23-Mar-2022 12:00 AM
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एक वक़्त ग़ालिब में मेरी गहरी रुचि जागी। इस महान शायर की ग़जलों के अंग्रेज़ी अनुवाद की एक पुस्तक मुझे मिली थी। उनके अभिप्राय पूरी तरह मेरी समझ के परे थे तब भी वे मुझे मोहती थीं। शब्दों के परे कुछ अवश्य था जिसे मैं पकड़ने की कोशिश करता, पर वह खो जाता।
उसके लगभग बीस साल बाद, दिल्ली में इन अनुवादों को पहली बार पढ़ने के अवसर पर मेरा साक्षात्कार ले रहे दूरदर्शन के पत्रकार को जब मैंने यह बात बतायी, तो वे हँस पड़े। अचरज भी किया कि जब समझ ही नहीं आ रहा था तो मैं उन्हें पढ़ता कैसे रहा।
मैंने भी सोचा कि ऐसा कैसे हुआ होगा। तब मेरी उम्र पैंतीस के करीब रही होगी। मुझे अध्ािकांश यूरोपीय कविता का अनुभव था। पूर्वी यूरोपीय देशों के कवियों में मुझे विशेष रुचि थी। उस समय वहाँ राजनैतिक सांस्कृतिक कारणों से सशक्त अस्तित्ववादी काव्य लिखा जा रहा था।
लेकिन ग़ालिब इन सबसे भिन्न थे। यूरोपीय कविता में मुश्किल से ऐसा कुछ मिलता, जो ग़ालिब के सरोकारों से मेल खाता हो। वे जिस सोच को खड़ा करते, उसे खण्डित भी कर देते। अपने ही शब्दों को शक और बेवफ़ाई के घेरे में गहरे और शिद्दत से खड़ा कर देते, कि यह नकारापन उनकी शायरी का खास वादी स्वर हो गया था।
बेपनाही पर उनकी शायरी को देखिये, जिसमें वे ख़ाक हो जाने तक असलियत तलाशने की बात कहते हैं। इस बिन्दु पर पश्चिमी अनास्थावादी (निहिलिस्ट) ‘कुछ नहीं बचता है’ कहते। क्योंकि वे आखि़री में अपनी पहिचान और संस्कृति के नाश होने की बात करते हैं। जबकि प्राचीन यूनानी के लिए मृत्यु सबसे पहले स्मृति के लोप होने के समान होती थी।
ग़ालिब मुस्लिम होते हुए भी उस पारम्परिक भारतीय सोच के क़रीब थे, जिसमें जीवन अनेकों एवं अनन्त जन्म जन्मान्तरों का समन्वय होता है। और जहाँ स्मृति परालौकिक स्तर पर मृत्युहीन रही आती है। जिस बिन्दु पर आकर पश्चिमी अनास्थावादी के लिए ‘रास्ते की समाप्ति’ होती, वहाँ से ग़ालिब का अनुच्चारित कथन आरम्भ होता है। अनुच्चारित इसलिए नहीं कि वे उसे जानते समझते नहीं थे, बल्कि वे उस बनती-बिगड़ती समझ की लाचारी को शब्दों में कहना ग़ैरज़रूरी समझते।
मैंने सोचा कि ग़ालिब में इतालवी पाठक की रुचि इसलिए भी होगी, क्योंकि वे अपनी लाचारी को पूर्णतः समर्पित थे। ये पाठक किसी भी पश्चिमी कवि के घोर एकाकीपन से अध्ािक विषाद ग़ालिब में पाते। क्योंकि जीवन में कुछ भी समाप्त नहीं होता। बाॅदलेयर और ग़ालिब के बीच अनेक समानताओं के बावजूद ये भेद साफ़ नज़र आते हैं।
ग़ालिब के बारे में ये कुछ बातें थीं जिन पर मुझे काम करना था, न केवल अपनी पसन्द को समझने, बल्कि उन्हें इतालवी पाठक के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए। तब मेरे सामने यह स्पष्ट था कि मुझे ऐसी ग़ज़ल चुनना होगा जैसे ‘रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो। हमसुख़न कोई न हो औ’ हम जुबाँ कोई न हो....
पर मैं यहाँ तक पहुँचा कैसे?
उर्दू में ग़ालिब का पहला शेर मैंने मणि कौल की बहन से सन् 2002 में सुना था ‘आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक। कौन जीता है तेरे जुल्फ के सर होने तक...’ अपनी पीढ़ी के लोगों की तरह, उनके पिता ग़ालिब की शायरी के शौकीन थे। बच्चों में यह रुचि उनसे ही आयी।
जब ग़ालिब को इतालवी भाषा में अनुवाद करने की बात मैंने मणि कौल से कही तो उन्होंने सुझाया कि मैं कवि, चिन्तक और बुद्धिजीवी अशोक वाजपेयी से सम्पर्क करूँ। क्योंकि वाजपेयी ने बरसों ग़ालिब का अध्ययन किया था। मैंने वाजपेयी में ऐसा कल्पनाशील और विद्वान व्यक्ति पाया जो शोध्ा करते हुए अपने विषय को रसहीन कर देने वाला विशेषज्ञ नहीं था।
उसी दौरान मैं एक जापानी विद्वान के साथ मिलकर हैयन वाका का इतालवी और अंग्रेज़ी में अनुवाद कर रहा था। सन् 2004 में टोक्यो जाकर मैंने उस काम को आगे बढ़ाया। आरम्भ में उन्होंने मुझे टेंग शैली में लू सिह से अवगत कराया। यह छन्दों में बंध्ाा ऐसा काव्य रूप था जो संस्कृत, पश्चिमी एशिया और यूरोपीय काव्य के निकट था। उसके कुछ समय बाद उन्होंने जापानी वाका पद्धति का वर्णन आरम्भ किया। यह अनुस्वार-मय ऐसी लचीली चीज़ थी जिसमें न्यूनतम रूप के अलावा सब कुछ त्याज्य था।
यहाँ एक बात कहना चाहूँगा कि- ग़ालिब हों या शास्त्रीय जापानी काव्य- दोनों ही के अनुवादों को करते समय मेरे साथी मूल भाषा को जानने वाले थे, जिनकी मदद से मायनों और सुझावों को मैं इतालवी में अनूदित कर सका। ऐसी पद्धति एंग्लो-सेक्शन परम्परा में प्रचलित रही है। क्योंकि ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती है कि एक ही व्यक्ति शोध्ा भी करे और कवि कर्म भी करे। दोनों में सहयोग अपेक्षित है। ऐसा नहीं कि मैं मूल भाषा में कविता समझता नहीं, पर यह अध्ाूरा ज्ञान है। इसीलिए मैं अपना ध्यान इतालवी पक्ष पर केन्द्रित रखता हूँ।
जापानी साथी ने मुझे वाका के विशेष और अनूठे आशयों से अवगत कराया जो कि उनमें प्रवेश करके ही सम्भव थे। वाका का यह अनूठापन इसलिए भी था क्योंकि इनके संयोजन भूदृश्यों और अन्य स्थानों के बारे में जताते थे, ऐसे गठन को ‘उत्माकूरा’ या कविता का आरम्भ बिन्दु कहा जाता है। इसमें प्रवेश करने के बाद ही आप समझते हैं कि आप कहाँ हैं और कवि ने किस अनूठेपन से इसे रचा है। इससे आप भूदृश्यों में कवि के आशयों को और मिज़ाज को बेहतर जान पाते हैं। एक अच्छे वाका में मूल मानवीय संवेदनाओं जैसे प्रेम, चाहत, हताशा या आध्यात्मिक सन्तुष्टि आदि का बोध्ागम्य काव्य मिलता है।
टोक्यो के अनुभवों ने मुझे कविता को गहराई से विश्लेषित करने और समझने की सीख दी। गम्भीरता से अनुवाद करने की शुरुआत भी यहीं से हुई। अपने साथी से मूल पर चर्चा करने के बाद मैं उन्हें इतालवी और अंग्रेज़ी में काव्य रूप देने में लग जाता। उन पर सैकड़ों घण्टे अकेले काम करते हुए ऐसा लगा कि प्रत्येक कविता पर मन स्थिर कर, ध्ौर्य और सावध्ाानी से कवि की उस मूल प्रेरणा तक पहुँचना अनिवार्य है, जो बाद में विचारों को शब्द रूप देने लगती है। अनुवादक के लिए ऐसा कर पाना सम्भव है, भले ही उससे चूक हो जाए या वह ऐसा न कर पाए। इसमें ध्यान की एकाग्रता का होनी ही चाहिए।
टोक्यो में मैं अपने पर ही निर्भर था। मुझे किसी ने कभी नहीं बताया कि यह कैसे किया जाए। बाद में मैं यह समझ सका कि मेरे गुरु वेदप्रकाश ने मुझमें यह सीख स्वयं दे दी थी। आप गुरु के प्रति कभी पूरी तरह उपकृत नहीं हो सकते। क्योंकि यह हमारी समझ की सीमा के बाहर है।
ग़ालिब पर लौटते हुए यह कहना ज़रूरी है कि उर्दू ग़ज़ल और जापानी वाका के बीच कुछ ख़ास समानताएँ हैं। इसकी वजह इन दोनों काव्य ध्ााराओं में निहित गति के बोध्ा का होना है। हम उन तमाम प्रभावशाली तरीक़ों का जि़क्र कर सकते हैं जैसे प्रतीक, अध्ाकहा कथन या उच्चारने का संक्षिप्तीकरण आदि जो महत्वपूर्ण हैं किन्तु अन्ततः शब्द उन आशयों को ढोते हैं जो पूरा काम करते हैं। ग़ज़ल और वाका दोनों में ही इस इहलौकिक गति के होने की समानताएँ हैं।
की नो सूरायूकी, दसवीं शती के जापानी कवि ः
देखा नहीं कोई, ऐसा लगा,
शिखर मैं पार करता गया ः
नीचे जल में छाया थी मेरी
सन् 2005 में जापान में दो माह काम करने के बाद मैं अशोक जी के साथ काम करने के लिए तैयार था। उनके साथ भी उसी तरह काम कर सका जैसा टोक्यो के विद्वान के साथ कर रहा था। अशोक जी शेर को मूल भाषा में पढ़ते और कठिन शब्दों को समझाते जाते, जिससे मैं मूल के मर्म तक पहुँच सकूँ। फिर वे शेर को अंग्रेज़ी में मेरे सामने ही अनूदित कर देते, इससे मुझे उसका एक कच्चा ख़ाका मिल जाता। फिर हम मूल की हर नज़रिये से चर्चा करते। अक्सर एक-एक शेर पर चर्चा में पूरी सुबह गुज़र जाती।
जब हम दोनों को लगता कि शेर अपने ध्ारातल से ऊपर हवा में ऐसा उठ आया है कि अब न तो उर्दू का रहा, न ही अभी इतालवी का हो सका है, तब कविता की चिडि़या मेरी गिरफ़्त में आ जाती। और मैं कमोबेश साथ ही उसको इतालवी में पूरी तरह कर पाता।
जापानी अनुवाद से अलग, ग़ालिब का अनुवाद करते हुए मैं बाद में शायरी को देवनागरी में स्वयं पढ़ता, अशोक जी के बताए से तुलना करता, अन्य अनुवादों से भी जाँच करता और ज़रूरी लगा तो बदलाव करता (कहीं दुविध्ाा आती तो अशोक जी की बात ही अन्तिम होती) केवल तभी मेरा काम पूरा होता।
बाद में अनुवाद पूरा होने और इसके सार्वजनिक पाठ के बाद इटली के दो विद्वानों डेनियेला ब्रेडी और जियान्रोबर्तो स्कार्सिया ने मेरे प्रयासों की सराहना की। एक अन्य प्रोफ़ेसर जो उर्दू से परिचित थे, उन्होंने भिन्न बात कही कि उर्दू भाषा इतालवी भाषा से बहुत अलग है क्योंकि दोनों में गहरी सांस्कृतिक दूरियाँ हैं। इसलिए मूल का स्वाद इतालवी में देना असम्भव है। मुझे आश्चर्य और शक भी हुआ कि वे ऐसी बात क्यों कह रहे हैं, क्योंकि वास्तव में तो इन दोनों साहित्यिक भाषाओं में जितना प्रतीत होता है, उससे अध्ािक समानताएँ हैं।
मध्यकालीन यूरोपीय काव्य, विशेषतः सिसली, तुष्कन और प्रादेशिक कविता का विकास उस दौर में हुआ जब ईरान पश्चिमी एशिया की सबसे विकसित सभ्यता के रूप में उभर चुका था। अपने विकास के आरम्भिक दौर में एवं प्राचीन यूनान और रोम के खण्डित होने के बाद और सांस्कृतिक विकास क्रम टूटने के बाद, पश्चिम पर ईरान का असर ही रहा। मध्यकालीन यूरोपीय काव्य में निश्चित ही ईरानी संस्कृति और उसके रहस्यवादी काव्य का असर मिलता है। गुलाब, बगीचा, हूर, प्रेमिका आदि सब पश्चिमी काव्य के भी परिभाषिक प्रतीक बन चुके थे। ईरान ने इन्हें अपनी पम्पराओं से भावभूमि, ऊष्मा, सूक्ष्मता और विविध्ाता के रंग दिये। विद्वान ऐसा मानते हैं कि दांते अली-घिरी जो एक महानतम यूरोपीय कवि थे, के काव्य में ऐसे महत्वपूर्ण प्रभाव मिलते हैं।
इसी दौरान ईरानी काव्य परम्पराओं का भारत की ज़मीन पर भी रोपण हुआ, जिसके फलस्वरूप उर्दू ग़ज़ल का जन्म हुआ। पाँच सौ साल बाद इसकी ही आखि़री विरासत की कड़ी में ग़ालिब उभरकर आये। इसके बावजूद ईरानी परम्पराएँ इस तथ्य को झुठलाती हैं कि ग़ालिब को भारतीय सोच और वेदान्त ने बहुत समृद्ध किया था। इस तरह ग़ालिब के माध्यम से इटली के पाठक को न केवल परिष्कृत उर्दू ग़ज़ल मिली, बल्कि उसमें निहित गहन भारतीय सोच का उपहार भी मिला।
आज ग़ालिब की पहिचान अत्यन्त आध्ाुनिक और कई नयी ध्ााराएँ रचने वाले शायर की है जो परम्पराओं का लिहाज करते थे, पर उसकी जकड़न से छुटकारा भी चाहते रहे, इतना कि वे भंग न हों।
उर्दू और इतालवी भाषा के बीच वास्तविक समानताओं को जाँचने के लिए इनके विन्यास, व्याकरण और इनकी मानसिकता को परखना होगा। पहले तो व्यक्तिवाचक सर्वनाम ‘उसका-उसकी’ को देखें, इनके स्थान पर इतालवी में ‘सुओ-सुआ’ होता है। जो अंग्रेज़ी के ‘हिज-हर’ से भिन्न है। इतालवी में भी वस्तु का लिंग वस्तु के आध्ाार पर तय किया जाता है, इस आध्ाार पर नहीं कि वह किसकी है। यह भाषा को बारीकी से या उसके विरोध्ााभासों को दर्शाने में सहायक होता है, विशेषकर उन भाषाओं के बानिस्बत जिनमें ये भेद नहीं है।
भाषागत इन बातों ने मेरी मदद की। दोनों भाषाएँ सैकड़ों वर्षों के व्यवहार में आकर कोमल हुईं हैं। अतः काव्य अभिव्यक्ति के लिए एकदम उपयुक्त हैं। दोनों के वाक्य विन्यास में लचीलापन है। सबसे खास बात है ईरानी विरासत से इन दोनों भाषा को मिला अवदान।
एक अच्छी बात ये है कि उत्तरी यूरोपीय देशों की तुलना में इटली के भीतर नस्लवादी और सांस्कृतिक पूर्वग्रह अपेक्षातः अत्यन्त नगण्य रहे हैं। इसका असर भाषा के तानों-बानों पर पड़ता ही है। वे शब्द जिन्हें विदेशी (एक्जोटिक) कहा जाता है, ऊपरी तौर पर ऐसा कहना सामान्य लगता है पर दरअस्ल सामान्य होता नहीं। इसका एक अच्छा उदाहरण एडवर्ड सईद ने दिखाया है, ‘ओरिएंटल’ शब्द में, जिसके उपयोग में निहित आशय में एशिया के ध्ार्म और संस्कृति सम्बन्ध्ाी असंख्य पूर्वगह और दोष मिलते हैं।
इतालवी भाषा में ऐसी समस्याएँ न्यूनतम हैं क्योंकि अट्ठारवीं और उन्नीसवीं शती में इटली ने अन्य देशों पर औपनिवेशिक शासन नहीं किया। उस समय यह चरम पर था जब पश्चिमी देश दूसरों पर अपनी प्रभुता प्रमाणित करने में लगे हुए थे। दाँते की भाषा, इस तरह अद्भुत रूप में शुद्ध है। इसी कारण ग़ालिब को इतालवी में अनुवाद करते समय मुझे वैसी कठिन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा।
आखिरी में अपने इतालवी पाठकों को यह भी मैं बताना चाहता था कि अपनी सारी दुरूह बातों के बावजूद ग़ालिब पहले और आज तक, सड़क के आम आदमी तक बहुत प्रचलित रहे आये हैं। वे न केवल पाठकों में बहुत पसन्दीदा रहे, बल्कि बेगम अख़्तर और ग़ुलाम अली सरीखे गायकों द्वारा गाये जाते रहे हैं ः
...दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाए क्यों...
मैंने अपने अनुवाद सबसे पहले सन् 2006 में दिल्ली में इटली के दूतावास में पढ़े थे। अशोक वाजपेयी वहाँ मौजूद थे और उन्होंने मूल भाषा में ग़ज़लें पढ़ी थीं। बाद में मेरे ये अनुवाद इटली की साहित्यिक पत्रिका ‘प्रागीन’ में छपे।
इसके बाद इनके दो पाठ रोम में आयोजित किये जा चुके हैं, जिसमें से एक वहाँ के भारतीय दूतावास के तत्वाध्ाान में सम्पन्न हुआ। हाल में मैं ग़ालिब की ग़ज़लों के संकलन की एक पतली सी पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी कर रहा हूँ।