गगनवट के मुक्‍तक - ओम निश्‍चल
29-Jul-2020 12:00 AM 1132
संस्‍कृत सुभाषितों, जीवनाशयों, सदूक्‍तियों का भंडार है। इसके विपुल आगार में काव्‍य का अपार वैभव तो छिपा ही है,  दर्शन, अध्‍यात्‍म, चिंतन तथा शुद्ध कविता का रस भी अक्षुण्‍ण है। संस्‍कृत के महाकवियों को पढें,  काव्‍यशास्‍त्र के मर्मज्ञों को पढें, भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र को पढें या भर्तृहरि के श्रृंगार वैराग्‍य नीतिशतक को पढें तो मन उनमें रम सा जाता है। जीवन के तमाम कठिन अवसरों पर इन कवियों के यहां जो बातें मिलती हैं वे आज भी हमे राह दिखाती हैं। सच्‍ची कविता कोलाहल से दूर होती है। वह यथार्थ की क्षणभंगुर काया में नहीं, शाश्‍वत की अमर काया में विराजती है। तभी तो कभी अज्ञेय ने कहा था : मैं गाता हूँ अनघ सनातनजयी।

मुकुंद लाठ संस्‍कृत धर्म संगीत इतिहास, नाट्य, कला व दर्शन के मर्मज्ञ हैं तथा उनके भीतर कविता का सघन संवेदी रस धमनियों में रक्‍त की तरह प्रवाहित होता है। उनका एक कविता संग्रह 'अनकहनी भी रहने दो' आ चुका है जिसे पढिए तो लगता है हम काव्‍य की किन सुकोमल वीथियों से गुजर रहे हैं। उन्‍होंने काव्‍यप्रकाश, अलंकारसर्वस्‍व, काव्‍यमीमांसा, विक्रमांकदेवचरितम्, श्रृंगारप्रकाश, सदुक्‍तिकर्णामृत, सुभाषितरत्‍नकोष, सुभाषितावलि, सुवृत्‍ततिलकम्, सूक्‍तिमुक्‍तावलि, महासुभाषितसंग्रह इत्‍यादि से खोज.बीनकर ऐसे काव्‍यात्‍मक अंश 'गगनवट' में दिए हैं जो मूल पाठ का आश्रय ग्रहण करते हुए भी स्‍वतंत्र काव्‍य काया में परिणत हुए हैं। कविता का एक भाषा से दूसरी भाषा में काव्‍यानुवाद की इस प्रक्रिया को उन्‍होंने 'स्‍वीकरण' कहा है जो कि पंडित राजशेखर.व्‍यवहृत शब्‍द है।

संस्‍कृत मुक्‍तकों का यह स्‍वीकरण : 'गगनवट' पहले प्रकाशित हुआ था जो कि अनुपलब्‍ध था। इसे पुन: रजा फांउडेशन ने प्रकाशित कर लोकोपयोगी काम किया है। जो लोग संस्‍कृत के काव्‍य में रस पाते हैंए उनके लिए इन मुक्‍तकों और उनके आधार पर रचे गए काव्‍य को पढ कर आनंद की प्रतीति होगी। याद आता है विदेशी कविताओं के कुछ अनुवाद विद्यानिवास मिश्र जी ने 'पानी की पुकार' नामक अपनी पुस्‍तक के उत्‍तरार्ध में दिये थे। विदेशी कविताओं के आधार पर उसका सर्जनात्‍मक पाठ स्‍वयं में एक सम्‍यक् अनुवाद के साथ एक स्‍वतंत्र मौलिक रचना का आस्‍वाद देता था।

'गगनवट' के ये मुक्‍तक मानवीय चित्‍त के भाव मर्म को गृहीत करते हुए एक नई काव्‍यभाषा में उतारते हैं। कहना न होगा कि संस्‍कृत के काव्‍य आज भी काव्‍य के लिए उपजीव्‍य बने हुए हैं। न कवि कर्म बाधित होता है न उसकी उपजीव्‍यता आहत होती है। सब कुछ सीमातीत है शब्‍द भी, अर्थ भी, काव्‍य भी, संवेदना भी, व्‍यंजना भी। इस शब्‍दातीत को अपने अपने भावसंवेदन के अनुरूप रखने बरतने का नाम ही तो काव्‍य है । लीजिए पढ़िये
इस पुस्‍तक के दो काव्‍यांश :
गागर में सागर ।।
कहते हैं
एक मुनि था
जो एक ही चुल्‍लू में
सारा समुद्र पी गया
कोई मानेगा क्‍या ?
तुम्‍हारी आंखें मना जाती हैं।
मेरे संयम का
अथाह सागर
एक चितवन में
रीता कर गयीं।
(काव्‍यमीमांसा)

खुले गले मिले ।।
पल पल मिलने की हूक बढ़ी
मिलने की मिलती कहां घड़ी
बस आंख मिली हम कहां मिले
जब मिले अचानकए भाग जगे
दोनों के उजले पुण्‍य फले
खुल गले मिले
मिल गले
खुले ।
(सदुक्‍तिकर्णामृत)
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गगनवट । मुकुन्‍द लाठ । राजकमल एवं रज़ा फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित।
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