24-Oct-2020 12:00 AM
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भूमिकाः
हम अपनी बात की शुरुआत कुछ प्रश्नों के माध्यम से करना चाहते हैं। यह दावा हम नहीं करते कि आगे चलकर इन प्रश्नों का जवाब हम दे देंगे, फिर भी प्रश्न करना चाहते हैं। प्रश्न पूछना हमें इसलिए ज़रूरी लगता है कि इन सवालों के माध्यम से नए सिरे से सोचने और विचार करने का उत्साह हमें मिलता है। शायद यही उत्साह आने वाले दिनों में इन सवालों का जवाब खोज सके। इसी आशा के साथ कुछ सवालों को क्रमबद्ध रूप से हम रखने की कोशिश कर रहे हैं-
1. क्या हम लोगों ने कभी हिन्दी साहित्य के विकास में अहिन्दी भाषी भारतीय विद्वानों के योगदान पर गम्भीरतापूर्वक सोचा है? खासकर बंगाल और बांग्ला भाषा से सम्बन्ध्ाित विद्वानों के योगदान को लेकर।
2. आचार्य क्षितिमोहन सेन ने मध्यकाल और कबीर को लेकर लिखा, रबीन्द्रनाथ टैगोर ने कबीर की कविताओं का अनुवाद किया, इसको छोड़कर क्षितिमोहन सेन ने जायसी, दादू और तुलसीदास पर लिखा है; रबीन्द्रनाथ ने हिन्दी भक्ति साहित्य पर लिखा है, क्या हमने उसे गम्भीरता से देखा-परखा है?
3. प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार अवनीन्द्रनाथ टैगोर और प्रसिद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीतकार एवं गायक दिलीप कुमार राय ने क्रमशः कबीर और मीरा को जिस दृष्टि से देखा है, क्या हमने उस पर कभी इत्मीनान से सोचा-विचारा है?
4. क्या हम जानते हैं कि रबीन्द्रनाथ और उनकी परिध्ाि (सर्किल) के लेखकों को छोड़कर हिन्दी के भक्ति साहित्य को जानने और समझने की एक और परम्परा बांग्ला में रही है, जिसकी शुरुआत बंकिमचन्द्र के जयदेव और विद्यापति पर लिखे निबन्ध्ाों से होती है? शायद इसी परम्परा में महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री, नौआखाली के दिनों में गाँध्ाीजी के सचिव रहे सतीशचन्द्र दासगुप्ता, काज़ी नज़रुल इस्लाम के मित्र और समकालीन पत्रकार शंकरनाथ राय और बांग्ला साहित्य के प्रसिद्ध इतिहासकार सुकुमार सेन भी शामिल हैं।
5. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के गुरुतुल्य आचार्य क्षितिमोहन सेन ने तुलसीदास पर लिखते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना-दृष्टि की प्रशंसा की है। क्या हम इससे भलीभाँति परिचित हैं?
हिन्दी साहित्य को जितना हम लोगों ने पढ़ा और जाना है, इनमें से ज़्यादातर प्रश्नों के उत्तर उसमें नहीं मिलते। ये हमारी सीमा हो सकती है। पर इन दिनों एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में इन लेखों से गुज़रते हुए हमें महसूस हुआ कि हिन्दी साहित्य की आलोचना सिर्फ़ हिन्दी भाषा तक सीमित नहीं रही है। हिन्दी से इतर अन्य भारतीय भाषा और संस्कृति में भी इस पर बड़े आत्मीय ढंग से विचार किया गया है। आज जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं उसमें हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तानी हमारी इस पहचान को जबरन हमारे ऊपर थोपा जा रहा है, और जब ये पहचान हमारे ऊपर जबरन थोपी जा रही है, ऐसे में हमें लगता है कि इन विषयों पर बात करने की बहुत सख्त ज़रूरत है। देश की जो हमारी अवध्ाारणा है, उसमें विविध्ाता सर्वप्रमुख है। इस विविध्ाता का सबसे अच्छा उदाहरण यही है कि अलग होकर भी हम एक हैं। भाषा और संस्कृति हमारी अलग है, पर चिन्ता एक है।
बांग्ला में हिन्दी के भक्ति साहित्य पर चिन्तन की दो ध्ााराएँ हमें दिखती हैं। एक बंकिमचन्द्र समूह की ध्ाारा और दूसरी रबीन्द्र समूह की ध्ाारा। अभी हमने जिन विद्वानों और उनके लेखों की ओर संकेत किया है, उनका सम्बन्ध्ा इन्हीं ध्ााराओं से है। ऐसा नहीं है कि हिन्दी के विद्वानों को इन ध्ााराओं की जानकारी नहीं है। जानकारी तो है, पर पूरी तरह से नहीं, आध्ाी-अध्ाूरी। ज़रूरत है उसे मुक्कमल ढंग से जानने और परखने की। तभी हम हिन्दी के भक्तिकालीन साहित्य के अखिल भारतीय स्वरूप को ठीक से समझ सकेंगे। इन्हें हम निम्न बिन्दुओं से समझ सकते हैं-
बंकिमचन्द्र सर्किल का चिन्तनः
रबीन्द्रनाथ और क्षितिमोहन से बहुत पहले साहित्य सम्राट बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय ने जयदेव और विद्यापति पर लिखकर हिन्दी के भक्ति साहित्य को नयी दृष्टि से देखने की कोशिश की है। उक्त लेख में स्पष्ट रूप से बंकिमचन्द्र ने साहित्य को सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ जोड़ते हुए बांग्ला वैष्णव काव्य को सामाजिक आध्ाार प्रदान किया है। इन वैष्णव काव्यों का उद्भव और विकास उन्होंने आर्य और अनार्य संस्कृति के मेल-बन्ध्ान से माना है, जो उचित लगता है। जयदेव और विद्यापति पर बात करते हुए उन्होंने इन दोनों वैष्णव कवियों को अलग-अलग ध्ााराओं के प्रतिनिध्ाि के रूप में स्वीकार किया है। वे ऐसा इसलिए नहीं स्वीकार करते कि जयदेव की कविता संस्कृत में है और विद्यापति की मैथिली में, बल्कि उनके अनुसार वे एक-दूसरे से अलग हैं क्योंकि जयदेव ऐन्द्रिय जगत के कवि हैं और विद्यापति मानसिक जगत के। कविता लिखते समय कवि अपने अन्तर्मन को बाह्य दुनिया से और बाह्य दुनिया को अपने अन्तर्मन से जोड़कर दिखाने की कोशिश करता है। बंकिमचन्द्र का यह मानना है कि जिस तरह अंग्रेज़ी रोमांटिक कवि विलियम वडर््सवर्थ की कविता में कवि का अन्तर्मन बाह्य दुनिया पर हावी है, उसी तरह जयदेव की कविता में बाहरी दुनिया ने कवि के अन्तर्मन को अपने काबू में कर रखा है। उनके अनुसार विद्यापति इन दोनों से ऊपर हैं क्योंकि उनकी कविता में अन्तर और बाह्य जगत का अनोखा मेल हुआ है। गौरतलब है कि इस निबन्ध्ा में बंकिमचन्द्र ने विद्यापति को एक ध्ाार्मिक कवि के रूप में नहीं, बल्कि एक कवि के रूप में रेखांकित किया है और युवा रबीन्द्रनाथ पर उनका प्रभाव माना है। यह सही है कि रबीन्द्रनाथ ने आगे चलकर कबीर आदि निर्गुण भक्त कवियों को ज़्यादा महत्व दिया है, लेकिन अपने युवाकाल में विद्यापति का अनुसरण करते हुए उन्होंने ‘भानुसिंह ठाकुरेर पदावली’ और प्रमुख वैष्णव कवियों की कविताओं का संकलन ‘पद रत्नावली’ का सम्पादन किया था।
संस्कृत और पाली के प्रकाण्ड विद्वान और पुरातात्विक महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री सम्भवतः बंकिमचन्द्र के सबसे योग्य उत्तराध्ािकारी रहे हैं। मध्यकाल और भक्ति साहित्य पर उन्होंने दो महत्वपूर्ण निबन्ध्ा लिखे हैं। इसमें से पहला विद्यापति और उनकी कीर्तिलता पर है, जिसमें शास्त्रीजी ने विद्यापति को एक व्यक्ति, सभासद और कवि के रूप में देखते हुए, उनके सारे पद और कीर्तिलता को एक समाजेतिहासिक दस्तावेज़ और मानवीय भावों से पूर्ण कृति बताया है। विद्यापति बांग्ला और मैथिली, दोनों भाषाओं के प्रमुख कवि हैं। शास्त्रीजी ने उनके कीर्तिलता का सम्पादन करते हुए साहित्य की ऐतिहासिकता को इतिहास के साहित्यिक रूप के साथ जोड़कर देखा है। अपने दूसरे लेख में उन्होंने भक्ति आन्दोलन और मध्यकालीन साहित्य पर महाजनी, बौद्ध ध्ार्म और दर्शन के प्रभाव को रेखांकित किया है।
सतीशचन्द्र दासगुप्ता और शंकरनाथ राय उम्र में हरप्रसाद शास्त्री से काफ़ी छोटे थे। लेकिन बंकिम परम्परा को अपनाते हुए उन्होंने भी हिन्दी सगुण भक्ति साहित्य के सौन्दर्य, नैतिकता और सामाजिक परिप्रेक्ष्य का विश्लेषण तुलसीदास और मीराबाई के सन्दर्भ में किया है। रबीन्द्रनाथ और क्षितिमोहन सेन मध्यकालीन निर्गुण भक्ति काव्य के सामाजिक-क्रान्तिकारी दृष्टि के प्रति ज़्यादा आकृष्ट थे जबकि बंकिम की परम्परा इनसे कुछ हटकर थी। सतीशचन्द्र दासगुप्ता ‘रामचरितमानस’ के सबसे अच्छे बांग्ला अनुवादक के रूप में ख्यात हैं। अपने अनुवाद की लम्बी भूमिका में उन्होंने न सिर्फ़ तुलसीदास के चरित्र निर्माण कला की बात की है, बल्कि इस महाकाव्य के दर्शन, नैतिक मूल्य, आदर्श और यथार्थ का अनोखा मेल आदि पर विस्तार से लिखा है। इसके साथ-साथ उन्होंने इसमें यह भी स्पष्ट किया है कि क्यों बांग्ला भाषा में ऐसा काव्य नहीं है। शंकरनाथ राय ने पाँच खण्डों में ‘भारतेर साध्ाक’ और दो खण्डों में ‘भारतेर साध्ािका’ लिखते हुए बांग्ला भाषी समाज में भारतीय मध्यकालीन सन्तों की स्मृति को जागृत रखने की कोशिश की है।
इसी परम्परा में दिलीप कुमार राय को भी हम रख सकते हैं जिन्होंने आध्ाुनिक भारत में मीरा के भजनों को गाने की कला को संजोने का अद्भुत प्रयास किया है। वे एक रहस्यवादी लेखक और दार्शनिक थे। ऐसा माना जाता है कि वे अपनी शिष्या इंदिरा देवी के माध्यम से मीरा के कंठ-स्वर को सुनने में सक्षम थे। इसी से प्रभावित होकर उन्होंने मीरा के आध्यात्मिक जीवन पर एक अनोखे नाटक की रचना की है, हिन्दी सिनेमा के माध्यम से उनके भजनों को लोगों के सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया और एम.एस. सुबुलक्ष्मी जैसी शिष्या एवं संगीतशास्त्र के निबन्ध्ाों के माध्यम से मीरा की कविता और जीवन को विवेचित-विश्लेषित किया है।
टैगोर सर्किलः
ये माना जाता है कि टैगोर की मानवीयता की अवध्ाारणा 1930 में उनके द्वारा आॅक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में दिए गए ‘हिबर्ट लेक्चर’ के माध्यम से सामने आती है। कुछ लोगों का मानना है कि इस व्याख्यान से बहुत पहले उनके कबीर के अनुवाद से उनकी मानवीयता की अवध्ाारणा लोगों के सामने आती है। जो भी हो, कबीर के अनुवाद और ‘हिबर्ट लेक्चर’, दोनों क्षितिमोहन सेन के हिन्दी मध्यकाल और भक्ति साहित्य के शोध्ा पर आध्ाारित है। इसे स्वयं रबीन्द्रनाथ ने भी स्वीकार किया है। लेकिन इससे भी ज़्यादा मज़े की बात ये है कि 1912 ई. में जब रबीन्द्रनाथ की ‘गीतांजलि’ का अंग्रेज़ी अनुवाद डब्ल्यू.बी. येट्स लन्दन में पढ़ रहे थे, उसके ठीक दो दिन पहले शान्ति निकेतन के अध्यापक सम्मेलन में क्षितिमोहन सेन जायसी और उनकी ‘पùावत’ पर अपना वक्तव्य रख रहे थे। इस वक्तव्य का आध्ाार उनके गुरू सुध्ााकर द्विवेदी और प्रोफ़ेसर ग्रियर्सन द्वारा सम्पादित जायसी का ‘पùावत’ था। क्षितिमोहन सेन ने उस वक्तव्य में जायसी को कबीर की मानवीय परम्परा का कवि बताते हुए, उन्हें गुरू रूप में स्वीकार किया है। इतना ही नहीं, वे उनकी प्रतिभा की तुलना एकमात्र तुलसी से करना उचित मानते हैं। उन्होंने माना है कि एक मुसलमान कवि होने के नाते जायसी ने राम और कृष्ण को अपनी कविता के विषय के रूप में भले ही न चुना हो, लेकिन चिश्तिया-निज़ामिया-सूफ़ी घराने के पीर होने के कारण योगशास्त्र के सारे रहस्यों की जानकारी उन्हें थी।
रबीन्द्रनाथ ने दादू पर क्षितिमोहन सेन की पुस्तक की भूमिका लिखी है। इस भूमिका में मूलतः ‘दादू’ और ‘कबीर’ की सामाजिक क्रान्ति की दृष्टि को उन्होंने आध्ाुनिक भारत में राजा राम मोहन राॅय की ब्रह्मसभा की प्रगतिवादी दृष्टि से जोड़ा है। मध्यकाल के भक्तिकालीन कवियों के पदों में रबीन्द्रनाथ हमेशा एक खास किस्म की मानवीय आध्ाुनिकता ढूढ़ते रहे और अपनी इस भूमिका में उन्होंने हिन्दी मध्यकालीन कवियों के ऋण को साफ़ शब्दों में स्वीकार किया है। न तो क्षितिमोहन ब्रह्मसमाजी थे और न ही तुलसीदास और सगुण भक्ति परम्परा के प्रति उनके मन में कोई असन्तोष था। हालाँकि, युवा हजारीप्रसाद द्विवेदीजी को उन्होंने अपने साथी के रूप में पाया ज़रूर था, लेकिन अपनी ‘दादू’ पुस्तक में तुलसीदास की कद-काठी को मापने के लिए उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी की नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तुलसी गं्रथावली की भूमिका का सहारा लिया है। हिन्दी के विद्वान अब तक द्विवेदीजी और क्षितिमोहन सेन जी के सम्बन्ध्ाों को लेकर एक नयी चर्चा शुरू की जाय।
रबीन्द्र समूह के विद्वानों में उनके भतीजे और मशहूर चित्रकार अवनीन्द्रनाथ टैगोर प्रमुख हैं। हिन्दी भाषा के बाहर हिन्दी साहित्य पर जो चर्चाएँ हुई हैं, उसके परिणाम कितने बहुमूल्य हो सकते हैं, ये उनकी ‘बागीश्वरी’ शिल्प निबन्ध्ाावली के माध्यम से जाना जा सकता है। जब तक उन निबन्ध्ाों से कबीर की आलोचना हिन्दी में अनुदित नहीं हो जाती, हिन्दी साहित्य के विद्वानों के लिए यह जानना असम्भव होगा कि कैसे मध्यकाल और भक्ति साहित्य के बिना आध्ाुनिक भारतीय चित्रकला और ‘भारत कला’ की अवध्ाारणा असम्भव थी। अवनीन्द्रनाथ टैगोर के बंगाल स्कूल आॅफ़ पेंटिंग का मुख्य आदर्श कबीर के पदों से ही संगृहीत है। गौरतलब है कि क्षितिमोहन सेन की दृष्टि से अवनीन्द्रनाथ की दृष्टि बिलकुल अलग है, जबकि दोनों रबीन्द्र समूह के विद्वान हैं। दोनों को एक साथ पढ़ने पर ये समझ में आता है कि किस तरह से बांग्ला में अलग-अलग विध्ााओं की दृष्टि से हिन्दी में मध्यकालीन साहित्य की आलोचना की गयी है। इन्हें पढ़ने पर ऐसा महसूस होता है कि हिन्दी भाषा ने भी इतने विविध्ा दृष्टिकोणों से मध्यकाल और भक्ति साहित्य पर बात नहीं की है, जितने दृष्टिकोणों से बांग्ला में इन पर विचार किया गया है।
उपर्युक्त विश्लेषण के आध्ाार पर हम कहना चाहते हैं कि हिन्दी के भक्ति साहित्य पर जो विचार बांग्ला में हुआ है, उसकी सम्पूर्ण जानकारी अभी तक हिन्दी में उपलब्ध्ा नहीं है। हम जितना जानते हैं, उससे बहुत अध्ािक अभी भी जानना बाक़ी है। जब हम इसे मुक़म्मल रूप में जानेंगे तो हिन्दी और बांग्ला के अन्तरंग रिश्तों को ठीक से समझ पाएँगे। अतः इसे एक बार फिर से देखने और समझने की ज़रूरत है।
सन्दर्भः
1. हिन्दी साहित्य के भक्ति काल पर रबीन्द्रनाथ टैगोर का लेख।
2. जयदेव और विद्यापति पर बंकिमचन्द्र चटोपाध्याय और हरप्रसाद शास्त्री का लेख।
3. तुलसीदास पर सतीशचन्द्र दासगुप्ता और क्षितिमोहन सेन का लेख।
4. कबीर पर अवनीन्द्रनाथ टैगोर का लेख।
5. मीरा पर दिलीप कुमार राय और शंकर प्रसाद राय का लेख।
6. जायसी पर क्षितिमोहन सेन और सुकुमार सेन का लेख।