22-Mar-2023 12:00 AM
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सोलह मई को हमारे ‘राष्ट्रपति’ नहीं रहे।
‘राष्ट्रपति’ की संज्ञा उन्हें गजानन माधव मुक्तिबोध ने दी थी- सागर विश्वविद्यालय के उन गौरवशाली दिनों में जब ‘राष्ट्रपति’ यानी जितेन्द्र कुमार ने अशोक वाजपेयी, आग्नेय और अन्य तरुणों को लेकर रचना और संस्कृति कर्म की खूब जीवन्त और सक्रिय दुनिया निर्मित की थी। मुक्तिबोध को वह दुनिया आकर्षित करती थी। आज भी तब के लोक मुक्तिबोध के साथ विमर्श सूचना सहमति- मतभेद से आन्दोलित दिनों और रतजगों की सघन आत्मीयता से भरी स्मृतियों को अनूठी थाती की तरह दुहराते हैं। जितेन्द्र कुमार को मुक्तिबोध द्वारा दी गयी ‘राष्ट्रपति’ की संज्ञा इतनी प्रचलित हो चली थी कि उनके तब के समकालीन बाद के वर्षों में भी आपस में उनका उल्लेख करते हुए बड़ी सहजता से ‘हमारे राष्ट्रपति’ कहते रहे।
उस दिन सुबह मेरे सेलफ़ोन की घण्टी पहली बार बजी। निर्मला जी की काँपती सी आवाज़ थी। उन्होंने कहा... ‘जितेन्द्र...’ और फिर उनकी रुलाई फूट पड़ी। पल-दो पल में ही यह समझ लेना कतई मुश्किल न था कि क्या घटित हुआ है। सहायिका क्रिया बदलते हुए। फ़ैज़ का एक बिम्ब लेकर कहें कि अन्ततः वह आ पहुँचा- ‘रोक रखा था जो एक तीर क़ज़ा ने कब से’।
जितेन्द्र अस्वस्थ रहते थे और पिछले दो वर्षों में उनका शरीर तेजी से छीजने के लक्षण दिखा रहा था। लेकिन उनका मनोदैहिक स्वास्थ्य तो तभी से बुरी तरह गड़बड़ था जब कश्मीर में आतंकवादियों ने उनकी अकेली सन्तान की जघन्य हत्या कर डाली थी। (जितेन्द्र और निर्मला जी के अपार स्नेह और आशा-आकांक्षा का केन्द्र ‘बेटू’ डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद सेना के डॉक्टर के तौर पर तैनात हुआ ही था कि आतंकवादियों का निशाना बन गया। वह मेडिकल कॉलेज में ही प्रेम में पड़ा था और जितेन्द्र और निर्मला तब उसके विवाह की योजना बना रहे थे जब वह अकाल मृत्यु का ग्रास बना।)
जितेन्द्र ने ‘बेटू’ को खोने के बाद अपने जीवन को समेट लिया। यह और बात है कि उनके सच्चे दोस्त और उनकी प्रतिमा, रचना, मानवीयता और खरेपन को सराहनेवाले लोग उनके पास आत्मीयता और आदर के साथ जाते रहे- इस अहसास के बावजूद कि दुःख के विष ने उनके भीतर जो उत्कट निस्संगता रच डाली है उसे अब हिला-डुला पाना भी बेहद दुश्वारियों भरा काम है- असम्भव की सीमाओं को छूता था।
फिर भी, अक्सर फ़ोन पर कभी-कभार पत्रों के ज़रिए और भोपाल जाकर उनसे मिलते हुए मैं कोशिश करता था कि ‘राष्ट्रपति’ में अतीत की कुछ प्रतिक्रियाएँ, होने की कोई पुरानी शैली, किसी आदत का कोई टुकड़ा, कोई इच्छा फिर से जाग सके। जब तब मैं सफल भी हुआ, एक हद तक ही। दरअसल उन जैसे सब समझे-बूझे इंसान के लिए मेरी ऐसी तमाम कोशिशों के पीछे काम कर रही मंशा को भाँप लेना कठिन न था। फिर भी उन्हें क्रीड़ा-कौतुक के स्तर पर मेरे इस प्रकार के व्यवहार में कभी-कभी आनन्द आता था और वे अपने पुराने, सुपरिचित औघड़ अन्दाज़ में मुझे गालियाँ देने लगते या फिर ‘तुम’ से ‘आप’ वाली शैली में बात करते हुए अलंकृत भाषा के तिरछे वाक्यों से व्यंग्य और उपालम्भ की बौछार कर डालते। और तब मैं कुछ-कुछ आश्वस्त होता कि जितेन्द्र को, शायद प्रयत्न करके, हम फिर से रच लेंगे। निर्मला जी कहतीं, ‘आप से मिलकर, बात करके उन्हें खुश होते हुए देखी हूँ। अच्छा लगता है।’
‘बेटू’ के जाने के बाद भोपाल के आत्म-निर्वासित जीवन में जितेन्द्र ने धीरे-धीरे लिखना छोड़ दिया था। लेकिन क़िताबें, पत्र-पत्रिकाएँ और टेलीविजन की ख़बरों वगैरह से उन्होंने नाता बनाये रखा था। कवि-लेखकों में प्रभात त्रिपाठी और उदयन वाजपेयी उनके मित्र और संगी बने रहे। उदयन डॉक्टर और रचनाकार दोनों होने के कारण देह से लेकर साहित्य-संस्कृति तक के नये पुराने रोगों के बारे में उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करते थे, सच तो यह है कि धीर-प्रशान्त निर्मला जी की अद्भुत शक्तिमत्ता की छाप के अलावा उनके मन पर जिन मित्र छवियों के अमिट प्रभाव अन्त तक रहे उनमें प्रभात त्रिपाठी की निश्छल संवेदनशीलता और उदयन वाजपेयी के प्रीति-प्रेरित सहकार की चर्चा वे अक्सर बातचीत में करते थे। अशोक वाजपेयी, प्रयाग शुक्ल और अशोक सेक्सरिया जैसे बहुत पुराने मित्रों के हाल-चाल जानने की रुचि उनमें सदा बनी रही और वे इन मित्रों के साथ के प्रसंगों और स्मृतियों की बजाय इनकी उक्तियों को चर्चा में लाकर शायद समय में खोयी, छूटी या धुँधली पड़ती दीप्तियों और ऊष्मा को याद करते थे।
पिछली सदी के आठवें दशक की शुरुआत में जब मैं दिल्ली आया था तो सप्रू हाउस का लान, कैन्टीन और सप्रू हाउस हॉस्टल अकादमिक और बौद्धिक सांस्कृतिक युवाओं के केन्द्र थे। प्रोफेसर विमल प्रसाद जैसे उदार और सदाशय व्यक्ति के अभिभावक होने के कारण सप्रू हाउस हॉस्टल में सौ फूलों को खिलने दो वाला उन्मुक्त और रचनात्मक वातावरण था जहाँ लेखक-रंगकर्मी-चित्रकार-छात्र नेता और विचारशील अकादमिक मिलकर एक दुर्लभ किस्म की दैनन्दिन अन्तर्क्रिया को सम्भव करते थे।
जितेन्द्र से मेरी पहली मुलाक़ात उसी माहौल में हुई थी। पुष्पेश पन्त का ‘जवानी के दिन’ आ चुका था जिसमें सप्रू हाउस हॉस्टल के नये-पुराने बाशिन्दों को सहज ही चीन्हा जा सकता था। वह अत्यन्त प्रखर युवाओं का एक रोमानी संसार था जिसमें बियर की पार्टियों, संगीत, बहस-मुबाहसों और मन-प्राणों को वात्याचक्र की तरह लपेटे प्रेम था। जितेन्द्र अक्सर प्रयाग शुक्ल, अशोक सेक्सरिया या महेन्द्र भल्ला आदि के साथ मिलते। कभी रास्ते से गुजरते हुए या त्रिवेणी कला संगम के सामने या ऐन बंगाली मार्केट की भीड़ में भारी आवाज़ में एक साथ मोटी-मोटी गालियाँ गूँजतीं और कई परिचित-अपरिचित गर्दनें गालियों की दिशा में मुड़तीं तो वहाँ जितेन्द्र दिखायी पड़ते। पास आने पर कुछ और गालियाँ और फिर बातों का सिलसिला जिसमें रह-रहकर गालियों का विस्फोट होता। कुछ आम किस्म की गालियाँ तो ‘राष्ट्रपति’ की बातों में इस कदर गुँथी होती थीं कि वे गालियाँ लगती ही नहीं थीं।
शुरू में ‘राष्ट्रपति’ की गालियाँ मुझे हतप्रभ करती थीं आते जाते लोग हैरत से देखते। लड़कियाँ तेज चाल में चलती हुई ‘खिस्-खिस्’ की दबी हँसी हँसती निकलतीं। मेरे एतराज़ करने पर ‘राष्ट्रपति’ कहते ‘मैंने तुम्हें रोका है? तुम भी गाली दे सकते हो। लेकिन तुम नहीं देते क्योंकि तुम साले क़स्बे से दिल्ली आकर यहाँ के इस सभ्य समाज के नागरिक बन चुके हों। ये सब ‘भोंसड़ी के...’ यह सिलसिला खत्म तो नहीं हुआ लेकिन काफ़ी कम तब हो पाया जब मैंने जी कड़ा करके, उनकी वय को भुलाकर, उन पर दो-तीन बार अकस्मात अप्रत्याशित गालियों के प्रक्षेपास्त्रों से हमला किया। लेकिन ऐसा करते हुए मैं सावधान रहा कि आस पास उनके साहित्यिक मित्र या उनका परिवार न हो। ऐसे हमलों के बाद उनकी शैली में अपनी तरह का आपेक्षिक सौजन्य तो आया, पर उन्होंने विचित्र विजेता भाव से मुझे यह अहसास दिलाया कि उनकी खरोचों से दिल्ली वाला रंग-रोगन उतर गया।
सप्रू हाउस की उन दिनों की स्मृतियों में जितेन्द्र की सपरिवार स्मृतियाँ कई हैं। जितेन्द्र का ..... का परिवार ...... दिखता तो मैं लपकता। जब निर्मला जी और बेटू साथ होते तो जितेन्द्र हाड़मांस गला देने वाली गालियों को देर तक मुल्तवी किये रहते। निर्मला जी हमेशा की तरह कम बोलतीं। मुस्कुराती रहतीं। फिर बीच में कोई चुटीली टिप्पणी करतीं।
उन दिनों जितेन्द्र अपने मित्रों के बीच खूब प्रसन्न रहते। चूँकि सागर के दिनों में उन्होंने अभिनय और निर्देशन भी किया था सो उनकी बातचीत में प्रभाव पैदा करनेवाली नाटकीयता भी कम न थी। किसी उत्तेजित या अनुत्तेजित चर्चा में भी उनकी बाहर की ओर उभारवाली बड़ी-बड़ी आँखें सामने वाले पर जा टिकती थीं और अपनी असंदिग्ध बेधकता से उसके सामर्थ्य का इस्तहान लेने लगती थीं। कई बार तो उनकी सूखी उपहास भरी हँसी और अन्तस तक बेधती दृष्टि के आगे सतही बौद्धिकता के प्रपंचयुक्त तर्क स्वतः निरस्त और हतवाक् होने लगते थे।
उन दिनों सप्रू हाउस के लॉन में ऐसे दृश्य आम थे कि ढलती शाम में अज्ञेय, रघुवीर सहाय, निर्मल वर्मा, नियाज़ हैदर जैसे लोग चर्चा में मशगूल हों। जितेन्द्र और उनके दोस्त भी वहाँ होते थे मगर उत्तरी दीवार की तरफ जिधर एक साथ कई पेड़ और दीवार के साथ लगी झाड़ी एक सुरक्षित सा नीम-अँधेरा इलाका बनाते थे। रसरंजन के लिए उतनी जरा सी आड़ पुरसुकून होती थी। लेकिन जितेन्द्र के लिए वहाँ होना कोई मजबूरी की बात न थी जैसी कि प्रेमी युगलों और दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से आनेवाले युवाओं और अध्यापकों की हुआ करती थीं। खुले में रसरंजन जितेन्द्र और उनके मित्रों के लिए मौज का मामला था, अन्यथा सप्रू हाउस हॉटल में रमेश दीक्षित जैसों की सदा बाहें पसारे मिलने वाली मेहमानवाजी तो मयस्सर थी ही। वैसे उस सारी यारबाशी के बीच गम्भीर विचारों और सरोकारों की अन्तर्धाराएँ निरन्तर मौजूद होती थीं और मार्क्सवादी-लेनिनवादी राजनीति के तहत मेरी सक्रियता को लेकर कई बार तल्ख बहसें भी हुआ करती थीं। जितेन्द्र के सामाजिक, राजनीतिक सरोकारों और साहित्यिक सौन्दर्यबोध की जड़ें कई परतों के नीचे धड़कती उनकी गहरी संवेदनशीलता में थीं इसलिए वे मनुष्य की वास्तविक स्वाधीनता के स्वप्न और संघर्ष के समर्थक थे। उनकी रचना और व्यक्तित्व के बहुत सारे आदिमपन में सहज स्वाधीनता के लिए छटपटाते मनुष्य की असीम और उत्कट आकांक्षाओं की गूँज निरन्तर प्रवाहित होती रही। अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘पहचान’ सिरीज में छपे कृशकाय संग्रह ‘रतजगा’ के बाद जब उनका कविता संग्रह ‘आईने में चेहरा’ प्रकाशित हुआ तो वे क़िताब लेकर मेरे पास आये और मुझे देने से पहले लिखा ‘प्रिय पंकज, हर तरह की प्रतिबद्धता के लिए/जितेन्द्र/16.10.8... उस दिन हम दोनों देर तक बैठे और जाने क्यों, बहुत कम बातें कीं। उसी मुलाक़ात में जितेन्द्र ने आपातकाल के कई वर्ष बाद उस दौरान हुई मेरी दुर्दशा के बारे में बात की और बड़े अपनेपन से शिकायत की कि फ़रारी के उन दिनों में मैं उनके पास क्यों नहीं गया था। मेरे पास कोई जवाब नहीं था। वे थोड़ी देर खामोश रहने के बाद बोले, ‘जानता तुमने सोचा होगा कि हम दोनों मियाँ-बीवी सरकारी मुलाज़िम हैं, न
नवें दशक में, 1987 में मेरे लंदन जाने से पहले तक, उनसे मेरी ज़्यादा मुलाक़ातें हुईं। जब भी दिल्ली आना होता, ख़बर करते और फिर हर बार कोई न कोई उपहार लेकर आते। उनके उपहार में अक्सर एक रम और एक व्हिस्की की बोतल ज़रूर होती। मेरी तंगहाली को लेकर वे अजीबोग़रीब मज़ाक करते और अमीर बनने के नुस्खे बताते। लेकिन अक्सर बातचीत साहित्य की ओर मुड़ती तो वे संजीदा हो जाते। जानबूझकर प्रगतिशीलों-जनवादियों की बदकारियाँ गिनाते और साबित करते कि भारतीय समाज में किसान-मज़दूर और ग़रीब आदमी की दशाओं से साहित्यिक के संगठित वामपंथी बिल्कुल दूर हैं और बिल्कुल करियरिस्टिक तरीके से फ़ायदे हासिल करने के लिए एक-दूसरे से जुड़े हैं। लेकिन इस तरह की बातचीत के दौरान उनकी आक्रामकता से दुःख और निराशा झाँका करती थी।
उसी दौर में विशाखापतनम में उनका तबादला हुआ और वहाँ कुछ ऐसे नये संगी-साथी उन्हें मिले जिनके साथ उनके दिन अच्छी तरह बीते। एक बार वहाँ की आर्मी कैन्टीन से वे मेरे लिए एक बड़े आकार का प्रेशर कुकर लाये। एक दफ़ा जब दिल्ली के नलों में आनेवाले पानी के प्रदूषण और अखबारों में ख़बरें छपना शुरू हुईं तो वे स्टेनलेस स्टील का एक वाटर फ़िल्टर लाकर रख गये। मुझे अकेले के डेरे में इस तरह की घर-गृहस्थी वाली चीज़ों के साथ और भी किस्से और प्रसंग जुड़े, मसलन सुरेन्द्र प्रताप जब भी आते तो प्रेशर कुकर देखकर तहरी बनाने का प्रस्ताव करते। यह दीगर था कि जब तक तहरी बनकर तैयार होती, फ़र्श पर बिछी केरल की कोराग्रास वाली चटाई पर पी-पाकर वह सो चुके होते थे। उन दिनों मैं नॉर्थ एवेन्यू में एक बरसाती में रहता था जिसके साथ की खुली छत पर कवि-लेखक और पत्रकार मित्रों के संग रसरंजन और काव्य पाठ के जाने कितने कार्यक्रम हुए। उन कार्यक्रमों की शोहरत कुछ ऐसी फैली थी कि कई-कई बार बिन बुलाये अतिथियों के पधारने से छोटी-मोटी अव्यवस्था भी हो जाया करती थी।
‘राष्ट्रपति’ मुझ पर कभी-कभी बरस पड़ते थे, ‘तुम तो साले बेवकूफ़ हो। अपनी बेतुकी भावुकता में मुफ़्तखोरों की भीड़ जुटाते रहते हो। प्रूफ रीडिंग और कॉपी एडिटिंग में आँखें फोड़ते हो और ये भोंसड़ी के...’। मैं उन्हें शान्त कराने के लिए बात बदल देता। उन्हें किसी और दिशा में मोड़ने का सबसे अच्छा तरीका था उनके हाथ में कोई नयी लिखी कविता थमा देना। वे मनोयोग से उसे पढ़ते और अपने सुझाव देते। एक आध दफा तो उन्होंने मेरी कविता के वैकल्पिक पाठ लिखकर भी तैयार किये थे जो अब तक मेरे काग़ज़ों के बीच से जब-तब झाँकते हैं। यह सब मेरे प्रति उनके उस अपार प्रेम की अभिव्यक्तियाँ थीं जो बार-बार अनोखे लक्षणों के साथ प्रकट होता था। 35, फीरोजशाह रोड का एक प्रसंग याद आता है जब वे अपने कविता संग्रह ‘ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु’ की हस्तलिखित पाण्डुलिपि लेकर आये थे। उनका हस्तलेख चूँकि अक्षरों और मात्राओं को जोड़कर लम्बी लताओं सा बनाता था जिसे पढ़ने में किसी हद तक मुश्किल हो सकती थी इसलिए अक्सर निर्मला जी उनकी रचनाओं को अपनी साफ-सुथरी लिखावट में लिख दिया करती थीं। वह पाण्डुलिपि भी निर्मला जी ने ही तैयार की थी। ‘राष्ट्रपति’ आये और बिना किसी भूमिका के मुझसे कहा, ‘इन कविताओं को पढ़कर बताओ, कुछ बात बन रही है... या...?’ मैंने तय किया कि कविताओं में कुछ युवा साथियों को बुलाकर ज़रा क़ायदे से एक अनौपचारिक पाठ आयोजित किया जाये। उन दिनों राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्र-छात्राओं के बीच मैंने एक स्टडी सर्किल सी चला रखी थी और मेरे पास उनका नियमित आना-जाना था। मैंने उनमें से कुछ को शाम को आने का न्योता दिया और मुख्य इमारत के पीछे के लान में दरियाँ-चादरें बिछाकर खुले आसमान के नीचे बैठने का प्रबन्ध किया। उन दिनों दिल्ली का वायुमण्डल आज की तुलना में काफी साफ होता था सो जब चाँद निकला तो उसका प्रकाश इतना था कि उसमें कविताएँ पढ़ी जा सकती थीं। मोमबत्तियाँ तो थीं ही। रसरंजन के साथ पाठ शुरू हुआ जो देर रात तक चला। जितेन्द्र अपनी ही कविताएँ हमारे मुँह से सुनते रहे। हॉस्टल के खाने का समय होने पर नाट्य विद्यालय वाले लड़के-लड़कियाँ चले गये थे सो ज़्यादातर कविताओं का पाठ मैंने ही किया। जितेन्द्र बहावलपुर हाउस की अतिथि शाला में रुके थे। अगले दिन की मुलाक़ात तय करके जाते हुए उन्होंने पाण्डुलिपि मुझे दे दी, इस हिदायत के साथ कि ‘एक बार और क्रिटिकली देख लेना।’ आधी रात के बाद तक मैं बिस्तर में लेटा कई कविताओं को फिर से पढ़ता रहा और एक अपर्याप्त सा क़लम ढूँढकर मैंने कुछ पंक्तियाँ पाण्डुलिपि पर ही लिख दीं जो शायद रम का पैदा किया हुआ अनौचित्य था। अशोक अग्रवाल ने बड़ी भावना के साथ जितेन्द्र का वह संग्रह प्रकाशित किया। जब पुस्तक की प्रति अशोक ने मुझे दी तो मैं बेहद चकित हुआ कि उस रात कुछ विचित्र से आलोड़न में नींद और रम के असर के झोंकों पर झूलते हुए मैंने जो कुछ वाक्य लिखे थे वे पुस्तक के पिछले आवरणों पर ज्यों के त्यों छपे हुए थे। मैंने अशोक से कहा कि उसे रोकना चाहिए था। अगर मुझे ही लिखना था तो मैं अपने विचारों और भाषा को ठीक से संयोजित करके लिख देता। अशोक ने बताया कि जितेन्द्र इस विषय में कुछ सुनना नहीं चाहते थे। उनकी जिद थी कि ‘इसी तरह हू-ब-हू पंकज की राइटिंग में इसे देना है।’ ‘ऐसे भी सम्भव है मृत्यु’ की पाण्डुलिपि पर मैंने जून 83 में अपनी वह रससिक्त प्रतिक्रिया लिखी थी, उस पर प्रकाशन वर्ष छपा है 1985। इतने वर्षों बाद जब-जब उस पुस्तक को देखता हूँ तो यही महसूस होता है कि वह ‘राष्ट्रपति’ का प्रेम जताने का ही एक तरीक़ा था। ऊपर से हास-परिहास, गाली-गलौज, व्यंग्य और नाटकीय कठोरता का आवरण डाले जितेन्द्र भीतर से कितने तरल, मानवीय और प्रेम की कैसी अद्भुत संवेदना और सामर्थ्य से भरे थे यह उनके निकट के लोग ही जानते थे।
हम जब भी मिलते एक-दूसरे को बाँहों में भरकर भींच लेते। लम्बे अन्तरालों के बाद या अपने-अपने हिस्से की ज़िन्दगी की चोटें खाने के बाद हम मिलते तो खामोशी में वे मुझ पर आँखें टिकाये रहते और फिर उनकी आँखें पनिया जातीं। उन्हें मैंने वर्षों खुलकर हँसते तो खूब देखा लेकिन ‘कहीं मारें, उनके दिल को चाहे जितना भी हिला गयी हों उनके आँसू उनकी मर्यादा के बन्दी बने रहे।
नॉर्थ एवेन्यू की मेरी बरसाती में 1984 में वे कुछ ठीक से रहे क्योंकि स्वास्थ्य को लेकर किसी मित्र डॉक्टर ने उन्हें ज़्यादा ही फ़िक्रमन्द कर दिया था। सिगरेट और बीड़ी वे बहुत ज़्यादा पीते थे और उनके उस डॉक्टर मित्र ने उन्हें सलाह दी थी कि वे दिल्ली में अपनी पूरी जाँच करा लें। उस बार जब वे आये तो पहली बार उन्होंने छाती में होने वाले दर्द और स्वास्थ्य सम्बन्धी आशंकाओं का ज़िक्र किया था। खुद ही यह भी बताया कि डॉक्टर ने धूम्रपान बन्द करने की हिदायत दी है। यह एक नयी स्थिति थी। मैंने तय किया कि मैं भी सिगरेट नहीं पिऊँगा- हालाँकि उन्हें इसका यकीन नहीं था। रात में मैंने उन्हें नींद में कराहते सुना। अगले दिन मैंने उन्हें लड़-झगड़कर और यथासम्भव धमकाकर अनुशासित दिनचर्या के लिए राज़ी करवाया जिसमें यह भी शामिल था कि रोज़ मैं उनके शरीर की मालिश करूँगा। इस बात पर वे भड़के लेकिन आख़िरकार मान गये। यह सब ठीक था लेकिन उनके धूम्रपान पर लगी पाबन्दी उन्हें असहनीय लगती थी और मैं था कि चौबीसों घण्टे पहरेदारी करता रहता था। एक आध बार मैं इधर-उधर गया तो वापस आने पर मुझे बीड़ी की गन्ध कमरे के आस-पास महसूस होती थी। पूछने पर वे मना करते, ‘अरे, कोई तुम्हारा माली या चौकीदार पीकर गया होगा।
एक रात, देर से, जब मैं गहरी नींद में था, अचानक बीड़ी की महक आयी। मैंने देखा जितेन्द्र का बिस्तर ख़ाली था और छत की तरफ खुलने वाला दरवाज़ा अधखुला सा था। मैं आहिस्ता से पाँव दबा छत की तरफ निकला। चौकन्ना वे भी रहे होंगे। ज़रा सी आहट पर उन्होंने बीड़ी फेंक दी थी। मैंने पास जाकर कहा, ‘तुम बाज़ नहीं आओगे!’ वे सहमे चुप रहे। मैंने कहा, ‘चलकर सो जाओ। और बीड़ी पीनी ही है तो चोरी छिपे क्यों पीते हो! जो भी करना है जी भरके करो... खुल के करो... तुमने कब किसकी परवाह की है...’
दुश्चिन्ता से लगातार घिरा था ही, दुःख से मेरी आँख भर्रा गयी। मैं रो दिया। जितेन्द्र चुपचाप अन्दर जाकर लेट गये। अगली सुबह हम दोनों चुप थे। सामने, सड़क की दूसरी तरफ एम.पी. कैंटीन में नाश्ता करते हुए जितेन्द्र ने कहा, ‘मुझे माफ़ कर दो, मैंने बीड़ियाँ फेंक दी हैं।’
उस दिन जितेन्द्र छाती के एक्स-रे के लिए गये। एक्स-रे के प्लेट में छाती के बीच गोल काला धब्बा किसी अनाड़ी को भी साफ दिख सकता था। जितेन्द्र बिल्कुल ख़ामोश थे। मालिश के लिए जब मैंने उनके कपड़े उतारे तो उनके गले में धागे से लटके रुद्राक्ष पर मेरी निगाह अटकी। मैंने पूछा, ‘एक्स-रे के वक़्त तुमने इसे उतारा था। वे बोले, ‘याद नहीं है।’ मैंने कहा, ‘दुबारा एक्स-रे करायेंगे।’ दुबारा एक्स-रे कराया तो मेरा शक सही निकला। सीने के बीचोंबीच दिखता वह गोल काला धब्बा, जिसने हमारी जान निकाल दी थी, गले से लटकता वह बड़ा सा रुद्राक्ष ही था।
जितेन्द्र को बहुत प्रेम मिला क्योंकि अपने औघड़ अन्दाज़ में उन्होंने बहुत प्रेम बाँटा। अनेक महिलाओं की लालसा और कामना के केन्द्र में वे रहे। उनके व्यक्तित्व में एक खास तरह का दुर्निवार आकर्षण था जो प्रेम करने वाली स्त्रियों अगाध-अबाध समर्पण के बिन्दु तक ले आता था। ऐसी महिलाओं या कम उम्र की युवाओं के साथ होने वाली मनोदैहिक समस्याओं का ज़िक्र वह मुझसे किया करते। एकाधिक बार ऐसे मामलों में दूसरे पक्ष को समझा बुझाकर विमुख करने में उनकी ‘ऐसी तैसी हो गयी’। पर निर्मला जी के प्रति उनकी भावना अक्षुण्ण और स्थायी थी। अक्सर वे मुझसे कहते, ‘समस्या तो यही है कि निर्मला जी बहुत अच्छी हैं... अब क्या करें...!’
बहुत पढ़े-लिखे होने के बावजूद उनमें ज्ञान के प्रदर्शन की प्रवृत्ति ज़रा भी नहीं थी। सेमिनारों और गोष्ठियों में दिखायी पड़ने की व्याख्यान बहादुरी में उनकी रुचि नहीं थी। पर उनका अपना अध्ययन लगातार चलता रहता था। मित्रों के साथ गम्भीर बातचीत में उनके अध्ययन का सुफल निखर कर आता था। अंग्रेजी में एम.ए. तो उन्होंने किया ही था, फ्ऱेंच और रूसी साहित्य के सारे कवि-कथाकारों पर उनकी अपनी राय थी। टाल्सरॉय, दोस्तोएव्स्की, आंद्रे जीद, हेमिंग्वे, बॉदलेयर, मला रिल्के और अंग्रेज़ी के रोमैंटिक्स पर जिस गहराई और संलग्नता से वे बात करते थे वह विलक्षण थी। पर वह खूब सावधान रहते थे कि उनका अध्ययन किसी आतंक की सृष्टि न करे।
‘बेटू’ के जाने के बाद और नौकरी से अवकाश पाकर उन्होंने अपने को भोपाल के शाहपुरा वाले घर में समेट लिया था। अपेक्षाकृत अच्छी मनःस्थिति में होते तो फूल-पौधों को पानी देते थे। भोपाल के मित्रों ने जब मेरा एकल काव्यपाठ आयोजित किया था तो सात-आठ वर्ष बाद ‘राष्ट्रपति’ निर्मला जी के साथ उस कार्यक्रम में शामिल हुए थे और भोपाल के सांस्कृतिक जगत के लिए वह एक अकल्पनीय ख़बर थी।
दिल्ली में कई बार मैं अशोक (वाजपेयी) जी के साथ योजना बनाता रहा कि किसी तरह जितेन्द्र को दिल्ली लाया जाये और उनकी रचनाओं के पाठ और मंचन वगैरह का एक बड़ा कार्यक्रम किया जाये। कैसी विडम्बना रही कि जितेन्द्र से इस बारे में अनुनय-विनय कर मैंने सहमति भी पा ली थी लेकिन वह कार्यक्रम कभी हो नहीं पाया।
शाहपुरा वाले घर में जितेन्द्र से मिलना आसान नहीं था, यों मुलाक़ात का सौभाग्य बहुत थोड़े से लोगों के हिस्से था। उन्हें अपनी घनी पीड़ा के एकान्त से बाहर आने में खींझ-सी होती थी। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में एक पथरायी हुई उदासी थी- मानो यह कहती हुई कि देखो, मैं जो अब रचना और भाषा को तजकर अलग-थलग हूँ तो मुझे अपने हाल पर छोड़ दो। देह के स्वायत्त स्पन्दनों और अपनी भावप्रवण स्त्री के सरोकारों की छाँह में ‘राष्ट्रपति’ ने कुछ कविताओं के ज़रिए फिर से अपनी सर्जना करने की कोशिश भी की थी, लेकिन तब तक देह कुछ ज़्यादा ही छीज चली थी और मन... वैसे उनके मन के बुझने की कथा में क्या उनकी निजी पीड़ा भर थी, या कि हिन्दी समाज की नृशंसता ने भी कोई भूमिका.........