08-Jun-2019 12:00 AM
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भाषा की व्याख्या करने का अर्थ उसे समझना होता है,
संगीत की व्याख्या करने का अर्थ संगीत बनाना होता है।
थियोडोर एदूर्नो
मैं निर्मल वर्मा पर कुछ कहने से पहले महाभारत के लिखे जाने की कहानी और उसकी अपनी व्याख्या सुनाता हूँ।
निर्मल जी पर कुछ भी कह या लिख पाना मुश्किल है। उन्होंने ऐसा कुछ नहीं लिखा, जिस पर कुछ लिखने के लिए आपको दूर तक विचार न करना पड़े। मैं हमेशा से उनकी कहानियों का दीवाना रहा हूँ, मैंने उनकी कहानियाँ लगभग बचपन में अलग-अलग जगहों पर और विभिन्न पत्रिकाओं में पढ़ी थीं। पर यह संयोग ही है कि मैंने उनकी पहली पुस्तक ‘कला का जोखिम’ पढ़ी। उन दिनों मैं माक्र्सवाद के प्रभाव में था और इसलिए एक तरह के अन्ध्ोपन का शिकार था। ‘कला का जोखिम’ पढ़ते समय मैंने उसके हाशियों पर जगह-जगह कुछ-कुछ लिख दिया था। किसी गोष्ठी के सिलसिले में निर्मल जी भोपाल आये। वे उसी कमरे में रुके जिसमें मैं रहता था। उन्होंने अपनी किताब के हाशियों पर लिखी मेरी टिप्पणियाँ पढ़ ली पर उन्होंने मुझसे उस विषय में कभी कुछ नहीं कहा। मेरी उनसे माक्र्सवाद पर बहसें हुआ करती थीं। उन्होंने मुझे कभी नहीं कहा कि मुझे उससे दूर हो जाना चाहिए। उनकी उदारता असीम थीं। बहरहाल मैं कहानी पर लौटता हूँ। यह कहानी महाभारत के लिखे जाने के बारे में किंवदन्ति ही है या यह शायद लोक में प्रचलित कि़स्सा। जब यह तय हो गया कि महाभारत वेदव्यास ही लिखने वाले हैं, यह प्रश्न उठा कि उनके बोले हुए को कौन लिपिबद्ध करेगा, या कह लीजिये कि उनका स्टेनोग्राफ़र कौन होगा। सभी देवी-देवताओं ने भगवान् गणेश का नाम सामने रखा। वेदव्यास की उनसे भेंट हुई। गणेश ने वेदव्यास से कहा कि मैं आपकी बोली हुई महाभारत लिखने को सहर्ष तैयार हूँ पर मेरी एक शर्त है। वेदव्यास के यह कहने पर कि वह क्या शर्त है, वे बोले, ‘आप महाभारत लिखाते समय कहीं भी रुकेंगे नहीं, आपको वह अनवरत बोलना होगा।’ वेदव्यास ने उस शर्त को स्वीकार करते हुए कहा, ‘भगवन्! मेरी भी एक शर्त है। मैं महाभारत बोलते समय बिलकुल नहीं ठहरूँगा पर आप भी मेरे बोले हुए एक भी वाक्यांश को बिना समझे नहीं लिखेंगे।’
इस संवाद की कई व्याख्याएँ हुई हैं और मैं समझता हूँ कि यह अच्छा है कि इसकी कई व्याख्याएँ हुई हैं। इनमें सबसे प्रमुख व्याख्या, जो मेरी अपनी व्याख्या का पूर्वपक्ष भी है, यह हैः वेदव्यास को लगातार महाभारत बोलते समय आगे के भाग की कल्पना करने में कई बार कुछ समय की ज़रूरत पड़ती थी पर वे गणेश की शर्त के अनुसार रुक नहीं सकते थे इसीलिए वे बीच में कोई ऐसा श्लोक बोल देते जो इतना कठिन होता जिसे समझने में भगवान् गणेश को कुछ समय लग जाता। यह समय वेदव्यास अपनी कल्पना को विस्तार देने में लगाकर महाभारत के अगले चरण के विषय में विचार कर लेते। यह व्याख्या दिलचस्प होते हुए भी गहरी नहीं है। मुझे यह सतही-सी जान पड़ती है।
मैं अपनी व्याख्या रखता हूँ। गणेश वेदव्यास से अनवरत बोलने का आग्रह करके यह संकेत कर रहे हैं कि आप अपनी बुद्धि को इतना अवकाश मत देना कि वह आपकी प्रतिभा को अनुकुलित कर सके, उसे अपने वश में कर सके। प्रतिभा का एक स्थायी लक्षण यह माना जाता है कि वह नवनवोन्मेषशालिनी होती है। प्रतिभा का यह लक्षण है कि वह हर समय कुछ नया करती है। बुद्धि का स्वरूप इससे अलग होता है। बुद्धि जानी हुई (ज्ञात) अवध्ाारणाओं या विचारों से बनती है। उसमें पहले से ज्ञात विचारों का घर होता है। पर साथ ही उसका यह स्वभाव है कि जब भी उसका सामना किसी नये विचार से होता है, वह तुरन्त उस नये विचार को अपने भीतर पहले से उपस्थित किसी ज्ञात अवध्ाारणा में ढालने का प्रयास करती है। पर वह जैसे ही किसी नये विचार को ज्ञात विचार में ढाल लेती है या अनुकूलित करती है, नये विचार का नयापन खत्म हो जाता है। गणेश वेदव्यास से यह कह रहे हैं कि तुम अपनी बुद्धि को इतना समय मत दो कि वह तुम्हारी प्रतिभा से जन्मे नये विचार या नयी दृष्टि को अनुकूलित कर उसे नष्ट कर सके। ज़ाहिर है यह दृष्टान्त भर है, इसका आशय समझने की जगह इसे यथार्थ मानकर सुध्ाि पाठक इसका ‘समय-मान’ (मेज़र आॅफ टाईम) जानने का प्रयास नहीं करेंगे। अब देखें कि वेदव्यास गणेश से क्या कह रहे हैं। वे कह रहे हैं कि आप किसी भी नये विचार या दृष्टि को बिना उसकी परम्परा जाने बगै़र मत लिखिएगा। किसी विचार को समझने का क्या अर्थ होता है ? मैं सोचता हूँ कि समझने का अर्थ उस विचार के भीतर बहती अर्थ परम्परा से सम्बन्ध्ा बनाने को ही समझना कहा जाता है। इसीलिए वेदव्यास का गणेश से यह आग्रह है कि आप मेरी प्रतिभा से उत्पन्न नयी दृष्टि की परम्परा को जाने बगैर मेरे कहे हुए को मत लिखना।
यह सृजन मात्र और विशेषकर निर्मल वर्मा के सृजन को समझने का बहुत सुन्दर रूपक है। निर्मल जी की प्रतिभा विशुद्ध प्रतिभा है, परम्परा से अपनी तरह का सम्बन्ध्ा बनाती विशुद्ध प्रतिभा। हिन्दी में ऐसे गद्यकार बहुत हैं जिनमें लिखने का ऊँचे दर्जे का कौशल है, कई में वह शायद निर्मल जी से भी ऊँचा होगा। लेकिन निर्मल जी की गद्य-लेखन प्रतिभा न सिर्फ़ बहुत ऊँची है, वह अत्यन्त ओजस्वी है। निर्मल वर्मा कहानी लिखते समय हमारी पिछली कहानी की व्याख्या के मुख्यतः वेदव्यास हैं पर जब वे अपने निबन्ध्ाों में आते हैं, वे मुख्यतः गणेश हो जाते हैं। आप उनके निबन्ध्ाों में उनकी अपनी कहानियों और उपन्यासों की परम्परा-निष्ठता तो देख ही सकते हैं बल्कि वे आध्ाुनिक भारतीय कथा लेखन मात्र की परम्परा को भी आलोकित कर देते हैं। उनकी कहानियाँ@उपन्यास और उनके निबन्ध्ा एक-दूसरे से बहुत गहरे तक जुड़े हैं। उनके कहानियों@उपन्यासों में मुख्यतः विशुद्ध प्रतिभा का विस्फोट होता है और जब वे अपने निबन्ध्ाों में आते हैं, वे उन कहानियों आदि में अनुस्यूत परम्परा को खोजने का सच्चा प्रयास करते हैं। यह प्रयास किसी भी तरह उन कहानियों आदि का वैध्ाीकरण नहीं होता, बल्कि उसमें सच्ची खोज का अहसास होता है। कहानी@उपन्यास और निबन्ध्ाों का यह संयोग और पूरकता हिन्दी के किसी भी दूसरे लेखक में ढूँढने पर भी नहीं मिलेगी। चलते-चलते मैं यह बात कह दूँ कि जब भी आप निर्मल जी को हिन्दी का महान गद्यकार कहते हैं, तुरन्त कोई न कोई उछलकर फणिश्वरनाथ रेणु का नाम ले लेता है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रेणु मैथिली और हिन्दी के बड़े गद्यकार है और साथ ही उनका मार्ग निर्मल जी से बिल्कुल अलग रहा है। उनकी अपनी अलग जगह है, उन्हें निर्मल जी के बरअक्स रखना, इन दोनों ही महान लेखकों और हिन्दी की गद्य-परम्परा के साथ अन्याय से कुछ कम नहीं है। खड़ी बोली के बड़े उपन्यासकारों में हम प्रेमचन्द और जैनेन्द्र जी का नाम ले सकते हैं। प्रेमचन्द जी ने हिन्दी को आदर्श मूलक यथार्थवाद का योगदान दिया था। पर स्वयं खड़ी बोली के स्वरूप में वे कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं लाये। निर्मल वर्मा ने खड़ी बोली में अन्तर्निहित विभिन्न हिन्दी की बोलियों की ऐन्द्रिकता को जागृत कर दिया। निर्मल जी से अध्ािक ऐन्द्रिक हिन्दी किसी और गद्यकार ने नहीं लिखी। यह काम अमुमन कवियों का हुआ करता है। लेकिन खड़ी बोली में उसी स्तर का काम निर्मल वर्मा ने भी किया है।
उनके उपन्यासों और कहानियों की व्याख्याएँ कई आलोचकों ने की है। मैं बिना संकोच यह कह सकता हूँ कि उन सबमें श्रेष्ठ काम मदन सोनी ने किया है। मदन ने निर्मल जी के सभी तरह के गद्य पर ‘कथा पुरुष’ नामक अद्वितीय किताब लिखी है। उस किताब को अगर आप ध्यान से पढ़ेंगे, आप पायेंगे कि वह निर्मल जी की कहानियों या उपन्यासों की व्याख्या से कहीं अध्ािक उनकी कहानियों और उपन्यासों की परिक्रमा है जिससे निर्मल जी की कहानियाँ आदि पढ़ने के मार्ग खुलते हैं। यह ठीक भी है क्योंकि निर्मल जी की कहानियों आदि की व्याख्या और विश्लेषण सम्भव नहीं है। (हालाँकि मदन सोनी ने जिस हद तक हो सकता था, उनका विश्लेषण करने का प्रयास अवश्य किया है। पर एक बेहतर आलोचक की तरह उन्हें यह अहसास है कि इन कृतियों को पूरी तरह व्याख्या या विश्लेषण में अन्तरित कर पाना हथेली पर सरसों उगाने जैसा है।) उनके किसी भी अन्य सर्जनात्मक गद्य के साथ भी यही है। इससे पहले कि इस शब्द के मज़हबी आशय लिये जा सकें, मुझे परिक्रमा शब्द की अपनी व्याख्या देना चाहिए। मेरा ख़्याल है कि मन्दिर में गर्भगृह की परिक्रमा इसलिए की जाती है क्योंकि गर्भगृह के भीतर जो भी प्रतिष्ठित है, उसे व्याख्योचित नहीं माना जा सकता, यहाँ तक कि उसको किसी प्रार्थना में भी बाँध्ा पाना सम्भव नहीं हो पाता। वहाँ कुछ ऐसी उपस्थिति (या अनुपस्थिति) के होने की कल्पना की जाती है, जो शब्द की सीमा से बाहर चला गया होता है। हम केवल इतना कर पाते हैं कि उस रहस्य के परिवेश में कुछ देर ठहर सकें, परिक्रमा इसी ठहराव को मुमकिन कर देती है। मैं अभी भी जो कुछ कहने वाला हूँ, वह भी निर्मल जी की कृतियों की परिक्रमा ही है।
उनकी एक कहानी है, ‘किसी अलग रोशनी में’। उसे मैंने अभी हाल शायद दसवीं बार पढ़ा। उसे पढ़ते ही मुझे अर्जेण्टाइना के कवि राॅबर्तो हुआरोज़ की एक पंक्ति याद आयी, ‘मृत्यु एक अलग तरह का देखना है’। यह कहानी मानो इसी पंक्ति को एक बिल्कुल दूसरी तरह से समझने का झरोखा खोल देती है। निर्मल जी की इस कहानी में लन्दन शहर के भीतर एक बार है। कहानी में उसकी ठीक जगह नहीं बतायी गयी है (उसका इस कहानी के संगीत में कोई स्थान भी नहीं है।) उस बार में एक चित्रकार नियम से आती है, एक जिप्सी संगीतकार वहाँ आकर बैठता है। बार की ऊँची मेज़ के पीछे बारटेण्डर बैठा रहता है, उसका नाम कोस्ता है। कुछ खिलाड़ी भी वहाँ बैठे रहते हैं। ये सब लोग वहाँ बैठे हुए आपस में अध्ािकतर चुप बने रहते हैं। कुछ रुककर एक बुजुर्ग जोड़ा बार से भीतर आता है। उनको यह पहली बार पता चला है कि उनमें से एक की बीमारी ऐसी जगह पहुँच गयी है जहाँ अस्पताल और चिकित्सक कुछ नहीं कर सकते। उसके पास केवल कुछ दिन बाकी है। फिर पूरे बार में उन बुजुर्गों का अपनी मौत का सहज स्वीकार ध्ाीरे-ध्ाीरे फैलने लगता है।
ये इस कहानी में इस्तेमाल किये गये शब्दों में बिंध्ाा कि़स्सा है। पर ये कहानी दरअसल शब्दों में घट ही नहीं रही। मैं यह कहने की कोशिश कर रहा हूँ कि निर्मल जी की कहानी में ये शब्द एक ऐसी सतह है, जहाँ से वे उड़ान भरते हैं। निर्मल वर्मा शब्दों में कहानी नहीं लिखते। वे शब्द में अवस्थित होकर शब्दातीत में कहानी लिखते हैं। दरअसल उनकी कहानी अपने आप में संगीत है। पर यह वह संगीत नहीं है, जिसे मदन सोनी ने भारतीय मार्गी संगीत के राग में अन्तरित करने का प्रयास किया है। न मैं उस संगीत-के से प्रभाव का जि़क्र कर रहा हूँ जिसके विषय में नामवर सिंह ने निर्मल जी की कहानियों पर लिखते हुए लिखा था। निर्मल जी की कहानियों आदि में चरित्रों के बीच-बीच के रिश्ते के बारीक तारों से संगीत फूटता है। यह संयोग नहीं कि उनकी कहानियों@उपन्यासों के कथ्य नहीं, उनमें अन्तर्भूत ध्ाुन उन्हें पढ़ने के बाद मन में तैरती रह जाती है, जो उन्हें बार-बार पढ़ने से स्पष्ट होने की जगह घनी होती जाती है।
यह कोई अलग ही संगीत है।
अगर कभी खड़ी बोली का अपना कोई मार्गी संगीत पैदा हुआ तो निर्मल वर्मा की कहानियों का यह संगीत उसकी आध्ाारशिला रखेगा। आपको पता ही होगा कि खड़ी बोली का अब तक कोई मार्गी संगीत नहीं है। जैसे ब्रज भाषा का संगीत ध्ा्रुपद में अपना मार्गी रूप खोज सका, कुछ और बोलियों ने ख़याल संगीत में अपना मार्गी रूप खोजा पर खड़ी बोली अब तक अकेली ही खड़ी है। उसके अपने संगीत के उत्पन्न होने के लिए एक महान संगीतकार का होना अनिवार्य है। इन दिनों जो हिन्दी की रचनाएँ मार्गी संगीत में गायी जाती हैं, वे इसलिए विडम्बनापूर्ण हैं क्योंकि वहाँ खड़ी बोली पर एक ऐसा संगीत आरोपित कर दिया जाता है, जिसका सम्बन्ध्ा इस भाषा के अपने उच्चारण स्वरूप से नहीं है। वहाँ कुछ वैसा ही होता है जैसा कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ में होता है। शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के घर कमीज़ सिलवा ली जाती है और फिर उसकी नाप का नौकर ढँूढ़ा जाता है।
जो भी महान संगीतकार आगे चलकर अगर कभी खड़ी बोली के अपने मार्गी संगीत का आविष्कार करेगा, उसे निर्मल वर्मा की कहानियों को ध्यान से पढ़ना होगा। यह इसलिए क्योंकि इन कहानियों में उस संगीत की सम्भावना सोयी हुई है। उन कहानियों (और उपन्यासों) में यह सोया हुआ संगीत है इसीलिए जितने भी बेहतर या कम बेहतर आलोचकों ने उन पर लिखने का प्रयास किया है, उन्हें उस संगीत का एहसास हुआ है। पर यह आप जानते ही हैं कि संगीत की अध्ािकांश आलोचनाएँ विशेषणों से आगे नहीं बढ़ पातीं (इसका लाभ कमज़ोर संगीतकार बहुत लिया करते हैं)। संगीत का विश्लेषण हो ही नहीं सकता। संगीत की यह विषेशता है कि उसके सुनने से आपके भीतर सहज ही दार्शनिक प्रश्न उठते हैं। शायद इसीलिए जर्मन दार्शनिक और आलोचक एदूर्नो ने संगीत को सबसे अध्ािक दार्शनिक कलारूप माना थाः वह आपके भीतर आस्तित्विक प्रश्न उत्पन्न करता है। मैं इसी से जुड़ी हुई एक और बात कहना चाहता हूँ कि कई वेद-शास्त्रियों का यह मत है कि वे ‘अर्थ’ उतने नहीं है जितने की वे ‘शब्द’ हैंः उन्हें शब्द केन्द्रित रचनाएँ कहा जाता है (जैसे समाजशास्त्र अर्थकेन्द्रित है, और साहित्य में शब्द और अर्थ दोनों की ही भूमिका बराबर है, उसे उभय-केन्द्रित कहा जाता है।) हम इससे एक कदम आगे जा सकते हैं। वेद स्वरलिपियाँ हैं। हमें आज यह पता नहीं है कि क़रीब एक हज़ार वर्ष पहले हमारे मार्गीय संगीत का क्या स्वरूप था ? वह कैसा सुनायी देता था। बहुत से समकालीन संगीतकार अपने संगीत को प्राचीनतम संगीत कहा करते हैं। वे कहते हैंः हमारा संगीत दो हज़ार साल पुराना है। यह बिल्कुल आध्ाारहीन झूठ बात है। सच्ची बात यह है कि राग संगीत के पहले के जाति गायन और उसके पहले के गान्ध्ार्व संगीत और वेद-गान या साम-गान आदि का क्या स्वरूप रहा है, हमें अब तक पता नहीं है। मेरे एक गुरू भाई, मेरे गुरू मणि कौल के शिष्य रणधन रामनाथ ने हमारे गुरू से ध्ा्रुपद संगीत सीखा था। उन्हीं की प्रेरणा से रणधन पिछले कुछ वर्षों से इस तथ्य को ढूँढ रहे हैं कि हमारे सचमुच के प्राचीन संगीत रूपाकार कैसे थे। मैं इस दिशा में जैसे-जैसे सोचता हूँ, मेरे मन में यह बात घर करती जाती है कि हमारी सभ्यता का आध्ाार स्वरलिपियाँ हैं, इसका यह अर्थ है कि इस सभ्यता के अनेक आध्ाारों में एक संगीत है। चूँकि वैशेषिक दर्शन के अनुसार हर मनुष्य स्वयं वेद स्वरूप (यानि ज्ञान स्वरूप) है इसीलिए हम यह आसानी से कह सकते हैं कि वेद में अन्तर्निहित संगीत हमारे अपने वेद स्वरूप को जगाने के लिए है, वह एक निर्देशात्मक ग्रन्थ नहीं हैं।
अब अगर हम वेद के स्वरलिपि होने के इस तथ्य में निर्मल वर्मा के लेखन को जोड़कर देखें, हम यह कह पायेंगे कि उनकी कहानियाँ हमारी सभ्यता से गहरे संवाद में संलग्न हैं। पर उनकी कहानियों के संगीत होने की प्रक्रिया वेदों से थोड़ी-सी भिन्न है। उनकी कहानियों में शब्द अर्थों में अन्तरित होते ही लगभग तुरन्त संगीत में रूपान्तरित हो जाते हैं। जबकि वेदों का मार्ग अलग है। वहाँ शब्द अर्थों के मुड़ने के स्थान पर संगीत होने की ओर ही जाते हैं। उनकी कुछ कहानियों में उनके गद्य का स्वरलिपि हो पाना नहीं भी हो पाता, लेकिन जहाँ यह हो पाता है, उनमें से एक कहानी ‘किसी अलग रोशनी में’ की मैं कुछ इस दृष्टि से व्याख्या या कहिये परिक्रमा करने की कोशिश कर रहा हूँ। मुझे यह लगता है कि यह हिन्दी की तीन महान कहानियों में एक है। पहली चन्द्रध्ार शर्मा ‘गुलेरी’ की ‘उसने कहा था’, दूसरी महाकवि निराला की ‘भक्त और भगवान’ और तीसरी निर्मल जी की यही कहानी। मैं पिछले एक हफ़्ते में उसे तक़रीबन दस बार पढ़ चुका हूँ, उसके अर्थ भी किसी हद तक मुझे दूसरे तीसरे पाठ में समझ में आ रहे थे पर तब भी मुझे उसे संगीत के किसी टुकड़े की तरह बार-बार पढ़ने की इच्छा हो रही थी।
निर्मल जी पश्चिम के ज्ञान, वहाँ के संगीत, सिनेमा आदि को बहुत गहरायी से जानने वाले भारतीय लेखक थे। बल्कि कई बार मुझे यह भी महसूस होता है कि उनकी आत्मछवि भी किसी हद तक यूरोपीय लेखक जैसी ही थी। एक समय तक। लेकिन उनका संवेदनतन्त्र, उनका शब्द-मान या भाषा का बर्ताव इस गहरे स्तर तक इस सभ्यता के अपने आध्ाारों से प्रतिश्रुत था कि वे गद्य में स्वरलिपियों की रचना करते रहे, एक अलग ही संगीत को रूप देते रहे, और इस तरह अपने पाठकों के मन में अपनी कहानियों के रास्ते एक ऐसे संगीत की रचना कर सके, जो शायद आगे चलकर किसी मार्गी संगीत का, खड़ी बोली के मार्गी संगीत का रूप ले सकेगा। उनके इसी भाषिक व्यवहार के कारण वे हमारी व्यापक परम्परा से जुड़ सके और अपनी कहानियों में पश्चिमी सभ्यता बोध्ा को अनायास ही प्रश्नांकित करने में समर्थ हो सके।
आपने शायद जाॅर्ज सोराॅस का नाम सुना होगा। ये अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार के बहुत महत्वपूर्ण व्यक्तित्व है। उनके अनेक व्याख्यान इंटरनेट पर उपलब्ध्ा हैं। उन्हें दुनिया के बाज़ार में बदलाव ला सकने वाले बहुत प्रभावशाली व्यक्ति का दर्जा प्राप्त रहा है। उनकी ताक़त का आप इस बात से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि एक बार उन्होंने इंग्लैण्ड की मुद्रा, पाउण्ड की कीमत में बहुत अध्ािक गिरावट ला दी थी, मलेशिया की मुद्रा को लगभग खोखला कर दिया था। वे आजकल सेवानिवृत्त होकर पूँजीवाद और उसकी विडम्बनाओं पर किताबें लिखते हैं और व्याख्यान दिया करते हैं। ऐसा मैंने बहुत से लोगों के साथ देखा है, विशेषकर ऊँचे पदों से सेवानिवृत्त होने वाले व्यक्तियों में यह आमतौर पर होता है कि वे सेवा में रहते हुए कभी किसी कला या दर्शन सम्बन्ध्ाी व्याख्यान में दिखायी भले न दिये हों पर सेवानिवृत्त होते ही वे हर कला प्रदर्शनी, संगीत-नृत्य की महफि़ल में दिखायी देने शुरू हो जाते हैं। वे आपसे मिलकर ज़रूर बताते हैं कि वे इन दिनों चित्र बना रहे हैं और ज़ाहिर है चूँकि उन्हें चित्रकला की परम्परा की कोई ख़बर नहीं होती इसलिए वे कुछ ऐसी चित्रकला कर रहे होते हैं जो स्वयं चित्रकला की परम्परा के लिए अर्थहीन होती हैं। बहरहाल जाॅर्ज सोराॅस इस तरह के व्यक्ति नहीं हैं वे अपने जाने पहचाने बाज़ार की गतिविध्ाियों पर ही कि़ताबें लिखते हैं। उन्होंने अपनी कि़ताब, ‘खुले समाज के संकट’ में एक प्रत्यय का उपयोग किया है, बाज़ार फण्डामेंटलिज़्म। इस शब्द को समझाते हुए उन्होंने यह कहा है कि इसका आध्ाार स्वयं बाज़ार के भीतर के आपसी रिश्तों का स्वरूप है। सोराॅस के अनुसार ये रिश्ते अब विनियमयात्मक हो गये हैं। वे कहते हैं कि अगर शेयर बाज़ार में आपसी रिश्ते पूरी तरह विनिमयात्मक हो जाते हैं तो बाज़ार का चलना असम्भव हो जाएगा। आप कल्पना कीजिए कि वे शेयर बाज़ार की बात कर रहे हैं जिसे आमतौर पर हम बहुत सम्मान से नहीं देखते। जब वह विनिमयात्मक रिश्तों के सहारे नहीं चल सकता तो परिवार, मित्रों और व्यापक समाज में इस तरह के रिश्तों के लोकप्रिय हो जाने से क्या होगा इसका हम शायद अनुमान भी नहीं कर सकते।
निर्मल वर्मा की कहानियों में सम्बन्ध्ाों का जिस बारीक़ी से विवरण होता है, जिस बारीक़ी में वे जाते हैं, उससे विनिमयात्मक सम्बन्ध्ाों और बाज़ार फण्डामेंटलिज़्म का जितना बड़ा प्रतिरोध्ा होता है, उतना बाज़ार के विरुद्ध नारा लगाने से बिल्कुल भी नहीं होता। बल्कि नारे लगाने का कोई स्थायी असर वैसे भी नहीं होता। बल्कि इससे ठीक उलट जब ऐसी नारेबाज़ी के रास्ते बदलाव (या कह लें क्रान्ति) हो जाते हैं, नये शासकों में मानवीय सम्बन्ध्ाों की सूक्ष्मता की कोई चेतना या सजगता नहीं रह जाती इसलिए वे खुद भी वही बन बैठते हैं जो उनके पहले के शासक थे। शायद इसीलिए यह कहने का चलन है कि हर क्रान्ति अपनी सन्तानों को खुद खा जाती है।
यहाँ यह याद रखना आवश्यक है कि जब सोवियत यूनियन तानाशाही की पराकाष्ठा तक पहुँच गया था, वे लोग जो सबसे अध्ािक मुश्किल में थे वे राजनैतिक कविताएँ नहीं लिखते थे। वे सारे कवि मानवीय सम्बन्ध्ाों की सूक्ष्मताओं को आलोकित करते थे। वे चाहे अन्ना आख्मातोवा रही हों, मरीना त्स्वेतायेवा, पास्तरनाॅक रहे हों या मेडेंलस्ताम सभी ने अपने मुश्किल दिनों में मानवीय रिश्तों में निहित सौन्दर्य और देवत्व को प्रकाशित करने का प्रयास किया था। इससे बड़ा प्रतिरोध्ा जोसेफ़ स्तालीन के राज्य में हो ही नहीं सकता था क्योंकि उस राज्य में कुछ ऐसा किया गया था कि लगभग हर घर का एक सदस्य घर के ही किसी दूसरे सदस्य की सीक्रेट पुलिस से शिकायत करने में गर्व महसूस करता था। फिर भले ही इसका परिणाम उसे न पता हो। इस सब के कारण उन दिनों के सोवियत यूनियन में हर मानवीय सम्बन्ध्ा संदिग्ध्ा हो गया था। निर्मल वर्मा की कहानियों में भी उन्हीं लेखकों की तरह आज भारत में बढ़ते विनिमयात्मक सम्बन्ध्ाों और इस तरह मार्केट फण्डामेंटलिज़्म के व्यापक समाज में फैलने का सबसे कारगर प्रतिरोध्ा है, सबसे प्रभावी होने की भी उनमें सामथ्र्य है। इन कहानियों के चरित्रों के रिश्तों के स्पन्दनों की इतनी अध्ािक गहरायी से पड़ताल होती है कि उनमें ढँकी हुई अलौकिकता प्रकट हो जाती है और वे किसी और ही लोक के दिखायी देने लगते हैं। दसवीं शती के आनन्दवधर््ान ने इसे ही साहित्य का ध्ार्म कहा थाः वह लोक में अलौकिक को उद्घाटित करता है। निर्मल जी के साहित्य में यही रोज़मर्रा की अलौकिकता मानवीय रिश्तों के विनिमयात्मक संकुचन को प्रश्नांकित करती है बल्कि उन्हें उस कीचड़ से बाहर निकालने में जुट जाती है।
मैं ‘किसी अलग रोशनी में’ कहानी का एक छोटा-सा अंश पढ़कर सुनाता हूँ जिसमें आप उसके स्वरलिपि होने और उसमें वर्णित सम्बन्ध्ाों के सूक्ष्मतम होने को खुद अनुभव कर सकेंगे। इस कहानी में बारिश की अँध्ोरी रात में एक पब में कुछ चरित्रों के एकसाथ आ जाने और उनके बीच बने सामान्य पर दरअसल असामान्य रिश्तों पर उपज या बढ़त की गयी है। यह देखना दिलचस्प है कि यह सांगीतिक बढ़त कितनी सूक्ष्मता से उसी क्षण मानवीय रिश्तों की गहरायी को मानो एक चैंध्ा में प्रकाशित कर देती है। पब में उपस्थित लड़की वहाँ आये नवागन्तुक बुजुर्ग दम्पत्ति को देखकर सोचती है ‘...तो क्या वे पति-पत्नी हैं? देखकर एकदम विश्वास नहीं होता था, इसलिए नहीं कि आदमी उम्र में बहुत बुजुर्ग जान पड़ता था और महिला बहुत छोटी, लेकिन वे बाप और बेटी भी नहीं दिखायी देते थेः रिश्ते की जिस गाँठ को उम्र बाँध्ाती है, वहाँ सिर्फ़ दो ध्ाागे थे, दो प्रेमियों की तरह, एक-दूसरे से अलग, फिर भी एक-दूसरे को छूते हुए। आदमी ने औरत का हाथ अपनी गोद में ले लिया था, उसे ध्ाीरे-ध्ाीरे सहला रहा था, मानो उसे डर था कि हाथ छूटते ही वह भी कहीं दूर छिटक जाएगी, ध्ाागा टूट जाएगा और उसके ख़ाली हाथ में सिर्फ़ एक खोयी छुअन की ध्ाुकध्ाुकी-सी ध्ाड़कती रहेगी।...’ इस तरह के ध्ाड़कते हुए गद्य को पढ़ने से आनन्द और उससे जुड़े तमाम दूसरे अनुभव तो होते ही हैं, पाठक बेहतर मनुष्य हो जाते हैं। लेकिन ऐसा करके वे बहुत सारी बन्दिशों आदि का स्वतः ही प्रतिरोध्ा भी कर पा रहे होते हैं। मैं यह अक्सर सोचता हूँ कि अगर दमनकारी या लोक-व्यवहारों पर मनचाहे प्रतिबन्ध्ा लगाने वाले सरकारों या उनके प्रभूतावादी रवैये के सीध्ो-सीध्ो प्रतिरोध्ा करने की जगह अगर अत्यन्त संवेदनशील और गहन दृष्टि-सम्पन्न साहित्य और कलाएँ उस समाज में फले-फूले तो इस स्थूल प्रतिरोध्ा की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। ऐसी सारी सरकारें अपने आप डूब जाएँगी। यह अक्सर कहा जाता है कि ऐसे समाजों में जहाँ सरकारें या अन्य संस्थाएँ बहुत अध्ािक सेंसरशिप लागू करती रहती हैं वहाँ अमूमन बेहतर कलाओं और साहित्य की रचना होती है। यह शायद इसलिए होता होगा कि सूक्ष्म कलाएँ और साहित्य ऐसी स्थिति के सहज सर्जनात्मक प्रतिरोध्ा के परिणाम हैं। ऐसे समाज दुर्भाग्यपूर्ण होते हैं, जहाँ बन्दिशों के भीतर स्थूल प्रतिरोध्ाात्मक कलाएँ एवं साहित्य रचे जाते हैं। क्योंकि तब ये स्थूलताएँ शासन की विपरीत स्थूलताओं में वृद्धि ही करती हैं, उसे काटती नहीं।
अभी कुछ बाक़ी है
कुछ पाठकों ने मोट्ज़ार्ट के जीवन और संगीत पर बनी चेक फि़ल्मकार मिलोश फोरमेन की फि़ल्म ‘अमादिओ’ देखी होगी। उसमें एक दृश्य है जहाँ मोट्ज़ार्ट से ईष्र्या रखने वाला संगीतकार सिलिआरे मोट्ज़ार्ट की लिखी स्वरलिपि पढ़ रहा है। वह जैसे-जैसे उस स्वरलिपि को पढ़ता है, पाश्र्व में मोट्ज़ार्ट का संगीत सुनायी देने लगता है। वह बीच में ही पन्ना पलट देता है और पिछले पन्ने का संगीत पीछे छूट जाता है और नये पन्ने पर लिखा संगीत सुनायी देने लगता है। निर्मल जी की कहानियों को पढ़ने का अनुभव कुछ ऐसा ही होता है। आप उनकी कहानियाँ जैसे ही पढ़ना शुरू करते हैं आपके भीतर एक तरह का संगीत बजने लगता है जो आपने अब तक नहीं सुना था। आपने शायद ध्यान दिया हो कि उनके लिखने का ढंग भी कुछ ऐसा है जो उनकी इस स्वरलिपि रचना में सहायक होता है। उनकी कहानी ‘उत्तम पुरुष’ में चलते-चलते अचानक ‘अन्य पुरुष’ में चलने लगती है और यह बदलाव इतना सहज होता है कि उनका पाठक इसे पहचान भी नहीं पाता। इसी तरह उनकी कहानियाँ कब वर्तमान में चलते-चलते भूतकाल में चली गयी हैं और कब भविष्य में जा पहुँची हैं, पाठकों को अलग से पता नहीं चल पाता। ऐसा करना बहुत मुश्किल होता है। मैं खुद कहानीकार हूँ, मुझे पता कि यह बदलाव कितनी मुश्किल से होता है। पर निर्मल जी के लिए यह इसलिए आसान है क्योंकि वे किसी प्लाॅट को आलोकित करने यह नहीं करते। प्लाॅट उनकी कहानियों में कमज़ोर होते हैं। पर यह इसलिए है क्योंकि उनके लिए प्लाॅट महज स्वरलिपियाँ लिखने का आध्ाार भर हैं और साथ ही सारे ‘पुरुष-परिवर्तन’ और ‘काल-बदलाव’ (जिनका जि़क्र हम कर आये हैं) भी इसीलिए सहजता से हो पाते हैं क्योंकि वे संगीत की बढ़त की तरह ही कहानी लिखते हैं जिसमें इन विभाजनों का कोई स्थान नहीं होता। वे मानो तैरते हुए एक दूसरे में विलीन हो जाते हैं। उनकी कहानियों में इसीलिए आस्तित्विक प्रश्न सीध्ो-सीध्ो नहीं उठाये जाते बल्कि उनके स्वरलिपियाँ होने के कारण वे पाठक में इतनी भीतर तक प्रवेश कर जाती हैं कि वहाँ उपस्थित आस्तित्विक प्रश्न खुद-ब-खुद चेतना की सतह पर आ जाते हैं। शायद इसीलिए एदूर्नो ने संगीत को सबसे अध्ािक दार्शनिक कला कहा था। यहाँ प्रश्न सीध्ो-सीध्ो नहीं लिखे जाते उन्हें जागृत किया जाता है।
यह प्रश्न पूछने योग्य है कि निर्मल जी की कहानियाँ सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता किस रास्ते हासिल करती हैं? यह रास्ता व्यंजना से होकर जाता है। व्यंजना यानि वह अर्थ जो पकड़ से बाहर होता है। व्यंजना ही किसी कलात्मक कृति को देश-काल से मुक्त कर उसके सार्वदैशिक@कालिक होने का मार्ग प्रशस्त करती है। साध्ाारणतः साहित्यिक कृतियाँ अपनी व्यंजना प्राप्त करने, या कि अपना प्रतीयमान अर्थ हासिल करने कवि-समय (उस भाषा की परिपाटियों) का सहारा लेती हैं। यह बात निराला जैसे महाकवियों तक के साथ सही है। अगर पाठक उनकी कविताओं को पढ़ने की परिपाटियों या उनकी कविताओं के कवि-समय से वाकिफ़ नहीं हैं, वे उनकी व्यंजना नहीं अनुभव कर सकेंगे। यह व्यंजना ही निराला की कविताओं को सार्वभौमिकता और सार्वकालिकता प्रदान करती है। पर निर्मल जी की कहानियों आदि की स्थिति अलग है, वे बिना कवि-समय के सहारे के ही सीध्ो पाठक के मन में व्यंजित होने लगती हैं। यह शायद इसलिए होता है क्योंकि उनकी कहानियाँ बिना प्लाॅट को आलोकित किये, बिना कवि-समय पर ठहरे सीध्ो संगीत में परिणित हो जाती हैं और यह संगीत ही पाठकों को कहानियों की व्यंजना तक छोड़ आता है क्योंकि व्यंजना कलाकृति और पाठक के संयोग या कहें हिस्सेदारी से ही उत्पन्न होती है।