इरफ़ान : जहाँ ले चले हवा अनूप सिंह अंग्रेज़ी से अनुवाद : मदन सोनी
22-Mar-2023 12:00 AM 1345

इरफ़ान और मैं अपनी-अपनी कुर्सियाँ पहाड़ी की कगार तक ले गये। क़िस्सा की शूटिंग के पहले दिन क्षितिज पर आकाश ने अभी-अभी पृथ्वी से अलग होना शुरू किया था और नीचे की घाटी भोर की पहली रोशनी में अपनी काली और सलेटी चट्टानों के साथ धीरे-धीरे नमूदार हो रही थी।
हम अपने नीचे की ज़मीन को धड़कता हुआ महसूस कर सकते थे और हमें मालूम था कि यह जहाँ हम बैठे थे वहाँ से कोई चालीस फुट नीचे बहती नदी की लहरें अैर थपेड़े थे। लेकिन, हम उस धुँधली रोशनी में उसे अभी नहीं देख पा रहे थे। लेकिन हमारे पैरों के पास कुछ विचित्र क़िस्म के निशानों की ओर इरफ़ान का ध्यान गया। वे किसी प्राणी के रेंगने से बनी लकीरें थीं। क्या साँप के रेंगने से बने निशान थे? हमें यह समझने में कुछ पल लगे कि यह निश्चय ही पहाड़ी पर नदी की चोट और रात भर बहती रही हवा थी जिसकी वजह से ज़मीन पर वे विचित्र-सी आकृतियाँ उभर आयी थीं।
हमारे चेहरे पर पड़ती सुबह की हवा खुरदुरी और सुगन्धित थी। वह दूसरी पहाड़ियों और कन्दराओं का, सुदूर खेतों और नीचे बहती नदी का लम्बा सफ़र तय करके आ रहा थी। हमारे इर्द-गिर्द गूँजता हवा का स्वर, मेरे लिए, राँझा का स्वर था जो उल्लसित होकर गुनगुना रहा था कि वह अन्ततः अपनी प्रेयसी के घर आ पहुँचा है। उसे यह नहीं मालूम था कि उसने ज़हर खा लिया है। लेकिन वह अपनी माँ के पास उसके लिए एक गीत छोड़ गयी है और जब माँ उसे हीर की क़ब्र की ओर ले जा रही होगी, तो वह उस गीत को गाएगी।
मैंने इरफ़ान की ओर मुड़कर उसे बताया कि मैं क्या सोच रहा था। वह हल्के-से हँस दिया।
‘आनन्द और मातम! फ़िल्म की शुरुआत के लिए यह बुरा तरीक़ा नहीं है!’
इस गाँव को खोजने में मुझे महीनों लग गये थे। मैं पटियाला से पेशावर, और चण्डीगढ़ से तरण तारण तक पंजाब के चक्कर लगाता रहा था। हम लगभग लंच के समय इस गाँव में पहुँचे थे जो हिन्दुस्तान और पाकिस्तान की वाघा सरहद के काफ़ी क़रीब है। और जैसे ही हम गाँव में दाखि़ल हुए थे, मुझे लगा था कि यही वह गाँव था जिसके बारे में मेरे दादा ने मुझे बचपन में बताया था। हालाँकि, उन्होंने जिस गाँव के बारे में बात की थी वह रावलपिण्डी के क़रीब था जो अब पाकिस्तान में है। लोगों के चेहरे, उनमें से कुछ लोगों का पगड़ी बाँधने का ढँग, और मकान, सारी चीज़ें बहुत सशक्त ढँग से सौ साल पुराने समुदाय की याद दिला रही थीं। कुछ मकानों में अभी भी लाल रंग की पतली ईंटों की नानकशाही क़िस्म का इस्तेमाल किया गया था, जिनका इस्तेमाल इन इलाक़ों में अँग्रेज़ों के ज़माने में आम तौर से होता था।
गाँव की ओर आते समय मुझे इस बात का अहसास नहीं रहा था कि यह गाँव ढलुआ पठार पर खड़ा था। गाँव का मुख्य हिस्सा चारों ओर से खेतों से घिरा था। लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा आनन्दित कर रहे थे खुरदुरे पत्थरों और लकड़ी से बने एक मंज़िले मकान जिनके आँगन पहाड़ी की कगार तक फैले हुए थे। इन मकानों के सामने फैला हुआ दृश्य मेरे लिए मेरी फ़िल्म का पंजाब था।
धरती के छोर से फूटती सूरज की पहली किरणें घाटी के ऊपर से हमारी ओर रंगों की बौछार कर रही थीं और इरफ़ान तथा मैं उन्हें देख रहे थे। दूरी किंगफ़िशर के नीले रंग और फिर पीले और हरे की पट्टियों में खुलते बैंगनी रंगों से जगमगा रही थी। हमने अपने सामने की खड़ी ऊँचाई से नीचे नदी को देखा। नदी उज्जवल लाल-भूरी जुमान और सलेटी मिट्टी के साथ हरे और नीले रंगों से जगमगा रही थी।
‘अब आपको अपने मेक-अप के लिए जाना चाहिए,’ मैंने इरफ़ान से कहा।
‘वह मेरे अन्दर गूँज रहा है - अपनी माँ के लिए हीर का गाना,’ इरफ़ान ने कहा। ‘मैं इसे आज की शूटिंग के लिए रखूँगा।’
हम दोनों खड़े हो गये और इरफ़ान पहाड़ी के किनारे से लगे रास्ते पर पार्किंग की ओर बढ़ गया। वहाँ से एक कार उसे गाँव के बाहर खड़ी मेक-अप वैन तक ले जाने वाली थी। वैनों को भरसक दूरी पर पार्क किया गया था ताकि उन्हें क्रियाशील बनाये रखने वाले जेनरेटरों से शूटिंग में बाधा न पड़े।
लगभग दो घण्टे बाद इरफ़ान अपनी वेशभूषा, पगड़ी और वनैली दाढ़ी के साथ सैट पर वापस आ गया।
मैंने इरफ़ान का हाथ अपने हाथ में लिया और उस जगह और दृश्य की ओर बढ़ गया जिसे हम शूट करने की तैयारी कर रहे थे।
मैंने पुष्पेन्द्र से कहा था कि वह रिहर्सल के लिए सीन के उस इलाके़ को जितना मुमकिन हो उतना गन्दा और अस्तव्यस्त रखे, क्योंकि मैं देख चुका था और आगे के मुश्किल दिनों में भी देखने वाला था कि उसने बहुत ही अच्छा काम किया था। ज़मीन चीनी मिट्टी के किसी बहुत बड़े बर्तन और लकड़ी के फ़र्नीचर के टूटे हुए टुकड़ों से अँटा पड़ी थी। दृश्य में उम्बर सिंह (जिसकी भूमिका इरफ़ान निभा रहे थे) को एक आदमी की लाश को घसीटते हुए अपने आँगन में लाना था। वह उसे ऊपर उठाने के लिए बहुत संघर्ष करता है, लेकिन अन्त में किसी तरह कुएँ की दीवार पर रख देता है। उसके बाद वह लाश को कुएँ में धकेल देता है। फिर वह वहाँ से चला जाता है।
एक ही संवाद है जो वह लाश के सामने फुसफुसाता है। ‘मैं तुम्हारे आदमियों को उन्हीं के प्रेतों के ज़हर से भर दूँगा।’ मैंने इरफ़ान से कह दिया था कि यह वह तय करे कि वह दृश्य में चलते हुए संवाद को कहाँ बोलना चाहता है, एक बार में या दो बार में।
फिर मैंने उनके क़रीब जाकर उनके कान में कहा, ‘जनाब, यह हमारा पहला दिन है, पहला शॉट है। हमें अपना पूरा समय लेना चाहिए।’
उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा। ‘मुझे यहाँ कोई माल दिखायी नहीं दे रहा है जहाँ मैं ख़रीदारी करने चला जाऊँगा,’ उसने कहा। ‘मैं पूरे समय आपका हूँ।’
‘देखते हैं, क्या कारगर होता है, क्या नहीं।’
‘आप शॉट में चौंकाया जाना पसन्द नहीं करते?’
‘अगर हम बुनियादी चीज़ों पर काम कर लेते हैं, तो हम बाक़ी फ़िल्म में तमाम तरह के अज्ञातों में जा सकते हैं।’
उसने सिर हिलाया और अपने सामने की जगह को ध्यान से देखने लगा।
मैं कैमरे की बग़ल में अपनी जगह पर पहुँच गया। यह मेरे लिए और, निश्चय ही इरफ़ान के लिए भी, बहुत महत्त्वपूर्ण क्षण था। हमने महीनों तक इस चरित्र के चलकर जाने पर चर्चा की थी और उसकी रिहर्सल की थी, लेकिन अपार्टमेण्ट के चिकने फ़र्श पर चलने में और लोकेशन की ऊँची-नीची ज़मीन पर चलने में बड़ा फ़र्क था। हम सबने वे अभिनेता देख रखे थे जो कैसी भी ज़मीन पर अपना सन्तुलन बनाये रखते थे। वे पहाड़ी रास्ते पर उसी आत्मविश्वास के साथ चलते थे जैसे क़ालीन पर। मैं यह देखने का इन्तज़ार कर रहा था कि इरफ़ान अपने लिए कौन-सी सम्भावनाएँ खोलने जा रहा था। क्या वह अपने शरीर को उस ज़मीन के सामने झुक जाने देगा? उसके शरीर के साथ जो भी कुछ होता, वह या तो चरित्र को बाक़ी पूरी फ़िल्म के लिए पोषित या प्रेरित करता या न सिर्फ़ चरित्र को बल्कि फ़िल्म को ही कमज़ोर कर देता। मैंने ज़मीन पर अव्यवस्था बढ़ाने के लिए कहा ही इसलिए था ताकि उससे इरफ़ान विकल्प चुनने के लिए प्रेरित होता।
इरफ़ान दो बार उस स्पेस में चला और फिर मेरी ओर मुड़ा। मैंने नज़रें घुमाकर क्रू के लोगों की ओर देखा जो हमें देख रहे थे, फिर इरफ़ान को इशारा कर अपने पीछे आने को कहा। हम उस मकान के पीछे की ओर गये जहाँ कुछ कुर्सियाँ यहाँ-वहाँ बिखरी हुई थीं। वह बैठ गया। मैं उसके सामने खड़ा हो गया। उसने मेरी ओर देखा। मेरे पीछे से आ रही धूप की वजह से उसकी आँखें चुँधियाई हुई थीं। उसके चेहरे पर ख़ुशी की मुसकराहट थी।
‘आप अब कहोगे, ‘‘ख़ूब! वाह! अद्भुत!’’ और फिर कहोगे, ‘‘लेकिन...’’ ’
मैं धीरे से हँसा और उसके सामने ज़मीन पर बैठ गया।
‘क्या मैंने कभी आपको यह बताया था? मैं अपनी पहली फ़िल्म, द नेम ऑफ़ अ रिवर के लिए बँगलादेश में इलाक़े की टोह ले रहा था। हम नदी पर थे, नाव में। नदी काफ़ी उथली थी और पानी के ऊपर कई द्वीप उठे हुए थे। हमने इन्हीं में से एक द्वीप पर लंच लेने का निश्चय किया। वह द्वीप बमुश्किल बारह फुट चौड़ा था। जब मैंने उस पर क़दम रखा, जनाब, तब वह मेरी ज़िन्दगी का सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक पल था।
इरफ़ान अपने घुटने पर कुहनी रखकर आगे की ओर झुका।
‘मैंने जैसे ही द्वीप पर क़दम रखा, वह डूब गया। मैं लगभग छह इंच नीचे चला गया और फिर, बहुत हल्के-से वापस ऊपर की ओर उछला। मैं वहाँ हिलता हुआ खड़ा था और बमुश्किल अपना सन्तुलन बनाये रख पा रहा था। शुद्ध आनन्द! वे द्वीप पानी में डूबे हुए हैं लेकिन किसी तरह तैरते रहते हैं। और मेरे पैरों के तले की ज़मीन, जनाब, ख़ूबसूरत ढँग से सिलवटों से भरी काली और सलेटी रंगों से जगमगा रही थी। जैसे मैं हाथी के पेट पर चल रहा था!’
इरफ़ान कुर्सी पर तनकर बैठ चुका था। मैंने अपने पीछे मुड़कर देखा जहाँ उसकी निगाहें अटकी हुई लग रही थीं। वह उम्बर के घर का पिछवाड़ा था। सुबह का सूरज अभी भी उसके पीछे था, और वह घर हमारे ऊपर तने नीले आसमान की पृष्ठभूमि में कठियल चट्टानों की भाँति खड़ा था। मैं वापस इरफ़ान की ओर मुड़ा।
‘और फिर हमने उस हाथी के पेट पर बैठकर लंच खाया! उससे ज़्यादा अजीबो-ग़रीब तरीके से लंच मैंने कभी नहीं किया था! लेकिन उस वक़्त मुझे जो अहसास हुआ, वह यह था कि हमारे पैरों तले की ज़मीन कभी मुलायम और स्थिर नहीं होती। मुझे यक़ीन है, आपने भी यह महसूस किया होगा। हमें इस बात का अहसास हो या न हो, हर इलाक़ा हमारी कायाओं को चुनौती देता है और उसे कुछ बदल देता है। आपको नहीं लगता?’
इरफ़ान वहाँ बैठा अपने में खोया हुआ सिर हिला रहा था और उसकी निगाहें अभी भी मकान पर टिकी हुई थीं। फिर उसने अपनी नज़रें मेरी ओर मोड़ीं। ‘मैं उम्बर सिंह के बारे में पक्के तौर पर नहीं जानता, अनूप साब। उम्बर अपने निश्चय पर अडिग है। उसके ग़ुस्से ने, उसकी कड़ुआहट ने उसे हठीला बना दिया है। वह प्रकृति को यह छूट देने वाला नहीं है कि वह उसे उसकी बेटी को बेटा बनाने से रोक सके, इसलिए लाश को घसीटते हुए कुएँ तक ले जाते समय इन छोटी-छोटी भौतिक बाधाओं की तरफ़ - क्या आपको लगता है कि वह ध्यान भी देगा?’
‘मैं समझता हूँ कि वह हर चीज़ की तरफ़ ध्यान देता है। वह खुद को उस चीज़ का शिकार मानता है जिसे वह नियति कहता है, जिसे हम लोग प्रकृति या इतिहास कह सकते हैं। वह दरअसल अपनी नियति से बदला ले रहा है। उसका शत्रु कोई दूसरा समुदाय नहीं है, बल्कि हर चीज़ उसकी शत्रु है।’
इरफ़ान मुझे ग़ौर से देख रहा था। ‘जनाब,’ उसने कहा, ‘शायद आपका मतलब यह है।’
उसने बहुत गरिमापूर्ण ढँग से अपनी नज़रें ऊपर उठायीं और फिर आसमान की ओर हाथ उठाकर मुट्ठियाँ तान दीं।
मेरे अन्दर कहीं गहरे जो दबाव था वह ढीला पड़ गया। हाँ, मैंने मन-ही-मन सोचा कि बात दरअसल यही हैः उन अज्ञात शक्तियों के खि़लाफ़ युद्ध का ऐलान जो हमेशा हमसे परे बनी रहती हैं। इरफ़ान की उस भंगिमा ने मेरे शब्दों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा अर्थपूर्ण ढँग से उस चीज़ को पकड़ लिया था जिसका संकेत मैं उम्बर सिंह के बारे में कर रहा था। उसने जो भी किया था वह अवज्ञा की नमाज़ थी।
‘चलिए, फिर-से कोशिश करते हैं।’ इरफ़ान खड़ा हो गया। ‘इस बार हम शरीर से करते हैं।’
हमारे साथ एक एक्शन डायरेक्टर था, जो अपने साथ दो जाँबाज़ों (स्टण्टमेन) को लेकर आया था। हमने उनमें से सबसे दुबले आदमी को लाश की भूमिका के लिए चुना था। वह घर के बाहर लेट गया। इरफ़ान ने उसके पैर पकड़े और उसे घसीटता हुआ आँगन में ले आया। इस बार उत्तेजना के मारे मेरी रीढ़ की हड्डी में झुरझुरी दौड़ गयी। लाश को घसीटते हुए इरफ़ान के एक-एक क़दम के साथ हवा में थोड़ी-सी धूल उड़ रही थी। आप ज़मीन पर उसके पैरों के ज़ोर लगाये जाने और खरोंचे जाने को महसूस कर सकते थे।
अच्छी शुरुआत, मैंने मन-ही-मन कहा। इरफ़ान ने क्षण भर में लाश को उसके पेट के बल पलट दिया, लेकिन जैसे ही उसने उसे उठाने के लिए उसकी काँख में हाथ डाले, लाश कुलबुलाने लगी और झटके खाने लगी। इरफ़ान उछलकर दूर खड़ा हो गया। हमने विस्मय के साथ देखा कि वह जाँबाज़ बेतहाशा हँसता हुआ हमारी ओर मुड़ रहा था।
‘मुझे गुदगुदी लगती है,’ उसने साँस लेने की कोशिश करते हुए कहा। वह लगातार माफ़ी माँगे जा रहा था। ‘कभी-कभी मुझे बहुत गुदगुदी लगती है।’
क्रू के सारे लोगों की हँसी फूट पड़ी और वे जाँबाज़ पर तमाम तरह की फ़ब्तियाँ कसते हुए और मज़ाक बनाते हुए उसे चिढ़ाने लगे। हँसी से दोहरे होते इरफ़ान की आँखों से आँसू बह रहे थे।
निर्माता को बिल्कुल भी मज़ा नहीं आया। वह तेज़ी-से चलता हुआ सैट पर आया और उस जाँबाज़ पर चिल्लाने लगा। इरफ़ान ने उस बेचारे की मदद करते हुए उसे उठाया और बाहर भेज दिया। हमने दूसरे जाँबाज़ को ज़ल्दी-से मेक-अप वैन की ओर भेजा। मेक-अप और वेशभूषा विभाग को उसे बीस मिनिट के भीतर तैयार कर देना था।
फ़िल्म का पहला शॉट हमें सुबह आठ बजे लेना था, लेकिन हम उसे लंच के बाद ही ले पाये। निर्माता बौखलाया हुआ था। हमने काफ़ी सारा वक़्त बरबाद कर दिया था। लेकिन इरफ़ान और मैं सन्तुष्ट थे। हमने बार-बार उस दृश्य पर काम किया था, तब भी हमें यह समझने में कुछ वक़्त लगा कि हम उस दृश्य तक दो बिल्कुल अलग-अलग दिशाओं से पहुँच रहे थे। इरफ़ान दृश्य के भीतर के उन डरावने एक्शन्स को एकदम निस्संग दक्षता और लाघव के साथ करने की कोशिश कर रहा था। मैं चाहता था कि एक्शन अन्तराल (पॉज़) के कुछ क्षणों के साथ सम्पन्न हो, उसमें अस्थिरता के कुछ ख़ास क्षण बरकरार रहें, उसमें ऐसी अपूर्वानुमेयता हो जो उम्बर की निर्दयता में हिचकिचाहट की ओर संकेत करने में हमारी मदद कर सके।
लंच के ठीक पहले हमें सफलता हाथ लगी। इरफ़ान लाश को एकबार और कुएँ में डाल चुका था (अब हम भरे हुए टाट के बोरे का इस्तेमाल कर रहे थे) और, जैसा वह पहले भी कर चुका था, वह मुड़ा और वहाँ से जाने लगा। अचानक वह ठहर गया और उसने मुझसे इशारे से कहा कि वह उस एक्शन को फिर-से करेगा।
इस बार जब वह लाश को उठाने झुका, तो मैंने देखा कि अपने प्रति इरफ़ान की सजगता में कोई बदलाव आ गया था। वह खुद को देख रहा था, लेकिन अब उसकी नज़र उसके हरेक छोटे-छोटे पैंतरे या हरकत पर नहीं थी। वह उसे देख रहा था जो उसके सामने रूप ले रहा था। अपने रोज़मर्रा जीवन में वह लोगों, वस्तुओं, संगीत, यहाँ तक कि तापमान के प्रति भी जिस तरह तत्काल सकारात्मक ढँग से प्रतिक्रिया करता था, उसे यहाँ वेध्य तत्परता के साथ, ग्रहणशीलता और थोपने की अनिच्छा के अद्भुत मिश्रण के साथ आते देखना सम्मोहित करने वाली चीज़ थी। अब वह अपने आसपास के वातावरण और स्पेस में किसी भावना को बलात् घुसेड़ने की कोशिश नहीं कर रहा था। इसकी बजाय, अचानक सारी पूर्वधारणाओं से मुक्त होकर, वह उस चीज़ को देख रहा था जो स्वयं उस दृश्य के भीतर से निकल कर आ सकती थी।
उसने मुझे बाद में बताया था कि यह स्वत्व से निस्संगता स्थापित करने का प्रशान्त क्षण है। उसके भीतर उफनते भाव के प्रति निस्संगता। उसका पूरा ध्यान उस लाश के वज़न पर, उस आदमी के बालों को हिलाती हवा पर, ज़मीन पर लाश के घसीटे जाने से बने निशान पर, और इस आश्चर्य पर केन्द्रित था कि आकाश बेहद चमकीला और नीला बना हुआ था।
‘एक क्षण के लिए, अनूप साब,’ उसने कहा, ‘एक्शन का कोई छोटा-सा टुकड़ा पूरी फ़िल्म को दिमाग़ में स्पष्ट कर देता है। शुरुआत में एक इशारा होता है कि फ़िल्म कैसी बनेगी। लेकिन वास्तविक काम में, एक्शन के उस छोटे-से टुकड़े में आप फ़िल्म को एक नया ही रूप लेते देखते हैं।’
‘एक्शन के उस छोटे-से टुकड़े में, आप फ़िल्म को उससे बेहतर रूप में देख पाते हैं जिस रूप में आपने पहले उसकी कल्पना की थी। एक्शन का हरेक उतार-चढ़ाव फ़िल्म को बेहतर बनाता चलता है।’
और तब, जैसाकि उसकी हर घोषणा में उसकी प्रवृत्ति थी, उसे दूसरी सम्भावनाओं की ओर देखना ज़रूरी था। उसने मुस्कराते हुए अपनी बात जारी रखी। ‘हाँ, ऐसा भी होता है कि सीन बढ़िया लगता है, लेकिन फ़िल्म नहीं दिखायी देती। और ऐसे मौक़े भी आते हैं जब आपकी छोटी-से-छोटी हरकत भी सीन और फ़िल्म को बरबाद कर देते हैं!’
उस दृश्य में मैं उसके कन्धे पर पड़ते दबाव को बढ़ते हुए देख सकता था। उसकी ठोड़ी उठी हुई थी और गर्दन तनी हुई थी। उसने जैसे ही लाश को ऊपर की ओर उठाया, वह आगे की ओर लड़खड़ाया और खुद को सन्तुलित करने की कोशिश में उसका कूल्हा नीचे की ओर झुक गया। और अब जैसे ही वह ऊपर की ओर उठा, वह जुम्बिश उसके पैरों से शुरू हुई, और उसके मेरुदण्ड से होते हुए उसने उसके हाथ को ऐसा घुमाव दिया जो असन्तुलित होते हुए भी बहुत उग्र था। उसने लाश को एक बार फिर-से कुएँ में धकेला, मुड़ा और, इस बार, पल भर के लिए कुएँ की मुँडेर से टिक गया। और उसके बाद ही वह तनकर खड़ा हुआ और वहाँ से चल पड़ा।
वह कुछ दूर जाकर मुझे देखने के लिए मुड़ा। वह मुस्कुरा रहा था। मैं भी हँस रहा था। मैंने पुष्पेन्द्र की ओर देखा। उस तक के चेहरे पर मुस्कराहट थी।
ये बहुत छोटे-मोटे फ़ैसले लग सकते हैं जो इरफ़ान ने किये थे, लेकिन अस्थिरता और दृढ़ निश्चय के उस मेल ने हमें वह बुनियादी लय सुलभ करायी जिसने उम्बर के भीतर दबी हुई कोमलता को, उसकी बर्बरता के चरम क्षणों में भी, झलकाने में मदद की। हमारे लिए, यह आगे की दिशा में एक सशक्त क़दम था क्योंकि अब के बाद से हमारे पास एक व्यंजक, गतिशील यूनिट और संवेग था जिसे हम सब अनुभव कर सकते थे, उसे आधार की तरह बरत सकते थे, नमूने की तरह बरत सकते थे, उसे संयमित या तीव्र कर सकते थे, और अतिसूक्ष्म ध्वनियों की तरह बरत सकते थे। और सिर्फ़ इरफ़ान की अदायगी के सन्दर्भ में नहीं बल्कि स्वयं फ़िल्म के सन्दर्भ में।
अब जब इरफ़ान लाश को कुएँ की मुँडेर पर ले जाने के लिए उसे उठाने उस पर झुका, तो उसे लगा कि वह उसे उठाने की पहली कोशिश के बाद, लाश को ज़मीन से हल्का-सा ऊपर उठाये हुए थोड़ी-सी राहत की साँस ले सकता है। और फिर उसके साथ ऊपर की ओर उठ सकता है। हम तुरन्त देख सकते थे कि चरित्र उस तरह कठोर नहीं था जिस तरह वह होना चाहता। लाश को उठाते हुए उसने जो साँस ली थी, उसकी वजह से वह लाश के सिर के एकदम क़रीब आ गया था और वह उसके कान में यह वाक्य बोलने के लिए एकदम सही अवसर साबित हुआ कि ‘मैं तुम्हारे आदमियों को उन्हीं के प्रेतों के ज़हर से भर दूँगा।’ बहुत तेज़ी-से एक स्वतःस्फूर्त, उद्बोधक प्रवाह पैदा हो गया।
यह छोटा-सा एक्शन अब महज़ एक एक्शन नहीं रह गया था। वह किसी तुच्छ चीज़ की तरह अपना समय पूरा करने के बाद हमारी चेतना में लुप्त हो जाने वाला नहीं था। वह हमारे साथ बना रहने वाला था। यहाँ एक ऐसी अनुभूति थी जो हम तमाम लोगों के अपने विश्वासों में गहरे पैठी अविश्वसनीयता के साथ टक्कर लेने वाली थी।
जब वह लाश को कुएँ की मुँडेर तक घसीट लाया, तो इरफ़ान ने फुर्ती-से ऊपर की ओर देखा था। अपने आसपास की दुनिया पर एक तीक्ष्ण, अवज्ञापूर्ण निगाह। इस निगाह को लेकर वह निश्चित नहीं था, लेकिन मैंने उससे इसके लिए अनुरोध किया था। उसकी निगाह ने एक्शन को आसपास की बड़ी दुनिया के लिए खोल भर नहीं दिया था, बल्कि उस चीज़ पर मुहर लगा दी थी जिसके बारे में हमने पहले बात की थी : उम्बर की शत्रु हमेशा उसकी पहुँच से थोड़ी परे एक अज्ञात शक्ति बनी रहती है। इरफ़ान के बुनियादी निष्पादनपरक विकल्पों ने उसके अभिनय की नैतिकता को निजी से सार्वभौम में रूपान्तरित कर दिया था। उसकी प्रस्तुति न सिर्फ़ चरित्र के अनिर्वचनीय संवगों को बल्कि स्वयं फ़िल्म को आकार देने की शुरुआत कर रही थी।
यह शूटिंग का पहला दिन, पहला दृश्य था और हम अपने मतभेदों को दूर करने में और संयम तथा लाघव की इरफ़ान की आकांक्षा और हमारे विश्व को थामने और बिखराने वाली अस्थिरता को समझने की मेरी कोशिश के बीच तालमेल विकसित करने में कामयाब रहे थे। साथ में काम करने के इस महत्त्वपूर्ण मुकाम तक पहुँचने में हमें वक़्त लगा था, लेकिन उसका सुफल प्राप्त हुआ। शूटिंग से पहले के सारे वार्तालाप और रिहर्सल तथा अब हर पल दृश्य पर साथ-साथ काम करते हुए हम उस प्रस्तुति तक पहुँच गये थे जो फ़िल्म की व्यापक लय और विषय-वस्तु के साथ ऐन्द्रिय और गहन संवाद के रिश्ते में थी।
* * *
फ़िल्म के निर्माता और मेरे बीच अभी-अभी तू-तू मैं-मैं हुई थी। शुक्र था कि यह झगड़ा उस हवेली की छत पर हुआ था जहाँ हम शूटिंग कर रहे थे, जहाँ बाक़ी कलाकार और क्रू के लोग नहीं थे, क्योंकि वे लोग नीचे अगली शूटिंग की तैयारी कर रहे थे।
निर्माता मुझसे कुछ दृश्यों को काटने का आग्रह कर रहा था। मुझे यक़ीन था कि अगर वे दृश्य काट दिये जाते, तो उससे फ़िल्म का केन्द्रीय रहस्य नष्ट हो जाता :प्रेत, वाक़ई, क्या है? धीमे स्वर में किन्तु तीखे ढँग से जारी हमारे विवाद के बाद, हम ख़ामोश थे। राकेश जी, हमेशा की तरह, मेरी मदद के लिए आगे आये। वे छत के दरवाज़े पर नमूदार हुए, और स्पष्ट दिखायी देते तनाव को नज़रअन्दाज़ करते हुए, उन्होंने मुझसे कहा कि सिनेमेटोग्राफ़र को मेरी ज़रूरत है। बेशक, यह एक झूठ था, लेकिन वे हमेशा मेरी ज़रूरत को महसूस करने की अपनी क़ाबिलियत से मुझे चकित करते रहे थे।
नीचे पहुँचकर मैंने उन्हें धन्यवाद दिया। उन्होंने सलाह दी कि मैं कुछ समय बाहर अकेला रहूँ। अगर क्रू के किसी भी आदमी ने मेरा क्षोभ देख लिया होता, तो यह अच्छा नहीं होता।
मैं बग़ल के एक दरवाज़े से बाहर निकल गया। बाहर निकलने पर मैंने हवेली के क़रीब पेड़ों के झुरमुट में इरफ़ान को देखा। मैं जो देख रहा था, उससे हतप्रभ होकर देहलीज़ पर खड़ा रह गया। और उसके बाद मैं प्रसन्न और उत्सुक हो उठा। वह पेड़ों का चक्कर लगा रहा था और उसका लम्बा खाकी कुर्ता हवा में उसके शरीर पर लहरा रहा था। डूबते सूरज ने झुरमुट में घनी छायाओं और चमकीले पीले रंग के पैटर्न उकेर दिये थे।
एक क्षण आया जब इरफ़ान के हाथ उसके सामने अनिश्चित-सी अनुनय में उठे। उसने एक पेड़ की पत्तियों के गुच्छे की ओर ग़ौर-से देखा। मैं उसे बोलते हुए सुन पा रहा था। वह विचित्र-से ढँग से गुनगुना रहा था।
फिर उसके हाथ धीरे-धीरे उसकी बग़ल में लटक गये और पीछे मुड़कर आपस में बँध गये। उसकी आवाज़ की लय बदल गयी।
इस पूरे दौरान, जब वह छायाओं और उज्जवल प्रकाश के बीच सहज प्रवाह और आकस्मिक मोड़ों के विचित्र क़िस्म के नृत्य में निमग्न था, उसकी आवाज़ में लगातार आरोह-अवरोह पैदा हो रहे थे, वह कभी गाती लगती थी, तो कभी बुदबुदाती। लग रहा था जैसे वह उस झुरमुट में रहने वाले प्रेतों से बतिया रहा था।
कुछ देर बाद, मैंने उन शब्दों को सुनना शुरू किया जिन्हें वह गुनगुना और बुदबुदा रहा था, और तब मुझे समझ में आया कि वह फ़िल्म के संवादों को गा रहा था। अब तक मेरा क्षोभ शान्त हो चुका था और मैं उसे उस स्नेह और श्रद्धा के भाव से देख रहा था जिसे हम उस किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति में महसूस करते हैं जो किसी अतृप्य आवेग के वशीभूत होता है।
मैं उसे चौंकाना नहीं चाहता था, इसलिए मैं बग़ीचे में दूर तक चला गया और फिर उसकी ओर मुड़ा ताकि वह मुझे आता हुआ देख सकता।
‘आप यह कौन-सा मन्त्र बुदबुदा रहे थे, जनाब? लगता है जैसे आप अपने निर्देशक को शाप दे रहे थे।’
इरफ़ान हँस दिया। ‘ये पंजाबी डायलॉग्स! मैं खुद को निर्देशक के अभिशाप से आज़ाद करने की कोशिश कर रहा हूँ।’
‘हाँ, मैं आपको सुन पा रहा था! मेरे ही संवादों को मेरे खि़लाफ़ गाते हुए?’
‘हाँ, आपके डायलॉग अब धीरे-धीरे वश में आ रहे हैं!’
‘पंजाबी ज़्यादा बेहतर लगती है।’
‘टूना जैसे शब्दों को गाने से उन्हें याद करना ज़्यादा आसान हो जाता है। सुनिए - ’
उसने अपनी पीठ एक पेड़ से टिका दी।
‘नी...तू कि-थे जा-री...जा-री तू कि-थे...अए नीली, ओ नीली,’ वह गुनगुनाया। ‘संवाद है : नीली, तु किथे जा रही है?’
‘डायलॉग बहुत फ़िज़िकल हो जाता है।’
‘हाँ। और एक कोई छुपी हुई धड़क लफ़्ज़ में पता नहीं कौन-सा दरवाज़ा खोल दे उम्बर की आत्मा में।’
इरफ़ान द्वारा संवाद को गाये जाने ने मेरे लिए फ़िल्म में बहुत-से दरवाजे़ खोल दिये। हम जैसे-जैसे फ़िल्म (और हमारे द्वारा साथ-साथ की गयी दूसरी फ़िल्म, द साँग ऑफ़ स्कॉर्पियन्स) की गहराई में पहुँचते गये, जो चीज़ मुझे बार-बार समझ में आती गयी, वह यह थी कि संवादों को लेकर उसका उद्यम शायद ही कभी एक विचार या भाव को सम्प्रेषित करता था।
ज़्यादातर तो, उसकी कोशिश शब्दों को तोड़कर उनके बुनियादी तत्त्वों तक पहुँचने की, अक्षरों, स्वरों और व्यंजनों को चखने और सुनने की होती थी। इसके बाद वह कुछ ख़ास व्यंजनों की ताल पर ज़ोर देने का चुनाव करता था या किन्हीं ख़ास स्वरों को खींचते हुए एक पैटर्न रच लेता था। इन ध्वनियों को क्रियाशील करते हुए उम्मीद यह होती थी कि यह क्रियाशीलता उसके समूचे अस्तित्व और जगत को भी क्रियाशील कर देगी : हो सकता है कोई भाव उत्पन्न हो जाए या तेज़ी-से क्षीण हो जाए या अपूर्वदृष्ट को किसी दूसरे भाव की दिशा में धकेल दे, कोई नवजात संवेग किसी अव्याख्येय स्थिति को किसी वस्तु, रंग आकाश के सन्दर्भ में अनुप्राणित कर दे। ध्वनियों से उत्प्रेरित नये सम्बन्धों के साथ हर चीज़ ऐन्द्रिय और संवेदनक्षम हो उठती है।
बेशक, इस तरह की क्रीड़ा अक्सर हास्यास्पद क़िस्म की दुर्घटना का कारण भी बन सकती है। कुछ दिन पहले, हम अटारी की एक व्यस्त सड़क पर आभूषणों की एक छोटी-सी दूकान में शूट कर रहे थे। उम्बर सिंह और उसकी बीवी को उनकी बहू के साथ आभूषण ख़रीदने वहाँ लाया गया था। उम्बर सिंह की बीवी मेहर सोने का एक नाज़ुक हार चुनती है, लेकिन उम्बर की निगाहें एक वज़नी क़िस्म के आभूषण पर हैं। वह उसे उठाता है और कहता है, ‘अए ले लेहन्दे आ (हम यह लेंगे)।’
इरफ़ान इस वाक्य की रिहर्सल कई दिनों से करता रहा था। उसके साथ के अभिनेता इस बात के प्रति जागरूक थे कि चूँकि वह पंजाबी नहीं समझता था, इसलिए वह उस वाक्य को इस तरह सीख रहा था जैसे वह किसी गाने का सांगीतिक टुकड़ा हो। लेकिन ‘अ’ और ‘ल’ का प्रवाह उसकी ज़ुबान में गाँठ लगाता और उमेठता प्रतीत होता था। इस समय उसके मुँह से जो निकला, वह कुछ इस तरह ध्वनित हो रहा था, ‘अए-ले-ले-न-दा’ जो बिथोविन की सिम्फ़ॅनी का कोई टुकड़ा भी हो सकता था।
मैं अगली दूकान में कानों में इयरफ़ोन लगाये उस दृश्य को सुन और देख रहा था। उसने उस वाक्य को जिस तरह लय-ताल में बाँध दिया था, उसे मैंने सुना और तुरन्त अपने मुँह पर हाथ रखकर खुद को हँसने से रोका। आभूषण की दूकान में टिस्का और रसिका एक दूसरे की बाँहों में ढेर हो गयीं और हँसते-हँसते उस लाइन को दोहराने लगीं।
मैं हँसता हुआ फुर्ती-से आभूषणों की दूकान में पहुँचा। इरफ़ान एक हाथ टिस्का के कन्धे पर रखकर सन्तुलन बनाता हुआ झुका था। लेकिन हँसते हुए भी उसकी चमकती भूरी आँखें हमें देख रही थीं। वह आवाज़ की ताक़त से प्रसन्न और उत्तेजित था और इस बात से प्रभावित लग रहा था कि इस तरह की एक अर्थहीन आवाज़ भी हम पर इतना सशक्त प्रभाव डाल सकी थी।
हर बार जब भी हमने दुबारा शॉट लेने की कोशिश की, तीनों अभिनेता चीख़ने और हँसने लगते थे और खुद को नियन्त्रित कर पाने में विफल एक दूसरे को चुप कराने लगते थे।
बाद में, उस रात, इरफ़ान वेट्रेस के साथ मेरे कमरे के दरवाज़े पर नमूदार हुआ। वेट्रेस बियर और व्हिस्की की बोतलें और तमाम तरह के खाने के सामान लिये हुए थी। कुछ मिनिट बाद, बाक़ी अभिनेता और उनके पीछे क्रू के सदस्य भी आ गये। ज़्यादातर लोग दो-एक पैग पीने के बाद चले गये क्योंकि हमें अगले दिन तड़के सुबह शुरुआत करनी थी। टिस्का और तिलोत्तमा रसिका के साथ उसके कमरे में चली गयीं, जो मेरे कमरे के ही सामने था, और कुछ पल बाद हमने सुना कि तीनों स्त्रियाँ बहुत ज़ोर-ज़ोर से हँस रही थीं। इरफ़ान और मैं उनके कमरे में गये और हमने देखा कि टिस्का और रसिका उस वाक्य को बोलने की इरफ़ान की नक़ल उतारकर तिलोत्तमा को सुना रही थीं।
इरफ़ान ने पल भर उन्हें सुना और फिर उनसे कहा कि वे लोग उसे बिल्कुल ग़लत ढँग से पेश कर रही हैं। उसने अपनी व्हिस्की की बोतल मुझे थमायी और उम्बर की मुद्रा बना ली। वह व्हिस्की की आधी बोतल ख़ाली कर चुका था और उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। ‘मैं अब जानता हूँ कि इसे कैसे कहना चाहिए,’ उसने कहा।
उसने उन लोगों की ओर संजीदगी के साथ देखा और आगे की ओर उसी तरह झुका जैसे वह आभूषण की दूकान में हार उठाने के लिए झुका था और फिर हार उठाने का अभिनय किया। ‘अए-ले-ले-न-दा,’ उसने उम्बर सिंह के पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा।
रसिका ने अपनी रजाई की किनार को अपने मुँह में ठूँस रखा था और वह हँसी से कराहती हुई अपने बिस्तर पर लोट-पोट हो रही थी। तिलोत्तमा इतना ज़्यादा हँस चुकी थी कि उसे हिचकियाँ आने लगी थीं। टिस्का, हमेशा की तरह बेक़ाबू और इरफ़ान के साथ काम करने के अपने पिछले क़िस्सों के साथ इरफ़ान को लगातार उसकी पिछली ग़लतियों की, ख़ासतौर से उसे (टिस्का को) को पटाने (लर्ट करने) की उसकी दर्दनाक कोशिशों की याद दिलाये जा रही थी। इरफ़ान ने उसकी ओर इन्कार के भाव से अपने हाथ हिलाये, लेकिन वह वास्तव में उसका विरोध नहीं कर सका। वह अपनी कमर पर हाथ रखे कमरे में लड़खड़ाता घूम रहा था।
बहुत बाद में, रसिका ने हर किसी को अपने कमरे से बाहर धकियाने की कोशिश की क्योंकि बुरी तरह हँसते-हँसते उसका पेट दुखने लगा था और उसे सुबह होते ही मेक-अप के लिए तैयार होना था। लेकिन इरफ़ान को बाहर निकालना सम्भव नहीं था। लगता था जैसे उसे चिढ़ाया जाना अच्छा लग रहा था और जब उसे उसकी किसी गम्भीर भूल के लिए निशाना बनाया जाता था, तो वह किसी तरह का अहंकार प्रदर्शित नहीं करता था।
वह टिस्का की बग़ल में बैठ गया था और उससे लड़कियों को सफलतापूर्वक पटाने के गुर बताने का आग्रह कर रहा था। टिस्का उससे कह रही थी कि वह (इरफ़ान) पटाने के मामले में निकम्मा है। उसका कहना था कि वह इश्क़बाज़ होने की बजाय शरारती ज़्यादा है। और वह शिष्टाचार की मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं करता।
इरफ़ान अपनी पटाने की दक्षता को लेकर किये गये टिस्का के विश्लेषण से निराश लगता था और उसपर बहस करना चाहता था लेकिन टिस्का अब तक खुद को अपनी रजाई में बन्द कर चुकी थी और सोने की कोशिश कर रही थी।
अन्ततः मैंने इरफ़ान की बाँह पकड़ी और आधा उसको उठाये हुए और आधा घसीटते हुए उसके कमरे तक ले गया। गलियारे में वह टिस्का के कमरे की ओर अपना सिर मोड़कर चिल्ला रहा था : ‘मैं बहुत बड़ा इश्क़बाज़ हूँ!’
मुझे इरफ़ान का यह कौतुक भविष्य में और भी देखने मिलना था, शरीर या आवाज़ द्वारा अप्रत्याशित ढँग से ली जा सकने वाली गुस्ताख़ आज़ादी के प्रति उसकी सहज स्वीकृति और सम्मान। वह यह देखने के लिए उत्सुक हुआ करता था कि इस तरह के संयोग हमारे साथ क्या करते हैं। वे हमारे बारे में, दूसरों के साथ और हमारी दुनिया के साथ हमारे रिश्तों के बारे में, क्या उजागर करते हैं?
और फ़िल्म के क़िस्से की सारी हिंसा के भीतर इस तरह के क्षण एक अपरिभाषेय दीप्ति पैदा करते रहते थे। वे फ़िल्म के स्नायुओं में उत्कण्ठा और ललक की सुखद कामयाबी का अहसास जगाते थे। इससे फ़िल्म की अशान्त कहानी को अपना मध्यमार्ग - एक अप्रत्याशित कोमलता - हासिल करने में मदद मिलती थी।
निर्माता के साथ अपनी तकरार वाले दिन पर वापस लौटते हैं। उस शाम हमने उस दृश्य को शूट किया था जिसमें उम्बर सिंह अपनी तीनों बेटियों को क्रूरतापूर्वक पीटता है, क्योंकि उसका विश्वास है कि वे ही उसके बेटे कँवर की गम्भीर दुर्घटना के लिए ज़िम्मेदार हैं। इस समय कँवर बारह बरस का है। सिनेमेटोग्राफ़र के साथ दृश्य के पहले शॉट को जमाते हुए मैं जब भी मुड़कर देखता था, हर बार इरफ़ान को अपनी कोहनी के क़रीब पाता था। वह उस दृश्य की हिंसा से व्यथित था और उस संयोजन को जो हमने उस शॉट के लिए तैयार किया था, प्रकाश और छायाओं को तथा कैमरे तथा फ्ऱेम में मौजूद चरित्रों के चलन को बारीकी-से जाँच-परख रहा था। वह कोई सुराग़, दृश्य तक पहुँचने का कोई तरीक़ा तलाश रहा था।
‘जनाब,’ मैंने कहा, ‘हम हिंसा का सिर्फ़ संकेत देने जा रहे हैं। उसे वास्तव में दिखाने नहीं जा रहे हैं।’
‘जब वह उन्हें मारता है, क्या वह ख़ुद के क़ाबू से भी बाहर नहीं हो जाता है? या फिर वह ज़्यादा सोचा-समझा है?’
‘जनाब, मुझे तमाचा मारिए। ज़ोर-से तमाचा मारिए,’ मैंने कहा।
वह चकित होकर मुझे देखने लगा, उसकी निगाहें मुझपर टिकी हुई थीं।
‘वह क्या चीज़ होगी जो आपको प्रेरित करेगी कि आप मुझे तमाचा मारें?’
वह मुझे देखता रहा और फिर मुस्कराने लगा।
‘प्रेम?’ मैंने अटकल लगायी।
उसने स्वीकृति के भाव से सिर हिलाया। वह मुड़ा, लगा जैसे वह हिचकिचा रहा था और फिर उसने अपनी नज़रें फिर से मुझपर टिका दीं। मैंने उसे सवालिया निगाहों से देखा। वह क़रीब आया और मेरे कानों में फुसफुसाया, ‘अनूप साब, सब ठीक?’
उसने मुझे औचक पकड़ लिया था। मैं समझता था कि मैं ठीक था और निर्माता के साथ अपनी तकरार के बाद अपने दुःख को छिपाने में कामयाब रहा था। लेकिन उसने निश्चय ही मेरे अतिरिक्त उत्साह के पीछे कहीं छुपी हुई उदासी को सुन लिया था।
‘सब ठीक, जनाब,’ मैंने कहा।
उसने अविश्वास से अपनी भँवें उठायीं, लेकिन मुझपर और ज़ोर नहीं डाला।
हमने फुर्ती-से शॉट के लिए अभिनय की रूपरेखा तैयार की, ‘शान्त’ रहने के लिए आवाज़ लगायी और कैमरा घूमने लगा। टेक के दौरान जब मैंने सुना की इरफ़ान सबसे बड़ी बेटी को अपने पास बुला रहा था, तो मुझे लगा जैसे उसने हमारी मनुष्यता के सबसे गहरे, छिपे हुए कुओं को खोल दिया है।
उसकी पहली पुकार आदेशात्मक है। आवाज़ उखड़ी हुई है, जो बेटी को उसकी स्वाधीनता की ज़रा-सी भी गुंजाइश नहीं छोड़ती। वह उसकी सम्पत्ति है और वह उसके साथ जैसा चाहेगा करेगा। अगले ही क्षण उसकी आवाज़ फुसफुसाहट में बदल जाती है। यह पुकार लगभग अनुनय-विनय जैसी है। अब वह उससे आने का अनुरोध कर रहा है। वह चाहता है कि वह आने का विकल्प चुने कुछ इस तरह मानो उसका वह चुनाव पिता की क्रुद्ध निगाह के समक्ष उसको अपनी भंगुर मनुष्यता की रक्षा करने में मदद कर सकता है। और यह, शायद उसे अपनी क्रूरता को कम करने को राज़ी कर सकती है।
लेकिन, जब वह उससे डरकर भाग जाती है, तो उसका क्रोध भड़क उठता है और दृश्य एक ऐसा उग्र रूप ले लेता है जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। और तब भी, उम्बर की क्रूरता समझ में आने लायक़ बनी रहती है। इरफ़ान ने अपनी श्वास के प्रवाह पर बल देकर और इस तरह व्यथा का एक गहरा अहसास पैदा कर, और इसी के साथ संवाद को एक कठोर आवाज़ में बदलने के लिए कुछ ख़ास शब्दों को कुचलते हुए या दूसरे शब्दों के अन्तराल और उतार-चढ़ाव को बढ़ाते हुए, यह कर दिखाया था।
शॉट के अन्त में, मैंने चुपचाप अपने हाथ से उसके कन्धों को घेर लिया। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। वह कुछ देर के लिए अकेला होने एक ओर चला गया और जब मैं टिस्का चोपड़ा से बात कर रहा था, तब लौट आया। अगले शॉट में उसे तेज़ी-से कमरे में आकर उम्बर को अपनी बेटियों से दूर धकेलना था। इरफ़ान ने कहा की उस दृश्य की हिंसा ने उसकी शिराओं में आग भड़का दी थी, उसे बहुत चिड़चिड़ा बना दिया था, और उसे चिन्ता हो रही थी कि जब टिस्का कमरे में आकर उसे झिंझोड़ेगी, तो पता नहीं वह कैसी प्रतिक्रिया करेगा। उसने कहा कि वह उसे छुए नहीं, बल्कि इसकी बजाय कुछ क़दम दूर से उसे सिर्फ़ चेतावनी दे। मैंने कहा, हम एक टेक आज़माकर देखते हैं कि उसका कैसा नतीजा निकलता है।
उस टेक में, टिस्का सिटकनी लगे दरवाज़े को इतनी ज़ारे से धकेलती हुई कमरे में दाखि़ल हुई कि वह इरफ़ान से लगभग भिड़ गयी। उसने झटका खाया और सहज प्रतिक्रिया करते हुए उसे पीछे धकेल दिया। टिस्का लहरायी और पीछे की ओर लड़खड़ाती हुई अलमारी से टकरायी। अलमारी चरमरायी और वह खुद फ़र्श पर ढेर हो गयी।
इरफ़ान उसे उठाने उसकी ओर दौड़ा। वह शर्मिन्दा था और माफ़ी माँगे जा रहा था। ‘मैं ठीक हूँ, मैं ठीक हूँ,’ टिस्का उससे कहे जा रही थी। ‘हम एक और टेक ले सकते हैं, सर’ उसने मुझसे कहा और इरफ़ान की बाँहों में मूर्च्छित हो गयी। इरफ़ान ने उसे झटके-से उठाया और बिस्तर पर ले गया, लेकिन वह लगभग तुरन्त ही फिर-से होश में आ गयी।
उसने ज़ोर देकर कहा कि वह अगले टेक के लिए एकदम दुरुस्त है और हम ज़ल्दी-से शॉट लेने लगे। शॉट के बाद मैं उससे कह रहा था कि उसने कितने अच्छे-से किया है और जब मैंने उसकी आँखों में आँसू देखे तो उससे कहा कि वह जाकर आराम करे। तब जाकर उसने स्वीकार किया कि उसकी पीठ में बुरी तरह चोट लग गयी थी और बहुत तेज़ दर्द हो रहा था। उसके विरोध के बावजूद, हम उसे उठाकर कार में ले गये और अस्पताल की ओर भागे।
उसकी पीठ को कोई स्थायी क्षति नहीं पहुँची थी, हालाँकि उसे भयानक खरोंचें आयी थीं और उसकी मांसपेशियों को गहरी चोट पहुँची थी। उसे कम-से-कम दो दिन तक बहुत तेज़ दर्द रहा। हमने सुनिश्चित किया कि वह नर्स के निरीक्षण में रहे और उसे दर्दनिवारक दवाएँ दी जाती रहें।
उस दिन देर रात को मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई। इरफ़ान था।
‘मैंने देखा कि आपकी बत्तियाँ जल रही थीं। मुझे भी नींद नहीं आ रही। चलो साथ में एक टोना करते हैं प्रोड्यूसर पे,’ उसने हँसते हुए कहा।
‘अरे, राकेश जी ने आपसे कहा होगा? उन्हें नहीं कहना चाहिए था।’ हालाँकि मैं इस बात से काफ़ी द्रवित हुआ कि इरफ़ान मेरे हालचाल जानने आया था।
वह अपने हाथों में अपना बेलनाकार, ख़ूबसूरत हर्मन कार्डान पोर्टेबल ब्ल्यूटूथ स्पीकर लिये हुए था। उसने मेरे कमरे में दाखि़ल होकर स्पीकर का प्लग लगा दिया। वह उसे अपने मोबाइल के ब्ल्यूटूथ से कनेक्ट करने बैठा था कि तभी वह मेरी ओर मुड़ा।
‘आपका लैपटॉप कहाँ है? उसपर राम और श्याम चलाइए। उसमें कुछ है जो मैं देखना चाहता हूँ।’
इरफ़ान खिड़की पर जा बैठा और अपनी सिगरेट भाँजने लगा। कोहरे और ठण्ड की धूल-भरी हवा ने तेज़ी-से कमरे को सर्द कर दिया। मैंने स्वेटर डाला और उसकी ओर एक शॉल फेंका और केतली में चाय के लिए पानी उबलने रख दिया।
हमने फ़िल्म को उस जगह तक फ़ास्ट-फ़ार्वर्ड किया जहाँ श्याम (दिलीप कुमार) का फ़िल्म में प्रवेश होता है। हमने उसके और मुमताज़ के बीच की शरारतें देखीं। जल्द ही वह अवसर आया जब हम हँसते, मज़े लेते टीका-टिप्पणियाँ कर रहे थे।
‘इसे क्या कहते हैं अंग्रेज़ी में?’ इरफ़ान ने मुझे पुकारते हुए पूछा।
हम एक-दूसरे से बमुश्किल एक फुट की दूरी पर बैठे हुए थे, लेकिन उस दृश्य की दीवानगी से भरी प्रफुल्लता हमें चिल्लाने पर मज़बूर कर रही थी।
दिलीप कुमार जो ट्रैक्टर चला रहे हैं उसकी आवाज़ की नक़ल उतारते, उसे मन्त्र की तरह बुदबुदाते हुए मुमताज़ की ओर भागते हैं जो घबराकर खेत में भाग जाती हैं। ‘ब-बदबदबदबद-ट्रर्र-ट्रर्र!’
‘आपका मतलब है, ओनोमेटोपिआ (ध्वनि का अनुकरण)?’
‘हाँ वही! पूरे सीन का मज़ा वही है।’
और फिर जब मुमताज़ रोने-चिल्लाने लगती हैं, तो दिलीप कुमार तुरन्त धीरे-से उनके हंगामे की नक़ल करने लगते हैं।
‘पूरे सीन में सिर्फ़ आवाज़ का खेल है, जनाब!’ मैंने कहा।
‘पूरा रिश्ता, अनूप साब, लड़की के मन में क्या है, दिलीप कुमार क्या सोचता है उसके बारे में, कैरक्टर की फ़ितरत क्या है, सब एक सीन में!’
‘आपको गंगा और जमुना की याद है? उस फ़िल्म में जब दिलीप साब वैजयन्तीमाला को पुकारते हैं, ‘‘अरी ओ धन्नो!’’ - तो उसमें समूची सभ्यता को पुकारा गया होता है। पालन-पोषण करती नदी, खेतों की महक, लम्बी यात्रा करती पुकार और यह आत्मविश्वास कि हमेशा जवाब आता है...’
‘सही, सही।’
हमने अपने चाय के कपों से घूँट लिये और कुछ देर ख़ामोश बने रहे।
‘बदबदबदबद...’ वह अचानक चिल्लाया। ‘टर्र-टर्र।’ हम फिर-से हँसने लगे।
‘अब नुसरत साब की आवाज़ को सुनते हैं।’
‘जनाब अब आपको थोड़ी देर सोने की कोशिश करनी चाहिए। अगले चार घण्टे बाद हमें फिर-से शूटिंग करनी है।’
‘आपको सोना है?’
‘नहीं, मुझे नहीं लगता।’
उसने मेरी ओर देखा।
‘अनूप साब प्रोड्यूसर तो फ़ायनली फ़िल्म बेचेगा। लेकिन जो लोग हैं, वो तो आपकी फ़िल्म देखेंगे। आप बस अपनी फ़िल्म बनाइए।’
मैंने उसकी ओर देखकर सिर हिलाया। नुसर्रत साब की आवाज़ कमरे में गूँजने लगी।
‘एक और चाय पिलाइए। ‘वह एक और सिगरेट भाँजने लगा।
इरफ़ान नुसरत के एक-के-बाद-एक गाने बजाता हुआ मेरे साथ बैठा रहा। जब काला आकाश निरन्तर बैंगनी होता गया और परिन्दों की पुकार सुनायी देने लगी, तब वह जाने के लिए उठा। वह दरवाज़े पर मुड़ा और मुस्कराया। वह देख सकता था कि मेरे सपने में मेरी आस्था वापस लौट आयी थी और मैं उस उत्पीड़न का सामना करने की पर्याप्त शक्ति अनुभव कर रहा था जो, जैसाकि हम दोनों जानते थे, जारी रहने वाला था।
‘जनाब, अपना स्पीकर मत भूलिए,’ मैंने कहा।
‘आप यहीं रखिए। अपना फ़ोन दीजिए।’
उसने मेरे फ़ोन के ब्ल्यूटूथ को स्पीकर से कनेक्ट कर दिया। उसने अपना हाथ उठाकर सलाम किया और गलियारे में टहलता हुआ अपने कमरे की ओर चला गया।
उसने वह स्पीकर मुझे कभी वापस नहीं करने दिया।
शूटिंग के लिए तैयार होने से पहले मैं कुछ मिनिट के लिए बिस्तर पर लेटा सोचने लगा कि शायद नुसरत के गाने की ही तरह, इरफ़ान द्वारा संवाद गाये जाने को भी एक तरह से उसी रूप में देखना चाहिए जिसे सूफ़ी लोग सम कहते हैं। सुनना, एकाग्र होना, और आवाज़ को गुंजाइश देना कि वह आपको जहाँ चाहे ले जाए।
जब सुबह इरफ़ान मुझे लोकेशन पर मिला, तो मैंने इस बात का ज़िक्र उससे किया। वह वहाँ ज़ल्दी पहुँच गया था और हवेली की छत पर खड़ा पतंग उड़ा रहा था।
‘सम?’
‘कल जब मैंने आपको अकेले में गाते और किसी पागल की तरह पेड़ों के उस झुरमुट के इर्दगिर्द घूमते देखा था, तो आप में निश्चय ही दरवेशनुमा कुछ था,’ मैंने उसे चिढ़ाया।
वह हँसा। फिर पतंग की डोर बढ़ाते हुए वह मेरी बात के बारे में कुछ सोचता-सा लगा।
‘मेरे लिए’, उसने कहा, ‘कुछ-कुछ हैमलेट के ‘‘होना, या न होना’’ जैसा है। एक स्वगत कथन। हम ज़्यादा-से-ज़्यादा सवाल पूछने की कोशिश करते हैं...’
वह रुका। हमें अपने ऊपर पतंग की फड़फड़ाहट सुनायी दे रही थी। और तभी उसने इन्कार में अपना सिर हिलाया और धीरे-से हँसते हुए बोला, ‘और साला कभी भी सीधा जवाब नहीं मिलता है!’
उसकी इस बात ने मुझे उस एक और दृश्य के बारे में सोचने को प्रेरित किया जिसे हमने कुछ दिन पहले शूट किया था, जिसमें वह रात के समय छत पर कँवर से बात करता है। इरफ़ान दो विपरीत आवाज़ों के बीच आवाजाही करता है : एक, नयी बहू के साथ कँवर के रिश्ते के बारे में उम्बर की बेचैनी, और उसी के साथ-साथ लयों की वह उत्सवी गतिशीलता जिसमें अपने पुत्र के प्रति उसका गर्व निहित है। उसका गम्भीर परामर्श धीरे-धीरे अपने बेटे के प्रति उसके आनन्द और गर्व के श्रव्य प्रवाह का मार्ग प्रशस्त करता है।
अस्तित्व की दो विपरीत अवस्थाओं को सँभाले रखने और प्रत्येक को समान उत्ताप के साथ अभिव्यक्त होने देने की उस क़ाबिलियत ने मुझे जीवन जीने के इरफ़ान के निर्भीक और ऐन्द्रिय ढँग को समझने में मदद दी। यह बात तब मैंने इरफ़ान से नहीं कही थी, लेकिन मेरा मानना है कि शब्दों और उनकी ध्वनियों की इस गहरी जाँच-पड़ताल ने, शब्दों को एक लय की ओर धकेलने की इस कोशिश ने, इरफ़ान के भीतर एक सृजनात्मक अन्तरावलोकन की शुरुआत की थी। और उसे सुनना, दर्शकों में भी वैसे ही अन्तरावलोकन को उकसाता है। इरफ़ान को सुनते हुए, वह चरित्र हमारे भीतर उभरने लगता है जिसको वह अपने अभिनय से उद्बुद्ध कर रहा होता है। चरित्र की आत्मा की सूक्ष्मताओं पर इतना प्रांजल मनन कभी-कभी अभिनेता के मन में और साथ ही हमारे मन में भी एक डरावना सवाल पैदा कर सकता है : और मैं? मैं क्या हूँ?
‘जानते हैं, अनूप साब,’ इरफ़ान ने पतंग को उत्तरोत्तर ऊपर जाने देते हुए, अचानक अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘कहा जाता है कि सम में अगर आप एक भी ग़लत मुद्रा इख़्तियार करते हैं, अगर एक भी स्वर ग़लत गाते हैं, तो आप न सिर्फ़ अपने शरीर को क्षति पहुँचा सकते हैं, बल्कि इस विश्व की उस बड़ी शक्ति के साथ का अपना रिश्ता भी तोड़ सकते हैं जिस तक पहुँचने की आप कोशिश कर रहे थे।’
‘खै़र, मैं इतना क्रूर नहीं हूँ। मैं आपको दूसरा टेक देने के लिए हमेशा तैयार हूँ!’
उसने मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में सलवटें उभर आयी थीं। ‘लेकिन जो यक़ीन या धोखा हम अपने काम में लाते हैं न, मैं जानता हूँ, मैंने देखा है, वह सीधे उस चीज़ में बदल जाता है जो आपकी ज़िन्दगी को ख़ूबसूरत बनाता है या फिर हमें राक्षसों में बदल देता है।’
उस शाम, जब हमने उस दृश्य की शूटिंग शुरू की जिसमें उम्बर, अपने बेटे कँवर की बीवी, नीली के साथ बलात्कार करने की कोशिश करता है, तो इरफ़ान ने बिना किसी अनिश्चय के खुद को अपने अन्दर के राक्षसीपन के लिए उन्मुक्त कर दिया था।
जिस चरित्र, उम्बर, का अभिनय वह कर रहा है उसे किसी भी क़ीमत पर एक बेटा चाहिए, और उसे अहसास हो जाता है कि यह क़ीमत न सिर्फ़ उस स्त्री का अपवित्रीकरण है जिसे उसका बेटा प्यार करता है, वह न सिर्फ़ उसका अपना अपकर्ष है, बल्कि, शायद, अपने बेटे के प्रेम की क्षति है, जो उसके लिए सबसे ज़्यादा दुखदायी बात है।
इस दृश्य की शूटिंग के पहले मैंने इरफ़ान को यह बता दिया था कि जहाँ उम्बर ने यह निश्चय कर लिया है कि वह नीली के साथ बलात् संसर्ग करेगा, वहीं उतना ही उसका निश्चय यह भी था कि वह उसे चोट नहीं पहुँचाएगा या डराएगा नहीं। बावजूद इसके कि यह बात अपने में विरोधाभासी और भ्रामक थी, इरफ़ान उसे तुरन्त समझ गया था।
एकबार फिर, उसे उस दृश्य में अभिनय करते हुए देखकर मुझे लगा था कि इरफ़ान ने अपनी आवाज़ के स्वरमान में उतार-चढ़ाव और बदलाव लाते हुए अपने शरीर को परिचालित किया था।
नीली हवेली से बाहर भागने की कोशिश कर रही है। जब इरफ़ान उस तक पहुँचता है, तो वह उसके कन्धों को पकड़ता है और उसे तर्क देने की कोशिश करता है। उसकी आवाज़ में दृढ़ता किन्तु सहिष्णुता है, वह लगभग सहानुभूतिशील है। और फिर, अपने सिर के हल्के-से मोड़ से वह जता देता है कि उसे अपने शरीर से सटे नीली के शरीर की धड़कन का अहसास है। अब वह जिस तरह से उसका नाम लेता है वह अलग है और हम उसके चेहरे पर एक विचार की, एक संवेग की, एक चाहना की कौंध देखते हैं। उसका हाथ, उसकी खुली हथेली, नीली के नितम्बों पर फिसलती है और वह उसे अपने शरीर से चिपका लेता है। वह एकबार फिर उसे उसका नाम लेकर पुकारता है। इस बार उसकी आवाज़ अटकल से, उम्मीद से स्फीत है। उसमें नीली की आकांक्षा है, लेकिन और भी कुछ है। उसमें एक सम्भावना का संकेत है, यह अहसास कि अन्ततः उसकी गहनतम इच्छा पूरी हो सकती है - एक पुत्र का पिता होने की आकांक्षा। एक वास्तविक पुत्र।
वे ज़मीन पर गिर जाते हैं। इरफ़ान भरसक हल्के-से उसे दबाता है। वह उसे कुछ इस तरह अपनी कैफ़ियत देने की कोशिश करता है जैसे वह किसी बच्ची को कैफ़ियत दे रहा हो और पल भर के लिए उसकी आवाज़ किसी लोरी की तरह सुनायी देती है। इसीके नतीजे में वह अपने हाथ से उसका माथा सहलाता है। उस परिस्थिति में वह कमाल की बेमेल भंगिमा है, एक ऐसे समय में जब वह उससे बलात् संसर्ग करने की कोशिश कर रहा है, उसे ढाढस बँधाने और शान्त करने की एक भयानक कोशिश!
जब कँवर अचानक प्रकट हो जाता है, तो इरफ़ान जो शर्मिन्दगी महसूस करता है, उसे उसकी आवाज़ रोक नहीं पाती। लेकिन क्योंकि उसे यक़ीन है कि यही उसके पिता बनने का क्षण है, वह अपने आत्मसंयम के खि़लाफ़ संघर्ष करता है और उस स्नेहिल, कठोर और अमोघ लहज़े को वापस हासिल कर लेता है जिसका इस्तेमाल वह कँवर पर हमेशा करता रहा है। तब भी, उस लहज़े को एक पल से ज़्यादा देर तक क़ायम नहीं रख पाता। बावजूद इसके कि वह कँवर से चले जाने को कहता है, उसकी आवाज़ टूट जाती है। वह मुड़ता है और नीली के सीने पर सिर रखकर रोने लगता है। लेकिन, तुरन्त ही वह कँवर पर फिर-से गुर्राने लगता है।
ये भावनात्मक रूपान्तरण कई हैं, और एक भाव से दूसरे भाव पर जाने की क्रिया बहुत क्षिप्र है। लगता है जैसे इरफ़ान ने आवाज़ और शरीर के बीच परस्पर आवाजाही की क़ाबिलियत हासिल कर ली है। मुझे लगा था जैसे उसने कई स्तरों पर सहज ढँग से, लेकिन एकाग्र ढँग से अकेले में की गयी रिहर्सलों और सैट पर भी, इस बात को गहराई से समझ लिया था कि किसी ख़ास दृश्य में उसके लिए उत्प्रेरक भंगिमा क्या होगी - आवाज़ या आंगिक अभिनय।
जब मैंने इरफ़ान से उसके आंगिक अभिनय और आवाज़ की इस आवाजाही के बारे में कहा, तो उसने कहा था कि, ‘यह उस पत्ते की तरह है जो पेड़ से गिरता है। उसे ठीक पेड़ के नीचे गिरना चाहिए, लेकिन थोड़ी-सी भी हवा उसे उस जगह से बहुत दूर ले जा सकती है जहाँ हम सोचते हैं कि उसे होना चाहिए।’
‘मुझे आपकी बात ठीक-से समझ में नहीं आयी।’
‘हम सभी सोचते हैं कि दृश्य में इस मुक़ाम पर और उस मुक़ाम पर क्या-क्या कर सकते हैं, और पूर्वाभ्यास उन मुकामों को स्पष्ट करने में हमारी मदद करते हैं। लेकिन जब आप वास्तव में दृश्य में होते हैं, तो आपके साथी कलाकार की स्थिति में मामूली-सा बदलाव भी आपकी सारी तैयारियों को चौपट कर देता है। अचानक कोई और ही चीज़ आपसे बात करने लगती है। यह कुछ ऐसा है जैसे आपके सामने किसी दानव या देव ने खुद को प्रकट कर दिया हो।’
मैं कौतूहल से भरा हुआ था। मैंने भौंह उठाकर उसकी ओर देखा। ‘दानव या देव?’
‘अब आपसे दृश्य या अभिनेता बात नहीं कर रहा होता है, यह हमारे भीतर छुपी हुई कोई चीज़ होती है, विश्व के भीतर छिपी हुई। इसका ताल्लुक इस बात से होता है कि जीवन और मृत्यु को हम वास्तव में क्या क्या मानते हैं।’
‘यह चीज़ भयानक हो सकती है।’
‘या इसका उलटा। आपने तिलोत्तमा के साथ दुविधा की स्थिति देखी होगी, उसकी आँखों में खोजने का भाव। वह महज़ अभिनय नहीं करती। आप पाते हैं कि वह अपनी हरेक हरक़त को लेकर असहज होती है। यही चीज़ उसे सशक्त अभिनेत्री बनाती है। उसके मामले में भाव महज़ प्रदत्त नहीं होता। आप भाव को खुद को हासिल करता हुआ देखते हैं। आप उसमें यह देखते हैं। यह खुलापन, अनूप साब, जीवन का खुलापन है। आप इसे अभिनय में नहीं उतार सकते। और यह ऐसी चीज़ भी नहीं है जो आपको पैदा होने के साथ मिल जाती हो।’
अब मैं सहमति की मुद्रा में सिर हिला रहा था। ‘आपने इसे जिया है। हर क्षण। यह चीज़ साहस की माँग करती है।’
‘उसमें साहस है।’
तिलोत्तमा के बारे में इरफ़ान जो कुछ कह रहा था, उससे मुझे आश्चर्य नहीं था। जिस चीज़ ने मुझे छू लिया था वह उसका (इरफ़ान का) गहरा चौकन्नापन था, युवा अभिनेता के एक-एक चारित्रिक लक्षण पर उसकी गहरी नज़र और उसे सीखने तथा स्वयं अपने आचरण में उसे जीवन्त ढँग से ढाल लेने की काबिलियत।
कुछ गिने-चुने मामलों को छोड़ दिया जाए तो, इरफ़ान शूट से पहले पूरी तरह सहज प्रतीत होता था। यह समझने में मुझे कुछ वक़्त लगा कि उसकी यह सहजता हमेशा अच्छी तरह तैयार होने से आती थी। वह हमेशा रिहर्सल करता रहता था, उस वक़्त भी जब वह कुछ भी नहीं करता लगता था।
हो सकता है कि अपना मेक-अप करा चुकने के बाद या शूटिंग के अन्तराल में पंजाब के हरियाले लैण्डस्केप में पतंग उड़ाने के बाद, वह चाय पी रहा हो, लेकिन मैं दूर से भी उसके हाथों के उठने-गिरने से, उसकी मुद्रा में आये घुमाव या ठहराव से, यह अनुमान लगा सकता था कि वह बहुत धीमी आवाज़ में कोई संवाद बुदबुदा रहा होता था।
कभी-कभी मैं उसे महज़ गाते हुए सुनने का आनन्द लेने उसके पास पहुँच जाता था। ऐसे भी वक़्त आते थे जब संवाद की ध्वनि के साथ उसकी क्रीड़ा मुझे कैमरे की रफ़्तार पर पुनर्विचार करने के लिए या दृश्य की लय को सम्पादित करने के लिए प्रेरित करती थी। मैं यह देखकर सम्मोहित हो जाता था कि वह किस तरह किसी विचलित कर देने वाले विराम से आरोह-अवरोह का सामना कर सकता था, किसी अप्रत्याशित उच्चारण में विराम को उन्मुक्त कर सकता था, किसी कर्कश व्यंजन पर हमला करते हुए उसे अनुप्राणित कर सकता था, किसी मन्द्र प्रवाह को तीव्र बनाते हुए, उसे सहसा खींचकर किसी लय में बदलते हुए उसे तबाह कर सकता था। यह निश्चय ही वही चीज़ है जिसे हम सिनेमा के सर्वश्रेष्ठ अर्थ में ‘मोन्ताज’ कहेंगे! उसके गाने में, ध्वनि के सारे तत्त्वों के परिवर्तित होते सम्बन्ध और टकराव उस संगीत के स्तर पर उठ जाते हैं जो, उसका अभिनय देखने के क्षण में, हमें असहाय और वध्य बना देता है और दुनिया तथा हमारे बीच अन्तहीन नये वार्तालापों की शुरुआत कर देता है।
एक वार्तालाप हम दोनों के बीच हमेशा चलता रहता है। कोई शब्द, कोई लहज़ा, कोई विचार, जो किसी दिन हमारे मन में आया हुआ था, वह ह़तों बाद किसी भिन्न सन्दर्भ में हमारे पास आसानी-से लौट आ सकता है। और हम फिर शुरू हो जाते हैं!
उसकी मृत्यु के बाद भी, मैं शायद ही कभी यह महसूस करता हूँ कि हमारी बातचीत थम गयी है।
आवाज़ में कोई चीज़ होती है जो, चेहरे से भी ज़्यादा, हमारे साथ बनी रहती है। वह दिमाग़ में बनी रही गयी कोई गुनगुनाहट होती है, कोई गीत होता है। कभी-कभी हवा की गुनगुनाहट, दरवाज़ा बन्द करने से पैदा हुई चररमरर, किसी परिन्दे की पुकार, उसे अनुगूँज के रूप में वापस ले आती है। उसकी आवाज़ सम्भावना के रूप में मेरे आसपास बनी रहती है, कोई भी स्पन्दशील वस्तु फिर-से बातचीत की शुरुआत कर सकती है।
क़िस्सा की शूटिंग किये हमें लगभग दस बरस हो चुके हैं, लेकिन ये पंक्तियाँ लिखते हुए, उसकी वह सौगात, वह हर्मन कॉर्डान पोर्टेबल ब्ल्यूटूथ स्पीकर, आज भी मेरे घर को नुसरत साब की एक और क़व्वाली से भर देता है।

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