22-Mar-2023 12:00 AM
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मणि साहब की एक फ़िल्म का नाम है ‘Monkey's Raincoat’ (बन्दर की बरसाती), उसमें कहीं एक बच्चा बोल उठता है- ज्ीमतम पे दव वजीमत! दूसरा न कोई अगर कृष्ण बलदेव वैद साहब के शब्दों में कहूँ या फिर कहें कि सब एक से ही निकले हैं, नाम अलग हो सकते हैं, यह दार्शनिक विचार है जो उनकी डच पत्नी से हुई सन्तान ने एक फ़िल्म के दौरान ऐसे ही सहज रूप से बोल दिया था। मणि साहब ने उस वाक्य के पीछे छिपे फ़लसफ़े को पहचाना जो वह उस फ़िल्म का मर्म बन गया। यह बात उन्होंने मुझे ख़ुशी से बतायी थी। ‘दूसरा ख़ुद से होता है’ अगर इसका यह अर्थ निकाला जाए तो मैं अपनी बात को अलग तरह से रखने की कोशिश करता हूँ। गोया दूसरा होता ही नहीं है। एक ज़ेन कहावत है- यह कौन परबत के पास जा रहा है? तुम या तुम्हारा मन? मेरे लिए मणि कौल इस कहावत के परबत थे।
किसी के बारे में लिखने से पहले ख़ुद को फरोलना पड़ता है। यह इस कार्य की पहली शर्त है। दूसरे के बहाने हम ख़ुद की बात भी सुना देते हैं। सुनने वाला सहृदय मिले तो ठीक वरना अपनी बात अपनी ही आत्मा के कान में डालने में भी रस है। मणि साहब को सीधे गन्तव्य की ओर भागती फ़िल्मों और एक ख़ास नतीजे के लिए की गयी बातचीत से गुरेज़ था इसलिए मुझे इस लेख में बार-बार विषय से भटकने से परहेज़ नहीं। पहले एक बात साफ़ कर दूँ- मैं मणि साहब की फ़िल्मों का तो हमेशा से मुरीद था पर उनकी अन्तरंग मित्र-मण्डली का हिस्सा नहीं था, बस संयोग से कुछ ऐसी परिस्थिति बनी कि मुझ जैसा एक अजनबी उनके जीवन की सबसे मुश्किल, महत्वपूर्ण और नाज़ुक घड़ी में उनके साथ था। पर फिर जैसा मणि साहब ने ख़ुद ही बोला था, 'There is no other'। इसका मतलब यह भी तो निकाला जा सकता है- कोई अजनबी नहीं।
मणि साहब मूलतः कश्मीरी पण्डित थे पर उनको न कश्मीरी भाषा आती थी और न ही उनका रूप-रंग, चाल-ढाल, बोल-चाल कश्मीरियों की तरह थी। वे राजस्थान से थे और वहीं के लगते थे। एक बार मैंने उनसे इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वह ‘बास’ यानी बासी काशमिरी हैं। कश्मीर घाटी से पण्डितों के पलायन की कई लहरें हैं। उनका पलायन पुराना है, शायद औरंगजेब के ज़माने का। जो कश्मीरी घाटी से बाद में आये उन लोगों को ‘ताज़’ कश्मीरी कहा जाता है, उनको भाषा आती है। ‘बास’ कश्मीरियों ने लाहौर में कांफ्ऱेंस की थी जिसमें कहा गया था कि चूँकि हम बाहर आ गये हैं, अब हमें अपनी भाषा त्याग कर उर्दू और फ़ारसी अपना लेनी चाहिए; इसी भाषा में हमें नौकरियाँ मिलेंगी। मणि साहब के पूर्वज भी राजस्थान के रजवाड़ों के यहाँ दीवान या ऐसे ही कोई काम करते रहे थे। उनके पिता जी को फ़ारसी आती थी। एक दिन उन्होंने मुझे हँसते हुए बताया कि पिताजी फ़ारसी बोलने के बड़े शौक़ीन थे, हम भी समझते थे उनको ख़ूब फ़ारसी आती है। ‘एक दिन कुछ ईरानी हमारे घर आये तो पिताजी ने उनसे फ़ारसी में बात करनी शुरू कर दी, तमाम कोशिशों के बाद भी वे बेचारे कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे’, ऐसा कहकर मणि साहब बड़े ज़ोर से हँसे। यह भी कमाल की बात थी कि इस नयी-नयी सीखी ज़बान में यानी उर्दू, फ़ारसी में कविता करने वाले कई कश्मीरी पण्डित बड़े जल्द ही प्रसिद्ध हुए जिनमें दया शंकर कौल नसीम (1811-1845), त्रिभुवन नाथ सप्रू हिज़्र (1853-1892), ब्रिज मोहन दत्तात्रे (1866-1955), ब्रिज नारायण चकबस्त (1882-1926) प्रमुख हैं। दया शंकर कौल नसीम को अमजद अली शाह की फ़ौज में ‘बख़्शीगरी’ का पद मिला था। इनकी मसनवी ‘गुलज़ार-ए-नसीम’ इतनी प्रसिद्ध हुई कि एक मौलाना साहब को शक हो गया यह नौसिखिए इतनी अच्छी उर्दू में ऐसी शायरी कैसे कर रहे हैं? पक्का कुछ गड़बड़ है। उन्होंने उन पर इल्ज़ाम लगा दिया, जिसका बचाव एक और कश्मीरी पण्डित ब्रिज नारायण चकबस्त ने बखूबी किया, यह बहस इतनी मक़बूल हुई की अपने समय में ही एक पुस्तक का विषय बन गयी। मणि साहब के सन्दर्भ में यहाँ पर इनके कुछ शेर पेश करने का मन हुआ हैः
पहले दयाशंकर कौल नसीम के कुछ शेर :
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
चला दुख़्तर-ए-रज़ को ले कर जो साक़ी
फ़रिश्ता हुए साथ घर देखने को
ब्रिज नारायण चकबस्त के लेखन के कुछ नायाब नमूने (उन्होंने रामायण के कई दृश्य भी नज़्म किये थे) :
रामायण का एक सीनः
रुख़्सत हुआ वो बाप से ले कर ख़ुदा का नाम
राह-ए-वफ़ा की मंज़िल-ए-अव्वल हुई तमाम
मंज़ूर था जो माँ की ज़ियारत का इन्तिज़ाम
दामन से अश्क पौंछ के दिल से किया कलाम
ये कुछ ख़ास शेर देखिए :
फ़िदा वतन पे जो हो, आदमी दिलेर है वह
जो यह नहीं तो फ़क़्त हड्डियों का ढेर है वह
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कश्ती-ए-फ़िक्र बही जाती है जमुना की तरफ
दिल मेरा खीच रहा है मुझे मथुरा की तरफ
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ये आबरू तो हजारों बरस में पायी है
न यूँ लुटाओ, कि ऋषियों की यह कमाई है
जो चुप रहे तो हवा क़ौम की बिगड़ती है
जो सर उठाये तो कोड़ों की मार पड़ती है
इन शेरों का कुछ असर मणि साहब पर भी पड़ा था । वे बार-बार कहते थे कि वे कश्मीर घाटी से सदियों से होते इस पलायन पर एक फ़िल्म बनाना चाहते हैं। पहले पलायन से लेकर आखि़री यानी 89-90 के पलायन तक, जब लगभग सारे ही कश्मीरी पण्डित भाग कर पूरे हिन्दुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जा बसे थे। जब यह आखिरी पलायन हुआ था तब मैं 11-12 साल का था। ग़रीब कश्मीरी पण्डितों का एक शरणार्थी शिविर शहर के बाहर लगा था जो मेरे स्कूल से पास ही था। कई कश्मीरी लड़के और लड़कियाँ मेरी कक्षा में पढ़ने लगे थे। यह लोग पढ़ने में तेज़ होते थे। मेरी कक्षा में मेरे साथ पढ़ती एक कश्मीरी पंडित लड़की ही मुझे अंग्रेज़ी के दुर्लभ उपन्यास व इतिहास की क़िताबें उपलब्ध करवाती थी । जम्मू में इनको ज़्यादातर इनके गुणों के कारण प्रशंसा व आदर की दृष्टि से ही देखा जाता था पर कभी-कभी कुछ लोग ‘ओये काशमिरी लोले’ कह कर इनका अपमान कर दिया करते थे-इसका मतलब होता था घाटी से डर कर भाग आये, डरपोक और कमज़ोर लोग। पर मणि साहब वैसे नहीं थे, उनका शरीर बलिष्ठ, आवाज़ रौबदार थी। हमारे एक अध्यापक भी कश्मीरी थेः ठुस्सु सर। वे हमें गणित पढ़ाते थे। हमने सुन रखा था कि वे गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं। उनको बाहर के देशों में बहुत माना जाता है। ठुस्सु सर सेवानिवृत्त हो चुके थे, काफ़ी बूढ़े थे पर चूँकि पलायन के बाद उनको पैसों की ज़रूरत थी इसलिए इस छोटे से स्कूल में हम जैसे छोटी कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाने आते थे। ठुस्सु सर बहुत गुस्सैल थे, छोटी-छोटी बात पर बिगड़ जाते थे। वे भुलक्कड़ किस्म के थे, इसलिए बच्चे उन्हें बड़ा तंग करते थे। वे बच्चों की शरारतों से जल्द ही चिढ़ जाते और अपनी बेल्ट खोल कर इधर-उधर मारने लगते। बच्चे उनकी इस हरकत पर और ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगते। न ही हमें कभी उनकी बेल्ट लगती थी और न ही हमें उनसे डर लगता था। ठुस्सु सर का ज़िक्र मैं यहाँ इसलिए लाया क्योंकि उनकी शक्ल मणि साहब से मिलती थी पर मणि कौल से आपको डर लग सकता था।
मणि साहब बिस्तर पर लेट कर पुरानी ब्रज की क़िताबें पढ़ते थे। एक दिन मुझे पास बुला कर पूछते हैं, क्या तुम्हें यह भाषा समझ में आती है? इसके बाद उन्होंने क़िताब से कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। मणि साहब हँसे और उन पंक्तियों का मतलब समझाया। इसके अलावा वे कश्मीरी कवयित्री लल्ल-द्यद के कविताओं को बहुत पसन्द करते थे और अक्सर उनका पाठ करते थे, ख़ास कर घड़ा टूटने वाली घटना का वर्णन; जब लल्ल-द्यद के पति ने उनके घड़े पर लाठी से वार किया और पानी घड़े के आकार में ज्यों का त्यों रहा। बचा हुआ पानी लल्ल ने फेंक दिया; उससे एक जल-कुण्ड बना जो ललत्राग के नाम से जाना गया। इस वक़्त मेरे दिमाग में लल्ल की वह कविता आ रही है जो उन्होंने मुझे पहली बार सुनायी थी :
परुन स्व लभ पालुन द् वर्रलभ,
सहज गारुन् सिखिम त क्रूठ।
अभ्यासकि गनिरै शास्त्र मोठुम्,
चीतन आनन्द निश्च्य गोम्।।
जया कौल ने इसका अनुवाद इस तरह किया है :
‘पढ़ना सुलभ है, पर उसका पालन करना दुर्लभ, स्वात्म की खोज सूक्ष्म और कठिन है। अभ्यास के घनेरे में सब शास्त्र भूल बैठी। दृढ़-निष्ठा के बल पर फिर भी मुझे चेतन-आनन्द की प्राप्ति हुई।’
मणि साहब का सपना था कि वह लल्ल पर फ़िल्म बनाएँगे। शायद उन्होंने स्क्रिप्ट भी लिख रखी थी। मणि साहब हमेशा ख़ुद की खोज करने को कहते थे, पहले अपने आपको जानो फिर अपने स्वभाव को जानो। आपकी ग़लतियों में ही आपका स्वभाव छुपा हुआ है। एक दिन बातों-बातों में मणि साहब ने पूछा, ‘क्या तुम जम्मू के दत्त, मोहयाल हो?’ मैंने जब हाँ में सिर हिलाया तो उन्होंने बताया, ‘औरंगज़ेब के ज़माने में कश्मीरी पण्डितों का एक जो जत्था इस्तिखार खान से परेशान होकर फ़रियाद लेकर गुरु तेग़ बहादुर जी के पास आया था, उस जत्थे की अगुआई करने वाला और वो अर्ज़ी लाने वाला किरपा राम दत्ता बाद में वह किरपा सिंह बनकर चमकौर की लड़ाई में शहीद हुआ। उनकी बही भी मैंने देखी है।’ मुझे उनकी ये सब बातें सुनकर अपने बारे में भी जिज्ञासा हुई। ‘हमारी कहानी अजीब है; हम लोग हुसैनी ब्राह्मण भी कहलाते हैं, मेरे परदादा केशधारी सिख थे जो अंग्रेज़ों के ज़माने में काँगड़ा घाटी में स्टेशन-मास्टर थे’, मैंने जोश में थोड़ी अपनी कही। मैं कौन हूँ? जम्मू से ही हूँ कि कहीं और से? सच कहूँ तो मुझे अपने बारे में ज़्यादा कुछ नहीं पता था। मैंने घर पर थोड़ी पूछताछ की तो पता चला कि हम भी कई बार विस्थापित हुए थे- 47 में जफ़्फरवाल सियालकोट से, जो डुग्गर प्रदेश की पुरानी हद मानी जाती है, वहाँ से मनावर (जम्मू) में आये जहाँ मेरी दादी के पिता रहते थे। 65 की लड़ाई में भाग कर जम्मू आए, फिर वापिस गये और 71 की लड़ाई में मनावर का पूरा इलाक़ा ही पाकिस्तान में चला गया, जो आज भी उनके पास है, और उनके आज़ाद कश्मीर का हिस्सा है। हमें जम्मू से 30 किलोमीटर दूर बजपुर नामक कण्डी इलाके में कुछ एक मरले जगह तिरपाल के तम्बू लगाने के लिए दे दी गयी और फिर बाद में उसी जगह पर हमारे पक्के मकान बने। हमारी कालोनी का नाम ‘रफ़ूजी कालोनी’ था। कुछ सालों बाद वहीं पर मेरा जन्म हुआ और पुणे के फ़िल्म संस्थान आने तक मैं वहीं पर अपने उसी एक कमरे के मकान में रहा। गाँव में हमारी कक्षा में तीन सोनू थे, एक गुड़ा नामक जगह का - गु’ड़े आला सोनू’, एक बाड़े का ‘बाड़े आला सोनू’ और मैं चूँकि टेण्ट से आता था मुझे कहा जाता था ‘टेंटें आला सोनू’। टेण्ट मेरे शरणार्थी होने का सूचक था। वहीं पर पढ़ाई करते हुए, दूरदर्शन पर संयोग से एफ.टी.आई.आई. की डिप्लोमा फ़िल्में देखने के बाद फ़िल्म संस्थान के बारे में पहली बार पता चला था। स्कूल के बाद मैंने जम्मू के प्रसिद्ध गाँधी मेमोरियल साइंस कॉलेज में दाखिला पाया था। वहाँ पहले मैंने जीव-विज्ञान पढ़ने की कोशिश की फिर इलेक्ट्रॉनिक्स वैसे शतरंज, नाटक, संगीत, यह सब सीखते-सिखाते वहाँ दिन निकलते थे। यह वही कॉलेज था जो पहले प्रिंस ऑफ़ वेल्ज़ के नाम से जाना जाता था और यहीं पर 36 भाषाओं के ज्ञाता, पहली पहाड़ी डिक्शनरी बनाने वाले सिद्धेश्वर वर्मा ने भी कभी पढ़ाया था। मुझे उनका पता वासुदेव शरण अग्रवाल जी के चालीस के दशक के एक पत्र से चला था जिसमें उन्होंने लिखा था कि उन्हें अपनी जनपदीय मुहिम का एक साथी, महान विद्वान जम्मू में मिला है जिसका नाम सिद्धेश्वर वर्मा है। साइंस कॉलेज में कई कमाल के दोस्त मिले जिनमें मोहित और शब्बीर मेरे क़रीब थे। इनके घर पर कई बार ठहरा। दोनों जम्मू के बाहर पढ़ने के सपने देखते थे। बाद में मोहित का चण्डीगढ़ के नाटक विभाग में चयन हो गया। साइंस कॉलेज में पढ़ते हुए हम तरह-तरह की परीक्षाओं की तैयारी करते थे। एक दिन मैं उसके तिकोने कमरे में बैठा सोच रहा था, क्या करूँ कि वह बोला, ‘आज फ्ऱेंच कांसुलेट में एक फ़िल्म लगी है जाकर देख आ, मेरी तो आज क्लास है, नहीं जा पाऊँगा। मेरी प्रोफ़सर बोल रही थी कि गोदार्द नाम का फ़िल्मकार है, वह कह रहीं थी कि उसकी फ़िल्म देखो तो ऐसा लगता है किसी ने दर्शकों बीच बम फेंक दिया हो। मेरा मन तो बहुत था जाने का पर जा नहीं पाऊँगा पर तू ज़रूर जा, तुम एफ.टी.आई.आई. जाने की सोच रहे हो, तुम्हें यह सब देखना चाहिए।’ उसकी यह सब बातें सुनकर तीव्र जिज्ञासा हुई और हिम्मत करके वहाँ चला गया। रास्ते का पता नहीं था। चण्डीगढ़ वैसे भी ख़ाली-ख़ाली सा शहर है। किसी से पूछने में भी बहुत दिक्कत होती थी। ख़ैर पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी। बाहर बहुत भीड़ थी कुछ लोहे के गोले वाले ‘पिताक’ नामक फ्ऱेंच खेल, खेल रहे थे। अन्दर भागता हुआ पहुँचा कि शायद सीट न मिले। सिनेमा हॉल के बाहर एक आदमी अपनी कमर पर हाथ धरे खड़ा था। मैंने हाँफ़ते हुए थोड़ी हिचकिचाहट से पूछा कि क्या फ़िल्म शुरू हो गयी है?
उसने वापिस पूछा- ‘कर दूँ?’
‘यानी?’
‘एक भी दर्शक नहीं आया है। अब तुम आये हो तो चला देता हूँ।’ तब मैंने अपने जीवन में पहली बार गोदार्द की कोई फ़िल्म देखी। उस फ़िल्म का नाम ‘अल्फ़ाविल’ था। कमाल की फ़िल्म थी। बेहतरीन सोलह मिलीमीटर का प्रिन्ट। मैंने वापिस होस्टल में जाकर इसकी ख़ूब तारीफ़ की। और मोहित को बोला कि यार उसने तो वाक़ई दर्शक-दीर्घा में बम फेंक दिया। बस फ़र्क़ इतना ही है कि दर्शक-दीर्घा में मैं ही अकेला बैठा हुआ था। मोहित हँसा और बोला कि प्रोफ़ेसर ने एक और फ़िल्मकार के बारे में बताया था- मणि कौल, मैंने उनकी कोई फ़िल्म नहीं देखी है पर वह कह रहीं थी कि अगर गोदार्द की फ़िल्म बम है तो इनकी स्लीपिंग गैस-सारे दर्शक सो जाते हैं। बात आयी गयी हो गयी, संस्थान जाने से पहले मैं मणि साहब के बारे में बस इतना ही जानता था। मोहित ने ही मुझे पुणे के फ़िल्म संस्थान का परिचय-पत्र लाकर दिया था और फिर किसी वजह से पहली ही कोशिश में मेरा दाखिला भी हो गया। जब मेरा दाखिला हुआ, मैंने ख़ुशी-ख़ुशी में अपने एक दोस्त को बताया जो कॉलेज में अक्सर मेरे साथ शतरंज खेलता था। पता नहीं इस ख़बर से उसको इतना गुस्सा क्यों आया, बोला क्या इतना ख़ुश हो रहा है, वहाँ तुम्हें असरानी पढ़ाएगा-तुम्हारा प्रोफ़ेसर असरानी होगा, ऐसा कहकर उसने उसकी ‘शोले’ फ़िल्म का कोई डायलॉग बोला और उसके आस-पास के लोग ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। वैसे यह भी मज़ेदार संयोग है कि असरानी मणि साहब के सहपाठी थे और जयपुर से ही थे। मणि साहब ने मुझे बताया था कि जब वे एफ.टी.आई.आई. से निकल कर बम्बई गये थे तो कुछ दिन असरानी के साथ ठहरे थे।
मणि साहब से मिलने से पहले मैं उनकी फ़िल्मों से मिला। पुणे के फ़िल्म संस्थान में दाख़िला लेने के बाद कई महीनों तक उनकी कोई फ़िल्म नहीं दिखायी गयी। वैसे मैं भी मणि साहब के बारे में लगभग भूल ही गया था। वही कोर्स की फ़िल्में थीं। अभी हाल में ही संस्थान ने मुझे संस्थान के अपने संस्मरण लिखने को बोला था, उसमें मैंने इसके बारे में लिखा है :
‘पता नहीं किन कारणों से, उम्मीद के बिलकुल विपरीत मेरा दाख़िला हो ही गया और कुछ ही महीनों बाद मैं संस्थान के गेट के बाहर अपना सामान लेकर खड़ा था। अन्दर मेन-थिएटर के बाहर छायांकन का एक छात्र किसी सैनिक की तरह लकड़ी का ट्राइपॉड कंधे पर लादकर खड़ा था और उसके पीछे काले बोर्ड पर यह सूचना सफ़ेद खड़िया से अंकित थी-कल रॉबेट ब्रेसाँ गुज़र गये। पहले ही हफ़्ते में प्रोफ़ेसर सुरेश छाबरिया जी की ‘फ़िल्म एप्रीसिएशन’ विषय पर क्लास हुई। पर यह क्या? छाबरिया जी तो फ़िल्मों के बजाय अपने स्लाइड-शो में चित्रकला का इतिहास बताने लगे! पहले पश्चिम, फिर जापानी-चीनी और अन्ततः भारतीय। मैं चौंक गया! यह क्या कनेक्शन बिठा दिया जनाब ने? उस स्लाइड-शो में एक तस्वीर नैनसुख की भी थी। छाबरिया साहब ने अपनी मेज़ के सामने एक बोर्ड पर मणि कौल की फ़िल्म ‘सिद्धेश्वरी’ के कुछ फ्ऱेम बड़े सुन्दर तरीके से प्रिंट करवा कर लगा रखे थे। वे फ्ऱेम ऐसे थे कि किसी ने चलती रील से उतार लिये हों। उनसे पूछा तो उन्होंने सिद्धेश्वरी और संगीत और चित्रकला पर कुछ कहा और मेरी उत्सुकता देखकर आश्वासन दिया कि चूँकि फ़िल्म आर्काइव के पास मणि साहब की फ़िल्मों के बहुत ही सुन्दर प्रिंट हैं, वे इसी हफ़्ते यह फ़िल्म दिखाएँगे और साथ में ‘माटी मानस’ भी। जब मैंने पहली बार यह दोनों फ़िल्में देखीं, उनमें हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, लोकगीत, लोककथाएँ, चित्रकला, मिट्टी और सिनेमा पर विशुद्ध भारतीय तरीक़े का विचार देखकर तो जैसे दिमाग को एक झटका-सा लगाः क्या ऐसे भी फ़िल्में बनायी जा सकती हैं?’
इसके बाद मणि साहब की फ़िल्में देखने का अवसर न हुआ। फ़िल्में आती जा रही थीं और हमें उनकी और फ़िल्में देखने का बहुत मन हो रहा था तभी मेरे एक दोस्त को किसी तरह से पता चला कि राष्ट्रीय फ़िल्म आर्काइव जो संस्थान से कुछ ही दूरी पर था-वहाँ आप कुछ पैसे देकर किसी भी फ़िल्म की वी.एच.एस. कॉपी को किराए पर लेकर वहीं उनके बूथ में बैठकर देख सकते हैं। हम दोनों ने फैसला किया कि आधे-आधे पैसे डालकर मणि साहब की पहली फ़िल्म ‘उसकी रोटी’ देख ली जाए। उस फ़िल्म को देखने के दौरान क्या हुआ, उसको बाद में बताता हूँ, पहले मेरे दोस्त के बारे में कुछ सुन लीजिए। दोस्त फ़िल्म को लेकर बहुत ज़्यादा संजीदा था और अपनी प्रज्ञा को लेकर भी। रोज़ शाम को नहाता, ख़ूब टेलकम पाउडर लगाकर सार्त्र की सबसे मोटी क़िताब- ‘बीइंग एंड नथिंगनेस’ उठाकर बाहर हॉस्टल की बालकनी में बैठ जाता। यही दोस्त बूथ में मेरे साथ बैठा और फ़िल्म शुरू हुई। मणि साहब तो समय के साथ खेलने लगे-एक लड़की ने पेड़ पर पत्थर मारा और पत्थर जब नीचे गिरना चाहिए, उससे कुछ देर बाद गिरा। लड़की का हाथ नीचे इन्तज़ार कर रहा है, और फिर कुछ रुककर अचानक अमरूद गिरा। यह देखकर मेरे दोस्त के सब्र का बाँध टूट गया। वह चिल्लाया, अरे यार यह तो एडिटिंग ही नहीं कर रहा है, हमारी फ़िल्म-मेकिंग को ख़राब कर देगा, रहने दे बन्द कर दे, यह तो फ़्लैश-फ्ऱेम भी रख रहा है यार, बन्द कर दे। मैंने थोड़ी-बहुत गुज़ारिश की कि यार इतने पैसे दिये हैं, पर वो इतनी तैश में था कि मैंने उससे और बहस नहीं की। हम फ़िल्म बन्द करके वापिस आ गये। वैसे ठीक ही किया, वी.एच.एस. प्रिंट इतना खराब था कि उस पर यह फ़िल्म देखना एक पाप ही होता, खासकर छायांकन के हिसाब से। के.के. महाजन की शानदार श्वेत-श्याम फोटोग्राफ़ी को जब हमने बाद में सेल्युलाइड पर देखा तो उसकी बात और ही थी। उस दौरान मणि साहब की जिस एक फ़िल्म ने मुझ पर सबसे ज़्यादा प्रभाव डाला वो थी ‘बीफ़ोर माई आइज़’, कश्मीर पर्यटन के लिए बनायी हुई फ़िल्म, जिसमें मुझे लगा कि मणि साहब कश्मीर के शैव परम्परा के अति सूक्ष्म ग्रन्थ ‘विज्ञानभैरव’ के सब रहस्यमयी सूत्र सिनेमा में ले आये हैं और उनका जापान की हाइकु परम्परा के साथ सुन्दर मिश्रण हो गया है। बाद में वह ख़ुद एफ.टी.आई.आई. जब पढ़ाने आये थे (दूसरे साल के छात्रों को) उनके साथ फ़िल्म देखने के बाद हम बाहर ढाबे पर खाना खाने गये थे। सब लोग टिशू-पेपर से एक साथ अपनी-अपनी थालियाँ साफ करने लगे थे। मणि साहब हँसे और बोले की ऐसा लग रहा है कि यहाँ पर कोई तान्त्रिक क्रिया चल रही है। संस्थान का एक छात्र (जिस कक्षा को मणि साहब पढ़ा रहे थे) मेरे कान में फुसफुसाया, कौल कश्मीरी तान्त्रिकों का कुल है-अभिनवगुप्त पढ़ता हूँ मैं, मणि साहब मेरे गुरु हैं। मुझे उसकी बात दिलचस्प लगी। तब एक और मज़ेदार घटना हुई। उन दिनों मणि साहब अपनी फ़िल्म ‘सिद्देश्वरी’ का एक डायलॉग बहुत सुनाते थे-उसमें जब सिद्धेश्वरी को उनके गाने के बारे में कोई प्रश्न पूछा जाता है तो वे जवाब में, ‘हम नहीं जानते कौन गा रहा है’ कहती हैं। उनकी कक्षा के छात्रों ने इस एक दार्शनिक उक्ति को कण्ठस्थ कर लिया था और मौके-बेमौके उसे इस्तेमाल करते थे। इस छात्र से (जो उस वक़्त अपने मन में जो अभिनवगुप्त के सानिध्य में बैठा शराब पी रहा था और बहकने लगा था) वहाँ बैठे प्रोफ़ेसर छाबरिया ने यह पूछने की ग़लती कर ली कि वह आजकल किस असायन्मेंट पर काम कर रहा है, क्या बना रहा है, विषय क्या है? लड़के ने पहले तो उनकी तरफ टेढ़ी आँखों से देखा, मुस्कुराया, फिर मणि साहब की ओर मुखातिब होते हुए ज़ोर से लड़खड़ाती आवाज़ में बोला, ‘मणि साहब, हम नहीं जानते कौन फ़िल्म बना रहा है?’ सब लोग हँसने लगे। इतने में उसका एक सहपाठी दूसरे के कान में फुसफुसाया, ‘कल जब इसकी शराब उतरेगी, इसे अपने नम्बरों की चिन्ता होगी क्योंकि नम्बर तो इसी प्रोफ़ेसर को देने हैं’। मणि साहब गाहे-बगाहे ऐसी उक्तियों और अभिनवगुप्त की कई पंक्तियों से छात्रों को नवाज़ते रहते थे। इसलिए संस्थान में अभिनवगुप्त को पढ़ने का रिवाज़ चल पड़ा। मेरा भी मन हुआ अब यह मुसीबत आन खड़ी हुई है तो उसे पढ़ें तो किस भाषा में? मूल संस्कृत में है, जो आती नहीं। उसका हिन्दी अनुवाद पढ़ो तो हिन्दी वालों ने उस हिन्दी को संस्कृत से भी मुश्किल भाषा और फ़ॉर्मैट में लिख रखा है। मेरी अपनी मातृभाषा डोगरी है, मेरी दादी को सिर्फ़ उर्दू ही आती थी, उनके पिता जी फ़ारसी बोलते थे, मेरे फूफा उर्दू के शायर थे, डोगरी वाले पंजाबी तो समझते ही हैं, पंजाबी भी समझ लेता था पर इस सबसे अभिनवगुप्त पढ़ना सम्भव नहीं। तब पता चला कि अभिनवगुप्त को समझने का सबसे आसान तरीक़ा मणि साहब को सुनना ही है। उन दिनों मेरा एक अमेरिकी दोस्त बना था जो हॉर्वर्ड में पढ़ता था। वह शूटिंग के सिलसिले में भारत आया था और मुझ से थोड़ी मदद माँगी थी। मैंने मदद कर दी तो ख़ुशी से फ़ीस के बारे में पूछने लगा। मैंने बोला की पैसे तो मैं क्या ही लूँगा, तुम हॉर्वर्ड से अभिनवगुप्त की क़िताबें भेज दो। सुना है पाँच या छह हज़ार की क़िताब है। उसने कहा, ‘ख़ुशी से!’ हॉर्वर्ड से उसने जो क़िताबें भेजी, उनमें से मैंने थोड़ा बहुत पढ़ा है। वह मणि साहब को भी जानता था। मणि साहब कुछ दिन हॉर्वर्ड में पढ़ाते रहे थे और संयोग से मेरा यह दोस्त उनका सबसे क़रीबी शागिर्द हुआ। वे जब फ़िल्म संस्थान आये तो उसने कहा कि अगर हो सके तो वहाँ मेरे दोस्त अमित से ज़रूर मिलिएगा। अभिनवगुप्त की वे कई पंक्तियाँ मणि साहब और इन क़िताबों के संयोग से मेरे मन में अभी भी बैठी हुई हैं। उनके अनुसार कौल गुरुओं ने अपने शास्त्रों के प्रसारण के उद्घाटन और रखरखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। इसमें मौखिक शिक्षण (गुरुमुख) पर ज़ोर था। मुझे याद है कि एक बार मणि साहब ने मुझ से थोड़ा ख़फ़ा होकर कहा था कि अमित तुमने ज्ञान सिर्फ़ पढ़ा ही है, सुना नहीं है।
मणि साहब बहुत सालों बाद विदेश से लौटे थे। मेरी पढ़ाई लगभग समाप्त हो चुकी थी। उन दिनों उनके साथ काम कर चुके वरिष्ठ फ़िल्मकार कमल स्वरूप भी आये हुए थे। उन्होंने मेरी डिप्लोमा फ़िल्म देखी थी जो उनको थोड़ी-बहुत पसन्द आयी थी। मुझे किसी ने बताया कि वे अचानक एक दिन मणि साहब की कक्षा में जाकर खड़े हो गये और ज़ोर से बोले अमित की डिप्लोमा फ़िल्म देखो। मणि साहब मुस्कुराए और बोले, ठीक है आज दोपहर को ही देखते हैं। मुझे सन्देशा आया कि दोपहर के बाद कमल स्वरूप और मणि कौल तुम्हारी फ़िल्म देखेंगे-इन्तज़ाम करो। मैंने जो भी फ़िल्में बनायी थी, उनके प्रिण्ट लेकर संस्थान के मेन-थियटर पहुँच गया। और फिर वो ऐतिहासिक घड़ी भी आ गयी जब मणि कौल और कमल स्वरूप ने एक साथ बैठकर मेरी फ़िल्म देखी। फ़िल्म खत्म होने के बाद मणि साहब ने ज़्यादा कुछ नहीं बोला, थोड़ा मुस्कुराए और फिर उठ कर चले गये। थोड़ी देर बाद मुझे एक और सन्देश आया कि कल एक बार फिर देखेंगे; छात्रों के साथ। फिर से फ़िल्में देखी गयीं। इस बार उन पर थोड़ी बहुत विवेचना भी हुई पर सच कहूँ तो उनकी प्रतिक्रिया उतनी उत्साहवर्धक नहीं थी। मसलन मणि साहब बोले कि एक तरफ तो कमर्शियल सिनेमा है और दूसरी तरफ़ तुम एकदम इक्स्ट्रीम में चले गये हो। मेरी पहली मुलाक़ात इतनी ही थी। दो-एक साल बीत गये। एक दिन मेरे हॉर्वर्ड के दोस्त ने मुझे यह ईमेल भेजाः
Amit! Please find attached a compliment of the highest order. S told me Mani Sahib saw your film so I asked him about it (since he had told me once that he would never return there)... Apparently, he really liked it, and your film changed his own opinion of the school.
So, how are you? I look forward to seeing this fabled diploma film. More urgently, do let me know what else is going on over there. Keep in touch, my friend,
Cassim
-----------------------Forwarded message-----------------------
From: Mani Kaul <mkaul@wanadoo.nl>
Date: Fri, 24 Dec 2004 00:59:17 +0100
Subject: Re: ---
To:
Cc: Mani Kaul <mkaul@wanadoo.nl>
My dear Cassim,
The students at FTII were wonderful. Extraordinary environment of an insatiable quest. And passion for cinema- I should like to return for a longer period next year. Amit Dutta's diploma film was a revealing experience. Suddenly there is such a sense of hope for FTII. For some time now I had been fed with awfully prejudiced stories about the campus. Quite untrue!
Hope you are doing films and I should really like to receive you in LA.
Best
Mani
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एफ.टी.आई.आई. में पढ़ाई खत्म करने के बाद मैं अहमदाबाद एन.आई.डी. में पढ़ाने चला गया। मैं जो दूसरी डिप्लोमा फ़िल्म ‘क्रमशः’ बना रहा था, वहीं पर ख़त्म हुई थी। वहीं रहते मुम्बई अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म फ़ेस्टिवल में उसका चयन हुआ और फ़िल्म को दो पुरस्कार मिले। मुझे इनाम में ढाई लाख रुपये मिले और डेढ़ लाख रुपये फ़िल्म संस्थान को। एक-आध महीने बाद मुम्बई जाना हुआ। एक दोस्त ने खाने पर बुलाया तो वहाँ पर संयोग से मणि साहब भी थे। वे विदेश से वापिस आकर वरसोवा में एक छोटे से फ़्लैट में रह रहे थे। मणि साहब मुझे देखते ही बोले, ‘अरे आप उस अवॉर्ड के पैसों का क्या कर रहे हो?’ मैं यह सुन कर थोड़ा हैरान हुआ । ‘अभी कुछ सोचा नहीं है मणि साहब’, मैंने उत्तर दिया। ‘आप एक रुद्र वीणा ले लीजिए। इसके लिए हर महीने 5,000 रुपये अलग से रख लीजिए।’ तब उन्होंने मुझे बताया कि वे भी मुम्बई फ़ेस्टिवल की ज्यूरी में थे जिसने मुझे वह इनाम दिया था। वे बोले कि फ़िल्म तो सबको पसन्द आयी थी पर उसकी प्रशस्ति क्या लिखें, किसी को समझ में नहीं आ रहा था। तब उन्होंने मणि साहब को ही वह लिखने को बोला था।
In the manner music keeps you quietly enthralled with a resonating sense of things without a need to necessarily reduce the experience to a verbalization of meanings, Kramasha offers a world of images and sounds that makes us smell and touch the lush of nature amid a mysterious index of hallucinations. Like a dream that we may fail to understand but that reaches deep recesses of our unconscious and touches familiar chords, Amit Dutta's Kramasha weaves a powerful narrative that blends legends, myths and nostalgia into a film that allows us to recall our own early experiences.
मैं बचपन से थोड़ा-बहुत गिटार बजा लेता था। जम्मू में सीखने का शौक़ हुआ था। बाद में मैं ख़ुद से और पुणे के कुछ दोस्तों जो ब्लूज़, जैज़ के बड़े उम्दा के प्लेयर थे, की सोहबत में थोड़ा बहुत जैज़, ब्लूज़ जैसा कुछ सीख लिया था। और अब रुद्रवीणा? इस वीणा की धीर-गम्भीर आवाज़ मन की गहराइयों में उतर जाती है। उसे सुनने का मज़ा बहुत आता था खासकर मणि साहब की फ़िल्म ‘ध्रुपद’ में। ‘आप केवल वीणा के पैसे दे दीजिए बाक़ी कलकत्ता से उसे मंगवाना इत्यादि मैं करवा दूँगा। वहाँ पर मंगला प्रसाद हैं जो दुनिया की सबसे बेहतरीन वीणा बनाते हैं। एक वीणा बनाने में उनको 6-7 महीने लगते हैं। आज हाँ कहोगे तो छह महीने बाद मिलेगी।’
‘मणि साहब मन तो बहुत हो रहा है पर मैं उसका करूँगा क्या? मुझे तो बजानी भी नहीं आती’
‘अरे आप हमसे सीखिए, बबलू (बहाउद्दीन) को भी बुला लेंगे’
यह सुनकर मैं ख़ुशी-ख़ुशी राज़ी हो गया। कुछ ही दिनों में मैंने एन.आई.डी. छोड़ दिया और अपनी पहली फीचर फ़िल्म (नैनसुख) बनाने जम्मू चला गया। 4-5 महीने बाद मुझे मणि साहब का का ईमेल आया, ‘तुम्हारी वीणा तैयार है, आ जाओ। इससे पहले फ़िल्म संस्थान के अभिनय के छात्रों के लिए आपने जो फ़िल्म बनायी है उसकी डीवीडी भिजवा दें।’
मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि वे मुम्बई छोड़ कर दिल्ली आ चुके हैं और आजकल गुड़गाँव में एक किराये के मकान में रह रहे हैं। दिल्ली में ओसीयान नाम का एक फ़िल्म फ़ेस्टिवल होता था, वे उसके नये डायरेक्टर थे। उन्होंने यह भी लिखा कि मैं उनके साथ 2-4 दिन रहूँ। मंगला प्रसाद ख़ुद वीणा लेकर आ रहे हैं, उनके टिकट के पैसे उन्होंने दे दिये हैं। बहाउद्दीन डागर भी आ जाएँगे। सब साथ में कुछ दिन गुज़ारेंगे।
मैंने उत्तर दिया :
आदरणीय मणि जी,
मेरी फ़िल्म की डीवीडी कुछ ही दिनों में तैयार हो जाएगी। दरअसल टेलीसीने ट्रान्सफर में कुछ गड़बड़ हो गयी थी। आज दुबारा की है। एक हफ़्ते के भीतर मैं आपको डीवीडी भिजवा दूँगा। अभी मैं पास्कल और बाशो में अपना ध्यान लगा रहा हूँ और नैनसुख की तैयारी।
आपका,
अमित
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प्रिय अमित,
दो दिन हुए लौट आया।
एक नम्बर जो मेरे फ़ोन में आपके नाम दर्ज रहा है गणेश (एफ.टी.आई.आई. के वरिष्ठ विद्यार्थी) के पास पहुँच जाता है। पहले भी एक बार ऐसा हुआ था - नाम बदलना भूल गया। गणेश कह रहे थे कि आपकी फ़िल्म की डीवीडी बनाने में कई एक लोग जुटे हुए हैं। लगता है तीन चार दिनों में दिल्ली पहुँचा भी देंगे। जैसा होगा इत्तला करता रहूँगा।
पास्कल, ब्रेसाँ और बाशो तो जैसे एक ही घराने के सदस्य हैं। स्वभाव तीनों का अलग है लेकिन मन्त्र एक ही सुना था, ऐसा लगता है। आज ही कोलकता से मंगल प्रसाद शर्मा का फ़ोन आया - वे आपके लिए रुद्र-वीणा बना रहे हैं। कह रहे थे अगले महीने के मध्य या अन्त तक तैयार कर देंगे। उनके यहाँ पहुँचने के 15 या 20 दिन पहले आपको ख़बर भेज दूँगा।
आपका शुभचिन्तक -
मणि कौल
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आदरणीय मणि जी,
बहुत दिनों से आपको लिखने की सोच रहा था। आशा है आप सकुशल होंगे। इधर नैनसुख फ़िल्म बनाने में बड़ी ही दिक्कतें आ रही हैं। मैं एक प्रोफ़ेशनल की तरह व्यवहार ही नहीं कर पा रहा हूँ! इस कारण कुछ लोगों से मनमुटाव तक हो गया है। मुझे लगता है कि फ़िल्म बनाना बम्बई पर इस तरह निर्भर है कि अगर आप उनके तौर तरीकों से अभ्यस्त नहीं हैं तो आप फ़िल्मकार ही नहीं हैं। इसका ज्ञान मुझे एक प्रोडक्शन मैनेजर ने अच्छी तरह से करवा दिया। मैंने उसको ना ही बोल दी। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि वो मुझे या फिर जिस तरह की फ़िल्म मैं बनाना चाहता हूँ उसको उतनी गम्भीरता से नहीं लेते हैं जितना कि बम्बई की एक फ़िल्म को लेते हैं, चाहे मैं पैसे उतने ही दूँ! आपने इस तरह के वातावरण में किस तरह फ़िल्में बना लीं? इसी पर आज विचार कर रहा था। पहली फ़िल्म भी इंस्टिट्यूट में अटकी हुई है। अभी भी ध्वनि पर काम करना बाकी है। मैंने एक डीवीडी उदयन जी को भी भेज दी थी। उन्हें फ़िल्म देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। विनोद कुमार शुक्ल जी भी फ़िल्म देखकर बड़े ही खुश हुए। उनको डीवीडी की एक प्रति भेज दी थी। कल ही मैनें उनसे फ़ोन पर बात की - खुश थे। अब शायद फ़िल्म बन ही जाये। उन्होंने मुझे एक पत्र भेजा है, जिसमें उन्होंने यह कहा हैः
‘‘फ़िल्मों में ज़्यादातर दृश्य टुकड़ों-टुकड़ों में एक कलात्मक स्वरूप बनाते हैं। इसकी फोटोग्राफी, रंगों और प्रकाश के संयोजन की जो दृष्टि है, वो मेरी दृष्टि से मेल खाती है और यह मुझे अपनी कहानी होने के कारण नहीं, आपके प्रयास के कारण है। अभिनय का ठेठपन भी मुझे अच्छा लगा। अपनी कहानी को एक कविता की तरह कुछ देखा। मैंने आपको और आपके साथियों को फ़ोन में बधाई दी थी, इस पत्र के द्वारा फिर से सराहना कर रहा हूँ“ - विनोद कुमार शुक्ल’
इस बीच अगर वीणा आ जाती है तो मैं दिल्ली आ जाऊँगा। आप बस कुछ दिन पहले मुझे सूचित कर दें। आपसे मिलने का भी मन है।
सादर प्रणाम!
अमित
यहाँ ‘आदमी की औरत और अन्य कहानियाँ’ फ़िल्म की बात हो रही है। हम विनोद जी से उनकी कहानियों को फ़िल्माने की इजाज़त लेना भूल गये थे। पहले तो वह थोड़ा नाराज़ हुए पर जब मैंने उनसे क्षमा माँग कर यह बताया कि फ़िल्म संस्थान की फ़िल्म है और अभिनय के छात्रों के लिए बनायी है तो फ़िल्म देखने के लिए मान गये। फ़िल्म देखने के बाद उन्होंने पत्र भेजा था ।
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प्रिय अमित,
क्योंकि आपने कहा था आपकी भेजी डीवीडी न देखूँ, नयी डीवीडी का इन्तज़ार करूँ, मैंने आपकी फ़िल्म नहीं देखी। अब हम फाईनल सिलेक्शन करने वाले हैं - क्या मैं रुकूँ या जो डीवीडी आपने भेजी हुई है दूसरे सदस्यों के साथ देख लूँ। ध्वनि पर काम कब तक पूरा हो जायेगा, लिखियेगा।
अगर चाहें तो गुरुदास पाई से आपकी प्रोडक्शन की तकलीफों के बाबत सलाह ले लें। उन्होंने मेरे साथ ही फ़िल्मों में काम करना शुरू किया था। बहुत से मित्रों के साथ भी काम किया। आप जानते ही होंगे उन्हें। जहाँ तक मैं समझता हूँ वे फ़िल्म बनाने के तरीके में किसी किस्म का दखल नहीं देते। यदि फ्ऱी नहीं होंगे तो शायद किसी का नाम सज्जेस्ट कर दें।
आपकी वीणा 15 अगस्त तक तैयार हो जानी चाहिए - एक या दो दिन में फ़ोन करूँगा फिर से। 15 अगस्त से 5 सितम्बर तक हिन्दुस्तान से बाहर रहूँगा।
आपका शुभचिन्तक
मणि कौल
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आदरणीय मणि जी,
गुरुशरण पाई जी का फ़ोन आया था। उन्होंने नैनसुख के बारे में जानकारी माँगी है।
एक दो दिनों में उनको मैं सब जानकारी भेज दूँगा। अब मैंने सोचा है कि दिल्ली 10 सितम्बर के आस-पास ही आऊँगा। तब मेरे पास गाड़ी भी होगी और वीणा ले जाने में सुविधा भी। क्या आपको फ़िल्म की डीवीडी मिल गयी है?
प्रणाम
अमित
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प्रिय अमित,
फ़िल्म की डीवीडी मिल गयी है। चार पाँच दिन में देख पाऊँगा - मुम्बई जा रहा हूँ।
आप दस सितम्बर के आस पास ही आयें, ठीक रहेगा। तब तक आपकी वीणा दिल्ली पहुँच जायेगी।
आपका
मणि कौल
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ग्यारह या बारह सितम्बर को जब मैं गुड़गाँव पहुँचा तो मणि साहब बाहर बरामदे में खड़े होकर अपने मोबाइल से फ़ोटो खींच रहे थे। गेट पर एक बड़ा सा बल्ब था जिस पर एक छिपकली चिपकी हुई थी। वे बड़े ध्यान से उसका फ़ोटो ले रहे थे। मोबाईल पर छिपकली का फोटो दिखाया फिर बोले ‘चलो अन्दर चलते हैं।’ इससे पहले के हम बैठते, उन्होंने खाना बनाने की तैयारी शुरू कर दी। ‘आइए रसोई में ही आइए वहीं बात करते हैं।’ उनकी रसोई में मसाले ऐसे रखे हुए थे जैसे कोई चित्रकार अपने रंग रखता है। वे अपनी ऐनक खोल कर सब्ज़ी के एकदम पास ले जाते और कड़शी घुमाते। वहाँ रहने के दौरान उन्होंने खाने में ऐसे प्रयोग किये जो मैंने और कहीं नहीं देखे। वो मसालों को रेसिपी के अनुसार नहीं मूड के अनुसार इस्तेमाल करते, जिसका रंग अच्छा लगा, कुछ महसूस हुआ तो डाल दिया। ‘अभी खाना ज़ल्दी बनाना है थोड़ी देर में, मंगला प्रसाद आने वाले हैं और कल सुबह बबलू (मणि साहब बहाउद्दीन जी को इसी नाम से पुकारते थे)। कैथरीन बाहर गयी हुई है कुछ ही देर में आती होगी।’ शाम को दोनों आ गये। खाना सही समय पर पक कर एकदम तैयार था। वैसे मणि साहब के यहाँ एक बंगलादेशी औरत काम करती थी जो उनके लिए दोपहर का खाना बनाती थी। उन दिनों मणि साहब उसको हिन्दी और अंग्रेज़ी पढ़ा रहे थे। एक दिन वे बड़े हैरानी से मुझे बोले इसको गमला बोलने में बहुत समस्या होती है, ग...म ...ला... जबकि हमारे लिए यह कितना सादा शब्द है। मणि जब भी खाना बनाते, उसे बड़े ही, सुरुचिपूर्ण ढँग से परोसा जाता। मंगला प्रसाद जी को मणि साहब का खाना कुछ ज़्यादा ही अच्छा लगता था। जिस दिन भी वे खाना बनाते मंगला प्रसाद जी सबसे पहले टेबल पर आकर बैठ जाते और उनकी आँखें रसोई से खाने की टेबिल तक खाने का पीछा करते रहतीं। अगले दिन बहाउद्दीन भी आ गये, अब घर पर तीन संगीतकार थे। मणि साहब का बहाउद्दीन को बुलाने का मक़सद नयी वीणा की ख़ुशी मनाना, उसको देखना परखना, तार लगाना, उनको बताना, थोड़ा बजाना और संगीत के सिद्धान्तों पर जम कर चर्चा करना था। इस दौरान घर पर हमेशा खाना बनता रहता था, कभी कैथरीन अपना वीओला लेकर आ जातीं तो कभी मणि साहब उसके ट्यूनिंग डिवाइस पर अपनी गा गा कर आवाज़ के नोट्स चेक करने लगते। अजीब माहौल था। मेरी बहाउद्दीन, कैथरीन और मंगला प्रसाद से दोस्ती हो गयी। मंगला प्रसाद भी कमाल के आदमी थे। उनकी साज़ की समझ और कारीगरी भी कमाल की थी। वो थोड़ा बहुत सितार बजा लेते थे, उन्हें संगीतकार न बन पाने का मलाल था, कई मशहूर संगीतकारों को वो जानते थे और उनकी व्यक्तिगत और संगीत की ग़लतियों पर चर्चा करते रहते थे। एक दिन उन्होंने मेरे लिए बनाई वीणा को भी बजाया जिसे वह सितार की तरह पकड़ कर बजा रहे थे। जब बहाउद्दीन जी ने वीणा के तार मिला कर कुछ बजाना शुरू किया तो मंगला प्रसाद जी चुपके से मेरे पास आए और हल्के से कोहनी मार कर कान में बड़ी शिद्दत से फुसफुसाए- सीख लो, सीख लो, यह लोग ऐसे कुछ बताते नहीं हैं। इस तरह एक हफ़्ता बीत गया। और हमारे सबके जाने का समय आ गया। पहले मंगला प्रसाद जी गये फिर बहाउद्दीन जी, कैथरीन को अभी रुकना था, मैंने भी अपना बोरिया-बिस्तर बाँध लिया और इतनी बड़ी वीणा को कौन-सी टैक्सी से लेकर जाऊँ इस पर विचार करने लगा। मुझे विचारमग्न देखकर मणि साहब मेरे पास आये और बोले कि अभी आप दो-चार दिन और रुक जाइए। मैं दो दिन और रुक गया, इसके बाद जब भी जाने की बात होती, मणि साहब मुझे दो दिन और रुकने को कह देते। इस दौरान रोज़ की चर्या कुछ इस प्रकार की थी : सुबह उठकर मणि साहब मेथी के बीजों से बनी हरी चाय पीते थे, उनके अनुसार वह सेहत के लिए बहुत अच्छी थी। चाय पीते हुए अख़बार पढ़ते। एक बार अख़बार में भयानक किस्म की ख़बर थी- कहीं बम ब्लास्ट में कई लोग मारे गये थे, मणि साहब ने अख़बार मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘ये लोग संगीत क्यों नहीं सुनते?’ चाय पीने के बाद वह नहा-धो कर अपने म्यूज़िक-रूम में आ जाते जहाँ पर उनकी अपनी रुद्रवीणा और मिरज के तानपुरे और पखावज वगैरह रखे हुए थे। वहाँ बैठकर थोड़ी देर अभ्यास करते, नाश्ता करते और फिर नहा-धो कर ओसीआन के दफ़्तर चले जाते। कैथरीन और मैं पीछे रहते और इस दौरान वह वीओला पर अपनी बनाई हुई धुनें सुनाती। वह बर्कली कॉलेज से संगीत सीखी थी। उसकी प्रयोगात्मक संगीत में रुचि थी। शाम को मणि साहब दफ़्तर से वापिस आ जाते और फिर तुरन्त ही कहीं बाहर जाने की बात होती, अब घर पर खाना कभी-कभार ही बनता था। उनका एक और शागिर्द था जो हॉलैण्ड से था- दिलीप, उसने भी पास ही में एक घर किराये पर ले लिया था। वह मणि साहब से संगीत की शिक्षा ले रहा था। कैथरीन और दिलीप मणि साहब से संगीत की शिक्षा लेने ही आये थे। ज़्यादा बात संगीत की ही होती। वैसे फ़िल्म के अलावा मणि हर विषय पर बात करते थे, मेरी हमेशा कोशिश रहती थी कि थोड़ी बहुत बात फ़िल्म पर हो जाए। मणि साहब अपनी फ़िल्म देखना तो छोड़, उस पर बात करना तक पसन्द नहीं करते थे। एक दिन मेरे आग्रह पर वे उनकी फ़िल्म ‘ध्रुपद’ देखने को राजी हो गये। उसमें एक दृश्य है यहाँ किसी महल की छत पर उस्ताद वीणा बजा रहे हैं और कैमरा दूर से उन्हें देख रहा है। शॉट काफ़ी लम्बा चला जो मुझे बहुत पसन्द आ रहा था। मैंने ध्यान दिया कि जैसे-जैसे शॉट चलता जा रहा है, मणि साहब असहज होते जा रहे हैं। वे अपने-आप से कुछ बुदबुदा रहे थे, मेरे कान में बस उनके कुछ शब्द ही पड़े ‘यही प्रॉब्लम है लम्बे टेक में !’ ऐसा कहकर उन्होंने फ़िल्म बन्द कर दी। जब मणि साहब अपनी किसी फ़िल्म की बात भी करते थे तो उसका मज़ाक़ उड़ाते। एक बार मुझे बता रहे थे कि जब उन्होंने ‘उसकी रोटी’ बनायी थी तो बम्बई के प्रसिद्ध कश्मीरी पण्डित अभिनेता राजकुमार ने उनसे कहा कि क्या उसकी रोटी बना रहे हो, हमारे साथ आओ, ‘अपना हलवा’ बनाते हैं। और जब यही फ़िल्म उनके पिताजी ने देखी तो चुपके से उनके पास आये और बोले, शाबाश बेटा बन्दूक हमेशा भरी रखो, न चले तो बेहतर। यह सब बातें मणि साहब बार-बार सुनाते और हँसते थे। (याद रहे कि भारतीय इतिहास की यह सबसे अलग, विलक्षण फ़िल्म बनाते वक़्त मणि साहब की उम्र महज़ 25 साल थी)। बातों ही बातों में उन्होंने एक दिन बताया कि मशहूर फ़िल्म डॉयरेक्टर महेश कौल उनके चाचा थे। उन्होंने कई बार महेश कौल और हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार अमृत लाल नागर की दोस्ती के बारे में बात की। अमृत लाल नागर तो बचपन से मेरे प्रिय साहित्यकार थे इसलिए मुझे उनके बारे में और जानने की बहुत इच्छा थी पर मणि साहब इस पर ज़्यादा खुलकर बात नहीं करना चाहते थे, टुकड़ों-टुकड़ों में बस यही पता चला कि संस्थान से पास होने के बाद मणि कुछ दिन अपने महेश अंकल के यहाँ रुके और फिर कुछ मनमुटाव होने के कारण अचानक वहाँ से चले आये थे।
उनकी एक आदत जिससे मैं थोड़ा परेशान था और हमेशा संकोच में पड़ जाता था, वह थी उनकी रोज़ बाहर खाना खाने की आदत, और वो भी कहीं बड़े महँगे रेस्तराँ में। मुझे भी साथ चलने को कहते। मेरे पास उतने पैसे नहीं थे कि रोज़ हज़ार-दो हज़ार का खाना खा सकूँ, कभी पैसे मणि साहब दे देते थे और कभी दिलीप, कभी-कभार मैं भी एक-दो सौ रुपये खिसका देता या जेब में हाथ मारने का अभिनय करता पर मणि साहब हाथ के इशारे से मुझे रोक देते थे। मैंने कई बार बीमार होने का बहाना भी लगाया कि मेरा पेट खराब है, घर पर खिचड़ी ही खा लूँगा, पर मणि साहब हमेशा इसरार करके ले ही जाते थे। गुड़गाँव एक अजीब सी जगह थी, रेस्तराँ किसी मॉल में होते थे, बाहर से सब दुकानें एक जैसी लगती थीं, अन्दर सबने अपनी-अपनी तरह से विचित्र डेकोर बना रखा थे। एक बार हमने ट्रेन के डिब्बे में खाना बनाया, दूसरे दिन एक समुद्री जहाज के केबिन में और तीसरे दिन खाने के टेबल के पीछे लाइव ग़ज़ल चल रही थी। अजीब माहौल था, खाना खाते हुए मणि साहब ध्रुपद की बारीकियों पर गहन विचार रख रहे हैं, ‘संगीत समयसार’, ‘क़िताब-ए-नवरस’ और ‘मानकुतूहल’ जैसे विलक्षण क़िताबों की बातें हो रही है और पीछे एक फ़िल्मी ग़ज़ल गायी जा रही है। पर उन्हें इस सबसे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता था वे अपनी बात में मगन थे। जिस दिन छुट्टी होती, वे सारा दिन अपने डबल-बेड पर तिरछे लेटकर पढ़ते रहते। उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ऐसे पढ़ने में बहुत मज़ा आता है। उनकी क़िताब के बुकमार्क कुछ फ़ोटोग्राफ़ होते थे। एक दिन वे बेड पर बैठे एक मोटी सी क़िताब पढ़ रहे थे-साधु राम प्रसाद जी निरंजनी कृत श्री योगवाशिष्ठ भाषा। उस पुस्तक की भूमिका का यह अंश मुझे बहुत दिलचस्प लगा था जिसमें फिर से एक कश्मीरी का दखल है :
‘अनुमानता डेढ़ सौ वर्ष व्यतीत हुए कि पटियाला नगर नरेश श्रीयुत राजा साहबसिंहजी वीरेश की दो बहनें विधवा हो गयी थीं इसलिए उन्होंने साधु रामप्रसाद जी निरंजनी से कहा कि योगवाशिष्ठ जो अति ज्ञानामृत है सुनाओ तो अच्छी बात हो। निदान उन्होंने योगवाशिष्ठ की कथा सुनाना स्वीकार किया और उन दोनों बहिनों ने दो गुप्त लेखक बैठा दिये। ज्यों-ज्यों पण्डितजी कहते थे वे प्रत्यक्षर लिखते जाते थे। जब इसी तरह कुछ समय में कथा पूर्ण हुई तो यह ग्रन्थ भी तैयार हो गया। इसमें कथा की रीति थी, कुछ उल्थे का प्रकार न था और पंजाबी शब्द मिले हुए थे। प्रथम यह ग्रन्थ ऐसा ही बम्बई नगर में अघन संवत 1622 में छपा। जब इसका इस भाँति प्रचार हुआ और ज्ञानियों को कुछ इसका सुख प्राप्त हुआ तो चारों ओर से यह इच्छा हुई कि यदि पंजाबी-बोलियों और इबारत सुधारकर यह पुस्तक छापी जावे तो अति उत्तम हो। तथाच श्रीमान मुंशी नवलकिशोरजी ने बैकुण्ठवासी पण्डित प्यारे लाल रग्गु कश्मीरी को आज्ञा दी और उन्होंने बोलियाँ बदलकर और जहाँ-तहाँ की इबारत सुधारकर उनकी आज्ञा का पालन किया।’
बाद में मणि साहब ने पुस्तक में से मुझे दम, व्याल और कट की कहानी सुनायी जो अत्यन्त दिलचस्प थी। कहानी सुनाकर उन्होंने पन्ने पर बुकमार्क के रूप में एक फोटो रख दी, मुझे उस फोटो को ध्यान से देखते हुए मणि साहब मुस्कुराए और बोले यह मेरे गुरु हैं-पिता जी। मेरे जीवन में तीन गुरु हुए-रूहानी गुरु ‘पिताजी’, सिनेमा के गुरु ऋत्विक घटक और संगीत के गुरु बहाउद्दीन के पिता ज़िया मोहिउद्दीन डागर। वे बोले, मैं ज़िन्दगी में कभी नहीं रोया, केवल अपने गुरु ज़िया मोहिउद्दीन डागर के गुज़रने पर एक बार रोया था, न्यूयॉर्क में। तब उन्होंने एक दूसरी क़िताब से उनके चित्र निकाल कर दिखाये, जो वे हमेशा अपने साथ रखते थे। मैंने बोला कि मणि साहब मैं इन दोनों के बारे में तो जानता हूँ पर ‘पिताजी’ के बारे में कभी नहीं सुना। तब उन्होंने अपने गुरु जिन्हें वो ‘पिताजी’ कहते थे के बारे में अजीब कहानी सुनायी। बोले कि मैं गुरुओं पर विश्वास करने वाला व्यक्ति नहीं था। एक दिन कोई मुझे पिता जी के पास ले गया। मुझे देखते ही पिता जी बोले, ‘तो तुम आ ही गये’ सच कहूँ तो मुझे बहुत गुस्सा आया। मैंने कहा, कैसा फ्रॉड आदमी है और वहाँ से उठ कर चला आया। फिर कई दिनों बाद मैं ऐसे ही ऑटो में जा रहा था कि मेरे मन में तीव्र इच्छा हुई कि उनसे मिलूँ। पता नहीं किस शक्ति के वश में मैं उनके यहाँ चला गया। मुझे देखते ही वे फिर से मुस्कुराए। इसके बाद मेरा साथ उनके गुज़रने तक रहा। वे ही मुझे कोई ख़ास क़िताब पढ़ने को कहते थे। वे कहते नहीं तो मैं पढ़ता नहीं, हाथ तक न लगाता। मेरा योगवाशिष्ठ पढ़ने का बहुत मन था पर चार-पाँच साल तक उन्होंने मुझे इसकी अनुमति नहीं दी, कहते रहे, अभी आप उस पुस्तक के लिए तैयार नहीं हैं। फिर एक दिन मैं ऐसे ही उनके पास बैठा था कि वे अचानक बोले, ‘अब आप योगवाशिष्ठ पढ़ लीजिए, मेरी ख़ुशी का तो ठिकाना नहीं रहा। आज तक उसे पढ़ रहा हूँ। पिता जी पंजाबी थे, दिल्ली के बॉर्डर पर रहते थे। देखने में, बात करने में एकदम साधारण पर कुछ ऐसी बात थी उनमें जिसे बताना बड़ा मुश्किल है’, ऐसा कहकर मणि साहब ने अपनी बात ख़त्म की। इस सबके दौरान मणि साहब अपनी अगली फ़िल्म बनाने की तैयारी भी कर रहे थे। तब उनके मन में तीन-चार कहानियाँ चल रहीं थी। एक थी-रॉसेलिनी की कहानी उसका भारत आना और सत्यजीत रे के दोस्त हरीसाधन दासगुप्ता की पत्नी को भगा कर ले जाना। मणि साहब हरीसाधन का शोनाली के वियोग में उसके कपड़े पहन कर पार्टियों में आ जाने के क़िस्से से बड़े प्रभावित थे और उससे अपनी फ़िल्म का अन्त करना चाहते थे। इस फ़िल्म के सिलसिले में वे इटली जाने की तैयारी कर रहे थे। वहाँ का कोई बड़ा अभिनेता रॉसेलिनी का रोल करने वाला था। दूसरा प्रोजेक्ट विनोद कुमार शुक्ल की ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के एक अंश पर फ़िल्म बनाने का था जिसका नाम उन्होंने ‘थाना’ रखा हुआ था। वे बताते थे कि उन्होंने विनोद जी से पूरे उपन्यास में से बस इन पचास पन्नों के अधिकार ही खरीदे हैं। एक बार मैंने हिम्मत करके कह दिया कि मणि साहब ‘थाना’ तो किसी बम्बईया फ़िल्म का नाम लगता है, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ बेहतर है। मणि साहब को मेरी सलाह पसन्द नहीं आयी थी और वो ज़रा उखड़ से गये थे। तीसरा उनका प्रोजेक्ट था विनोद जी का एक अन्य उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’। एक और प्रोजेक्ट को लेकर मणि साहब उन दिनों बड़े उत्साहित थे-महाभारत में पाण्डवों और कौरवों के बीच जुआ खेलने वाले प्रसंग पर एक पूरी फ़ीचर फ़िल्म। उनके अनुसार उस एक प्रसंग पर ही कमाल की फ़िल्म बन सकती हैं। वैसे मणि साहब के मन में और भी प्रोजेक्ट चलते रहते थे और वे हर बार इतने दृढ़ विश्वास से बात करते थे कि बस अब काम हुआ ही समझो। इन मंसूबों में फ़िल्मों के अलावा एक रेस्तरां खोलना, उत्तराखण्ड में एक पहाड़ी लेकर उस पर आयुर्वेदिक दवाईयों का उत्पादन करना, एक फ़िल्म स्कूल खोलना जिसके केन्द्र में रसोईघर होगा, शामिल थे। उस दौरान मेरी संस्थान के अभिनय के छात्रों के लिए बनाई हुई एक डिप्लोमा फ़िल्म भी बनकर आ गयी। उन दिनों मुझे अभिनेता के शरीर का कैमरे के लेंस के साथ सम्बन्ध जैसे सिद्धान्तों में रुचि थी। दूसरा कॉम्पोज़िशन और यह चिन्ता कि एक्टर ग्रेसफुली इस सीन से निकल जाए, वैसे अगर आप इन दो तीन चीज़ों का ध्यान रखों तो शायद मणि कौल और ब्रेसाँ के अभिनय सिद्धान्तों के क़रीब पहुँच जाते हैं। ऊपर से फ़िल्म 35 मिलीमीटर स्टॉक पर 1ः1 अनुपात में बनी थी। इसका मतलब यह हुआ कि आप रीटेक नहीं कर सकते थे। अभिनेता ख़ुद को बन्धा हुआ महसूस कर रहे थे। इन सब समस्याओं पर मणि साहब से इस्लाह लेने की सोच मैंने उनको यह फ़िल्म दिखाने की सोची। जैसे ही मैंने उनके सामने यह इच्छा रखी, वह मुझे अपने दफ़्तर ले गये और उनके प्रीव्यू रूम में फ़िल्म लगा दी। मैं उनके विचार जानने को सचमुच बहुत उत्सुक था पर मणि साहब तो फ़िल्म शुरू होने के दस मिनट पर ही सो गये और अन्त में उठे। कुछ नहीं बोले, संकोचवश मैंने भी नहीं पूछा, उन्होंने कमरे से बाहर जाते हुए बस इतना कहा कि इस फ़िल्म की डीवीडी यहीं छोड़ जाना। कुछ हफ़्तों बाद मुझे उनके दफ़्तर से ख़बर मिली के मणि साहब को फ़िल्म अच्छी लगी है और उन्होंने उसे अपने फ़िल्म फ़ेस्टिवल के प्रमुख सेक्शन के लिए चुन लिया है।
फ़िल्म बनाना बड़े पचड़े का काम है। पहले आपको फ़िल्म बनाना सीखना है, महँगा शौक़ है, आपको प्रतिभाशाली होने के साथ-साथ एक अच्छे व्यापारी और आढ़ती के गुण भी चाहिए। प्रोड्यूसर को प्रभावित करना, उससे पैसे निकलवाना और फिर अपने अनुसार एक पैसे डुबाने वाली कला फ़िल्म बनाना। प्रोड्यूसर को ऐसा सम्मोहित करना कि वह पैसे उड़ाते हुए भी बेहद ख़ुश और गौरवान्वित महसूस करे। इस सब के साथ-साथ दुनिया भर के सौन्दर्य सिद्धान्त का ज्ञान, पश्चिमी और पूर्वी कलाओं का गहरा अध्ययन, संगीत, चित्रकला, वास्तुकला, पाक कला, परिधान, साहित्य सब जानना पढ़ना समझना-इतने सारे गुण एक ही आदमी में मिलना असम्भव है। मणि साहब अकेले वो आदमी थे जिनमें मैंने यह सब गुण देखे। उन दिनों वे एक व्यावसायिक फ़िल्मकार की बहुत तारीफ़ कर रहे होते थे। मुझे बड़ी हैरानी होती। मणि साहब ने शायद मेरे चेहरे की हैरानी पढ़ ली थी। शाम को उन्होंने कहा चलो आज ब्रिटेन की महारानी जो शराब पीती हैं वह पीते हैं। ऐसा कह कर उन्होंने एक नीले रंग की शराब निकाल ली और उसे पीने लगे। थोड़ा पीने के बाद उन्होंने मुझे पास बुलाया और कहा कि मैं जानता हूँ कि आप क्या सोच रहे हैं। पर आजकल मेरे पास एक भी पैसा नहीं है, सिर पर बहुत उधार है, इस उम्र में यह नौकरी करनी पड़ रही है। वह आदमी शायद मेरी अगली फ़िल्म पर पैसा लगाने की कह रहा है। मैंने इस बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। इसके बाद वह योगवाशिष्ठ की एक कहानी सुनाने लगे :
‘दम, व्याल और कट को धर्म और कर्म का अभाव था, क्योंकि पूर्व वासना कर्म उनको न था और निर्विकल्प चिन्मात्र उनका स्वरूप था। वे अपने स्थूल शरीर की स्वभावसत्ता में स्थित न थे और अनात्म भाव को भी नहीं प्राप्त भये थे। एक स्पन्दमात्र कर्मरूप चेतना उनमें थी। वही कर्म का बीज चित्तकलना स्पन्दरूप हुई थी। वे मननात्मक शस्त्र प्रहार को रचे थे और उसी को करते, परन्तु हृदय में स्पष्ट वासना उनको कोई न फुरती थी। केवल अवकाशमात्र स्वभाव से उनकी क्रिया हो। जैसे अर्धसुप्त बालक अपने अंग को स्वभाविक हिलाता है वैसे ही वह वासना बिना चेष्टा करें। वे गिरना और गुर्राना कुछ न जानते थे और न यही जानते थे कि हम किसी को मारते हैं अथवा हमीं मरते हैं। वे न भागना जाने और न जानें कि हम जीते हैं व मरते हैं। जीत हार को वह कुछ न जानें केवल शस्त्र का प्रहार करें। जैसे यन्त्री की पुतली तागे से चेष्टा बिना संवेदन करती है तैसी ही दम, व्याल और कट चेष्टा करें।’
मणि साहब बेशक उम्र में हमसे 30-40 साल बढ़े थे। असल में वे मेरे पिता जी से भी दो साल बड़े हुए। मेरे ताया की उम्र के हुए पर उनके अन्दर एक 20-25 साल के जवान फ़िल्मकार जैसा जज़्बा था। उनके म्यूज़िक रूम में बस्तर छत्तीसगढ़ के गोंड जाति की सुलुर हवाई बाँसुरी थी जिसे हवा में तेज़-तेज़ लहराने से कमाल का संगीत पैदा होता था। एक दिन मैंने उसे हाथ में लेकर घूमाना शुरू किया और उसके संगीत का आनन्द लेने लगा। उसकी आवाज़ सुनते ही मणि साहब तेज़-तेज़ चलते हुए कमरे में आए और बोले कि अमित आप इस बात का ध्यान रखिएगा कि मैं इस ध्वनि को अपनी अगली फ़िल्म में इस्तेमाल कर रहा हूँ। मुझे यह सुनकर हैरानी भी हुई और अच्छा भी लगा कि मणि साहब अपनी फ़िल्मों को लेकर इतने सतर्क और सटीक हैं। ऐसे दो-एक हफ़्ते और गुज़र गये; मैं जब भी जाने की बात करता, मणि साहब रुकने को कहते। एक दिन सुबह-सुबह ही वे बोले कि आज वे चित्र बनाएँगे। ओसियान ने गुलज़ार को अवॉर्ड देने का सोचा है और दफ़्तर वालों का मानना है कि मणि साहब की पेंटिंग ही वो अवॉर्ड होगा। मणि साहब नयी मिली इस असायन्मेंट को लेकर बड़े उत्साहित थे और दो-तीन दिन बाद वे चार-पाँच कमाल के चित्र लेकर कमरे से निकले। मुझे और कैथरीन को बुलाकर पूछने लगे, इनमें से कौन-सा अच्छा है? हमने अपनी-अपनी राय रखी और वे उनमें से एक को लेकर दफ़्तर चले गये। उसी दिन शाम को विख्यात रुद्रवीणा वादक असद अली खान साहब का कॉन्सर्ट था और यह योजना बनी कि दिलीप, मैं और कैथरीन साथ में वहाँ जाएँगे और वापसी में मणि साहब को उनके दफ़्तर से लेते आएँगे। उस प्रोग्राम में भी कुछ अजीब हुआ -असद अली खान वज्रासन में बैठकर वीणा वादन करते थे। पहले वो एक ख़ास पैनी नज़रे से सारे दर्शकों को देखते हैं, फिर वीणा की तारों पर एक ख़ास अन्दाज़ से हाथ फिरा कर उसे झटके से उठाते हैं और कन्धे पर रखते हैं, यह स्टाइल डागरों से बिलकुल मुख़्तलिफ़ थी (वे वीणा एक तुम्बे को जांघ पर रख कर बजाते हैं), इन दोनों घरानों में प्रतिस्पर्धा की भावना भी बहुत थी; मणि साहब ने एक बड़ा मजे़दार किस्सा सुनाया : बड़े उस्ताद यानी ज़िया मोहिउद्दीन के यहाँ एक पंजाबी भी ध्रुपद सीखने आने लगा था। उसका ट्रांसपोर्ट का काम था। एक बार असद अली खान के वादन की बात चली तो उसके गुण-दोष की समीक्षा उन्होंने कुछ इस प्रकार से की, ‘अरे उस्ताद उनका वादन तो पुरानी एम्बेसेडर कार जैसा है और आपका बिलकुल नयी मरसडीज़ जैसा।’ सच कहूँ तो मुझे असद अली खान का वादन भी बड़ा प्रभावशाली लगा था-वे एक नोट को बजा कर हाथ से उस नोट का पीछा करते थे। पीछे उनका एक विदेशी शागिर्द तानपुरे पर था। उस दिन उनका वादन कमाल का था। एक ख़ास गहरा सुर जब उन्होंने लगाया तो एक श्रोता ख़ुशी से चहक उठा- वाह! ऐसा सुनते ही खान साहब ने वीणा नीचे ज़मीन पर रख दी और उसकी तरफ उंगली करके बड़ी तेज़ आवाज़ में बोले- ‘दस साल। इस सुर को यहाँ पहुँचाने में मुझे दस साल लगे हैं’, उनकी आवाज़ बड़ी बुलन्द थी। फिर वीणा झटके से उठायी, कंधे पर रखी और बजाना शुरू कर दिया।
वापसी में हम लोग टैक्सी से मणि साहब के ऑफ़िस गये। वे बाहर ही खड़े थे। कार मैं बैठते ही उन्होंने बताया कि आज मुझे पीठ और छाती के आसपास बहुत तेज़ दर्द हुआ। दफ़्तर में सब लोग चिन्तित हो गये हैं, चेक-अप करवाना पड़ेगा। उनके अनुसार उन्होंने पिछले दिनों जो ज़मीन पर बैठकर चित्रकारी की है, उसकी वजह से ही यह दर्द हुआ है। अगले दिन उनका ब्लड-टेस्ट करने के लिए घर पर एक आदमी आया। भला सा आदमी था -जब वह वापिस जा रहा था तो मणि साहब उससे बोले, अरे साहब हम तो जाने के लिए तैयार बैठे हैं। ब्लड टेस्ट वाला घबरा गया बोला, सर ऐसा मत बोलिए सब ठीक होगा। अगले ही दिन रिपोर्ट आ गयी-बहुत ही ज़्यादा चिन्ता की बात थी-प्रास्टेट कर्क रोग का अन्देशा था। उस रात हम में से कोई नहीं सो पाया। मणि साहब सारी रात अन्दर बेड पर लेटे हुए फ़ोन पर अपनी डच (पूर्व) पत्नी से बात करते रहे। थोड़ी देर के लिए बाहर आए और कैथरीन और मुझे डाइनिंग-टेबल पर बैठा देख मुस्कुराए और फिर संस्कृत में मृत्यु और जीवन को लेकर कोई श्लोक पढ़ा जो इस वक़्त मुझे याद नहीं है। अगले दिन हमें डॉक्टर के क्लीनिक जाना था, मणि साहब और मैं साथ गये। जैसे ही क्लीनिक पहुँचे, वहाँ की एक नर्स इतनी बदतमीज़ी से बात की कि मैं सन्न रह गया। हमारे देश में मरीज को एक अपराधी समझा जाता है, इस अहसास से बेहद गुस्सा आया। उधर मणि साहब जिनके उस नर्स की बदतमीज़ी से गुस्सा होने के बजाय हैरान होकर हँसने ले। इसके बाद वे अन्दर डॉक्टर से मिलने चले गये और मैं बैठा बाहर इन्तज़ार करता रहा। थोड़ी देर बाद मणि साहब बाहर आये बेहद ख़ुश थे बोले कि यह डॉक्टर तो बहुत ही अच्छा निकला। उसने मुझसे ऐसे बात की जैसे मैं अपने छात्रों से करता हूँ। मैं भी ख़ुश हुआ पर फिर बातों ही बातों में पता चला कि दरअसल न तो डॉक्टर ने कोई अच्छी ख़बर दी थी और न ही कोई सान्त्वना। उसने केवल यही कहा था कि कर्क रोग तो है ही और मैलिग्नेन्ट भी हो सकता है, बस हमें इसके इलाज की तैयारी करनी है।
फिर उन्होंने उदयन जी से सलाह ली। वे मणि साहब के प्रिय शिष्य और दोस्त हैं। उन्होंने यह सलाह दी कि मणि तुरन्त भोपाल उनके घर आ जाएँ, वहाँ पर तफ़सील से पड़ताल की जाएगी। अगले ही दिन उनका जाने का प्रोग्राम बना था और मैं भी टैक्सी से जम्मू चला आया।
इस तरह मणि साहब के साथ मेरा तक़रीबन एक महीना लम्बा प्रवास पूरा हुआ। इसके बाद मैं उनसे केवल एक बार मिला, कुछ ही घण्टो के लिए। इस दौरान फ़ोन पर बात ज़रूर होती रही। एक बार फ़ोन करके बोले कि मैं जानता हूँ तुम अपने काम से काम रखते हो, ज़्यादा मिलते-जुलते नहीं हो फिर भी मैंने तुम्हारा नम्बर मुम्बई के एक फ़िल्म निर्माता को दे दिया है, शायद तुम्हें फ़ोन करे। मैं उनकी बात सुनकर बहुत हैरान हुआ, उनको मेरे बारे ऐसा क्यों लगा? मैं ठहरा एक संघर्षरत नौसिखिया। मैं तो उत्साहित होकर उस फ़ोन का इन्तज़ार करता रहा। फ़ोन आया भी पर बात नहीं बनी। इस दौरान मैंने फ़िल्म ‘नैनसुख’ का रफ़ कट कर लिया था जो मैंने उन्हें पोस्ट से भेज दिया था। उन्होंने रफ़-कट देखकर तक़रीबन एक घण्टा फ़ोन पर बात की और ध्वनि के लिए अद्भुत सुझाव दिये; मसलन वे बोले कि जब ‘नैनसुख’ के चलने की फोली करो और मान लो अगर वो सूखे पत्तों पर चल रहा है तो सूखे पत्तों से ही फोली की आवाज़ न बनाकर एक काग़ज़ को मुचड़ कर उससे बनाना, उससे जो काग़ज़ का टेक्स्चर हैं जिस पर वो चित्र बनता है, ध्वनि के जरिए फ़िल्म में दाखिल हो जाएगा। यही रफ़ कट उन्होंने वेनिस फ़िल्म फ़ेस्टीवल के प्रमुख मार्का मूलर को भी दिखाया और फिर उन दोनों ने मुझे फ़ोन पर सूचना दी कि मेरी फ़िल्म वहाँ दिखायी जाएगी। बाद में मणि साहब ने ही वेनिस जाने के लिए मेरी टिकटों का इन्तज़ाम किया था। मेरी फ़िल्म तो वेनिस में दिखायी गयी पर किन्हीं कारणों से मैं वेनिस जा नहीं पाया। मेरे इस निर्णय से मणि साहब थोड़े निराश हुए थे।
इस दौरान उनका लगातार इलाज चल रहा था। कुछ महीनों के उपचार के बाद एक दिन उनके टेस्ट एकदम अच्छे आ गये। उन्होंने उदयन जी से कहा कि अमित को फ़ोन लगाओ; तब मैंने उदयन जी और मणि साहब से बड़ी लम्बी बात की। उनका मूड बहुत अच्छा था। इसके कुछ महीनों बाद पता चला की उनकी हालत फिर से नाज़ुक हो गयी है। उदयन जी का फ़ोन आया कि मुझे उनसे एक बार मिलने आना चाहिए। तकरीबन एक साल बाद मैं उन्हें वहीं उसी घर पर मिलने गया। घर सूना-सूना और बिखर सा गया लगता था। मणि साहब बाहर सोफ़े पर अकेले बैठे हुए थे। थोड़ी देर के लिए तो मैं उन्हें पहचान ही ना पाया था-एकदम कमज़ोर हो गये थे। मुझे देखकर मुस्कुराए और बोले, चलो अन्दर चलते हैं, थोड़ा लेटूँगा। अन्दर जाकर वो बिस्तर पर लेटने से पहले थोड़ा ठिठके और बोले, ‘अमित मुझे बहुत तेज़ दर्द है-तुमसे बात करते हुए मैं शायद ज़ोर-ज़ोर से कराहूँगा, तुम घबराना मत और डॉक्टर वगै़रह को बुलाने की कोशिश मत करना-कराहने से आराम मिलता है। इसके बाद वो लेट गये और बोले, अगर तुमने कोई फ़िल्म का प्रोजेक्ट तैयार किया है तो मुझे बताना, मैंने तुम्हारे बारे में एक दो लोगों से बात की है- अच्छा हो तुम्हें फ़िल्म बनाने को मिल जाए। मैंने कहा कि मणि साहब फ़िल्म की चिन्ता छोड़िए अपना ध्यान रखिए। मणि मुस्कुराए और बोले, आपने कभी गधे के नाखून देखे हैं? ‘जी नहीं’, मैंने कहा। तभी उन्होंने अपना पैर ऊपर किया, ‘यह देखो!’। उनके नाख़ून एकदम सख़्त और बड़े-बड़े थे; कई दिनों से न काटने की वजह से मुड़कर उनकी पैर की चमड़ी में घुस गये थे। ‘मेरे में हिम्मत नहीं है, सुबह से इन्हें काटने की कोशिश कर रहा हूँ-क्या तुम मेरे नाखून काट सकते हो?’ मैंने कहा यह भी कोई पूछने की बात है भला, हुकुम कीजिए और जैसे ही मैंने उनके नाखून काटने शुरू किये दरवाज़े की घण्टी बजी। मणि एकदम घबरा गये और डर कर ज़ोर से बोले कि जो भी हो उसे बोल देना, मेरे पास पैसे नहीं है। मैंने पूछा, ‘किसको पैसे देने है?’
‘आजकल एक ऑर्गेनिक सब्ज़ी वाला रोज़ आता है- एफ.टी.आई.आई. का एक छात्र मेरे साथ रुका हुआ है, ऑर्गेनिक सब्ज़ियाँ खरीदता रहता है, वेगन है, मुझे दही भी नहीं खाने देता, बोलता है दूध पर पहला हक़ बछड़े का है। ऑर्गेनिक सब्ज़ियाँ तो बहुत महँगी हैं और पूरा फ्रिज, किचन इन सब्ज़ियों से भर चुका है। इस हालत में तो मैं कुछ खा ही नहीं पाता हूँ। फिर यह हर दिन सब्ज़ियाँ खरीदने की क्या ज़रूरत है ? तुम उसे सख़्ती से बोल दो, मेरे पास पैसे नहीं है।’ मैंने दरवाज़ा खोला तो वहाँ डाकिया था, जो कुछ डाक देने आया था। मैंने जब उनको बताया कि ऑर्गेनिक सब्ज़ी वाला नहीं है तो उनकी जान में जान आयी, बोले, ‘वैसे लड़का है भला, जब भी मुझे तेज़ दर्द रहता है तो यहीं मेरे कमरे में फ़र्श पर सो जाता है’। इसके बाद मैंने उनके नाखून काटे। नाखून काटने के कुछ देर बाद उनको एकदम तेज़ दर्द शुरू हो गया। वह ज़ोर-ज़ोर से कराहने लगे थे। मैं घबरा कर उठ गया तो उन्होंने हाथ से इशारा करके बैठने को कहा, बोले, ‘मुझे हिप-बाथ से आराम मिलेगा। अब घर पर कोई है नहीं।’ मैंने उनसे कहा कि अगर वो मुझे बता दें तो मैं बाथ तैयार कर सकता हूँ। उन्होंने अचानक मेरी ओर देखा और पूछा, ‘क्या आप कर पाएँगे?’ ‘जी ज़रूर’, मैंने कहा। उन्होंने बाथरूम में जाकर उनके लिए गरम पानी की हौदी भरने को कहा। जब मैंने भर दिया तो बोले कि ‘अब सबसे मुश्किल काम है। मैं चलकर टब में नहीं बैठ पाऊँगा, आपकी मदद चाहिए होगी।’ बेशक मणि साहब बीमारी से कमज़ोर हो चुके थे पर अब भी उनको उठाकर टब तक ले जाना मेरे बस की बात नहीं थी। फिर भी हम दोनों ने हिम्मत की। बिस्तर से नीचे आते ही मणि साहब बैठ से गये थे। मैंने मज़बूती से उनको पीछे कन्धों से पकड़ा और बाथरूम की ओर ले जाना शुरू किया। बाथरूम उनके कमरे से जुड़ा हुआ था और कुछ ही फ़ीट की दूरी पर था। पर उस वक़्त फ़ीट मीलों में बदल गये थे। किसी तरह बेहद जद्दोजहद के बाद मैं उनको टब तक पहुँचाने में कामयाब हुआ और उनके पास ही बाथटब की सिल पर बैठ गया। कुछ देर मणि साहब वहाँ बैठे तो उनको आराम हुआ। थोड़ी देर चुप रहने के बाद अचानक बोले, ‘कल एक फ़ेस्टिवल वाले आ गये थे-एक ट्रॉफी दे गये हैं-लाइफ़ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड। मैं बहुत गुस्सा हुआ और उनको बोला कि यह मत सोचना कि मैं इतनी ज़ल्दी मर जाऊँगा। पूरी ज़िन्दगी इतने सुख से काटी अब दुःख मिल रहा है, बस। ठीक हो जाऊँ तो सिनेमा और संगीत के सम्बन्ध पर मेरे मन में कुछ विचार आये हैं, उन्हें लिखना है’। कुछ देर बातें करने के बाद मणि साहब ने वापिस जाने की इच्छा जताई। वापिस ले जाना और भी मुश्किल था। बेशक मैं उनके शरीर को कई बार तौलिए से पोंछ चुका था, फिर भी उनका शरीर गीला था और मेरे हाथ बार-बार फिसल रहे थे। मुझे आसानी से रोना नहीं आता। बचपन से ही इतना कम रोता था कि एक बार मेरी माँ मुझे डॉक्टर के पास ले गयी थी कि इसके आँसू नहीं आते हैं। तब डॉक्टर ने शायद बताया था कि यह इसकी ग्रन्थियों का स्वभाव है-आँसू कम बनते हैं। पर मुझे याद है कि मणि साहब को वापिस पलंग पर लिटाते वक़्त मेरी आँखें नम हो चुकी थीं। इसके बाद मैंने उनसे भारी मन से विदा ली। कुछ ही दिनों में उनके गुज़र जाने की ख़बर आ गयी। आखि़री समय में वे एकदम अकेले थे। बस कुछ एक छात्र और मित्र ही आखि़री समय में उनके साथ थे, जिनकी फ़िल्मों और बातों में मणि साहब हमेशा ज़िन्दा रहेंगे। मणि साहब के गुज़रने के कुछ वर्षों बाद कैथरीन को बालक हुआ तो उसने मुझे बर्लिन से ईमेल किया-उसने अपने बच्चे का मध्य नाम मणि रखा था, उसका मेल पढ़ते हुए मेरे मन में अहमद नदीम क़ासिमी की दो पँक्तियाँ गूँज उठीं :
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा