हे कवि अनुराध्ाा महापात्र की कविताएँ बांग्ला से अनुवादः जयश्री पुरवार
29-Dec-2019 12:00 AM 4845

नदी की श्रान्ति के पास

देवियों के नेत्रों की तरह वे कमल की पंखुडि़याँ
मुझे घेरे रखती हैं
नदी की श्रान्ति के स्रोत में
रंग और रेखाओं का उभार
श्री रामकृष्ण की आरोग्य चिन्ता में
स्वामीजी का अश्रुपात
कभी भूल नहीं पाऊँगी, जानती हूँ
अपराजिता के रंग में
कविता की सब भाषा का
अनुभव कर लेना चाहती हूँ
गृहस्थ जीवन क्यों और कभी नहीं मिल पाया
यह कबका भूल चुकी
निराकार अन्ध्ाकार के स्रोत में
जो तिमि मत्स्य शान्त होकर
आज मृत्यु के साथ जूझ रही है
उसके पास स्तव नहीं,
कविता का, शून्यता का मर्म मैं समझ सकती हूँ

नाम के आखर

गंगा, सिन्ध्ाु, कावेरी, गोदावरी
स्त्रियों के नाम से आखर
दृष्टि है पर अन्तर्दृष्टि कहाँ है
जल के आईने में
कितनी साध्ाना के मार्ग पर चलने से
दुःख के प्रखर ताप का अन्त होगा
अभी जान नहीं पाये
कितने नचिकेता, मैत्रेयी के प्रश्नों के
उत्तर अभी मिल नहीं पाये
मृत्यु की छोटी नाव पके ध्ाान से भरी
तट पर आकर अकेली लौट जाती है
कितने अनुच्चारित झरे हुए शाल के फूल
कितने प्रभात-अंजलि मिल गये हैं
इस ध्ाूल में
कितने बिन खिले दृष्टि के रंग में
केवल प्रस्तर-प्रहार
कितनी खोई हुई ध्वनि, द्वेष, राग
रह गये हैं स्रोत के उस पार


मीरा का सुर

मीरा का सुर सुनती हूँ
वैदेही के योगीकण्ठ में आज
इतनी परिक्रमा मार्ग की
रिक्तता का इतना हाहाकार
हृदय में लेकर दिव्यता का
इतना शिशिर का झरना
इतना अश्रुजल अन्ध्ाकार नदी तट पर
आकाश में, निराशा में लुढ़क रहे हैं बार-बार
अभी फूल खिल उठा और आम झर गया
बूँद-बूँद में फिर से
मीरा के नयनों के तट पर
मीरा के पैरों के छन्द में
मीरा के प्रेम के ब्रज में
आज शायद बांग्ला कविता
आकर मिल गयी है


किसी दिन

अनन्त आकाशस्रोत मेघ
और सागर में अंजलि
इस दृश्य में मृत्यु को पार कर लेना
आईने में बातचीत और चेहरा
अब कभी दिखायी नहीं पड़ता
फिर भी
प्रणय और विदायी उत्सव
तुम लोगों की आँखों की गहरायी में
जो आँसू और स्वर-लिपियाँ हैं
तुम लोगों के विस्मृत उस स्वर में
जो लांछना की श्रान्ति है
किसी से मन को शान्ति नहीं मिलती
इस गीत में
दिन-रात प्रभात गोध्ाूलि
सब जैसे खो गये हैं
जन्म से मृत्यु तक
इस छन्द से ज़्यादा और क्या कहूँ


यह पृथ्वी

यह पृथ्वी कैसी है?
इस प्रश्न पर घोंसले से उड़ गया पक्षी
अन्ध्ोरे में कितने तारे मिट गये
कितनी स्मृति कितने अवक्षय।
फिर भी प्रेम रह गया चिता की भस्म में
अन्ध्ाकार कभी आलोकित होगा इसलिए
पृथ्वी का विनाश होगा सोच कर
पागल, वैज्ञानिक और शिल्पी भ्रमित हो गये
इरावती नदी के तट पर आयी
लहर की पीठ पर बैठकर कवि सोच रहा है आज
एक कौए की चोंच ने डुबकी लगायी
दूसरे कौए के डैने के अन्ध्ोरे में
इस दृश्य से विषाद मिट जाता है
दिवारात्रि की इस कविता में
जीवन फिर किस ओर
अकेले ही प्रवाहित होता जा रहा है


सब भूल है

भोजन की खोज ख़त्म हुई
उड़ती हुई उस महामृत्यु के पार
यही सूत्र दे गयी उस परिन्दे की चहक
जीवन एक अभिज्ञता
तो फिर ध्यान का स्रोत मिल सकता है
कभी-कभी गीतांजलि ले जाती है उन्माद प्रेम की ओर
यह मालूम है
कभी-कभी यह दुःख
ये मध्ाुमय विष का स्वाद
आँसू ही क्या हमेशा से अन्तिम कविता है?
फिर इतनी जटिलता क्यों?
ईसा का वह क्रूसविद्ध क्षण, वे आँखें
केवल यादों में ही रह जाती हैं
और जितना भी कुछ पाया है अभी तक
सब भूल है यही जानना होगा!


धूल में स्नान

ध्ाूलि स्नान करके जब शालिख
अन्तरीक्ष में कहीं खो जाती है,
मृत्यु पर्यन्त अपने ही पंख छिन्न कर,
कहीं पर कोई शान्ति क्यों नहीं है!
फिर क्या इस शहर को छोड़कर चली जाये?
रूप नारायण नदी जहाँ खत्म होती है
वहीं पर डूब जाने वाली
बचपन की नाव के पास
उदयास्त से अनजान वह सितारा
अगर मलिन हो जाए आकाश में
‘अगर प्रेम न मिले प्राण को’ ...इसी सुर को लेकर
चली जाऊँ मृत्यु के पास


गहरायी में जाने से पहले

एक भौंरा आकर बुद्ध के अध्ारों पर बैठा
वह निर्वाण नहीं जानता, देखता है,
इन अध्ारों का रंग फूलों की तरह है
बन्द नेत्रों की ओर दो एक बार
झुक-झुक कर उड़ता है
फिर धूसर पथरीली ठोड़ी पर
पंखों की भिनभिनाहट
सिर के ऊपर शून्य, पैरों के नीचे शून्य
नीचे गहरायी में जाने से पहले
सुनकर लम्बी साँस
अँध्ोरे में मेघ की ओर
उड़ जाता है परिश्रान्त


बात-बात में

थाली में आध्ाा चाँद ढलान पर है
आध्ाा मोरपंख की तरह कहीं छिटक गया
डूब गया आकाश के
अग्निमय काले गह्नर में
यहीं पर थेरी गाथा
शेष हो जाती तो ठीक रहता
सोचकर देखती हूँ
पति की मृत्यु के बाद लड़कियाँ
बौद्ध भिक्षुणियाँ हो जातीं अबाध व्यवसाय में
‘त्याग के बिना कोई प्रेम होता है क्या?’
उदयगिरि से तथागत ने भेजा
इतना ही सन्देश
थाली पर आधा मन ढलान पर है
और आधा रह गया
शेष शाम के दीर्घ विस्तीर्ण बालुचर में...


हे कवि

शाम के लाल मेघ में
बारिश का शान्त पटचित्र
हे कवि विलुप्त नदी की तरह
उदयास्त है शाश्वत चित्र।
अस्तगत चाँद डूब रहा है
लक्ष्मीप्रिया की मृत्यु की भाँति
इस रास्ते से अलग जाने के लिए
जिस एकान्त माया को लेकर बैठी हूँ
कितने समय से इस तट पर
जलविहीन शून्य शंख इकट्ठा करती हूँ
जीने और मरने के अन्तराल में
रक्ताभ चाँद के जैसी
धुक् धुक् वो जो आग जल रही
अनन्त धूसर - पीली
उस काल के ललाट पर
मिजऱ्ा ग़ालिब के प्रति

कभी इस धरा पर आये थे,
इतने कुछ विनाश से पहले।
कविताएँ भी लिखी थी
मृत्यु और अश्रुपात
चिरकाल से नमाज़ के नीचे दबाकर रख देते
फिर क्यों आज ये फूलों की भस्म की तरह
स्पन्दित होते हो? क्या यह जानकर कि
विषाद का कोई अन्त नहीं है,
केवल प्रदोष में उतर आने के अलावा
मौलिश्री के फूल भी मर रहे हैं, मिजऱ्ा,
मौलिश्री की तरह
श्मशान का व्यंग्य लेकर जीवित हूँ
इस मरू-शहर में
स्पन्दित करो कवि मार्ग मेरा-
प्रकाश से, प्रेम से


धूलि शयन

आज धूल में बुद्धमूर्ति की
तरह लेटे रहने का मन होता है
आकाश की ओर देखकर
उत्ताल जल की अंजलि बन
कहीं दूर खिसक जाने का
मन होता है आज
तारे नहीं हैं, चाँद भी नहीं
दिशाएँ चक्रवात
जंगली मालती की तरह अक्षम है रात
धूलि खेला खेल-खेल कर जो
मैना भूल गयी है शोक
पंछी की वे आँखें
जो कभी खुल न पायीं,
टूटे दिये के पास धूसरित रखो
धूलि शयन का दिन
बहुत प्रिय है आज


शाम ढल आयी

शाम ढल आयी
पपीहा के विषादमय सुर में
इसे क्या बिहाग कहूँ?
यह श्रमण के प्रेम की आर्तध्वनि?
जीवन का अतिरिक्त अकेलापन
मृत्यु के अलावा किसी एक नदी की तरह
सभी धूसर हाथ पलटते जा रहे हैं
नाव भी लगभग पलट रही है
हज़ारों वर्षों के बुद्धमन्त्र उभर कर आ रहे हैं
कविता के मृत अक्षरों की आभा में
गोधुलि के कमल की पंखुडि़याँ उड़ रही हैं,
नश्वर हवाओं में
मातृत्व

क्रम से विस्मृतियाँ इकट्ठी होती जाती है
क्रम से सारे पंख झर जाते हैं
क्रम से हंस भी अकेला विसर्जन को चला जाता है
क्रम से छिन्नमस्ता रूप ही
ब्रह्माण्ड के अस्तित्व का प्रथम और अन्तिम
जीवन्त स्वरूप प्रतीत होता है
क्रम से महाअन्धकार, निष्ठुर शून्यता
ही मातृत्व रूप में प्रकट हो उठता है


नूतन प्राण

इस भूमि पर वृक्षों पर फूलों के खिलने में
कितने करोड़ वर्ष लग गये
रक्तपात, ईष्र्या की दावाग्नि के बुझने में
और कितना अनन्त समय बीत जाएगा,
सोचती हूँ
अविराम उल्कापात होता रहेगा
असंख्य प्रलय के बाद
फिर भी, अभी गीत गा सकती हूँ
‘नूतन प्राण दो मुझे, प्राण सखा’


हे राज

अगर हाथ पर हाथ रखते हो,
आकाश को शून्य विषाद में फिरने दो
द्वार अगर नहीं खोलते हो,
दरवाज़ा बन्द रहे, दीपक को बुझ जाने दो
अगर हृदय नहीं खोलते हो
गोधूलि के रंग को मझधार में ही रहने दो
सुर से अगर सितार भरे,
फिर शून्यता क्यों नहीं भरती?
धूलि में पंछी लोट जाये
उसे विच्छिन्न पंख से पत्र लिखने दो
उस सुर को शेष हो जाने दो हे राज!
बीच में कुछ गोपन न रखो


सरलता भी दुरूह होने लगती

मध्य रात्रि में नील कमल की निर्जनता
राख हो जाती है दोनों के अनजाने में
दो नाव मिलने लगती हैं
शान्त स्रोत की गहरायी में
भौंरे अनमने होकर टूटे हुए नक्षत्रों के
अलिंगन में मिल जाना चाहते हैं
ये सभी दूर से आयी हुई तृष्णा की जलध्वनि
पत्थर की अनन्त भंगिमाओं में
एक दिन मिट जायेगी
प्रेम और नैराश्य की स्मृति
आज काम और मृत्यु के बाहर
तुम एकाकी स्वाधीन
इसलिये नग्न वैराग्य के रंग में
कमल भी इतना लौलिहान

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