08-Jun-2019 12:00 AM
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1.
रक़्स-ए-इल्हाम1 कर रहा हूँ
मैं जिस्म-कलाम2 कर रहा हूँ
1 सूफि़यों का नृत्य 2 बात, शाइ‘री
मेरी है जो ख़ास अपनी मिट्टी
इस ख़ास को आ’म कर रहा हूँ
इक मुश्किल-ए-सख़्त आ पड़ी है
इक सुब्ह को शाम कर रहा हूँ
दुनिया से कहो ज़रा-सा ठहरे
इस वक़्त आराम कर रहा हूँ
चुप-चाप पड़ा हुआ हूँ घर में
और शह्र में नाम कर रहा हूँ
मिट्टी को पलट रहा हूँ अपनी
पुख़्ता को ख़ाम1 कर रहा हूँ
1 कच्चा, अनगढ़
क्या काम है जानना है मुझ को
इक सिर्फ़ ये काम कर रहा हूँ
बे-रब्ती-ए-जिस्म-ओ-जाँ1 फुज़ूँ-तर2
तौहीन-ए-निज़ाम3 कर रहा हूँ
1 शरीर और आत्मा के बीच बढ़ता हुआ अलगाव 2 बढ़ता हुआ जि़यादा 3 व्यवस्था का अपमान
ख़ुश्बू-ए-ख़ुदा1 लगा के ख़ुद पर
मज़हब को हराम कर रहा हूँ
1 ईश्वर की ख़ुश्बू
ईमान ने कुछ सुनी न मेरी
सो कुफ्र पे काम कर रहा हूँ
अल्लाह मियाँ के मश्वरे से
तर्क-ए-इस्लाम कर रहा हूँ
मस्जिद में खुली थी आँख मेरी
बुतख़ाने में शाम कर रहा हूँ
ऐ जि़न्दाबाद फ़रहत एहसास
मैं तुझ को सलाम कर रहा हूँ
2.
मिरे सुबूत बहे जा रहे हैं पानी में
किसे गवाह बनाऊँ सरा-ए-फ़ानी1 में
1 नश्वर संसार
जो आँसुओं में नहाते रहे सो पाक रहे
नमाज़ वर्ना किसे मिल सकी जवानी में
हमीं थे ऐसे कहाँ के कि अपने घर जाते
बड़े-बड़ों ने गुज़ारी है बे-मकानी में
ये बेकनार1 बदन कौन पार कर पाया
बहे चले गये सब लोग इस रवानी में
1 बिना किनार का
कहानी ख़त्म हुई तब मुझे ख़याल आया
तिरे सिवा भी तो किर्दार थे कहानी में
न चाहिए मुझे वो आस्माँ जो मेरा न हो
मैं ख़ुश हूँ अपनी ही मिट्टी की आस्मानी में
3.
बहुत ज़मीन बहुत आस्माँ मिलेंगे तुम्हें
प हम से ख़ाक के पुतले कहाँ मिलेंगे तुम्हें
ख़रीद लो अभी बाज़ार में नये हैं हम
कि बा’द में तो बहुत ही गराँ1 मिलेंगे तुम्हें
1 मंहगा
अब इब्तिदा-ए-सफ़र1 है तो जो है कह सुन लो
हम इस के बा’द न जाने कहाँ मिलेंगे तुम्हें
1 यात्रा की शुरुआत
जो रास्ते में मिले कोई मस्जिद-ए-वीराँ
तो हम वहीं कहीं वक़्त-ए-अज़ाँ मिलेंगे तुम्हें
हम इन्तिहा में मिलेंगे गर इब्तिदा में नहीं
नहीं वहाँ भी तो फिर दर्मियाँ मिलेंगे तुम्हें
ठहर ही जाएँगे आखि़र कहीं जनाब एहसास
पर अपने शे’र में यूँही रवाँ मिलेंगे तुम्हें
4.
मैं रोना चाहता हूँ ख़ूब रोना चाहता हूँ मैं
और इस के बा’द गहरी नींद सोना चाहता हूँ मैं
तिरे होंठों के सहरा में तिरी आँखों के जंगल में
जो अब तक पा चुका हूँ उस को खोना चाहता हूँ मैं
ये कच्ची मिट्टियों का ढेर अपने चाक पर रख ले
तिरी रफ़्तार का हम-रक़्स1 होना चाहता हूँ मैं
1 साथ नाचना
तिरा साहिल नज़र आने से पहले इस समुन्दर में
हवस के सब सफ़ीनों1 को डुबोना चाहता हूँ मैं
1 नाव
कभी तो फ़स्ल आएगी जहाँ में मेरे होने की
तिरी ख़ाक-ए-बदन1 में ख़ुद को बोना चाहता हूँ मैं
1 बदन की मिट्टी
मिरे सारे बदन पर दूरियों की ख़ाक बिखरी है
तुम्हारे साथ मिल कर ख़ुद को धोना चाहता हूँ मैं
5.
कहा है उस ने अब आओ तो ख़्वाब देख के आओ
जहान-ए-बेख़बरी1 की किताब देख के आओ
1 मदहोशी की दुनिया
तुम्हारे शहर का दरिया पड़ा है ख़ुश्क1 तो जाओ
किसी ग़रीब की आँखों में आब देख के आओ
1 सूखा
फ़रिश्ते आये हुए हैं ज़मीं के दफ़्तर में
सो तुम भी अपना हिसाब-ए-अ’ज़ाब1 देख के आओ
1 विपित्ति का लेखा जोखा
ये मस्जिदों का इ’लाक़ा सही मगर फिर भी
कहीं तो होगा मक़ान-ए-शराब1 देख के आओ
1 जहाँ शराब मिलती हो
हक़ीक़तो ज़रा औक़ात में रहो अपनी
नहीं तो मेरा मकान-ए-सराब1 देख के आओ
1 मृग तृष्णा का घर
तुम्हारे पास था चश्मा जब इस्तिआ’रे1 का
कहा था किस ने कि रास्त2 आफ़्ताब3 देख के आओ
1 रूपकों 2 सीधे, बिना रूकावट 3 सूरज
जहाँ थे ठीक वहीं जाओ फिर मियाँ एहसास
कहाँ कहाँ से हुए हो ख़राब देख के आओ
6.
जिस तरह पैदा हुए उस से जुदा पैदा करो
खुद को अपनी ख़ाक से बिलकुल नया पैदा करो
शह्र के इन आइना-ख़ानों में फिरना है फुज़ूल
चाहिए चेहरा तो अपना आइना पैदा करो
यार सज्दों का भी कुछ मे’आर1 होना चाहिए
पहले जा कर ढंग का कोई खुदा पैदा करो
1 स्तर
इस हुजूम1-ए-शह्र में उस तक पहुँचना है मुहाल
अब तो अन्दर ही से कोई रास्ता पैदा करो
1 भीड़
ताकि इक घर में रहे तो दूसरा महफि़ल में हो
फ़रहत एहसास अपने जैसा दूसरा पैदा करो
7.
मोहब्बत चाहते हो क्यों वफ़ा क्यों माँगते हो
तुम उन बीमार आँखों से दवा क्यों माँगते हो
मुसाफि़र हो तो निकलो पाँव में आँखें लगा कर
किसी भी हमसफर से रास्ता क्यों माँगते हो
उन्हें तो खुद ही अपनी जान के लाले पड़े हैं
बिचारे शह्र वालों से हवा क्यों माँगते हो
अभी कुछ था अभी कुछ है बदन आब-ए-रवाँ1 सा
बदन से आज कल का वाकि़आ’ क्यों माँगते हो
1 बहता पानी
हुदूद-ए-ख़ाक1 से बाहर नहीं आ पाएगा हुस्न
वो जितना है उसे उस से सिवा2 क्यों माँगते हो
1 मिट्टी की सीमा 2 अधिक
हुजूम-ए-शह्र में से तीर से निकले चले जाओ
हुजूम-ए-शह्र से उस की रज़ा1 क्यों माँगते हो
1 रज़ामन्दी, आज्ञा
मोहब्बत आप ही अपना सिला1 है फ़रहत एहसास
मोहब्बत कर रहे हो तो सिला क्यों माँगते हो
1 बदला
8.
सब लज़्ज़तें विसाल की बेकार करते हो
क्यों बार बार नींद से बेदार1 करते हो
1 जगाना
अच्छा तो तुम को मश्क़-ए-मसीहाई1 करनी है
इतना इसी लिए हमें बीमार करते हो
1 इ’लाज करने का अभ्यास
साया सरों पे धूप में करने की बात थी
ये नेक काम क्यों पस-ए-दीवार1 करते हो
1 दीवार के पीछे
कपड़े सफ़ेद देख के बोला ये मेरा जिस्म
किस जश्न के लिए मुझे तय्यार करते हो
वा’दा तो ये कि घर में बसाएँगे हम तुम्हें
फिर हम को कै़दी-ए-दर-ओ-दीवार1 करते हो
1 घर में कै़द
है इ’श्क़ के सिवा भी कोई बात वर्ना तुम
क्यों बार बार इ’श्क़ का इज़्हार करते हो
ऐसा है कौन दिल का ख़रीदार जिस पे तुम
छोटी सी इस दुकान को बाज़ार करते हो
एहसास ही ने तुम को बनाया है, बादशाह
एहसास ही को रौंदा-ए-दरबार1 करते हो
1 दरबार से निकाला हुआ
9.
दरिया को सख़्त हैरत-ए-मुश्किल1 में डाल के
कश्ती डुबोई गर्दिश-ए-साहिल2 में डाल के
1 कठिन आश्चर्य 2 साहिल का चक्कर
लैला को अपने इ’श्क़ का हम-शक्ल कर दिया
मजनूँ ने अपनी ख़ाक को महमिल1 में डाल के
1 पर्दे
सारा लहू निकाल लिया मेरा इ’श्क़ ने
अपनी ज़रा सी बूँद मिरे दिल में डाल के
ये मज़हबी जुनून सियासत का साँप है
मारो ये साँप उस के इसी बिल में डाल के
10.
बहुत सी आँखें लगीं हैं और इक ख़्वाब तय्यार हो रहा है
हक़ीक़तों से मुक़ाबिले का निसाब1 तय्यार हो रहा है
1 पाठ्यक्रम
तमाम दुनिया के ज़ख़्म अपने बयाँ कलम-बन्द1 कर रहे हैं
मिरी सवानेह-हयात2 का एक बाब3 तय्यार हो रहा है
1 लिखना 2 जीवनी 3 अध्याय
बहुत से चाँद और बहुत से फूल एक तज्रबे में लगे हैं कब से
सुना है तुम ने कहीं तुम्हारा जवाब तय्यार हो रहा है
पुरानी बस्ती की खिड़कियों से मैं देखता हूँ तो सोचता हूँ
नया जो वो शह्र है बहुत ही ख़राब तय्यार हो रहा है
खुले हुए हैं फ़ना के दफ़्तर में सब अ‘नासिर1 के गोश्वारे2
कि आस्मानों में अब जमीं का हिसाब तय्यार हो रहा है
1 तत्व, पंचभूत 2 बही-खाते
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा
तो वक़्त कहता है मुस्कुरा कर जनाब तय्यार हो रहा है
बदन को जाना है पहली बार आज रूह की महफि़ल-ए-तरब1 में
तो ऐसा लगता है जैसे कोई नवाब तय्यार हो रहा है
1 ख़ुशी की महफि़ल
इस इम्तिहाँ के सवाल आते नहीं निसाबों1 से मक्तबों2 के
अ’जीब आ’शिक़ है ये जो पढ़ कर किताब तय्यार हो रहा है
1 पाठ-क्रमों 2 विद्यालयों
मैं छू के आया हूँ किस बदन को कि मेरे ख़ूँ की कियारियों में
क़दम क़दम पर न जाने कितना गुलाब तय्यार हो रहा है
हमारी आँखों में बस गया है अ’जीब पंजाब आँसुओं का
इधर से रावी चला उधर से चनाब तय्यार हो रहा है
ज़रा ज़रा सी ये आँधियाँ जो दिलों दिमाग़ों में चल रही हैं
इन्हीं हवाओं से मौसम-ए-इन्कि़लाब1 तय्यार हो रहा है
1 बड़े बदलाव का मौसम
जुनूँ ने बर्पा किया है सहरा में शह्र की ता’जि़यत1 का जल्सा
तो फ़रहत एहसास भी ब-चश्म-ए-पुर-आब2 तय्यार हो रहा है
1 शोक व्यक्त करना 2 भीगी आँखों से
11.
अय्याम1 सिर्फ़ शाम-ओ-सहर हो के रह गये
कैसे अ’जीब लोग थे घर हो के रह गये
1 दिन
हम को पसन्द आ गया साहिल का मश्वरा
कश्ती की लकडि़याँ थे शजर हो के रह गये
मिट्टी के इस मकान ने धोखा दिया हमें
सहरा-नवर्द1 ख़ाक-बसर2 हो के रह गये
1 वीरानों में भटकने वाले 2 धूल में अटे हुए, दीवाने
आँखें झपक के रह गयीं दिल की वफ़ात1 पर
सैलाब सिर्फ़ दीदा-ए-तर2 हो के रह गये
1 मृत्यु 2 आँसू भरी आँख
पहले तो अपने पाँव ज़मीं से जुदा हुए
फिर यूँ हुआ कि शह्र-बदर1 हो के रह गये
1 शह्र से निष्कासित
12.
हम ने ख़ुद पर यही दो काम ही लाजि़म1 रक्खे
सख़्त अजि़य्यत2 भी सही होश भी क़ाइम रक्खे
1 ज़रूरी 2 यातना
मुझ पे सूरज ने इ’नायत तो बहुत की लेकिन
वो कहाँ तक मिरी मिट्टी को मुलाइम रक्खे
हुस्न का कोई ख़ुदा है तो दुआ’ है मेरी
जिस्म-ए-फ़ानी में तिरे हुस्न को दाइम1 रक्खे
1 अमर
इस क़दर पाक कहाँ रूह हमारी कि वो जिस्म
अपनी खि़दमत के लिए हम को मुलाजि़म रक्खे
चाहिए आदमी ही उस को ख़ुदा होते हुए
वैसे वो कितने फ़रिश्तों को भी ख़ादिम रक्खे
मोमिनों को युँही इस्लाम पे रक्खे तो ख़ुदा
फ़रहत एहसास को भी कु़फ्र पे क़ाइम रक्खे
13.
आँख को आइना कर लेना है रोते रोते
काम मुश्किल है प हो जाएगा होते होते
आँखें एक और ही दुनिया में खुलें लुत्फ़ आ जाए
हम किसी ख़्वाब में उठ जाएँ जो सोते सोते
इ‘श्क़ के घाट उतार आये थे हम जिस्म अपना
और हमें उस ने नया कर दिया धोते धोते
दाद देता रहा हम को वो खुली आँखों से
हम उसे शे‘र सुनाते रहे सोते सोते
गुलशन-ए-ख़ाम-ख़याली1 में खिला वह्म का फूल
थक गये हम जो तिरे ख़्वाब को बोते बोते
1 भ्रम का बाग़
जि़न्दगी के लिए हम एक मवेशी ही तो थे
ले गयी उम्र की गाड़ी हमें जोते जोते
फ़रहतुल्लाह की सूरत में हुआ जो पैदा
फ़रहत एहसास भी हो जाएगा होते होते