23-Mar-2022 12:00 AM
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पहला अध्याय
मियाँ साहबज़ादे, ऐ मियाँ उमर शेख़ मिजऱ्ा, ये सर झुकाए अपनी जूतियों पर नज़र गड़ाए कहाँ जा रहे हो? क्या मच्छी भवन के हज़ारों कमरों, कोठरियों में कहीं अपनी माशूक़ा-ए-दिल आराम को तो नहीं खो बैठे? मगर मच्छी भवन अब कहाँ, उसकी एक बावली सूखी उजड़ी पुजड़ी ख़ामोश होंटों वाली बच्ची थी अब वह भी नज़र नहीं आती। फिर भी कुछ तो है जिसकी तलाश में हो? क्या शेख़ अब्दुर्रहीम बिजनौरी का मज़ार ढूँढ़ रहे हो? तो क्या तुम्हें ख़बर नहीं कि ये शहरे लखनऊ है, जिसे बसाता है उसे मार रखता है और उसकी क़ब्र के गढ़े का भी निशान नहीं रखता कि आने जाने वाला इनके सरहाने रुक कर पानी की दो बँूदें ही गिरा ले। मियाँ मोहम्मद तक़ी को भूल गये क्या कह गये हैं।
मत तुरबते1 मीर को मिटाओ
रहने दो ग़रीब का निशाँ तो
मुझे कैसे मालमू कि तुम किसी की तलाश में हो? अजी मियाँ साहब, मुझे तो तुम्हारा नाम, पता सब मालूम है। तुम्हीं तो थे जिसने मेरी और मेरी बड़ी बहन बल्कि बड़ी अम्माँ की कितनी ही औलादों को उन शहरों गलियों में जाकर देखा जहाँ वह रहे थे, जहाँ उन्होंने मुहब्बतें की थीं, जहाँ उन्होंने दिल हारे थे और दिल जीते और फिर जानें निछावर की थीं। आस्मान के नीचे उतर कर बादलों की बूँदें और बाग़ों की कलियाँ बन कर ग़ायब हो जाने वालों ने इन्सानों जैसी और शाइरों जैसी और माशूक़ों जैसी, और दोस्तों, क़ातिलों और पनाह देने वालों जैसी जि़न्दगियाँ किस तरह जी थीं, यह काग़ज़ पर तो कहीं मिलता नहीं। और ज़्ाुबानी बताने वाले मिट्टी की परत के नीचे दब गये हैं। लेकिन क्या तुम समझते थे कि अपना अस्ल नाम छुपा कर तुम हम जैसों की तेज़ निगाहों से बच निकलोगे। हम लोग तो अफ़साने सुनने वालों, देखने वालों, सुनाने वालों, फैलाने वालों में सरे-फ़ेहरिस्त हैं। हम ही तो हैं जो दम ब दम गुज़रते रहते हैं और जाते कहीं नहीं हैं। हम ही तो हैं जो अजनबी जगहों में
1 क़ब्र
भी अपने ही नाम से जाने जाते हैं। जो हमारा नग़मा सुन ले वह कहानीकार हो जाते हैं। और जो मेरा पानी पी ले वह शाइर हो जाता है या शाइर न सही उसकी तबियत छन्दमय तो हो ही जाती है।
आओ कुछ देर यहाँ नदी के किनारे मेरे साथ बैठो, यहाँ हरियाली है, यहाँ साया है। और इस वक़्त तुम्हारी ख़ुश नसीबी से कुछ तनहाई भी है। पानी ज़रूर पहले से कम है। वह दिन कहाँ से लाऊँ जब मैं किनारे को छेड़ती हुई गुज़रती थी। लगता था मैं दोनो किनारों पर हर चीज़, हर दृश्य, हर गुज़रने वाले, हर ठहरने वाले को ख़ूब देख कर अपनी गहराइयों में सुरक्षित़ कर लूँगी। अब तो रोज़ ही देखती हूँ कि मेरे पानी को क़दम क़दम पर रोक कर गन्दा किया जा रहा है, मुझे बहने नहीं दिया जा रहा है। नए पानी मुझ तक पहुँचने के पहले ही उतार लिए जाते हैं। कितनी ही बार मैं मछलियों और कछुओं और पानी के साँपों और अनगिनत ख़ुदा के ग़ैर नुक़सानदेह जीवों को अपने पेट में पैदा होते, पलते और फिर अपने पेट ही में मरते देख चुकी हूँ। तुम्हें मालमू है, मेरे किनारों पर नन्हें मुन्ने कछुओं की एक प्रजाति रहती थी? बहुत नाज़्ाुक सिलेटी-हरा रंग, आवरण पर हल्की-हल्की ध्ाारियाँ, जैसे मेरी लहरों को किसी ने उन पर उतार लिया हो। अपनी मुट्ठी में तीन नहीं तो दो ज़रूर ही भर लो। तमाम कछुओं की तरह शरमीले भगोड़े। लेकिन मेरा पानी और किनारा एक ही तो होते थे, उन्हें सर छुपाने के लिए जगह की कमी न थी। मज़े-मज़े से साहिल पर घूमते, चरते, चुगते और जब किसी चील कव्वे या हज़रते इंसान की झलक नज़र आती तो एक ही छलाँग में पानी के अन्दर। अब तुम्हें क्या बताऊँ उनके जाने का मुझे किस क़द्र रंज है। मेरा पानी गंदा, प्रदूषित, सतह इसकी किनारे से बहुत नीची, अब मेरे कछुए जाते तो कहाँ जाते। दो ही चार बरस में विलुप्त हो गए। बुज़्ाुर्गों का वरदान था कि जो कोई एकादशी को मेरे पानियों में नहा ले, नहाए न सही, सिफऱ् डुबकी ही मार ले तो उसके सारे पाप ध्ाुल जाते हैं। मगर क्या पता अब ऐसा न हो। अब तो मैं सतह से लेकर गहराई तक अस्तबल का फर्श हूँ जहाँ मुद्दतों से घोड़े, गध्ो, ख़च्चर और सुअर भी बँध्ो हुए हैं... तुम्हें मालूम है? अस्तबल को साफ़ करना और साफ़ रखना भी एक कला है। पहले ज़माने में लोग नदी का रुख़ मोड़ कर गंदे अस्तबल साफ़ करते थे लेकिन अब तो पानी ही ऐसा है कि उसे छू लो तो ख़ुद नापाक हो जाओ। नहाने वाले बेचारे ढूँढकर साफ़ जगह जाते हैं और एक दो पल की डुबकी मार कर समझते हैं कि मुक्त हो गये।
अब यही देखो कि कुछ दिन हुए अचानक मेरे पानी की मौजें सीतापुर को जाने वाली राह शहर से कुछ आगे जो बस्तियाँ हैं, वहाँ तक घुस आयीं।
तुम कभी नैमिषारण्य गये हो? तुम इस वक्त़ जहाँ हो, शहरे लखनऊ में, वहाँ से कोई पच्चीस कोस उत्तर में छोटी सी बस्ती है। मैं उसके बिलकुल पास से गुज़रती हूँ। बहुत पहले यहाँ नैमिष नाम का घना जंगल था। कहते हैं नारद मुनि को एक बार ऐसी जगह की तलाश हुई जहाँ इंसान और प्रकृति बिलकुल एक सुर में हों, जहाँ पत्ती-पत्ती कण-कण से दिल का सुकून बरसता हो। जहाँ इंसान अपनी पूर्णता के लिए आज़ाद हो। उस पर संस्कृति के बन्ध्ान न हों। तमाम तरफ़ की, यहाँ तक कि कैलाश और काशी की भी ख़ाक छान कर वह नैमिष जंगल पहुँचे तो उन्होंने पहचान लिया कि यही जगह है जिसकी मुझे तलाश थी। यहाँ तो कलयुग कभी आएगा ही नहीं। कुछ तो यह भी कहते हैं कि नारद मुनि सीध्ो मेरे पानी में आ रहे थे। उन्होंने जंगल का दृश्य ठीक से देखा भी नहीं। वाल्मीकि जी की रामायण पहली बार यहाँ पढ़ कर सुनाई गयी। गोसाईं तुलसीदास ने अपनी रामायण यहाँ लिखी। शंकराचार्य यहाँ आकर रहे। कहा जाता है सूरदास भी यहाँ रह कर कृष्ण भक्ति के इतने बड़े शाइर बन गये। यह सब मेरा पानी पी पीकर फले-फूले और नैमिषारण की भी इज़्ज़त और गरिमा इसी मेरे पानी की वजह से है। कहते हैं कि गंगा मैय्या के पानी में डुबकी लगायें तो सब गुनाह ध्ाुल जाते हैं और नैमिषारण का चमत्कार ये है कि यहाँ आने की कोशिश से क़दम घर से बाहर निकालो तो तुम मुक्त हो गये।
इध्ार आ जाओ, यहाँ पानी ज़रा गहरा है। यहाँ लहरों की ज़ंजीर का दृश्य देखो, मैं पहले से बहुत कम हो गयी हूँ। कहते हैं पीरी की सफ़ेदी आती है तो इंसान का साया भी छोटा हो जाता है, हाथ पाँव सिकुड़ जाते हैं, वज़न कम हो जाता है। मेरे लिए सुबह की सफ़ेदी अभी फूटी नहीं है लेकिन मेरे बच्चों ने मुझे छोटा कर दिया है। अब मैं पहले जैसी गहरी नहीं और पहले जैसी पुर शोर व पुर ज़ोर भी नहीं।
वह भी क्या दिन थे चीनी और फि़रंगी सुन्दरियों से भी ख़ूबसूरत और नाज़्ाुकतर पर्दानशीन मच्छी भवन की पाँचवी मंजि़ल में परली तरफ़ के छज्जे पर क़नात और रेवटियाँ खड़ी करतीं और बरसातों में मेरी सरकशी का मंज़र देखतीं। शेख़ अब्दुर्रहीम बिजनौरी, महाबली हज़रत जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर के ख़ासुल-ख़ास बन्दे थे, कितनी ही मुहिमों में महाबली की रकाब थामे पैदल चले जाते। अवध्ा का सूबा क़ायम हुआ तो आला हज़रत ने शेख़ साहब को यहाँ का सूबेदार मुक़र्रर किया। मच्छी भवन और बाद में अकबरी दरवाज़ा उसी ज़माने की यादगारें हैं। मुझे इन आँखों से वह घड़ी भी देखनी थी जब शेख़ साहब और उनकी औलाद के बजाए साहिबाने फि़रंगी इसी बुलन्दी से वही मंज़र मुलाहिज़ा करते थे। फिर लखनऊ को हिन्दुस्तानियों के हाथ से छीनने का वक़्त आया तो उन्होंने मच्छी भवन को सबसे पहले शहीद किया कि उनको ख़ौफ़ था अगर हिन्दुस्तानी बागि़यों ने चमचमाती हवेली को अपना रक्षात्मक मोर्चा बनाया तो कोई ताक़त उन्हें वहाँ से हिला न सकेगी।
यही सब बातें थीं जिनसे मैं दुबली पतली और कमज़ोर होती गयी। मगर ऐसी नहीं जैसी अब हूँ। मगर यहाँ देखो, यहाँ मैं गहरी हूँ और ज़रा ज़्यादा सुस्त रफ़्तार भी। जहाँ पानी गहरा होता है और मौज की रफ़्तार सुस्त होती है वहाँ पानी की सतह पर हल्की-हल्की लहरें दिखने लग जाती हैं। इन लहरों को जँज़ीर कहते हैं। लो मुझे मियाँ मोहम्मद तक़ी फिर याद आ गए।
वह ज़्ाुल्फ़ नहीं मुन‘क्किस2 दीद-ए-तर3 मीर
इस बहर में तहदारी से जं़जीर पड़ी है
तहदारी समझे? समझते ही होंगे, नहीं तो मीर साहब की इतनी बात क्यों करते।
इतना तो समझ ही गये होगे कि मैं गोमती हूँ। लेकिन इससे ज़्यादा तुम क्या जानते होंगे? क्या तुम्हें मालूम है कि मैं वशिष्ट जोगी की बेटी हूँ? और मैं गोमती इसलिए कहलाती हूँ कि जिस जगह पर मैं ज़मीन से बाहर आयी हूँ वह एक ताल है, उसे गोमत ताल कहते हैं। इसका एक नाम फूल हार झील भी था। नाम ही से तुम जान जाओगे कि मैं हार, फूल, गजरों, कलियों के दरम्यान पैदा हुयी। यह झील शहरे पीलीभीत से कोई एक सवा कोस उत्तर में है। उध्ार एक ज़माने में ज़मीन कुछ ऊँची थी लेकिन अब लगभग सपाट हो गयी है। मेरी फूल हार झील, या गोमत ताल ज़रा ऊँचाई पर है। तुम्हारे हिसाब से यही कोई सात सौ फीट। यही वजह है कि मैं वहाँ से निकल कर उत्तर दक्षिण की ओर बहती हुयी कोई तीन सौ कोस चल कर बनारस के पास सैय्यद पुर कैथी की जगह पर गंगा माँ से जा मिली। सुनते हो यह नाम भी कितना दिलचस्प है, सैय्यद पुर यानी सैय्यदों का गाँव और फिर कैथी यानी कायथों या कायस्थों का इलाक़ा। और जहाँ से मैं चली हूँ उस जगह का नाम तुम सुन ही चुके हो पीलीभीत है। लेकिन यह पीलीभीत है क्या कभी ग़ौर किया?
और तुमने कभी यह भी ग़ौर किया कि मैं तुम्हें इतना मुँह क्यों लगा रही हूँ? वही मियाँ मोहम्मद तक़ी वाला मामला है। तुम उनके चाहने वाले तो मैं तुम्हारी तारीफ़ करने वाली। मीर तक़ी के यहाँ ढूँढ़ो तो सभी कुछ मिल जाएगा। देखो इस एक शेर में दोनों को निपटा दिया।
शफ़क़4 से हैं दर ओ दीवार5 ज़र्द शाम ओ सेहर
हुआ है लखनऊ इस राह गुज़र में पीलीभीत
भीत के मानी हैं दीवार, पुरानी पीलीभीत नाम का एक गाँव अभी भी है। वहाँ के लोग बाहरी
दीवारों को पीली मिट्टी से रंगते थे इसलिए इस गाँव का और फिर शहर का नाम ही पीलीभीत हो गया।
हाफि़जुल मुल्क हाफि़ज रहमत ख़ान शहीद ने वहाँ जामा मस्जिद बनवायी और शहर का नाम हाफि़ज़ाबाद रखा, लेकिन यह नाम चला नहीं। मस्जिद अब भी बाक़ी है।
नाम मंज़्ाूर हो तो फ़ैज़6 के असबाब7 बना
पुल बना चाह बना मस्जिद ओ तालाब बना
2 छाया बनना
3 भीगी आँख
4 लालिमा
5 दरवाज़ा और दीवार
6 सेवा
7 वस्तुएँ
वाह रे मियाँ ज़ौक़, बात-बात में पते की बात कह जाते थे। अफ़सोस वह कभी इध्ार न आए वरना उनका कलाम और भी शीरीं हो जाता। आने को तो तुम्हारे प्यारे मिजऱ्ा असदुल्लाह ख़ान भी यहाँ आए थे। लेकिन वह किसी मतलब से आए थे। सैर सपाटे का उन्हें शौक़ न था।
लखनऊ आने का बाइस8 नहीं खुलता यानी
हवस ए सैर ओ तमाशा सो वह कम है हमको
लिए जाती है कहीं एक तवक़्क़ो गा़लिब
जाद-ए-रह9 कशिशे काफे-करम है हमको
मीरज़ा साहब अपनी देहली में तो किनारे जमुना की सैर को कभी जाते भी थे। उन्होंने देहली की रौनक़ में जिन पाँच बातों का शुमार किया है उनमें शाम को जमुना के किनारे की सैर भी है। लेकिन यहाँ तो वह इस मतलब से आए थे कि बादशाह की तारीफ़ में जो लिखा है उसके सिले में उन्हें सम्मान और इनाम मिले। वह तो पूरा हुआ नहीं। बात ये है साहबज़ादे कि हम लखनऊ वाले ग़रज़ से आने वालों को कुछ नहीं देते। बेग़रज़ आओ फिर देखो एक क्या लाख पाओ। जौनपुर की बात और है। वहाँ बेमाँगे क्या, बेचाहे भी मिल जाता है।
तुम्हें मालमू है, मैं जौनपुर शहर के बिलकुल बीचो-बीच बहती हूँ, शहर ठीक दो हिस्सों में बँट जाता है। अकबर बादशाह ने मुझ पर जो पुल बनवाया तो क्यों बनवाया, जानते हो? फ़ौजी या मुल्की ज़रूरत से नहीं, एक दुखियारी की ख़ातिर जो पार न उतर सकी थी और अपने दूध्ा पीते बच्चे की ख़ातिर आँसू बहा रही थी जिसे वह उस पार छोड़ आयी थी। अँध्ोरा तो उध्ार बहुत जल्द उतर ही आता है, और मल्लाह, केवट सब सरे शाम घर चले जाते थे कि उन्हें मेरे गहरे पानी में घडि़याल और मगरमच्छ का ख़ौफ़ था। दुख भरी माँ को घास के गट्ठे बेचते देर हो गयी थी और रात सारे शहर पर छाने लगी। मल्लाह, कश्ती बान सब सर छुपा कर बैठ रहे थे। ग़रीब करे तो क्या करे, किसे अपनी व्यथा सुनाए? अज़ानों की सदाएँ हर तरफ़ गूँजने लगीं, दुकानें बन्द होने लगीं। ये कोई दिल्ली शहर तो था नहीं कि बेफि़करे, सैलानी जीवड़े, कानों में इत्र की फुरेरी दिये, मुँह में तंबोल की गिलौरी, आँखों में काजल, एक-दूसरे के हाथ में हाथ दिए बाज़ार की सैर करते फिर रहे हैं।
इतने में ‘तरक़ुवा! तरक़ुवा! हट के चलो साहबो!’ की आवाज़ें आने लगीं। चमकीले सवारों की चमक-दमक, घोड़ों की दुलकी चाल के साथ शाही ऊँटों के झाँजन ध्ाीमे बजते हुए। राहें जो पहले से सुस्त चाल थीं अब उन पर बन्दिश लग गयी। दो रुख़ी मकान और दुकाने साँस रोके आने वाले मंज़र की रंगीनियों में खो गयीं। एक रेला आहिस्ता क़दम गुज़रा, मुबारकबाद और ख़ुशआमदीद का झड़ाका बरसा, और उसके बीच आला हज़रत शाह शाहाने महाबली जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बादशाह ग़ाज़ी की सवारी यूँ नज़र आयी जैसे सुबह की ठण्डी हवा लहराए और पहाड़ की चोटी से ध्ाँुध्ा छट
8 कारण
9 सफर का सामान
जाए और आसमान पर रोशनी का झमाका चमक जाए, या बिलकुल सफ़ेद सम्मान की पगड़ी बाँध्ो हुए, पहाड़ के कि़ले के पीछे से चमकीले चाँद के सूरज का गरिमापूर्ण, गर्म और मेहरबान चेहरा सामने आया। महाबली और शाही सितारे का चेहरा कि़ले की तरफ़ था। अचानक आप की निगाह, चमकदार तलवार की तरह तेज़ और कोहेतूर पर गिरने वाली बिजली की तरह रौशन, उस दुखियारी पर पड़ी और उसकी कि़स्मत, और साथ ही सारे शहर जौनपुर की तक़दीर का सितारा उस अँध्ाियारी शाम में जगमगा उठा। हुक्म फ़रमाया, इस ग़रीब पर क्या दुख पड़ा है, यह यहाँ तन्हा क्यों आँसू बहा रही है। जब सारा शहर अपने-अपने घरों की तरफ़ जा रहा है। पलक झपकते ही उस ग़म में डूबी औरत का हाल पूँछा, और उसके दुख का हल फ़ौरन हुआ।
परदेसी घसयारन ने जब ख़ुदा के आला बन्दे के मुलाजि़मों का ध्यान अपनी तरफ़ पाया तो घबरा कर उठी। आगे आने की हिम्मत अपने अन्दर उसने न देखी और वहीं से फ़रयाद करने लगी।
‘‘अन्न दाता, मल्लाहों ने दरिया को बन्द कर दिया। मैं पार नहीं जा सकती। मेरा बच्चा भूख से बिलखता होगा।’’
भाव जैसे ही कानों में पड़े़ इन्साफ़ करने वाले बादशाह का फ़रमान जनहित में जारी हुआ कि परदेसी औरत को शाही प्रबन्ध्ा में दरिया पार कराएँ। और मुनइम ख़ाने ख़ानान को हुक्म हुआ कि यहाँ, इसी जगह पुल तामीर किया जाए। और उस पुल पर आने-जाने की किसी को रुकावट न हो, कोई कर न लिया जाए, कोई पाबन्दी वक़्त की या मज़हब, या सम्प्रदाय की न हो। मुनइम ख़ान ने ज्योतिषों को बुलवा कर कहा कि अभी इसी रात यहाँ काम शुरू हो। लेकिन मुख्य ज्योतिष ने कहा, ख़ता माफ़ हो, ख़ाने ख़ाना का फ़रमान अपनी जगह से टल नहीं सकता, लेकिन यहाँ पुल बन नहीं सकता। इस जगह दरिया की गहराई बहुत और पाट ज़्यादा है। जगह-जगह कुण्ड भी हैं जिनमें नाग और कछुए बारह मास मुक़ीम रहते हंै। सैलाब के ज़माने में नदी बहुत बढ़ जाती है, अगर पुल बन भी गया तो उस वक़्त बहुत ख़तरे से भरा हो जाएगा। एक डेढ़ सौ गज़ ऊपर या नीचे, हुक्म हो तो पुल के निर्माण का काम शुरू किया जाए।
ख़ाने - ख़ानाँ सोच की तह और इन्तेहाई मातम और हैरत में ग़ोते लगाने लगे। मुद्दत बाद उन्होंने सर उठाया और कहा, हुज़्ाूर के ग़्ाुलामों का फ़रमान है कि पुल यहाँ और इसी जगह बने। महाबली की हुक्म की नाफ़रमानी का मुक़दमा तो अलग रहा, यह बात मेरे लिए बड़ी हेटी की होगी। ये जि़ल्लत मैं क्योंकर बर्दाश्त कर सकूँ हूँ। कुछ भी हो, अब पुल तो यहीं बनेगा। ख़र्चा ज़्यादा हो तो हो, लेकिन काम हुक्म के मुताबिक़ ही होगा। मरता क्या न करता, ज्योतिषी से बहुत सोच विचार कर प्रस्ताव किया कि पुल की बुनियाद यूँ की जाए कि पहले सूखी ज़मीन पर पाँच या सात दरवाज़ों का पुल खड़ा करें, फिर आहिस्ता-आहिस्ता दरिया को काट कर उस तरफ़ ले जाएँ। जब इतना पानी ठहर जाए तब और दरवाज़ों का निर्माण भी यूँ ही हो। इस तरह इस प्रस्ताव के मुताबिक़ नक्शे बने, दरवाज़े क़ायम किए गए। दरिया को इस सावध्ाानी के साथ काटा गया कि पानी कटकर बाढ़ न बन जाए और शहर को बरबाद न कर दे। सब हुआ, लेकिन मेरे पानियों की ध्ाार का उन्हें अन्दाज़ा न था। वह पाँच दरवाज़ों वाला पुल वहाँ चन्द घड़ी भी क़ायम न रह सका।
तुम जानते ही हो, ख़ाने ख़ाना शाइर भी थे, साहिबे दिल भी थे। अल्लाह वालों के क़रीब रहते थे। फिर उन्होंने दो-चार टोपियाँ सिलकर थोड़ी बहुत रक़म ख़ालिस हलाल आय के तौर पर कमाई और उससे शहर के सभी आलिमों, संभ्रांतों और सूफि़यों की दावत की। खाने के बाद उन सबने दुआ के लिए हाथ ऊपर उठाए।
ख़ुदा के क़रीबी बन्दों, इबादत की बारगाह में ये दुनियादार एक ग़रज़ से हाथ जोड़कर खड़ा है, आप पवित्र हस्तियों को मालूम है कि आला हज़रत ने यहाँ पुल बनने का हुक्म दिया है। इसका फ़ायदा हर ख़ास ओ आम को हासिल होगा। लेकिन यह पुल बज़ाहिर वास्ततिकता से दूर और सिर्फ़ कल्पना में क़ैद है। आप दुआ फ़रमायें कि योजना अच्छे अन्जाम को पहुँचे और जल्द पहुँचे।
शाह शेख़ू मजज़्ाूब (ख़ुदा में विलीन दीवाना) वहाँ एक अल्लाह वाले थे, रशीदिया सिलसिले की बुनियाद रखने वाले क़ुतुबुल अक़ताब हज़रत शेख़ मोहम्मद रशीद जौनपुरी ताब सराह के दोस्तों में थे। उनके दिन-रात वहीं दरिया के किनारे गुज़रते थे। अवाम में हज़रत मजज़्ाूब के नाम से मशहूर थे। आपने दुआ के लिए हाथ उठाए तो सबने हाथ उठा दिए। वह कुछ ऐसी कु़बूलियत की घड़ी थी कि उसके बाद राज मिस्त्रियों ने जो ईंट रखी अपनी जगह से हिल न सकी। सोलह दरवाज़ों का पुल तैयार हुआ। एक दर की मेहराब पर वही अवध्ा की मछलियाँ बनीं जिन्हें बाद में शेख़ अब्दुर्रहीम जौनपुरी ने मच्छी भवन के लिए पसन्द किया। लेकिन यहाँ इस लुत्फ़ के साथ कि एक तरफ़ से देखो तो मछलियाँ एक और तरह की नज़र आती हैं और दूसरी तरफ़ से देखो तो किसी और तरह की।
शाह शेख़ू साहब के लिए एक मस्जिद पुल के ऊपर ठीक बीच ओ बीच में निर्मित हुई और उस पुल का तारीख़ी नाम ‘सिरातुल मुस्तक़ीम’ क़रार पाया। तुम जानते ही हो ये मुबारक और मुनासिब अल्फ़ाज़ तुम्हारी किताबे-अल्लाह में सूरे फ़ातिहा (क़ुरान की पहली आयत) में हैं। शाह साहब का मज़ार भी इसी मस्जिद में दरवाज़े से बिलकुल मिला हुआ है। लोग कहते हैं जब तक आपकी वह ख़्वाबगाह क़ायम है, पुल भी सलामत रहेगा। क़ुतुबुल अक़ताब हज़रत शेख़ मोहम्मद रशीद जौनपुरी के सिलसिले के मशहूर सूफ़ी और मशहूर शाइर हज़रत आसी सिकन्दरपुरी का शेर तुमने सुना होगा।
पुल भी है फ़ख्रे जौनपुर आसी
ख़्वाबगाहे जनाबे शेख़ू है
तब से अब तक इस पुल पर चार सौ से ज़्यादा बरसातें और दर्जनों जान लेवा बाढ़ें गुज़र चुकी हैं। न जाने कितनी बार ऐसा हुआ कि मेरे पानियों के रेले पुल पर से दो गज़ ऊँचे बहे और कई-कई दिन तक यूँ गुज़रते रहे गोया पुल न हो मेरी बड़ाई के लिए शाहराहे आम हो और जब मेरे पानियों का ज़ोर घटा तो पुल जहाँ था वहीं था। सन् 1781 में मेरी लहरों ने बहिया का वह समाँ पैदा किया था कि मेरा ध्ाारा पुल के ऊपर बनी हुई कोठरियों की छत पर से बहता था। जब मेरा जोश थमा तो सारी कोठरियाँ वैसी ही थीं।
हज़रते शेखू मजज़ूब इसी मस्जिद के हुजरे में रहते, कहीं आते न जाते। सख़्त सर्दियों के मौसम में एक फटी हुई दुल्लक़ अपने पुराने महमूदी के कुर्ते पर डाल लेते फिर भी सर्दी से काँपते रहते। जब कोई सलाम को हाजि़र होता तो गुदड़ी उतार कर फ़रमाते, ऐ जाडे़ इसी गुदड़ी में चला जा। बस सर्दी उनसे दूर हो जाती और वह फटी दुल्लक़ कँपकपाती रहती। जब वह शख़्स चला जाता तो फिर वही गुदड़ी पहन कर पहले की तरह जिस्म कँपकपाता रहता।
चलो, लखनऊ को वापस चलो। यहाँ के हाकिम का वचन था कि जहाँ बे माँगे मिले वहाँ चोरी क्यों करे। यहाँ के बादशाह देहली के सुल्तानों और मुग़ल शहंशाहों की तरह न सही, लेकिन जब एक छोटे से बादशाह ने सुना कि विलायत में अब लोहे के पुल भी बनने लगे हैं तो बादशाह ने पहले इरादे में ज्योतिषों से मशविरा करके और पूरी नाप जोख के बाद एक लोहे का पुल बहुत बड़ा ख़र्च करके विलायत से मँगवा कर मुझ पर बँध्ावाया और उसकी जगह वह मुक़र्रर की जहाँ हुसैनाबाद के पास से सीतापुर के लिए राह मुड़ती है, इस ख़्याल से कि वहाँ से आने-जाने वाले मुसाफिर बहुत थे। बात तो ठीक थी, लेकिन अँगे्रज़ का इक़बाल भी बुलन्द था। उसने कई साल बाद लखनऊ के उत्तर में पाँच कोस दूर सीतापुर वाली सड़क पर मडि़याँव क़ुरिये में अपनी फ़ौज की छावनी क़ायम की और इसी पुल ने उस छावनी के फ़ौजियों की राह आसान कर दी जब वह यहाँ के आखि़री ताजदार जाने आलम वाजिद अली शाह पिया को सत्ता से हटाने पर मुस्तैद कम्पनी बहादुर के रेजि़डेन्ट बहादुर आर्टªम साहब की खि़दमत में हाजिऱ हुए। मियाँ असदुल्लाह ख़ान ग़ालिब, हालाँकि ज़माना परस्त और मौक़े को पहचानने वाले थे, लेकिन अवध्ा के अँग्रेज़ों के हाथ में चले जाने पर उदासी का तुरन्त इज़हार उन्होंने भी किया। उनकी एक चिट्ठी का ये वचन एक वक़्त में लखनऊ शहर में हर आम ओ ख़ास की ज़्ाुबान पर था। उन्होंने लिखा, ‘‘सल्तनते अवध्ा को हथियाना ऐसा है, हालाँकि मैं उससे बेगाना हूँ, इसने मुझे उदास किया। मैं तो कहता हूँ कि सख़्त ना इन्साफ़ हैं वह अहले हिन्द जो उदास न हुए हों।’’ काश कि वह लोहे वाला पुल न होता। फिर जान कम्पनी की फ़ौज इतनी आसानी से शहरे लखनऊ में न घुस आती।
तुमने बाबा निज़ामुद्दीन साहब औलियाओं के सुल्तान की बावली का जि़क्र सुना है कभी? लोग कहते हैं कि बाबा साहब की उस बावली का पानी सात सोतों का संग्रह है और कई बीमारियों में शिफ़ा बख़्शता है। अब भी इसमें सैकड़ों लड़के और मर्द रोज़ाना कूदते और नहाते हैं और पानी गन्दा नहीं होता। मैं तो यहाँ हज़ारों बरस से बहती हूँ, मुझे दूर-दूर की ख़बर मिलती रहती है, और ख़्वाजा निज़मुद्दीन साहब जि़क्रे अल्लाह बख़ैर के ख़ास चाहने वाले और ख़लीफ़ा मियाँ नसीरुद्दीन फ़ारूक़ी अवध्ाी मेरे ही किनारों से उठकर के हज़रत के क़दम लेने देहली गये थे। तो जिस ज़माने में यह बावली बन रही थी, उसी ज़माने में सुल्तान ग़यासुद्दीन मोहम्मद तुग़लक़ कई कोस दूर अपना कि़ला बनवा रहा था। शहर और आस-पास के बेहतरीन कारीगर वहाँ काम पर मुकर्रर थे। बाबा निज़ामुद्दीन साहब को अच्छे कारीगर न मिलते थे, इसलिए उन्होंने तुग़लक़ के कारीगरों को बुलवा कर कहा कि मियाँ, तुम दिन में सुल्तान के यहाँ काम करो, रात को मेरी बावली बनाया करो, काम कुछ दिन बख़ूबी चला। जब सुल्तान को पर्चा लगा कि जनाब, वहाँ तो झकाझक चिराग़ाँ है, रात में दिन का समाँ है, बावली की बुनियादें गहरी होती जा रही हैं, दीवारें उठ रही हैं, पानी फूट चुका है। सुल्तान, कि आप जनाब से पुरानी दुश्मनी रखता था। नाराज़ हुआ कि यह मेरी तौहीन नहीं तो और क्या है? मैं अपना कि़ला बनवाऊँ और यह गुदड़ी पहनने वाला मेरे ही कारीगरों से रात को काम ले, गोया मुझसे आँख मिलाएगा? कुछ लोग यह भी कहते हैं, कि एक बार सुल्तान ने कुछ कारीगरों को निर्माण के दौरान देखा कि उन्हें कुछ ऊँघ आ गयी है। शोध्ा के बाद मालूम हुआ कि यह लोग रात के वक़्त सुल्तान जी साहब की बावली पर काम करते हैं। सुल्तान को ख़ौफ़ पैदा हुआ कि रात भर वहाँ जागना, और दिन में यहाँ ऊँघना, इस तरह तो यह कारीगर मेरी ही बुनियाद ख़राब कर देगें। हुक्म हुआ कि कोई भी रौग़न फ़रोश तोला भर भी रौग़न ख़ानक़ाह निज़ामी को न फ़रोख़्त करे। ख़्वाजा नसीरुद्दीन कि ख़्वाजा जि़क्रुल्लाह बख़ैर की तरफ़ से निगरानी तामीरात पर पदस्थ थे, आपकी खि़दमत में तशरीफ़ लाए और अपनी मुश्किल बयान की। ख़्वाजा जि़क्रुल्लाह बख़ैर ने फ़रमाया, कोई बुराई नहीं, अपने चराग़ों में ज़रा सी घास हमारी ख़ानक़ाह के आसपास की लेकर ऊपर से बावली का पानी डालो और बिस्मिल्लाह पढ़ कर फँूक दो। लो साहब, हर तरफ़ चिराग़ ही चिराग़ रौशन हो गये। और तब से नसीरुद्दीन साहब अवध्ाी फ़ारूक़ी को चिराग देहली कहा जाने लगा और अब भी कहा जाता है।
रात और दिन के निमार्ण का एक वाक़्या हम लखनऊ वालों ने भी इतिहास में लिखा है, तुमने सुना होगा? हज़बर जंग मोहम्मद यहिया मीजऱ्ा अमानी ख़ान आसिफ़द्दौला के ज़माने थे। अचानक सन् 1784 में लखनऊ, हरदोई, सीतापुर, यहाँ तक कि पीलीभीत तक के इलाक़े में बारिशें न होने और ग़ल्ला फ़रोशों की जमाख़ोरी की वजह से सूखा पड़ा और लखनऊ की आबादी, क्या दौलत मन्द और क्या ग़रीब सब भूखों मरने लगी। ग़रीबों को तो देने के हज़ार बहाने थे, मगर सफ़ेद पोशों, पढ़े लिखों और कुलीन वर्ग को? उनमें से अक्सर ने कभी हाथ में तलवार और तीर कमान के सिवा कुछ कुल्हाड़ी, फावड़ा, छेनी, बसुला न उठाया था। और दिन के वक़्त किसी के आगे हाथ फैलाना अपनी शान के खि़लाफ़ समझते थे, चाहे वह मुल्क के वज़ीर का शीश महल हो या मच्छी भवन के शेख़ज़ादों के सौ दरवाज़ों में से एक दरवाज़ा हो।
लेकिन लोग यूँ ही तो थोड़े ही कहते थे, जिसको न दे मौला उसको दे आसिफ़द्दौला। फिर नवाब वज़ीर ने शीश महल के ठीक सामने इमाम बाड़े और मस्जिदे आसिफ़ी की बुनियाद डाली। हुक्म हुआ कि ज़ोर शोर से काम हो, जिसको भी फावड़ा, कुदाली सँभालना आता हो, या न भी आता हो, जो मिट्टी की टोकरी उठा सकता हो, वह आए और काम से लग जाए। ख़बरदार एक घड़ी भी काम न रुकने पाए। दूसरी तरफ़, नवाब वज़ीर के हरकारे ख़ुफि़या संभ्रांत और सफ़ेद पोशों के दरवाज़ों पर हाजि़र हुए और कहा कि नवाब हज़बर जंग का फ़रमान है कि शाम को अँध्ोरा ढलने पर शीश महल तशरीफ़ लाएँ। लोग चुपके-चुपके, रुक-रुककर पहुँचे, फ़ाक़ों ने पेट और पीठ को एक कर दिया था। किसी की टूटी जूतियाँ रस्सी से बँध्ाी हुयी थीं कि अच्छी जूतियाँ बेचकर बीवी बच्चों का पेट भरा था। कुछ का हाल दिखने में बेहतर था, लेकिन अन्दर का हाल अल्लाह ही जानता था।
शीश महल के सामने घटा टोप अँध्ोरा। रोज़ के सामान्य चिराग़ भी न जलते थे। वह फाटक जहाँ रात को वह रोशनी होती थी कि सुई गिरे तो उठा लो, वहाँ अब हाथ को हाथ न सुझाई देता था। चैबदार ने बाहर आकर हुक्म सुनाया।
‘वह जो सामने इमारत बन रही है, बन्दगाने आली का हुक्म हुआ है कि र्इंट से ईंट उसकी बजा दी जाए। रौशनी हरगिज़ न मिलेगी, टटोल-टटोल कर काम करें या गिर पड़ कर। लेकिन कोई किसी का नाम न पूछे, न पता जानने की कोशिश करे। बस मुँह पर ढाटा हो और आप के हाथ पाँव। मिट्टी ढोने के लिए छोटी-बड़ी डालियाँ, गड्ढे खोदने के लिए फावड़े और कुदालें सब मौजूद हैं। फ़ज्र (सुबह सूरज निकलने से पहले की नमाज़) की अज़ानों के पहले काम बन्द हो जाएगा। बिस्मिल्लाह।’
लेकिन मज़दूरी? और जो हाथ पाँव टूटेंगे उसका मुआवज़ा? हमारी ग़ैर हाजि़री में हमारे घरों, हमारी ड्योढि़यों की रखवाली?
‘रखवाली बेशक होगी और बराबर हो रही है साहबे मन। मुआवज़ा और मज़दूरी सब आपके दौलतकदे पर रोज़ के रोज़ पहुँच जावेंगी।’
पौ फूटी, दिन निकला, दिहाड़ी के कारीगर काम पर पहुँचे, देखा कल का सारा काम तलपट हुआ है। हुक्म मिला, काम दोबारा शुरू हो और हरगिज़ मुँह से शिकायत के लफ़्ज़ न निकलें। एक रिवायत यह भी है कि ज्योतिष और राजमिस्त्री और मज़दूर तीन दिन काम करते, चैथी रात को कुलीन लोग आकर बना बनाया काम बिगाड़ते, अगली सुबह निर्माण फिर शुरू होता। लेकिन यह बात सही नहीं लगती, कि तीन दिन में तो बहुत सारा मसाला और बहुत सारी जुड़ाई ईंटों की जम के सख़्त हो जाती, फिर उसे उजाड़ना बिचारे गै़र प्रशिक्षित और जिसने पहले काम न किया हो ऐसे कुलीन वर्ग के बस में कहाँ था। यही बहुत है कि हर दिन का काम रात को उजाड़ा जाता, अब ज़ाहिर है कि सारा तो बिगड़ न जाता। बस यह दो क़दम आगे और एक क़दम पीछे वाली बात थी।
तुम जानते हो, यह हिन्दुस्तान जन्नत निशान की आखि़री बड़ी इमारत है जिसमें लोहा बिलकुल नहीं लगा है। इमारतों को लोहे से मज़बूत करने की आध्ाुनिकता अँग्रेज़ बहादुर ने शुरू की थी कि इसे लकड़ी, पत्थर और गच के सहारे इमारत को पाएदार और ख़ूबसूरत बनाने का फ़न मालमू ही न था। और उसके राजमिस्त्री मियाँ किफ़ायतुल्लाह देहली वाले थे। वह ख़ैरुल्लाह ज्योतिष की औलाद थे, वही ख़ैरुल्लाह ज्योतिष जिन्होंने देहली का जंतर मंतर बनाया था और जो ज़्ाुबान और शेरे फ़ारसी में भी इस क़द्र महारत रखते थे कि शब्दकोश लिखने वाले बेमिसाल हज़रत लाला टेकचन्द बहार उन्हें ‘बहारे-अजम’ में जगह-जगह ‘जनाब ख़ैरुलमुदक़्क़ीन’ के उपनाम से उपमा देते हैं। उन निर्माणों के मुकम्मल होते ही मियाँ किफ़ायतुल्लाह की भी जि़न्दगी की बुनियाद टूट गयी और वह भी इसी इमामबाड़े में दफ़्न हैं।
तो मियाँ, इस तरह ये इमाम बाड़ा बना और यह मस्जिद। मस्जिद जो हिन्दुस्तान में उस्मानी तर्ज़ की बेहतरीन इमारत है, और इमाम बाड़ा, जिसकी छत के नीचे एक खम्भा नहीं, सही मानी में बिना खम्भे की है, कि दुनिया में बे नज़ीर है। यह दुनिया की दूसरी बड़ी छत है जो किसी कड़ी पर क़ायम नहीं, पूरी छत एक अज़ीमुश्शान मेहराब है। आज इसकी बारीकियों को जानने वाले कम हैं, लेकिन इसे देखकर हैरते मज़मूम में ग़र्क होने वाले फिर भी बहुत हैं। और क्यों न हों, इन बनाऊँ को बिगाड़ा और बनाया किन हाथों ने है, कुछ समझे ये हैरते मज़मूम क्या है? मियाँ, ये कोई बुरी चीज़ नहीं, बस ये उस शख़्स की हैरत है जो अल्लाह की क़ुदरत के किसी प्रदर्शन को देखकर हैरत में पड़ जाता है। हालाँकि वह पैदा करना और रचना और इशारों और भेदों को नहीं समझता। अगर इन बातों का समझने वाला किसी चीज़ पर हैरत करते तो उसकी हैरत, हैरते-महमूद होगी। और हम जैसों की हैरत तो बहर हाल मज़मूम ही होगी। लेकिन साहबज़ादे, हैरत का भी दर्जा मामूली दर्जा नहीं। इसे हासिल करने के लिए तेज़ नज़र न सही लेकिन नज़र तो ज़रूर ही दरकार होगी।
अध्याय 2
मच्छी भवन को सामने से देखें तो असंख्य झरोखे, खिड़कियाँ, छोटी-छोटी मेहराबों के साए में ताक़ नज़र आते थे। उन ताक़ों और खिड़कियों और झरोखों में शाम ही से शम्मएँ, या चराग़, या मोमबत्तियाँ रौशन कर दी जातीं। आँध्ाी, तूफ़ान, सर्दी, गर्मी, बरसात सब मौसम बराबर थे। रोशनियाँ ज़रूर जलतीं और देर तक इमारत को और इमारत के सामने पूरे इलाक़े को रोशन किए रहतीं। ढूँढ़ने वाले, ताड़ने वाले, बे फि़करे किसी न किसी बहाने गुज़रते रहते और उनकी नज़रें जैसे इत्तेफ़ाक से ऊपर उठ जातीं कि शायद उन चिराग़ों से भी ज़्यादा झमाके वाला कोई चेहरा नज़र आ जाए। अब यह महाबली हज़रत जलालुद्दीन अकबर नूर अल्लाह मरक़दा का ज़माना तो था नहीं, कि जब ऊँची नस्ल वालों और सूबेदारों की उन महफि़लों के दरम्यान सख़्त पर्दा न था। पर्दा था तो सही, लेकिन इस बात से अलग कि कुछ क़रीबी लोगों को ज़नानी हवेली में भी दाखि़ला मिल जाता था। बेगमें सौभाग्य से खुलकर शिकार खेलने निकलतीं, सैर तफ़रीह के लिए मौक़े-मौक़े से बाहर आतीं, नवरोज़, होली, मीना बाज़ार और इस तरह के उत्सवों में बन्दिशें बहुत नर्म हो जातीं और मिलने मिलाने की राहें निकल आतीं।
ध्ाीरे-ध्ाीरे ज़माना बदला, अगले ज़माने के जन्नत निशान का दौर आते-आते औरतों और मर्दों का भेद ज़्यादा हो गया। लेकिन इज़्ज़तदार और क़रीबी शहज़ादियाँ, ख़ासतौर से पादशाह बेगम बाहरी लोगों से मिलने-जुलने में कोई बुराई नहीं समझती थीं। पादशाह बेगम से यह न समझ लिया जाए कि यह खि़ताब बादशाह की किसी मलका या बीवी को मिलता था। नहीं यह दरअस्ल मुग़लिया सल्तनत की पहली ख़ातून की उपाध्ाि और पदवी थी। मुमताज़ महल के स्वर्गवासी होने के बाद शहज़ादी जहाँ आरा पादशाह बेगम बनीं। अगले ज़माने के बादशाह के कै़द होने और मोहिउद्दीन आलमगीर के तख़्त नशीन होने के बाद जहाँ आरा की छोटी बहन रौशन आरा बेगम ‘पादशाह बेगम’ कहलायीं। लेकिन जहाँ आरा की क़द्र दानी और सलाहियत इतनी ज़्यादा थी कि 1666 में अगले ज़माने के बादशाह के ईश्वर से जा मिलने पर शहज़ादी जहाँ आरा दोबारा पादशाह बेगम की उपाध्ाि और पदवी से सरफ़राज़ हुयीं।
अब तो कम्पनी बहादुर का दौर-ए-दौरा बढ़ चला था। नवाब वज़ीर की वज़ारत और नवाबी बाक़ी थी, लेकिन 1764 की जंगे बक्सर ने न सिर्फ़ नवाब वज़ीर शुजाउद्दौला बल्कि ख़ुद शाह आलम पनाह शाह आलम बहादुर शाह सानी की ताक़त बहुत घटा दी थी। कम्पनी बहादुर की औरतें पर्दा नहीं करती थीं, लेकिन अल्लाह की जनता से दूर-दूर और अलग-अलग रहती थीं। फि़रंगिनों का नज़्ज़ारा बहुत मुश्किल हो गया था। तक़रीबन उसी ज़माने में मियाँ मुसहफ़ी ने ख़ुश होकर, और कुछ जले-कटे अन्दाज़ में फ़रमाया।
ऐ मुसहफ़ी लीलाम में कल हम भी गये थे
कर आए हैं इक तरफ़ा फि़रंगन का नज़्ज़ारा
यही वजह थी आँख मटक्का करने वाले यार और बाँके मच्छी भवन के सामने से गुज़रते तो बेइरादा उनकी नज़र उठ जाती कि शायद ज़माने की हसीना की झलक मिल जाए। लेकिन यह मुश्किल, बहुत मुश्किल था। मच्छी भवन के सामने का मंज़र बस ऊँची दीवारों और खिड़कियों, झरोखों वग़ैरा पर आध्ाारित था। मुख्य दरवाज़ा एक था, बहुत ही ऊँचा और बड़ा, निहायत आलीशान। उसकी मेहराबों पर दोनों तरफ़ मछली की छवियाँ थीं। मछली अवध्ा के इलाक़े में अध्ािकता, जोश और ज़्यादा औलादों और ख़ुशहाली की प्रतीक थी। नवाब वज़ीर आला हज़रत हज़बर जंग बहादुर ने भी इसी वजह से मछलियों का जोड़ा अपने राज्य का निशान क़रार दिया था।
मच्छी भवन के पीछे भी यही मंज़र था, कि ऊँची-ऊँची दीवारें, सफ़ेद पुती हुयी, चूना और संगमरमर के कण पीसकर मसाला तैयार होता और बाहर की तमाम दीवारें इसी मसाले के ज़रिए ख़ूबसूरत और मज़बूत बनायी जातीं। खिड़की मगर एक न थी, न कोई झरोखा, न दरीचा। हाँ बग़ल का छोटा दरवाज़ा लगभग उसी शान का था जो बाहरी दीवार के फाटक पर था। मच्छी भवन के नीचे पत्थर और गच की सीढि़याँ दूर तक नीचे उतर गयी थीं, कि एक लम्बा और साफ़ सुथरा घाट बन गया था। महल की बेगमें जब नदी के सैर को या पानी के खेलों की तरफ़ दिलचस्पी लेतीं तो सबसे पहले मज़बूत और ऊँची क़नातें लगाकर बग़ल के घाट को दो हिस्सों में विभाजित कर दिया जाता। क़नातों के एक तरफ़ आम जनता और दूसरी तरफ़ बेगमें। लेकिन यहाँ भी कुछ जियाले ताक-झाँक की सूरत कभी-कभी निकाल ही लेते। और उस ज़माने में अपने पानी की तुमसे क्या कहूँ, किस क़द्र रवाँ, पारदर्शी और ज़ोरदार होता था। मियाँ मुसहफ़ी आशिक़ की आँख की बड़ाई में भी मेरी सूरत दिखा गये, अल्लाह बख़्शे वह लोग थे जो मुझसे मुहब्बत करते थे।
पानी से जो लबालब रहती है चश्मे गिरियाँ10
ये नहर मुसहफ़ी क्या मैं गोमती से काटी
बाद के लोगों में मीर मछली घण्टों बल्कि पहरों तैराकी का हुनर यूँ दिखाते कि चुपचाप मँझध्ाार में क़ायम हो जाते। मैं हज़ार ज़ोर मारती लेकिन वह टस से मस न होते। ऐ लो मैं मस के लफ़्ज़ भी क्या लफ़्ज बोल गयी। मेरी लहरें तो उनको हर वक़्त ही मस करती थीं लेकिन वह मीर साहब, आफ़रीं है कि कभी हिल कर न देते। उन्हीं की तरह और भी लोग थे जिस ज़माने की मैं बात कर रही हूँ एक साहबज़ादे मीरज़ा अली मोहलत भी थे, जो मच्छी भवन की एक हसीना के दीदार के लिए कहीं दूर ग़ोता मारते और चुपचाप पानी के नीचे तैरते-तैरते अपने मुक़र्ररा वक़्त पर मच्छी भवन के घाट के सामने आ जाते। ऊपर छज्जे की चिलवन ज़रा सी हटती, लेकिन इस क़द्र ज़रूर कि कोई उनको देख लेता। वह समझ जाते कि दीदार हो चुका, अब वापस चलिए।
10 रोती आँखें