जब पीछे मुड़कर देखता हूँ - के.जी. सुब्रमणियम
12-Dec-2017 12:00 AM 5000
बांग्ला से रूपान्तर : रामशंकर द्विवेदी
 
गत अड़तालीस बरसों से मैं मालावार नहीं जा सका हूँ। हालाँकि वहीं मैं जन्मा था और शुरूआत के सोलह बरस वहीं बिताये थे। वे मेरे बड़े होने और गढ़े जाने के बरस थे। उन बरसों की अवधि में मैंने जो कुछ संचित किया, वही जीवन-भर साथ बना रहा।

 

मेरे पिता पालघाट के थे और माँ त्रिवांकुर की थी। पालघाट मालावार के तमिल सीमान्त की एक चौकी थी। त्रिवांकुर में भी कुछ तमिल भाषी लोग इधर-उधर बिखरे हुए हैं। इसका फल यह हुआ कि मैं दो संस्कृतियों के बीच बड़ा हुआ हूँ- तमिल और मलयाली। घर में तमिल संस्कृति और बाहर मलयाली। पालघाट में बिताये दिनों की आज कुछ विशेष याद नहीं है, सिर्फ़ यही स्मरण है कि जब हम लोग कोलापति के पास की गली में रहते थे, तब इतने छोटे थे कि विचित्र और अच्छी-भली जन्मदिन की पोशाक में दौड़ते-भागते फिरते थे। फिर जब कुर्ता, जांगिया पहनने लगे थे, तब थोड़ी-सी दूरी पर प्राइमरी स्कूल के पास एक और घर में रहने लगे थे। मेरा स्वास्थ्य ज़रा भी अच्छा नहीं था। इसलिए मुझे स्कूल नहीं भेजा गया था। घरेलू शिक्षक की व्यवस्था की गयी थी जो मुझे ज़ी, मलयालम और तमिल पढ़ाने घर आया करते थे। वह भद्र व्यक्ति अत्यन्त शान्त तथा शिष्ट प्रकृति के थे और मेरी नानी जो हमारे यहाँ बीच-बीच में चक्कर लगा जाती थीं अक्सर उसके पास ही शिकायत करती हुई कहती थीं कि जब तक मेरी पीठ पर दो-चार बेंत नहीं टूट जाएँगे, तब तक मेरी पढ़ाई विशेष रूप से आगे नहीं बढ़ेगी।
 
किन्तु वे इस प्रकृति के थे ही नहीं, मैंने भी उन्हें बेंत तोड़ने का कोई अवसर नहीं दिया। पढ़ाई-लिखाई का काम मैं बड़ी सहजता से कर डालता था। उसके बाद मुझे घर में खिड़की के रास्ते नदी के किनारे घूमने-फिरने अथवा मन्दिर के रथ के नीचे खेल-कूद करने का काफ़ी समय मिल जाता था। रथ में कलात्मक खुदाई का काम मुझे अक्सर विचारों से भर देता था, और वही काम मेरे जीवन में किसी कलात्मक काम का पहला अनुभव था। यद्यपि शिल्प किसे कहते हैं, उस समय इसकी थोड़ी ही धारणा थी। उस उम्र में जो चीज़ बुरी तरह मेरा मन खींचती थी, वह थी एक घुमक्कड़ नाट्य दल का नाटक जिसे मैं माँ के साथ जाकर देखता था। मुझे साथ में ले चलने में माँ को कोई आपत्ति नहीं थी, क्योंकि अन्य बच्चे घें-घें, पें-पें कर परेशान करते हुए अपनी माँओं को मारते तक थे, वहीं मैं शान्त और एकाग्रमन नाटक देख कर उन्हीं महिलाओं से शाबासी पाता था। नाटक की अद्भुत आलोक सज्जा, संगीत, सजावट और विविध उपकरण, भावावेग का उतार-चढ़ाव तथा मायाजाल की कारामात, ये सब चीजें मिलकर मुझे एकदम हक्का-बक्का कर देती थीं। उसके बाद लम्बे समय तक वही सब नाटक मेरे दिमाग़ में भरे रहते थे, अपने आसपास जो भी देखता और सुनता था, उस सब के ऊपर एक अद्भुत स्वप्निल आलोक-सम्पात होता रहता था। फिर मेरे आसपास के यथार्थ को कल्पना में घुला-मिला देता था।
 
जब हम लोग पालघाट छोड़कर मालाबार में रहने चले गये, उस समय भी मैं बहुत छोटा था। बाबा ने नौकरी से अवकाश ले लिया था और मेरे बड़े भाई (जो उम्र में मुझसे पच्चीस बरस बड़े थे) माहे के (जो उस समय एक फ्राँसीसी बस्ती थी) एक अँग्रेज़ी स्कूल में वाइस प्रिंसिपल के पद पर आसीन हो गये थे। यह माहे अंचल कालिकट और कान्नानूर के बीच पर मालावार उपकूल पर स्थित एक जगह पर था। दादा उस समय माँ और बाबा को समझाकर पालघाट से उनका सामान समेटकर सभी को लेकर अपने उसी स्थान पर चले आये थे।
 
शुरू-शुरू में हम लोग माहे शहर के बाहर रहते थे, वह स्थान पड़ता था ब्रिटिश-भारतीय सीमा के भीतर। हम लोग पहाड़ पर स्थित एक विशाल नरकट से छाये घर में रहा करते थे। घर के थोड़ा ऊपर चढ़ते ही पर्वत-शिखर पर पहुँचा जा सकता था जहाँ से एकदम खड़ी ज़मीन समुद्र की तरफ नीचे उतरती चली गयी थी। विशाल अरब सागर क्षितिज तक फैला हुआ था। नीचे समुद्र तट था सफ़ेदी और दरारों से अटा हुआ, जिस पर यहाँ-वहाँ काली-काली, गोल चट्टानें पड़ी हुई थीं, जो दूर से देखने में हाथी के बच्चे की तरह लगती थीं। घर के बाँयी ओर घना जंगल था और वहाँ पर एक सर्पोद्यान था। साँपों का वह क्षेत्र अनेक तरह के सरीसृप और चूहों और छछूँदर से गिजगिज करता रहता था और कर्कश स्वर में बोलने वाले सियारों के दल दिन के हर प्रहर में वहाँ दौड़ते-फिरते थे। कभी-कभी एक-दो साँप हमारे सरपत के छप्पर पर चढ़कर बैठ जाते थे। हम लोग उन्हें देखते थे कि वे वर्गों से होकर टेढ़े-मेढ़े चले जा रहे हैं। उन्हें देखने के हम इतने अभ्यस्त हो गये थे कि हमें ज़रा भी भय नहीं लगता था और माँ उनके दर्शन मिलने को एक शुभ संकेत ही मानती थी।
 
पहाड़ से नीचे उतरते ही धान का एक खेत पार करते ही भगवती देवी का मन्दिर पड़ता था। उसके सामने ही सरोवर था, जिसमें पूरे दिन लोग नहाया करते थे। उस समय भी मेरा शारीरिक स्वास्थ्य बहुत कमतर था, इसलिए मैं घर में ही बना रहता था। या कभी-कभी पहाड़ पर घूम आता था। या मन्दिर के चबूतरे पर चहल-कदमी करता रहता था और उसके काठ के कलात्मक काम के ऊपर की गयी रंगीन खुदाई पर नये उत्साह के साथ नज़र डालता रहता था। उस समय तक मैंने जो चित्रांकन करना शुरू कर दिया था, उसके अलावा घर के आस-पास बटोर कर लाये पत्थरों के टुकड़ों को काट कर छोटी-छोटी मूर्तियाँ भी मैं बनाने लगा था। कुछ बनायी और कुछ बटोरी गयी चीज़ों को जोड़कर एक डायोरम भी बनाया था। सारे दिन कुछ-न-कुछ बनाने का एक विचित्र नशा मुझे चढ़ गया था, समय मिलते ही मन्दिर की दीवारों पर खचित इन्द्रियों को मथते उस रंगीन काम को विशुद्ध आनन्द के साथ देखने का।
 
मेरे घर की महरी मुझे कुछ पिलाने के समय में यक्षिणी, परी, जादूगर और ओझाओं के क़िस्से सुनाया करती थी। मन्दिर के महाराज अथवा खजाँची शाम को घर आकर बाबा को पुरा-पड़ोस के दिनभर के सारे क्रिया-कलाप जल्दी-जल्दी सुना जाया करते थे। बाबा उन्हें हँसकर उड़ा दिया करते थे, किन्तु मैं उन्हें जी भरकर सुनता था। स्कूल की लाइब्रेरी के लिए बण्डल-के-बण्डल जो सब पुस्तकें आया करती थीं, उन्हें मैंने गोग्रास की तरह पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था। बाबा चित्रांकन करने मुझे स्याही और पेंसिल ला देते थे। अनेक विषयों को पढ़ाने के लिए मेरे घर एक शिक्षक भी आया करता था।
 
पकी आयु के माँ-बाप के पुत्र होने के कारण मैं मृत्यु की भावना से आक्रान्त रहा करता था। इसके बाद एक ही वर्ष के भीतर मेरी मामी के तीन-तीन, सुन्दर गोरे बच्चे एक रहस्यमय रोग से मारे गये, तब मैंने स्पष्ट रूप से समझ लिया कि मृत्यु के सामने कोई कानून नहीं चलता। मेरी उत्तेजना और उल्लास की भावनाएँ इस मृत्यु-चेतना के एकदम विपरीत थी, उस समय मैं जो भी देखता था, उसी से उत्तेजना से भर जाता था, सब कुछ मुझे कितना मायामय लगता था। मुझे इन दो विपरीत भावनाओं के बीच ही दिन गुज़ारने पड़ रहे थे। जगत को मैं जितना देखता जा रहा था और अनेक विषयों की जितनी पढ़ाई कर रहा था, उतना ही मैं अनुभव करता जा रहा था कि जीवन दरअसल अच्छे-बुरे का मिलाजुला एक भण्डारगृह है, जिसके एक भाग में मृत्यु और संघर्ष की छाया जुड़ी हुई है, और दूसरी तरफ छोटे-बड़े अनेक आकार-प्रकार के आनन्दों की वर्णच्छटा फैली हुई है। एक को फेंककर दूसरे को लेने का कोई उपाय नहीं है।
 
जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया, मेरी उम्र दस को छू रही थी। माहे के जिस स्कूल में मेरे बड़े भाई वाइस प्रिंसिपल थे, मैं उसी स्कूल में भर्ती हो गया। उन दिनों के स्कूलों में दस वर्ष के छात्रों को चौथे दर्ज़ा और छह सेक्शन में विभाजित किया जाता था। मुझे वर्ष के बीच में चौथे दर्ज़ा में भर्ती कर लिया गया। घर में पढ़ाई करने के कारण स्कूल में जो कुछ पढ़ाया जाना था, उसे मैं अच्छी तरह जान चुका था। इसके अलावा पाठ्यक्रम के बाहर मेरी पढ़ाई-लिखाई का विस्तार बहुत अधिक था। मेरा छवि आँकना तथा तूलिका के काम ने सभी की दृष्टि जल्दी आकर्षित कर ली थी। फलस्वरूप, जल्दी ही मैं क्लास के पहले पाँच लड़कों में चला गया था और अगले वर्ष से ही क्लास के एक और लड़के (जिसने कालिकट में इतिहास के अध्यापन से आजकल अवकाश ग्रहण कर लिया है) के साथ प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए मेरी लड़ाई छिड़ गयी थी।
 
स्कूल में प्रवेश करने के कुछ दिनों के भीतर ही हम लोग माहे शहर में रहने चले गये। मेरे लिए वह एक स्पष्ट रेखा मात्र थी- बचपन के मायावी, मनमोहक जगत से बाहर के वृहत्तर जगत में चले जाना। माहे एक अद्भुत शहर था, पहाड़ के आसपास पत्थरों से घिरा हुआ मोटे रूप में एक वर्ग मील ज़मीन में फैला हुआ। किन्तु, उसका एक फ्राँसीसी नियन्त्रक था, एक व्यक्ति मेयर था, न्यायालय था, न्यायाधीश था, एक मज़ेदार चेहरे की पुलिस की एक टुकड़ी थी, एक जेल था, अस्पताल, गिरजा, कॉनवेण्ट, दो-दो स्कूल एक फ्राँसीसी और दूसरा अँग्रेज़ी और एक सुन्दर बेकरी भी थी जिससे सारा दिन ताज़ी रोटी की मन को मत्त करने वाली गन्ध आती रहती थी। माहे में बिना महसूल के फ्राँसीसी बन्दरगाह भी था- जिसे फ्रीपोर्ट (मुक्त बन्दरगाह) कहते थे। वहाँ पर बीस से भी अधिक शराब की दुकानें थीं जो पूरे समय शराब में धुत्त लोगों और तस्करों (शराब, रेशम, हीरे और चाँदी के सारे तस्करों) से महकती रहती थीं और भगोड़े वहाँ आश्रय लिये रहते थे। कभी-कभी पाण्डिचेरी या वैसी ही किसी जगह से कौतुहल से प्रेरित लोग भी वहाँ आ जाते थे, उनमें से कोई कवि, कोई शिल्पी और कोई मानव शास्त्रविद् होता था। इसी तरह से एक बार वहाँ कुछ दिनों के लिए आ गया था एक पुरातत्वविद् जिसकी नज़र छोटे-छोटे बच्चों की ओर थी। इसके अलावा माहे में एक ब्रिटिश गुप्तचर था जो अपने को एक तुर्की के रूप में प्रचारित करता था। स्थानीय एक मुसलमान महिला के साथ रहता था और नदी में धार के विरुद्ध मीलों तैरता हुआ अपनी शारीरिक क्षमता का प्रदर्शन करके सभी को ताज्जुब में डाल देता था। उसका असली परिचय उसकी मृत्यु के बाद ही पता चला था। संक्षेप में माहे एक कठपुतलियों का शहर था जिसकी गतिविधि एक तरुण, उदीयमान मोपासाँ की कल्पना को सक्रिय कर देती पर यहाँ एक शहर की एक छिपी हुई ज़मीनी राजनीति भी थी जो छोकरों-लड़कों को कई राजनीतिक मतों की ओर खींचती हुई ले जाती थी। फ्राँसीसी प्रशासन स्थानीय जन सम्पर्क के लिए एक वाचनालय-पुस्तकालय चलाता था जिसमें मैं भी चला जाता था यद्यपि अपने को युवक मानने की उम्र उस समय भी मेरी नहीं हुई थी। और वहीं मेरा सबसे पहले योगायोग हुआ वृहत्तर संसार की शिल्प कला से। उस लाइब्रेरी में अन्यान्य पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ रखे रहते थे ‘मॉडर्नरिव्यु’ और ‘विश्व भारती क्वार्टरली’ और वहाँ आते थे कुछ फ्राँसीसी तड़क-भड़कदार सामयिक पत्र, जिनमें एक था ‘लेलुस्त्रासियाँ’ जिसमें रहते थे दुनिया भर के विभिन्न स्थानों के शिल्पकला सम्बन्घी रंगीन पुनर्मुद्रण। वह मेरे लिए किसी जादूघर की तरह था जिसमें मुझे झलक मिलती थी विश्वकला की गति प्रकृति की, जिसमें ऐसा कोई विषय नहीं था जो न रहता हो, वह चाहे अफ्रीका का भास्कर्य हो, चाहे जापानी काठ खुदाई कला हो अथवा प्रभाववादी भूदृश्य हों। ‘मॉडर्न रिव्यू’ पढ़ने से मुझे जानकारी मिलती थी उस समय की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय विचारधाराओं की, और दुनिया भर के घटनाक्रम के विषय में, बंगाल के सांस्कृतिक जगत की खबर मिल जाती थी, हाँ रवीन्द्रनाथ के विषय में भी- वे क्या लिख रहे हैं इस विषय में, उनके आश्रम, उनके सहयोगियों के काम-काज के बारे में भी। इसी तरह से एक दिन जब मुग्ध होकर पत्रिका के एक अंक में मुद्रित नन्दलाल वसु की कुछ ड्राइंग देख रहा था, मेरे कन्धे की बगल से उन्हें देखकर एक आगन्तुक फ्रांँसीसी शिल्पी कहने लगा कि उसने इस चित्रशिल्पी को देखा है और उसे यह समझ में आ गया है कि यह महान शिल्पी तो है ही, महान मनुष्य भी है।
 
इसी बीच जाने-अनजाने ही मैं राजनैतिक विचारधारा, उसी की चर्चा और एक उन्नततर जगत का सपना देखने से जुड़ गया। हालाँकि किसी दल का सदस्य बन सकूँ, अभी इतनी उम्र मेरी नहीं हुई थी फिर भी मेरी दीक्षा मार्क्सवादी विचारधारा में हो गयी और मैंने विभिन्न राष्ट्रीयतावादी संगठनों की आदर्शगत अवस्थिति को लेकर सोचना शुरू कर दिया। मेरे पिता एक थियोसोफिस्ट थे, भारत की अनेक जाति व्यवस्थाओं, अनेक वर्णों के सुधारवादी विचारों के साथ उन्होंने मेरा परिचय करा दिया था जिसमें रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के दर्शन आते थे। मेरे दादा ने मुझे रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ग्रन्थावली उपहार में दी थी। मेरे लिए बाकी काम लाइब्रेरी ने कर दिया था। समुद्र तट पर जो सभा होती थी, उसमें से किसी में भी बिना हाज़िर हुए नहीं रह पाता था। इसी कारण से एक दो बार पुलिस के साथ परेशानी में भी पड़ गया था। और इन सबके ऊपर मेरे मन में विराट रूप में विराज रहे थे गाँधी जी, उनका चरित्र और व्यक्तित्व जिन्हें उनके कठोरतम शत्रु भी गम्भीर सम्मान के साथ देखा करते थे। उनका मानवतावाद और शिक्षा देने की सरल प्रणाली ने मुझपर गहरा प्रभाव छोड़ा और मैंने एक समय खादी पहननी शुरू कर दी थी तथा मैं स्थानीय चरखा क्लब का सदस्य भी हो गया था।
मैंने स्कूल की शिक्षा 1939 में समाप्त की और यथेष्ट कृतित्व के साथ (उस अंचल में या उस प्रेसीडेन्सी में मुझे दूसरा स्थान मिला था)। यद्यपि मेरे अनेक उद्वेगजनक कौतूहल और मेरा उत्साह देखकर आसपास के लोगों में काफ़ी भय बना रहता था, मेरे पढ़ाई-लिखाई के फलाफल के विषय में। इसीलिए आई.ए. पढ़ने के लिए मुझे भेज दिया गया मंगलौर के (माहे से डेढ़ सौ मील उत्तर-दक्षिण में स्थित कन्नड़ क्षेत्र का एक प्रमुख शहर) जेसुविट कॉलेज में। अपनी जड़ों से विच्छिन्न होकर वहाँ मैंने दो बरस बिताये, हाथ में जो आ गया वही पढ़कर शेष करता रहा, कवि, गल्प-उपन्यास, समाजशास्त्र, दर्शन और अपने मन में मार्क्सवाद और गाँधीवादी विचारधारा के गुण-दोष तथा छोटे-मोटे ब्यौरों को लेकर तर्क-वितर्क करता रहा। अन्त में मैंने दूसरा रास्ता ले लिया। मार्क्सवादी विचारधारा का चाहे जितने सद्उद्देश्य क्यों न रहा हो, सामाजिक संघर्ष को तीव्र कर, वर्ग संघर्ष के माध्यम से वर्तमान सामाजिक विषमता को दूर करने के रास्ते में कई अन्तर्निहित संकट हैं। इतिहास ने इसे घटित कर दिखा भी दिया है। उधर गाँधीवाद में मनुष्य की व्यक्तिगत समस्याओं को वृहत्तर समाज की समस्याओं के दर्पण में देखना और संयुक्त प्रयास के द्वारा उनके समाधान के सूत्र ढूँढने में कई स्थायी और क्रान्तिकारी विचारों के हस्ताक्षर मुझे दिखायी दिये थे।
 
1941 के ग्रीष्मकाल में इण्टरमीडिएट परीक्षा पास कर मैं मद्रास के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में अर्थशास्त्र में ऑनर्स के लिए भर्ती हो गया। उस युग में प्रेसीडेन्सी कॉलेज एक विशेष संस्थान माना जाता था। भर्ती की प्रक्रिया में काफ़ी छानबीन थी और किसे चुना जाए, इस पर काफ़ी विचार किया जाता था, कड़ाई भी वहाँ काफ़ी थी, फलस्वरूप कुछ गिने-चुने लोगों को ही लिया जाता था। वह संस्थान यद्यपि अभिजात कॉलेज था, फिर भी वहाँ ब्रिटिश संस्थान के कुछ उदारपन्थी लक्षण भी थे जैसे कम व्याख्यान, वहाँ का वातावरण भी बहुत खुला हुआ था। क्लास के लेक्चर छोड़कर लाइब्रेरी में पढ़ने को घृष्टता नहीं माना जाता था और अगर लाइब्रेरी में भी दम घुटने लगे तो समुद्रतट पर जाकर मछलीघर में मछलियों का खेल देखना चलता रहता था। किन्तु यह सब होते हुए भी मैं यहाँ अपने को बहुत सुखी अनुभव नहीं करता था। उन दिनों की आर्थिक विचारधारा में जिस प्रकार मनुष्य के बजाय बाज़ार की शक्ति पर अधिक ज़ोर दिया जाता था, वह मुझे किसी भी तरह स्वीकार्य था। इसके अतिरिक्त छात्र वर्ग जिस तरह से नौकरी को ही सफलता का एकमात्र मानदण्ड मानकर उसी के प्रति अपना सम्पूर्ण ध्यान लगाये बैठा था, जीविकोपार्जन के घेरे के बाहर और कुछ देख ही नहीं पाता है, उसे भी मैं स्वीकार नहीं कर पाता था। इसीलिए अन्त में मैंने अपने में ही डूबे रहने को समीचीन मान लिया था। फिर मेरा समय पुस्तक पढ़ने और चित्रांकन करने में ही बीतने लगा। इसके बाद और भी दृढ़ संकल्प के साथ चित्रांकन और ड्राइंग बनाने में मग्न हो गया और अपने शोधार्थी मित्र के साथ मैं जिस कमरे में रहता था, उस मामूली से डेरे की दीवालों को मैं अपने चित्रों से भरने लगा।
 
मैं वह चाहे किसी भी तरह से हो, छात्र आन्दोलन के प्रवाह से जुड़ गया। उस समय का वातावरण पूरे समय युद्ध के प्रसंग से बोझिल और अपनी स्वतन्त्रता के बारे में भारतीय दृष्टिकोण और उसका अगला कदम क्या हो, इसे लेकर विवादों से भरा हुआ था। 1942 के अगस्त में जब गाँधी जी ने अपना ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ शुरू किया, मैंने अपने आपको प्रेसीडेन्सी कॉलेज में होने वाली छात्र-हड़ताल के नेता के रूप में पाया। और जनवरी 1943 में विभिन्न कॉलेजों के बन्धु-बान्धवों के साथ महाकरण में होने वाले सत्याग्रह में जब मैंने भाग लिया तो पकड़े जाने पर मुझे जेल में रहने को मिला। किन्तु इन सबके बीच में हुई एक अद्भुत घटना के कारण मेरे जीवन की दिशा ही बदल गयी। अगस्त 1942 में एक पखवारे तक चलने वाले उस सत्याग्रह के बाद फिर से कक्षाएँ चालू हो गयीं। उस समय मुझे एक छात्र आन्दोलनकारी के रूप में पहचान कर पुलिस ने मेरी गतिविधियों पर नज़र रखनी शुरू कर दिया। इसलिए मेरा मन सदा चिन्तित रहकर छटपटाने लगा। मैं चित्रांकन और ड्राइंग बनाकर अपना समय बिताने लगा था। सहसा एक दिन एक युवा मित्र ने आकर मुझसे मेरी कुछ छवियाँ और स्केच की कॉपी माँगी। उसने कहा कि वह ये सब किसी को दिखाएगा। वह मेरे चित्रों की खूब कद्र करता था और मुझे यह भी पता था कि वह किसी कला-विद्यालय में काम करता था, मैंने तत्काल अपने चित्र और रेखांकन की कॉपियाँ उसे दे दीं। यह व्यक्ति कौन था, इसका मुझे पता बाद में चला : कला विद्यालय के प्रिंसिपल देवीप्रसाद रायचौधुरी का यह प्रियपात्र और वहाँ का नया शिक्षक पणिक्कर। पणिक्कर को मेरा काम बहुत अच्छा लगा था। फिर उन्होंने मेरे उन चित्रों को ले जाकर देवीप्रसाद रायचौधुरी को दिखाया। इसके बाद उन्होंने मुझसे मिलना चाहा। एक दिन मैं जब उदास भाव से लेक्चर हॉल में बैठा था, अध्यापक ने देखा कि वर्दी पहने एक व्यक्ति बरामदे में खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहा है। उनके उस तरफ देखते ही वर्दी पहने व्यक्ति ने उन्हें सलाम ठोकते हुए उनके हाथ में एक चिट्ठी दी। वह पत्र मुझे लिखा गया था। सभी सोच रहे थे कि वह कोई या तो चेतावनी भरी चिट्ठी होगी या गिरफ़्तारी का वारण्ट होगा। उस चिट्ठी में ऐसा कुछ भी नहीं था। देवीप्रसाद ने अपनी सरकारी मोहर लगाकर एक पत्र में मुझे लिखा था : जब सुविधा हो कला विद्यालय में जाकर किसी समय मैं उनसे मिल लूँ।
 
दो दिन बाद ही मैं वहाँ चला गया। वही मेरा पहली बार किसी कला विद्यालय में जाना था। यद्यपि मैंने सुन रखा था कि देवीप्रसाद प्रचण्ड व्यक्तित्व के मिजाज़ी व्यक्ति हैं, पर उन्होंने मुझे बड़ी सदाशयता से ही लिया था। उस दिन उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, उसका सार यह है कि प्रेसीडेन्सी कॉलेज में मैं अपना समय व्यर्थ बिता रहा हूँ। मुझे एक शिल्पी होना चाहिए और अगर मैं एक शिल्पी होना चाहता हूँ, वे मुझे किसी भी दिन किसी भी कक्षा में भर्ती कर लेंगे। उनकी बातें सुनकर मैं अवाक् रह गया। मैंने शिल्प को कभी एक पेशा के रूप में लेना ही नहीं चाहा था। मैंने यह बात कभी सोची नहीं थी पर इसका परिणाम क्या हुआ, दीवाल में एक दरार बन गयी। मैंने उन्हें खूब धन्यवाद दिया और सोचने का थोड़ा समय माँगा। मैंने उनसे कहा- इस विषय में अपने माँ-बाप से थोड़ी सलाह करने की ज़रूरत है। हो सकता है इस समय चल रही अपनी पढ़ाई-लिखाई को समाप्त करने के बाद शिल्प-सम्बन्धी शिक्षा में मुझे कूदना पड़े। दरअसल घटना यह थी कि मैं उस समय पूरी तरह से आन्दोलन से जुड़ा हुआ था। पर इससे भी बड़ी बात यह थी कि इन सरकारी संस्थानों के ईट-काठ से बने घेरे में मेरा बहुत कुछ खो चुका था, अब अगर मुझे और कहीं जाना पड़े तो मैं ऐसी जगह जाऊँगा, जहाँ यह सब कुछ न हो- जैसे शान्ति निकेतन। उन दिनों तक शान्ति निकेतन और उसके उद्देश्य के बारे में मैंने कुछ पढ़-लिख रखा था। और मूल चित्रों के पुनर्मुद्रण में मैंने अब तक जो कुछ देखा था, उससे नन्दलाल वसु के काम के प्रति गहरा अनुराग पैदा हो गया था। इसके अलावा अभी हाल में प्रकाशित चित्रलिपि में रवीन्द्रनाथ की ड्राइंग देखकर विस्मित ही हो गया था।
 
छह महीने एक कैम्प कारागार में बिताकर छोटे-बड़े विभिन्न राजनैतिककर्मियों के घनिष्ठ सान्निध्य में आकर मैं यह अच्छी तरह समझ गया था कि उनका भविष्य और मेरा लक्ष्य एक नहीं है, वे अपने जीवन में थोड़ी दूर जाने से ही खुश हो जाते हैं, काफ़ी दूरी पर स्थित लक्ष्य तक जाना उनका उद्देश्य ही नहीं है। इसलिए मुझे एक मूलभूत निर्णय लेना पड़ा। मैं माहे लौट आया। उन दिनों एक नये अवज्ञा आन्दोलन के कारण वहाँ का वातावरण गर्म था, मेरा वहाँ होना कोई चाह नहीं रहा था। उस समय मेरे दादा भारतीय पुलिस में काम कर रहे थे, उन्होंने मुझे अपने साथ रहने के लिए बुला लिया जिससे मुझे थोड़ा विश्राम मिल जाए। उसके बाद एक दिन 1944 के फरवरी महीने में उन्होंने मुझे नन्दलाल बसु का एक तार दिया- उस तार में उन्होंने लिखा था कि मैं अगर तत्काल शान्ति निकेतन में योगदान करता हूँ तो वे उसी समय मुझे कलाभवन के एक छात्र के रूप में भर्ती कर लेंगे। किन्तु, नन्दलाल बसु को मेरे बारे में चिट्ठी किसने लिखी? दादा ने हँसकर कहा- ‘मैंने’। उसके बाद उन्होंने आगे कहा कि अगर मैं शान्ति निकेतन चला जाऊँ, उन्हें बड़ी खुशी होगी। उसके बाद मेरे मन की जो स्थिति थी, उसमें मैंने सोचा, एक बार इस मार्ग पर भी चलकर देखना चाहिए। इसलिए, बंगाल के रास्ते पर निकल पड़ा। ट्रेन में बेहद भीड़ थी, कटक तक पूरे रास्ते सूटकेस पर बैठे-बैठे आया। किन्तु कटक आते ही पुलिस का एक दल डिब्बे में आकर मुझे तलाश करने लगा। उन्होंने मेरी अच्छी तरह तलाशी ली और उसमें जब उन्हें कोई चीज़ आपत्तिजनक नहीं मिली, वे क्षमा माँगते हुए नीचे उतर गये। सम्भवतः उन लोगों ने सोचा था, मैं मेदिनीपुर जा रहा हूँ जहाँ आन्दोलन की आग उस समय भी धधक रही थी। मेरा एक मित्र उन दिनों क्रान्तिकारी के रूप में भूमिगत हो गया था। खैर, जो भी हो, मेरी तलाशी के कारण उस डिब्बे का वातावरण बिलकुल बदल गया। सभी मेरा खूब आदर करने लगे, यहाँ तक कि सेना के कठोर स्वभाव वाले जवान भी, जो उस डिब्बे में भारी संख्या में उपस्थित थे, मेरे लिए बैठने की जगह छोड़ने लगे और किस तरह से वे मेरे किसी काम में आ सकें, इसका प्रयास करने लगे।
 
आज याद नहीं है कि हावड़ा से मैंने कौन-सी ट्रेन पकड़ी थी, सिर्फ़ इतना याद है कि बहुत रात गये मैं शान्ति निकेतन पहुँच सका था। स्टेशन के चबूतरे पर मैंने रात काटी और पता नहीं किसी ने मुझे विश्वभारती जाने वाली बस पर चढ़ा दिया था। मुझे सीधे गेस्ट हाउस ले जाया गया। उस दिन बुधवार था, मन्दिर की उपासना शुरू हो गयी थी। गेस्ट हाउस के मैनेजर को पता था कि जैसे ही पूजा समाप्त होगी वैसे ही वे मुझे किसी के साथ कलाभवन में मास्टर मोशाई के पास भिजवा देंगे। मास्टर मोशाई? उन्होंने हँसते हुए बताया कि इसी नाम से यहाँ सभी लोग नन्दलाल बसु महाशय को बुलाते हैं।
 
मैं बड़ी जल्दी वहाँ के वातावरण में घुल-मिल गया और वहाँ मुझे बहुत अच्छा लगने लगा : सिर के ऊपर खुला हुआ आकाश, मन्दिर से बहता आ रहा है गाने का स्वर, और निकट ही रामकिंकर, पूरी तरह भिन्न मिज़ाज के भास्कर्य, जो इतने भिन्न होते हुए भी, उस स्थान के स्वभाव के एकदम निकट लगते थे। प्रसन्न नाम का कलाभवन का एक छात्र मुझे अपने साथ मास्टर मोशाई के पास ले गया। रवीन्द्रनाथ सौन्दर्य का जो मानदण्ड निर्धारित कर गये थे, उसके अनुसार मास्टर मोशाई का चेहरा, मन में ज़रा भी गहरी लकीर खींचने जैसा था ही नहीं। फिर भी उनकी आँखों में ऐसी एक द्युति थी जिससे यह समझ में आ जाता था कि यह व्यक्ति असाधारण जाति का है। मुझे जैसा बताया गया था, उसी तरह मैंने उनके पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने बड़ी शान्ति से मेरा स्वागत करते हुए मुझे छात्रावास में रहने भेज दिया।
 
कलाभवन के प्रारम्भिक दिन स्वप्न जैसे मोहक थे। अपने मन में शान्तिनिकेतन की भावमूर्ति के साथ कहाँ मेल है, इसे मैंने जल्दी खोज लिया था, सृजनरत मनुष्यों का एक खुला हुआ समाज, आधुनिक पद्धति का आश्रम। उस समय अधिकतर कार्यकर्त्ता और कुछ छात्र- छात्राएँ रवीन्द्रनाथ के नाटक का मंचन करने के लिए बम्बई में थे, फलतः आश्रम-संस्थान रह गया था, विख्यात ‘त्रिमूर्ति’ के हाथों- अर्थात् मास्टर मोशाई, ‘विनोद दा’ और ‘किंकर दा’ की जिम्मेदारी पर। पूरा परिवेश बहुत खुला हुआ था- सर्वत्र सुसम्पर्क और मैत्री की सुन्दर आबोहवा थी। पूरा परिसर एवं उसमें बने घर-द्वार सभी कैसे सुन्दर, साफ़-सुथरे हालाँकि कितने स्वाभाविक। सभी को देखता था कि वे कितनी शालीनता, कितना सम्मान का भाव और कितनी गर्मजोशी के साथ मिलना-जुलना और चलना-फिरना कर रहे हैं। मैं बांग्ला जानता नहीं था, हिन्दी के कुछ शब्द ही मेरे सम्बल थे, किन्तु उनके होते हुए भी मैं पूरी तरह स्वच्छन्दता का अनुभव नहीं कर रहा था।
 
जब मैंने काम शुरू किया, मास्टर मोशाई ने मेरी जिम्मेदारी ले ली। यह कोई अचम्भे की बात नहीं थी, कारण उन्होंने एक ऐसे छात्र को भर्ती कर लिया था जिसका कोई काम ही उन्होंने नहीं देखा था। उन्होंने मेरे द्वारा अंकित जोंक और खुशकत लिपि को देखा। इसके साथ उन्होंने मेरे सबसे पहले बनाये टेम्परा के दो काम देखे, मुझे ऐसा लगा कि मेरे उन कामों ने उन्हें खुश ही किया था, यद्यपि स्थानीय रूप, बिम्बों और आकार-प्रकारों से उनका कोई विशेष सामंजस्य नहीं था। उन्होंने मेरे उन कामों को विनोद दा और किंकरदा को भी दिखाया था। किन्तु एक तीसरे काम में हाथ लगाने के पहले ही नाटक का दल आश्रम वापस आ गया और मेरी कर्मधारा बँधे-बँधाये कार्यकलापों में लौट गयी।
 
किन्तु ये रोज़मर्रा के कार्य भी किसी भी तरह किन्ही कठोर नियमों में बँधे हुए नहीं थे। फिर भी मेरे जीवन और शिक्षा की पृष्ठभूमि के कारण इन नियमों और नीति में अभ्यस्त होना मेरे लिए कठिन था। मैं प्रायः शुरू से ही यह जानता था कि किस-किस सीढ़ी से होकर मुझे आगे बढ़ना होगा और मुझे इस कुशलता से आगे बढ़ना होगा जिससे मुझे ऐसा अनुभव न हो कि मेरे ऊपर कोई चीज़ बाहर से थोपी जा रही है। अगर सीधी बात कही जाए तो मैं शुरू से ही विद्रोही था, यद्यपि मैं स्वभाव से अत्यन्त भद्र था और किसी से किसी भी तरह की खटपट होने का कोई अवसर नहीं था। और सम्भवतः मेरे पहले भी विद्रोही स्वभाव काफ़ी छात्रों को देखते-देखते अभ्यस्त हो जाने के कारण मास्टर मोशाई ने मुझे काफ़ी लम्बी डोर की तरह ढील दे रखी थी और जैसे ही किसी वितर्क के उठने का उपक्रम होता, वे मुझे विनोद दा के पास भेज देते थे। कोई किसी तरह का एतराज या शिकायत करने का कोई मौका इसलिए नहीं पा पाता था कि मैं अपनी धारा में यथेष्ट परिश्रम करता रहता था।
 
तब तक मैंने विनोद दा और किंकर दा की भी खूब निकटता प्राप्त कर ली थी। बांग्ला तो मैं जानता ही नहीं था, इसलिए अँग्रेज़ी बोलने वाले छात्रों के साथ मेरी खूब घनिष्टता हो गयी थी जिनका कॉलेज में पढ़ने-लिखने का जीवन मेरे जैसा ही था और वे सभी लोग विनोद दा और किंकर दा के मेरी ही तरह घोर अनुरागी थे, उनमें से एक था फोटोग्राफर, जिसने विनोद दा और किंकर दा की बहुत-सी कलाकृतियों के चित्र खींच-खींच कर एक सुन्दर, चमत्कारपूर्ण अभिलेख तैयार कर रखा था और उसी से इन दोनों लोगों के बारे में मैंने बहुत कुछ सुन रखा था। शुरू-शुरू में उनसे मिलने मैं अपने इन्हीं मित्रों के साथ जाता था, बाद में धीरे-धीरे चाय की दुकान पर अड्डा जमने लगा, अड्डा उस समय भी लग जाता था, जब अकस्मात कहीं भेंट हो जाती अथवा स्केच करने के लिए जब हम लोग पास में ही निकल पड़ते थे। इसके बाद एक मित्र ने जब इनके काम की दिल्ली में 1944 के अन्त में एक प्रदर्शनी की तब मैं उनकी सहायता के लिए उनके साथ गया, और उस अवसर पर सुयोग मिला और भी घनिष्ठ रूप से उनके साथ घुलने-मिलने का। उस समय अनेक विषयों पर चर्चा चलती थी जिसके बीच में उनके निजि चाहने-पाने और उनके जीवन के बारे में बहुत कुछ जानना हो गया।
 
मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि कलाभवन में मेरा शिक्षाचर्या का जीवन खूब सहज था, फिर भी यह सत्य है कि उस शिक्षाकाल ने ही मेरे मन का क्षितिज विस्तृत किया। मेरे सामने समस्याएँ भी बहुत थीं और उनके हर सम्भव कोण लेकर भी मैं कठोर विश्लेषण और विवेचन करता रहता था, किन्तु कलाभवन के अन्तिम वर्ष में पहुँचने तक मेरा आत्मविश्वास इतना बढ़ गया था कि मैं हिन्दी भवन में भित्तिचित्र के काम में विनोद दा की सहायता करने के काम में आगे बढ़ गया। विनोद दा मुझे साथ लेने के लिए राज़ी हो गये पर इस काम के कारण मेरा अपना बहुत-सा समय खर्च हो जाएगा, यह सोच कर वे पूरे समय अपनी परेशानी व्यक्त किया करते थे। तब भी सच कहने में कोई हर्ज़ा नहीं है कि उस काम में सहयोग करने के कारण मैंने अपने उपकृत होने की जितनी आशा की थी, उससे कई गुना लाभ मुझे मिला था। विनोद दा जैसे एक व्यक्ति के साथ पूरे वर्ष भर दिन-प्रतिदिन चित्रांकन के मामले में सूक्ष्म-से-सूक्ष्म चर्चा करने का सुअवसर मेरे जीवन की एक अद्वितीय अभिज्ञता के रूप में रह गया है।
 
चार वर्ष से भी कम समय में कलाभवन की पढ़ाई पूरी कर मैं दो वर्ष तक अनेक काम-धन्धों के कारण दौड़ता रहा। कलकत्ता, पंजाब और दिल्ली। 1950 में मैंने सुशीला के साथ विवाह किया, जिससे मेरी पहली भेंट शान्ति निकेतन में हुई थी, उसके साथ अपने विचारों, स्वभाव और चरित्र की काफ़ी समानताएँ मैंने खोज ली थीं और उसी से आज तक मेरे काम और जीवन में उसका निरालस सहयोग निरन्तर बना हुआ है। उसके बाद 1951 ईस्वी में मैंने बड़ौदा विश्वविद्यालय के शिल्पकला विभाग में चित्रकला के अध्यापक के रूप में योग देना शुरू किया। इस संस्थान की परिकल्पना ही शान्ति निकेतन की खुली आबोहवा और अमेरिका के किसी व्यवसायी कला स्कूल के मिश्रिण से की गयी थी। फिर वहाँ पर मेरे वरिष्ठ सहकर्मियों में दो लोग थे, जिन्हें मैं शान्तिनिकेतन से ही पहचानता था, एक थे मूर्तिशिल्पी शंखो चौधुरी (मुझसे ये दस बरस बड़े थे) जो शान्तिनिकेतन की एकदम विशुद्ध निर्मिति थे और रामकिंकर के घनिष्ठ व्यक्तियों में से थे और दूसरे थे चित्रकार एन.एस. बेन्दे (जो मुझसे पन्द्रह बरस बड़े थे) जो अपनी ख्याति और प्रतिष्ठा के होते हुए भी दो महीने के लिए कलाभवन में अतिथि छात्र के रूप में अपना समय बिता आये थे। बड़ौदा में वह एक ऐसा समय था जब स्वयं मैंने एक ही संस्थान में तीस वर्ष बिता दिये। बड़ौदा में उन लोगों ने भी एक लम्बा समय बिता दिया था। इसका एक बड़ा कारण यह था कि इस संस्थान के प्रारम्भिक समय से ही वहाँ रहने की वजह से और उसके लक्ष्य के सम्बन्ध में मोटे रूप में एकमत होने के कारण और इसके साथ पहले बीस वर्षों में विश्वविद्यालय के उच्च अधिकारियों का निश्चित सहयोग पाने के कारण हम लोगों ने वहाँ काम करने का ऐसा एक परिवेश और ढाँचा बना लिया था जिसके कारण वहाँ विद्यार्थियों को बुद्धिहीन पढ़ाकू और शिक्षकों को सृजनहीन पण्डितमोशाय नहीं बनाया जाता था। परिणाम यह हुआ कि वहाँ रहने और काम करने के कारण हम लोगों को खूब आनन्द मिलता था और वहाँ के छात्रों और शिक्षकों के काम ने शीघ्र ही आधुनिक भारतीय शिल्पकला पर स्पष्ट प्रभाव डालना शुरू कर दिया था।
 
शिक्षक होने में भी कई झमेले हैं। एक शिल्पी यदि पढ़ाने के काम पर अधिक ज़ोर देता है तो उसे अपनी शिल्प रचना के लिए अधिक समय नहीं मिलता। पाश्चात्य जगत में भी मैंने देखा है कि मेरे कई प्रतिभाशाली शिल्पी मित्रों ने एक शिक्षक के काम में अपने मन-प्राण समर्पित कर अपने शिल्प कार्य को चरमान्त क्षति पहुँचायी थी। और उस तरह उन्होंने अपने शिष्यों को भी इसी तरह पागल बनाकर छोड़ा था। सौभाग्यवश मेरा निर्माण एक ऐसे शिक्षादर्श के परिमण्डल में हुआ था, जिसमें विशेष महत्व दिया जाता था एक छात्र के वैयक्तिक प्रयास और उत्साह पर। अवनीन्द्रनाथ ने बिना किसी स्वार्थ के यह बता दिया था कि शिल्प कला किसी को सिखायी नहीं जा सकती हैं। कलाभवन में दो दशकों तक समर्पित प्राण निदेशक होते हुए भी मास्टर मोशाई लगभग एक ही बात कहते रहे थे : सब उदीयमान शिल्पी ही एक-एक छोटे रॉकेट की तरह हैं जिन्हें ज़रा-सी आग छुआने से आकाश-पथ पर छोड़ा जा सकता है, किन्तु वे आकाश की किस कक्षा में कितनी देर चक्कर लगाते रहेंगे, इसका अन्दाज अथवा इस पर नियन्त्रण नहीं किया जा सकता है। इसीलिए मैं बराबर संस्कृत के उस विख्यात और परस्पर विरोधी काव्यांश का सहारा लिये रहा जिसमें कहा गया है कि अश्वत्थ वृक्ष तले युवा गुरु अपने वयस्क शिष्यों के साथ बैठा हुआ है, वह मौन भाषा में उन्हें उपदेश दे रहा है जिससे शिष्यों के सारे सन्देह छिन्न-भिन्न होते जा रहे हैं। यह निःशब्दता, यही मौन अथवा इसी जैसा कुछ मेरे बहुत काम आया था। इसी कारण मैं अपना पूरा जीवन सृजनशील बनाये रख सका। और अगर अनेक पीढ़ियों के छात्र वर्ग, जिन्होंने मुझसे कला-शिक्षा प्राप्त की है, की ममता और प्रतिक्रिया के माध्यम से अगर मैं विचार करूँ, मैं कह सकता हूँ कि मेरी तरह उन्हें भी मेरी वह शिक्षा पद्धति पसन्द आयी थी।
 
ऐसा नहीं है कि मैंने एक पूर्णकालिक व्यवसायी चित्रकार के जीवन के बारे में कभी सोचा नहीं है। मेरे कई शिल्पी मित्रों ने, जिनमें कई विख्यात और प्रतिष्ठित कलाशिल्पी हैं, मुझे बार-बार इस तरह का व्यवसायी चित्रशिल्पी होने के लिए उकासाया है। लेकिन मैंने उन युवा शिल्पियों के साथ रहने में ही खूब आनन्द लिया है, उन तरोताज़े, सामने देखने वाले, कुछ हठ और सरलता से मिश्रित मनुष्यों के साथ जिनमें तरूणाई के कारण अफुरन्त शक्ति और कौतूहल रहते हैं। कभी-कभी मुझे ऐसा भी समझ में आया है कि उनकी अनेक जिज्ञासाओं और कौतूहल के उत्तरों को ढूँढते हुए मैंने कई बार अपनी निजी, व्यक्तिगत जिज्ञासाओं और समस्याओं का उत्तर पा लिया है। इसीलिए मेरी यह शिक्षकवृत्ति असुविधाओं से भरी नहीं, उसके विपरीत ही थी। इसका मैंने उस समय और अधिक अनुभव किया जब मैंने देखा कि मेरे कई व्यवसायी विख्यात चित्रशिल्पियों का मन कितना संकीर्ण और कठोर भाव से नियन्त्रित है। इसीलिए विश्वभारती ने जब मेरे अवकाश प्राप्त करने के बाद मुझे अपने यहाँ प्रोफेसर इमेरिटस होने की घोषणा कर मेरा सम्मान किया, मैंने उसे आनन्दपूर्वक स्वीकार किया। युवा समाज के जगत् में प्रवेश करने के इस अधिकार को छोड़ने के लिए मैं जीवन भर कभी राजी नहीं होऊँगा। मेरे लिए इसका मूल्य है।
 
मास्टर मोशाई, विनोद दा और किंकरदा के घनिष्ठ सान्निध्य में काम करने का मुझे जो सुयोग मिला, वह मेरा सौभाग्य भी था और मेरे लिए एक चुनौती भी। और एक बार यह घनिष्ठता स्थापित हो जाने पर कभी समाप्त नहीं हुई। उनके लिए शिल्प एक वृत्ति थी, जिस वृत्ति के माध्यम से वे इस संसार के बीच अपने आपको खोज सके थे और अपने-अपने स्थान का आविष्कार भी कर सके थे। मास्टर मोशाई को मैंने एक सुन्दर उपमा के द्वारा इस बात को समझाते हुए सुना था। उन दिनों कला भवन में हमारे साथ एक अन्धा गायक रहता था। उसका नाम कलुआ था। वह मास्टर मोशाई का बहुत दुलारा था। वह जब आश्रम में चलता था, अपनी तालियों की प्रतिध्वनि से यह समझ जाता था कि वह कहाँ है और किनके बीच में है। इस घटना का उल्लेख करते हुए मास्टर मोशाई कहा करते थे, हम लोग भी छवि आँकते हैं, मूर्ति गढ़ते हैं और इस प्रकार इस विशाल, दुर्बोध्य, सृष्टि रहस्य में उनके द्वारा एक प्रतिध्वनि कर अपना-अपना स्थान खोज लेने के लिए। यह जब तक न हो, इस रहस्यपूर्ण सृष्टि-जगत में हम लोग अन्धे की तरह हैं। उनका यह मन्तव्य बहुत ही स्मरणीय है। उनका यह मन्तव्य एक ओर तो इस सृष्टि के लक्ष्य और प्रेरणा की व्याख्या करता है, दूसरी ओर सृष्टि की मूल नैतिक भित्ति की रूपरेखा बना देता है।
 
यद्यपि आत्म-प्रकाश की क्षमता शिल्प अनुशीलन का महत्वपूर्ण अंश हैं, किन्तु वह कोई अपने आप में पूर्ण स्वतन्त्र व्यापार नहीं है। अगर ऐसा हो तो शिल्पकला आत्मविलास या आत्म प्रक्षेपण की वाहक और धारक मात्र रह जाएगी। उसमें फिर कोई उस प्रतिध्वनि को नहीं सुन सकेगा, जिसे अन्य व्यक्ति शिल्पी की कलाकृति में सुन लेते हैं। इसके अलावा जड़ों की यह खोज ही एक शिल्पी को अपने समकाल के अनुकूल बने रहने में सहायता करती है। क्योंकि हम सदा यह देखते रहते हैं कि एक शिल्पी की सत्ता, उसका परिवेश, उसकी विचार-भावना, उसकी चिन्ता, उद्वेग, उसकी धारणा की गढ़न और ढाँचा सब कुछ नित्य बदलता रहता है। इन सबके बीच उसका काम भी अनिवार्य रूप से बदल जाएगा।
 
इसलिए आधुनिकता और समझौता न करने का प्रश्न अवान्तर है। दृष्टिभंगी के प्रत्येक सूक्ष्म हेरफेर के साथ कण्ठध्वनि में परिवर्तन होना अनिवार्य है, और इसके उलट भी सत्य है। और यह अपने आप ही घटित होता जाएगा, ज़ोर-ज़बरदस्ती की कोई ज़रूरत नहीं है। और अगर ज़बरदस्ती की जाए तो गोलमाल हो जाएगा। इसीलिए इन सब प्रश्नों को लेकर मैं किसी भी दिन अधिक चिन्तित नहीं हुआ। इसलिए मैंने जो कुछ किया, वह है इस यथार्थ जगत के साथ धीरे-धीरे अपने सम्पर्क को विस्तृत करते जाना- मौलिक अनुभूति-दृश्य और अर्थ के स्तर पर। जिससे आगे चलकर एक संहति मूर्ति अथवा अपने छन्द में वहन करते हुए एक ब्यौरा तैयार कर सका।
अतएव मैंने अनेक माध्यमों में काम किया। हर माध्यम में अपना विस्तार और योगायोग की क्षमता विद्यमान है। मैंने दृश्य जगत के बहुत से तथ्यों को लेकर काम किया है। वह काम कभी हो विवृत्तिमूलक रहा है और कभी भंगिमा पर आधारित, अथवा कभी स्पष्ट और कभी अस्पष्ट। मैंने कभी अपनी कलाकृतियों में अनेक ऐसे विषयों की रचना की है जो समसामयिक हैं और कभी उन सब विषय पुंजों को लिया है जो शाश्वत हैं। उस समय दृष्टि पहले ग्रीष्म के उन सब पक्षियों की तरह सामने और पीछे उड़कर चक्कर लगाने लगती है, आज की घटनाओं से प्रेरित होकर चौंकती हुई, सुदूर अतीत की स्मृतियों, यथार्थ से, किंवदन्तियों और परावास्तव से, आनन्द से, गम्भीर दुःख से। यह भी सत्य है कि मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि मैं इस घने विन्यस्त विवृत्तिधारा को भंग कर डालूँगा और अपने आसपास के परिवेश में ऐसा कुछ घटित कर दूँगा, जो सुसम्बद्ध, ऐक्यबद्ध एक चारित्रिक वैशिष्ट्य को प्राप्त कर लेगा जो सामान्य रूप से बहने वाले जीवन में एक नयी मात्रा जोड़ देगा। बचपन में मन्दिर की जिन प्रतिमाओं और नाटक की जादुई स्मृतियों का संग्रह किया था, वे आज भी मेरे जीवन और मेरे काम में सक्रिय बनी हुई है।
 
मेरे भी जीवन में सुयोग आया था दुनिया को घूमकर देखने और विभिन्न क्षेत्रों के सृजनशील मनुष्यों के सम्पर्क में आने का। इसमें मैंने देखा है सृजनशील व्यक्ति सदा अपने विचार और भावनाओं के प्रति संवेदनशील बने रहते हैं। यद्यपि उनकी चिन्ताएँ, उत्कण्ठाएँ, पसन्दगी, प्रेम का क्षेत्र सब कुछ अलग-अलग होता है। किन्तु, समालोचकों के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता है, कारण, उनकी धारणाओं का परिमण्डल सदा समय से थोड़ा पीछे रहता है। फिर इसका एक कारण यह भी है कि कला शिल्पी एक अभियात्री की तरह होते हैं, वे आविष्कारक भी होते हैं, सदा अजाने को जानना चाहते हैं। किन्तु समालोचकों का व्यवहार दूसरे तरह का होता है, वे जाने हुए भूगोल के प्रधान पुरोहित होना चाहते हैं। ज्ञात संसार के बाहर भी कुछ है, उसके लिए उनमें धैर्य नहीं है। फिर यह भी सत्य है कि एक पीढ़ी पूर्व विश्व के शिल्प जगत में ऐसे कुछ समालोचकों से हमारा साक्षात्कार होता है, जो संवेदनशील थे, जिन्होंने अपना जीवन या तो एक शिल्पी के रूप में शुरू किया था या एक शिल्परसिक के रूप में। उनकी वह धारा आज नहीं है। अगर उससे तुलना की जाए तो हमारे यहाँ की शिल्प समालोचना अपरिपक्व है। वह आडम्बरपूर्ण, डंका पीटने वाली और अपरिपक्व है। समालोचकों का काम ही होता है कटु आलोचना करना, शिल्पवस्तु की भावना और सत्ता में प्रवेश कर उसके रहस्य का उद्धार करना नहीं। वह काम इतना सरल भी नहीं है। शिल्प की छाती पर चढ़कर उसके अस्थि-पंजर को गिनना सहज है। शायद इसी कारण से हमारे रसशास्त्र में कहा गया है कि पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों से ही एक सच्चा रसिक होना सम्भव है।
 
(‘देश’ साहित्य संख्या 19399 बंगाब्द, तदनुसार 1992, के सौजन्य से साभार अँग्रेजी़ से बांग्ला अनुवाद शंकर लाल भट्टाचार्य।)
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