23-Mar-2022 12:00 AM
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मलिक मुहम्मद जायसी और विजयदेव नारायण साही के नामों में दोहा और चैपाई का सम्बन्ध है। जायसी का नाम दोहे के प्रथम चरण के जैसा तेरह मात्रिक और साही का नाम चैपाई की तरह सोलह मात्रिक है। जायसी के बारे में कुछ उधेड़-बुन करते साही उन्हें हिन्दी के पहले विधिवत् कवि के रूप में पढ़ने की सलाह देते हैं। जहाँ हिन्दी भाषा सहज काव्य-प्रवाह में बहने लगती है और हिन्दी का अवधी रूप काव्यमय हो उठता है -- साही कहते हैं -- जहाँ भाषा खुद कविता को जन्म देती और प्रौढ़ करती चलती है। साही की दृष्टि में कुजात गांधीवादियों की तरह जायसी भी कुजात सूफ़ी थे।
जायसी का सूफ़ी होकर भी कुजात सूफ़ी होना स्वाभाविक है क्योंकि पद्मावत कोरा सूफ़ी काव्य नहीं है। वह पुरान और कुरआन के बीच एक सेतु रचने का काव्य प्रयास भी प्रतीत होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल भी जायसी के समय पर निगाह डालते हुए कहते हैं कि -- पण्डितों और मुल्लाओं की तो नहीं कह सकते पर साधारण जनता राम और रहीम की एकता मान चुकी थी। साधुओं और फ़क़ीरों को दोनों दीन के लोग मान की दृष्टि से देखते थे। सर्वप्रिय साधु और फ़क़ीर वे ही हो सके जो भेदभाव से परे दिखायी पड़ते थे। बहुत दिनों तक एक साथ रहते-रहते हिन्दू और मुसलमान एक-दूसरे के सामने अपना हृदय खोलने लग गये थे। सामान्य जनता की प्रवृत्ति भेद से अभेद की ओर हो चली। मुसलमान हिन्दुओं की रामकहानी सुनने को तैयार हो गये और हिन्दू मुसलमानों का दास्तान हमज़ा।
हम अपने बचपन में घर के जेठे-सयानों से सिंहल द्वीप की सुन्दरी की कहानी सुना करते थे। बरसात के दिनों में हमारे गाँव में आल्हा भी गाया जाता तो लगता कि सिंहल द्वीप की सुन्दरी की कहानी आल्हा से काफ़ी मिलती-जुलती है। आल्हा की प्रत्येक गाथा में राजा की बेटी के निकट जाने और उसका हरण करने का उपाय साधु का वेश बनाना ही अपनाया गया है। ये साधू अपने आपको गोरखनाथ की परम्परा का अनुयायी बताते हैं। आल्हा काव्य की रचना उसी समय हो रही थी जिस समय लोग योगमत के प्रभाव में सिद्धियों को पाने की चेष्टा करते थे। यह नाथपन्थी सिद्धों का समय है और यह वह समय भी है जब अरबी घोड़ों की टापें भारत में सुनायी देने लगी थीं, तुर्क आ रहे थे।
आल्हा खण्ड में प्राचीन लोक गाथाओं का ही अनुसरण किया गया है जिसमें देवताओं के वरदानों का फलीभूत होना, रूप-वर्णन सुनकर मोहित हो जाना, चुगलखोरों के छल, चैपड़ के दाँव, टोने-टोटके, मन्त्र-तन्त्र का प्रयोग, शगुन और स्वप्न विचार और ज्ञानयोग की प्राप्ति आदि उपाय गाथा को रचने में किये जाते हैं। साधन कोई भी अपनाया जाये, नायकों का ध्येय सफल होना ही है। साधुवेश में रनिवास की थाह लेना -- यह कथा रूढि़ हिन्दी के आदिकाल से चलती हुई जायसी तक चली आयी है। मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत काव्य के राजा रत्नसेन सिंहल द्वीप की पद्मावती की खोज साधुवेश में ही करते हैं। साधुवेश में जानकीहरण इसी कथारूढि़ से प्रेरित है। नारियाँ हरी जाती हैं, फिर उन्हें या तो अग्नि-परीक्षा देना पड़ती है या वे चिता सजाकर सती हो जाती हैं।
शुक जन्मजात दूरदर्शी माने गये हैं। उन्होंने ही राजा परीक्षित को शापमुक्त होने के लिए सात दिनों में भागवत की कथा सुनायी थी। वे लोकाख्यान आल्हा और जायसी के पद्मावत में सुनवाँ राजकुमारी और पद्मावती के दूत बनकर हीरामन नाम से लोकप्रसिद्ध हो गये हैं। इन काव्यों में वे दूरदर्शी दूत के रूप में ही आते हैं। नारी की देह सोनबरन की होनी चाहिए क्योंकि लक्ष्मी भी सोनबरन की प्रसिद्ध है। सो वह आल्हा की सोनवती की है और जायसी की पद्मावती भी सोनबरन की है। उसके हीरामन भी सोनबरन के हैं। हीरामन पद्मावती के इसी सोनबरन का वर्णन राजा रत्नसेन से करते हैं और राजा राग से भरकर बैरागी का वेश धारण करता है। पद्मावत के वीर योद्धा गोरा और बादल हू-ब-हू आल्हा-ऊदल जैसे लगते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी पहले रचे गये लोकाख्यानों को ही पद्मावत की रचना का आधार बनाते हैं -- हौं सब कबिन्ह केर पछि लगा। विजयदेव नारायण साही भी अपनी यह धारणा प्रकट करते हैं कि -- जायसी ने अपनी संवेदना को सर्जनात्मक रूप प्रदान करने के लिए उस युग में परम्परा, रूढि़, लोकमानस, दर्शन और संस्कृत-फ़ारसी के बहुत सारे उपलब्ध काव्य-उपादानों का उपयोग किया। इन विविध और कभी-कभी असंगत उपादानों को उन्होंने अपनी भावनात्मक भट्टी में गलाकर एक किया। साही अनुभव करते हैं कि हिन्दू और मुसलमानों पर एक जबर्दस्त करुणा जायसी को आप्लावित कर रही है। इस करुणा की व्यथा जायसी के लिए इतनी भारी है कि उनके पास कबीर की तरह चुनौती और प्रतिरोध की फ़ुर्सत नहीं है।
पद्मावत और जायसी की दुनिया पर मुजीब रिज़वी की किताब बड़े काम की है। वे याद दिलाते हैं कि -- फ़ारसी साहित्य में नैहर और पीहर का रूपक नहीं मिलता। वहाँ तो दुनिया एक सराय और आदमी मुसाफि़र का प्रचलन हुआ। नैहर और पीहर का प्रचलन भारत में ही सम्भव है क्योंकि मध्ययुग में विवाह सम्बन्ध ही नारी के परदेस गमन का कारण था और ससुराल से लौटना मुश्किल था। इसलिए काव्याभिव्यक्ति में विवाह देहावसान का ही पर्यायवाची है। अपने घर से दूर जाते हुए बिदा के समय पुरजन-परिजन-सहजन हमेशा के लिए छूटते-से लगते हैं। जहाँ नैहर से डोली उठती है और पीहर से उसकी अर्थी ही निकलती है। अज्ञात पिया के घर जाते हुए बाबुल से बिछोह हृदयविदारक है और इसकी व्यंजना में अपूर्व शक्ति है। हम याद करें अमीर ख़ुसरो को --
बाबुल मोरा नैहर छूटो रे जाय
चार कहार मिले मोरी डुलिया उठायें रे
मोरा अपना बेगाना छूटो रे जाय
अँगना तो पर्वत भया देहरी भई बिदेस
लै बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देस
आज भी हमारे हिन्दी अंचलों में बेटी की बिदा पर उल्टे बाजे कुछ देर के लिए बजा दिए जाते हैं, उनकी उल्टी ताल सुनकर हृदय काँपता है और लगता है कि जैसे मृत्यु को नेंग में स्त्री सौंपी जा रही हो। सिर्फ़ इतना ही नहीं, देहरी के बाहर कदम रखती बिटिया पर मखाने भी फेंके जाते हैं और डोली में जाती बेटी बन के बरेदी से कहती है -- हमरे खेलत की धरीं हैं पुतरियाँ, गंगा में दैओ सिराय मोरे लाल।
विजयदेव नारायण साही यह भी कहते हैं कि -- जायसी का प्रस्थान-बिन्दु न तो ईश्वर है, न कोई नया अध्यात्म है। उनकी चिन्ता का मुख्य ध्येय मनुष्य है -- जो जीवन से सीखता है, सम्बन्ध्ा जोड़ता है, प्रेम करता है, वीरता और कायरता दिखाता है, राज्य स्थापित करता है, छल-कपट से बाज नहीं आता और इस सबके बाद अपनी अपर्याप्तता की गहरी त्रासदी से ग्रस्त हो जाता है। अपनी मूल प्रकृति में पद्मावत एक त्रासदी है।
मध्य युग के कवि आक्रांताओं के आगे विवश होते जाते मनुष्य को बार-बार याद दिलाते रहे कि यह जो मानव-तन मिला है, इस तन में समाई समूची सृष्टि अगर देखी-परखी जा सके तो यही तन मानव ब्रह्म ठहरता है जिसमें आत्म जागता है और उस समय के कविगण मनुज रूप ईश्वर की वंदना करते हैं। जायसी कहते हैं -- कीन्हेसि मानुस दिहिस बड़ाई और बाद में तुलसीदास भी यही कहते हैं -- बड़े भाग मानुस तन पावा। काव्यों में यह मनुज रूप अकेला ईश्वर अपनी उस प्रिया को खोजता फिरता है जो उससे दूर है और वही उसका वास्तविक घर है। जायसी का एक सिंहलद्वीप गगन में है और दूसरा धरती पर है। धरती पर पùिनी-रूप प्रिया को पाने के लिए सात समुद्र पार करना पड़ते हैं जो देह से बाहर की यात्रा है और उसी प्रिया को देह के भीतर की यात्रा करके पाना हो तो देह में ही बसे सात शरीरों से क्रमशः ऊपर उठने की साधना करना पड़ती है। जब उस प्रिया से मिलन होता है तो सारे छाप-तिलक झर जाते हैं।
जायसी कहते हैं -- सात खण्ड ऊपर कबिलासू। तहँ सोवनारि सेज सुख बासू। जिन नारियों के कन्ता इन रानी सतखण्डा की खोज में साधु होकर सात समन्दर पार चले गये हैं, वे लोकगीतों में बिरहा गाते हुए इन्हें कोसती हैं -- जरियो तो बरियो रे, अरे रानी सतखण्डा हो, तोरे पानों पे परे रे तुसार, तोरे अकेले अरे जियरा बिन, सूनो लागे सकल संसार। वे कहती हैं कि तुम्हारा काम तो पान-फूल से चल जाता है पर पति के घर न लौटने से मेरा संसार तो सूना हो गया है। नागमती का संसार भी कन्ता के बिन सूना है। जायसी कृत नागमती का विरह सहृदय को दो-दो अँसुआ रुलाता है --
विरह उसे भूखे कौए की तरह खा रहा है, माँस खाकर हाड़ पर चिपटा है। याद करें वह लोक प्रसिद्ध व्यथा -- कागा सब तन खाइयो चुन-चुन खइयो माँस, दो नैना मत खाइयो पिया मिलन की आस। बरसहिं नैन चुअहिं घर माँहा -- मेरे नयन आँसू बरसाकर घर में टपक रहे हैं। नागमती अपने प्रियतम का पता वन पाखियों से पूछती फिरती है --ना पावस ओहि देसरें ना हेवन्त बसन्त। ना कोकिल ना पपीहरा केहि सुनि आवहि कन्त। तुलसीदास के राम नागमति की ही तरह सीता का पता पूछते फिरते हैं -- हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी . तुम देखी सीती पिक बैनी। सागर पार किये बिना रामायण भी कहाँ पूरी होती है।
जायसी के पद्मावत में कल्पित सात समुद्र हमारी देह में बसे सात शरीरों जैसे ही हैं। ये हमारी देह में ही हिलुर रहे हैं और इनका पानी भी अलग-अलग स्वाद वाला है। ज्योति के सिंहल द्वीप की ओर शुरू होने वाली हमारी यात्रा क्षार समुद्र से आरम्भ होती है, जो बहुत खारा है और अपनी देह की नौका सबसे पहले इसी में डालना पड़ती है। यही भवसागर, जिसमें हमारे आँसुओं का खारापन रोज़ घुलता रहता है। इस खारेपन को पार करके क्षीर समुद्र में अपनी नौका खेनी पड़ती है। इस सागर की द्रव्यराशि पर मन रीझता है और बटोही भटकता है। इस सागर से पार पाना कठिन है। अगर पार कर लिया तो आगे दधि समुद्र की गहरायी का पता चलता है। जायसी कहते हैं कि शरीर में प्राण दही से भरी मटकी जैसे हैं और मन दृढ़ मथानी है। उस मथानी से प्राण को मथे बिना घी नहीं निकलता, प्रेम की जोत नहीं जलती। आगे उदधि समुद्र आता है जो विरह की ज्वाला जैसा है जैसे वह अपने ही जल को अपनी ही आग में औंट रहा हो। प्रेम की जोत जलाने के लिए जायसी की विरह की आग बिलकुल ऐसी ही तो है, जो अपनी नौका खेती हुई सुरा समुद्र में आकर और अपने ही शरीर को भट्टी बनाकर अपने ही हाड़-माँस को जला देती है। फिर जलते हुए शरीर से टपकती रक्त की बूँदें आँसू बनकर झरने लगती हैं और जब अपने-से अपने को मथता हुआ किलकिला समुद्र आता है तो उसकी लहरें गगनमण्डल की ओर उठती जाती हैं। जायसी कहते हैं कि मृत्यु ही प्रलय है। इस प्रलय से भयभीत हो जाने पर सत डोल जाता है। जिसका खेवा इस सागर को पार कर ले, उसे ही मानसर समुद्र के दर्शन होते हैं -- जब कालिमा पीछे छूटती जाती है और ज्योति का प्रकाश क़रीब आता दीखता है। फिर मानसर ही अपने आपसे कहता है, यह मानसर हमारा मानस ही तो है --
कहा मानसर चहा सो पाई। पारस रूप इहाँ लगि आई।
भा निरमर तेन्ह पायन परसें। पावा रूप रूप के दरसें।
पाये रूप रूप जस चहे। ससि मुख सब दरपन होइ रहे।
सूफि़यों के स्वर्ग में रहने वाली यह सतखण्डा पाट प्रधानी रानी महमदनूर की तरह पद्मावत काव्य की नायिका है। भारतीय दर्शन सृष्टि रचना का आदिभूत कारण प्रकृति में खोजता है। सूफि़यों की यह हक़ीकतुल मुहम्मदिया भी ऐसी ही जान पड़ती है। वासुदेव शरण अग्रवाल ठीक ही कहते हैं कि -- जायसी ने अरूप ज्योति की सलोनी कथा कही है जो सूर्य होकर रत्नसेन के हृदय में विराजती है और अपने पंचभौतिक सौन्दर्य में चन्द्रमा बन जाती है जिससे मिलने के लिए रत्नसेनरूपी सूर्य व्याकुल होता है। अमूर्त ज्योति का मूर्त रूप ही पद्मावती की भौतिक देह है। जो सोलह कलाओं से पूर्ण होकर पद्मावत काव्य की लावण्यमयी नायिका है। जायसी ने वैदिक दृष्टि से यह जान लिया होगा कि यह विश्व अग्नि और सोम का ही रूप है। सिद्ध कवि गुण्डरीपा कहते हैं कि सूरज और चाँद -- इन दोनों पंखों को काटकर ही उस ज्योति से ही यह घर प्रकाशित हो सकता है जो सूर्य-चन्द्र को भी प्रकाशित करती है। हठयोगियों के काया-साधन में सूरज और चाँद इड़ा-पिंगला ही हैं, गोरी और साँवरी भी यही हैं। यह द्वैत का अंधेरा इन दोनों के समरस हुए बिना दूर नहीं हो सकता।
मलिक मुहम्मद जायसी कहते हैं -- मानुस प्रेम भएउ बैकुंठी। नाहिं त काह छार एक मूँठी। एक मुश्तेगुबार होकर रह जाना आदमी की सीमा है और किसी की आँख का नूर हो जाना उसकी असीमता है। काया-साधन कई प्रकार के रहे हैं पर प्रेम के लिए तो हृदय ही है, जो मनुष्य के भावसंसार के साथ उसका विज्ञानकोष भी सम्भालता है। यही वह गर्भगृह है जिसे पद्मावत के अवतरण के चालीस बरस बाद तुलसीदास हृदय सिन्धु कहते हैं जिसमें हमारी मति सीप की तरह किसी मुक्तारूप को पाने के लिए हिलुरती रहती है। जायसी कहते हैं -- पानी माँह समानी जोती। पानिहि उपजै मानिक मोती। -- ईश्वर का घर पानी में है और जल की सूक्ष्मतम अवस्था को श्रृद्धा कहा गया है। यह श्रृद्धा ही सातों भवसागरों से पार उतारती हुई देह को ही देह में ऊँचा उठाती है।
कवि विद्यापति की याद आती है, वे प्रेम में डूबती जाती देह में घटती उस प्रलय को रच सके, जिसके अन्तरतम में जल उमड़ रहा है, देह की धुरी डगमगा रही है और प्राण ऐसे व्याकुल हो रहे हैं जैसे प्रलय का समय हो। देह ऐसे डूब रही है जैसे किसी युग का अवसान हो रहा हो और जिसके घट जाने के बाद अपनी ही देह पर प्रेम की अनुभव भूमि ऊपर उठती हुई दीखती है। प्रेम का वह आकाश दीख पड़ता है जहाँ श्यामघन में समायी प्रिया बिजुरी की तरह उसी में सिहरती है और उसी में समाए चली जाती है। यह प्रेमघन उसी पर बरसकर उसकी देह को कुसुमित होने के लिए ऐसे उत्सुक करता है जैसे फिर कोई नया युग आ रहा हो -- प्रेम में ऐसे ही युग बीतते और आते रहते हैं, प्रेम का अल्त कभी नहीं आता।
मुजीब रिज़वी अपने जायसी अध्ययन के आधार पर यह मानते हैं कि पद्मावत की रचना एक ही समय में नहीं हुई है। प्रारम्भ में यह एक लघु प्रेमाख्यान ही रहा होगा। बाद में जायसी अपने जीवन काल में उसे संशोधित भी करते रहे। मुझे तो यह भी लगता कि उनके जीवन काल के बाद भी उसमें कुछ जोड़ा-घटाया जाता रहा होगा। कहीं-कहीं तो रामचरितमानस से भी साम्य निकल आता है। तुलसीदास जिस --जग सम्भव पालन लयकारिणी अजा-अनादि शक्ति को पहचानते हैं जायसी उसे भंजन, गढ़न, सँवारन कहते हैं। कवि तुलसी कहते हैं -- कबिहि अरथ आखर बल साँचा। अनुहरि ताल गतिहि नट नाचा। और कवि जायसी -- हौं सब कबिन्ह केर पछि लगा। किछु कहि चला तबल देई डगा। यह भी सम्भव है कि शास्त्रों और ग्रंथों का काव्य रस निकालने वाले महाकवि ने जायसी से भी कुछ सीख लिया हो। आखिर दोंनो माँग के खाकर और मसीत में सोकर अपना गुजारा चलाने की तो ठाने हुए थे।
विजयदेव नारायण साही की यह स्थापना बहुत सटीक लगती है कि -- जब दो तरह की पौराणिकताएँ एक-दूसरे का निषेध करके केवल विध्वंस और कट्टरपन को जन्म देती हों, जहाँ इतिहास आंतरिकता के अभाव में वीराने में सुल्तान खड़े करता हो, वहाँ बिना पौराणिकता का आश्रय लिए काल और कालातीत, इतिहास और इतिहासातीत को कैसे जोड़ा जाये। यही समस्या जायसी को वह ट्रैजिक विजन प्रदान करती है जिसे साही विषाद-दृष्टि कहते हैं। सिंहल-लोकीय काल का विश्लेषण करते हुए साही एक और बात भी कहते हैं कि -- वहाँ कालबोध एक चिरंतन स्थिरता और वैश्विक सामरस्य की तरह अनुभूत होता है। परन्तु दिल्ली-चित्तौड़ की दुनिया में काल भूत-वर्तमान-भविष्य की सीधी रेखा में दीखता है। हर स्थिति और घटना भविष्य की ओर भागती है और इस भविष्य पर किसी का कोई अधिकार नहीं। न रत्नसेन का, न अलाउद्दीन का।
द्वितीया तभी आयेगी, जब उसे आना होगा। वह एक दिन पहले नहीं आ सकती और यदि जादू से लाई जायेगी तो अपराध और विपत्ति का सूत्रपात करेगी। जायसी दो बोल सँवारते हैं। आज फिर ये दो बोल बिखराये जा रहे हैं। काश हम इन दो बोलों को फिर सँवारकर जायसी की तरह कह सकें -- हम सँवरै दो बोल।
कबीर तो अपने प्रतिरोधी स्वर में बार-बार यही कहते रहे कि -- अरे इन दोउन राह न पाई। यह भी कहते रहे कि -- केतिक कहौ कहा नहिं माने, आपहि आप समाना। हम याद करें जब राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद का फैसला आया तो दो न्यायाधीशों ने बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही। श्री चन्द्रचूड़ ने कहा कि -- हमारे देश की धरती आक्रमणों और असंतोष की गवाह रही है फिर भी भारत के विचार में उन सभी को स्थान मिला, जिन्होंने अपना महत्त्व साबित किया। जस्टिस श्री नजीर ने यह माना कि -- न्यायालय को ऐसे मामले में न्याय करना है जिसमें सत्य की खोज के दो तरीके एक-दूसरे की स्वाधीनता का हनन करते हैं।
चार सौ साल पहले मलिक मुहम्मद जायसी के कबिलास में इसी न्याय की खोज की विकलता अनुभूत होती है। वहाँ भी दो सचाईयाँ एक-दूसरे की स्वाधीनता का हनन करती आमने-सामने खड़ी हैं और जायसी आक्रमण और असंतोष के बीच भारत के विचार में दोनों का महत्त्व निरूपित करने के लिए व्याकुल हैं। एक का मानता है कि उसका पीहर गगन में और नैहर धरती पर है। दूसरा मानता है कि उसका पीहर धरती पर है और नैहर गगन में है। यह जायसी जैसे एक कुजात सूफी कवि के ही वश की बात थी जो दोंनो के नैहर और पीहर की परस्पर विरोधी दूरियों को पाटने के लिए एक प्रेम-आख्यान रच सका।
कबीर तो कहते ही हैं कि हम वासी उस देश कौ, जँह जाति बरन कुल नाहिं। शबद मिलाबा होय रहा देह मिलाबा नाहिं। तभी तो जायसी अपने शबद मिलावे में दोनों के बोल सँवारते हैं। ख़ुदा करे, भारत के नागरिकों की सूची बनाने वाले लोग जाति-बरन और कुल से ऊपर उठकर इन दो बोलों को बिखरने से बचा सकें।