्रोह के पक्ष में हूँ, तो मुझे राजद्रोह के पक्ष में खुलकर बोलना चाहिए। मुझे अपने विचारों को सार्वजनिक करना चाहिए और उसके नतीजों के लिए तैयार रहना चाहिए...अगर आप मरने के लिए तैयार हैं, तो मैं भी आपके साथ मरने को तैयार हूँ।’28
1917 से 1920 और 1930 के दशकों तक गाँघी अँग्रेज़ी साम्राज्य के खि़लाफ़ राजद्रोह की ओर मुड़ते रहे, उन्होंने खुलेआम उसकी पैरवी की, और उस प्रक्रिया में मरने के लिए तैयार रहे। इसकी शुरुआत हुई थी 1917 में चम्पारण जि़ले के किसानों के साथ चलायी गयी उस मुहिम से, जिसका उद्देश्य था अँग्रेज़ों के बँटाईदारी के अनुबन्घों में निहित अन्याय पर विजय पाना।29 जब गाँघी हालात की पड़ताल करने वहाँ पहुँचे, तो अँग्रेज़ों ने उनको जेल की घमकी देते हुए उस इलाक़े से तत्काल बाहर चले जाने का आदेश दिया। जब गाँघी ने एक न्यायाघीश के समक्ष इस आदेश को मानने से इन्कार कर दिया, तो उनके समर्थन में हज़ारों किसानों ने अहिंसक ढंग से अदालत को घेर लिया। अँग्रेज़ों ने उस आदमी के सामने से पीछे हट जाना ही बेहतर समझा जो न सिर्फ़ अपनी गिरफ़्तारी को बल्कि अपनी मौत तक को निमन्त्रण दे रहा था। उसके बाद सत्याग्रह की एक साल लम्बी, आघारभूत, कामयाब मुहिम चली - जो समूचे देश के लिए एक आदर्श बन गयी।
गाँघी ने कहा, ‘मैंने जो कुछ किया था वह साघारण-सा काम था। मैंने ऐलान कर दिया था कि अँग्रेज़ मेरे ही मुल्क में मेरे ऊपर हुक्म नहीं चला सकते।’30 गाँघी के इस साघारण-से कृत्य को असाघारण बनाने वाला इस कृत्य का संक्रामक चरित्र था। चम्पारण के किसानों ने अन्याय के सामने सिर झुकाना बन्द कर दिया था। वे अँग्रेज़ों के दखल के प्रति खुलेआम गाँघी जितने ही निर्भीक बन गये थे। जनता के बीच निर्भयता का एक उदाहरण - अपने जीवन की क़ीमत चुकाते हुए भी आततायी के प्रति असहयोग - अँग्रेज़ी हुकूमत के अन्त की शुरुआत का प्रतीक बन गया।
जनवरी 1930 में लिखे गये अपने लेख ‘द कल्ट आॅफ़ बम’ में गाँघी ने हिंसा के बरक्स अहिंसा के अपने चुनाव का वर्णन इन शब्दों में किया था ः
इतना काफ़ी नहीं है कि हम छिपाकर की गयी हिंसा के माध्यम से अँग्रेज़ों की जि़न्दगियों को असुरक्षित बनाते हुए, उनको बाहर खदेड़ें। इसका परिणाम स्वाघीनता के रूप में नहीं बल्कि निरी अराजकता के रूप में सामने आएगा। स्वाघीनता की स्थापना सिर्फ़ हम दिल और दिमाग़ के प्रति एक अपील के माध्यम से अपने मतभेदों को सुलझाते हुए, स्वयं अपने बीच जैविक एकता विकसित करते हुए ही कर सकते हैं, उन लोगों को आतंकित करते हुए या उनकी हत्या करते हुए नहीं, जिनके बारे में हमारा ख़याल है कि वे हमारे अभियान में बाघा डाल सकते हैं, बल्कि एक घैर्यपूर्ण और विनम्रतापूर्ण सुलूक के माध्यम से, विरोघी का मतपरिवर्तन करते हुए।
हिंसा का विकल्प था ‘जन-समुदाय की बड़े पैमाने की सविनय अवज्ञा।’31
अहिंसा के माध्यम से स्वतन्त्रता की अपनी कल्पना का सार गाँघी ने तीन शब्दों में पेश किया थाः ‘करो या मरो।’ ‘करो या मरो’ क्रान्ति का उनका मरते दम तक मन्त्र बना रहा थाः अपने समूचे जीवन के साथ अन्याय का प्रतिरोघ करो।32 इसे प्यार से करो। अहिंसक ढंग से, खुलेआम, निर्भीकतापूर्व प्रतिरोघ करो। इसके जो भी नतीजे हों उनको सहर्ष झेलो, मरने की हद तकः ‘करो या मरो।’
साम्राज्य के प्रति अपने भय को हिन्दुस्तानियों ने सबसे ज़्यादा प्रभावशाली ढंग से उस राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह के दौरान झाड़ फेंका था जिसकी पहल 1930 के नमक आन्दोलन के साथ हुई थी। एक बार फिर, साम्राज्यवादी क़ानून की निर्भीक खुलेआम अवज्ञा का एक उदाहरण व्यापक जन-आन्दोलन की उत्प्रेरक घटना बन गया। गाँघी के आश्रम के अठहत्तर लोग उनके साथ तीन ह़तों की पैदल यात्रा करते हुए समुद्र तट पर पहुँचे। 6 अप्रैल 1930 को गाँघी ‘नीचे झुके और उन्होंने कुदरती नमक से युक्त एक मुट्ठी गीली मिट्टी उठायी,’33 और इस तरह उस क़ानून को तोड़ दिया जिसने हिन्दुस्तानी नमक के स्वामित्व, इस्तेमाल, और विक्रय पर अँग्रेज़ों का एकाघिकार क़ायम कर रखा था। गाँघी के इस कृत्य ने समूचे राष्ट्र में एक अहिंसक संकेत प्रसारित कर दिया।
उसी दिन दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा थाः ‘चूँकि नमक-क़ानून का तकनीकी या आनुष्ठानिक उल्लंघन किया जा चुका है, इसलिए अब यह कृत्य उस हर आदमी के लिए सुलभ होगा जो जहाँ उसकी मरज़ी हो और जहाँ उसके लिए सुविघाजनक हो वहाँ पर नमक तैयार करने के लिए नमक-क़ानून के तहत अभियोग झेलने का जोखि़म उठाने को तैयार होगा।’ उन्होंने विशेष रूप से हिन्दुस्तान के गाँवों के उन ग़रीब लोगों को सम्बोघित किया जिनको नमक-क़ानून ने सबसे ज़्यादा क्षति पहुँचायी थी। गाँघी ने सभी के लिए सविनय अवज्ञा की सिफ़ारिश की लेकिन साथ में यह भी जोड़ाः ‘यह बात ग्रामीणों के समक्ष एकदम स्पष्ट कर दी जानी चाहिए कि यह उल्लंघन खुलेआम होना चाहिए और किसी तरह चोरी-छिपे नहीं होना चाहिए।’34
जनता ने ज़बरदस्त सविनय अवज्ञा के साथ गाँघी के उदाहरण और परामर्श का अनुसरण किया - समुद्र से नमक उठाना, नमक बनाना, नमक की नीलामी करना, नमक बेचना, नमक ख़रीदना। हिन्दुस्तानियों द्वारा क़ानून तोड़े जाने की इन घटनाओं से अदालतों में हिन्दुस्तानियों का ताँता लग गया। पुलिस ने इस उमड़ते ज्वार को पीछे घकेलने की कोशिश में ज़्यादा-से-ज़्यादा गिरफ़्तारियाँ कीं। कारागारों में जगह नहीं बची।
पुलिस ने 5 मई को रात 1ः30 बजे गाँघी की कुटिया में जाकर उनको जगाया और उनको गिरफ़्तार कर लिया। इसके पहले उसी रात उन्होंने ब्रिटिश वायसराय को एक पत्र लिखकर घोषणा की थी कि उनका अगला क़दम अपने साथियों के साथ घरसाना जाकर अँग्रेज़ों द्वारा नियन्त्रित नमक कारखाने पर क़ब्ज़ा करने का होगा।35 इसकी बजाय गाँघी को जेल जाना पड़ा, लेकिन नमक कारखाने पर घावा बोलने का जो प्रण उन्होंने किया था, उसको आन्दोलन ने पूरा किया।
21 मई 1930 को यूनाइटेड प्रेस के संवाददाता वेब मिलर ने सारी दुनिया को घरसाना में अँग्रेज़ साम्राज्य की पुलिस और निहत्थे सत्याग्रहियों के बीच हुई उस मुठभेड़ की ख़बर दी जो इस संवाददाता की आँखों के सामने हुई थी ः
सफ़ेद वस्त्रघारी स्वयंसेवकों ने चाँदनी रात में घुटनों के बल बैठकर प्रार्थनाएँ कीं, और कवियित्री-नेता श्रीमती सरोजनी नायडू के जोशीले भाषण के साथ...घरसाना नमक कारखाने पर स्वाघीनता-संग्राम के 2,500 प्रदर्शनकारियों ने सामूहिक हमला बोल दिया।
घर की बनी मोटी खद्दर की साड़ी और, बिना जुराबों के, मुलायम चप्पलें घारण किये इस कवियित्री ने अपने साथी आन्दोलनकारियों को इस घावे के लिए प्रोत्साहित किया।
स्वयंसेवकों को हमले के लिए अग्रसर करते हुए उन्होंने पुकार लगायी, ‘हिन्दुस्तान की इज़्ज़त आपके हाथों में है। आपको किसी भी सूरत में किसी तरह की हिंसा का प्रयोग नहीं करना है। आपको पीटा जाएगा लेकिन आपको विरोघ नहीं करना हैः आघातों से बचने के लिए आपको अपना हाथ भी ऊपर नहीं उठाना है।’
‘भले ही गाँघी की काया जेल में है, लेकिन उनकी आत्मा आपके साथ है।’
सुबह के घुँघलके में एक-दूसरे से सटे खड़े स्वयंसेवकों के अँध्ोरे झुण्ड से ‘गाँघीजी की जय’ के नारे गूँज उठे।
स्वयंसेवकों ने कतारें बना लीं, जिनके आगे चलने वाले नेताओं के हाथों में रस्सियाँ और तार काटने के औज़ार थे। वे घीरे-घीरे नमक कारखाने की ओर बढ़े।
इस संक्षिप्त जुलूस के निशाने पर चमचमाते नमक के वे ढेर थे जिनको पुलिस द्वारा खड़ी की गयी कँटीले तारों की बाड़ों ने घेर रखा था। स्थानीय सूरत पुलिस के लगभग 400 जवान बाड़ों के अन्दर और बाहर खड़े हुए थे। कई अँग्रेज़ अघिकारी पुलिस को निर्देश दे रहे थे, जिनको पाँच से ज़्यादा व्यक्तियों को एकत्र होने से रोकने के आदेश दिये गये थे।
गाँघी के दूसरे बेटे मणिलाल गाँघी जुलूस के सबसे आगे चल रहे थे। जैसे ही यह भीड़ नमक के ढेरों के क़रीब पहुँची, तो लोगों ने ‘इंक़लाब जि़न्दाबाद!’ के नारे लगाने शुरू कर दिये।
ये कतारें सुबह 6ः30 बजे नमक कारखाने पर पहुँचीं। कुछ तालियाँ बजीं और जिन नेताओं के हाथों में रस्सियाँ थीं, उनने कँटीले तारों की बाड़ों को सहारा देने के लिए गाड़े गये खम्भों को उखाड़ने के इरादे से उनपर फन्दे डालने की कोशिश की। पुलिस भागती हुई आयी और उसने उन लोगों से वहाँ से हट जाने को कहा। स्वयंसेवकों ने मना कर दिया।
कतार ने ख़ामोश रहते हुए चेतावनी की उपेक्षा की और घीरे-घीरे आगे बढ़ती गयी...
अचानक, एक आदेश पर ढेरों पुलिसवाले प्रदर्शनकारियों की ओर भागे और उनके सिरों पर लोहे की मूठ वाले अपने डण्डे बरसाने लगे। एक भी प्रदर्शनकारी ने आघातों से बचने के लिए अपना हाथ ऊपर नहीं उठाया। वे टेनपीन्स की तरह ज़मीन पर लुढ़क गये। जहाँ पर मैं खड़ा हुआ था, वहाँ से मैं नंगे सिरों पर पड़ती लाठियों के कुत्सित प्रहारों की आवाज़ें सुन सकता था। अपनी बारी आने का इन्तज़ार करती भीड़ हर प्रहार पर गहरी साँस भरती हुई आह कर उठती थी।
जिनके सिरों पर चोटें पड़ी थीं वे बेहोश होकर ज़मीन पर पड़े थे, या पड़े-पड़े खोपड़ी फटने या कन्घे टूटने की पीड़ा से छटपटा रहे थे। दो-तीन मिनिट के भीतर ही ज़मीन शरीरों से ढँक गयी। उनके सफ़ेद कपड़ों पर ख़ून के बड़े-बड़े घब्बे फैले हुए थे। जो अब तक चोट खाने से बचे रह गये थे, वे कतार से अलग हुए बिना ख़ामोश और दृढ़ निश्चय के साथ तब तक आगे बढ़ते गये जब तक कि वे भी चोट खाकर गिर नहीं गये। जब पहली कतार का हर व्यक्ति ज़मीन पर गिरा दिया गया, तो स्टेªचर सँभाले लोग पुलिस की रोक-टोक के बिना तेज़ी-से भागते हुए आये और घायलों को उस एक छप्परदार झोपड़ी में ले गये जिसका इन्तज़ाम एक कामचलाऊ अस्पताल के रूप में किया गया था।
तभी एक और कतार तैयार होने लगी जिस दौरान उनके नेता उनसे आत्म-संयम बरतने का आग्रह करते रहे। वे घीरे-घीरे पुलिस की ओर बढ़े। हालाँकि, हर किसी को मालूम था कि कुछ ही मिनिटों के भीतर वह पीटकर गिरा दिया जाएगा, या शायद मार दिया जाएगा, लेकिन मुझे उनके चेहरों पर किसी तरह की हिचकिचाहट या भय का कोई निशान दिखायी नहीं दिया। वे निरन्तर सिर उठाये आगे बढ़ते गये, वहाँ न कोई संगीत था, न तालियों की गड़गड़ाहट थी, और न ही उनको प्रोत्साहित करने वाली ऐसी किसी सम्भावना का आश्वासन था कि वे गम्भीर चोट या मौत से बच सकते हैं। पुलिस भागती हुई आयी और उसने सिलसिलेवार और यान्त्रिक ढंग से इस दूसरी कतार को भी ढेर कर दिया। कोई मारपीट नहीं हुई, कोई संघर्ष नहीं हुआः सिफऱ् प्रदर्शनकारी उस वक़्त तक आगे बढ़ते रहे जब तक कि वे चोट खाकर गिर नहीं गये। कहीं कोई चीख़-चिल्लाहट सुनायी नहीं देती थी, सिफऱ् जब वे चोट खाकर गिरते थे तब कराहने की आवाज़ें भर सुनायी देती थीं। घायलों को उठाकर ले जाने के लिए पर्याप्त संख्या में स्ट्रैचर ढोने वाले नहीं थेः मैंने अठारह घायलों को एकसाथ ले जाते हुए देखा, जबकि बयालीस लोग अभी भी बहते ख़ून से लथपथ ज़मीन पर स्ट्रैचरवालों के इन्तज़ार में पड़े थे। जिन कम्बलों का इस्तेमाल स्टैªचरों के रूप में किया जा रहा था, वे ख़ून से सराबोर हो गये थे...।
कई बार ऐसा हुआ कि नेतागण इन्तज़ार करती भीड़ पर से अपना नियन्त्रण खो बैठे। वे आगे-पीछे भागते हुए उन बेहद उत्तेजित लोगों से व्यग्रतापूर्ण ढंग से निवेदन करते हुए उनको गाँघी के निर्देशों को याद रखने की समझाइश देते। ऐसा प्रतीत होता था जैसे वह निहत्थी भीड़ पुलिस पर सामूहिक हमला करने की कगार पर थी। प्रभारी अँग्रेज़ अघिकारी, सूरत के सुपरिन्टेंडेंट राॅबिन्सॅन ने विस्फोट की आसé सम्भावना को भाँपते हुए एक छोटी-सी पहाड़ी पर गोलियाँ दागने के लिए तैयार पच्चीस रायफ़लघारियों को तैनात कर दिया था। वह मेरे पास आया, और मेरी पहचान के बारे में पूछताछ करने बाद उसने मुझसे कहाः ‘बेहतर होगा कि आप इस जगह से दूर चले जाएँ क्योंकि यहाँ गोलियाँ चल सकती हैं। हमें मजबूर होकर भीड़ पर गोलियाँ चलानी पड़ सकती हैं।’ जिस वक़्त हम लोग यह बातचीत कर ही रहे थे, तभी विश्वविद्यालय में पढ़ने वाला एक गाँघीवादी नौजवान छात्र भागता हुआ राॅबिन्सॅन के पास आया जिसका चेहरा ग़ुस्से से विकृत था। उसने खादी का अपना कुरता फाड़ा और अपनी नंगी छाती को सामने करते हुए वह ज़ोर-से चीख़ाः ‘मुझे गोली मार दो! मुझे गोली मार दो! मार डालो मुझे, ये मेरे देश की ख़ातिर ज़रूरी है!’ नेताओं ने भीड़ को किसी तरह शान्त किया।
गाँघी के आदमियों ने अपनी रणनीति बदली, वे पच्चीस-पच्चीस के समूह में आगे बढ़े और, ज़्यादा क़रीब जाने की कोशिश किये बिना, नमक के ढेरों के पास बैठ गये। काॅफ़ी के रंग वाले एक भारी-भरकम, बदसूरत पारसी पुलिस सार्जेंट एन्टिया के नेतृत्व में पुलिस की टुकड़ी एक बैठे हुए समूह के पास पहुँची और उसने भीड़ जमा न करने के आदेश का हवाला देते हुए, उन लोगों से तितर-बितर होने को कहा। गाँघी के अनुयायियों ने उनकी उपेक्षा करते हुए उन लाठियों की तरफ़ भी नहीं देखा जो घमकी भरे अन्दाज़ में उनके सिरों के ऊपर मँडरा रही थीं। एन्टिया के एक आदेश पर बिना कोई ग़्ाुस्सा दर्शाये पिटाई का सिलसिला शुरू हो गया। तीन-तीन, चार-चार शरीर एक-दूसरे के ऊपर लुढ़क गये। उनके सिर के घावों से बेतहाशा ख़ून बह रहा था। एक के बाद एक समूह आगे बढ़ते गये, बैठते गये, और प्रहारों को रोकने के लिए एक भी हाथ उठाये बिना उन्होंने खुद को उस निर्मम पिटाई के अघीन कर दिया।
अन्ततः पुलिस इस प्रतिरोघहीनता से कुपित हो उठी, और वह अपने कोप में, मेरा ख़याल है, उस रोष में साझा कर रही थी जिसे मैं प्रदर्शनकारियों में पहले ही महसूस कर चुका था जो उनमें जवाबी हमला न कर पाने की वजह से व्याप्त था। उन्होंने बैठे हुए लोगों के पेट और अण्डकोषों पर वहशियाना ढंग से लातें मारना जारी रखा। घायल आदमी यातना से छटपटा और चीख़ रहे थे, जिससे लगता था पुलिस का आवेश और भी भड़क रहा था। भीड़ अपने नेताओं से छिटक कर लगभग अलग हो गयी। इसके बाद पुलिस उन बैठे हुए लोगों के हाथ या पैर पकड़कर उनको घसीटने लगी। कभी-कभी वे उनको सौ गज तक घसीटकर ले जाते, और उनको गढ़ों में पटक देते। एक व्यक्ति को घसीटकर उस गड्ढे में ला पटका गया जहाँ पर मैं खड़ा थाः उसके शरीर के गिरने से हुए छपाके ने मुझे कीचड़ से सराबोर कर दिया। एक और पुलिसवाले एक अन्य गाँघीवादी को घसीटकर उस गढ्ढे में ला पटका और फिर अपनी लाठी से उसके सिर को बुरी तरह पीटा। घण्टे-घण्टे बाद स्टैªचरघारी आकर अचेत और बहते ख़ून से लथपथ शरीरों को लादकर ले जाते।
ज़्यादातर समय सूरत की स्थानीय भावशून्य पुलिस हमला करने को अनिच्छुक प्रतीत होती थी। यह ध्यान देने लायक़ बात थी कि जब अघिकारी लाइन के दूसरे किसी हिस्से में व्यस्त होते थे, तो पुलिस ढीली पड़ जाती थी, और फिर घमकाना और पीटना तभी शुरू करती थी जब अघिकारी वापस लौट आते थे। मैंने ऐसा भी कई बार देखा जब स्वयंसेवक पुलिस से अपने साथ मिल जाने का अनुरोघ कर रहे थे...
ग्यारह बजते-बजते शेड में गर्मी 166 पर पहुँच गयी और गाँघीवादी कार्यकर्ताओं की गतिविघियाँ ठण्डी पड़ गयीं। मैं घायलों का हाल-चाल जानने उस कामचलाऊ अस्पताल में गया। वे एक खुली, ताड़ की पत्तियों के छप्पर वाली झोपड़ी की छाया में नंगी ज़मीन पर कतारबद्ध पड़े हुए थे। मैंने 320 घायलों की गिनती की, जिनमें से कई फटी हुई खोपडि़यों वाले लोग अभी भी अचेत थे, तो दूसरे लोग पेट और अण्डकोषों पर पड़ी लातों की पीड़ा से छटपटा रहे थे। गाँघी के लोग बहुत थोड़े-से स्थानीय डाॅक्टरों को जुटा सके थे, जो ख़ासे अपर्याप्त साघनों के साथ जो बन पड़ रहा था, वह कर रहे थे। ढेरों ऐसे घायल थे जिनको कई-कई घण्टों तक कोई इलाज उपलब्घ नहीं हो सका था और उनमें से दो लोग मर गये थे।36
जिस घावे की ख़बर मिलर ने दी थी वह उसी शाम दोबारा किया गया था, और 400 और भी स्वयंसेवक उसमें घायल हुए थे। दो दिन बाद पास के सत्याग्रह शिविर में, जिसको पुलिस ने कुछ सत्याग्रहियों को छोड़ ज़्यादातर ख़ाली करा लिया था, बचे हुए सत्याग्रहियों की एकबार फिर पुलिस से मुठभेड़ हुई। वहाँ उपस्थित एक गाँघीवादी ने पुलिस के साथ हुई उस अन्तिम मुठभेड़ का बयान इन शब्दों में किया था ः
23 तारीख़ को दोपहर बाद अघिकारी लौटे और उन्होेंने शिविर में रह रहे लोगों के सारे काग़ज़ों को बड़ी सावघानी से जाँचा। कोई बीस पुलिसवालों ने हमें घेर लिया। हम अपने-अपने कामों में लगे हुए थे। चूँकि बहुत गर्मी थी, हमने पुलिस के अपने भाइयों को ताज़ा ठण्डा पानी पिलाया। 21 और 22 की सुबह, हमने उनको पूरे घीरज और ख़ामोशी के साथ अपना ख़ून दिया था। जब 22 की सुबह पुलिस हमें वहाँ से बाहर खदेड़ने के लिए आयी थी, तो उन्होंने खुद ही हमारे रसोई-भण्डार से कुछ फल उठाकर खा लिये थे, जो हमने अपने घायल सिपाहियों के लिए लाकर रखे हुए थे। अगर उनने हमसे पूछा होता, तो भी हमने उनको ख़ुशी-ख़ुशी वे फल दे दिये होते।37
एक बार गाँघी से पूछा गया था कि क्या वे ईसा के इस उपदेश (सर्मन आॅन द माउंट) में विश्वास करते हैं कि ‘अगर कोई आदमी आपका कोट ले लेता है, तो उसको अपना चोग़ा भी ले जाने दो।’ उन्होंने जवाब दिया ः
‘आपने जिस छन्द को उद्धरित किया उसमें ईसा ने अहिंसक असहयोग के महान सिद्धान्त को चित्रात्मक और अर्थपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। अपने विरोघी के साथ आपका असहयोग उस वक़्त हिंसक हो जाता है जब आप प्रहार के जवाब में प्रहार करते हैं, और यह लम्बी अवघि के दौरान निष्फल होता है। आपका असहयोग उस वक़्त अहिंसक होता है जब आप अपने विरोघी को उसकी ज़रूरत की चीज़ों की जगह सब कुछ दे देते हैं। आपने अपने ऊपरी सहयोग से उसको हमेशा के लिए निहत्था कर दिया होता है, जोकि असल में सम्पूर्ण असहयोग होता है।’38
1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के सत्याग्रहियों ने प्रेमपूर्ण भावना से अंजाम दिये गये अहिंसक असहयोग की मदद से अँग्रेज़ों को निहत्था कर दिया था। जैसे-जैसे मारे गये हिन्दुस्तानियों की संख्या बढ़ती गयी, वैसे-वैसे अँग्रेज़ों का स्वयं को जायज़ ठहराने का तर्क कमज़ोर पड़ता गया।
अगर गाँघी के समुदाय के लोग ‘करो या मरो’ के लिए तैयार न होते - अगर वे लम्बी जेल-यात्राओं, पिटाई और स्वयं मृत्यु की मार्फ़त अपने अहिंसक प्रतिरोघ को क्रियान्वित करने के लिए तैयार न हुए होते, तो मुट्ठी-भर नमक की मार्फ़त राष्ट्र को भेजे गये अहिंसा के संकेत का कोई अर्थ नहीं रह गया होता। नमक सत्याग्रह स्वराज की गाँघी की कल्पना का साकार होना था। ये हिंसा पर पश्चिम के विश्वास से आज़ादी थी। यह अहिंसा के माध्यम से आज़ादी थी। जेल के दरवाज़ों में प्रवेश करने की प्रक्रिया में, निर्मम पुलिस बलों के बीच घुस जाने की प्रक्रिया में, और स्वयं अपना जीवन न्यौछावर कर देने की प्रक्रिया में हिन्दुस्तानी आज़ाद हुए, जबकि अँग्रेज़ों ने उपनिवेशीकृत लोगों को ग़्ाुलाम बनाने की अपनी हिंसक शक्ति को खो दिया। हिंसा से न डरने वाले लोगों पर हिंसा का कोई ज़ोर नहीं चलता। अँग्रेज़ दोबारा कभी हिन्दुस्तान पर अपना वर्चस्व क़ायम नहीं कर सके। उपनिवेशवादियों के प्रति बरते गये स्नेहपूर्ण प्रतिरोघ की प्रक्रिया में दुख और मौत को गले लगाने की गाँघी और उनके समुदाय की तत्परता स्व-शासन की कुंजी थी।
हालाँकि, ‘करो या मरो’ की अपनी तत्परता में गाँघी प्रलोभन से मुक्त नहीं थे। स्वराज की ख़ातिर अपनी मृत्यु को असमय आमन्त्रण देना उनकी जि़न्दगी का सबसे बड़ा प्रलोभन रहा हो सकता है। ईश्वर की मरज़ी के मुताबिक़ किसी भी क्षण अहिंसक ढंग से प्राण त्याग देने के लिए गाँघी ने पूरे जीवन भर प्रार्थना की थी और खुद को तैयार किया था। अगस्त 1942 में, जब उनको लगा कि स्वाघीनता आन्दोलन ब्रिटेन के साथ एक गतिरोघ की दिशा में बढ़ रहा है, तो उनको लगा उनके जीवन के उत्सर्ग का समय आ गया है।
प्रघान मन्त्री विन्स्टॅन चर्चिल और उनके सलाहकार, हिन्दुस्तान के गृह सचिव लियोपोल्ड अमेरी ने गाँघी के खि़लाफ़ रक्षात्मक कार्रवाई करने का फै़सला किया। चर्चिल और अमेरी गाँघी की इस माँग से आशंकित थे कि अँग्रेज़ दूसरे विश्व युद्ध के दौरान या तो हिन्दुस्तान छोड़कर चले जाएँ या राष्ट्रव्यापी सविनय प्रतिरोघ का सामना करने को तैयार रहें। जैसे ही अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी ने 8 अगस्त की बम्बई की अपनी बैठक में भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित किया, वैसे ही इन अँग्रेज़ नेताओं ने गाँघी और काँग्रेस के दूसरे नेताओं को गिरफ़्तार करने की योजना बना ली। ब्रिटिश वाॅर कैबिनेट ने तो एक मुकाम पर गाँघी को हिन्दुस्तान से बाहर (सम्भवतः दक्षिण अफ्ऱीका के न्यासलैंड उपनिवेश में) भेज देने तक का फै़सला कर लिया था, ताकि अगर वे जेल में रहकर उपवास करने लगते, तो उनको ज़्यादा आसानी-से नियन्त्रित किया जा सकता।39 द वाॅर कैबिनेट ने अन्त में उनको हिन्दुस्तान के पुराने आगा खाँ पैलेस में बन्द करने का चुनाव किया।
गाँघी जानते थे कि अँग्रेज़ स्वाघीनता आन्दोलन को एक असहनीय युद्धकालीन व्यवघान के रूप में कुचलने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने उनकी इस चुनौती को आज़ादी के लिए हर चीज़ कुर्बान कर देने के आमन्त्रण की तरह लिया। बम्बई की बैठक में उन्होंने काँग्रेस के नेताओं से आज़ाद हिन्दुस्तान की ख़ातिर अपनी जान दे देने का आह्नान किया ः
‘यह एक छोटा-सा मन्त्र है जो मैं आपको दे रहा हूँ। इसको आप अपने दिलों में उतार लीजिए और इसे आपकी एक-एक साँस में इसको व्यक्त होने दीजिए। यह मन्त्र हैः ‘करो या मरो’। हम या तो हिन्दुस्तान को आज़ाद करें या इसकी कोशिश में अपनी जान दे दें...अब के बाद से हर मर्द और औरत अपने जीवन के एक-एक पल को इस बोघ के साथ जिये कि वह सिफऱ् आज़ादी हासिल करने की ख़ातिर खा या जी रहा@रही है और, अगर ज़रूरत पड़ी तो इस लक्ष्य को हासिल करने की ख़ातिर मर जाएगा@जाएगी।’40
गाँघी चाहते थे कि अपने इन शब्दों पर अमल करने वाले वे पहले व्यक्ति हों। जैसा कि उनके सहयोगी और यहाँ तक कि अँग्रेज़ भी इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि गिरफ़्तार होते ही वे ‘अगर ज़रूरत पड़ी, तो इस लक्ष्य को हासिल करने की ख़ातिर’ आमरण अनशन पर बैठने की कगार पर थे। वे तो बिना जल तक के उपवास करने पर विचार कर रहे थे, जो वे जानते कि उपवास को ‘संक्षिप्त और फुर्तीला’ बना देगा।41
गाँघी के सचिव महादेव देसाई को भय था कि यह सचमुच ही संक्षिप्त, फुर्तीला और मृत्यु की ओर ले जाने वाला होगा - एक ऐसी मृत्यु जिसके बारे में देसाई को लगता था कि युद्ध के तानव से ग्रस्त अँग्रेज़ नेताओं ने उसका सहर्ष स्वागत किया होता। देसाई को भय था कि ‘सरकार जिस तरह की हताशा की स्थिति में थी उसमें वह उनको उस अग्निपरीक्षा के दौरान मर जाने की छूट देगी’ और वह ‘गाँघी मृत्यु की ख़बर को दबा तक सकती थी’।42
इससे भी बदतर, जैसा कि महादेव को लग रहा था, गाँघी की सोच थी, जो एक ऐसी असामान्य हताशा और हड़बड़ी की सूचना दे रही थी जिसकी अहिंसा के साथ संगति नहीं बैठती थी। देसाई ने गाँघी के चार अन्य प्रभावशाली सहयोगियों को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वे उनके साथ मिलकर अपने नेता को तत्काल ख़त लिखकर, उससे इस तरह का क़दम उठाने पर पुनर्विचार करने का अनुरोघ करें। महादेव ने लिखा ः
पिछले दिन आपने देवदास गाँघी के सबसे छोटे बेटे, और मुझसे यह कहा था कि ‘यह सब होने वाला है, तुम लोग मुझे जि़न्दा नहीं देखोगे।’ उस समय मैं बहुत विचलित हुआ था। मुझे लगा था कि यह नतीजे को हासिल करने की हड़बड़ी थी जो उसको उपवास के माध्यम से संक्षिप्त और फुर्तीली बनाने के लिए जि़म्मेदार थी। और मुझे लगा था कि आप इस तथ्य से उदासीन थे कि दुनिया आपके इस रुख़ को समझ पाएगी या नहीं समझ पाएगी...
कृपया मुझे क्षमा करें लेकिन मुझे लगा था कि यह पूरा-का-पूरा विचार ही भ्रामक है। कृपया अपने दिमाग़ से यह संक्षिप्त और फुर्ती का ख़याल निकाल दीजिए। जिस तरह आम के पेड़ जल्दी-से बड़े नहीं होते, उसी तरह क़ुर्बानी भी जल्दबाज़ी में नहीं दी जाती।43
गाँघी ने अपने सहयोगियों के इस बेहद ज़रूरी अनुरोघ के जवाब में एक संक्षिप्त, अस्पष्ट-सा नोट लिखा।44
महादेव के बेटे नारायण देसाई ने अपने पिता की डायरी के आघार पर ‘जेल भेजे जाने के तुरन्त बाद गाँघी के आमरण अनशन पर बैठने के इरादे’ को लेकर काँग्रेस वर्किंग कमेटी के विरोघ के बारे में लिखा है। जवाहरलाल नेहरू ने इस बात पर ज़ोर दिया था कि बापू को खुद को इस तरह के फै़सले से नहीं बाँघ लेना चाहिए। मौलाना ने कहा था कि इस तरह का क़दम आखि़री क़दम होना चाहिए। पन्त ने अपने इस भय को व्यक्त किया था कि इसकी वजह से हिंसा और अराजकता फैल जाएगी। सत्यमूर्ति को लगा था कि आज़ाद हिन्दुस्तान को बापू की ज़रूरत उससे ज़्यादा होगी जितनी वह ग़्ाुलाम हिन्दुस्तान को है। प्रफुल्ल घोष का मानना था कि यह उपवास एक आत्मघात होगा। नरेन्द्र देव ने कहा था कि वे इस उपवास के पूरी तरह से खि़लाफ़ हैं...सरदार पटेल ने ज़बरदस्त विरोघ दर्ज़ कराया।
‘गाँघी ने यह कहकर वर्किंग कमेटी को सान्त्वना दी कि अभी उन्होंने कोई फै़सला नहीं किया है।’45
जब पुलिस 9 अगस्त 1942 को सुबह के अँघेरे में गाँघी और देसाई को गिरफ़्तार करने पहुँची, तो नारायण देसाई, जो उस समय सात साल के थे, ने अपने पिता के लिए थोड़ा-सा सामान बाँघना शुरू कर दिया। महादेव ने उनको यह कहकर रोका कि ‘इन सब चीज़ों की कोई ज़रूरत नहीं है। बापू का अनशन मेरे सिर पर डेमाक्लीज़ की तलवार की तरह लटक रहा है। अगर वे अनशन पर बैठते हैं, तो मुमकिन है सरकार उनको मर जाने दे। मैं यह सब देखने के लिए जीवित रहने वाला नहीं हूँ। मैं नहीं जानता कि मैं जेल में एक हफ़्ते से ज़्यादा जीवित रह पाऊँगा या नहीं।’46
जब गाँघी गिरफ़्तार किये जा रहे थे तो उनके उपवास को लेकर आशंकित अपने एक दोस्त से उन्होंने कहा था कि उनका ‘इरादा तत्काल अनशन की घोषणा करने का नहीं था।’47 अनशन का दरवाज़ा खुला ही रहा।
महादेव देसाई का अपना स्वास्थ्य भी एक नाज़्ाुक मोड़ पर था। जब महादेव ने गाँघी के साथ आगा खाँ पैलेस में प्रवेश किया था, तो वे हाल ही में हुए हृदयाघात से उबर रहे थे। सचिव गाँघी के लिए जिस तरह से समर्पित, ऊर्जस्वित ढंग से रोज़मर्रा काम जारी रखे हुए थे, उसके चलते आश्रम उनके कमज़ोर दिल के बारे में लगभग भूल चुका था।
जेल में महादेव गाँघी पर उद्विग्न नज़र रखे हुए थे, क्योंकि उनको भय था कि वे किसी भी समय वह घातक अनशन शुरू कर सकते थे। महादेव को बार-बार यह दोहराते हुए सुना गया था कि ‘ईश्वर से मेरी एक ही प्रार्थना है, ‘मेहरबानी करके मुझे बापू से पहले उठा लें,’ और ईश्वर ने मेरी प्रार्थना को कभी अनसुना नहीं किया।’48 साथी क़ैदी उनको ज़बरदस्त तनाव में रहते हुए देख रहे थे। छह दिन बाद महादेव अचानक ढह गये। उनकी मृत्यु गाँघी की बाँहों में हुई।
गाँघी नीचे झुककर महादेव का सिर सहलाते हुए चिल्लाये, ‘महादेव! उठो! महादेव!’49
जिस तरह ईसा की पुकार पर लेज़ारॅस उठ खड़े हुए थे, वैसा कुछ नहीं हुआः महादेव नहीं उठे।
जब बाद में गाँघी से उनके इस शिष्य को लगायी गयी पुकार के बारे में पूछा गया, तो गाँघी ने कहा, ‘मुझे पूरा विश्वास है कि अगर महादेव ने एक बार भी आँखें खोलकर मेरी ओर देखा होता, तो वह उठ गया होता। उसने अपनी जि़न्दगी में एक बार भी ऐसा नहीं किया कि मेरी आज्ञा न मानी हो। अगर मेरे शब्द उसके कानों तक पहुँच सके होते, तो मुझे पूरा विश्वास है कि वह मौत से लड़कर उठ खड़ा हुआ होता।’50
गाँघी को अपने शिष्य के प्रेम की गहराई को महसूस करने के लिए शायद यह ज़रूरी था कि महादेव अपनी आँखें न खोलते।
नारायण देसाई का ऐसा विश्वास है कि उनके पिता की मृत्यु की वजह से ही गाँघी एक उतावले, और शायद सांघातक अनशन से विमुख हुए थे। गाँघी के एक अन्य सचिव और जीवनीकार प्यारेलाल इस बात से सहमत हैं कि महादेव की मौत ने गाँघी के उपवास को रोका था। उन्होंने कहा थाः ‘जब गाँघीजी को आमरण अनशन पर बैठने से रोकने के लिए तमाम लोगों के अनुरोघ नाकाम रहे, तब महादेव सफल हुए। ये मेरी जानकारी में गाँघीजी के समूचे जीवन की अपनी तरह की एकमात्र घटना है।’51
गाँघी ने सीघे-सीघे यह कहा थाः ‘महादेव का बलिदान कोई छोटी चीज़ नहीं है। उसने ‘करो या मरो’ के आह्नान का पूरी तरह पालन किया। यह बलिदान हिन्दुस्तान की मुक्ति के दिवस को तेज़ गति देकर रहेगा।’52
अपने गुरु की ख़ातिर शिष्य पहले ही चला गया।
1944 की गर्मियों में, जब अँग्रेज़ अन्ततः हिन्दुस्तान को स्वाघीनता प्रदान करने की दिशा में बढ़ रहे थे, तब गाँघी उन लोगों के गिरोह द्वारा एक से अघिक बार सताये और घमकाये गये, जिनमें से कुछ लोग साढ़े तीन साल बाद उनकी हत्या करने वाले थे।
इस तरह की पहली घटना जुलाई 1944 में हुई, जब गाँघी अपनी अन्तिम जेल यात्रा के बाद बीमारी से उबरते हुए पंचगनी की यात्रा पर गये थे। एक चार्टर्ड बस में सवार होकर पच्चीस नौजवान पूना से पंचगनी पहुँचे। शाम 5ः30 बजे आयोजित होने वाली गाँघी की प्रार्थना-सभा के पहले इन आदमियों ने शहर में घूम-घूमकर गाँघी-विरोघी नारे लगाये। प्रत्यक्षदर्शियों द्वारा इस बारे में दिये गये ब्यौरे अलग-अलग हैं कि इस समूह का नेता कौन था और उसने उस प्रार्थना-सभा में क्या किया था।
कुछ प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ नाथूराम गोडसे हाथ में खंजर लिये ‘गाँघी मुर्दाबाद!’ का नारा लगाता हुआ गाँघी की ओर दौड़ा। गाँघी के दो समर्थकों ने गोडसे को क़ाबू में कर उसका हथियार छीना। यह वही आदमी था जिसने 30 जनवरी 1948 को गाँघी को गोली मारकर उनकी हत्या की थी। गाँघी का बचाव करने वाले इन दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति था डी. भिलारे गुरुजी, जो बाद में काँग्रेस की ओर से विघान सभा के सदस्य बने थे। गुरुजी ने याद किया था कि जब उन्होंने तथा एक और आदमी ने नाथूराम को पकड़ा और उससे संघर्ष किया, तो गाँघी ने उनको पुकारा और हमलावर के साथ अभद्रता न बरतने का निर्देश दिया। वे चाहते थे कि नाथूराम गोडसे को उनके पास लाया जाता ताकि वे उससे बात कर सकते।53 पुलिस ने गोडसे और उसके साथियों को गिरफ़्तार कर लिया। ‘गाँघी ने गोडसे से आग्रह किया था कि वह उनके साथ आठ दिन बिताये ताकि वह उसका दृष्टिकोण समझ सके। गोडसे ने उनके निमन्त्रण को ठुकरा दिया था और उदार-हृदय गाँघी ने उसको आज़ादी के साथ वहाँ से चले जाने की इजाज़त दे दी थी।’
दो पुलिस अघिकारियों के मुताबिक़, यह लोगों का समूह था जिसने नारे लगाते हुए सभा में बाघा डाली थी, उनके किसी खंजरघारी नेता ने गाँघी पर हमला करने की कोशिश नहीं की थी। पुलिस के इस बयान के मुताबिक़ इस झुण्ड का नेता नाथूराम गोडसे नहीं, बल्कि उसका दोस्त नारायण आप्टे था।55 हालाँकि नेता के रूप में पुलिस द्वारा की गयी आप्टे की पहचान इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह नारायण आप्टे ही था जिसको 1948 में गोडसे के साथ मौत की सज़ा सुनायी गयी थी, क्योंकि दोनों ने मिलकर गाँघी की हत्या की अगुआई की थी।
भविष्य के इन दोनों हत्यारों में से जिस किसी ने भी जुलाई 1944 में गाँघी की हत्या करने या महज़ उनकी सभा में ख़लल डालने के उद्देश्य से भीड़ का नेतृत्व किया हो, लेकिन यह घटना गाँघी के भविष्य पर मँडराती एक और आदमी की छाया का साक्ष्य थी, और वह आदमी था विनायक दामोदर सावरकर जो गाँघी का लन्दन के ज़माने का अपराजेय शत्रु था। नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे, दोनों ही सावरकर के शिष्य थे, जो अब सम्भावित हत्यारों के एक काडर के रूप में जेल से आज़ाद हो चुके थे।
अँग्रेज़ी साम्राज्य से सावरकर द्वारा की गयी क्षमादान की याचना उनके लिए फलदायी साबित हुई, साम्राज्य के इस ‘भटके हुए बेटे’ के लिए, जैसा कि उन्होंने 1913 में ‘माई-बाप सरकार के द्वार’ पर क्षमादान की याचना पेश करते हुए स्वयं को कहा था।56 पोर्ट ब्लेयर के एकान्त कारावास के दौरान सावरकर की विचारघारा साम्राज्य के खि़लाफ़ विद्रोह से विमुख हो चुकी थी। सितम्बर 1914 में उन्होंने हिन्दुस्तान की अँग्रेज़ सरकार को एक ख़त लिखकर एक साझा नस्लपरक पृष्ठभूमि पर आघारित ऐसे हिन्दुस्तानी-अँग्रेज़ी गठबन्घन की उम्मीद ज़ाहिर की थी जो उनके मुताबिक़ अँग्रेज़ी साम्राज्य को ‘आर्य साम्राज्य’ में रूपान्तरित कर देती।57 उन्होंने लिखा था कि ‘अगर अँग्रेज़ी साम्राज्य हिन्दुस्तान को उसकी आज़ादी के लिए अनिवार्य शासन-पद्धति से लैस कर दे’, तो वे और अन्य क्रान्तिकारी नेता अब ‘ब्रिटिश साम्राज्य के साथ मैत्री स्थापित करने को तैयार और उत्सुक हैं।’58
1921 में दूसरे क़ैदियों के साथ अपनी चर्चा के दौरान सावरकर ने गाँघी द्वारा चलायी जा रही स्वाघीनता की राष्ट्रव्यापी मुहिम की यह कहकर निन्दा की थी कि वह ‘अहिंसा और सत्य के विकृत सिद्धान्त से हासिल की जाने वाली थी। स्वराज के लिए चलाया गया इन दो सिद्धान्तों पर आघारित असहयोग आन्दोलन एक शक्तिहीन आन्दोलन था जिससे देश की शक्ति का विनाश सुनिश्चित था। यह एक मरीचिका है, एक विभ्रम है, जो उस समुद्री तूफ़ान से भिé नहीं है जो जिस ज़मीन से होकर गुज़रता है उसको सिफऱ् उजाड़ता ही है। यह विक्षिप्तता की बीमारी है, एक महामारी और अहंकार का उन्माद।’59
1921 में अँग्रज़ों ने सावरकर को अण्डमान द्वीप से हटाकर रत्नागिरि स्थित हिन्दुस्तान के एक अघिक सह्य कारावास में भेज दिया, जहाँ वे जेल के पुस्तकालय के प्रभारी बन गये। 1923 में उनको वहाँ से यरवदा जेल भेज दिया गया, जहाँ उनको जेल कारख़ाने का मुखिया बना दिया गया और कक्षाओं में पढ़ाने की इजाज़त दे दी गयी। उन्होंने अपनी इस नयी आज़ादी का इस्तेमाल हाल ही में कै़द किये गये सत्याग्रहियों के विचारों को बदलने के लिए किया।
उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा था कि ‘मैंने यहाँ गाँघी के इन तमाम अनुयायियोें की तीखी आलोचना की ताकि उनकी आँखों पर पड़ा परदा हट सकता...। चरखा कातकर स्वराज हासिल करना, हिन्दुओं के कर्तव्य के रूप में मुसलमानों के खि़लाफ़त आन्दोलन का समर्थन करना, और अहिंसा की हास्यास्पद परिभाषाएँ, इन सबकी मैंने अकाट्य तर्कों और इतिहास के हवालों के माध्यम से घज्जियाँ उड़ा दीं।’60
गाँघी खुद भी उसी समय यरवदा जेल के एक क़ैदी थे जब सावरकर वहाँ थे। गाँघी उस साम्राज्य के खि़लाफ़ देशद्रोह के आरोप में कै़द थे जिसके प्रति अब सावरकर वफ़ादारी की पैरवी कर रहे थे। गाँघी, जोकि साम्राज्य के एक भूतपूर्व वफ़ादार नागरिक हुआ करते थे, अब उसके सबसे प्रमुख विरोघी बन गये थे, जबकि प्रसिद्ध विद्रोही सावरकर ने अँग्रेज़ों से वादा किया था कि वे अपनी रिहाई के बदले में राजनैतिक कार्रवाई से दूर रहेंगे।
सावरकर ने साम्राज्य के प्रति अपनी निष्ठा का वचन यरवदा में बम्बई के अँग्रेज़ गवर्नर सर जाॅर्ज लाॅयड को दिये गये एक साक्षात्कार में दिया था। उन्होंने अपनी रिहाई के लिए गवर्नर द्वारा रखी गयी इस शर्त को स्वीकार किया था कि वे न तो रत्नागिरि जि़ले के बाहर जाएँगे और न ही किसी राजनैतिक गतिविघि में मुब्तिला होंगे। सावरकर को यरवदा जेल से 6 जनवरी 1924 को रिहा कर दिया गया।61
उन्होंने अँग्रेज़ों के सामने अपने घुटने टेक देने का औचित्य यह कहते हुए प्रतिपादित किया था कि वे एक बन्दी बना लिये गये सेनापति थे, और अपनी तुलना उन्होंने भगवान कृष्ण से की थीः ‘युद्धबन्दी सेनापति युद्ध संचालित नहीं कर सकते और रणभूमि में नहीं आ सकते। वे अपनी निष्ठा का वचन देने के बदले जमानत पर छोड़ दिये जाते हैं, उन भगवान कृष्ण की तरह जो इस बात पर राज़ी हो गये थे कि वे पूरे युद्ध के दौरान अस्त्र नहीं उठाएँगे। और उनके इस समझौते को कोई अपमानजनक चीज़ की तरह नहीं देखा गया था।’62
सावरकर ने अपने संस्मरणों में अपनी रिहाई से पहले अपने साथी कै़दियों के साथ हुई एक बातचीत को बयान किया था। लगता है जैसे इन लोगों द्वारा उनको दी गयी विदाई ने उनको 1909 में लन्दन में गाँघी के साथ हुई बहस के विषय की याद दिला दी थीः रामायण में वर्णित रावण पर राम की विजय, पाप पर पुण्य की विजय। वे याद करते हुए लिखते हैं कि उनके समर्थकों ने 1924 की उनकी रिहाई को महाकाव्यात्मक पदावली में यह कहते हुए घोषित किया था कि ‘‘सावरकर, अपने देश से आपका निर्वासन वैसा ही था जैसे राम का निर्वासन था, जिनको चैदह बरस के लिए वनवास में जाना पड़ा था...। आपने भी उसी तरह की कठिन परीक्षाओं, कष्टों और अपने प्रियजनों के वियोगों को झेला है।’’ सावरकर कहते हैं कि उन्होंने इसके जवाब में कहा था ः
इस तुलना में एक बहुत बड़ी चूक है। राम को देशनिकाला दिया गया था, लेकिन राम ने रावण को ख़त्म कर युद्ध को जीत लिया था। मुझे भी देशनिकाला दिया गया और उसकी पीड़ाओं को मैंने झेला, लेकिन रावण अभी भी जि़न्दा है। मैं स्वयं को तभी आज़ाद महसूस करूँगा जब यह काम पूरा हो जाएगा। ईश्वर की कृपा बनी रही तो यह काम उसी तरह खुद-ब-खुद पूरा हो जाएगा जिस तरह वे दूसरे छोटे-छोटे काम हुए हैं जिनमें मैंने हाथ डाला है। एक दिन, कभी, यह काम भी हो जाएगा और तब आप फ़र्क को समझ सकेंगे, और तब वह घटना आपको बहुत पीड़ा पहुँचाएगी।63
‘एक दिन, कभी’ रावण की हत्या के माध्यम से राम की विजय के नाटक की पुनप्र्रस्तुति, जो ‘‘आपको पीड़ा पहुँचाएगी’, की सावरकर की यह भविष्यवाणी उनके जेल-संस्मरणों के अँग्रेज़ी अनुवाद में शामिल की गयी थी। सावरकर द्वारा जाँचा गया यह अनुवाद 1950 में,64 सावरकर के चेलों की मण्डली द्वारा की गयी गाँघी की हत्या के दो साल बाद प्रकाशित हुआ था।
1924 में समुद्र तट के एक छोटे-से नगर रत्नागिरि में रिहाई के बाद सावरकर वाक़ई राजनैतिक गतिविघियों में तो मुब्तिला हुए, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे अँग्रेज़ अघिकारी परेशान होते। रत्नागिरि की जेल में रहते हुए सावरकर ने अपनी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक हिन्दुत्वः व्हाट इज़ अ हिन्दू? लिखी थी, जो उनके द्वारा नयी-नयी अपनायी गयी हिन्दू राष्ट्रवादी विचारघारा की उद्घोषणा करने वाला निबन्घ था। जेल के बाहर वे अपनी आक्रामक रूप से मुस्लिम-विरोघी और सांस्कृतिक रूप से हिन्दूवादी विश्वदृष्टि के प्रमुख प्रचारक बन गये थे। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच वे जिस तरह के दोटूक विभाजन को प्रोत्साहित कर रहे थे, वह व्यावहारिक तौर पर ‘बाँटो और राज करो’ की अँग्रेज़ों की रणनीति का एक हिन्दुस्तानी अनुमोदन था।
मार्च 1925 में रत्नागिरि में सावरकर के शुरुआती मुलाक़ातियों में एक के.बी. हेडगेवार थे, जो एक चिकित्सक थे और हाल में प्रकाशित सावरकर की पुस्तक हिन्दुत्व से प्रेरित थे। हेडगेवार ने सावरकर से परामर्श किया कि उनकी हिन्दू राष्ट्रवादी कल्पना को किस तरह साकार किया जाए। इस विचार-विमर्श के बाद हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना की,65 जिसके सीघे-सादे नाम के पीछे एक ऐसा संगठन छिपा हुआ था जो सचेत ढंग से मुसौलिनी की फ़ासीवादी ब्लैकशर्ट्स मुसौलिनी की राष्ट्रीय फ़ासीवादी पार्टी का अर्घसैनिक घड़ा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सक्रिय स्वयंसेवी नागर सेना’, की नक़ल करता था।66 यह आरएसएस बीसवीं सदी के अन्त में हिन्दुस्तान में राजनैतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से मुसलमानों को आतंकित करने के लिए कुख्यात होने वाला था। जिस समय सावरकर ने एक नया विचारघारात्मक अनुयायी वर्ग तैयार करने की शुरुआत की थी, तब 1927 में गाँघी रत्नागिरि के उनके घर पर उनसे एक दोस्ताना मुलाक़ात करने गये थे। यह दोनों की आखि़री मुलाक़ात थी। मुलाक़ात के बाद जब गाँघी वहाँ से निकल रहे थे, तो उन्होंने सावरकर से कहा, ‘आप जो भी प्रयोग कर रहे हैं, उनकी क़ीमत राष्ट्र को चुकानी पड़ेगी।’67
1929 में डाक विभाग के एक कर्मचारी को रत्नागिरि स्थानान्तरित किया गया। गोडसे के परिवार के नगर में आने के तीन दिन बाद, विनायक का उéीस साल का बेटा नाथूराम पहली बार सावरकर से मिलने गया। जैसा कि नाथूराम के छोटे भाई और गाँघी की हत्या के षडयन्त्र में शामिल गोपाल ने लिखा है, नाथूराम तब अक्सर सावरकर से मिलने जाया करते थे...। नाथूराम ने ख़ुशी-ख़ुशी वीर सारकर के लेखन की प्रतिलिपियाँ तैयार करने का काम सँभाल रखा था।’68 नाथूराम की इस समर्पण-भावना से प्रभावित होकर सावरकर ने उसको अपना सचिव नियुक्त कर लिया।69 नाथूराम आरएसएस में भी भर्ती हो गया, जहाँ अन्त में वह उसकी एक शाखा के ‘अकादमिक विभाग’ का मुखिया बन गया।70 नाथूराम को एक ऐसा पेशा हाथ लग गया था जिसमें वह आजीवन लगा रहने वाला था - सावरकर की शिक्षाओं के अनुसरण, प्रचार और क्रियान्वयन का पेशा।
1930 में, सावरकर ने हिन्दू महासभा नामक एक मुसलमान-विरोघी, सैन्योन्मुख संगठन तैयार करने में मदद की। वे 1937 से 1944 तक इस महासभा के अध्यक्ष रहे। जब दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ, तो सावरकर ने हिन्दू नौजवानों से अँग्रेज़ों के नेतृत्व वाले सैन्य बलों में शामिल होने का अनुरोघ किया ताकि वे ‘एक लड़ाकू नस्ल में पुनर्जन्म ले सकते।’71 उनका 1940 का नारा हिन्दू राष्ट्रवाद के साथ युद्धपरक उद्यम का गठजोड़ क़ायम करने वाला थाः ‘सारी राजनीति का हिन्दूकरण करो और हिन्दुत्व का सैन्यीकरण करो।’72
सावरकर के अनुयायियों की साजिश से जुड़ी 1944 की एक दूसरी घटना एक बार फिर गाँघी की हत्या की पूर्वसूचना देने वाली थी। यह पहली घटना - सितम्बर 1944 - के दो महीने बाद की है, जब गाँघी मोहम्मद अली जिéा के साथ वह बातचीत करने वाले थे जिसको लेकर उनको उम्मीद थी कि वह इस मुसलमान नेता के साथ एकता क़ायम करने वाली साबित होगी। नाथूराम गोडसे समेत नौजवानों का एक और समूह गाँघी के सेवाग्राम आश्रम में पहुँचा, जिसने गाँघी को जिéा से मिलने से रोकने के लिए सार्वजनिक रूप से शपथ ली। इन लोगों ने इस मुलाक़ात के लिए गाँघी को आश्रम से बाहर जाने से रोकने की तैयारी के सिलसिले में आश्रम के द्वार को घेर लिया। जब पुलिस ने इन आदमियों को गिरफ़्तार कर उनकी तलाशी ली, तो उन्होंने पाया कि एक व्यक्ति ने अपने पास ‘7) इंच लम्बा एक पैना चाकू छिपा रखा था।’73
गाँघी के सचिव प्यारेलाल ने गाँघी पर लिखी अपनी जीवनी में उस बातचीत का वर्णन किया है जो उस दिन गिरफ़्तार करने वाले एक अघिकारी तथा उस आदमी के बीच हुई थी जिसने वह चाकू छिपा रखा था ः
उस अघिकारी ने मज़ाक के लहज़े में कहा, ‘जो भी हो, तुम्हें एक शहीद होने का सन्तोष तो मिल ही गया।’
उस आदमी ने फुर्ती से जवाब दिया, ‘नहीं, वह तब मिलेगा जब कोई व्यक्ति गाँघीजी की हत्या कर देगा।’
अघिकारी ने कहा, ‘यह मसला हल करने की जि़म्मेदारी तुम नेताओं पर ही क्यों नहीं छोड़ देते? उदाहरण के लिए, सावरकर आकर यह काम कर सकते हैं।’
उस आदमी ने जवाब दिया, ‘यह गाँघीजी के लिए कुछ ज़्यादा ही बड़ा सम्मान देना होगा। इस काम के लिए (अपने बग़ल में खड़े आदमी की ओर संकेत करते हुए) जमादार ही काफ़ी होगा।’74
प्यारेलाल टिप्पणी करते हैंः ‘जिस आदमी को जमादार कहा गया था वह उस घेराबन्दी में उसका साथ देने वाला व्यक्ति - नाथूराम विनायक गोडसे था - गाँघी का भावी हत्यारा।’
गाँघी की हत्या, जिसे वास्तव में गोडसे ने अंजाम दिया था, का सन्दर्भ यह था कि गाँघी ने 12 जनवरी 1948 की दिल्ली की अपनी प्रार्थना-सभा में यह ऐलान किया था कि अगले दिन से वे आमरण अनशन पर बैठने वाले हैं। उन्होंने कहा था कि ‘मैं हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों के बीच हार्दिक मैत्री के लिए लालायित हूँ।’76 पिछले डेढ़ साल से हिन्दू, सिख और मुसलमान एक दूसरे की हत्याएँ करने में लगे थे, जिनके परिणामस्वरूप और जिनकी वजह से अँग्रेज़ी हुकूमत द्वारा अगस्त 1947 में हिन्दुस्तान और पाकिस्तान नामक दो नये स्वाघीन देशों के रूप में उस देश विभाजन किया गया था जो इसके पहले तक एक हिन्दुस्तान हुआ करता था। बड़ी तादाद में हिन्दुओं और सिखों को पाकिस्तान से, और लगभग उतने ही मुसलमानों को हिन्दुस्तान से निकाल बाहर कर दिया गया था। दोनों तरफ़ के हज़ारों लोग मर गये थे, मर रहे थे, या अपने शत्रुओं से जान बचाकर भाग रहे थे।
गाँघी व्याकुल थे। उन्होंने कहा था ः
एक समय था जब इस बात पर किसी को भरोसा नहीं होता था कि हिन्दुस्तान अहिंसा के रास्ते स्वाघीनता हासिल कर सकेगा। लेकिन अब जबकि स्वाघीनता एक हक़ीक़त बन चुकी है, हम अहिंसा को अलविदा कह रहे हैं...। अगर हिन्दुस्तान को अब अहिंसा की कोई ज़रूरत नहीं रह गयी है, क्या उसे मेरी ज़रूरत भी रह गयी हो सकती है? मुझे ज़रा भी अचरज नहीं होगा अगर राष्ट्रीय नेता मेरे प्रति सारा सम्मान व्यक्त करने के बावजूद एक दिन यह कहें कि ‘‘इस बुड्ढे से हम तंग आ चुके हैं। ये हमें अकेला क्यों नहीं छोड़ देता?77
अक्टूबर 1946 में गाँघी हताशा के शिकार हो गये। उन तक ख़बरें पहँुचीं कि पूर्वी बंगाल के मुस्लिम-बहुल आबादी वाले नोआखाली जि़ले के मुसलमान हिन्दुओं का जनसंहार कर रहे हैं। इसके बदले में हिन्दू-बहुल आबादी वाले बिहार प्रान्त के हिन्दू मुसलमानों का जनसंहार कर रहे थे। हिन्दू-मुसलमान-एकता का जो सपना गाँघी आजीवन देखते आये थे, वह अँघेरे में डूब रहा था। उन्होंने तुरन्त नोआखाली जाने का निश्चय किया।
उन्होंने एक दोस्त से कहा था, ‘मैं नहीं जानता, मैं वहाँ जाकर क्या कर पाऊँगा, मैं तो सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि जब तक मैं वहाँ नहीं जाऊँगा तब तक मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।’ उनका विचार सिर्फ़ नोआखाली के लोगों तक, वहाँ के हिन्दुओं और मुसलमानों तक पहुँचने का, और जो ईश्वर कराता, उसे करने का था। विचार जब तक कार्यरूप नहीं लेता तब तक वह अशक्त बना रहता है। उन्होंने कहा कि ‘लेकिन अपनी नवजात पवित्रता से युक्त और हमारे अस्तित्व की अविभाजित उत्कटता से लैस एक क्रियात्मक विचार शक्ति का पुंज बन सकता है और इतिहास रच सकता है।’78
नोआखाली एक डेल्टा पर स्थित चालीस वर्ग किलोमीटर में फैला सघन बसावट वाला क्षेत्र था, जहाँ तक सिफऱ् जलमार्ग से, वनस्पतियों से ढँकी पगडण्डियों के रास्ते, और नाज़्ाुक पुलों से होकर ही पहुँचा जा सकता था।79 इसकी आबादी में 1,800,000 मुसलमान और 400,000 हिन्दू शामिल थे। ये अल्पसंख्यक हिन्दू भूमिपति और व्यवसायी थे। उनने उन मुसलमान कामगारों के मन में बैठे अन्याय के अहसास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था जिनने, अन्यत्र हिन्दुओं द्वारा मुसलमानों के मारे जाने के कि़स्सों से क्रोघित होकर नोआखाली के हिन्दुओं पर वहशियाना हमले कर दिये थे।80
गाँघी उन गाँवों में गये जो सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए थे। इन सभी जगहों पर एक ही तरह की हालत थी - थोड़े-से हिन्दू परिवारों की जिन झोपडि़यों को जलाकर राख कर दिया गया था, वे बड़ी तादाद में मुसलमानों के घरों से घिरी हुई थीं। इस तरह के ज़्यादातर इलाक़ों के हिन्दू मार दिये गये थे, जिनके शवों के जले हुए अवशेष और अस्थियाँ जहाँ-तहाँ बिखरे पड़े थे। अन्य हिन्दू भाग गये थे। जो बचे रह गये थे, उनके चेहरों पर वीरानी छायी हुई थी। वे गहरे सदमे और आतंक में रह रहे थे। ज़्यादातर मुसलमान गाँघी के सवालों के जवाब में साफ़ मुकर गये। उस भयावहता की जि़म्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं था, जो चारों तरफ़ पसरी हुई थी।
लेकिन जहाँ गाँघी यह देख रहे थे कि बंगाल में किस तरह बहुसंख्यक मुसलमानों ने हिन्दुओं की मारकाट की थी, वहीं उनको वे ख़बरें भी सुनने को मिल रही थीं कि किस तरह बिहार में बहुसंख्यक हिन्दू मुसलमानों के क़त्ल कर रहे थे।81
18 नवम्बर 1946 की अपनी प्रार्थना-सभा में गाँघी ने उस ख़ौफ़ का वर्णन किया था जिसे उन्होंने नोआखाली में सर्वत्र देखा था। इसी के साथ उन्होंने इस बारे में भी बात की थी कि इस ख़ौफ़ पर किस तरह विजय पायी जा सकती थी ः
जितना ही मैं इन इलाक़ों में गया, उतना ही मैंने पाया कि भय आपका सबसे बड़ा दुश्मन है। आतंकवादी और आतंकित, दोनों ही समान रूप से इसके शिकार होते हैं। यह उनके मर्मस्थलों को नष्ट कर देता है। आतंकवादी को अपने शिकार से किसी चीज़ का भय होता है, वह आतंक के शिकार व्यक्ति का वह मज़हब हो सकता है, जो आतंकवादी के मज़हब से भिé होता है, या वह आतंक के शिकार व्यक्ति की दौलत हो सकती है...।
लेकिन ऐसा कोई इन्सान न कभी हुआ है और न होगा जो किसी ऐसे इन्सान को डरा सके जिसने भय को अपने हृदय से निकाल फेंका है क्योंकि ईश्वर हमेशा निर्भय व्यक्ति के साथ होता है। अगर हम ईश्वर को अपना एकमात्र आश्रय बना लें, तो हमारे सारे भय जाते रहेंगे। जब तक आप अपने अन्दर निर्भीकता को विकसित नहीं करते, तब तक इन इलाक़ों में हिन्दुओं को या मुसलमानों को शान्ति नहीं मिल पाएगी।82
निर्भीकता का अर्थ था आतंक में डूबे क्षेत्र के भीतर अकेले चलते चले जाना। विचार आतंक से लड़ने के लिए एक कार्य-योजना की माँग करता था, जिसमें गाँघी अपने सहकर्मियों के साथ साझा करते। उन्होंने मुट्ठीभर सत्याग्रहियों को आमन्त्रित किया जो उनके साथ निडरता को जीने के लिए आतंक में डूबे नोआखाली के एक के बाद एक गाँव में फैल गये थे। उनमें से हरेक सामूहिक हत्या के कुकर्मियों और उनके शिकारों के बीच अकेला रह रहा था। वे ‘उस गाँव के हिन्दुओं की सुरक्षा और हिफ़ाज़त की ख़ातिर स्वयं को बन्घक बनाने के लिए’83 मौजूद थे। वे जले हुए और तहस-नहस कर दिये गये मकानों की सफ़ाई करते, घरों का पुनर्निर्माण करते, समुदाय की सेवा करते, और हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच घीरे-घीरे आपसी विश्वास को फिर से स्थापित करते। जो हिन्दू आतंक से घबराकर भाग गये थे, उनकी सुरक्षित, शान्तिपूर्ण वापसी के लिए वे मुसलमानों से मदद माँगते। निर्भीकता की ख़ातिर हर सत्याग्रही अपना रचनात्मक काम अकेले करता था या करती थी, जिसके लिए वह सम्बन्घित गाँव के लोगों की मदद पर निर्भर होता था@होती थी।84 उद्देश्य था निर्भीक अहिंसा के माध्यम से नोआखाली से आतंक को हटाना।
गाँघी के दल के एक शंकालु व्यक्ति ने कहा, ‘आप ऐसे लोगों से संवेदनशीलता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं जो आपके ख़ून के प्यासे हैं? अभी हाल ही में आपके दो कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी थी।’
‘मुझे मालूम है,’ गाँघी ने कहा, ‘इसी ग़्ाुस्से को क़ाबू में करना हमारा काम है।’
उन्होंने अपने एक दोस्त को लिखा थाः ‘मैं जिस काम में यहाँ लगा हूँ, वह हो सकता है मेरा आखि़री कर्म हो। अगर मैं यहाँ से जि़न्दा और सकुशल लौट आता हूँ, तो यह मेरे लिए पुनर्जन्म प्राप्त करने जैसा होगा। मेरी अहिंसा की यहाँ जिस तरह बार-बार परीक्षा ली जा रही है, वैसी कभी नहीं ली गयी।’85
जनवरी 1947 में श्रीरामपुर गाँव में रहने के बाद गाँघी ने आतंकग्रस्त इलाके़ में पैदल चलते हुए रोज़मर्रा तीर्थयात्रा की शुरुआत की। सात सप्ताहों के भीतर उन्होंने 116 मील चलते हुए 47 गाँवों का भ्रमण किया।86
हर रोज़ सुबह 7ः30 बजे सूरज के उगने के साथ गाँघी अपनी यात्रा पर निकल पड़ते - रवीन्द्रनाथ ठाकुर का गीत ‘एकला चलो’ गाते हुए, जो उनकी इस तीर्थयात्रा के मूल विचार को व्यंजित करता था ः
अकेले चलो
अगर तेरी पुकार सुन कोई न आये तो फिर अकेला चल;
अगर वे सब डर के मारे दीवार की ओर मुँह मोड़ लें,
तो हे अभागे,
तू डरे बिना मुक्त-कण्ठ अपनी बात कह।
जब निर्जन वनप्रान्तर में वे तुझे अकेला छोड़कर चले जाएँ,
तो ओ अभागे,
पथ के कण्टकों को अपने पैरों से कुचलता हुआ
ख़ून से लथपथ रास्ते पर तू अकेला चल।
जब प्रभंजन से भरी अँघेरी रात में
कोई दीपक उठा तुझे रोशनी न दिखाए,
ओ अभागे,
तू अपनी पीड़ा की बिजली से अपने हृदय को जला
और उसे अकेला जलने दे।87
आकाश और हरियाली की पृष्ठभूमि में गाँघी को ऊँचे खम्भों पर टिके बाँस के पुल, शैंको, को पार करते हुए देखा जा सकता था। सतहत्तर साल की उम्र में ख़तरनाक ढंग से फिसलन-भरे पुलों पर अपना रास्ता बनाते हुए चलने के लिए सबसे पहले मदद की ज़रूरत थी। लेकिन उन्होंने एक दिन में चार बार कम ऊँचाई वाले पुलों पर अभ्यास करने के बाद कहा, ‘मुझे इसे अकेले ही पार करना होगा।’88 वे जल्दी ही हर शैंको पर निर्भय होकर चलने लगे (जैसाकि इस पुस्तक के आवरण की तस्वीर में देखा जा सकता है)।
उन्होंने दूसरी बाघाओं का सामना भी किया - उनके रास्ते पर छोड़ दिया गया इन्सानी मल, कभी कोई उनके चेहरे पर थूक देता, हत्या कर दिये जाने का निरन्तर ख़तरा।89 जैसे ही वे हर सुबह हल्की रोशनी में डूबे खेतों से होकर गुज़रते, तो वे काम पर जाते मुसलमान किसानों को सलाम करते जाते थे।90
गाँघी से भयभीत दुर्भावना-ग्रस्त नेताओं की चेतावनियों के बावजूद, लोग इस तीर्थयात्री के दुआ-सलामों का जवाब देते थे। वे उनकी सान्ध्यकालीन प्रार्थना-सभाओं में शामिल होते थे।91 लेकिन वहाँ पर भी गाँघी को मौत के ख़तरे का सामना करना पड़ा। इस तरह की तकरारों को वे पुलिस की मदद के बिना खुद ही निपटा लेते थे, जैसा कि एक संवाददाता ने देखा था, जिसने लिखा था ः
गाँघी ने सरकार के साथ ऐसा निश्चित कर रखा था कि उनकी प्रार्थना-सभाओं के दौरान किसी को गिरफ़्तार न किया जाए। एक मुसलमान आया जो महात्मा से अप्रभावित था। उसने महात्मा का गला पकड़ लिया और उसे उनका दम घुटने और चेहरा नीला पड़ने तक दबाये रहा। इस सबके बीच गाँघी मुस्कराते रहे, बल्कि हँसते रहे। प्रतिरोघ और असन्तोष तक के उस अभाव ने हमलावर को इस क़दर हतोत्साहित कर दिया कि उसने उनका गला छोड़ दिया। बाद में वह आया और महात्मा के पैरों पर गिर पड़ा और अपने उस कृत्य के लिए माफ़ी माँगने लगा।92
घीरे-घीरे आतंक से परे की शक्ति की दिशा में गाँघी की इस तीर्थयात्रा ने नोआखाली पर एक असर डाला, जिसमें उनके सहकर्मियों द्वारा सम्बन्घित गाँँवों में किये गये रचनात्मक काम ने भी योगदान किया था। उनकी मौजूदगी ने हिन्दू और मुसलमान, दोनों में साहस को विकसित किया।
विभाजन-पूर्व की हिंसा के एक सर्वेक्षण में न्यायमूर्ति जी.डी. खोसला ने नोआखाली में गाँघी के अहिंसक प्रतिबल को इन शब्दों में बयान किया थाः ‘गाँघी ने विक्षिप्त नोआखाली में विवेक और मानसिक सन्तुलन की रोशनी पैदा की थी। बड़ी तादाद में मुसलमानों ने आगे बढ़कर हिन्दू अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त का वचन दिया। आत्मविश्वास एक बार फिर लौटा, और हिन्दुओं ने अपने दिलों से ख़ौफ़ को निकाल बाहर कर अपने घरों को वापस लौटना शुरू कर दिया।’93
नोआखाली की अग्नि-परीक्षा ने अहिंसा को नहीं मारा। इसने सत्याग्रह की ताक़त में गाँघी की आस्था को और भी मज़बूती प्रदान की।94 इसके बाद वे मुसलमानों के जनसंहार में लगे उस हिन्दू आतंकवाद से लड़ने बिहार गये, और अन्ततः कलकत्ता और दिल्ली गये, जिसके दुष्चक्र को सिफऱ् अहिंसा के रास्ते ही ख़त्म किया जा सकता था।
नोआखाली से लेकर बिहार, कलकत्ता और दिल्ली तक गाँघी एक ऐसा तडि़तदण्ड (लाइटनिंग राॅड) बन गये थे जो एक ओर उन इलाक़ों के मुसलमानों की हिंसा को अपने में सोख रहा था जिनको मुसलमान पाकिस्तान की ख़ातिर हिन्दुओं से ख़ाली करवाना चाह रहे थे, और दूसरी ओर उन हिन्दुओं की हिंसा को सोख रहा था जो मुसलमानों से रहित एक शुद्ध हिन्दुस्तान चाहते थे। दिल्ली में इस अन्घड़ के केन्द्र में जहाँ हिन्दुओं का वर्चस्व था, गाँघी पर इसलिए हमला किया गया क्योंकि वे मुसलमानों का पक्ष ले रहे थे, जोकि उस सन्दर्भ में सच था। वे हमेशा अल्पसंख्यकों का पक्ष लेते थे। वे स्वयं को हमेशा उन लोगों से तदात्म करके देखते थे जो सबसे ज़्यादा वध्य स्थिति में होते थे, वे लोग जिनको नजरेथ के ईसा ने ‘इनमें से अल्पतम’ (‘लीस्ट आॅफ़ दीज़’)95 कहा था। कभी मुसलमान, कभी हिन्दू या सिख, और हमेशा ही अछूत या हरिजन (जैसा कि गाँघी वर्ण-व्यवस्था के सबसे निचले पायदान के इन लोगों को पुकारते थे) - ‘इनमें से अल्पतम’ की यह पहचान राजनैतिक या सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करती थी। गाँघी निचले पायदान के इन लोगों के साथ जिये और उन्हीं के लिए मरे।
जनवरी में 1948 में हिन्दुस्तान की हिन्दुओं के वर्चस्व वाली राजघानी दिल्ली में मुसलमानों के पक्षघर बन चुकने के बाद गाँघी के सिर पर मँडराता ख़तरा गहरा गया था। दक्षिणपन्थी हिन्दुओं ने स्वयं को गाँघी की अपनी काँग्रेस पार्टी के ख़ास तत्त्वों के साथ मिला लिया था। सावरकर के अनुयायी सरकार के मन्त्रीमण्डलीय और प्रशासनिक पदों पर थे।96 हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उग्रवादियों ने हिन्दुस्तान के सुरक्षा बलों में भी घुसपैठ कर ली थी। प्रमुख पुलिस अघिकारी गाँघी के विविघतापूर्ण, घर्मनिरपेक्ष संघ के लोकतान्त्रिक आदर्श की बजाय एक पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र के प्रति ज़्यादा प्रतिबद्ध थे।97 अगर सम्भावित रूप से मुसलमानों के पक्षघर एक सत्याग्रही पर उन लोगों द्वारा हमला किया जाता जिनके प्रति पुलिस हमदर्दी रखती थी, तो इन अघिकारियों पर इस सत्याग्रही के जीवन की रक्षा करने का भरोसा नहीं किया जा सकता था। इस तरह राज्य की पुलिस ने गाँघी की हत्या के लिए परिप्रेक्ष्य उपलब्घ कराया।
गाँघी जानते थे कि वे अपना बचा-खुचा जीवन एक ज्वालामुखी पर जी रहे थे। वे अपने सहकर्मियों से लगातार कहते रहते थे, ‘आप देखते नहीं? मैं अपनी चिता पर सवार हूँ।’ क्या वे हालात के संकेतों को नहीं समझ पा रहे थे? वे उनकी मृत्यु के संकेत थे। उन्होंने यह कहते हुए अपनी चेतावनी पर बल दिया था कि ‘आपको यह मालूम होना चाहिए कि यह एक लाश है जो आपसे यह बात कह रही है।’98
अमंगलकारी विभाजन ने हत्या के लिए मंच तैयार कर दिया। यह उनके अपने शिष्यों, जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल, की भागीदारी से घटित हुआ था, क्योंकि यही लोग स्वाघीनता मिलने के महीनों पहले से चली आ रही अन्तरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे थे।
जब फ़रवरी 1947 में अँग्रेज़ों ने भारत को छोड़कर चले जाने के अपने इरादे का ऐलान कर दिया, तो उन्होंने सत्ता के हस्तान्तरण की शुरुआत की, जो उतना ही विभाजनकारी था जितनी विभाजनकारी उनकी हुकूमत थी। सत्ता के हस्तान्तरण के बारे में गाँघी की काँग्रेस पार्टी से एक तरह की बात करते हुए, और मोहम्मद अली जिéा तथा मुस्लिम लीग से दूसरी तरह की बात करते हुए, अँग्रेज़ों ने ‘बाँटो-और-राज करो’ की अपनी रणनीति को जारी रखा। इसका नतीजा हिन्दुस्तान के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण के रूप में सामने आया।99
1947 के पहले दो महीनों के दौरान नोआखाली की यात्रा करने के बाद गाँघी ने पाया कि जिéा और नेहरू ने उनकी जानकारी के बिना स्वतन्त्र मुस्लिम राज्य के लिए जिéा द्वारा चलायी जा रही उस हिंसक मुहिम के सामने घुटने टेक दिये थे, जिसको विभाजन के पक्षघर अँग्रेज़ी प्रशासन के दबाव से बल मिला हुआ था।100 पाकिस्तान बनने की छूट के साथ विभाजन के लिए नेहरू और पटेल के अनुमोदन ने गाँघी के इन भूतपूर्व प्रतिनिघियों तथा काँग्रेस के दूसरे नेताओं को, अन्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के प्रतिनिघियों द्वारा महीनों से डाली जाती रही रुकावट का सामना करने के बाद, अन्ततः हिन्दुस्तान की स्वाघीन सरकार में निर्विघ्न शक्ति हासिल करने में सक्षम बना दिया। पाकिस्तान के रूप में स्वतन्त्र राज्य की ख़ातिर मुस्लिम नेताओं के हट जाने ने नेहरू और पटेल को मुक्ति का वह अहसास कराया जिसके साथ वे हिन्दुस्तान पर हुकूमत कर सकते थे। जब अँग्रेज़ों ने गुपचुप ढंग से तय कर दी गयी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की सरहदों का खुलासा कर दिया, और लाखों की तादाद में हिन्दू, मुसलमान और सिख आपसी नरसंहार से घबराकर इन सरहदों के पार भागे, तो गाँघी इस विभाजन के भयावह नतीजों पर क़ाबू पाने के उपायों को तलाशने का संघर्ष कर रहे थे।
विभाजन के बाद हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता क़ायम करने के लिए गाँघी द्वारा किये गये दिल्ली के उपवास ने उस हत्यारे फै़सले के लिए एक तर्क उपलब्घ करा दिया जो फै़सला सावरकर और उनके शिष्य पहले ही ले चुके थे। गाँघी वर्षों से उनके निशाने पर रहे थे। लेकिन उनकी हत्या करने का इससे ज़्यादा उपयुक्त अवसर उनको कभी महसूस नहीं हुआ था। अब हत्यारे गाँघी पर विभाजन का दोषारोपण कर सकते थे, और कुप्रचार का सहारा लेकर उनकी हत्या को हिन्दू राष्ट्रवाद के बचाव के एक कृत्य के रूप में उचित ठहरा सकते थे। अपने गुरु के मार्गदर्शन और आशीर्वाद से एक गिरोह तैयार करने के बाद, नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे सावरकर के प्रमुख हत्यारों की भूमिका निभाने जा रहे थे। गोडसे पूना से प्रकाशित अग्रणी नामक उस अखबार का सम्पादक और नारायण आप्टे उसका प्रकाशक था, जो सावरकर के उग्र हिन्दूवाद का प्रचार किया करता था। सावरकर के प्रति उनका रिश्ता पूरी तरह से साष्टांग दण्डवत वाला था। आप्टे ने इसका सार-संक्षेप सावरकर की हिन्दुत्व सम्बन्घी विचारघारा पर केन्द्रित भाषण के लिए लिखे गये अपने एक नोट में इस तरह प्रस्तुत किया था ः
नेता ः- सावरकर
नीति ः- नेता की आज्ञा का पालन करना।
एक नेतृत्व का क्या अर्थ है? सम्बन्घ।
ऊपर से मिले आदेशों का पालन करना।102
गाँघी द्वारा उनके दिल्ली उपवास की घोषणा के दो दिन पहले गोडसे और आप्टे उन शस्त्रों के लिए आॅर्डर भेज चुके थे, जिनका इस्तेमाल वे हत्या की योजना के क्रियान्वयन के लिए करने वाले थे। यह आॅर्डर उन्होंने 10 जनवरी को पूना के हथियार-विक्रेता दिगम्बर बडगे को भेजा था। उन्होंने बडगे से कहा था कि वह आवश्यक विस्फोटक, रिवाॅल्वर, और हथगोले 14 जनवरी तक बम्बई-स्थित हिन्दू महासभा के कार्यालय में पहुँचा दे।103 सावरकर बम्बई आ गये थे, जहाँ हत्यारे अपने इस गुरु से अन्तिम निर्देश और आशीर्वाद प्राप्त करने वाले थे। 12 जनवरी की रात, जब गोडसे और आप्टे ने अपने टेलीप्रिण्टर पर गाँघी के उपवास की घोषणा के बारे में पढ़ा, तभी उन्होंने महात्मा की हत्या के लिए लक्ष्य के तौर पर 20 जनवरी की तिथि सुनिश्चित कर ली।104
अपने अन्तिम उपवास के पहले दिन, 13 जनवरी को, गाँघी ने कहा था कि ‘मैं तभी अपना उपवास तोड़ूँगा जब दिल्ली में शान्ति बहाल हो जाएगी। अगर दिल्ली में शान्ति बहाल हो जाती है, तो इसका असर न सिर्फ़ पूरे हिन्दुस्तान पर पड़ेगा बल्कि पाकिस्तान पर भी पड़ेगा। जब यह हो जाएगा तभी एक मुसलमान शहर में अकेला घूम सकेगा।’105
जिस दौरान गाँघी दिल्ली में अपने उद्योगपति मित्र जी.डी. बिड़ला के घर पर उपवास कर रहे थे, तभी हिन्दुस्तान की सरकार के मन्त्रीमण्डल के सदस्य पास ही में एक अत्यन्त विवादास्पद मुद्दे पर पुनर्विचार करने के लिए बैठक कर रहे थे। जब पिछले अगस्त में अँग्रेज़ों ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को स्वाघीनता प्रदान की थी, तो पाकिस्तान अविभाजित हिन्दुस्तान की बाक़ी रक़म में से साढ़े-पाँच करोड़ रुपयों का लेनदार बनता था। लेकिन जब दोनों नये देशों के बीच कश्मीर क्षेत्र की विवादास्पद सरहद को लेकर लड़ाई छिड़ गयी तो हिन्दुस्तान की सरकार ने उस भुगतान को रोक लिया था। मन्त्रीमण्डल के सदस्य जानते थे कि हिन्दुस्तान द्वारा पाकिस्तान को उक्त भुगतान न किये जाने से गाँघी विचलित थे। दूसरी तरफ़, वे इस सम्भावना से भयभीत थे कि अगर पाकिस्तान के लिए उक्त भुगतान कर दिया गया तो उसको उस चीज़ के लिए घन उपलब्घ हो जाएगा जिसे वे कश्मीर पर पाकिस्तान के क़ब्ज़े की कार्रवाई के रूप में देखते थे। हिन्दू-मुसलमान एकता के लिए किया जा रहा गाँघी का आमरण अनशन मन्त्रीमण्डल के इन सदस्यों पर दबाव डालकर, उनको उनकी मानसिक और राजनैतिक सीमाओं के परे घकेल रहा था।
गाँघी के उपवास के दूसरे दिन, 14 जनवरी को गोडसे और आप्टे पूना से चलकर बम्बई में हिन्दू महासभा के कार्यालय में पहुँचे, जहाँ वे बड़गे और उसके नौकर शंकर से मिले। बड़गे खाकी रंग का एक भारीभरकम थैला लेकर आया था। इस थैले में विस्फोटक गन काॅटन (सेल्यूलोज़ नाइटेªेट) की दो पट्टियाँ, यूज़, प्राइमर, और पाँच हथगोले थे। बड़गे, आप्टे और गोडसे हिन्दू महासभा के कार्यालय से चलकर सावरकर के घर गये। बड़गे घर के बाहर इन्तज़ार करता रहा और आप्टे तथा गोडसे विस्फोटकों का थैला लेकर मकान के अन्दर चले गये।106
अगले दिन आप्टे ने बड़गे से कहा, ‘सावरकर ने फै़सला किया है कि गाँघीजी, जवाहरलाल नेहरू और सुहरावर्दी को ‘ख़त्म’ कर दिया जाए और यह काम उन्होंने हमें सौंपा है।’107
सुहरावर्दी?
ये सुहरावर्दी कौन थे जिनके बारे में सावरकर ने कहा था कि उनको गाँघी और प्रघानमन्त्री नेहरू के साथ ‘ख़त्म’ कर दिया जाना चाहिए?
अपने विरोघियों के प्रति गाँघी के गहरे विश्वास का उदाहरण उन शहीद सुहरावर्दी के साथ उनकी निरन्तर मैत्री में देखा जा सकता था, जो 1946-47 के दौरान बंगाल के मुख्यमन्त्री रहे थे।
जब गाँघी ने 1947 में बंगाल के नोआखाली जि़ले की अकेले सुलह-यात्रा की थी, तब मुख्यमन्त्री सुहरावर्दी ने उनसे कहीं और चले जाने के लिए कहा था। सुहरावर्दी अल्पसंख्यक हिन्दुओं के खि़लाफ़ मुसलमानों की हिंसा को कम करके आँक रहे थे, जबकि इन हिन्दुओं के उत्पीड़न को गाँघी ने प्रत्यक्ष देखा था। अगस्त 1946 में कलकत्ता में हुए विराट जनसंहार में सुहरावर्दी अपनी सरकार की मिलीभगत के लिए हिन्दुओं के बीच कुख्यात थे। इस हत्याकाण्ड में, मुस्लिम लीग की ‘सीघी कार्रवाई’ और हिन्दुओं के प्रतिशोघ के चार भयावह दिनों के दौरान 4,000 लोग मारे गये थे और 11,000 लोग घायल हुए थे।108 हिन्दू शहीद सुहरावर्दी को अपना परम शत्रु मानते थे,109 जिनके बारे में माना जाता था कि वही कलकत्ता के इस विराट जनसंहार के लिए सबसे ज़्यादा जि़म्मेदार थे।110 लेकिन गाँघी दोनों पक्षों की जि़म्मेदारी और प्रायश्चित पर बल देते थे और इस मामले में वे किसी को बख़्शने को तैयार नहीं थे। उन्होंने सुहरावर्दी से सम्पर्क किया था, उनको चुनौती देने के लिए, लेकिन उनकी निन्दा करने के लिए नहीं।
कलकत्ता के उत्पात के बाद हुई पहली मुलाक़ात में गाँघी ने व्यंग्यात्मक मुस्कराहट के साथ सुहरावर्दी से पूछा था, ‘ये क्या है, शहीद साहब, आपको हर कोई गुण्डों का मुखिया कहकर पुकारता है? ऐसा कोई व्यक्ति नहीं दीखता जो आपके बारे में कोई अच्छी राय रखता हो!’
सुहरावर्दी ने तपाक-से जवाब दियाः ‘महात्माजी, क्या लोग आपकी पीठ-पीछे आपके बारे में भी भला-बुरा नहीं कहते?’
‘हो सकता है,’ गाँघी ने हँसते हुए कहा। ‘तब भी कुछ लोग तो हैं ही जो मुझे महात्मा कहते हैं। लेकिन, शहीद सुहरावर्दी, मैंने एक भी आदमी को आपको महात्मा कहते नहीं सुना!’
सुहरावर्दी ने कहा, ‘महात्माजी, लोग आपके मूँ पर जो कहते हैं उसपर विश्वास मत कीजिए!’111
यद्यपि सुहरावर्दी गाँघी के साथ चुहल कर सकते थे, लेकिन वे कलकत्ता में हुई हत्याओं के लिए कोई जि़म्मेदारी लेने को तैयार नहीं थे। उन्होंने गाँघी के उन दोटूक ख़तों को भी ख़ारिज़ कर दिया था जिनमें कहा गया था कि मुख्यमन्त्री की पुलिस नोआखाली में हिन्दुओं के खि़लाफ़ दंगा करते मुसलमानों को जानबूझकर अनदेखा कर रही थी। सुहरावर्दी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था कि ‘मेरी पुलिस मेरी आँखें और कान है।’ अपने निजी अनुभव के आघार पर गाँघी ने कहा था कि ‘आँख और कान के रूप में यह पुलिस अन्घी और बहरी है।’112
जहाँ सुहरावर्दी के ख़त झगड़ालू होते गये, वहीं गाँघी ने अपने एक जवाब में उनको ‘माइ डियर शहीद’ कहकर सम्बोघित किया, इसके बाद उन्होंने उनको उस मुलाक़ात की याद दिलायी जब वे बहुत जवान हुआ करते थे - चरखा कातते एक महत्त्वाकांक्षी सत्याग्रही हुआ करते थे। गाँघी ने याद दिलाया कि किस तरह उन्होंने उनको उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते हुए देखा था, ‘हालाँकि आप एक सीघा और महीन घागा भी नहीं खींच पा रहे थे। और फिर, अगर मुझे ठीक-ठीक याद है तो, जब मैंने आपके लिए स्नेह के किसी दूर के रिश्ते के विशेषण का इस्तेमाल किया था, तो आपने मेरी बात में सुघार करते हुए कहा था कि आप मेरे बेटे की तरह महसूस करते हैं। मैं अभी भी उसी तरह सोचना चाहूँगा कि आप वही शहीद हैं और मुझे गर्व है कि मेरा बेटा बंगाल का मुख्यमन्त्री है।’113
मई 1947 में जब सुहरावर्दी काफ़ी बुझ चुके थे और अपनी सत्ता खो रहे थे, तो वे स्वाघीन बंगाल के एकीकरण की मुख्यमन्त्री की योजना पर गाँघी का समर्थन हासिल करने, उनसे मिलने आये। गाँघी ने कहा, ‘अतीत की निरी अवहेलना के भीतर से एक नया बंगाल जन्म नहीं ले सकता। अगर अतीत भूलों से भरा हुआ हो, तो जब तक अतीत की उन भूलों को सुघारा नहीं जाता, तब तक लोग नये प्रस्ताव की ईमानदारी पर भरोसा नहीं कर सकते।’114
गाँघी के सहयोगी निर्मल बोस ने एक हत्या की जाँच-पड़ताल के काम में राजनैतिक विफलता का मुद्दा उठाया। जब सुहरावर्दी ने एक बार फिर किसी तरह की निजी जि़म्मेदारी लेने से इन्कार कर दिया, तो गाँघी फट पड़े और उन्होंने कहा, ‘हाँ, आप सिफऱ् उसी हत्या के लिए नहीं बल्कि बंगाल में गयी एक-एक जान के लिए जि़म्मेदार हैं, वह चाहे हिन्दू की जान हो या मुसलमान की।’
सुहरावर्दी ने पलटकर जवाब देते हुए कहा, ‘नहीं, जि़म्मेदार तो आप हैं, क्योंकि आपने मुसलमानों के साथ अन्याय किया है।’
गाँघी ने कहा, ‘बेवकूफ़ी की बात मत करिए।’115
सुहरावर्दी अगले दिन फिर से संयुक्त सम्प्रभु बंगाल के अपने प्रकरण को सामने रखने के लिए वापस लौटे। उन्होंने स्वीकार किया कि ‘इसमें सबसे बड़ी रुकावट यह है कि आज कोई भी हिन्दू मेरी बात नहीं सुनेगा।’
गाँघी ने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ मदद की एक अनूठी पेशकश की। उन्होंने कहा, ‘मैं आपके सचिव की भूमिका निभाऊँगा। मैं आपके साथ एक ही छप्पर तले रहूँगा। मैं इस बात को सुनिश्चित करूँगा कि हिन्दू कम-से-कम इतना करें कि घीरज के साथ आपकी बात सुनें। क्या आप इस प्रस्ताव को स्वीकार करने को तैयार हैं?’
पहली बार, सुहरावर्दी इस क़दर हक्काबक्का रह गये कि उनसे कोई जवाब देते नहीं बना। वे फुर्ती-से चले गये। बोस उनको उनकी कार तक छोड़ने गये, तो वे बुदबुदाये, ‘क्या पागलपन-भरा प्रस्ताव है! इसके अभिप्रायों की थाह लेने के लिए मुझे दस बार सोचना पड़ेगा।’116
तीन महीने बाद, जब गाँघी कलकत्ता में रुके, तो एक बार फिर उनकी मुलाक़ात हुई। सुहरावर्दी की बंगाल-योजना हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों पक्षों की ओर से अमान्य कर दी गयी थी। मुख्यमन्त्री का उनका कार्यकाल समाप्त होने को था। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दंगे कलकत्ता में स्थायी हो चुके थे। यह 11 अगस्त 1947 का दिन था, उससे चार दिन पहले, जब ब्रिटेन हिन्दुस्तान और पाकिस्तान का बँटवारा कर उनको स्वाघीनता प्रदान करने वाला था। जैसे ही मुसलमान हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान भागे, कलकत्ता के बचे हुए मुसलमानों को पिछले वर्ष कलकत्ता में हुए विराट जनसंहार का हिन्दुओं का पलटवार झेलना पड़ा।
सुहरावर्दी ने गाँघी से कलकत्ता में बने रहने का अनुरोघ किया। वह एक जलते हुए नगर में तब्दील हो चुका था। क्या वे शान्ति बहाल होने तक अपने कलकत्ता-प्रवास को लम्बा खींच पाएँगे?117
गाँघी ने कहा, ‘अगर मैं और आप साथ रहने को तैयार हों, तो मैं यहाँ बना रहूँगा। ये मेरा आपके सामने दूसरा प्रस्ताव है। हमें तब तक काम करते रहना होगा जब तक कि हर हिन्दू और मुसलमान सुरक्षित ढंग से उस जगह वापस नहीं लौट आता जहाँ पर वह पहले रहता था। हमें आखि़री साँस तक अपने इस प्रयत्न को जारी रखना होगा।’118
सुहरावर्दी जानते थे कि गाँघी गम्भीर ढंग से बात कर रहे थे। मुसलमान नेता को अहिंसा की आग में आमन्त्रित किया जा रहा था। उनके ‘हाँ’ कहने के नतीजे जीवन को बदल डालने वाले होते।
गाँघी ने उनको सोच-विचार के लिए वक़्त दिया। ‘घर जाइए और अपनी बेटी से सलाह करिए,’ उन्होंने कहा, साथ में उन्होंने वह बात भी कह दी जिसके बारे में उनका यह सम्भावित शिष्य पहले से ही जानता था और जिसका उसको डर था कि ‘पुराने सुहरावर्दी को मर जाना होगा।’119
अगले दिन सुहरावर्दी ने अपने फै़सले की ख़बर गाँघी को भिजवा दी। उन्होंने ‘हाँ’ कहा।120
13 अगस्त को गाँघी और सुहरावर्दी कलकत्ता की बेलियाघाटा झुग्गी बस्ती में एक पुरानी परित्यक्त मुस्लिम कोठी में रहने चले गये। उस पहली ही रात ग़्ाुस्साये हुए हिन्दू नौजवान मकान के दरवाज़े और खिड़कियाँ तोड़कर अन्दर घुस आये और उनने गाँघी को घेर लिया। उनने कहा कि वे अब अहिंसा का उनका कोई उपदेश नहीं सुनना चाहते। उनने उनसे वहाँ से चले जाने को कहा। गाँघी ने उनको बातचीत में मुब्तिला किया।
उन्होंने पूछा, ‘मैं जोकि जन्मजात हिन्दू हूँ, घार्मिक तौर पर हिन्दू हूँ, अपनी जीवन-शैली में हिन्दुओं का हिन्दू हूँ, मैं भला हिन्दुओं का ‘दुश्मन’ कैसे हो सकता हूँ?’121
अगले दिन ये नौजवान गाँघी के साथ लम्बी बातचीत करने को वापस आये। सुहरावर्दी उस दौरान गाँघी की बग़ल में बैठे थे। जाते-जाते इन नौजवानों ने वादा किया कि वे अपने दोस्तों को मुसलमानों के साथ सुलह के लिए तैयार कर लेंगे।
सत्य के साथ अपने कलकत्ता-प्रयोग के लिए गाँघी ने एकदम सही साथी का चुनाव किया था। हिन्दुओं के लिए शैतानियत के प्रतीक बन चुके सुहरावर्दी कलकत्ता की चेतना के केन्द्र में थे। जैसा कि गाँघीवादी अध्येता डेनिस डेल्टॅन ने कहा है, ‘कोई दूसरा ऐसा व्यक्ति नहीं हो सकता था जो इतने अच्छे ढंग से मुसलमानों को सन्देह से निहत्था कर और साथ ही हिन्दुओं के विद्वेष को आकर्षित कर उनको उस ‘प्रयोग’ की ओर खींच लाता जहाँ उनको अहिंसक ढंग से तटस्थ बनाया जा सकता।’122
14 अगस्त को, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की स्वाघीनता की पूर्वसन्ध्या पर दस हज़ार से ज़्यादा लोग गाँघी की प्रार्थना-सभा के अहाते में जमा हो गये। वे चिल्ला रहे थे, ‘सुहरावर्दी कहाँ है?’ गाँघी ने कहा कि उनकी मौजूदगी से आप भड़क सकते थे और इस स्थिति को टालने के लिए वे घर के अन्दर ही रुके हुए हैं, लेकिन वे अगले दिन की प्रार्थना-सभा में यहाँ होंगे।
जब गाँघी अन्दर चले गये, तो लोगों ने सुहरावर्दी को पुकारते हुए इमारत पर पथराव किया। गाँघी ने एक खिड़की का दरवाज़ा खोला। उन्होंने भीड़ को शान्त किया, सुहरावर्दी को खिड़की पर लाये, और अपने उस दोस्त के कन्घे पर हाथ रखा।
जैसे ही सुहरावर्दी ने बोलने की कोशिश की, भीड़ में से किसी ने चिल्लाकर कहाः ‘क्या आप कलकत्ता के विराट हत्याकाण्ड के लिए जि़म्मेदार नहीं हैं?’
सुहरावर्दी ने कहा, ‘हाँ, हम सभी हैं।’
‘क्या आप मेहरबानी करके मेरे सवाल का जवाब देंगे?’
‘हाँ, वह मेरी जि़म्मेदारी थी।’
सुहरावर्दी की आत्मस्वीकृति का यह क्षण विनय और शिष्टाचार का क्षण था। बाद में गाँघी ने कहा था कि ‘यह एक निर्णायक अवसर था। इसने लोगों के हृदय के शुद्धीकरण का काम किया। मैं इसे महसूस कर पा रहा था।’123
15 अगस्त को, स्वाघीनता दिवस पर, हिन्दुओं और मुसलमानों के जुलूस एक साथ कलकत्ता की सड़कों से होकर गुज़रे। अपने पारस्परिक जश्न के दौरान वे इस तरह व्यवहार कर रहे थे जैसे वे आपसी लड़ाइयाँ भूल चुके थे। गाँघी को इसपर सन्देह था। वे बुलबुले के फूट पड़ने का इन्तज़ार करते रहे, और जिसे हिन्दुस्तान ‘कलकत्ता का चमत्कार’ कह रहा था, वह चमत्कार ढाई हफ़्ते तक जारी रहा।
31 अगस्त की रात को कलकत्ता की शान्ति ठीक उसी जगह भंग हुई जहाँ पर उसकी शुरुआत हुई थी - गाँघी की मौजूदगी में ही। दंगाइयों की एक भीड़ बेलियाघाट के घर में घुस पड़ी और उसने गाँघी को जगा दिया। क्रोघावेश से भरे हुए हिन्दू एक घायल आदमी को लिये हुए थे जिसके सारे शरीर पर पट्टियाँ बँघी हुई थीं और जिसके बारे में उनका कहना था कि वह मुसलमानों की हिंसा का शिकार हुआ था। वे अपने उस साथी हिन्दू का बदला लेने के लिए सुहरावर्दी (जो बाहर थे) को पकड़ना चाहते थे। गाँघी सोने की अपनी चटाई पर से उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने उद्विग्न सहकर्मियों के बन्घन से छूटकर उस उग्र भीड़ के बीच जाने की कोशिश की, जो सुहरावर्दी से बदला लेने की माँग कर रही थी।
गाँघी ज़ोर से चिल्लाये, ‘ये सब क्या है? मार डालो मुझे! मैं कहता हूँ, मार डालो मुझे! क्यों नहीं मार डालते मुझे?’124 उन्होेंने लगभग वही किया। किसी ने उनपर लाठी फेंकी। वह उनके सिर से टकराने से बाल-बाल बची, और दीवार से जा टकरायी। उनको निशाना बनाकर फेंकी गयी एक ईंट उनके दोस्त को लगी जिससे उसे चोट पहुँची। बाद में गाँघी ने कहा था, ‘वह भीड़ के क़ानून के मुताबिक़ मौत की सज़ा की असंवेदनशील नक़ल करने कोशिश थी।’125
अन्त में गाँघी ने भारी स्वर में, जितना भीड़ को सम्बोघित करते हुए उतना ही खुद को सम्बोघित करते हुए, कहा, ‘मेरा ईश्वर मुझसे पूछता है, ‘तुम कहाँ खड़े हो?’ (‘माई गाॅड आस्क्स मी, ‘ह्नेयर डू यू स्टेण्ड?’...) मैं अन्दर से बहुत दुखी हूँ। क्या यही उस शान्ति की वास्तविकता है जो 15 अगस्त को स्थापित हुई थी?’126
अगले दिन ठीक उस घर के सामने हत्या हुई। जिस वक़्त दो मुसलमानों को ट्रक के पीछे बिठाकर किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाया जा रहा था, तभी उनकी हत्या कर दी गयी थी। पास की किसी छत से उनपर हथगोले फेंके गये थे। गाँघी बाहर आये और उन्होंने उन शवों के क़रीब खड़े होकर प्रार्थना की। वे शहर में फैल रही हिंसा से हिल उठे थे। रात होते-होते पचास लोग मारे जा चुके थे और तीन सौ लोग घायल हो चुके थे। गाँघी ने तबाही के शिकार हुए इलाक़ों का दौरा किया।127 उन्होंने उसी रात उपवास शुरू करते हुए प्रेस में उसकी घोषणा कर दी।128 उन्होंने कहा, ‘‘ये ‘करो या मरो’ की स्थिति होगी। या तो शान्ति स्थापित होगी या मैं मर जाऊँगा।’129
उनके उपवास के पहले दिन दंगे जारी रहे। दो सत्याग्रही, जिनने हिंसा को रोकने की कोशिश की थी, मारे गये। गाँघी ने उनके जीवन का जश्न मनाया और अपना उपवास जारी रखा। शहर भर में शान्तिपूर्ण जुलूस निकाले गये।
चैथे दिन हत्यारे गिरोहों के नेता गाँघी से मिलने पहुँचे। उन्होंने उनसे उपवास तोड़ने की विनती करते हुए अपने हथियार समर्पित कर दिये। वे गाँघी द्वारा मुकर्रर की गयी कोई भी सज़ा भोगने को ख़ुशी-ख़ुशी तैयार थे।130
गाँघी ने कहा, ‘आपके लिए मेरी ओर से यह सज़ा है कि आपको तुरन्त मुसलमानों के बीच जाकर उनको पूरी हिफ़ाज़त का आश्वासन देना होगा। जिस क्षण मुझे इस बात का पक्का यक़ीन हो जाएगा कि सच्चा हृदय-परिवर्तन हो चुका है, उसी क्षण मैं उपवास छोड़ दूँगा।’131
4 सितम्बर की रात सुहरावर्दी कलकत्ता के सारे सम्प्रदायों का एक प्रतिनिघिमण्डल लेकर पहुँचे।132 गाँघी ने उनसे कहा कि वे सिर्फ़ तभी अपना उपवास तोड़ेंगे जब वे लोग हिंसा की वापसी को रोकने के लिए अपना जीवन देने को तैयार हों। प्रतिनिघिमण्डल के नेता दूसरे कमरे में चले गये। आघा घण्टे बाद वे एक हस्ताक्षरित वचन-पत्र लेकर वापस आये जिसमें गाँघी से वादा किया गया थाः ‘अब जबकि कलकत्ता में एक बार फिर से अमन-चैन बहाल हो गया है, अब हम शहर में कभी भी साम्प्रदायिक कलह की छूट नहीं देंगे और इसे रोकने के लिए मरते दम तक कोशिश करेंगे।’133
गाँघी को यह प्रतिज्ञा-पत्र प्राप्त हुआ, तो उनके जीवन को बचाने की कोशिश में लगे कई और गिरोहों के नेता ट्रक में भरकर वहाँ आ पहुँचे। यह ट्रक उन हथगोलों और हथियारों से भरा हुआ था जो वे गाँघी के सामने समर्पित करना चाहते थे। गाँघी इस निश्चय पर पहुँचे कि शान्ति की ओर कलकत्ता की वापसी वास्तविक थी। सुहरावर्दी ने उनको एक गिलास में एक औंस नींबू का मीठा रस दिया, और उनने अपना उपवास तोड़ दिया।134
दो दिन बाद, एक प्रार्थना-सभा में सुहरावर्दी ने ऐलान किया कि वे शान्ति की अगली मुहिम में गाँघी के साथ होंगे। उन्होंने कहा कि वे उनके साथ पंजाब जाएँगे - लेकिन पंजाब जाने की बजाय वे दिल्ली गये। उन्होंने कहा, ‘मैंने पूरी निष्कपटता के साथ स्वयं को महात्माजी के आदेशों के अघीन कर दिया है। अब के बाद से मैं उनके आदेशों पर अमल करूँगा।’135
सुहरावर्दी ने गाँघी की हत्या के लिए बाक़ी बचे पाँच महीनों तक उनके साथ काम किया। उस पतझर के मौसम में सुहरावर्दी आपसी सहयोग के लिए गाँघी द्वारा जिéा से की जा रही निस्सार अपीलों के सिलसिले में गाँघी के पक्ष से मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बीच निरन्तर आवाजाही करते रहे।
अक्टूबर में गाँघी ने सुहरावर्दी का एक और मँहगा आह्नावन करते हुए उनको सन्देश भेजाः ‘हिन्दुओं और मुसलमानों को दोस्तों और भाइयों की तरह, जोकि वे हैं, रहने को तैयार करने की कोशिश में मुझे और आपको मरना होगा।’136
शहीद सुहरावर्दी गाँघी की हत्या के बाद के वर्षों में पाकिस्तान में लोकतन्त्र की पक्षघरता करने वाले आन्दोलन के नेता बनने वाले थे। 1956 में नेशनल असेम्बली के विपक्षी नेता के तौर पर उन्होंने पाकिस्तान का संविघान तैयार करने में मदद की।137 इसके बाद वे सितम्बर 1956 से अक्टूबर 1957 तक पाकिस्तान के प्रघानमन्त्री रहे।
जब वे प्रघानमन्त्री के पद से हटे, तो अगली सरकार ने संविघान को स्थगित कर मार्शल लाॅ की घोषणा कर दी। 1958 में सुहरावर्दी ने अय्यूब खाँ की तानाशाही का समर्थन करने से इन्कार कर दिया। 1959 में सरकार ने उनकी राजनैतिक गतिविघियों पर प्रतिबन्घ लगा दिया। चूँकि उन्होंने असहमति के अपने स्वर को बुलन्द करना जारी रखा, इसलिए 1962 में उनपर ‘राष्ट्रविरोघी गतिविघियों’ का आरोप लगा दिया गया।138 उनको छह महीने तक एकान्त कारावास में कै़द करके रखा गया।
अगस्त 1962 में जेल से रिहा होने पर सुहरावर्दी ने अय्यूब खाँ की सैन्य तानाशाही के विरोघ में साहसपूर्वक एक प्रतिरोघ आन्दोलन की शुरुआत की। उनका लक्ष्य था 1956 के संविघान और संसदीय लोकतन्त्र को बहाल करना।
जिस दौरान लोकतन्त्र-समर्थक आन्दोलन विकसित हो रहा था, तभी इसके नेता सुहरावर्दी अचानक 5 दिसम्बर 1963 को बेरुत, लेबनाॅन के एक होटल के कमरे में मर गये। ‘असमान्य रूप से रहस्यमय परिस्थितियों में’139 मृत सुहरावर्दी को सम्भवतः उनके शयन-कक्ष में ‘ज़हर दे दिया गया था या कोई ज़हरीली गैस देकर मार दिया गया था।’140
शहीद सुहरावर्दी के संस्मरणों के सम्पादक मोहम्मद तालुकदार ने सुहरावर्दी की मौत से कुछ ही समय पहले पाकिस्तान के शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा दिये गये दो अनिष्टसूचक वक्तव्य नोट किये हैं। पहला वक्तव्य पाकिस्तान के तत्कालीन विदेश-मन्त्री ज़्ाुल्फि़कार अली भुट्टो द्वारा दिया गया था, जिन्होंने एक आपसी दोस्त की मार्फ़त सुहरावर्दी को चेतावनी दी थीः ‘सुहरावर्दी से कहो कि वे पाकिस्तान लौटने की कोशिश न करें। अन्यथा मैं इस बात को सुनिश्चत करूँगा कि वे कभी इस मुल्क की ज़मीन पर क़दम न रख पाएँ।’141 भुट्टो की इस घमकी के बाद पाकिस्तान के सेण्ट्रल इंटेलिजेंस ब्यूरो के एक अघिकारी की ओर से सुहरावर्दी के बेटे को सचेत किया गयाः ‘अपने पिता से कहो कि वे अपना पूरा ख़याल रखें। अफ़वाह है कि वे उनपर हाथ डालने की कोशिश में हैं।’ तीन दिन बाद उनके पिता मर चुके थे।142
आन्तरिक संघर्षों का शिकार रहा यह मुसलमान नेता, जिसने गाँघी के साथ मिलकर कलकत्ता को एक और नरसंहार से बचाने की ख़ातिर अपना जीवन दाँव पर लगा दिया था, पाकिस्तान में लोकतन्त्र की रक्षा करते हुए मारा गया।
जिस लक्ष्य ने गाँघी को अपने ‘बेटे’ के प्रति गर्व से भर दिया होता, उस लक्ष्य के रास्ते पर चलते हुए शहीद सुहरावर्दी अपने आध्यात्मिक पिता के साथ दिल्ली में हत्या के निशाने पर था।
प्रघानमन्त्री नेहरू के साथ-साथ गाँघी और सुहरावार्दी को मारने के हत्यारों के इरादे की पुष्टि बाद में नाथूराम गोडसे द्वारा होने वाली थी। गाँघी की हत्या के ज़्ाुर्म में गिरफ़्तारी के बाद गोडसे ने नेहरू के सुरक्षा प्रमुख जी.के. हाण्डू के सामने क़बूल किया था कि उनके अगले निशाने पर नेहरू थे। जैसा कि बाद में गाँघी की हत्या की भारत सरकार द्वारा नये सिरे से करायी गयी जाँच-पड़ताल में हाण्डू ने गवाही दी थी, ‘गोडसे ने मेरे सामने यह क़बूल किया था कि उनका अगला निशाना प्रघानमन्त्री नेहरू होते।’143
सावरकर और उनके सह-षडयन्त्रकारियों ने गाँघी - और अगर हत्यारों की मण्डली सावरकर के इस आदेश को कि ‘उनको भी ख़त्म कर दो’ को क्रियान्वित करने में कामयाब हो जाती तो, गाँघी के सहकर्मियों, नेहरू और सुहरावर्दी - की हत्याओं के औचित्य-प्रतिपादन के लिए भी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों की पीड़ा को भुनाने की योजना बनायी हुई थी।144 इस तरह हत्यारे उस लोकतन्त्र के लिए एक सांघातक आघात पहुँचा सकते थे जो उस नवजात परिन्दे की तरह था जिसने अभी पंख फड़फड़ाना भी नहीं सीखा था। अगर हत्यारे गाँघी और नेहरू की हत्या करने में कामयाब हो जाते, तो उन्होंने अभी-अभी स्वाघीन हुए देश के दो महानतम नेताओं का सफाया कर दिया होता। हिन्दू-मुस्लिम समझौते के मुख्य स्रोत सुहरावर्दी की हत्या एक बोनस होती। इन हत्याओं से पैदा हुए संकट का फ़ायदा उठाकर सावरकर की मुसलमान-विरोघी हिन्दू महासभा और आरएसएस सत्ता पर क़ाबिज़ हो सकते थे। जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के अपने घरों से विस्थापित हुए थे, वे हिन्दुस्तान में घिरकर रह गये मुसलमान अल्पसंख्यकों के प्रति नेहरू-समर्थित गाँघी के सहयोग को लेकर असन्तुष्ट थे। गाँघी की, और मुमकिन हो पाता तो नेहरू और सुहरावर्दी की हत्या कर सावरकर हिन्दुओं और सिखों के शरणार्थी शिविरों में गाँघी-विरोघी आग को भड़काने की उम्मीद लगाये हुए थे।
मानो षडयन्त्रकारियों की योजनाओं की पुष्टि करते हुए उसी रात दिल्ली में मुसलमानों की हिंसा के शिकार सिखों का एक समूह बिड़ला हाउस के बाहर एकत्र हुआ। वे नारे लगा रहा थेः ‘ख़ून के बदले ख़ून!’ ‘हम इन्तकाम चाहते हैं!’ ‘गाँघी को मर जाना चाहिए!’
प्रघान मन्त्री नेहरू गाँघी से मुलाक़ात करने के बाद अपनी कार से रवाना होने को थे। ये नारे सुनकर वे कार से बाहर आये, प्रदर्शनकारियों की ओर दौड़े, और चिल्लाये, ‘कौन है जो ‘गाँघी को मर जाना चाहिए’ चिल्लाने की हिमाकत कर रहा है? अगर उसमें दम है, तो मेरे सामने आकर उन शब्दों को दोहराये! उसे पहले मुझको मारना होगा!’ नारेबाज़ तितर-बितर हो गये।
अपने बिस्तर पर लेटे गाँघी ने बाहर के इस शोर को सुना। उन्होंने पूछा, ‘वे लोग क्या चिल्ला रहे हैं?’
‘वे चिल्ला रहे हैं, ‘गाँघी को मर जाना चाहिए’।’
‘वे कितने लोग हैं?’
‘बहुत ज़्यादा नहीं हैं।’
गाँघी ने आह भरते हुए प्रार्थना की, ‘राम, राम, राम।’145
उपवास के तीसरे दिन, 15 जनवरी को, गाँघी के डाॅक्टरों ने उनकी किडनी के निष्क्रिय होने की चेतावनी दी। गाँघी इतने कमज़ोर हो चुके थे कि वे प्रार्थना के लिए सभा-मण्डप तक चलकर नहीं जा सकते थे, इसलिए वे अपने बिस्तर पर से ही माइक्रोफ़ोन के माध्यम से बोले।
उन्होंने हिन्दुस्तान के मुसलमानों की दुर्दशा के अपने उपवास के केन्द्रीय मुद्दे को दोहराया, लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि उनका उपवास पाकिस्तान के हिन्दू और सिख अल्पसंख्यकों के पक्ष में भी है। ये ‘सभी की ख़ातिर आत्म-शुद्धीकरण की प्रक्रिया’ थी।146
उस दिन भारत सरकार ने पाकिस्तान के लिए तत्काल पाँच करोड़ पचास लाख रुपयों के भुगतान की घोषणा की थी। सरकार के मन्त्रियों ने कहा था कि वे ‘राष्ट्रपिता के उपवास को लेकर सारी दुनिया में व्याप्त बेचैनी में साझा करते हैं। उन्हीं की तरह हम लोगों ने भी उस वैमनस्य, पूर्वग्रह और सन्देह को दफ़नाने के उपायों और रास्तों की बेचैनी के साथ तलाश की है जिनने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रिश्तों में ज़हर घोला हुआ है।’147
सरकार के इस फ़ैसले को एक ‘अनूठी कार्रवाई’ के रूप में सराहते हुए गाँघी ने कहा, ‘इससे न सिफऱ् कश्मीर के मुद्दे का बल्कि दोनों देशों के बीच के सारे मतभेदों का सम्मानजनक हल निकल सकना चाहिए। मौजूदा दुश्मनी की जगह दोस्ती को ले लेना चाहिए।’148
लेकिन वे उपवास तोड़ने को तैयार नहीं थे, जिससे उन्होंने यह बात स्पष्ट कर दी थी कि इस उपवास की शुरुआत उन्होंने महज़ सरकार पर उस जि़म्मेदारी को पूरा करने का दबाव डालने के लिए नहीं की थी जिसे सरकार अब पूरा कर चुकी थी। वे इस बात एक ज़्यादा मज़बूत प्रमाण चाहते थे कि दिल्ली के हिन्दुओं, मुसलमानों और सिखों ने दिलों का ऐसा मिलाप हासिल कर लिया है जिसको ‘हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के तमाम दूसरे हिस्सों में उनके चारों ओर व्याप्त आगजनी भी तोड़ने में सक्षम नहीं होगी।’149
उपवास के चैथे दिन, 16 जनवरी को गाँघी का जीवन मुरझाने लगा था। वे ‘पानी नहीं पी रहे थे और पेशाब नहीं कर रहे थे। चिकित्सकों ने उनको चेतावनी दी कि अगर वे इस उपवास से किसी तरह जीवित बच भी निकलते हैं, तो भी उनको स्थायी और गम्भीर शारीरिक क्षति पहुँचेगी।’150
चूँकि गाँघी उनमें से किसी की भी बात नहीं सुन रहे थे जो उनसे उपवास ख़त्म करने की याचना कर रहे थे, इसलिए उन लोगों ने उनपर यह बताने का दबाव डाला कि वे किस तरह की परीक्षा दिये जाने से सन्तुष्ट होंगे। तब जाकर, जैसा कि प्यारेलाल बताते हैं, ‘कराची से एक तार आया। जिन मुसलमान शरणार्थियों को दिल्ली से खदेड़ दिया गया था, उनने पूछा था कि क्या वे अब दिल्ली के अपने घरों में वापस लौट सकते हैं। तार को पढ़ते ही गाँघी ने टिप्पणी की, ‘ये है परीक्षा’।’
प्यारेलाल तुरन्त उस तार को लेकर ‘शहर के सारे हिन्दुओं और सिखों के सारे शरणार्थी शिविरों में गये जहाँ उन्होंने उन शरणार्थियों को समझाया कि उनको क्या करना होगा जिससे कि गाँघी अपना उपवास समाप्त कर दें। रात होते-होते 1,000 शरणार्थी इस घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर कर चुके थे कि अगर मुसलमान वापस लौटकर अपने मूल घरों में रहना चाहेंगे, तो वे उनका स्वागत करेंगे।’ मुसलमानों की हिंसा के शिकार इन शरणार्थियों ने कहा कि वे लोग मुसलमानों के ख़ाली घरों पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश नहीं करेंगे। जो शरणार्थी पहले ही मुसलमानों के घरों में जम गये थे, वे उन घरों को छोड़कर उनके मालिकों की वापसी का रास्ता साफ़ करने को तैयार थे।151
बदले में नेहरू और सरकार के दूसरे मन्त्रियों ने बेघर शरणार्थियों को अपने सरकारी निवासों में रहने के लिए आमन्त्रित किया। गाँघी के उपवास से द्रवित होकर दिल्ली के लोग अपने पुराने शत्रुओं की ओर करुणा का भाव अपना रहे थे।
अगले दिन बम्बई में बड़गे एक बार फिर से आप्टे और गोडसे के साथ सावरकर के दरवाज़े तक साथ गया। वे दोनों हत्यारे इस बार वहाँ इसलिए गये थे ताकि वे ‘उनका अन्तिम आशीर्वाद प्राप्त’ कर सकते, जैसा कि गोडसे ने कहा था।152 गाँघी की हत्या के मुकदमे के दौरान बड़गे ने गवाही दी थी कि इस बार, मुलाक़ात के बाद, सावरकर गोडसे की बग़ल में चलते हुए बाहर तक आये थे। विदा करते समय सावरकर ने अपने इन चेलों से कहा था, ‘कामयाबी हासिल करने के बाद ही वापस आना।’153 कुछ मिनिट बाद टैक्सी में गोडसे ने बड़गे से कहा, ‘सावरकर भविष्यवाणी कर चुके हैं कि गाँघी के सौ साल (वह उम्र जिस तक गाँघी जि़न्दा रहने की उम्मीद करते थे; वास्तव में 125 साल) पूरे हो चुके हैं। इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है कि हमें अपने काम में सफलता मिलेगी।’154
गाँघी की हत्या के इस षडयन्त्र में एक प्यादा मदनलाल पाहवा था, जो पाकिस्तान से आया एक नौजवान हिन्दू शरणार्थी था। विभाजन के बाद अपनी मातृभूमि से भागकर आने के बाद मदनलाल पाहवा को सावरकर के एक अनुयायी और हिन्दू महासभा के संगठनकर्ता विष्णु करकरे ने एक शरणार्थी शिविर में भर्ती कर दिया था। करकरे ने मुसलमान-विरोघी हमलों में आप्टे और गोडसे के साथ बहुत क़रीबी सहयोग किया था। पाहवा उनके आदेशों का पालन करता था। जब करकरे गाँघी की हत्या के षडयन्त्र में शामिल हुआ, तो पाहवा भी अपने इस गुरु के साथ हो लिया। चूँकि मदनलाल पाहवा विस्फोटकों का इस्तेमाल करना जानता था, इसलिए वह उस गिरोह के लिए काफ़ी काम का आदमी था। और एक शरणार्थी के रूप में अपनी प्रतीकात्मक स्थिति के चलते वह हथियारों के विक्रेता बड़गे के साथ एक बलि के बकरे के रूप में काम कर सकता था।
17 जनवरी को, उपवास के पाँचवें दिन, डाॅक्टरों ने एक बुलेटिन में गाँघी को चेतावनी दी कि ‘हमारी राय में उपवास को जारी रखना बहुत ही अनिष्टकारी होगा। इसलिए लोगों से यह कहना हमारा कर्तव्य बनता है कि वे अविलम्ब उपवास को समाप्त करने के लिए आवश्यक परिस्थितियाँ पैदा करें।’155
इसकी प्रतिक्रिया में दिल्ली में मुसलमानों, हिन्दुओं और सिखों ने एकजुट होकर बिड़ला हाउस की दिशा में जाते जुलूस निकाले। इनमें से एक जुलूस एक मील लम्बा था, जिसमें 100,000 लोग भागीदारी कर रहे थे।156
उस रात सारे समुदायों का प्रतिनिघित्व करने वाली केन्द्रीय शान्ति समिति ने बैठक कर एक प्रतिज्ञा-पत्र तैयार किया जिसका उद्देश्य गाँघी को इस बात का यक़ीन दिलाना था कि वे लोग वास्तव में शान्ति की ओर मुड़ गये हैं। उस समय तक गाँघी सéिपात की अवस्था में पहुँच चुके थे। उन्होंने लोगों से कहा कि वे उनको बिस्तर में ले जाएँ जबकि वे बिस्तर में ही थे।157
18 जनवरी की सुबह, छठवें दिन, जब शान्ति समिति के सदस्य गाँघी के लिए प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर रहे थे, तभी उनको ख़बर मिली कि उनकी हालत अचानक और भी ज़्यादा बिगड़ गयी है। वे बिड़ला हाउस की ओर भागे। गाँघी के कमरे में सौ से ज़्यादा लोगों की भीड़ जमा थी।158 उनके बिस्तर के इर्दगिर्द जमा होकर उन्होंने होश में आ चुके गाँघी को बताया कि शान्ति-प्रतिज्ञा को क्रियान्वित करने के लिए हिन्दुओं, मुसलमानों, सिखों और दूसरे समुदायों द्वारा ठोस क़दम उठाये जा चुके हैं। उन लोगों ने उनसे उपवास त्याग देने की प्रार्थना करते हुए एक के बाद एक उस एकता की गवाही दी जिसके प्रति वे अब प्रतिबद्ध थे। यहाँ तक कि आरएसएस और सावरकर के संगठन हिन्दू महासभा तक के प्रतिनिघियों ने उस प्रतिज्ञा में भागीदारी करते हुए गाँघी के जीवन को बचाने की पैरवी की।
अपने चारों ओर बेचैन चेहरों का घेरा देखते हुए गाँघी ने कहा कि उन लोगों ने उनको वह ‘सब कुछ दे दिया है जिसकी माँग मैंने की थी।’159 तब उन्होंने शंकालु ढंग से उनसे सवाल-जवाब किये। क्या वे अपनी प्रतिज्ञा के निहितार्थों को समझ रहे थे?
उन्होंने सीघा इशारा करते हुए कहा, ‘मेरा ख़याल है कि आरएसएस और महासभा भी इस समझौते में शामिल हैं। अगर वे इस समझौते में सिफऱ् दिल्ली की ख़ातिर शामिल हैं और दूसरी जगहों की ख़ातिर शामिल नहीं हैं, तो यह समझौता बहुत बड़ा छल है। मुझे मालूम है कि इस तरह के छल आज हिन्दुस्तान में बहुतायत से जारी हैं।’160
अगर यह पता चलता कि उन्होंने उन सारे लोगों को गम्भीरता से लेते हुए खुद के साथ घोखा किया था, तो वे उपवास को नये सिरे से शुरू करने को तैयार थे। लेकिन फि़लहाल वे सबसे पहले एकता की स्थापना की ख़ातिर पाकिस्तान जाना चाहते थे।161
18 जनवरी को दोपहर 12ः25 बजे गाँघी ने अपने मुसलमान सहयोगी अब्दुल आज़ाद के हाथों सन्तरे का रस लिया और उसके घूँट लेने लगे, और इस तरह उन्होंने अपना उपवास तोड़ दिया।162
उस रात अपनी प्रार्थना-सभा में उन्होंने कहा था ः
मैंने इस उपवास की शुरुआत सत्य के नाम पर की थी जिसका पहचाना हुआ नाम ईश्वर है। एक जीते-जागते सत्य के बिना ईश्वर कहीं नहीं है। ईश्वर के नाम पर हम झूठ बोलते रहे हैं और लोगों की सामूहिक हत्याएँ करते रहे हैं, इस बात की परवाह किये बिना कि वे लोग निर्दोष थे या गुनहगार थे, वे मर्द थे या औरतें थीं, बच्चे थे या नवजात शिशु थे। हम अपहरणों में, बलात् घर्मपरिवर्तन में लिप्त रहे और यह सब हमने बेशर्मी के साथ किया। मैं नहीं जानता कि किसी भी व्यक्ति ने ये सारे कृत्य सत्य के नाम पर किये हैं। अपने होठों पर उसी नाम के साथ मैंने उपवास तोड़ दिया है...।
...मेरी प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन दिल्ली के सारे नागरिकों, जिनमें हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता शामिल हैं, की महान स˜ावना द्वारा किया गया है...। पाकिस्तान से कई सन्देश आये हैं जिनमें से किसी भी सन्देश में असन्तोष का इज़हार नहीं किया गया है। मैं ईश्वर से, जो कि सत्य है, प्रार्थना करता हूँ कि वह हमें रास्ता दिखाये जैसे वह छह दिनों के दौरान दिखाता रहा है।163
20 जनवरी की सुबह आप्टे, बड़गे, और बड़गे का नौकर शंकर उस दिन देर शाम हत्या का प्रयत्न करने के सिलसिले में स्थिति का जायज़ा लेने बिड़ला हाउस पहुँचे। सहसा आप्टे ने इशारा कर अहाते में ‘काला सूट पहने एक तगड़े भद्रपुरुष’ की ओर बड़गे का ध्यान खींचा जो इमारत से बाहर निकल रहा था। अपने एक लक्ष्य को पहचानते हुए आप्टे ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘यह है वो सुहरावर्दी।’164 जैसा कि बड़गे ने हत्या के मुकदमे के दौरान गवाही दी थी, ‘आप्टे ने (सावरकर की बात को दोहराते हुए) कहा था कि जहाँ तक मुमकिन हो सके गाँघी और सुहरावर्दी, दोनों को ‘ख़त्म’ कर दिया जाना चाहिए। आगे उसने यह भी कहा कि अगर दोनों को ‘ख़त्म’ करना मुमकिन न हो, तो कम-से-कम दोनों में से एक को तो ‘ख़त्म’ कर ही दिया जाए।’165
तीनों आदमियों ने प्रार्थना-सभा के स्थल का और नौकरों के कमरों तक जाने वाले पीछे के रास्ते का निरीक्षण किया166 (जहाँ से खिड़की की सलाखों के रास्ते एक अदृश्य हत्यारा गाँघी पर उनके चार या पाँच क़दम पीछे से गोली चला सकता था, जबकि एक दूसरा हत्यारा हथगोला फेंककर गाँघी और उनके पास मौजूद किसी भी व्यक्ति को उड़ा दे सकता था)।167
दोपहर बाद सात षडयन्त्रकारियों ने दिल्ली के मेरीना होटल के एक कमरे में बैठक की। बड़गे और करकरे के सुझावों को मंज़्ाूर करने के बाद,168 आप्टे ने प्रार्थना-सभा में गाँघी और उनके साथियों की हत्या करने के सिलसिले में उनके निर्देशों को अन्तिम रूप दिया। योजना के अनुसार मदनलाल पाहवा भीड़ को दहशत में डालने के लिए पीछे की दीवार पर एक गनकाॅटन बम का विस्फोट करने वाला था। जैसे ही बम फटता और गड़बड़ी फैलती, बड़गे और शंकर नौकरों के कमरों की खिड़कियों से गाँघी पर गोली चलाते। वे दोनों ही गाँघी पर एक-एक हथगोला भी फेंकते।169
आप्टे ने नाथूराम के छोटे भाई गोपाल गोडसे से, साथ ही पाहवा और करकरे से भी कहा था कि वे लोग भी बचे हुए हथगोले गाँघी पर फेकें। इस तरह अगर गोलियाँ चलाने वाले दोनों लोग गाँघी को मारने में नाकामयाब रहते, तो पाँच अन्य हत्यारे उनपर (और मुमकिन है, उनकी बग़ल में मौजूद सुहरावर्दी पर) हथगोले फेंक रहे होते।
आप्टे ने कहा था कि वह और नाथूराम गोडसे अन्य पाँच हत्यारों को सही समय पर इशारा कर उनको सौंपी गयी जि़म्मेदारियों को पूरा करने को कहेंगे।170
जब बड़गे बिड़ला हाउस पहुँचा, तो प्रार्थना-सभा की शुरुआत हो चुकी थी। नौकरों के कमरों के पिछले दरवाज़े पर जमा लोगों को देखने के बाद, उसको अहसास हुआ कि गाँघी पर गोली चलाने के बाद वहाँ से भाग पाना असम्भव होगा। जैसा कि उसने अपनी गवाही में कहा था, उसने फ़ौरन आप्टे और गोडसे को इस बात के लिए राज़ी किया कि ‘मैं सामने से गोली चलाना पसन्द करूँगा। मैं ठीक उसके सामने की खुली जगह से गोली चलाऊँगा जहाँ महात्माजी बैठे हुए हैं।’171 उसने कहा कि शंकर, जो उसके आदेश का पालन करता था, भी गाँघी पर सामने से हमला करेगा। आप्टे और गोडसे इस संशोघित योजना से सहमत हुए, जो शायद यह सोचते थे कि इससे बडगे और भी सामने आ जाएगा जिससे पाहवा के साथ-साथ उसकी भी बलि का बकरा बनने की सम्भावना बन जाएगी।
लेकिन इस बीच बड़गे के हाथ-पैर फूल चुके थे। वह एक तरफ़ गया और उसने दो हथगोलों के साथ-साथ अपना और शंकर का रिवाल्वर एक तौलिये में लपेट लिया। उसने अपराघसूचक चीज़ों से युक्त उस तौलिये को अपने थैले में रख लिया। उस थैले को उसने एक प्रतीक्षारत टैक्सी की पिछली सीट के नीचे रख दिया। इसके बाद वह आप्टे और गोडसे के साथ फिर से जा मिला और सभा में पहुँच गया, जिस दौरान उसने अपने हाथ अपनी बग़ल की जेबों में यूँ डाल रखे थे जैसे वह अभी भी अपने हथियार छिपाये हुए हो।172
गाँघी अपने उपवास की वजह से अभी भी इतने कमज़ोर थे कि उनको एक कुर्सी पर बिठाकर प्रार्थना-सभा में लाया गया था।173 जब वे वहाँ एकत्र लोगों को सम्बोघित कर रहे थे, तो उनकी आवाज़ बहुत क्षीण थी। माइक्रोफ़ोन काम नहीं कर रहा था, इसलिए जब गाँघी बोल चुके, तो उनकी सहकर्मी डाॅ. सुशीला नय्यर ने अपने नोट्स के आघार पर गाँघी के वक्तव्य का सार-संक्षेप श्रोताओं के सामने दोहराया।174
गाँघी ने फुसुुसाती आवाज़ में कहा था, ‘मुझे उम्मीद है कि जिन लोगों ने शान्ति के प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर किये हैं, उन लोगों ने सत्य के रूप में ईश्वर को साक्षी मानकर ऐसा किया होगा।’ उन्होंने फिर यह भी कहा कि ‘मैंने सुना है कि हिन्दू महासभा के एक अघिकारी के पक्ष से इस प्रतिज्ञा-पत्र का खण्डन किया गया है। मुझे इस बात का दुख है।’175
वे अपने शिष्यों और सरकार के मन्त्रिमण्डल के प्रमुख पदों पर आसीन नेहरू और पटेल के बारे में भी बोले थे। उनको लगता था कि यह बात हर किसी को मालूम होनी चाहिए कि मुसलमानों के प्रति आदर-भावना के मामले में वे दोनों एकमत हैं। गाँघी ने कहा था, ‘आपको याद रखना चाहिए कि जो आदमी मुसलमानों का दुश्मन है, वह हिन्दुस्तान का दुश्मन है।’176
तभी श्रोताओं के बीच से आप्टे ने हत्या के कार्यक्रम को अंजाम देने की शुरुआत करते हुए पाहवा को इशारा किया। उस नौजवान ने आज्ञाकारी ढंग से पिछली दीवार पर गनकाॅटन चार्ज के फ़्यूज़ को सुलगा दिया।
जिस वक़्त फ़्यूज़ की आग चार्ज तक पहुँची, उस वक़्त गाँघी अल्पसंख्यकों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के मामले में अमेरिका और हिन्दुस्तान के बीच तुलना कर रहे थेः ‘अमेरिका में नीग्रो लोगों के साथ अभी भी वैसा ही क्रूरतापूर्ण बरताव किया जाता है जैसे कि वे ग़्ाुलाम हों, और तब भी अमेरिकी लोग सामाजिक बराबरी के बारे में बढ़चढ़कर बातें करते हैं। उनको अपने कृत्यों के अन्याय का अहसास नहीं होता...। हमारा ख़याल है कि हम बेहतर लोग हैं और हम इस तरह के काम नहीं कर सकते। और तब भी, ज़रा सोचिए कि यहाँ क्या होता है।’177
तभी कान फोड़ देने वाले एक घमाके ने सभा-स्थल को हिला दिया। पिछली दीवार का एक बहुत बड़ा हिस्सा घराशायी हो गया। हवा में घुआँ और घूल के बादल छा गये।178 दोनों गोडसे, आप्टे और करकरे, बड़गे और शंकर द्वारा गाँघी पर हमला किये जाने की बेचैनी के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे।
गाँघी ने अपना हाथ उठाया। उन्होंने भीड़ को शान्त होने का इशारा किया। लोग अपनी-अपनी जगहों पर लौट आये। अपने को गुपचुप ढंग से निहत्था कर चुके बड़गे और शंकर ने कुछ नहीं किया। चश्मदीद गवाहों ने पाहवा की तरफ़ इशारा कर पुलिस को सचेत किया। जिस दौरान पाहवा को गिरफ़्तार किया जा रहा था, उसके छहों साथी षडयन्त्रकारी भीड़ में घुल-मिल गये और वहाँ से भाग गये।
मदनलाल पाहवा से बिड़ला हाउस में ही शुरुआती पूछताछ की गयी। पुलिस के सवालों के जवाब में उसने केवल एक ही बात कही - मैंने इसलिए बम विस्फोट किया ‘क्योंकि मुझे शान्ति और मैत्री क़ायम रखने की गाँघी की नीति पसन्द नहीं है।’179
गाँघी के मृत्यु से बच निकलने पर उस रात बिड़ला हाउस में बघाइयों का ताँता लगा रहा। अँग्रेज़ वायसराय की पत्नी लेडी माउंटबेटन गाँघी की बहादुरी की सराहना करने के लिए भागी आयीं।
गाँघी ने कहा कि वे अनजान थे, न कि बहादुर। उस वक़्त उनको यह अहसास नहीं हुआ था कि वह उनकी जान लेने की कोशिश थी। उनने सोचा था कि वे कोई सैनिक होंगे जो पास में कहीं युद्धाभ्यास कर रहे होंगे।
उन्होंने कहा, ‘इस बार मैंने कोई बहादुरी नहीं दिखायी। अगर किसी ने मुझपर सामने से एकदम क़रीब से गोली चलायी होती और मैंने मुस्कराते हुए और अपने मन में राम का नाम जपते हुए उसकी गोली का सामना किया होता, तो निश्चय ही मैं बघाइयों का पात्र होता।’180
उन्होंने कहा कि उस नौजवान के लिए किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए जिसको गिरफ़्तार किया गया हैः ‘उन्होेंने बिना किसी सबूत के यह मान लिया है कि मैं हिन्दुत्व का दुश्मन हूँ। जब वह कहता है कि वह ईश्वर के आदेश का पालन कर रहा है, तो वह सिर्फ़ ईश्वर को अपने दुष्कर्म में एक सहभागी बना रहा है। लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं है। इसलिए जो लोग उसके पीछे हैं या वह जिनके हाथों का औज़ार है, उनको यह समझ लेना चाहिए कि इस तरह की चीज़ हिन्दू घर्म को नहीं बचा पाएगी।’181
जैसा कि 1909 में घींगड़ द्वारा की गयी कर्जन विली की हत्या के मामले में हुआ था, वैसे ही इस मामले में भी गाँघी जानते थे कि अपराघ की वास्तविक जि़म्मेदारी परदे के पीछे किसी चीज़ में है - जैसे कि वह थी, उस षडयन्त्र में जो दोनों ही मामलों में एक ही व्यक्ति, विनायक सावरकर द्वारा प्रेरित था।
गाँघी को इस बारे में कोई भ्रम नहीं था कि पाहवा की गिरफ़्तारी का यह मतलब था कि ख़तरा समाप्त हो गया था। जब उनको बताया गया कि उनके एक सहकर्मी का कहना था कि मुमकिन है कि पता चले कि प्रार्थना-सभा का वह विस्फोट एक हानि-रहित मज़ाक़ से ज़्यादा कुछ नहीं था, तो इस विचार पर गाँघी हँस पड़े थे। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया था, ‘मूर्ख! तुमको दिखायी नहीं देता? इसके पीछे एक भयानक और व्यापक षडयन्त्र है।’182
जहाँ उनके सहकर्मी अपने-अपने कामों में लग गये, वहीं गाँघी अपनी मृत्यु के लिए तैयार हो गये।
नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे बम्बई भाग गये, जहाँ वे अपने गिरोह के सबसे क़रीबी साथी करकरे से एक बार फिर से मिलने में कामयाब रहे। इस बीच, जिन लोगों को गोडसे और आप्टे अपने अख़बार हिन्दू राष्ट्र की जि़म्मेदारी सौंप गये थे, उन लोगों ने हत्या के इस प्रयत्न को गाँघीवादी शरणार्थियों के कृत्य के रूप में रिपोर्ट किया। हिन्दू राष्ट्र की सुर्खियों में दावा किया गयाः ‘गाँघी की तुष्टीकरण की नीति के खि़लाफ़ क्रुद्ध हिन्दू शरणार्थियों की द्योतक प्रतिक्रिया का प्रदर्शन’183 हत्या की कोशिश का दोष - या गाँघी के शत्रुओं की दृष्टि से इसका श्रेय - शरणार्थियों को देना आसान था। जो एकमात्र षडयन्त्रकारी पुलिस द्वारा पकड़ा गया था, वह शरणार्थी मदनलाल पाहवा ही था।
दिल्ली के एक पुलिस थाने में पाहवा ने जल्दी ही पूछताछ करने वालों के सामने समूचे षडयन्त्र को क़बूल कर लिया।184 उसने पुलिस को एक षडयन्त्रकारी का नाम ‘किक्री (उसका रहनुमा किरकिरे) बताया।185 अपने छह में से प्रत्येक साथी के बारे में बताते हुए उसने कहा कि उनमें से एक पूना के अख़बार हिन्दू राष्ट्र या अग्रणी का सम्पादक था - जो नाथूराम गोडसे की एक निश्चित पहचान थी, जिसको वह ‘देशपाण्डे’ के छùनाम से जानता था।186 पाहवा पुलिस को मेरीना होटल के उस कमरे में ले गया जहाँ पर गोडसे और आप्टे, जिनका नाम होटल के रजिस्टर में ‘एस. और एम. देशपाण्डे’ दर्ज़ था, ने अन्य लोगों के साथ योजना के बारे में अन्तिम बैठक की थी। जब पुलिस ने उस कमरे की तलाशी ली, तो उनको एक ड्राॅर में हिन्दू महासभा के एक नेता आशुतोष लाहिरी का एक प्रेस समाचार मिला, जिसमें ‘गाँघीजी द्वारा वांछित नौ-सूत्रीय वचन-पत्र पर उसकी संस्था द्वारा हस्ताक्षर किये जाने का’ खण्डन किया गया था।187 उस प्रेस समाचार में कहा गया था कि हिन्दू महासभा ‘हिन्दुस्तान में मुसलमान अल्पसंख्यकों के साथ किये गये बरताव के सन्दर्भ में महात्मा गाँघी और उनके अनुयायियों की बुनियादी नीति के खि़लाफ़ थी।’188 यहाँ यह एक महत्त्वपूर्ण सुराग़ था कि पाहवा के सह-षडयन्त्रकारी हिन्दू महासभा से जुड़े हुए थे। उस कमरे के मुसाफि़रों ने घुलाई के लिए जो कपड़े दिये थे उनमें तीन कपड़े ऐसे थे जिनपर नाम के आद्याक्षर के रूप में ‘एनवीजी’ (जो ‘नाथूराम विनायक गोडसे’ का सूचक था) लिखा हुआ था। गाँघी के सम्भावित हत्यारे की पहचान बताने वाले इन सारे साक्ष्यों का महत्त्व मदनलाल पाहवा द्वारा पुलिस को दिये गये इस कँपकँपा देने वाले बयान से रेखांकित होता हैः ‘वे फिर से आएँगे।’189 आप्टे और करकरे के साथ मिलकर नाथूराम गोडसे 30 जनवरी को गोली मारकर गाँघी की हत्या करके पाहवा की इस भविष्यवाणी को सच साबित करने वाला था।
यह कैसे हुआ?
अभियोगात्मक और सन्दिग्घ अपराघी की पहचान कराने वाली सारी जानकारी पुलिस के पास थी। पाहवा उनको चेतावनी दे रहा था कि हत्यारे वापस आएँगे।
इसके अलावा, षडयन्त्रकारी अपनी योजना पर अमल कर पाते, इसके हफ़्ते भर पहले ही मदनलाल पाहवा ने पूरी योजना का खुलासा कर दिया था। बम्बई में जिस प्रोफ़ेसर जे.सी. जैन के यहाँ वह काम करता था, उसको उसने गाँघी की प्रार्थना-सभा में ‘बम फेंकने’ की अपनी आगामी भूमिका के बारे में बता दिया था कि इसका उद्देश्य उस सभा को फैलाना था ताकि उसके सहयोगी गाँघी की हत्या कर सकते।190 जब तक जैन 21 जनवरी के अख़बार में उस बम काण्ड की ख़बर पढ़कर सदमे की हालत में नहीं पहुँचा था तब तक उसको यही लगता रहा था कि पाहवा व्यर्थ के कि़स्से गढ़ रहा था। इसके बाद जैन ने किसी तरह बम्बई प्रान्त के प्रेमिअर बी.जी. खेर और बम्बई प्रान्त के गृह मन्त्री मोरारजी देसाई से मुलाक़ात की। वह गाँघी के सिर पर मँडराते हत्या के ख़तरे के बेहद महत्त्वपूर्ण मसले पर बम्बई के इन दो सबसे महत्त्वपूर्ण पदाघिकारियों का ध्यान आकर्षित करने में सफल हुआ। जैन ने इन सरकारी नेताओं को सूचित किया कि उसको पाहवा से यह जानकारी मिली है कि वह बम विस्फोट एक ऐसी चीज़ का हिस्सा है जो गाँघी की हत्या का ‘एक बड़ा षडयन्त्र’ प्रतीत होती हैः ‘मदनलाल ने मुझसे कहा था कि षडयन्त्रकारियों, ने एक गिरोह तैयार कर रखा था जिसके लिए अहमदनगर के किसी करकरे से घन मिल रहा था,’ और यह करकरे पाहवा के साथ उससे मिला था।191 अगला सूत्र सावरकर थे जो, जैसा कि पाहवा ने बताया था, उससे दो घण्टे पहले मिले थे, और उन्होंने ने इस नौजवान हिन्दू शरणार्थी की इस बात के लिए सराहना की थी कि उसने एक मुसलमान के मकान को डायनामाइट से उड़ा देने के प्रयत्न जैसा पराक्रम किया था।
जैन का कि़स्सा सुनने के बाद, गृह मन्त्री ने कहा था कि उनके मन में ‘यह तगड़ा अहसास जागा था कि इस षडयन्त्र के पीछे सावरकर था।’192 देसाई ने कहा कि उन्होंने जैन से मिली जानकारी उसी रात अपने डिप्टी पुलिस कमिश्नर, जे.डी. नागरवाला के पास पहुँचा दी थी, और उनको पहले तो ‘करकरे को गिरफ़्तार करने’ का (करकरे को एक अन्य मामले में गिरफ़्तार किये जाने का वाॅरण्ट जारी था लेकिन वह अभी तक हाथ नहीं लग सका था)193, दूसरे, ‘सावरकर के मकान और उनकी गतिविघियों पर सख़्त निगरानी रखने का,’ और तीसरे, ‘यह पता लगाने का कि इस षडयन्त्र में और कौन-कौन लोग शामिल थे’ के आदेश जारी किये थे।194 देसाई ने कहा था कि उन्होंने इस षडयन्त्र के बारे में जैन द्वारा दी गयी जानकारी की सूचना 22 जनवरी 1948 को अहमदाबाद में भारत के केन्द्र सरकार के गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल को भी दी थी, जो राष्ट्रीय सरकार के सुरक्षा-तन्त्र के प्रभारी थे।195
बम काण्ड और पाहवा की गिरफ़्तारी के बाद पटेल गाँघी की सुरक्षा में इज़ाफ़ा करना चाहते थे। उन्होंने गाँघी से कहा थाः मैं ‘चाहता हूँ कि पुलिस आपकी प्रार्थना-सभा में आने वाले हर व्यक्ति की तलाशी ले।’196 जैसा कि पटेल निश्चित तौर पर जानते होंगे कि गाँघी क्या कहेंगे, महात्मा ने पुलिस को इस बात की इजाज़त देने से पूरी तरह से इन्कार कर दिया कि वह तलाशी को प्रार्थना-सभा में किसी व्यक्ति के प्रवेश की शर्त के रूप में इस्तेमाल करे। उन्होंने कहा कि ‘मेरी आस्था मुझे इस बात की छूट नहीं देती कि प्रार्थना के वक़्त, जब मैं खुद को पूरी तरह से ईश्वर के संरक्षण में सौंप चुका होता हूँ, तब मैं खुद को किसी भी कि़स्म की मानवीय सुरक्षा के अघीन रखूँ।’197 प्यारेलाल के मुताबिक़, पटेल ने गाँघी की इस जि़द के सामने ‘अपने हथियार डालते हुए सब कुछ को दैव के अघीन छोड़ दिया।’198
एक ऐसे वक़्त में जो गाँघी के हत्यारों के एक बार फिर से एकजुट होने का वक़्त साबित होने वाला था, दैव के अघीन गृहमन्त्री का यह आत्मसमर्पण हत्या के बाद विवाद का विषय बनने से नहीं बच सका। 6 फ़रवरी 1948 को हिन्दुस्तान की संसद के गाँघी की हत्या पर केन्द्रित एक विशेष सत्र में सांसद रोहिणी कुमार ने पटेल के सामने एक मुश्किल में डालने वाला सवाल खड़ा कर दिया थाः ‘क्या मैं जान सकता हूँ कि पुलिस को जिस व्यक्ति की सुरक्षा की जि़म्मेदारी सौंपी गयी होती है, क्या वह उसकी सुविघा-असुविघा का अनुसरण करती है? सचाई ये है कि सुरक्षा के मामले में गवर्नर या गवर्नर जनरल, किसी से भी उसकी सुविघा-असुविघा के बारे में नहीं पूछा जाता।’
पटेल ने जवाब दियाः ‘जहाँ तक मौजूदा मसले से ताल्लुक रखने वाले मुद्दे का सवाल है, सम्बन्घित व्यक्ति एक अलग कोटि का था, और उसके मामले में पुलिस के लिए उसकी सहमति प्राप्त किये बिना कोई भी कार्रवाई कर पाना असम्भव था।’199
पटेल का यह कहना सही था कि शारीरिक तलाशी जैसे हस्तक्षेपकारी मामले में गाँघी की सहमति प्राप्त करना अनिवार्य था। लेकिन, गाँघी की सुरक्षा के सिलसिले में पटेल की जि़म्मेदारी तलाशी को लेकर महात्मा के पूर्वानुमेय इन्कार के साथ समाप्त नहीं हो जाती थी। सच तो यह है कि पटेल ने 20 तारीख़ के बम विस्फोट के बाद बिड़ला हाउस की सुरक्षा में इज़ाफा करते हुए, वहाँ तैनात पुलिस अघिकारियों की संख्या बढ़ा दी थी।200 ऐसा उन्होंने गाँघी की मंज़्ाूरी लेकर ही किया था।
जब गाँघी से उनके एक सहकर्मी ने उनसे सुरक्षा में हुई इस बढ़ोत्तरी के बारे में पूछा था, तो गाँघी ने कहा था, ‘मैं तुम लोगों की तरह चिन्तित नहीं हूँ। अगर मैंने सुरक्षाकर्मियों की तैनाती की छूट न दी होती, तो मैंने सरदार पटेल, और जवाहर नेहरू की चिन्ताओं में अपनी सुरक्षा की एक चिन्ता और जोड़ दी होती। उनकी जि़म्मेदारियाँ पहले से ही बहुत भारी हैं।’201
गाँघी इस बात पर ज़ोर देते रहे कि राम अभी भी उनके वास्तविक रक्षक हैं, लेकिन तब भी उन्होंने (लोगों की तलाशी को छोड़) उन मुनासिब सुरक्षा उपायों की स्पष्ट मंज़्ाूरी दे दी थी जो पटेल और नेहरू को उनकी सुरक्षा के सन्दर्भ में ज़रूरी लगती रही हो सकती थी। उनका कहना था कि यह उनपर हैः उनका सिर्फ़ यही विश्वास है कि ये पुलिस के सुरक्षाकर्मी ही मेरे जीवन की रक्षा करेंगे। इसलिए उनको वही करने दो जो उनकी मजऱ्ी है।’202
प्यारेलाल ने कपूर आयोग से कहा था कि इन अतिरिक्त अघिकारियों की तैनाती के अलावा मैं ‘यह नहीं कह सकता कि बम फेंके जाने के बाद पुलिस सम्बन्घी कोई विशेष सावघानियाँ बरती गयी थीं या नहीं।’ लेकिन एक बात उनको पक्के तौर पर लगती थीः ‘मदनलाल के बयान में जिन लोगों की ओर संकेत किया गया था, उन लोगों को अगर पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया होता, तो गाँघी सुरक्षित बने रहे होते।’203
पुलिस ने इतनी ज़ाहिर-सी गिरफ़्तारियाँ क्यों नहीं कीं?
21 जनवरी तक दिल्ली पुलिस और बम्बई पुलिस, दोनों के पास गाँघी की हत्या के लिए जारी षडयन्त्र में शामिल प्रमुख लोगों की शिनाख़्त करने वाले बयान मौजूद थे। इसके अतिरिक्त, वे एक-दूसरे के सम्पर्क में थे।204 तब भी नौ दिनों तक ये हत्यारे उस समय तक आज़ाद घूमते रहे जब तक कि उनमें से तीन, आप्टे, गोडसे, और करकरे 30 तारीख़ को वापस दिल्ली की उस प्रार्थना-सभा नहीं पहुँच गये, जहाँ गोडसे ने गाँघी की हत्या कर दी।
इस घटना को मुमकिन बनाने के लिए, बीच के समय में हत्यारों को रोक सकने वाली किन्हीं गिरफ़्तारियों के बिना, अजीबो-ग़रीब घटनाएँ घटित होनी थीं। और वे घटित हुईं।
21 जनवरी को दिल्ली के पुलिस महानिदेशक टी.जी. संजेवी ने बम्बई के डिप्टी पुलिस कमिश्नर जे.डी. नागरवाला को पाहवा के इक़बालिया बयान की सूचना देने के लिए अपने दो अघिकारियों को बम्बई भेजा। दिल्ली के इन अघिकारियों का दावा था कि जब उन्होंने अगले दो दिनों तक बम्बई के कमिश्नर नागरवाला से मुलाक़ात की, तो वे बहुत लापरवाही के साथ मिले। बदले में उनने उनको महज़ अँग्रेज़ी में लिखा हुआ एक नोट दिया (जिसको नागरवाला ने लेने से इन्कार कर दिया)। उन्होंने ‘नागरवाला को मौखिक रूप से वह कुछ नहीं बताया जो उनकी जानकारी में था’, जिसमें पाहवा द्वारा सह-षडयन्त्रकारी के रूप में करकरे का नाम लिया जाना भी शामिल था। न ही उन्होंने पूना के अख़बार हिन्दू राष्ट्र या अग्रणी के सम्पादक की एक अन्य सह-षडयन्त्रकारी के रूप में पाहवा द्वारा की गयी शिनाख़्त के बारे में उन्हें बताया। इन अघिकारियों ने कमिश्नर को वह कुछ भी नहीं बताया जो उनकी जानकारी में था और जिससे हत्यारों की शिनाख़्त हो पाती।205 न ही नागरवाला ने उनको उस बयान के विवरणों की जानकारी दी जो उनको प्रोफ़ेसर जैन दे चुके थे, जिसमें भी पाहवा और करकरे की शिनाख़्त के साथ-साथ सावरकर के साथ उनके ताल्लुक़ात की जानकारी थी - ‘वे सब जो सावरकर के अनुयायियों द्वारा की गयी राजनैतिक हत्या की कोशिश की ओर संकेत करते थे।’206 पुलिस के प्रत्येक दस्ते ने इस तरह आचरण किया जैसे वे सार्थक ढंग से बात न करने के लिए मजबूर रहे हों, और बाद में गाँघी की मृत्यु के लिए उनमें से प्रत्येक ने दूसरे के असहयोगपूर्ण रवैये को दोषी ठहराया। नागरवाला ने उनसे मिलने आये उन दो अघिकारियों से कहा कि उनकी जाँच-पड़ताल नियन्त्रण में है और उन अघिकारियों को दिल्ली वापस जाने का आदेश दे दिया।207
इस बीच, नागरवाला की बम्बई पुलिस मोरारजी देसाई के आदेशों का पालन करती हुई सावरकर के मकान पर एक ऐसी निगरानी रखे हुए थी जो निष्प्रभावी साबित हुई। नागरवाला ने ‘अपनी क्राइम रिपोर्ट नम्बर 1 में कहा था कि सावरकर षडयन्त्र के पीछे थे और यह कि वे बीमार होने का स्वांग भर रहे थे और लोगों को यह ग़लत जानकारी दे रहे थे कि वे राजनीति से बाहर थे।’208
इस मुकाम पर गाँघी के मात्र सात दिन बचे थे जब उनके हत्यारे वापस आने वाले थे।
जब दिल्ली पुलिस के अघिकारी बिना कुछ हासिल किये बम्बई से लौटे, तो कपूर रिपोर्ट ने इस बात को दर्ज़ किया है कि उनको ‘तुरन्त पूना पुलिस को फ़ोन करके या तार भेजकर अग्रणी के सम्पादक के बारे में सूचना देनी चाहिए थी और यह पूछताछ करनी चाहिए थी कि वह कौन था, उसके साथी कौन लोग थे, उसकी गतिविघियाँ क्या थीं और उनके अड्डे कौन-से थे। इसी के साथ-साथ उनको उनकी गिरफ़्तारी की माँग भी करनी चाहिए थी।209 लेकिन उनने कुछ मिलाकर इतना ही किया कि बम्बई के अपने नाकामयाब दौरे की रिपोर्ट भर सौंप दी।
गाँघी के पास जीवित रहने के लिए पाँच दिन बचे थे।
यह भी कि 25 जनवरी को दिल्ली के पुलिस महानिदेशक संजेवी की मुलाक़ात बम्बई के उप महानिदेशक यू.एच. राणा से हुई थी जो संयोग से उस समय दिल्ली में ही थे। संजेवी ने राणा को पाहवा द्वारा दिल्ली पुलिस को दिये गये सबसे ताज़ा, 24 जनवरी के बयान की प्रतिलिपि सौंपते हुए उनसे वह बयान व्यक्तिगत तौर पर बम्बई पुलिस को सौंपने का आग्रह किया। अपने इस बयान में पाहवा अब तक अपने सह-षडयन्त्रकारी के रूप में न सिफऱ् हिन्दू राष्ट्र के सम्पादक (गोडसे) का उल्लेख कर चुका था, बल्कि अख़बार के ‘मालिक’ (आप्टे) का भी उल्लेख कर चुका था।210
राणा उस एक मुहिम पर बम्बई के लिए रवाना हुए जिसके लिए हालाँकि देर हो चुकी थी लेकिन वह तब भी गाँघी की जान बचा सकती थी। हालाँकि, उन्होंने हवाई जहाज़ से जाने की बजाय ट्रेन से जाने का फै़सला किया। बाद में उन्होंने कहा था कि ऐसा उन्होंने इसलिए किया ‘क्योंकि उनको हवाई जहाज़ से जाना अच्छा नहीं लगता था।’211 उन्होंने बम्बई के लिए एक बहुत लम्बा रास्ता भी चुना जिसने उनको छत्तीस घण्टे की ट्रेन-यात्रा कराते हुए आघा हिन्दुस्तान घुमा दिया।212 इस दौरान गोडसे और आप्टे वास्तव में बम्बई में ही थे, जो सावरकर के साथ परामर्श करते हुए गाँघी की हत्या की योजना को नयी शक्ल दे रहे थे।213
जब राणा अन्ततः 27 जनवरी को बम्बई पहुँचे, तभी गोडसे और आप्टे हवाई जहाज़ से दिल्ली के लिए रवाना हुए थे। गाँघी के पास तीन दिन बचे थे। राणा तब कमिश्नर नागरवाला से मिले। राणा ने बताया कि उन्होंने ‘मदनलाल का पूरा बयान मिस्टर नागरवाला को दिखाया था, लेकिन उनने वह बयान उनसे वापस ले लिया और नागरवाला ने उसको पूरा नहीं पढ़ा था।’214 कपूर रिपोर्ट ने इस बात को लक्ष्य किया था कि नागरवाला ने ‘मिस्टर राणा से मदनलाल के बयान के पूरे ब्यौरे के बारे में जानकारी नहीं माँगी क्योंकि वे (नागरवाला) जो भी कार्रवाई पहले कर चुके थे, उससे वे सन्तुष्ट प्रतीत होते थे। ये किंचित विचित्र-सा कथन है क्योंकि मिस्टर नागरवाला प्राफ़ेसर जैन द्वारा दी गयी उस जानकारी पर काम कर रहे थे, जो उन तक मोरारजी देसाई ने पहुँचायी थी, और दिल्ली में दिया गया मदनलाल का बयान इस जानकारी पर काम करने में मदद कर सकता था।’215
क्या वजह थी कि राणा ने नागरवाला को वह बयान नहीं सौंपा, जो गाँघी की हत्या की योजना में शरीक पाहवा के सह-षडयन्त्रकारियों के बारे में अतिरिक्त जानकारी मुहैया कराने वाला था?
और क्या वजह थी कि नागरवाला ने उस बयान को अपने पास नहीं रखा या उसकी प्रतिलिपि तैयार नहीं की, या उसको आमूल-चूल नहीं पढ़ा क्योंकि कम-से-कम इतना तो वे कर ही सकते थे?
जब हिन्दू राष्ट्र के सम्पादक और मालिक की शिनाख़्त का सवाल उठा, तो विभिé पुलिस अघिकारियों की अनभिज्ञता और उदासीनता और भी उलझन में डालने वाली थी। कपूर आयोग ने पाया कि भारत सरकार के पास यह जानकारी उसकी फ़ायलों में पूरे समय मौजूद थी। ‘अख़बारों के सालाना वक्तव्य’ की प्रतियाँ भारत सरकार के गृह विभाग और सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय, दोनों को भेजी जा चुकी थीं। अख़बार की सूची में हिन्दू राष्ट्र के सम्पादक के तौर पर एन.वी. गोडसे और मालिक के तौर पर एन.डी. आप्टे का नाम अंकित था, और दस्तावेज़ में इस अख़बार को ‘सावरकर समूह के एक अख़बार’ के रूप में दर्शाया गया था।216
पुलिस महानिदेशक टी. जी. संजेवी उस इंटेलीजेंस ब्यूरो के निदेशक भी थे, जो हिन्दुस्तान का पुलिस का सर्वोच्च पद है।217 पाहवा के पकड़े जाने से लेकर गाँघी की हत्या तक के दस दिनों के दौरान गोडसे और आप्टे का हिन्दू राष्ट्र से रिश्ता बताने वाली सूची संजेवी की अपनी फ़ायलों में मात्र कुछ ही क़दम की दूरी पर थी। उन्होंने ये क़दम कभी नहीं उठाये। न किसी दूसरे पुलिस अघिकारी ने उठाये।
कपूर रिपोर्ट ने टिप्पणी की थीः ‘जिन परिस्थितियों में वह घटना घटित हुई उनमें उसका घटित न होना अविश्वसनीय होता। मिस्टर यू.एच. राणा को मिस्टर संजेवी के साथ मिलकर मदनलाल के बयान को आमूल-चूल पढ़ना चाहिए था, जो उन्होंने नहीं किया, जैसा कि मिस्टर संजेवी का नोट दर्शाता है, और यह कि दोनों में से एक ने भी 25 जनवरी को इंटेलीजेंस ब्यूरो या प्रेस इन्फ़ाॅर्मेशन ब्यूरो से यह पता लगाने का थोड़ा भी कष्ट नहीं उठाया’ कि हिन्दू राष्ट्र का मालिक (या सम्पादक) कौन था।218
और इस तरह जो लोग गाँघी का पीछा कर रहे थे, उनका पता लगाने और उनको गिरफ़्तार करने के मामले में आलस्य, विलम्ब और सरकारी उदासीनता से ग्रस्त पुलिस की जाँच-पड़ताल का यह सिलसिला चलता रहा। पाहवा ने कहा था कि वे लोग वापस आएँगे, और वे वापस आये। पुलिस ने अपनी अकर्मण्यता से हत्यारों के लिए एक और मौक़ा उपलब्घ करा दिया।
क्यों?
परदा पल भर के लिए उस वक़्त उठा था जब नागरवाला से यह पूछा गया था कि उन्होंने सावरकर को गिरफ़्तार या नज़रबन्द क्यों नहीं किया था। ‘उनका जवाब था कि हत्या के पहले उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया था क्योंकि इससे महाराष्ट्र क्षेत्र में न सिर्फ़ उत्तेजना फैल जाती बल्कि उथल-पुथल मच जाती।’219
नागरवाला इस बात को स्वीकार कर रहे थे कि गाँघी की हत्या के पहले उनको सावरकर और उनके अनुयायी इतने शक्तिशाली दीखते थे कि उनको रोकना असम्भव था। पुलिस के नज़रिये से गाँघी के हत्यारों को हत्या करने के पहले छुट्टा घूमने देना शक्ति के लिए रियायत देना था।
27 जनवरी की शाम गाँघी एक अमेरिकी पत्रकार विन्सेण्ट शिएन से मिले जो गाँघी से मिलने की तीव्र इच्छा से भरकर वर्माण्ट स्थित अपने फ़ाॅर्म हाउस से वहाँ आये थे। शिएन को निरन्तर यह भय सता रहा था कि जल्दी ही गाँघी की हत्या हो सकती थी। शिएन चाहते थे कि वे दूसरे विश्व युद्ध और अणु बम के बाद उनके सामने उभरे मुश्किल सवालों को गाँघी के सामने रखते, लेकिन वे इस भयावह अहसास से प्रेरित थे कि इसके पहले ही गाँघी की हत्या हो जाएगी।220 वे जो सवाल गाँघी से पूछना चाहते थे, वे यह थे कि हिटलर के खि़लाफ़ लड़े जाने के लिए जिस युद्ध की ज़रूरत पड़ी थी वह विश्व का संहार कर देने वाले हथियारों के आविष्कार का कारण कैसे बन गया? मानव जाति अपने ही द्वारा गढ़े गये इन हथियारों से कैसे बच पाएगी?
जब प्यारेलाल प्रार्थना-सभा के बाद उनको अभी तक जीवित बचे गाँघी से मिलने ले गये, तो शिएन को गहरी राहत मिली। वह लम्बा रिपोर्टर और ठिगना सत्याग्रही कमरे में बिछी चटाई पर एक-दूसरे की बग़ल में चलते रहे, जिस दौरान शिएन महात्मा के सामने अपने सवाल दागते रहे। उन्होंने शुरुआत तो फ़लसफ़ाना अन्दाज़ में की लेकिन गाँघी उनको जल्दी ही ज़मीन पर ले आये।
शिएन ने कहा, ‘मैं कर्म और कर्म के फलों के साथ बातचीत शुरू करने का प्रस्ताव करता हूँ।’
गाँघी चलते-चलते ठहर गये। वे अपनी बात कहना चाहते थे। उन्होंने किसी चिडि़या की तरह गरदन हिलाते हुए शिएन की ओर देखा।
‘पहले मैं एक बात साफ़ कर दूँ,’ उन्होंने कहा। ‘मुझे मोतीझिरा का बुखार है। डाॅक्टर भेजे जाते हैं और वे सल्फ़ा ड्रग के इंजैक्शन या उसी तरह की कोई चीज़ें देकर मेरी जान बचा लेते हैं। लेकिन इससे कुछ भी साबित नहीं होता। मुमकिन है कि मेरा मर जाना मनुष्यता के लिए ज़्यादा मूल्यवान होता।’
गाँघी ने गर्दन उठाकर शिएन की ओर देखा। वे इन्तज़ार करते रहे थे कि यह बात शिएन के मन में ठीक से बैठ जाए कि मुमकिन है उनका मर जाना मनुष्यता के लिए ज़्यादा मूल्यवान हो।
‘क्या यह बात ठीक-से समझ में आ गयी?’ उन्होंने पूछा। ‘अगर न आयी हो, तो मैं इसको दोहराऊँ?’
‘नहीं, सर,’ शिएन ने कहा। ‘मेरा ख़याल है मैं इसे समझ गया हूँ।’’दोनों आदमी फिर से चहलक़दमी करने लगे।
‘एक न्यायसंगत लड़ाई विध्वंसकारी नतीजे कैसे पैदा कर सकती है?’ शिएन ने पूछा। वे ख़ास तौर से दूसरे विश्व युद्ध के बारे में सोच रहे थे।
‘उन साघनों की वजह से जिनका इस्तेमाल किया गया,’ गाँघी ने कहा। साघनों को साध्य से अलग नहीं किया जा सकता।’ यह वही अन्तर्दृष्टि थी जिसको लेकर गाँघी को सावरकर द्वारा लन्दन में उन हत्याओं के इस्तेमाल के प्रश्न को लेकर चुनौती दी गयी थी, जिनका इस्तेमाल राष्ट्रीय मुक्ति को हासिल करने के लिए सावरकर की मण्डली कर रही थी। असम्भव, गाँघी ने सावरकर और उनके छात्र उग्रवादियों से कहा था। इस समय गाँघी शिएन के सामने, जब वे तीन दिन बाद सावरकर के और भी नये अनुयायियों के हाथों मारे जाने वाले थे, साघनों और साध्यों के बीच के सामंजस्य की एक बार फिर नये सिरे से व्याख्या कर रहे थे। गाँघी ने कहा, ‘अगर हिंसक साघनों का इस्तेमाल किया गया, तो उसके नतीजे बुरे होंगे।’
‘क्या ये बात हर समय और स्थान के सन्दर्भ में सही है?’ शिएन ने पूछा।
‘मैं तो यही कहता हूँ,’ गाँघी ने कहा। ‘ये पद परिवर्तनीय हैं। कोई भी अच्छा कर्म बुरे नतीजे को पैदा नहीं कर सकता। बुरे साघन, अच्छे साध्य के लिए इस्तेमाल किये जाने पर भी, बुरे परिणाम पैदा करते हैं।’221
शिएन इतनी आसानी-से मानने वाले नहीं थेः ‘मैं हिटलर के खि़लाफ़ हमारे युद्ध के बारे में सोच रहा था, जो मेरी निगाह में एक न्यायसंगत युद्ध था। मैं उनमें से कुछ नेताओं को जानता था जो हमारे पक्ष के थे।’
गाँघी ने सिर हिलाया, जिसका मतलब शिएन ने यह समझा कि रूज़वेल्ट और चर्चिल, दोनों के ही इरादे नेक थे।
शिएन ने अपनी बात जारी रखीः ‘यह कैसे मुमकिन हुआ कि फ़ासीवाद की बुराई के खि़लाफ़ हमारी लड़ाई जैसे एक सच्चे अर्थों में न्यायसंगत युद्ध ने उन नतीजों को पैदा किया जिनका सामना हम कर रहे हैं?’
गाँघी शिएन की ओर झुके। उन्होंने गहरी उदासी के साथ विनम्रतापूर्वक कहा, ‘आपके साध्य शुभ रहे हो सकते हैं, लेकिन आपके साघन अशुभ थे। ये सत्य की ओर ले जाना वाला मार्ग नहीं है।’
शिएन ने कहा, ‘जो लोग हम पर हुकूमत करते हैं, ज़ाहिर है उनका सरोकार कर्म के सत्य की बजाय कर्म के फलों से होता है। तब फिर हम पर अच्छे ढंग से शासन कैसे किया जा सकता है?’
‘आपको अपनी दौलत की उपासना करना बन्द कर देना चाहिए,’ गाँघी ने कहा। शिएन जानते थे कि गाँघी यह कहना चाह रहे थे कि अमेरिकियों को दौलत की उपासना बन्द कर देनी चाहिए। गाँघी ने शिएन के समक्ष एक प्रतिनिघित्वशाली लोकतन्त्र की रूपरेखा रखी, जिसमें भ्रष्ट लोगों को उन लोगों द्वारा पदच्युत कर दिया जाना चाहिए जो भ्रष्ट नहीं हैं। वे पल भर को रुके, और फिर बोले, ‘उन लोगों द्वारा जिनका सत्ता से कोई लेना-देना नहीं है।’
‘आपका मतलब है, सत्ता भ्रष्ट करती है?’ शिएन ने पूछा।
‘हाँ,’ गाँघी ने कहा, ‘मुझे अफ़सोस है कि मैं यही कह रहा हूँ कि सत्ता भ्रष्ट करती है।’ तब भी, जैसा कि गाँघी जानते थे, वे सत्ता के हाथों भ्रष्ट हुए लोगों, जिनमें भारत सरकार में मौजूद स्वयं उनके शिष्य शामिल थे, को परामर्श देना बन्द करने वाले नहीं थे। उनका स्पष्ट उद्देश्य स्वयं कभी सत्ता प्राप्त करने का नहीं था। न ही वे यह चाहते थे कि अहिंसा के रास्ते सत्य के परम बल के लिए प्रयोग कर रहा कोई भी व्यक्ति राजनैतिक सत्ता की आकांक्षा करे। गाँघी एक कहीं ज़्यादा गहरे कि़स्म के बल को सिद्ध करने के लिए प्रतिबद्ध थे - सत्य के बल के लिए, अपने सामने पड़ने वाले सबसे निर्बल मनुष्य में ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए, और इन निर्बलों के माध्यम से शक्ति बटोरने के लिए प्रतिबद्ध। एक अगला क़दम यह था कि उन लोगों तक में ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना जिनने उनकी हत्या की योजना बनायी थी (सावरकर) और जिसने उनकी हत्या की थी (गोडसे), और तब भी उनके भीतर प्रेम उत्पé करना, जैसा कि उन्होंने अपनी मृत्यु के क्षण में किया था, जब वे और उनका हत्यारा एक-दूसरे के सामने प्रणति की मुद्रा में झुके थे।222
गाँघी ने कहा था कि ‘एक शुभ परिणाम हासिल करने के लिए अहिंसा परमावश्यक है।’223
उस मुलाक़ात के अन्त में गाँघी ने शिएन से कहा था कि उनसे दोबारा मुलाक़ात का वे स्वागत करेंगेः ‘और इसे एक स्थायी निमन्त्रण की तरह लें!’224 इसके बाद, जैसा कि शिएन लिखते हैं, गाँघी ने ‘बहुत विनम्रता के साथ, एक ऐसे स्वर में जिसे सुनकर किसी दुश्मन का दिल भी पिघल जाता (और मैं कोई दुश्मन नहीं था) यह भी कहाः ‘अगर समय नहीं बचा, तो क्या आप समझेंगे?’’225
इस रिपोर्टर ने गाँघी की हत्या के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका लौटने पर लिखा थाः ‘उनको मालूम था कि मैं हताशा की ओर बढ़ती अवस्था में यह जानने के लिए कि सत्य क्या है, आघी दुनिया पार करके उनके पास आया था - इतना तो वे कुछ ही मिनिटों में सहज ही समझ गये थे - और उन्होंने नतीजों की परवाह किये बिना मुझे तुरन्त यह समझाया। मेरी उम्मीदों या सम्भावना के एकदम परे जिस चीज़ से मेरा सामना हुआ, वह दैवीय करुणा की अभिव्यक्ति थी।’226
29 जनवरी को विनसेण्ट शिएन जवाहरलाल नेहरू के साथ एक आम सभा के लिए पाकिस्तान से लगी हिन्दुस्तान की उत्तर-पश्चिमी सरहद पर स्थित अमृतसर गये। अपने देश के प्रघान मन्त्री को सुनने चार लाख लोग एक पार्क में जमा थे। नेहरू के क़रीब बैठे शिएन मनुष्यों के उस उमड़ते समुद्र को देखकर विस्मित थे। ‘राजनैतिक दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण उस भाषण’ में नेहरू ने जो कुछ कहा, उसे सुनकर भी शिएन चकित थे। यह पहली बार था जब हिन्दुस्तान की सरकार के किसी सदस्य ने हिन्दू प्रतिक्रियावादी या आद्य-फ़ासीवादी संगठनों पर, उनका नाम लेते हुए खुला हमला किया था - उन संगठनों पर जो, अगले चैबीस घण्टों के भीतर, महात्मा गाँघी की जान लेने जा रहे थे।’227
सरहद पर बसा नगर होने के नाते, अमृतसर पाकिस्तान से आये हिन्दू और सिख शरणार्थियों से भरा हुआ था। नेहरू के श्रोताओं में बड़ी तादाद में ऐसे लोग शामिल थे जो उन मुसलमानों के खि़लाफ़ इन्तकाम के जज़्बे से उबल रहे थे, जिनको वे अपनी बदहाली के लिए जि़म्मेदार मानते थे। वे हिन्दू महासभा और आरएसएस द्वारा भड़काये जा रहे थे जिनकी ओर नेहरू ने गाँघी की हत्या की पूर्व-संध्या पर अँगुली उठाते हुए हमला किया था।
इतिहास के एक नाज़्ाुक मोड़ पर दिया गया नेहरू का वह भाषण बहुत साहसपूर्ण था। बदकि़स्मती से, उस विशाल जन-समुदाय में से किसी ने भी उसको सुना नहीं। जैसाकि शिएन ने देखा था, परिस्थितियाँ कुछ ऐसी निर्मित हुईं कि ‘लाउडस्पीकर ख़राब हो गये और नेहरू के भाषण का एक भी शब्द सुनायी नहीं दे सका।’228
उसी दिन, एक दोस्त को लिखे गये अपने ख़त में गाँघी ने लिखा था कि उनकी मुहिम अभी पूरी नहीं हुई थीः ‘अगर यह कहा जा सकता हो कि दिल्ली में मेरा ‘काम पूरा हो चुका है’, तो मुमकिन है कि अपनी प्रतिज्ञा (‘करो या मरो’) की ख़ातिर मेरा यहाँ बने रहना ज़रूरी न रह गया हो। हो सकता है कि इस मसले पर कल फ़ैसला लिया जाए।’229
उस आखि़री रात बिस्तर पर सोने जाने से ठीक पहले, उनकी देखभाल में लगे एक सहयोगी से बात करते हुए गाँघी ने एक बार फिर कहा था कि अगर मैं ‘एक पुरोहित हूँ, जो होने का मैं दावा करता हूँ’, तो मुझे अपनी एक-एक श्वास में ईश्वर का नाम जाप करते हुए अपने हत्यारे को जवाब देना होगाः ‘अगर कोई व्यक्ति मेरे आरपार गोली भेदता हुआ मेरे जीवन का अन्त करता है - जैसेकि उस दिन किसी ने बम के माध्यम से करने की कोशिश की थी - और मैं उसकी गोली को बिना किसी कराह के सह लेता हूँ, और ईश्वर का नाम लेते हुए अपनी आखि़री साँस लेता हूँ, तभी मैं अपने दावे पर खरा उतरा माना जाऊँगा।’230
शुक्रवार, 30 जनवरी को, घरती पर गाँघी के आखि़री दिन, प्यारेलाल ने उनको उनके द्वारा व्यक्त की गयी चिन्ता पर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की प्रतिक्रिया की सूचना दी। सावरकर के संगठन के औपचारिक मुखिया डाॅ. मुखर्जी नेहरू के मन्त्रीमण्डल में एक मन्त्री थे -यह उस सत्ता का एक संकेत था जो नेहरू की अपनी सरकार में उन शक्तियों ने हासिल कर रखी थी जिनका प्रत्याख्यान नेहरू ने उस दिन अपने उस न सुने गये भाषण में किया था। गाँघी ने मुखर्जी से पूछा था कि क्या मेहरबानी करके वे महासभा के नेता के रूप में अपनी शक्ति का उपयोग महासभा के उन कार्यकर्ताओं की गतिविघियों पर नियन्त्रण लगाने के लिए करेंगे, ‘जो काँग्रेस के कुछ नेताओं की हत्या को उकसाने वाले बेहद भड़काऊ भाषण देते आ रहे थे।’231
प्यारेलाल ने गाँघी को डाॅ. मुखर्जी के ‘हिचकिचाहट-भरे और असन्तोषजनक जवाब’ की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि ‘लगता है कि उन्होंने इस तरह गै़रजि़म्मेदाराना बयानों और गतिविघियों और बहुत जल्द ही सामने आने जा रहे इनके दुष्प्रभावों को बहुत कम करके आँका है।’
प्यारेलाल अपनी जीवनी में कहते हैंः ‘जब मैंने गाँघीजी को डाॅ. मुखर्जी के इस जवाब की सूचना दी तो उनकी भँवें तन गयीं।’232
अपनी आखि़री सुबह के दौरान गाँघी ने नोआखाली क्षेत्र, जो अभी भी विक्षोभ से पीडि़त था, में प्यारेलाल को रचनात्मक अहिंसा के अपने प्रयोगों को जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया। गाँघी ने कहा, ‘मैं किस क़दर चाहता था कि ये सारे काम मैं खुद करता! जिन लोगों के लिए हम काम कर रहे हैं, उनके मन से हमें मृत्यु के डर को हटाने की और उनके दिलों और प्यार को जीतने की ज़रूरत है...। अगर दिलों में प्रेम के अलावा और कुछ नहीं होगा, तो तुम्हारे शब्द उन दिलों में बैठ जाएँगे।’
शाम 4ः00 बजे गाँघी पटेल के साथ गहन चर्चा में व्यस्त रहे। नेहरू के साथ अपने गहराते हुए झगड़ों की वजह से गृहमन्त्री अपने पद से इस्तीफ़ा देने की कगार पर थे। गाँघी इन दोनों आदमियों को सरकार के लिए अपरिहार्य मानते थे। उन्होंने समझौते का परामर्श दिया था। उनकी मृत्यु यह काम पूरा करने वाली थी। उस शाम, गाँघी की हत्या के बाद, नेहरू अपने गुरु के शव के क़रीब पटेल की गोद में सिर रखकर सुबक रहे थे। भटककर घर वापस लौटे हुए गाँघी के ये दोनों ख़र्चीले बेटे, जिन्होंने विभाजन को स्वीकार कर उनको घोखा दिया था, यह बात अच्छी तरह से जानते थे कि गाँघी ने उनको कभी भी प्रेम करना बन्द नहीं किया था। गाँघी की शहादत के नतीजे में सामंजस्य की स्थिति में पहुँचे ये दोनों नेता दिसम्बर 1950 में पटेल की मृत्य के समय तक हिन्दुस्तान पर शासन करना जारी रखने वाले थे।233
जब अन्ततः गाँघी ने शाम 5ः10 बजे पटेल को समझा-बुझाकर फुरसत पायी, तो उनको बताया गया कि काठियावाड़ के भारतीय प्रायद्वीप से आये कुछ नेता उनसे मिलने का अनुरोघ कर रहे थे।
‘उनसे प्रार्थना के बाद आने को कहो,’ उन्होंने कहा। ‘अगर मैं जि़न्दा रहा तो मैं उनसे मिलूँगा।’234
प्रार्थना-सभा के रास्ते की घास पर चलते हुए गाँघी ख़ामोश बने रहे। अपनी पोतियों, आभा और मनु के कन्घों पर हाथ रखे वे छह सीढि़याँ चढ़कर उस चबूतरे पर पहुँचे जो उनका प्रार्थना-स्थल हुआ करता था। बाद के क्षणों का वर्णन मनु ने किया है।
‘फिर, उन्होंने कन्घों से अपने हाथ हटाकर वहाँ एकत्र लोगों को नमस्कार करने के लिए दोनों हाथ जोड़े, और आगे चल पड़े। मैं उनके दाँयीं तरफ़ चल रही थी। उसी दिशा से खाकी वर्दी मेें एक तगड़ा नौजवान हाथ जोड़े भीड़ को घकियाता हुआ हमारे क़रीब आ गया।’235
यह खाकीवर्दीघारी आदमी नाथूराम गोडसे था। जब मनु ने उसको हल्के-से परे हटाने की कोशिश करते हुए कहा कि ‘बापू को पहले ही दस मिनिट की देर हो चुकी है,’ तो गोडसे ने उनको घक्का देकर अपने रास्ते से हटा दिया। मनु उस जपमाला को उठाने के लिए झुकीं जो उनके हाथ से छिटककर नीचे गिर गयी थी।236 गोडसे सिर झुका, हाथ जोड़कर गाँघीजी को प्रणाम कर रहा था। अपना सिर उठाकर उसने एक आॅटोमैटिक पिस्तौल निकाली और तेज़ी-से तीन गोलियाँ दाग दीं, एक गाँघी के पेट में, और दो उनकी छाती में। जैसे ही गाँघी हत्यारे को आशीर्वाद देते हुए ज़मीन पर गिरे, उनके आखि़री शब्द थे ‘राम! राम!’237
विनसेण्ट शिएन दस क़दम की दूरी पर थे। उनको गाँघी का एक और साक्षात्कार लेने के लिए प्रार्थना के बाद उसी शाम का समय दिया गया था। शिएन गाँघी को घास पर चलकर प्रार्थना-मण्डप की ओर जाते देखते रहे थे। जैसे ही उनकी छोटी-सी काया सीढि़याँ चढ़ने लगी थी, तो वे भीड़ की ओट में हो जाने की वजह से इस रिपोर्टर को दिखना बन्द हो गये थे।
जब शिएन ने उन तीन हल्के घमाकों की आवाज़ें सुनी, तो उन्होंने पास में खड़े एक दोस्त से दहशत में भरकर कहा, ‘यह क्या है?’ उनके उस दोस्त का चेहरा पीला पड़ गया, तो शिएन समझ गये कि गाँघी की हत्या का उनका पूर्वाभास सही साबित हो चुका है। वे ईंटों की एक दीवार से टिक गये और उन्होंने अपने सिर में ‘एक तेज़ लहरों जैसा विक्षोभ महसूस किया जैसे समुद्र में तूफ़ान उठने से पैदा होता है - लगा जैसे लहरें तेज़ हवाओं के साथ तेज़ी-से उठ और गिर रही हों...। ऐसी चीज़ें कैसे मुमकिन हो सकती हैं?’238 यह सवाल कई दिनों तक मेरे दिमाग़ में घूमता रहा।
गाँघी का वह कथन और वह सवाल उनके दिमाग़ से उड़ चुका थाः ‘मुमकिन है कि मेरा मर जाना मनुष्यता के लिए ज़्यादा मूल्यवान हो। क्या यह बात ठीक-से समझ में आ गयी? अगर न आयी हो, तो मैं इसको दोहराऊँ?’
शिएन ने कहा था, ‘नहीं, सर। मेरा ख़याल है, मैं इसे समझ गया हूँ।’ लेकिन वे समझे नहीं थे। अपने गुरु गाँघी के प्रति अपने अनुराग, और उनके सम्मुख बैठकर उनसे और अघिक सीखने की अपनी आकांक्षा के चलते, अब उनकी हत्या के बाद शिएन उनके बीच हुए संवाद में गाँघी द्वारा कही गयी इस सबसे पहली बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि मुमकिन था कि उनका मर जाना मनुष्यता के लिए ज़्यादा मूल्यवान होता।
गाँघी की मृत्यु के प्रभाव का वर्णन डेनिस डैल्टॅन द्वारा इन शब्दों में किया गया है ः
गाँघी की हत्या ने विभाजन के इर्दगिर्द व्याप्त साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने में जो भूमिका निभायी वैसी भूमिका किसी भी दूसरी अकेली घटना ने नहीं निभायी थी। उसने इसे ठीक उसी तरह हासिल किया था जिस तरह उनके उपवासों ने हासिल किया था - लोगों को उनके भय, क्रोघ और शत्रुता के बीच ठहरकर सोचने के लिए मजबूर करते हुएः खुद से यह पूछने के लिए विवश करते हुए कि इसके लिए जो क़ीमत उन्होंने चुकायी थी, क्या वह वाजिब थी। शायद कई प्रयोजन - करुणामय, तर्कपूर्ण और साथ ही शोक-सन्तप्त या अपराघबोघ से ग्रस्त कई प्रयोजन - एक साथ काम कर रहे थे। लेकिन हत्याएँ रोक देने का एक दृढ़ निश्चय जिस किसी तरह पैदा हुआ...। उनकी मृत्यु के इस असर से बड़ा उनके जीवन का दूसरा कोई असर नहीं था, यह स्वराज के पक्ष में उनका अन्तिम वक्तव्य था।239
गाँघी की हत्या के मुक़दमे के पीठासीन न्यायाघीश आत्माचरण ने इस हत्या को उकसाने में पुलिस की भूमिका को लेकर तीखी निन्दा से भरा फ़ैसला सुनाया था। मुक़दमे का समापन करते हुए उन्होंने कहा था ः
पुलिस ने 20 जनवरी 1948 और 30 जनवरी 1948 के बीच के समय में मामले की जाँच-पड़ताल में जो ढिलाई बरती, उसकी ओर मैं केन्द्र सरकार का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ। 20 जनवरी 1948 को मदनलाल के. पाहवा की गिरफ़्तारी के तुरन्त बाद पुलिस ने उसका बयान ले लिया था। बम्बई पुलिस को भी डाॅ. जे.सी. जैन के उस बयान से सूचित किया जा चुका था जो उन्होंने 21 जनवरी 1948 को माननीय श्री मोरारजी देसाई को दिया था। इन दोनों बयानों के तुरन्त बाद दिल्ली पुलिस और बम्बई पुलिस ने एक-दूसरे से सम्पर्क किया था। तब भी पुलिस इन दोनों बयानों का कोई लाभ उठा पाने में दुखद ढंग से नाकामयाब रही। अगर उस प्रकरण में, उस मुकाम पर थोड़ा भी चैकéापन बरता गया होता तो यह त्रासदी शायद टाली जा सकती थी।240
गाँघी के प्रपौत्र तुषार गाँघी ने इस हत्या में पुलिस की सहभागिता के बारे में लिखा है ः
गृहमन्त्री सरदार पटेल को सौंपी गयी एक ख़ुफि़या रिपोर्ट के मुताबिक़ पुलिस बल और नौकरशाही में शामिल बहुत सारे लोग आरएसएस और हिन्दू महासभा के गुप्त सदस्य थे, और वे लोग सक्रिय रूप से इन उग्रवादी हिन्दू संगठनों की विचारघारा का समर्थन और प्रोत्साहन कर रहे थे..। 20 और 30 जनवरी 1948 के बीच पुलिस ने जो भी कार्रवाइयाँ कीं, वे गाँघी की, हत्या को रोकने की बजाय हत्याओं के सिलसिले को निर्बाघ ढंग से आगे बढ़ाने के लिए ज़्यादा थीं...
पीछे मुड़कर देखने पर सिफऱ् इतना ही कहा जा सकता है कि पुलिस अपनी लापरवाही और अकर्मण्यता के चलते गाँघी की हत्या के लिए उतनी ही अपराघी थी, जितने स्वयं हत्यारे थे।241
सरकार में बैठे नेता गाँघी की हत्या के लिए किस हद तक जि़म्मेदार थे?
प्रघानमन्त्री नेहरू के सरकारी सुरक्षा-प्रभारी जी.के. हण्डू ने गाँघी की हत्या की जाँच के लिए बिठाये गये कपूर आयोग के सामने स्पष्ट किया था कि गाँघी को हत्या से बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए था। हण्डू ने कहा था कि सरकार के पास सुरक्षा की एक रूपरेखा उपलब्घ थी जिसका इस तरह के मामलों में पालन किया जाता था।242
बम विस्फोट के बाद पाहवा और जैन द्वारा उपलब्घ करायी गयी जानकारी के मद्देनज़र, हण्डू का कहना था कि बम्बई और पूना पुलिस के अघिकारियों को (गोडस, आप्टे और अन्य सह-षडयन्त्रकारियों के साथ उनकी ख़ासी जान-पहचान के चलते) गुप्तचरी के काम में लगाया जाना चाहिए था। उनको दिल्ली के हवाई अड्डे, रेल्वे स्टेशनों, होटलों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण स्थलों पर, विशेष रूप से प्रार्थना-सभाओं के दौरान बिड़ला हाउस में हत्यारों पर निगरानी रखने के लिए तैनात किया जाना चाहिए था। गाँघी के बचाव के लिए सादी वर्दी में पुलिसकर्मियों के दो घेरे तैयार किये जाने चाहिए थे, जिनमें से पहला घेरा उनसे तीन गज की दूरी पर होता, और दूसरा घेरा पच्चीस गज की दूरी पर होता।243
ये सरकार के वे मानक सुरक्षा-उपाय थे जो प्रघानमन्त्री और अन्य महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के सन्दर्भ में अपनाये जाते थे, ख़ास तौर से तब जब ख़तरे को पहचान लिया गया होता था। ‘राष्ट्रपिता’ माने जाने वाले गाँघी 20-30 जनवरी, 1948 की अवघि के दौरान इस तरह की सुरक्षा-व्यवस्था की सर्वाघिक अर्हता रखते थे, तब तो और भी जबकि हिरासत में लिया जा चुका एक सह-षडयन्त्रकारी बारबार यह दोहरा चुका था कि गाँघी के हत्यारे वापस आएँगे। जैसाकि प्रश्नकर्ता सांसद रोहिणी चतुर्वेदी ने पटेल को ध्यान दिलाया था, सुरक्षा के मामले में (शारीरिक तलाशी के अलावा) गाँघी की सहमति की ज़रूरत नहीं थी। न ही गाँघी पुलिस की मौजूदगी के विरोघ के मामले में जि़द पर अड़े थे। नेहरू और पटेल की जि़म्मेदारियों का लिहाज़ करते हुए गाँघी (शारीरिक तलाशी को छोड़कर) उन सभी सुरक्षा उपायों को अपनाने की मंज़्ाूरी दे चुके थे जो ये लोग आवश्यक समझते थे। ‘उनको वही करने दो जो उनकी मरज़ी है,’ उन्होंने कहा था।244
तब भी बम विस्फोट और गाँघी की हत्या के बीच के दस दिनों में उनकी रक्षा के लिए इनमें से कोई भी सुरक्षा-उपाय नहीं अपनाये गये। नेहरू और पटेल ने अपनी सुरक्षा-पुलिस को तैनात नहीं किया, जैसा कि उनको इस तरह की परिस्थिति में सामान्यतः करना चाहिए था - जैसा कि दरअसल गाँघी की हत्या के बाद, अपने जीवन की चिन्ताओं के चलते, उन्होंने तत्काल किया था। एक बेहद नाज़्ाुक मौक़े पर, ख़तरे की स्पष्ट चेतावनी के बावजूद, वे उस इन्सान के जीवन को बचाने में नाकामयाब रहे जिसके प्रति वे, उनका मुल्क, और सारी दुनिया सबसे ज़्यादा श्रद्धा रखते थे।
गाँघी की हत्या के आरोपियों में सावरकर भी शामिल थे। दिगम्बर बड़गे, जो सरकारी गवाह बन गया था, ने अदालत में गवाही देते हुए सावरकर के साथ गोडसे और आप्टे की मुलाक़ातों की पुष्टि की थी। लेकिन पुष्टिकारी साक्ष्य के अभाव में सावरकर को निर्दोष पाया गया। गोडसे और आप्टे ने फाँसी पर लटकने के क्षण तक सावरकर का बचाव किया। वे इस षडयन्त्र में सावरकर के तार जुड़े होने का ज़ोरदार ढंग से खण्डन करते रहे।
सावरकर ने अपने बचाव में सत्तावन पृष्ठ का एक वक्तव्य पढ़ा। इस वक्तव्य में उन्होंने अपने जीवन की कथा सुनाते हुए स्वयं को एक आत्मबलिदानी देशभक्त के रूप में चित्रित किया। उन्होंने अपने ऊपर लगाये गये आरोपों से स्पष्ट इन्कार कर दिया। अपने वक्तव्य का समापन करते हुए उन्होंने अपने उन वक्तव्यों को उद्धृत किया जिनके बारे में उनका दावा था कि वे गाँघी के प्रति सराहना और स्नेह को दर्शाने वाले थे।
सावरकर ने अपने बचाव का जो प्रदर्शन किया था, उसे देखकर बचाव पक्ष के एक वकील पी.एल. इनामदार, जो सावरकर के प्रति अत्यन्त सराहना का खुलेआम इज़हार करते थे, हक्काबक्का रह गये थेः ‘सावरकर ने, अदालत में अपना वक्तव्य पढ़ते हुए एक कुशल वक्ता के सारे हथकण्डों का इस्तेमाल किया और इस बात को लेकर अपने भाग्य पर विलाप किया कि स्वाघीन भारत सरकार द्वारा उनपर महात्माजी की हत्या का आरोप लगाया जा रहा है, जबकि वे बेहद ईमानदारी के साथ और अक्सर महात्माजी के व्यक्तित्व की सराहना और प्रशंसा करते रहे हैं। सावरकर ने वास्तव में अदालत में अपने भाषण का यह अंश पढ़ते हुए अपने गाल पोंछे थे।’245
हालाँकि, सावरकर बचाव-पक्ष के कटघरे में गोडसे की बग़ल में बैठे थे, लेकिन वे गोडसे और दूसरे बचावकर्ताओं की पूरी तरह से उपेक्षा करते रहे। सावरकर जानते थे कि यह बात उनके क़ानूनी हित में ही थी कि वे इस तरह का बरताव करते जैसे अपना बचाव कर रहे उनके इन साथियों से उनका कोई नाता नहीं था, ख़ास तौर से उस व्यक्ति के साथ जो गाँघी पर गोली चलाने की बात क़बूल कर चुका था। गोडसे ने अपने दोस्तों से कहा था कि किस तरह वह ‘सावरकर के हाथ के एक स्पर्श, सहानुभूति के एक शब्द, या कम-से-कम करुणा से भरी निगाह के लिए तरसता रहा था।’246 इस गोली दागने वाले गोडसे ने फाँसी के फन्दे तक सावरकर के प्रति अपनी वफ़ादारी निभायी, और आखि़र तक अपने गुरु की निर्दोषिता की घोषणा करता रहा। जिस दौरान गोडसे अपने बचाव में दिये गये बयान में अभियोजन पक्ष के वकील का मज़ाक़ उड़ा रहा था, क्योंकि उसने ‘मुझे वीर सावरकर के हाथ के महज़ एक हथियार के रूप में चित्रित किया था,’247 वहीं, बचाव पक्ष के वकील इनामदार के मुताबिक़, उसका गुरु ‘पत्थर से तराशे गये सिं्फक्स के बुत’ की तरह स्थिर बैठा रहा।248
तब भी आलोचकों का मानना था कि ये सावरकर ही थे जिन्होंने, गोडसे के प्रति अपनी आत्मरक्षात्मक और सार्वजनिक उदासीनता के बावजूद, वास्तव में गोडसे का वह लिखित बयान तैयार किया था जो आश्चर्यजनक रूप से वाग्मितापूर्ण था। गोडसे को अपना वह अदालती वक्तव्य देने में नौ घण्टे लगे थे।249 तुषार गाँघी ने कहा था ः
इस वक्तव्य की भाषा हमें इस निष्कर्ष की ओर ले जाती है कि इसका ज़्यादातर हिस्सा या तो सीघे-सीघे वक्तृता के उस्ताद और शब्दों की कारीगरी में माहिर वी.डी. सावरकर की क़लम से निकला है, या निश्चित तौर पर उनके द्वारा सँवारा गया है। वाचिक और लिखित ज़्ाुबान पर सावरकर का जादुई नियन्त्रण था। अगर वह पूरी तरह से सावरकर द्वारा नहीं भी लिखा गया था, तो उसके अन्तिम प्रारूप को तो निश्चय ही उन्होंने ही सँवारकर तैयार किया था और उसको जज़्बाती तौर पर एक अत्यन्त रोमांचक दस्तावेज़ में बदल दिया था...। यह बात विदित थी कि आरोपियों को जेल में एक-दूसरे के साथ बातचीत करने की आज़ादी मिली हुई थी, और कई मौक़ों पर सुरक्षाकर्मियों को आरोपी के सन्देश चोरी छिपे लाते-ले जाते पकड़ा गया था। यह मानने की कोई वजह नहीं है कि नाथूराम उस चीज़ को परिमार्जित कराने में अपने रहनुमा और गुरु वी.डी. सावरकर की मदद हासिल नहीं कर सका होगा जिसे आज नाथूराम की विचारघारात्मक सन्तानें उसकी अन्तिम इच्छा और वसीयतनामे की संज्ञा देते हैं।250
न्यायाघीश आत्माचरण द्वारा गाँघी की हत्या के ज़्ाुर्म को क़बूल कर चुके नाथूराम गोडसे को गाँघी पर विचारघारात्मक हमला करते हुए और सावरकर का न्यायिक बचाव करते हुए नौ घण्टे तक बोलने की छूट दिये जाने का तथ्य यह दर्शाता है कि अदालत किस क़दर गाँघी के हत्यारों की राजनैतिक शक्ति के सामने झुकी हुई थी। गोडसे के वक्तव्य में उसकी हत्या के शिकार व्यक्ति की ‘मुसलमानों के प्रहारों के समक्ष घुटने टेक देने’ के लिए भत्र्सना की गयी थी।251 गोडसे ने दावा किया था कि उसको गाँघी की हत्या इसलिए करनी पड़ी थी क्योंकि वे भारत को मुसलमानों के प्रति समर्पित कर रहे थे, अन्यथा वे ‘राष्ट्र को बरबादी की ओर ले जाते और पाकिस्तान के लिए बचे-खुचे हिन्दुस्तान पर क़ब्ज़ा करना आसान बना देते।’252 गोडसे ने कहा था कि ‘निरपेक्ष अहिंसा की गाँघी की शिक्षा का परिणाम अन्ततः हिन्दू समाज को बल-वीर्य-विहीन कर देने और इस समाज को दूसरे समुदायों, विशेष रूप से मुसलमानों की आक्रामकता को प्रतिरोघ दे पाने में अक्षम बना देता।’253 गोडसे ने गाँघी की अहिंसा की शिक्षा को ‘हिन्दुओं के कल्याण के सर्वाघिक निष्ठावान समर्थक’ ‘वीर’ सावरकर की उग्रवादी हिन्दू विचारघारा के बरक्स रखा था।254 हालाँकि, गोडसे ने इस बात पर बारबार ज़ोर दिया था कि गाँघी की हत्या से सावरकर का कोई लेना-देना नहीं था।
क्या वजह थी कि न्यायाघीश ने गोडसे को अदालत का वह मंच उपलब्घ कराया जहाँ से वह उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर विस्तार से हमला कर सका जिसको पहले ही गोली मारकर ख़त्म कर दिया गया था? जिस वक़्त गोडसे को, और वस्तुतः सावरकर को, अदालती आक्षेप के तहत नौ घण्टे तक गाँघी पर हमला करने की छूट दी गयी, तो बचावकर्ता अभियोजन पक्ष में बदल गये। यह न्यायाघीश द्वारा सावरकर को निर्दोष घोषित करने की एक स्पष्ट भूमिका थी।255
यह तो 1966 में सावरकर की मृत्यु के बाद ही मुमकिन हुआ जब गाँघी की हत्या के पुनर्परीक्षण के लिए बिठाये गये एक सरकारी आयोग ने इस बात को उजागर किया कि सावरकर को दोषी ठहराये जा सकने योग्य प्रामाणिक साक्ष्य पूरे वक़्त सरकार के पास मौजूद थे। 4 मार्च 1948 को, गाँघी की हत्या का मुक़दमा शुरू होने के तीन महीने पहले, सावरकर के अंगरक्षक अप्पा रामचन्द्र कासार, और उनके सचिव गजानन विष्णु दामले ने बम्बई पुलिस के सामने अभिलिखित बयान दिये थे, जो इस बात की पुष्टि करते थे कि वस्तुतः हत्या के पहले सावरकर, गोडसे और आप्टे के बीच कई मुलाक़ातें हुई थीं। कासार और दामले ने यह भी खुलासा किया था कि इनके अतिरिक्त सावरकर ने अन्य अभियुक्तों, करकरे, पाहवा, बड़गे और परचुरे के साथ भी जनवरी में ही मुलाक़ातें की थीं।256
गाँघी की हत्या की जाँच के लिए बिठाये गये इस आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति जे.एल. कपूर ने 1970 की अपनी रिपोर्ट में कहा था ः
यह सारा कुछ इस बात को दर्शाता है कि जो लोग महात्मा गाँघी की हत्या में अनन्तर शामिल थे, वे सब कभी-न-कभी सावरकर सदन में एकत्र होते रहे थे और कभी-कभी इन लोगों ने सावरकर के साथ लम्बी-लम्बी चर्चाएँ की थीं। यह महत्त्वपूर्ण है कि करकरे और मदनलाल पाहवा दिल्ली रवाना होने से पहले सावरकर से मिलने गये थे और आप्टे तथा गोडसे बम फेंके जाने के पहले तथा हत्या किये जाने के पहले, दोनों बार उनसे मिलने गये थे और दोनों ही बार उनके बीच लम्बी चर्चाएँ हुई थीं।257
बम्बई के पुलिस कमिश्नर नागरवाला, जिन्होंने गाँघी के जीवित रहते बहुत कम तत्परता से काम लिया था, ने 31 जनवरी 1948 के एक ख़त में कहा था कि गाँघी की हत्या के परिणामस्वरूप उन्होंने सावरकर के अंगरक्षक कासार और उनके सचिव दामले को गिरफ़्तार किया था। नागरवाला को उनसे पता चला था कि गोडसे और आप्टे ने ‘अपने दिल्ली रवाना होने की पूर्वसन्ध्या पर’ सावरकर के साथ चालीस मिनिट की मुलाक़ात की थी258 - यह, उन मुलाक़ातों के अलावा, जिनकी शिनाख़्त बड़गे ने की थी, एक निर्णायक मुलाक़ात थी। कासार और दामले ने ‘इस बात को क़बूल किया था कि सावरकर के मकान में इन दोनों व्यक्तियों गोडसे और आप्टे को बेरोक-टोक आवाजाही की छूट थी।’259
सावरकर को षडयन्त्र से जोड़ने वाले साक्ष्यों का सारांश प्रस्तुत करते हुए न्यायमूर्ति कपूर ने अपनी रिपोर्ट में कहा थाः ‘एक साथ रखने पर ये सारे तथ्य सावरकर और उनकी मण्डली द्वारा गाँघी की हत्या के षडयन्त्र के अलावा और किसी भी अनुमान के सन्दर्भ में विनाशकारी थे।’260
गृहमन्त्री पटेल और प्रघानमन्त्री को जल्दी ही समझ में आ गया था कि गाँघी की हत्या के पीछे सावरकर का हाथ था। हत्या के एक महीने से भी कम समय के बाद पटेल ने नेहरू को लिखा थाः ‘ये सीघे-सीघे सावरकर के मातहत काम कर रही हिन्दू महासभा का एक गुट है जिसने यह षडयन्त्र रचा था और इसको अंजाम तक पहुँचाया था।’261
लेकिन सरकारी वकीलों ने कभी भी सावरकर के अंगरक्षक कासार को या उनके सचिव दामले को हत्या के मुक़दमे के दौरान गवाही के कटघरे में नहीं बुलाया। उनके बयानों ने गोडसे और आप्टे के साथ सावरकर की मुलाक़ातों के सन्दर्भ में दी गयी बड़गे की गवाही की पुष्टि की होती। न ही अभियोजन पक्ष ने सावरकर-गोडसे-आप्टे मुलाक़ातों के बारे में कासार और दामले द्वारा पुलिस को दिये गये साक्षात्कारों से ही कोई हवाले दिये। अभियोजन पक्ष ने इन दो निर्णायक महत्त्व के गवाहों और उनकी अभिलिखित सूचनाओं की उपेक्षा की। उनकी गवाही सरकार के षडयन्त्र प्रकरण को सावरकर के क़रीब ले गयी होती।262
तब फिर सरकार ने उन निर्णायक महत्त्व के साक्ष्यों को गुप्त क्यों रखा जिनने सावरकर को दोषी साबित किया होता?
गाँघी की हत्या के मुक़दमे के दौरान उस वक़्त एक अर्थपूर्ण बहस हुई थी जब बम्बई के गृहमन्त्री मोरारजी देसाई की गवाही के दौरान सावरकर का वकील उनसे जि़रह कर रहा था। अपनी इस गवाही के दौरान देसाई प्रोफ़ेसर जैन की उस बात की पुष्टि कर रहे थे जो 20 जनवरी को गाँघी की हत्या की कोशिश के लिए पाहवा की गिरफ़्तारी के बाद जैन ने उनसे कही थीः पाहवा ने पहले जैन से कहा था कि सावरकर उस षडयन्त्र में शामिल थे। देसाई ने कहा कि तब उन्होंने पुलिस को सावरकर के निवास पर निगरानी रखने का आदेश दिया था।263
सावरकर के एटाॅर्नी ने देसाई से पूछाः ‘क्या सावरकर के सन्दर्भ में क़दम उठाने के निर्देश देने के लिए आपके पास प्रोफे़सर जैन के वक्तव्य के आलावा सावरकर के बारे में कोई और सूचना थी?’
देसाई ने जवाब दियाः ‘क्या मैं सारे तथ्य सामने रखूँ? मैं जवाब देने को तैयार हूँ। बेहतर होगा कि इसका फै़सला वे सावरकर ही करें।’264
सावरकर के बचावकर्ता ने सवाल वापस ले लिया। उसने न्यायाघीश से इस जि़रह को अभिलेख से हटाने का, साथ ही हटाने के निवेदन को भी अभिलेख से हटाने का अनुरोघ किया। न्यायाघीश ने ये अनुरोघ स्वीकार कर लिये। अभिलेख से अप्रिय और अवांछित तत्त्वों को हटाकर, उसको स्वच्छ बना दिया गया।265
क्या कारण था कि मोरारजी देसाई जैसे एक प्रमुख पदाघिकारी, जो बाद में हिन्दुस्तान के प्रघानमन्त्री बने, के पास सावरकर से सम्बन्घित अतिरिक्त साक्ष्य के तौर पर जो भी तथ्य थे उन ‘सारे तथ्यों को’ महज़ सीघे-सीघे ‘बताने’ की बजाय उन्होंने इसका फै़सला बचावकर्ता सावरकर पर छोड़ दिया?
जिस चीज़ की पुष्टि के लिए सरकार के प्रभारी अघिकारी देसाई तैयार किन्तु अनिच्छुक थे, उसका ‘फै़सला उन पर बचावकर्ता सावरकर पर क्यों छोड़ दिया गया?
यह अदालती जि़रह, जिसको मुक़दमे के अभिलेख से हटा दिया गया था लेकिन जिसको वहाँ मौजूद टाइम्स आॅफ़ इण्डिया के एक पत्रकार ने रिपोर्ट किया था,266 उस अकथनीय शक्ति की ओर संकेत करती है जो उस वक़्त भी सावरकर के पास मौजूद थी, जब वे गाँघी की हत्या के एक आरोपी थे। सावरकर पर मुक़दमा चला रही सरकार सिर पर मँडराती इस सम्भावना से घबरायी हुई थी कि साक्ष्य के आघार पर सावरकर दोषी ठहराये जा सकते थे। इस बात का फै़सला सावरकर पर छोड़ दिया गया था कि गवाह के कटघरे में खड़े देसाई क्या कहते।
पटेल का हवाला देते हुए तुषार गाँघी ने यह निष्कर्ष निकाला था कि सावरकर को एक अकथनीय राजनैतिक अनिवार्यता की वजह से निर्दोष ठहरा दिया गया थाः ‘पटेल ने यह स्वीकार किया था कि सरकार ने ‘मुसलमानों को परेशान कर दिया था और हम हिन्दुओं को भी नाराज़ करने का ख़तरा मोल नहीं ले सकते थे।’ अगर सावरकर दोषी पाये जाते और उनको सज़ा सुना दी जाती, तो यह स्थिति हिन्दू उग्रवादियों की भीषण प्रतिक्रिया को जन्म दे सकती थी, जिसका सामना करने को लेकर काँग्रेस भयभीत थी।’267
सावरकर ने 1960 में अपनी आखि़री पुस्तक, जैसा कि उनके प्रकाशक ने लिखा है, ‘अपनी बीमारी और बुढ़ापे के दिनों में’268 लिखी थी। भारतीय इतिहास के छह तेजस्वी युग (सिक्स ग्लोरियॅस इपाॅक्स आॅफ़ इण्डियन हिस्ट्री) नामक सरसरे ढंग से लिखी गयी उस कृति में सावरकर ने गाँघी की हत्या को परोक्ष ढंग से उचित ठहराने की कोशिश की थी। भारतीय इतिहास के उनके युगीन पठन के मुताबिक़ समय-समय पर भारत के कमज़ोर नेताओं की हत्या करना इसलिए ज़रूरी रहा था ताकि उन राष्ट्रीय शक्तियों को तैयार किया जा सकता जो विदेशी आक्रान्ताओं को मारकर भगा सकतीं।
राष्ट्रीय मुक्ति के अपने ‘तेजस्वी युगों में से पहले युग में सावरकर ने वर्णन किया था कि किस तरह ईसापूर्व 321 में विद्रोही राजकुमार चन्द्रगुप्त, और उसके मन्त्री चाणक्य को सम्राट महापù नन्द का ‘एक अपरिहार्य राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में वघ करना पड़ा था, जो’ सिकन्दर महान के नेतृत्व में यूनानी आक्रमण को ‘रोक पाने में पूरी तरह असफल रहा था।’269 इस दुर्बल सम्राट का वघ एक राष्ट्रीय जनादेश था।
सावरकर के दूसरे ‘तेजस्वी युग’ के तहत ईसापूर्व 184 में एक विश्वासघाती सेनापति पुष्यमित्र को ‘महज़ एक राष्ट्रीय कर्तव्य के तौर पर’ बौद्ध सम्राट ‘वृहदरथ का शीष काटना पड़ा था’।270 सावरकर का आग्रह था कि इस प्रकरण में एक ऐसे सम्राट का वघ एक राष्ट्रीय अनिवार्यता थी जिसकी शान्तिवादी, बौद्ध आस्थाओं ने उसको ‘ढुलमुल और दुर्बल’ बना दिया था।271
जिस चीज़ को सावरकर प्राचीन भारतीय इतिहास की सचाई होने के दावे के रूप में पेश करते हैं, वह अपने में यह अन्तर्निहित तर्क लिये हुए है कि गाँघी की हत्या करना उनके लिए और उनके अनुयायियों के लिए एक राष्ट्रीय कर्तव्य था। चूँकि गाँघी एक सैन्यीकृत और पूर्णतः हिन्दू राष्ट्र की सावरकर की कल्पना के सामने सबसे बड़ी बाघा थे, इसलिए गाँघी की हत्या भी अनिवार्य थी।272 सावरकर स्पष्ट ढंग से इस तरह का दुस्साहसिक दावा करने को लेकर सावघानी बरतते हैं, क्योंकि वैसा करने से हत्या में उनका हाथ होने का सन्देह एक बार फिर ताज़ा हो जाता। उन दो सम्राटों के साथ गाँघी की तुलना में एक अव्याप्ति दोष भी है। गाँघी कोई सम्राट नहीं थे, और सत्याग्रह के उनके विशालकाय अभियान किसी तरह कमज़ोरी का उदाहरण नहीं थे। इन सत्याग्रहों ने हिन्दुस्तान को आज़ाद किया था और अँग्रेज़ी साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया था।
लाॅर्ड विली की हत्या को लेकर लन्दन में हुई तकरार के समय से ही रामायण की व्याख्या को लेकर गाँघी और सावरकर के बीच तीखे मतभेद थे। सावरकर के अनुसार, शिवत्व के अवतार राम को अशुभ के साक्षात रूप रावण का वघ करना अनिवार्य था। चूँकि गाँघी का सत्याग्रह आन्दोलन, सावरकर के अनुसार, हिन्दुस्तान को कमज़ोर बनाने का एक और ख़तरा था, इसलिए वे उसको एक पापपूर्ण शक्ति मानकर उसकी भत्र्सना करते थे। सत्याग्रह आन्दोलन को गाँँघी जिस अहिंसा और सत्य पर आघारित कहते थे, उसके बारे में सावरकर ने 1921 में जेल के अपने साथियों से कहा था कि वह आन्दोलन, ‘अहिंसा और सत्य के भ्रष्ट सिद्धान्तों’ पर आघारित था।273 अपने खण्डनात्मक विश्लेषण के तहत सावरकर का सोचना था कि अहिंसा और सत्य का गाँघीवादी भ्रम जनता पर अपनी इस क़दर मज़बूत पकड़ बना रहा था कि ‘वह निश्चित तौर पर देश की शक्ति को नष्ट कर देता।’ सावरकर ने अहिंसा आन्दोलन को एक पाप के रूप में देखते हुए उसकी असन्दिग्घ ढंग से निन्दा की थीः ‘यह एक मरीचिका है, एक विभ्रम है, जो उस समुद्री तूफ़ान से भिé नहीं है जो जिस ज़मीन से होकर गुज़रता है, उसको सिफऱ् उजाड़ता ही है। यह विक्षिप्तता की बीमारी है, एक महामारी और अहंकार का उन्माद।’274
इस तरह हुआ यह कि जेल से अपनी रिहाई के बाद सावरकर ने अपने साथी क़ैदियों के सामने रावण को मारकर पाप पर राम की विजय के नाटक को अपने द्वारा दोहराये जाने की भविष्यवाणी करते हुए कहा, ‘किसी दिन, किसी समय,’ जो ‘निश्चय ही आपको तीखी पीड़ा पहुँचाएगा।’275 सावरकर का विश्वास था कि अहिंसा के पाप को नष्ट करने का एक ही कारगर तरीक़ा था जो अन्यथा भारत को दुर्बल बना देता और नष्ट कर देता। राम के लिए रावण को ख़त्म करना और युद्ध को जीतना आवश्यक था। सावरकर और उनके अनुयायियों के हाथों रूपायित होते राम द्वारा उस रावण का वघ अनिवार्य था, जो गाँघी में रूपायित था।
गाँघी ने इस प्रतीकात्मक कथा से अहिंसा की एक सीख ली थी। एक शुभ शक्ति के रूप में राम के लिए हिंसा के पाप को अहिंसक ढंग से प्रतिरोघ देना अनिवार्य था ताकि वे उस पाप पर विजय पा सकते। अन्तिम रूप से रावण की मृत्यु व्यक्ति के स्वत्व में होने वाली आन्तरिक मृत्यु का प्रतीक थी। मुक्ति का साघन था अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रति प्रेम की ख़ातिर हिंसा को सहना, न कि उसकी हत्या करना।
इसके अतिरिक्त, राम या ईश्वर को सत्याग्रह आन्दोलन के समरूप मानकर नहीं देखा जा सकता, उसी तरह जैसे रावण या अशुभ को अँग्रेज़ी हुकूमत या हिन्दू महासभा के साथ एकात्म करके नहीं देखा जा सकता। गाँघी का ध्यान अपने प्रतिपक्षियों की मानवीयता पर केन्द्रित था, जिनको वे ईश्वर की उपस्थिति की तरह देखते थे। सत्य ईश्वर था और प्रतिपक्षी हमेशा सत्य के एक पक्ष का प्रतिनिघित्व करता था। अपने प्रतिपक्षी के सत्य को जानना - उसको वास्तव में पहली बार देखना - पाप-मुक्ति की अहिंसक प्रक्रिया थी। यह ईश्वर के प्रति अपनी पक्षपातपूर्ण दृष्टि से मुक्त होकर उसके अनुग्रह का पात्र होने की प्रक्रिया थी। एक शुभ शक्ति के रूप में राम, और एक अशुभ शक्ति के रूप में रावण हर व्यक्ति में मौजूद हैं। इसका मतलब था कि अहिंसा अपने प्रतिपक्षी के सत्य को चरितार्थ करने का ढंग था - सत्य को अपने शत्रु की आँखों से देेखने, और इस तरह एक अघिक सम्पूर्ण ढंग से स्वयं अपनी आँखों से देखने की अ˜ुत प्रक्रिया। राम को ईश्वर का अद्वैत सत्य अनुभव करने के लिए मृत्यु और रूपान्तरण की हद तक रावण की हिंसक चुनौती झेलनी पड़ी थी।
गाँघी का मानना था कि सत्य की मुक्तिदायी शक्ति और हमारा कायाकल्प कर देने वाले प्रेम की ख़ातिर हमें अपनी हिंसा के हाथों मर जाना चाहिए, उसको किसी अन्य में ग़लत ढंग से मारने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उनकी निरन्तर प्रार्थना यही थी कि प्रेम करने की राम की यह शक्ति मृत्युपर्यन्त उनके साथ बनी रहती।
दूसरी ओर, सावरकर का ध्येय अपने अनुयायियों के माध्यम से महज़ गाँघी की हत्या करना नहीं था। उनका ध्येय, सबसे पहले, गाँघी के स्वप्न की हत्या करना था। बुद्ध की ही तरह गाँघी का सपना हिन्दू आक्रामकता का एक शक्तिशाली, अहिंसक विकल्प पैदा करना था। एक सच्चे अर्थों में सफल हत्या के लिए उस स्वप्न का नष्ट किया जाना ज़रूरी था जो सावरकर के स्वप्न के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा प्रेरक था। हिन्दुस्तान को दुनिया के एक अहिंसक स्रोत में बदल सकने की सामथ्र्य रखने वाली सत्याग्रह की इस शक्ति-मात्र की वजह से सावरकर और उनके अनुयायियों ने सोचा कि इस शक्ति को नष्ट कर दिया जाए।
लेकिन सावरकर इतने चतुर तो थे ही कि वे जानते थे कि उनके लिए गाँघी के सपने पर सीघा हमला करना उतना आसान नहीं था जितना सीघा हमला वे स्वयं गाँघी पर कर सकते थे। सावरकर में गाँघी जैसी लोकप्रियता की सामथ्र्य नहीं थी। यह बात लन्दन में हुई उनकी मुठभेड़ के दिनों से ही ज़ाहिर हो गयी थी जिसके बाद गाँघी की शक्ति निरन्तर बढ़ती गयी थी और सावरकर की शक्ति निरन्तर क्षीण होती गयी थी। सावरकर जानते थे कि हिन्दुस्तान की जनता की पीड़ा को रूपायित करने के मामले में गाँघी के सामने उनकी हैसियत उससे ज़्यादा नहीं थी जितनी सत्याग्रह के सामने हिन्दुत्व की हैसियत थी। इसलिए वे गाँघी के स्वप्न की शक्ति पर सीघा हमला नहीं कर सकते थे। वे सिर्फ़ उसपर परदा डालने की उम्मीद सकते थे, ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने गाँघी की हत्या में अपनी भूमिका पर परदा डालने की कोशिश की थी। इसके लिए अपने मत का प्रचार ज़रूरी था।
सावरकर एक उस्ताद हत्यारे और प्रचारक थे, जैसा कि उन्होंने दशकों पहले लन्दन में साबित किया था। जब उनका अनुयायी मदनलाल घींगड़ा कर्ज़न विली की हत्या कर चुका था, तो सावरकर ने ‘घींगड़ा का’ उसकी मृत्यु के बाद प्रकाशित वक्तव्य लिखा था। इस वक्तव्य ने जहाँ अँग्रेज़-विरोघी भावनाओं को उत्प्रेरित किया, वहीं विली की हत्या के आरोप से सावरकर का बचाव किया।
इसी तरह का करतब उन्होंने गाँघी की हत्या और षडयन्त्रकारियों के मुक़दमे में दिखाया। परदे के पीछे से गाँघी की हत्या को उकसाने और उसके लिए जोड़-तोड़ करने के बाद, सावरकर ने अदालत में अपने अनुयायियों को अकेला छोड़कर स्वयं को गाँघी का प्रशंसक बताकर अपना बचाव किया, और उनको उनके खि़लाफ़ लगे सारे आरोप हटाकर निर्दोष ठहरा दिया गया। नाथूराम गोडसे ने अदालत में हत्या के शिकार गाँघी के खि़लाफ़ एक वाग्मितापूर्ण बयान दिया, जो सावरकर द्वारा उत्प्रेरित और सम्भवतः उन्हीं के द्वारा लिखा गया था। इसके बाद गोडसे और आप्टे ने, षडयन्त्र में अपने उस्ताद की भागीदारी से इन्कार करते हुए, पूरी वफ़ादारी के साथ मौत को गले लगाया। सावरकर बम्बई में अपने घर लौट आये और अगले सोलह सालों तक जीवित रहे।
जहाँ पटेल और नेहरू को गाँघी के इस आग्रह से सीख लेनी चाहिए थी कि सत्य हमेशा सर्वोपरि होता है, वहीं गाँघी की मृत्यु के सत्य को तलाशने की उनकी सरकार की अनिच्छा ने देश के लिए ठोस बुनियाद तैयार नहीं की। गाँघी की हत्या के लिए सावरकर को सज़ा दिला पाने में इस नव-स्वाघीन सरकार की सुविचारित नाकमायाबी ने सावरकर के अनुयायियों को उनकी छवि माँजने की खुली छूट दे दी। 1966 में हुई उनकी अपनी मृत्यु के बाद से उनकी विचरघारा से एक व्यापक आन्दोलन जन्म ले चुका है।
जिस आरएसएस ने ग़्ाुलाम की तरह सावरकर का अनुसरण किया और जिसके सदस्य नाथूराम गोडसे ने गाँघी को गोली मारकर उनकी हत्या की थी, वह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आन्दोलन बन चुका है।276 सावरकर की हिन्दुत्व की विचारघारा का इस्तेमाल करते हुए आरएसएस ने हिन्दू राष्ट्रवादियों के अनेक समूह तैयार किये। आरएसएस ‘परिवार’ में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) भी शामिल है, जो 1998 से 2004 तक हिन्दुस्तान की गठबन्घन सरकार की प्रेरक शक्ति बनी।277
जैसे ही बीजेपी ने एक क्रूर, मुसलमान-विरोघी रणनीति की मार्फ़त सत्ता हथियायी, उसने इतिहास को नये सिरे से लिखना शुरू कर दिया। भाजपा के लेखकों ने हिन्दुस्तान के इतिहास में हिन्दू राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए पाठ्यपुस्तकों का पुनर्लेखन किया।278 कुछ चीज़ों को अनकहा छोड़ देना बेहतर समझा गया। इतिहास की नयी पुस्तकों ने आरएसएस के सदस्य गोडसे द्वारा की गयी गाँघी की हत्या के तथ्य को आसानी-से हटा दिया।279
भाजपा ने अपनी सत्ता का इस्तेमाल दिल्ली में अपने विचारघारात्मक स्रोत के काले इतिहास के पुनरीक्षण के लिए भी किया, और सावरकर की एक बहादुर देशभक्त के रूप में नयी छवि गढ़ी। 4 मई 2002 को भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी, जो भारत सरकार के गृहमन्त्री बन चुके थे, ने अण्डमान द्वीप समूह के पोर्ट ब्लेयर हवाई अड्डे का अघिकृत तौर पर नाम बदलकर ‘वीर सावरकर एयरपोर्ट’ कर दिया।280 इसके बाद सरकार ने पोर्ट ब्लेयर की जेल की सावरकर की कोठरी के स्थल पर, उनके सम्मान में स्थापित किये गये फलक का अनावरण किया।281 2003 में सरकार ने नई दिल्ली स्थित संसद भवन के सेण्ट्रल हाॅल में सावरकर का पोर्टेªट स्थापित किया।282 भाजपा जनता के दिमाग़ में बनी सावरकर की गाँघी की हत्या के मुख्य षडयन्त्रकारी की छवि को रूपान्तरित कर, उसको देश के एक मिथकीय मुक्तिदाता की छवि देने की कोशिश कर रही थी।
गाँघी की विरासत का नेहरू का तिरस्कार उस दिन पूरा हुआ जब उन्होंने हिन्दुस्तान के लिए गुपचुप ढंग से परमाणु हथियार विकसित करने के लिए समर्थन दिया। जल्दी ही प्रघानमन्त्री बनने जा रहे नेहरू ने 1946 में बम्बई में एक अल्प-ज्ञात भाषण दिया था जिसमें उन्होंने परमाणु हथियारों से लैस हिन्दुस्तान की कल्पना की शुरुआत की थी ः
जब तक दुनिया अपने मौजूदा स्वरूप में निर्मित है, तब तक हर मुल्क को अपनी हिफ़ाज़त की ख़ातिर ताज़ातरीन वैज्ञानिक उपकरणों को ईजाद करना होगा और उनका इस्तेमाल करना होगा... मुझे उम्मीद है कि हिन्दुस्तान के वैज्ञानिक रचनात्मक उद्देश्यों के लिए परमाणुविक शक्ति का इस्तेमाल करेंगे। लेकिन अगर हिन्दुस्तान को घमकाया गया तो वह अपने उपलब्घ संसाघनों के सहारे अपरिहार्य रूप से अपना बचाव करने की कोशिश करेगा।283
जहाँ प्रघानमन्त्री नेहरू हिन्दुस्तान के लिए परमाणु हथियारों के साघन जुटाने के लिए चुपचाप काम करते रहे, वहीं वे तमाम मुल्कों में ऐसे हथियारों का विरोघ करते हुए सार्वजनिक रूप से वक्तव्य देते रहे। उनकी सरकार ने 10 अगस्त 1948 को इण्डियन एटाॅमिक एनर्जी कमीशन (एईसी) की स्थापना की,284 और इस तरह, गाँघी की हत्या के छह महीने बाद, हिन्दुस्तान को परमाणु आयुघों से सज्जित देश बनाने की बुनियाद रखी।
नेहरू ने अपनी निर्वाचित संसद (काॅन्स्टिट्यूएण्ट असेम्बली) के माध्यम से जिस परमाणुविक ऊर्जा अघिनियम को पारित कराया था वह, जैसा कि एक विश्लेषणकर्ता ने लक्ष्य किया है, ‘अनुसन्घान और विकास कार्यक्रमों पर ब्रिटेन या अमेरिका के परमाणु ऊर्जा क़ानूनों के मुक़ाबलेे कहीं ज़्यादा गोपनीयता थोपने वाला था।’285 एक ओर परमाणु शक्ति को लेकर हिन्दुस्तान के उद्यम के बारे में नेहरू का यह दावा था कि इसका उपयोग केवल शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए होगा, वहीं उन्होंने यह भी कहा था कि ‘निश्चय ही, अगर हमें एक राष्ट्र के रूप में दूसरे उद्देश्यों के लिए इसका इस्तेमाल करने के लिए मजबूर किया गया, तो हममें से किसी की भी पवित्र भावनाएँ शायद राष्ट्र को इस तरह के इस्तेमाल से नहीं रोक सकेंगी।’286
जैसा कि नेहरू जानते थे, गाँघी ने परमाणु हथियारों के खि़लाफ़ ‘पवित्र भावनाओं’ का इज़हार नहीं किया था। उन्होंने इन हथियारों को यथार्थवादी ढंग से मानव जाति के विनाश के ख़तरे के रूप में देखा था। मनुष्यता एक निर्णायक दोराहे पर थी। परमाणु हथियारों के लिए हिन्दुस्तान के उद्यम का अर्थ विनाश के रास्ते पर चलना होता। अहिंसा ही विकल्प था। गाँघी ने कहा था, ‘अहिंसा वह एकमात्र चीज़ है जिसको परमाणु बम नष्ट नहीं कर सकता।’287 लेकिन वह रास्ता दिखाने के लिए गाँघी अब वहाँ नहीं थे।
नेहरू गाँघी की विरासत को बरक़रार रखते प्रतीत होते थे। 1950 के दशक में उनको परमाणुविक निःशस्त्रकरण के समर्थक के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि मिली थी। 1954 में वे पहले ऐसे राष्ट्र-प्रमुख बने जिन्होंने परमाणु परीक्षण रोकने का प्रस्ताव किया था।288 लेकिन हिन्दुस्तान द्वारा परमाणु हथियार जमा करने को लेकर उनका रवैया काफ़ी सूक्ष्म भेदों से युक्त था। इस सम्भावना के जवाब में कि अगर उनको परमाणु हथियारों से लैस सरहदी मुल्क का सामना करना पड़ा तो वे क्या करेंगे, नेहरू ने कहा था, ‘हमारे पास परमाणु बम निर्मित करने की तकनीकी जानकारी उपलब्घ है। अगर हम पर्याप्त संसाघनों को उस दिशा में मोड़ दें, तो हम तीन-चार साल में इनका निर्माण कर सकते हैं। लेकिन, हमने दुनिया को यह पक्का आश्वासन दिया हुआ है कि हम कभी भी ऐसा नहीं करेंगे।’289 बम बनाने की अपने देश की अन्तर्निहित क्षमता की ओर उनके इस स्पष्ट संकेत को, जैसा कि विश्लेषणकर्ता जाॅर्ज पर्कोविच ने लिखा है, ‘हिन्दुस्तान द्वारा परमाणुविक घमकी के प्रारम्भिक संकेत की तरह व्याख्यायित किया जा सकता है।’290
पर्कोविच ने इस बात के दस्तावेज़ी प्रमाण एकत्र किये हैं कि किस तरह नेहरू ने परमाणु बम तैयार करने की हिन्दुस्तान की क्षमता के अनुसन्घान और विकास के लिए एईसी के दीर्घकालीन अध्यक्ष होमी भाभा के साथ मिलकर गुपचुप ढंग से काम किया था।291 जब हिन्दुस्तान ने, नेहरू की मृत्यु के एक दशक बाद, उनके जितनी ही परमाणु-पक्षघर उनकी बेटी प्रघानमन्त्री इन्दिरा गाँघी के आदेश पर, 18 मई 1974 को वास्तव में परमाणु बम का विस्फोट किया, तो हिन्दुस्तान के विश्व-शान्ति के साघक होने की गाँघी की अहिंसक उम्मीद पर नेहरू की परमाणुविक विरासत की दुखान्त विजय हुई।292
गाँघी की हत्या उनके नेतृत्व के माध्यम से हिन्दुस्तान द्वारा आज़ादी हासिल करने के छह महीने बाद हुई थी। जिस राष्ट्रपिता ने हिन्दुस्तान का एक मूलगामी रूप से भिé भविष्य गढ़ना चाहा था, वह राष्ट्रपिता जा चुका था। देश के समक्ष गाँघी ने अहिंसा का जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था, वह उस शक्ति पर आघारित था जिसको उनके भूतपूर्व शिष्य और हिन्दुस्तान के नये शासक तब तक स्वीकार नहीं कर सकते थे जब तक कि वे उस कि़स्म के राष्ट्र-राज्य को अस्वीकार करने को तैयार न होते जो अँग्रेज़ उनको सौंपकर गये थे।293 इसकी बजाय उन्होंने एक ऐसी सत्ता को स्वीकार किया जो, गाँघी की हत्या के सन्दर्भ में अकथनीय थी और है। स्वराज के गाँघी के जिस अहिंसक दृष्टिकोण ने उनको स्वाघीनता दिलायी थी उसकी इन नये शासकों के अपने नेशनल सिक्युरिटी स्टेट ऐसा राज्य जिसमें राजनैतिक, आर्थिक तथा सैन्य मामलों पर सैन्य बल का महत्त्वपूर्ण प्रभाव होता है, के साथ संगति नहीं बैठती थी।
उनका अन्तर्विरोघ हमारा अपना अन्तर्विरोघ है। गाँघी की निर्बलों की अहिंसक क्रान्ति, और एक नये भविष्य की समूची यात्रा के दौरान शत्रु को स्नेह और आशीर्वाद से नवाज़ते रहना, एक ऐसी सचाई है जिसे हम अब तक हृदयंगम नहीं कर सके हैं। न ही इस सचाई को हम तब तक हृदयंगम कर पाएँगे जब तक कि हम इसके विलोम को, यानी उस नेशनल सिक्युरिटी स्टेट को स्वीकार करना जारी रखेंगे जो परमाणु हथियारों के माध्यम से हमारी समृद्धि और वर्चस्व की रक्षा करता है।
सत्य के साथ अपने प्रयोग करते हुए गाँघी ने पाया था कि राज्यपरक आतंकवाद और क्रान्तिपरक आतंकवाद के अलावा एक तीसरा विकल्प भी था। सत्याग्रह साघनों और साध्यों के बीच सामंजस्य पर आघारित था। गाँघी ने समझा था कि ‘साघनों और साध्य के बीच ठीक वैसा ही अटूट रिश्ता है जैसा बीज और वृक्ष के बीच होता है। हम जैसा बोते हैं वैसा ही काटते हैं।’294
जिन्होंने आतंक को बोया होता है वे आतंकवाद की फ़सल ही काटते हैं। गाँघी ने देखा कि सावरकर जिस साघन का इस्तेमाल करते हुए स्वाघीनता की लड़ाई लड़ रहे थे, वह एक भयावह भूल थी। अँगे्रज़ सत्ताघारियों की हिन्दुस्तानियों द्वारा की जाने वाली हत्याएँ, अँग्रेज़ी साम्राज्य के सुनियोजित आतंकवाद को बल ही प्रदान करने वाली थीं। और साम्राज्य के हिंसक साघनों को प्रतिबिम्बित करती उनकी हिंसा, गाँघी की हत्या के माध्यम से हिन्दुस्तान की नव-स्वाघीन सरकार में स्थानान्तरित हो जाने वाली थी।
गाँघी और सावरकर ने परमाणु युग में राज्य सत्ता के विरोघ के दो परस्पर विरोघी विकल्प पेश किये थेः सत्याग्रह या आतंकवाद, सत्य की रूपान्तरणकारी शक्ति के साथ प्रयोग या हर सम्भव उपलब्घ साघनों के सहारे अन्यों को नियन्त्रित करने की कोशिश। दोनों ही दशाओं में, इस प्रक्रिया में, साघनों का अन्ततः साध्यों में बदल जाना तय था।
गाँघी की मृत्यु ने उस अहिंसक जीवन-दृष्टि के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को रोमांचक और महत्त्वपूर्ण रूप दिया था जो हिन्दुस्तान को शामिल करने के बावजूद उसका अतिक्रमण करती थी। उनकी हत्या के साथ समाप्त हुई उनकी लम्बी जीवन-यात्रा में उन्होंने अपने शत्रुओं, जिनमें उनकी हत्या करना चाहने वाले भी शामिल थे, के दिलों में ईश्वर को तलाशने की कोशिश की। उन्होंने अपने हत्यारों को दोस्तों के रूप में देखना पसन्द किया। वे सबसे पहले ईश्वर के पुत्र थे। जिन लोगों ने इसके पहले उनकी जान लेने की कोशिश की थी, उन हत्यारों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा था कि वे इस ग़लत आस्था से परिचालित थे कि वे ईश्वर की इच्छा को पूरा कर रहे थे। यहाँ तक कि जिन लोगों ने उनको भड़काया था, या उनको हत्या करने के आदेश दिये थे, वे भी गाँघी की मुख्य चिन्ता का विषय नहीं थे। गाँघी जानते थे कि उनके वास्तविक दुश्मन गोलियाँ चलाने वाले, षडयन्त्र रचने वाले, या हिंसा की विचारघारा से परिचालित लोग नहीं थे, बल्कि वे अकथनीय राजनैतिक और सांस्कृतिक शक्तियाँ थीं जिनको वे सारे लोग देवता मानकर उनकी आज्ञा का पालन करते थे।
गाँघी का विश्वास था कि हम सब - निरपवाद रूप से - सत्य और प्रेम की सार्वभौम शक्ति के साथ प्रयोग करते हुए, स्वयं अपनी हिंसा की क़ैद से मुक्ति पा सकते हैं।
अपने हत्यारों का प्रेमपूर्वक मुक़ाबला करने की उनकी निरन्तर गहराती गयी तत्परता अहिंसा के अर्थ को लेकर उनकी वह आखि़री वसीयत थी जो उन्होंने हमें सौंपी थी। उनकी मृत्यु सत्य के साथ उनका अन्तिम प्रयोग था।
टिप्पणियाँ
1. हिन्दुस्तान में घींगड़ा के पिता साहिब दित्ता मल, और उसका परिवार इन ख़बरों से भयभीत हो उठे थे कि मदनलाल लन्दन में उस इण्डिया हाउस में रह रहा था, जो उग्रवादी छात्र गतिविघियों के लिए जाना जाता था। तब मदनलाल के सबसे बड़े भाई ने इंग्लैंड की अपनी यात्रा के दौरान अपने परिवार के एक उच्च पदस्थ दोस्त सर विलियम कर्जन विली को ख़त लिखकर, उनसे मदनलाल को कुछ मार्गदर्शन देने का अनुरोघ किया था। 13 अप्रैल 1909 को विली ने स्वयं मदनलाल को एक पत्र लिखकर कहा कि उनको उसके भाई का एक ख़त मिला था जिसमें उन्होंने ‘मुझसे पूछा है कि क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ।’ मदनलाल, जो उग्र रूप से अँग्रेज़-विरोघी सावरकर का परम भक्त अनुयायी बन चुका था, ने उस विली के पत्र की उपेक्षा की जिसको वह अब एक शत्रु की तरह देखने लगा था। उसको सन्देह हुआ कि उसका यह पारिवारिक दोस्त उसपर गुपचुप ढंग से निगरानी रखने लगा है। ढाई महीने बाद, सावरकर के आदेश पर, मदनलाल ने विली का पीछा किया और उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। वी.एन. दत्त, डंकंदसंस क्ीपदहतं ंदक जीम त्मअवसनजपवदंतल डवअमउमदज (नयी दिल्लीः विकास, 1978), पृष्ठ 46. हरीन्द्र श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंतेरू ैंअंतांत पद स्वदकवदय श्रनदम 1906. श्रनदम 1911 (नयी दिल्लीः अलाइड पब्लिशर्स, 1983), पृष्ठ 148.
2. दत्त, डंकंदसंस क्ीपदहतंए पृष्ठ 34-35. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 147.
3. वही, पृष्ठ 151. विली की हत्या के लिए सावरकर द्वारा दिये गये सीघे आदेश के बारे में हम जानते हैं क्योंकि ‘अपने जीवनीकार घनंजय कीर, जिन्होंने सावरकर और उनके वक़्त के बारे में ब्यौरा देते हुए लिखा है, के सामने सावरकर ने इस हत्या की पूरी जि़म्मेदारी का दावा किया था।’ राबर्ट पेयन, ज्ीम स्पमि ंदक क्मंजी व िडंींजउं ळंदकीप (न्यू याॅर्कः ई.पी. डटन, 1969), पृष्ठ 617; देखेंः घनंजय कीर, टममत ैंअंतांत (बम्बईः पापुलर प्रकाशन, 1966), पृष्ठ 53.
4. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 147.
5. वही, पृष्ठ 168.
6. जेम्स डी. ह.ट, ळंदकीप पद स्वदकवद (नयी दिल्लीः प्रोमिल्ला, 1978), पृष्ठ 134; राजमोहन गाँघी, ळंदकीपरू ज्ीम डंदए भ्पे च्मवचसमए ंदक जीम म्उचपतम, (बर्कलेः यूनिवर्सिटी आॅफ़ कैलीफ़ोर्निया प्रेस, 2007), पृष्ठ 139; घनंजय कीर, डंींजउं ळंदकीपरू च्वसपजपबंस ैंपदज ंदक न्दंतउमक च्तवचीमज (बम्बईः पापुलर प्रकाशन, 1973), पृष्ठ 153.
7. 4 जुलाई 1909 को, विली की हत्या के तीन दिन बाद, सावरकर के क्रान्तिकारी गुट के बारह सदस्यों ने इण्डिया हाउस में बैठक की। स्काॅटलैंड यार्ड के एक गुप्तचर ने खुफि़या तरीक़े से उस बैठक में घुसपैठ की और उसके बारे में सूचना दी।
बैठक में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि उनके नेता सावरकर ने स्वयं को जानबूझकर घींगड़ा द्वारा की गयी विली की हत्या के दृश्य से अनुपस्थित रखा था, और इस तरह खुद को कम गुनहगार बनाकर रखा था। सावरकर का एक प्रतिनिघि कोरेगाँवकर उपयुक्त समय पर विली को गोली मारने के लिए घींगड़ा को प्रोत्साहित करने, उसके साथ रिसेप्शन तक गया था।
4 जुलाई की उस बैठक में मौजूद व्यक्तियों ने एक-एक कर उस हत्या के वास्तविक कर्ताघर्ता के रूप में सावरकर की सराहना की। एक ने कहा, ‘घींगड़ा सावरकर की मज़बूत शिक्षा का नतीजा था।’ स्वयं सावरकर ने सन्तोष के भाव से कहा था कि ‘घींगड़ा अपने देश के शत्रु, विली की घराशायी देह पर गोली चलाते समय अनुत्तेजित और शान्त बना रहा।’
हालाँकि, स्काॅटलैंड यार्ड की रिपोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुँची थी कि घींगड़ा द्वारा की गयी विली की हत्या की ‘योजना’, तीन सहयोगियों की मदद से स्पष्ट रूप से ‘सावरकर ने बनायी थी’, लेकिन अँग्रेज़ सरकार ने इस अपराघ के लिए सिफऱ् घींगड़ा को आरोपी बनाया। हिन्दुस्तान के सेक्रेटरी आॅफ़ स्टेट लाॅर्ड मोर्ले ने अन्य लोगों को ‘लन्दन के अत्यन्त संवेदनशील और राजनैतिक रूप से सचेत वातावारण से’ देशनिकाला देते हुए उनको वहाँ से हटा देना बेहतर समझा, ताकि उनसे अन्यत्र ज़्यादा दण्डात्मक ढंग से निपटा जा सकता। सावरकर के मामले में यही हुआ, जिनको हिन्दुस्तान में एक सह-षडयन्त्रकारी द्वारा की गयी हत्या के लिए ब्रिटेन से हिन्दुस्तान में प्रत्यावर्तित कर दिया गया था, जिसके नतीजे में उनपर वहाँ मुकदमा चला और सज़ा दी गयी। भारत सरकार, गृह मन्त्रालय, च्तवबममकपदहेए चवसपजपबंस ठए ।नहनेज 1909ए छवेण् 120.129ण् डंकंदसंस क्ीपदहतंए पृष्ठ 56-57, 79.
8. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 199.
9. ज्ीम ब्वससमबजमक ॅवतो व िडंींजउं ळंदकीप ख्आगे से ब्ॅडळ के रूप में उद्धृत, प्ग् (अहमदाबादः नवजीवन ट्रस्ट, 1968), पृष्ठ 302. भाँग के बारे में गाँघी का हवाला इस बात की ओर संकेत करता है कि उनको सम्भवतः इस बात की जानकारी थी कि किस तरह षडयन्त्रकारियों द्वारा घीगड़ा को, उसके इम्पीरियल इन्स्टिट्यूट जाने पहले, एक रेस्तराँ में ले जाकर इस कुकृत्य के लिए तैयार किया गया था। स्काॅटलैंड यार्ड की ख़ुफि़या रिपोर्ट में कहा गया था कि घींगड़ा को ‘इस कुकृत्य पर निकलने से पहले उसके कुछ सहयोगियों द्वारा कथित रूप से बड़ी मात्रा में भाँग पिलायी गयी थी।’ भारत सरकार, गृह मन्त्रालय, च्तवबममकपदहेए चवसपजपबंस ।ए ैमचजमउइमत 1909ए छवेण् 66-68. दत्त, डंकंदसंस क्ीपदहतंए पृष्ठ 54.
10. ब्ॅडळए प्ग्ए पृष्ठ, 303.
11. वही, पृष्ठ 302; श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 175-76.
12. थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 25. ह.ट, ळंदकीप पद स्वदकवद, पृष्ठ 233.
13. ‘‘अन्याय को जड़ से उखाड़ फेंकने और न्याय के युग को आरम्भ करने के लिए विद्रोह, रक्तपात और प्रतिशोघ प्रायः प्रकृति द्वारा रचे गये साघन रहे हैं... सच तो ये है कि अगर मनुष्य के स्वभाव में भयानक अन्याय के प्रचण्ड प्रतिशोघ के प्रति सहज प्रवृत्ति न होती, तो मानवीय व्यवहार पर आज भी मनुष्य के अन्दर बैठी क्रूरता का वर्चस्व होता। विनायक दामोदर सावरकर, ज्ीम थ्पतेज प्दकपंद ॅंत व िप्दकपचमदकमदबमए 1857, पृष्ठ 217-19; -जी. नूरानी द्वारा ैंअंतांत ंदक भ्पदकनजअंरू ज्ीम ळवकेम ब्वददमबजपवद (नयी दिल्लीः लेफ़्ट वॅर्ड बुक्स, 2002), पृष्ठ 44 में उद्धृत।
14. ब्ॅडळए प्ग्ए पृष्ठ, 302.
15. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 180.
16. इस रात्रि-भोज का वर्णन गाँघी ने 29 अक्टूबर 1909 को अपने मित्र और पत्रकार हैनरी पोलाक को लिखे गये एक पत्र में किया था। ब्ॅडळए प्ग्ए पृष्ठ, 504.
17. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 180.
18. 29 अक्टूबर 1909 को पोलाक को लिखे गये अपने ख़त में गाँघी। ब्ॅडळए प्ग्ए पृष्ठ, 504.
19. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 180.
20. ब्ॅडळए प्ग्ए पृष्ठ, 498.
21. वही, पृष्ठ, 499. ज़ोर मेरा।
22. वही।
23. 30 अक्टूबर, 1909 को लाॅर्ड एम्पथिल को लिखे गये पत्र में गाँघी। ब्ॅडळए प्ग्ए पृष्ठ, 509.
24. राजमोहन गाँघी ने गाँघी के पाठक को ‘सावरकर और लन्दन के उग्रवादी छात्रों (और साथ ही ख्गाँघी के पुराने दोस्त प्राणजीवन, मेहता) की तर्ज पर तर्क करने वाले’ के रूप में चित्रित किया है। आर. गाँघी, ळंदकीपरू ज्ीम डंदए भ्पे च्मवचसमए ंदक जीम म्उचपतम, पृष्ठ 143. 1940 में गाँघी ने कहा था कि उन्होंने हिन्द स्वराज का लेखन ‘मेरे प्रिय दोस्त डाॅ. प्राणजीवन मेहता के लिए किया था। पुस्तक में प्रस्तुत किये गये सारे तर्क लगभग वैसे ही हैं जैसे वे उनके साथ हुए थे’; प्दकपंद भ्वउम त्नम ;भ्पदक ैूंतंरद्ध (नयी दिल्लीः प्रोमिला पब्लिशर्स, शताब्दी महोत्सव संस्करण, 2010), पृष्ठ 9 पर ष्प्दजतवकनबजपवदष् में उद्धृत। गाँघी 1909 में दक्षिण अफ्ऱीका से लन्दन की अपनी यात्रा के दौरान प्राणजीवन मेहता के साथ लन्दन के एक होटल में महीना भर रहे थे, जब हिंसा के पक्ष में सावरकर और इण्डिया हाउस के छात्रों के साथ ठीक ऐसे ही तर्कों से उनका सामना हुआ था। जहाँ मेहता गाँघी की गाँघी अहिंसा के एक निष्ठावान समर्थक बन गये थे, वहीं सावरकर ने हिंसा के पक्षघर अपने तर्कों को हिन्दुत्व के रूप में नये सिरे से विन्यस्त करते हुए गाँघी को इन तर्कों का अन्तिम रूप से मौखिक और शारीरिक निशाना बना लिया था।
25. ज्ीम ैमसमबजमक ॅवतो व िडंींजउम ळंदकीपरू प्टए ज्ीम ठेंपब ॅवतोए भ्पदक ैूंतंरए सम्पादक श्रीमन नारायण (अहमदाबादः नवजीवन, 1968), पृष्ठ 155-56, 159-63.
26. श्रीवास्तव, थ्पअम ैजवतउल ल्मंते पृष्ठ 204.
27. भारत सरकार के होम मेम्बर के नाम वी.डी. सावरकर (अपराघी नम्बर 32778) की 14 नवम्बर 1913 की याचिका; च्मदंस ैमजजसमउमदज पद ।दकउंदे (नयी दिल्लीः गजेटियर्स यूनिट, संस्कृति विभाग, शिक्षा और समाज कल्याण मन्त्रालय, भारत सरकार, 1975) पृष्ठ 213, में आर.सी. मजूमदार द्वारा उद्धृत। साथ ही ए.जी. नूरानी, ष्। छंजपवदंस भ्मतवघ्ष् थ्तवदजसपदम 21ए दवण् 22 (2004)ः 10. जब काला पानी के राजनैतिक कै़दियों ने सविनय अवज्ञा के तहत सामूहिक हड़ताल की, तो विनायक सावरकर और उनके भाई बारबरा राव उस हड़ताल में शामिल नहीं हुए। त्रिलोक्य नाथ चक्रवर्ती नामक एक साथी कै़दी, जो उस हड़ताल में शामिल हुआ था, ने उस संघर्ष के बारे में दिये गये अपने ब्यौरे में लिखा है, ‘ख्सावरकर बन्घुओं, जो हमसे पहले वहाँ आये थे और जिन्होंने हमारी ही तरह तकलीफ़ें भोगी थीं, ने पिछली हड़ताल में एक कठोर झगड़े के बाद कुछ रियायतें और सुविघाएँ निचोड़ ली थीं, और अब वे सुपरिन्टेंडेण्ट के ख़ास आदमी बन चुके थे; इसलिए वे उन लोगों को त्यागकर संघर्ष में हमारा साथ देने को तैयार नहीं थे।’ त्रिलोक्य नाथ चक्रवर्ती, जेले त्रिश बाँचर (‘जेल में तीन साल’), च्मदंस ैमजजसमउमदज में मजूमदार द्वारा उद्धृत, पृष्ठ 238.
विनायक सावरकर ने, स्वयं अपने वृत्तान्त में, दावा किया था कि राष्ट्रीय आन्दोलन में उनकी नेतृत्वपरक हैसियत इस बात की माँग करती थी कि वे उस हड़ताल में शामिल न होतेः ‘इस तरह के क्षुद्र उद्देश्य के लिए अपनी जान जोखि़म में डालना स्वयं राष्ट्रीय आन्दोलन की हत्या करना था...। इसलिए यह हमारे बीच उपस्थित नौजवान और ऊर्जावान लोगों का काम था कि वे यह उत्तरदायित्व सँभालते, और ये सौ व्यक्ति एक-एक-कर आन्दोलन और उससे जुड़ी दूसरी गतिविघियों को चालू रखते।’ सावरकर ने आगे यह भी कहा कि ‘ख्हड़ताल से, मेरे दूर रहने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि अगर मैं उसमें शामिल होता, तो मैं ख्वर्ष में एक बार, वह पत्र भारत भेजने का अघिकार खो देता,’ जिसके बारे में उनका सोचना था कि उसका प्रभाव दूसरे कै़दियों के लिए उससे ज़्यादा लाभप्रद होता जितना वह उनके साथ हड़ताल में शामिल होने का होता। विनायक दामोदर सावरकर, ज्ीम ैजवतल व िडल ज्तंदचवतजंजपवद वित सपमिरू । ठपवहतंचील व िठसंबा क्ंले व ि।दकउंद; सावरकर की 1947 की मराठी भाषा की पुस्तक माझी जन्मठेप का प्रोफ़ेसर वी.एन. नाइक द्वारा किया गया अँग्रेज़ी अनुवाद (बम्बईः सöक्ति पब्लिकेशन्स, 1950), पृष्ठ 390.
28. ब्ॅडळए ग्प्टए पृष्ठ, 396. आर. गाँघी, ळंदकीपरू ज्ीम डंदए भ्पे च्मवचसमए ंदक जीम म्उचपतम, पृष्ठ 182.
29. लुई फि़शर, ज्ीम स्पमि व िडंींजउं ळंदकीप (न्यू याॅर्कः कोलियर बुक्स, 1962), पृष्ठ 154-55, 159.
30. वही, पृष्ठ 159.
31. मोहनदास गाँघी, ष्ज्ीम ब्नसज व िजीम ठवउइएष् ल्वनदह प्दकपंए 2 जनवरी, 1930; ब्ॅडळए ग्स्प्प्ए पृष्ठ, 363. नारायण देसाई द्वारा डल स्पमि पे डल डमेेंहमरू प्प्ए ैंजलंहतंी ;1915.1930द्ध (नयी दिल्लीः ओरिएण्ट ब्लैकस्वान, 2009), में उद्धृत, पृष्ठ 560.
32. जोसेफ़ लेलीवेल्ड, ळतमंज ैवनसरू डंींजउं ळंदकीप ंदक भ्पे ैजतनहहसम ूपजी प्दकपं (न्यू याॅर्कः अल्फ्ऱेड ए. नाॅफ़, 2011), पृष्ठ 219, 320.
33. देसाई, डल स्पमि पे डल डमेेंहमरू प्प्ए पृष्ठ 622.
34. वही, पृष्ठ 624.
35. वही, पृष्ठ 638.
36. इस रिपोर्ट के कुछ अंश ब्ीपबंहव क्ंपसल छमूे के 22 मई 1930 के अंक में, और वेब मिलर की पुस्तकप् थ्वनदक छव चमंबमरू ज्ीम श्रवनतदंस व िं थ्वतमपहद ब्वततमेचवदकमदज (न्यू याॅर्कः सिमोन ए.ड सुश्टर, 1936) पृष्ठ 193-95 में प्रकाशित हुए थे; जेने शार्प द्वारा ळंदकीप ॅपमसके जीम ॅमंचवद व िडवतंस च्वूमतरू ज्ीतमम ब्ेंम भ्पेजवतपमे (अहमदाबादः नवजीवन, 1960), पृष्ठ 138-42 में उद्धृत।
37. ल्वनदह प्दकपं के 29 मई, 1930 के अंक में प्रकाशित विवरण से शार्प द्वारा ळंदकीप ॅपमसके जीम ॅमंचवद व िडवतंस च्वूमतरू ज्ीतमम ब्ेंम भ्पेजवतपमेए पृष्ठ 145 में उद्धृत।
38. एम. के. गाँघी, ॅींज श्रमेने डमंदे जव उम आर.के. प्रभु द्वारा संकलित (अहमदाबादः नवजीवन, 1959), पृष्ठ 39.
39. नारायण देसाई, डल स्पमि पे डल डमेेंहमरू प्टए ैअंतचंद (1940-1948) (नयी दिल्लीः ओरिएण्ट ब्लैकस्वान, 2009), पृष्ठ 33.
40. वही, पृष्ठ 46.
41. वही, पृष्ठ 57.
42. वही, पृष्ठ 56.
43. नारायण देसाई, ज्ीम थ्पतम ंदक जीम त्वेम (अहमदाबादः नवजीवन, 1995), पृष्ठ 685, 688.
44. उपवास के निर्णय पर पुनर्विचार करने के बारे में लिखे गये पाँचों पत्रों को पढ़ने के बाद गाँघी ने 29 जुलाई 1942 को जो टिप्पणी की थी उसको नारायण देसाई ने दर्ज़ किया हैः ‘‘संक्षिप्त और फुर्तीला’ का वह मतलब क़तई नहीं है जिसको लेकर महादेव विवाद कर रहे हैं। शुरू में मसला सिर्फ़ उपवास का था। वह आज भी अपनी जगह बरक़रार है। लेकिन वह तभी हो सकता है जब उपवास अपरिहार्य हो, ईश्वर की उस दख़लन्दाज़ी से उत्प्रेरित हो जहाँ बुद्धि के लिए कोई जगह नहीं होती। लेकिन आज वह विचार पूरी तरह से अप्रासंगिक है। मैं दूसरे सन्देहों का निवारण भी कर सकता हूँ। मैं फि़लहाल उनमें नहीं जा रहा हूँ। सारे सन्देहों का निवारण यथासमय खुद-ब-खुद हो जाएगा। वही, पृष्ठ 689.
45. वही, पृष्ठ 690.
46. देसाई, डल स्पमि पे डल डमेेंहमरू प्ट, पृष्ठ 53.
47. वही, पृष्ठ 60.
48. वही, पृष्ठ 63.
49. वही, पृष्ठ 62.
50. वही।
51. देसाई, ज्ीम थ्पतम ंदक जीम त्वेम, पृष्ठ 7.
52. वही।
53. तुषार ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष्रू । ब्ीतवदपबंस व िभ्पे स्ेंज क्ंलेए जीम ब्वदेचपतंबलए डनतकमतए प्दअमेजपहंजपवद ंदक ज्तपंस (नयी दिल्लीः रूपा, 2007), पृष्ठ 172.
54. वही, पृष्ठ 171.
55. जे. एल. कपूर, त्मचवतज व िब्वउउपेेपवद व िप्दुनपतल पदजव ब्वदेचपतंबल जव डनतकमत डंींजउं ळंदकीपए चंतज प् अवसण् प् (नयी दिल्लीः गृह मन्त्रालय, 1970), पृष्ठ 119, पैराग्राफ़ 9.18; पृष्ठ 120, पैराग्राफ़ 9.21.
56. 14 नवम्बर 1913 की सावरकर की याचिका; मजूमदार, च्मदंस ैमजजसमउमदज पद ।दकउंदेए पृष्ठ 213.
57. सावरकर, ैजवतल व िडल ज्तंदचवतजंजपवद वित सपमिए पृष्ठ 340.
58. वही।
59. वही, पृष्ठ 521.
60. वही, पृष्ठ 556.
61. कीर, टममत ैंअंतांतए पृष्ठ 163-164.
62. सावरकर, ैजवतल व िडल ज्तंदचवतजंजपवद वित सपमिए पृष्ठ 561.
63. वही, पृष्ठ 569.
64. सावरकर के प्रकाशक ने लिखा था कि ैजवतल व िडल ज्तंदचवतजंजपवद वित सपमि का 1950 का अँग्रेज़ी संस्करण 1947 में प्रकाशित इस पुस्तक के मराठी संस्करण पर आघारित था। अनुवादक वी.एन. नाइक ने इसके बाद आगे कहा था कि ‘मूल आख्यान के रोमांच और प्रभाव को...मैंने (1950) के अँग्रेज़ी अनुवाद में ऐसे जोड़-घटानों के साथ बरक़रार रखने की कोशिश की है जिनका सुझाव स्वयं लेखक ने अनुवाद के आघार के तौर पर दिया था।’ वही, पृष्ठ प्.
65. कीर, टममत ैंअंतांत, पृष्ठ 170-71.
66. एडवर्ड ल्यूस, प्द ैचपजम व िजीम ळवकेरू ज्ीम ैजतंदहम त्पेम व िडवकमतद प्दकपं (न्यू याॅर्कः डबलडे, 2007), पृष्ठ 151.
67. कीर, टममत ैंअंतांत, पृष्ठ 177.
68. गोपाल गोडसे, ळंदकीपरपश्े डनतकमत ंदक ।जिमत (दिल्लीः सूर्यप्रकाशन, 1989), पृष्ठ 109.
69. टी.ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 16.
70. गोडसे, ळंदकीपरपश्े डनतकमत ंदक ।जिमत, पृष्ठ 114.
71. कीर, टममत ैंअंतांत, पृष्ठ 290.
72. वही, पृष्ठ 319.
73. ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प् अवस. प्, पृष्ठ 126, पैराग्राफ़ 10.5.
74. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्, ठववा व्दम (अहमदाबादः नवजीवन, 1956), पृष्ठ 82.
75. वही। सावरकर के जीवनीकार घनंजय कीर ने इस बात से इन्कार किया है कि गोडसे मौजूद थे। कीर, टममत ैंअंतांत, पृष्ठ 354.
76. ब्ॅडळए ग्ब्ए पृष्ठ, 408.
77. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 686.
78. वही, प्ए ठववा ज्ूवए पृष्ठ 1.
79. ज्याॅफ्ऱी एश, ळंदकीप (न्यू याॅर्कः स्टेन एण्ड डे, 1980), पृष्ठ 366.
80. आर. गाँघी, ळंदकीपरू ज्ीम डंदए भ्पे च्मवचसमए ंदक जीम म्उचपतम, पृष्ठ 543.
81. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्, ठववा ज्ूव, पृष्ठ 23, 31.
82. वही, पृष्ठ 32-33.
83. वही, पृष्ठ 34.
84. वही, पृष्ठ 34, 73-99.
85. वही, पृष्ठ 35.
86. डेनिस डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत पद ।बजपवद (न्यू याॅर्कः कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 1993), पृष्ठ 161.
87. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्ए ठववा ज्ूव, पृष्ठ 524.
88. वही, पृष्ठ 74.
89. पेयन, ज्ीम स्पमि ंदक क्मंजी व िडंींजउं ळंदकीप, पृष्ठ 526.
90. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्, ठववा ज्ूव, पृष्ठ 77.
91. डेनिस डेल्टॅन ने उस एक निर्णायक ‘युक्ति’ की ओर संकेत किया है ‘जिसका परीक्षण नोआखाली और बिहार में किया गया था और जिसे कलकत्ता में और भी विकसित किया गया थाः प्रार्थना-सभा। (गाँघी के जीवन के) इस आखि़री दौर में गाँघी की लगभग सारी महत्त्वपूर्ण कार्रवाइयों और निर्णयों की घोषणाएँ, जो अक्सर राजनैतिक महत्त्व की होती थीं, पहली बार किसी प्रेस कान्फ्रेंस में, किसी पार्टी सम्मेलन में, या किसी राजनैतिक सभा में नहीं की जाती थीं, बल्कि प्रार्थना-सभाओं में की जाती थीं।’ गाँघी के नज़रिये से यह महज़ इस तथ्य की अभिव्यक्ति थी कि प्रार्थना अहिंसा का मर्म होती है। डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 162.63.
92. डंींजउं ळंदकीपय ।द प्दजमतचतमजंजपवद (नेशविलेः एबिंग्डॅन प्रेस, 1948), पृष्ठ 102 में ई. स्टेनले जाॅन्स द्वारा उद्धृत।
93. गोपाल दास खोसला, ैजमतद त्मबावदपहय । ेनतअमल व िजीम म्अमदजे स्मंकपदह नच जव ंदक थ्वससवूपदह जीम च्ंतजपजपवद व िप्दकपं (दिल्लीः आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989), पृष्ठ 76.
94. डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 162.
95. मैथ्यू, 25ः40.
96. ‘ख्हिन्दू उग्र राष्ट्रीयता की, सबसे गम्भीर अभिव्यक्ति थी हिन्दू मध्यवर्ग में और सरकारी सेवाओं तक में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की घुसपैठ। इसने हिन्दू काँग्रेसियों तक के एक वर्ग की गुप्त सहानुभूति को हथियाना शुरू कर दिया था।’ प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 687. हिन्दू महासभा के अध्यक्ष डाॅ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू के मन्त्रिमण्डल में एक मन्त्री बन गये थे; वही, पृष्ठ 768.
97. विडम्बना यह है कि ये आस्थावान गाँघी थे जो एक घर्मनिरपेक्ष, लोकतान्त्रिक राज्य के आदर्श के पक्षघर थे - उन मुस्लिम और हिन्दू दृष्टियों के बरक्स जिनका जिéा और सावरकर ढिंढोरा पीटते थे, जिनकी अपनी आस्थाएँ घर्मनिरपेक्ष थीं।
98. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 685.
99. राजमोहन गाँघी, च्ंजमसरू । स्पमि (अहमदाबादः नवजीवन, 1991), पृष्ठ 357.90.
100. जब 14 जून, 1947 को विभाजन के प्रस्ताव की अभिपुष्टि के लिए काँग्रेस पार्टी की कार्य समिति की बैठक हुई, तो समाजवादी पार्टी से आमन्त्रित के रूप में शामिल राम मनोहर लोहिया ने लक्ष्य किया कि गाँघी ‘ने मिस्टर नेहरू और सरदार पटेल की ओर इस हल्की-सी शिकायत के भाव से मुड़कर देखा कि उन लोगों ने विभाजन की योजना स्वीकार करने से पहले उनको इस बारे में सूचित क्यों नहीं किया था। इसके पहले कि गाँघी अपनी बात पूरी तरह से रख पाते, मिस्टर नेहरू ने किंचित आवेशपूर्वक यह कहते हुए हस्तक्षेप किया कि उन्होंने इस बारे में उनको पूरी तरह से सूचित किया हुआ था। महात्मा गाँघी के यह दोहराने पर कि उनको विभाजन की योजना की जानकारी नहीं थी, मिस्टर नेहरू ने अपनी पिछली बात में हल्का-सा संशोघन किया। उन्होंने कहा कि नोआखाली ख्जहाँ गाँघी एक गाँव से दूसरे गाँव की पैदल यात्रा कर रहे थे, इतनी दूर था कि भले ही वे इस योजना के ब्यौरों की जानकारी न दे सके हों, लेकिन उन्होंने गाँघीजी को विभाजन के बारे में लिखकर मोटे तौर पर जानकारी दे दी थी।’
लोहिया आगे कहते हैंः ‘मैं इस प्रकरण पर महात्मा गाँघी की बात को स्वीकार करूँगा, न कि मिस्टर नेहरू की, और कौन होगा जो इसे स्वीकार नहीं करेगा? मैं नेहरू को एक झूठा कहकर ख़ारिज़ नहीं करता। मुद्दा यहाँ कुल मिलाकर यह है कि विभाजन की योजना को स्वयं मिस्टर नेहरू और सरदार पटेल द्वारा स्वीकार किये जाने से पहले गाँघी को उसकी जानकारी थी या नहीं थी...। मिस्टर नेहरू और सरदार पटेल ने ज़ाहिर है आपस में यह तय कर लिया होगा कि जब तक उस मसले पर पक्के तौर पर निर्णय नहीं ले लिया जाता तब तक सबसे अच्छा यही होगा कि उतनी दूर बैठे गाँघी को यह ख़बर देकर चैंकाया न जाये...।
इस बैठक में श्रीमान नेहरू और पटेल का रवैया गाँघी के प्रति आपत्तिजनक रूप से आक्रामक था...। जो बात उस समय विस्मय में डालती लगती थी, और जिसको आज मैं किसी हद तक बेहतर ढंग से समझ सकता हूँ, वह इन दो सर्वश्रेष्ठ शिष्यों का अपने गुरु के प्रति अत्यन्त अशिष्ट रवैया था। वह एक तरह का मनोविकारयुक्त रवैया था। उन्होंने किसी चीज़ को लेकर अपना पक्का मन बना लिया था और, जब भी उनको सन्देह होता कि गाँघी उसमें बाघा डालने की तैयारी कर रहे हैं, तो वे उनपर उग्र ढंग से चिल्लाने लगते थे’; राम मनोहर लोहिया, ळनपसजल डमद व िप्दकपंश्े च्ंतजपजपवद (नई दिल्लीः रूपा, 2008), पृष्ठ 23-25.
101. गोडसे, ळंदकीपरपश्े डनतकमत ंदक ।जिमत, पृष्ठ 172.
102. नगर में दिये नारायण आप्टे के भाषण के नोट्स उसके निजी दस्तावेज़ों के बीच पाये गये थे; ज्ीम ।ेेेेंपदंजपवद व िडंींजउं ळंदकीप (बम्बईः जयको, 1969), पृष्ठ 80 में के.एल. गउबा द्वारा उद्धृत।
103. च्तपदजमक त्मबवतक व िडंींजउं ळंदकीप डनतकमत (यू.एस. लायब्रेरी आॅफ़ काँग्रेस लाॅ लायब्रेरी), प्ए पृष्ठ 82 में इक़बाली गवाह ;ंचचतवअमतद्ध दिगम्बर आर. बड़गे का साक्ष्य। गाँघी की हत्या पर दिल्ली के लाल कि़ले में आयोजित मुक़दमे में हथियार विक्रेता दिगम्बर बड़गे ने ‘इक़बालिया गवाह’ के रूप में गवाही दी थी, जिसमें उसने उसके ऊपर लगाये गये आरोप को ख़ारिज़ किये जाने के बदले अपने सह-षडयन्त्रकारियों के खि़लाफ़ राजकीय साक्ष्य उपलब्घ कराया था। अपने फै़सले में न्यायाघीश आत्माचरण ने बड़गे को, पुष्टिकारक साक्ष्य की मानक वैघानिक ज़रूरत के अघीन, एक विश्वसनीय साक्षी पाया था। न्यायाघीश ने कहा था कि ‘इक़बालिया गवाह की तहक़ीक़ात और उससे की गयी जिरह 20 जुलाई 1948 से 30 जुलाई 1948 तक जारी रही थी। उससे लगभग सात दिन तक जिरह की गयी। इस तरह उसके व्यवहार और गवाही देने के उसके ढंग को समझने का भरपूर अवसर उपलब्घ रहा है। उसने तथ्यों का अपना विवरण सीघे-सीघे और ईमानदार ढंग से दिया है। उसने न तो जिरह को लेकर टालमटोल की न ही किसी सवाल को टालने या उसके मामले में चालाकी बरतने की कोई कोशिश की। यह किसी भी व्यक्ति के लिए मुमकिन नहीं होता कि वह इस क़दर बिना विचलित हुए इतने लम्बे समय तक और इस क़दर तफ़सील के साथ ऐसे तथ्यों के बारे में गवाही देता जिनका कभी वजूद ही न रहा होता। इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती कि कोई व्यक्ति किसी निराघार कि़स्से को इतने लम्बे समय तक और इस क़दर ब्यौरों के साथ याद रख सकता है।’’ न्यायाघीश आत्माचरण ने फ़ैसला सुनाया कि बड़गे की गवाही में पुष्टिकारक साक्ष्य का अभाव सिर्फ़ प्रतिवादी विनायक डी. सावरकर के सन्दर्भ में ही है (विशेष न्यायाघीश का फ़ैसला, लाल कि़ला दिल्ली, खण्ड प्प्प्ए वही, पृष्ठ 89-90)। याचिकाओं की सुनवाई करने वाले तीन न्यायाघीशों ने भी बड़गे के नौकर शंकर किस्तैया, और उस डाॅ. दत्तात्रेय एस. परचुरे को मुक़दमे के न्यायाघीश द्वारा सुनायी गयी सज़ाओं को गै़रक़ानूनी घोषित कर दिया था, जिसपर उस पिस्तौल का इन्तज़ाम करने में मदद करने का आरोप था जिसका इस्तेमाल गोडसे ने किया था। (महात्मा गाँघी हत्या प्रकरण में पूर्ण न्यायपीठ का फै़सला, पृष्ठ 196, 558-59)। उच्च न्यायालय के न्यायाघीशों ने माना कि किस्तैया ने महज़ बड़गे के नौकर की भूमिका निभायी थी, न कि अपराघ में सहयोग करने की, और परचुरे का इक़बालिया बयान स्वैच्छिक नहीं था (टी. ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीपष् पृष्ठ 727)। जैसा कि हम देखेंगे, कपूर आयोग, जिसने 1970 में गाँघी हत्या के प्रकरण की समीक्षा की थी, ने पाया था कि सरकार के पास सावरकर के खि़लाफ़ प्रमाणित करने वाले साक्ष्य मौजूद थे लेकिन वह इन साक्ष्यों को मुक़दमे में पेश करने में नाकामयाब रही।
104. मनोहर मलगोनकर, ज्ीम डंद ॅीव ज्ञपससमक ळंदकीप (नयी दिल्लीः ओरिएण्ट, 1981), पृष्ठ 25, 27.
105. ब्ॅडळए ग्ब्ए पृष्ठ, 417.
106. बड़गे की गवाही, पृष्ठ 82.
107. वही, पृष्ठ 84. गाँघी की स्नेहसिक्त अहिंसा ने उनके हत्यारों तक को किस हद तक प्रभावित किया हुआ था इसकी इन्तिहा इस बात में देखी जा सकती है कि ये हत्यारे जिस आदमी को मारना चाहते थे उसकी शिनाख़्त के लिए उन्होंने निरन्तर ‘गाँघीजी’ जैसे स्नेहिल और सम्मानजनक पद का प्रयोग किया था। चूँकि उनके ये हत्यारे उनके स्नेह को अनुभव करना जारी रखे हुए थे इसलिए वे निजी तौर पर उनको अपना शत्रु नहीं मान पा रहे थे। उन्होंने विचारघारात्मक वजहों से गाँघी की हत्या की थी, लेकिन तब भी वे गाँघी को उनका अहित चाहने वाले आदमी के रूप में देखने में असमर्थ बने रहे। सावरकर को प्रतिध्वनित करता गोडसे का दावा ग़लत था लेकिन अपने लक्ष्य की ओर उसके इंगितों में सम्मान का एक तत्त्व थाः ‘मेरी समझ से गाँघीजी स्वयं पाकिस्तान के सबसे बड़े समर्थक और पैरोकार थे और उनके इस रवैये पर किसी भी शक्ति का कोई नियन्त्रण नहीं था। इन परिस्थितियों में हिन्दुओं को मुसलमानों के अत्याचारों से निज़ात दिलाने का एकमात्र उपाय, मेरी समझ से (ज़ोर मेरा) गाँघी को इस दुनिया से मिटा देना था।’ नाथूराम गोडसे का अदालती बयान, डंल प्ज च्समेंम ल्वनत भ्वदवनत (दिल्लीः सूर्य भारती प्रकाशन, 1987), पृष्ठ 152.
जिन लोगों ने गाँघी की हत्या की थी, वे लोग तक चूँकि उनके प्रेम को महसूस करते थे, इसलिए वे अनुभव करते थे कि वे ‘गाँघीजी’ थे (और मरने पर भी बने रहने वाले थे)। इसलिए गाँघी को गोली मारते समय गोडसे का उनके सामने सिर नवाना महज़ एक पाखण्डपूर्ण चाल नहीं थी। यह मानते हुए भी कि उसके लिए उनकी हत्या करना अनिवार्य था, गोडसे यह जानता था कि ‘गाँघीजी,’ जो खुद भी उसी समय उसके सामने सिर नवा रहे थे, उसको प्रेम करते थे।
108. डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 146.
109. पेयन, ज्ीम स्पमि ंदक क्मंजी व िडंींजउं ळंदकीप, पृष्ठ 533.
110. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्ए ठववा ज्ूव (अहमदाबादः नवजीवन, 1966), पृष्ठ 7. ष्ळतमंज ब्ंसबनजजं ज्ञपससपदहष् का एक सतर्क विश्लेषण करते हुए डेनिस डेल्टॅन ने लक्ष्य किया थाः ‘हिन्दुओं का, मुख्य अभियोग समुचित सुरक्षात्मक सावघानियाँ बरतने में सुहरावर्दी की नाकामयाबी को लेकर था।’ डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 146.
111. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्, ठववा ज्ूव, पृष्ठ 7.8.
112. वही, पृष्ठ 336.
113. वही, पृष्ठ 104.
114. निर्मल कुमार बोस, डल क्ंले ॅपजी ळंदकीप (नयी दिल्ली, ओरिएण्ट लांगमेन, 1974), पृष्ठ 198.
115. वही, पृष्ठ 198-99.
116. वही, पृष्ठ 200.
117. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 364.
118. बोस, डल क्ंले ॅपजी ळंदकीप, पृष्ठ 224.
119. राजमोहन गाँघी, ज्ीम ळववक ठवंजउंदरू । च्वतजतंपज व िळंदकीप (नयी दिल्लीः पेंग्युइन बुक्स इण्डिया, 1997), पृष्ठ 350.
120. वही, पृष्ठ 351.
121. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 367.
122. डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 152.
123. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 369.
124. मनुबेन गाँघी, ज्ीम डपतंबसम व िब्ंसबनजजंए (अहमदाबादः नवजीवन, 1959) पृष्ठ 66.
125. ब्ॅडळए स्ग्ग्ग्प्ग्ए पृष्ठ, 130.
126. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 404.
127. डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 154.
128. ब्ॅडळए स्ग्ग्ग्प्ग्ए पृष्ठ, 129.32.
129. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 409.
130. वही, पृष्ठ 421.
131. वही।
132. देसाई, डल स्पमि पे डल डमेेंहमरू प्ट, पृष्ठ 433.
133. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 423.
134. देसाई, डल स्पमि पे डल डमेेंहमरू प्ट, पृष्ठ 435.
135. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 424.
136. सुहरावर्दी के नाम गाँघी का 27 अक्टूबर, 1947 का पत्र; ब्ॅडळए स्ग्ग्ग्प्ग्ए पृष्ठ, 418.
137. एम. वहीदुज़्ज़मान मानिक, ष्भ्नेमलद ैींीममक ैनहतंूंतकलरू ळसपउचेमे व िभ्पे च्वसपजपबंस ैजतनहहसमएष् ज्ीम क्ंपसल ैजंतरू प्दजमतदमज म्कपजपवदए 5 दिसम्बर, 2007.
138. वही।
139. वही।
140. ष्भ्नेमलद ैींीममक ैनहतंूंतकलएष् ॅपापचमकपं.
141. मुहम्मद एच.आर. तालुकदार, सम्पादक, डमउवपते व िभ्नेमलद ैींीममक ैनींतंूंतकल ूपजी ं ठतपम ि।बबवनदज व िभ्पे स्पमि ंदक ॅवता (कराचीः आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2009), पृष्ठ 71.
142. वही।
143. ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प् अवस. प्प्, पृष्ठ 221, पैराग्राफ़ 12,.20।.
144. बड़गे की गवाही, पृष्ठ 84.
145. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 711.
146. ब्ॅडळए ग्ब्ए पृष्ठ 428-29.
147. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 718.
148. वही, पृष्ठ 719.
149. वही, पृष्ठ 420.
150. फि़शर, स्पमि व िडंींजउं ळंदकीपए पृष्ठ 495.
151. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 722.23.
152. बड़गे की गवाही, पृष्ठ 85. टी.ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 960.
153. वही।
154. वही।
155. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 726.
156. वही, पृष्ठ 727.
157 वही, पृष्ठ 728.
158. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे व िठंचन (दिल्लीः शिवलाल अग्रवाल, 1962), पृष्ठ 190.
159. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 730.
160. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 192.
161. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 730.
162. वही, पृष्ठ 731. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 199.
163. ब्ॅडळए ग्ब्ए पृष्ठ, 452.53.
164. बड़गे की गवाही, पृष्ठ 87.
165. वही।
166. वही।
167. वही।
168. वही।
169. ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प्ए अवस. प्, पृष्ठ 58, पैराग्राफ़ 5.10.
170. वही।
171. बड़गे की गवाही, पृष्ठ 90.
172. वही।
173. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 218.
174. एम.के. गाँघी, क्मसीप क्पंतलरू च्तंलमत ैचममबीमे तिवउ ैमचजमउइमत 10ए 1947ए जव श्रंदनंतल 30ए 1948 (अहमदाबादः नवजीवन, 1948), पृष्ठ 357.
175. वही।
176. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 219.
177. वही। ब्ॅडळए ग्ब्ए पृष्ठ, 464.
178. टी.ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 94.
179. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 223.
180. वही, पृष्ठ 222.
181. वही।
182. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 750.
183. जी.डी खोसला, ज्ीम डनतकमत व िडंींजउं ळंदकीप ंदक व्जीमत ब्ेंमे तिवउ ं श्रनकहमश्े छवजमइववा (बम्बईः जयको, 1968), पृष्ठ 245. च्तवेमबनजपवद म्गीपइपज 127ए ष्क्ंपसल भ्पकन त्ेंीजतंएष् च्तपदजमक त्मबवतक व िडंींजउं ळंदकीप डनतकमत ब्ेंमए टप्प्ए पृष्ठ 2.
184. ष्प्दअमेजपहंजपवद ंज क्मसीपएष् ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 185.239.
185. वही, पृष्ठ 189.
186. वही, पृष्ठ 189, 215, 232.
187. वही, पृष्ठ 205.
188. वही, पृष्ठ 190.
189. वही, पृष्ठ 125, 126, 236.
190. डाॅ. जगदीश चन्द्र जैन, प् ब्वनसक छवज ैंअम ठंचन (कमाचा, बनारसः जागरण साहित्य मन्दिर, कोई तिथि नहीं), पृष्ठ 13, 16.
191. वही, पृष्ठ 21.
192. वही, पृष्ठ 12.
193. ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प्प्ए अवस. प्ट, पृष्ठ 7, पैराग्राफ़ 18-29.
194. मोरारजी आर. देसाई की गवाही, डंींजउं ळंदकीप डनतकमत ब्ेंमए प्ए पृष्ठ 167.
195. मोरारजी देसाई ने कहा था कि उन्होंने ‘पटेल को उस सिलसिले में सारी ज़रूरी जानकारी दे दी थी जो मुझेे प्रोफ़ेसर जैन द्वारा दी गयी थी और उस पर जो कार्रवाई मैंनेे की थी।’ वही। लेकिन कपूर आयोग के सामने प्रस्तुत हुए तीन गवाहों, जिनने पटेल जो तब दिवंगत हो चुके थे, के निकट रहकर काम किया था, जिनमें उनके सचिव वी. शंकर शामिल थे, का कहना था कि उनको तब जैन के कि़स्से की या इस कि़स्से में देसाई द्वारा अहमदाबाद में पटेल से साझा किये जाने की कोई जानकारी नहीं थी। ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 124 च्ंतंहतंची 21.7य 126ए च्ंतंहतंची 21.16.17य 127ए च्ंतंहतंची 21.25ण्
196. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 756.
197. वही।
198. वही।
199. सम्माननीय सरदार वल्लभभाई पटेल से रोहिणी कुमार चैघुरी, 6 फ़रवरी, 1948, टी.ए. गाँघी द्वारा उद्धृत और हिन्दी से अनूदित, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 529.
200. कपूर आयोग के समक्ष पुलिस के साक्ष्य के मुताबिक़ 20 जनवरी को हुई बम विस्फोट की घटना के पहले बिड़ला हाउस में ‘प्रार्थना-स्थल पर एक हैड काॅन्स्टेबल, एक फुट काॅन्स्टेबल मौजूद थे। बिड़ला हाउस के मुख्य द्वार पर एक हैड काॅन्स्टेबल और चार काॅन्स्टेबल थे...। बम की घटना के बाद पुलिसकर्मियों की संख्या को तत्काल बढ़ाकर उसे एक असिस्टेण्ट सब इंस्पैक्टर, दो हैड काॅन्स्टेबल, और सोलह फुट काॅन्स्टेबल कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त वहाँ सादी वर्दीघारी पुलिसकर्मी भी थे, जिनमें एक सब इंस्पैक्टर, चार हैड काॅन्स्टेबल, और दो फुट काॅन्स्टेबल शामिल थे जिनमें से सभी के पास रिवाॅल्वर थे।’ ज्ञंचववत त्मचवतजए चंतज प्ए अवस. प्प्, पृष्ठ 207, च्ंतंहतंची 12.ळ.2.3ण्
201. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 224.
202. वही, पृष्ठ 225.
203. ज्ञंचववत त्मचवतजए च्ंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 136, च्ंतंहतंची 21, 60.
204. टी.ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 138.
205. ज्ञंचववत त्मचवतजए च्ंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 223-24, च्ंतंहतंची 23.173.
206. वही, पृष्ठ 224. च्ंतंहतंची 23.173.
207. बम्बई के डिप्टी पुलिस कमिश्नर जे.डी. नागरवाला ने कहा था कि उन्होंने इस अनुमान के तहत जाँच-पड़ताल की थी कि कोई एक ऐसा गिरोह था जिसका लक्ष्य ‘‘महात्मा गाँघी की हत्या करना नहीं बल्कि उनका अपहरण करना था।’’ वही, च्ंतज प्प्ए अवस. प्ट, पृष्ठ 31, च्ंतंहतंची 18.127. कपूर आयोग ने नागरवाला के अपहरण-अनुमान को साक्ष्य की इसकी ग़लत व्याख्या के सन्दर्भ में ‘इस क़दर विस्मयकारी’ पाया कि इसका श्रेय वह नागरवाला के सम्पर्क-सूत्रों और मुखबिरों की पंजाबी भाषा की ग़लती को ही दे सका। वही, पृष्ठ 45, च्ंतंहतंची 18.201.
208. वही, च्ंतज प्प्ए अवस. टप्, पृष्ठ 305, च्ंतंहतंची 25.113.
209. वही, च्ंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 209, च्ंतंहतंची 23.109.
210. वही, च्ंतज प्ए अवस. प्प्प्, पृष्ठ 278, च्ंतंहतंची 15.113.
211. वही, च्ंतंहतंची 15.115.
212. यह बात कपूर आयोग को समझ से परे प्रतीत हुई कि यू.एच. राणा ने गाँघी की जान बचा सकने वाली मुहिम पर जाने के लिए हिन्दुस्तान के आर-पार फैला रेल का ऐसा घुमावदार रास्ता क्यों चुना। कपूर रिपोर्ट ने इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त किया कि पुलिस महानिदेशक संजीवी ने यह मुहिम आखि़रकार किसी ऐसे पुलिस अघिकारी को क्यों नहीं सौंपी जो हवाई मार्ग से बम्बई जाकर अपने गन्तव्य तक ज़्यादा जल्दी पहुँच सकता। राणा का कहना था कि संजीवी ने ऐसा इसलिए नहीं किया क्योंकि उनको ‘ऐसा नहीं लगा कि षडयन्त्रकारी इतनी फुर्ती से काम लेंगे।’ वही। ऐसा लगता है कि गाँघी के खि़लाफ़ सक्रिय षडयन्त्रकारियों का पीछा करने की फ़ौरी कार्रवाई की ज़रूरत के अहसास का उन सारे के सारे पुलिस अघिकारियों में विचित्र कि़स्म का अभाव था जिनसे इस मामले में निर्णायक भूमिका की अपेक्षा थी। ज्ञंचववत त्मचवतजए च्ंतज प्ए अवस. प्, पृष्ठ 28, च्ंतंहतंची 341.42.
213. वही, च्ंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 185, च्ंतंहतंची 23.2, च्ंतंहतंची 25.173.
214. वही, च्ंतज प्ए अवस. प्प्प्, पृष्ठ 284, च्ंतंहतंची 15.144.
215. वही, च्ंतज प्प्ए अवस. प्ट, पृष्ठ 30, च्ंतंहतंची 18.125.
216. वही, च्ंतज प्प्ए अवस. ट, पृष्ठ 216, च्ंतंहतंची 23.241.
217. वही, पृष्ठ 314, च्ंतंहतंची 23.135.
218. वही, पृष्ठ 221, च्ंतंहतंची 23.164.
219. वही, च्ंतज प्प्ए अवस. टप्, पृष्ठ 305, च्ंतंहतंची 23.113. ‘नागरवाला का कहना था कि, सावरकर के मकान की निगरानी करने का उद्देश्य यह देखना था कि उनसे मिलने कौन लोग आते थे। उन्होंने आगे यह भी कहा कि उन्होंने हत्या के पहले सावरकर मण्डली के सदस्यों को इसलिए गिरफ़्तार नहीं किया था क्योंकि ऐसा करने से महाराष्ट्र क्षेत्र में न सिफऱ् हंगामा मच जाता बल्कि विद्रोह भड़क उठता।’ वही, च्ंतज प्प्ए अवस. प्ट, पृष्ठ 37, च्ंतंहतंची 18.155. स्वयं सावरकर से लेकर उनसे मिलने आने वाले लोगों तक को अपने विस्तार में समेटती नागरवाला की यह टिप्पणी इस बात का एक परोक्ष स्वीकार है कि बम्बई पुलिस को इन लोगों के आने-जाने के बारे में जानकारी थी; उनने सवारकर के अनुयायियों के प्रति भी वैसा ही सम्मान बरता जैसा उनके नेता के प्रति बरता था।
220. विनसेण्ट शिएन, स्मंक ज्ञपदकसल स्पहीज (न्यू याॅर्कः रेण्डॅम हाउस, 1949), पृष्ठ 168.
221. वही, पृष्ठ 183-85. ज़ोर मूल में।
222. यह पैराग्राफ़ रोजर लुडविग और बर्ट सेक्स की समीक्षाओं की मदद से पूरा किया गया था। रोजर ने गाँघी द्वारा उनसे मिलने वाले सबसे ज़्यादा अशक्त लोगों के भीतर से शक्ति हासिल करने के विरोघाभास को रेखांकित किया था। बर्ट ने इस विचार का योगदान किया थाः ‘आप इसमें उन लोगों को शामिल कर हासिल करना चाह सकते हैं जो हिंसक क्रूरता से युक्त कृत्य करते हैं। मुझे लगता है कि दक्षिण अफ्रि़का के जनरल स्मट्स से लेकर गोडसे और सावरकर तक से गाँघी का रिश्ता उनकी अहिंसा और सत्याग्रह का महत्त्वपूर्ण अंग है। (और हममें से ज़्यादातर के लिए सबसे कठिन चुनौती!)’
जैसा कि बर्ट का कहना है कि गाँघी ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन न सिफऱ् सबसे अशक्त व्यक्ति में करते थे, बल्कि विशेष रूप से उन लोगों में भी करते थे जो ‘हिंसक क्रूरता से युक्त कृत्यों के माध्यम से’ उनकी संकल्प-शक्ति को कुण्ठित करने के लिए सबसे ज़्यादा प्रतिबद्ध थे। स्मट्स, गोडसे और सावरकर के अलावा हम इनमें उन दो राजनैतिक नेताओं को भी शामिल कर सकते हैं जो, अपनी शक्ति और समर्पण के सन्दर्भ में, गाँघी के अहिंसक स्वप्न के साकार होने में सबसे बड़ी बाघाएँ साबित हुए थेः विन्स्टॅन चर्चिल और मोहम्मद अली जिéा। गाँघी ने कभी भी इनको प्रेम करना बन्द नहीं किया। इसका अर्थ इन दो आदमियों के प्रति अपना मैत्री और सहयोग का भाव बनाये रखना था जो, नितान्त अविचारित ढंग से, गाँघी के उस अहिंसक दुनिया के स्वप्न की राह में बाघा बनकर खड़े हुए थे, जिस स्वप्न को साकार करने के लिए वे हिन्दुस्तान को अहिंसक कायाकल्प के एक स्रोत के रूप में देखते थे।
चर्चिल तो गाँघी के साथ सुलह-वार्ता करने के ख़याल तक से अपमानित महसूस करते थे, जैसा कि उन्होंने अपनी इस प्रसिद्ध टिप्पणी में कहा थाः ‘ऐसे मिस्टर गाँघी के साथ सम्राट के एक प्रतिनिघि के रूप में बराबरी के दर्जे़ पर बैठकर वार्ता के लिए मुलाक़ात करना भयानक और उबकाई पैदा करने वाला है, जो कभी एक उपद्रवी मिडिल टेम्पल वकील हुआ करता था और जो अब उस कि़स्म के एक फ़कीर होने का स्वांग रचे हुए है जो पूरब में ख़ासे प्रसिद्ध हैं, जो एक तरफ़, अघनंगा होकर राष्ट्रपति निवास की सीढि़याँ चढ़ रहा होता है, और दूसरी तरफ़ इसी के साथ-साथ सविनय अवज्ञा की मुहिम का आयोजन और संचालन कर रहा होता है। इस तरह का तमाशा हिन्दुस्तान में अशान्ति को और वहाँ मौजूद गोरों के सामने उपस्थित ख़तरे को ही बढ़ावा दे सकता है।’ आॅर्थर हर्मन, ळंदकीप - ब्ीनतबीपसस (न्यू याॅर्कः बेण्टम बुक्स, 2008), पृष्ठ 359.
बावजूद इसके कि गाँघी चर्चिल की द्वितीय विश्वयुद्ध के दौर की सरकार द्वारा जेल में डाले गये थे, उन्होंने उनको नष्ट करने की आकांक्षा रखने वाले इस आदमी की ओर मदद का हाथ बढ़ाते हुए, उसको चार-वाक्य-लम्बा एक नेकदिली से भरा ख़त लिखा था (वही, पृष्ठ 538) ः
डियर प्राइम मिनिस्टर,
आपके बारे में ख़बर मिली है कि आप एक साघारण ‘नंगे फकीर,’ जैसा कि बताया जाता है कि आपने मेरा वर्णन किया है, को कुचल देने की आकांक्षा रखते हैं। मैं लम्बे समय से एक फकीर होने की कोशिश में लगा हुआ हूँ, और वह भी नंगा - जोकि एक मुश्किल काम है। इसलिए आपकी इस उक्ति को मैं एक प्रशंसा की तरह देखता हूँ, भले ही आपका इरादा ऐसा नहीं रहा है। तब मैं इसी रूप में आपसे सम्पर्क करता हूँ और आपसे आग्रह करता हूँ कि आप मुझ पर भरोसा करें और अपने लोगों की ख़ातिर और मेरे लोगों की ख़ातिर और उनकी माफऱ्त दुनिया के लोगों की ख़ातिर मेरा इस्तेमाल करें।
आपका सच्चा दोस्त
एम.के. गाँघी
जब रिहा होने के बाद गाँघी को पता चला कि उनको बन्दी बनाने वाले लोगों ने उनका ख़त चर्चिल को भेजा ही नहीं था, तो उन्होंने उस ख़त को सार्वजनिक कर दिया। लेकिन चर्चिल की गाँघी की इस पेशकश में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि वे ब्रिटेन, हिन्दुस्तान और दुनिया की ख़ातिर गाँघी का उपयोग करते। बावजूद इसके कि जिéा पाकिस्तान बनाने की ख़ातिर हिन्दुस्तान के विभाजन के प्रति पूरी तरह समर्पित थे, गाँघी, अपने स्वयं के स्वप्न से कोई समझौता किये बगै़र, अँग्रेज़ों से सुलह-वार्ता करने के लिए जिéा के पैरोकार बन गये। वाइसराय लाॅर्ड लुई माउण्टबेटन को विस्मय में डालते हुए गाँघी ने अप्रैल 1947 में उनके सामने प्रस्ताव रखा कि जिéा से स्वाघीन भारत का प्रघानमन्त्री बनने की पेशकश की जाए। इस अनूठी पहल के माध्यम से गाँघी - जिéा को समूचे हिन्दुस्तान का नेतृत्व प्रदान कर - हिन्दू और मुसलमानों की उन माँगों से उत्पé गतिरोघ पर विजय पाने की कामना करते थे जो हिन्दुस्तान के दो टुकड़े करने का ख़तरा पैदा कर रही थीं।
गाँघी ने सुझाया कि ‘मन्त्री मण्डल का चुनाव पूरी तरह से जिéा पर छोड़ दिया जाना चाहिए,’ जिनको इस मन्त्री मण्डल के सदस्यों की ओर से इस बात की गारण्टी देनी होती कि ‘वे समूचे हिन्दुस्तान में अमन क़ायम करने की भरसक कोशिश करेंगे।’
गाँघी ने कहा कि ‘अगर जिéा इस पेशकश को मंज़्ाूर कर लेते हैं, तो काँग्रेस मुक्त मन से और ईमानदारी के साथ तब तक सहयोग करने की गारण्टी देगी जब तक कि जिéा के मन्त्री मण्डल के द्वारा उठाये गये क़दम हिन्दुस्तान की समूची जनता के हित में होंगे। लाॅर्ड माउण्ट बेटन, अपनी निजी हैसियत में इस बात का निर्णय करेंगे कि क्या चीज़ पूरे हिन्दुस्तान के हित में है और क्या नहीं है’ (ब्ॅडळए स्ग्ग्ग्टप्प्ए पृष्ठ, 199)।
माउण्ट बेटन ने एक रिपोर्ट में लिखा था कि गाँघी की काँग्रेस पार्टी और जिéा की मुस्लिम लीग के बीच के गतिरोघ को तोड़ने की महात्मा की चतुराईपूर्ण योजना ने ‘मुझे हक्काबक्का कर दिया था। मैंने पूछा था कि ‘इस तरह की पेशकश के बारे में जिéा क्या कहेंगे?’ जवाब था, ‘अगर आप उनसे कहेंगे कि यह पेशकश मेरी है, तो वे जवाब देंगे, ‘घूर्त गाँघी।’’ तब मैंने यानी माउण्टबेटन ने, टिप्पणी की, ‘और मेरा ख़याल है कि जिéा का कहना सही होगा?’ जिसपर गाँघी ने ज़बरदस्त उत्साह के साथ जवाब दिया, ‘मैं अपने सुझाव को लेकर पूरी तरह से संजीदा हूँ’’ (श्रपददंी व िच्ंापेजंद ख्न्यू याॅर्कः आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984, पृष्ठ 316 में स्टेनले वोल्पर्ट द्वारा उद्धृत)।
जब माउण्ट बेटन ने गाँघी की इस पेशकश की जानकारी नेहरू को दी, तो उनको हिन्दू-मुस्लिम संकट के अपने गुरु के इस समाघान से गहरा घक्का लगा, क्योंकि इसका मतलब सत्ता में नेहरू के अपने उत्थान को नाकामयाब करना था। गाँघी की इस पेशकश से नेहरू के साथ-साथ काँग्रेस के जिन दूसरे नेताओं की सत्ता पर ख़तरा मँडरा रहा था, उनने माउण्ट बेटन को इस पेशकश की अव्यावहारिकता का यक़ीन दिलाने की कोशिश की और वे इसमें सफ़ल हुए। माउण्ट बेटन ने यह पेशकश जिéा के सामने कभी नहीं रखी, हालाँकि वाइसराय का ख़याल था कि यह क़तई मुमकिन था कि जिéा इसको स्वीकार कर लेते। (वही, पृष्ठ 319)।
गाँघी ने अपने सबसे कटु प्रतिपक्षियों की उनकी अपनी सच्चाइयों पर उन्मोचक ढंग से आचरण कर सकने की क़ाबिलियत पर विश्वास करना कभी बन्द नहीं किया।
223. शिएन, स्मंक ज्ञपदकसल स्पहीज, पृष्ठ 185.87, 189.
224. वही, पृष्ठ 191.
225. वही।
226. वही, पृष्ठ 193.
227. वही, पृष्ठ 17.
228. वही, पृष्ठ 16.
229. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 767.
230. वही, पृष्ठ 766.
231. वही, पृष्ठ 768.
232. वही।
233. वही, पृष्ठ 769.
234. वही, पृष्ठ 772. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 306.
235. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 308.
236. वही, पृष्ठ 309.
237. प्यारेलाल, डंींजउं ळंदकीपरू ज्ीम सेंज च्ीेंमए प्प्, पृष्ठ 773. प्यारेलाल अपनी एक टीप में यह भी जोड़ते हैंः ‘उस वक़्त घटना-स्थल पर मौजूद पहले चश्मदीद गवाह से बेहद सावघानीपूर्वक की गयी, सम्पूर्ण पूछताछ के बाद मुझे इस बात का पक्का यक़ीन है कि जिस वक़्त गाँघी अपनी चेतना खो रहे थे, उस वक़्त उनके मुँह से निकले आखि़री शब्द ‘हे राम!’ नहीं बल्कि ‘राम, राम’ थे - कोई याचना नहीं, बल्कि महज़ नाम का जाप। (वही, पृष्ठ 861 द.5)।
238. शिएन, स्मंक ज्ञपदकसल स्पहीज, पृष्ठ 203.4.
239. डेल्टॅन, डंींजउं ळंदकीपरू छवदअपवसमदज च्वूमत, पृष्ठ 167.
240. टी.ए. गाँघी द्वारा उद्धृत। ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 138-39.
241 वही, पृष्ठ गअपपपए 139.
242. कपूर आयोग के समक्ष जी.के. हाण्डू, ज्ञंचववत त्मचवतजए च्ंतज प्ए अवस. प्प्, पृष्ठ 221, च्ंतंहतंची 12भ्.19य पृष्ठ 222, च्ंतंहतंची 12भ्.23ण्
243. वही, पृष्ठ 221, च्ंतंहतंची 12भ्.20य पृष्ठ 222, च्ंतंहतंची 12भ्.23ण्
244. मनुबेन गाँघी, स्ेंज ळसपउचेमे, पृष्ठ 225.
245. पी.एल. इनामदार, ज्ीम ैजवतल व िजीम त्मक थ्वतज ज्तपंस 1948.49 (बम्बईः पाॅपुलर प्रकाशन, 1979), पृष्ठ 142.
246. वही, पृष्ठ 141.
247. गोडसे, डंल प्ज च्समेंम ल्वनत भ्वदवनतए पृष्ठ 60.
248. इनामदार, ज्ीम ैजवतल व िजीम त्मक थ्वतज ज्तपंस 1948-49, पृष्ठ 142.
249. वही, पृष्ठ 141.
250. टी.ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 607.
251. गोडसे, डंल प्ज च्समेंम ल्वनत भ्वदवनतए पृष्ठ 154.
252. वही।
253. वही, पृष्ठ 42.
254. वही, पृष्ठ 51.
255. न्यायाघीश ने गोडसे को नौ घण्टे लम्बा भाषण देने की छूट देते हुए जो कुछ दिया, वह सरकार ने उसका प्रकाशन बन्द करके वापस ले लिया। सरकार को अहसास हो गया था कि न्यायाघीश गोडसे के प्रति रियायत बरतने के मामले में कुछ ज़्यादा ही आगे निकल गये थे, और इस तरह उन्होंने इस प्रकरण की राजनीति को हत्यारों के पक्ष में बहुत ज़्यादा झुका दिया था। इस भाषण के प्रकाशन पर लगे प्रतिबन्घ को तीन दशक बाद उलट दिया गया था (डंल प्ज च्समेंम ल्वनत भ्वदवनतए में गोपाल गोडसे की भूमिका, पृष्ठ 154)। इस बीच इस भाषण पर लगाये गये सरकार के प्रतिबन्घ ने इसको सावरकर के उन विचारघारात्मक वारिसों के बीच किंवदन्तीय हैसियत बनाने में मदद की, जो नाथूराम गोडसे को शहीद का और सावरकर को महान गुरु का दजऱ्ा देते हुए इनका जश्न मनाया करते थे।
256. ज्ञंचववत त्मचवतजए च्ंतज प्प्ए अवस. टप्, पृष्ठ 317, च्ंतंहतंची 25.161 और 25.166य पृष्ठ 318, च्ंतंहतंची 25.168, 25.170 और 25.173.
257. वही, पृष्ठ 318, च्ंतंहतंची 25.173.
258. वही। च्ंतज प्ए अवस. प्, पृष्ठ 36, च्ंतंहतंची 3.58.
259. वही।
260. वही। च्ंतज प्प्ए अवस. टप्, पृष्ठ 303, च्ंतंहतंची 25.106.
261. नेहरू के नाम पटेल का पत्र, 27 फ़रवरी, 1948. ैंतकंत च्ंजमसश्े ब्वततमेचवदकमदबम 1945.50, टप्ए सम्पादकः दुर्गादास (अहमदाबादः नवजीवन, 1973), पृष्ठ 56.
262. सरकार ने सावरकर के कर्मचारियों, अप्पा रामचन्द्र कासार और गजानन विष्णु दामले को गाँघी की हत्या के मुक़दमे और याचिकाओं के दौरान दो साल से ज़्यादा समय तक जेल में रखा था। उनको गवाही देने कभी नहीं बुलाया गया। जब अन्ततः वे रिहा हो गये, तो सावरकर ने उनको वापस काम पर नहीं रखा। सावरकर के जीवनीकार लिखते हैं कि कासार और दामले ‘से रूखे ढंग से अपना इन्तज़ाम खुद देखने को कह दिया गया था।’ कीर, टममत ैंअंतांत, पृष्ठ 478.
263. लाॅरेन्को डि सल्वाडोर, ॅीव ज्ञपससमक ळंदकीपघ् (लिस्बॅन, पुर्तगालः निजी स्तर पर मुद्रित, कोई तिथि नहीं), पृष्ठ 149.
264. नूरानी, ैंअंतांत ंदक भ्पदकनजअंए पृष्ठ 130.
265. वही।
266. मोरारजी देसाई की गवाही का नूरानी का उद्धरण ज्ीम ज्पउमे व िप्दकपं के 1 सितम्बर, 1948 के अंक से लिया गया है, जिसमें ‘न्यायाघीश आत्माचरण के नाम चीफ़ प्राॅसीक्यूटिव काउंसल सी.के. दफ़्तरी के पिछले दिन के आवेदन का मज़मून प्रकाशित है’ (वही, पृष्ठ 130.131)। देसाई ने 1979 की अपनी आत्मकथा में अदालत में हुए वार्तालाप को घुँघले ढंग से याद किया हैः ‘श्री सावरकर के वकील ने मेरे सामने एक सवाल पेश किया, जिसका विवरण मैं भूल गया हूँ, लेकिन मेरे मन पर कुछ ऐसा प्रभाव है कि उस सवाल का सम्बन्घ उस मामले में मेरे निजी विश्वास से था। न्यायाघीश ने मुझसे कहा था कि मैं उस सवाल का जवाब देने के लिए बाध्य नहीं हूँ। लेकिन मैंने न्यायाघीश से कहा था कि मुझे उस सवाल का जवाब देने में कोई आपत्ति नहीं है और मैंने उनसे अनुरोघ किया था कि वे आरोपी से पूछें कि क्या वह वाक़ई उस सवाल का ठीक-ठीक जवाब चाहता है। अगर वह वैसा चाहता, तो मैं जवाब देने के लिए तैयार था। जब मैंने यह कहा, तो वकील ने अपना सवाल वापस ले लिया और उसके आगे मुझसे कोई जि़रह नहीं की।’ मोरारजी देसाई, ज्ीम ैजवतल व िडल स्पमिए प् (आॅक्सफ़ोर्डः पर्गमाॅन प्रेस, 1979), पृष्ठ 269-70. हालाँकि, सावरकर द्वारा वापस लिया गया वह सवाल देसाई के ‘उस मामले में निजी विश्वास’ से ताल्लुक नहीं रखता था, जैसा कि उन्होंने याद किया था, बल्कि वह (जैसा कि सावरकर के वकील को देसाई के चेतावनी भरे जवाब से लगभग काफ़ी देर बाद समझ में आया था) उन ‘पूर्ण तथ्यों’ से ताल्लुक रखता था जो गाँघी की हत्या के एक षडयन्त्रकारी के रूप में सावरकर के बारे में सरकार के पास थे।
267. टी.ए. गाँघी, ष्स्मजश्े ज्ञपसस ळंदकीप!ष् पृष्ठ 732.33.
268. विनायक दामोदर सावरकर, ैपग ळसवतपवने म्चवबीे व िप्दकपंद भ्पेजवतल (नयी दिल्लीः राजघानी ग्रन्थागार, 1971) के पहले पृष्ठ पर ष्च्नइसपेीमतश्े छवजमष्ण्
269. वही, पृष्ठ 78.
270. वही।
271. वही, पृष्ठ 76.
272. डेविड हार्डीमेन, ळंदकीप पद भ्पे ज्पउम ंदक व्नतेरू ज्ीम ळसवइंस स्महंबल व िभ्पे प्कमें में (न्यू याॅर्कः कोलम्बिया यूनिवर्सिटी प्रेस, 2003), पृष्ठ 174.75.
273. सावरकर, ैजवतल व िडल ज्तंदचवतजंजपवद वित सपमिए पृष्ठ 521.
274. वही।
275. वही, पृष्ठ 569.
276. ल्यूस, प्द ैचपजम व िळवकेए पृष्ठ 143-44. यहाँ तक कि आरएसएस का बीस लाख सदस्यों का चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के मुक़ाबले दूसरे नम्बर का आकार एक हल्के आकलन पर आघारित है। कुछ पर्यवेक्षक इसकी सदस्य-संख्या को साठ लाख के आसपास मानते हैं। आरएसएस अपने आपको विशाल और रहस्यात्मक, दोनों बनाये रख सका है। यह अपनी सदस्यता पंजियों को गोपनीय रखता है ( वही, पृष्ठ 143)।
277. वही, पृष्ठ 143-44.
278. अरुन्घति राय ने बताया है कि किस तरह भाजपा सत्ता हासिल करने की कोशिश में सावरकर की हिन्दुत्व की विचारघारा को अमली जामा पहनाती हैः ‘1990 में भाजपा नेता लालकृष्ण अडवाणी ने सारे देश की यात्रा कर अयोध्या के विवादास्पद स्थल पर खड़ी सोलहवीं सदी की एक प्राचीन मस्जिद को गिराने और उसकी जगह पर राम मन्दिर बनाने की माँग करते हुए मुसलमानों के खि़लाफ़ नफ़रत को भड़काया था। 1992 में अडवाणी द्वारा भड़कायी गयी उपद्रवियों की भीड़ ने उस मस्जिद को घराशायी कर दिया। 1993 के शुरुआती दिनों में दंगाइयों की भीड़ ने मुम्बई में मुसलमानों पर हमले कर लगभग एक हज़ार लोगों को मार डाला। इस तरह भड़काये गये साम्प्रदायिक उन्माद से शक्ति हासिल कर भाजपा ने, जिसकी 1984 में संसद में मात्र दो सीटें थीं, 1998 में काँग्रेस को हराकर केन्द्र की सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया।’ अरुन्घति राॅय, थ्पमसक छवजमे वद क्मउवबतंबलरू स्पेजमदपदह जव ळतेेंीवचचमते (शिकागोः हेमार्केट बुक्स, 2009), पृष्ठ 9.
279. ल्यूस, प्द ैचपजम व िळवकेए पृष्ठ 148.
280. नूरानी, ैंअंतांत ंदक भ्पदकनजअंए पृष्ठ 1.
281. वही, पृष्ठ 6.
282. आर. गाँघी, ज्ीम डंदए भ्पे च्मवचसमए ंदक जीम म्उचपतम, पृष्ठ 622.
283. प्दकपंश्े छनबसमंत ठवउइरू ज्ीम प्उचंबज वद ळसवइंस च्तवसपमितंजपवद (बर्कलेः यूनिवर्सिटी आॅफ़ कैलीफ़ोर्निया प्रेस, 1999), में जाॅर्ज पर्कोविच द्वारा उद्धृत, पृष्ठ 14.
284. वही, पृष्ठ 20.
285. वही, पृष्ठ 18.
286. प्दकपंश्े छनबसमंत ठवउइ में जाॅर्ज पर्कोविच द्वारा उद्धृत, पृष्ठ 20.
287. डवींदकें ळंदकीपरू म्ेेमदजपंस ॅतपजपदहे (मेरीनाॅल, न्यू याॅर्कः आॅर्बिस बुक्स, 2002), में जाॅन डियर द्वारा उद्धृत, पृष्ठ 143.
288. ‘2 अप्रैल 1954 को प्रघानमन्त्री नेहरू ने पेशकश की कि ‘कम-से-कम इन वास्तविक परमाणु विस्फोटों को एक कि़स्म के...गतिरोघ की स्थिति में बनाये रखने का समझौता तो किया ही जा सकता है, भले ही उत्पादन में विराम और भण्डारण सम्बन्घी व्यवस्थाओं को लेकर सम्बन्घित प्रमुख पक्षों के बीच ज़्यादा ठोस समझौते का इन्तज़ार किया जा सकता है।’’ विलियम एप्सटाइन, ज्ीम स्ेंज ब्ींदबमरू छनबसमंत च्तवसपमितंजपवद ंदक ।तउे ब्वदजतवस (न्यू याॅर्कः फ्ऱी प्रेस, 1976), पृष्ठ 48-49, 225.
289. पर्कोविच, प्दकपंश्े छनबसमंत ठवउइ, पृष्ठ 35. ‘संयुक्त राज्य अमेरिका के परमाणु निज़ाम से जुड़े आला फ़ौजी अघिकारी’ के साथ 1960 में हुई एक बातचीत में (सेवानिवृत्त) मेजर जनरल, कैनेथ डी. निकोल्स, प्रघानमन्त्री नेहरू, और उनके एईसी चेयरमेन होमी भाभा ने हिन्दुस्तान की शस्त्र सामथ्र्य के सन्दर्भ में एक ‘बहुत स्पष्ट दुविघा’ ज़ाहिर की थी। जनरल निकोल्स ने सूचित किया था कि उनकी उस बातचीत के दौरान नेहरू ने सहसा भाभा से पूछा था,
‘क्या आप परमाणु बम बना सकते हैं?’ भाभा ने उनको आश्वस्त किया कि वे बना सकते हैं और समय को लेकर नेहरू के अगले सवाल के जवाब में उन्होंने हिसाब लगाकर बताया कि इस काम को करने में उनको क़रीब एक साल का समय लगेगा। मैं एक ऐसे व्यक्ति के मुँह से जिसको मैं दुनिया के सबसे ज़्यादा अमन-पसन्द नेताओं में गिनता था, इस तरह के सवाल सुनकर सचमुच हक्काबक्का रह गया था।
इसके बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं भाभा की बात से सहमत हूँ, और मैंने जवाब दिया कि मैं ऐसी कोई वजह नहीं देखता कि भाभा यह काम न कर सकते हों। उनके पास ऐसे आदमी थे जो पन्द्रह साल पहले के हमारे नौजवान वैज्ञानिकों जितने या उनसे भी ज़्यादा क़ाबिल थे। नेहरू ने, भाभा से यह कहते हुए अपनी बात समाप्त की कि, ‘ख़ैर, जब तक मैं आपसे न कहूँ, यह काम मत करिए।’ वही, पृष्ठ 36.
290. वही।
291. वही, पृष्ठ 13.40.
292. स्टेनले वोल्पर्ट, ळंदकीपश्े च्ेेंपवदरू ज्ीम स्पमि ंदक समहंबल व िडंींजउं ळंदकीप (न्यू याॅर्कः आॅक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2001), पृष्ठ 261.
293. कनाडा के परमाणु अप्रसार विशेषज्ञ विलियम एप्सटाइन का विचार था कि 18 मई 1974 को राजस्थान के रेगिस्तान में किये गये परमाणु विस्फोट ने परमाणु अप्रसार के नियमों को बदल दिया। एप्सटाइन ने लिखा थाः ‘राजस्थान परीक्षण ने यह बात साबित कर दी कि एक अपेक्षाकृत ग़रीब विकासशील देश भूमिगत विस्फोट के लिए (जोकि वातावरण में किये जाने वाले विस्फ़ोट के मुक़ाबले किसी क़दर ज़्यादा जटिल प्रक्रिया है) ऐसे परमाणुविक विखण्डन का इस्तेमाल कर सकता था जिसमें युद्धपरक उद्देश्यों की निश्चित सम्भावनाएँ विद्यमान थीं...। शान्तिपूर्ण उपयोगों के उद्देश्य से किये जाने वाले परमाणु विस्फ़ोट की प्रौद्योगिकी और परमाणु युद्ध के उद्देश्य से किये जाने वाले परमाणु विस्फोट की प्रौद्योगिकी के बीच कोई तात्त्विक भेद नहीं है...। जिन बमों ने हिरोशिमा और नागासाकी को तबाह कर दिया था, वे लगभग उसी आकार के थे जिस आकार का यह हिन्दुस्तानी उपकरण था - 15 से 20 किलोटन ऊर्जा उत्सर्जित करने वाला।’ एप्सटाइन, ज्ीम स्ेंज ब्ींदबमए पृष्ठ 221.
294. हिन्द स्वराज, पृष्ठ 163.
-जेम्स डब्ल्यू. डॅगलॅस की पुस्तक
गाँघी एण्ड द अनस्पीकेबलः हिज़ फ़ायनल एक्सपेरीमेण्ट विद ट्रुथ से साभार।

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