12-Dec-2017 05:53 PM
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असमिया से अनुवाद : किशोर कुमार जैन
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ऐसा लगता था मानो राहुल अपने जीवन में था ही नहीं। गजेन्द्रनाथ, अमृतप्रभा, माँ शशि, तरुणी बुआ, नौकर नाम तजो, भानु चाची और मालिनी, आइमणी, चित्रकला का मास्टर, चन्दना, सनातनों की तरह के सहस्र ग्रह-नक्षत्र, साँप-नेवले की खींचतान में एक और आकाशगंगा की छाँव में राहुल पल बढ़ रहा था।
सुना है, आकाशगंगा के अन्तर्जगत की खोज करना इतना आसान नहीं है। आकाशगंगा का पेट हज़ारों हज़ार ग्रह नक्षत्रों और सौर जगत से भरा हुआ है। रहस्यों से घिरे इस आकाशगंगा की छाया निरन्तर राहुल के सिर पर पड़ रही थी। राहुल जब भी आसमान की ओर ताकता था, उसे दिखायी देता कि उसके आकाश को आकाशगंगा ने घेरा हुआ है।
राहुल सोचता था उसके सिर के ऊपर पिता की छाया क्यों है ? क्या उसके सिर के ऊपर आकाशगंगा है? आकाशगंगा के बिना भी क्या राहुल और अच्छी तरह से साँस ले सकता था इस धरती पर?
उदासीन हाल मे बैठे रहने के कारण राहुल के दिल में उदासी ने घर बना लिया था और उसके निष्पाप शरीर को उदासी खींच ले गयी थी - स्त्री को अगर नदी कहा जाता है, तो उस कल्लोलित नदी के क़रीब। अगर नहीं कहा जा सकता तो मामूली स्त्री के क़रीब।
स्त्री की तुलना नदी से क्यों की जाती है? स्त्री के साथ नदी का क्या मेल? नदी हमेशा बहती रहती है। आज जो पानी नदी के घाट को छू रहा है अगले दिन वैसा नहीं रहता। पल भर में ही अगली धारा पिछली धारा को धकेल कर आगे बढ़ जाती है। अविराम केवल बहना। रुकना नहीं। नदी में उतरने पर पानी हमें छूकर रुकता नहीं, चला जाता है बहुत दूर। उसी पानी को हमलोग दुबारा छू नहीं पाते, पा नहीं सकते। लेकिन स्त्री? स्त्री के शरीर की वो एक ही धारा- शरीर को पार नहीं कर सकती। वह धारा सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकती। उस धारा में क्लान्ति रहती है। इसीलिए हमारा अदना सा नायक भविष्य में स्त्री को लेकर अजस्र कविता लिखेगा, उसने कभी भी स्त्री को नदी नहीं कहा। स्त्री स्त्री होती है। सभी स्त्रियाँ साधारण होती हैं।
हरेश्वर दर्ज़ी की बनायी और गजेन्द्रनाथ की दबायी मच्छरदानी के नीचे मंच जैसा एक विशाल बिस्तर था जिस पर सोया करते थे राहुल के बारह भाई बहन। उनमें से तीन सोया करते थे आसमान में। तारों के बीच बिस्तर पर। और दो सोया करते थे अपनी- अपनी माँ के साथ। मंच पर सोते थे सात जन- राहुल, जिन्तु, मुकुट, अनूप, विभू, रिकि और नीपा। इनमें से अनुप, विभू और रिकि भानु चाची की सन्तान थे। अनूप को चाची नटखट राहुल और नीपा के साथ तथा और किसी को सुलाना पसन्द नहीं करती थी। लेकिन गजेन्द्रनाथ की इच्छा आदेश में बदल गयी थी कि उनके पोते पोतियाँ सभी साथ-साथ एक ही बिस्तर पर सोयें। बिस्तर के एक कोने में राहुल की दीदी नीपा सोती थी और दूसरे कोने में राहुल। उन दोनों के बीच में राहुल और नीपा से छोटे सोया करते थे। राहुल और नीपा के सोने की जगह गजेन्द्रनाथ द्वारा तय कर दी गयी थी, साथ ही सफ़ेद गिलाफ लगाये तकिये भी। गजेन्द्रनाथ के पोते पोतियों में वही दोनों बड़े थे इसलिए मामूली-सी एक जिम्मेवारी भी दोनों को दी गयी थी। दोनों दो कोने में सोते थे ताकि कोई बिस्तर से न गिर पड़े तथा मच्छरदानी से उनके हाथ पाँव सटे न रहे। राहुल और नीपा के बीच की जगह छोटे भाइयों के लिए अघोषित निर्दिष्ट थी, कोई भी यह कहकर मना नहीं कह सकता था कि मैं उसके पास सोऊँगा, मैं इसके पास नहीं सोऊँगा या मैं आज उसके पास इसलिए नहीं सोऊँगा कि उसने मुझे सबेरे मारा था। यह बोलकर कोई अदला बदली भी नहीं कर सकते थे। हरेश्वर दर्जी से नहीं सिलाये गये छोटे छोटे गिलाफों के अन्दर तकियों में जंगली सपनों को रखकर दोनों सो जाते थे। और गजेन्द्रनाथ के मन्त्रित बिस्तर में राहुल तथा अन्य के लिए मंच जैसे बिस्तर पर सचमुच नींद की अगर कोई देवी हो तो, तो मानो वह देवी उन्हें झूला झुला रही हो ।
लेकिन एक दिन झूलना बन्द हो गया।
जिस पैतृक स्थान को छोड़कर गजेन्द्रनाथ आये थे उसी स्थान से एक दिन दोपहर को पैदल चलते हुए उनकी सम्बन्धी भतीजी बहू और उनकी बेटी जो कि हाल ही में विधवा हुई थी, उनके घर आ गयी थी। मालिनी के कन्धे पर लटके हुए कपड़े के थैले में उसके दो जोड़ी सफ़ेद मेखला चादर, दो सफ़ेद पेटीकोट, तीन सफ़ेद ब्लाऊज़, एक काठ की पेंसिल, एक स्याही भरने वाली क़लम और सोवियत देश के रंगीन पन्नों से कवर लगायी हुई एक अभ्यास पुस्तिका थी। पन्द्रह सोलह साल की एक चमकती हुई लड़की के माथे पर बिन्दी नहीं थी और उसने सफ़ेद मेखला चादर और ब्लाऊज़ पहना हुआ था। मालिनी की माँ के माथे पर थी एक अठन्नी के बराबर चमकती हुई लाल बिन्दी और सिर के बीच तक सिन्दूर की एक लम्बी रेखा। हालाँकि विधवा हो जाने बावजूद मालिनी का गोल चेहरा दूध की परत की तरह सफ़ेद और उसका गठीला शरीर की सफ़ेद कपड़े पहनने के बाद भी चमक में नाम मात्र भी फ़र्क नहीं था। बल्कि वह और ज़्यादा उज्ज़वल तथा प्यारी लगने लगी थी। शादी होने के तीन महीने बाद ही एक दिन उसका पति मलेरिया बुखार से काँपता हुआ चल बसा था। उस दिन मालिनी के पास उसके पति को खिलाने के लिए न तो डॉक्टरी दवा थी न डॉक्टर था। मालिनी केवल कटोरी में पानी लेकर पुरानी धोती का कपड़ा फाड़कर उसे भिगोकर माथे पर जलपटी लगाती रही। उसकी जलपटी को बुखार ने कोई तवज्ज़ो नहीं दी। और एक दिन वह बुख़ार ख़ुद ब ख़ुद चला गया।
मालिनी के पति के शरीर को उस बुखार ने बिल्कुल ठण्डा कर दिया। मालिनी के जीवन की नियति को एनोफिलिश नाम की मादा मच्छर ने बदल दिया, जिसने उसके पति को काट लिया था। वह शायद उस दिन पंख खोलकर नाची होगी। या फिर किसी के घर की दीवाल पर चिपकी बैठी होगी ? या फिर मर गयी होगी? इसका पता नहीं लगेगा। उसकी मौत की खबर पति की मौत के आगे कितनी नगण्य थी। एनोफिलिश नाम की उस मादा मच्छर ने मालिनी के माथे का सिन्दूर पोंछ दिया, सिर्फ़ कपड़े का रंग ही नहीं बदला बल्कि जीवन का रंग भी बदल दिया, उसके लिए किसी सज़ा का प्रावधान भी नहीं था इस दुनिया में। आदमी के जीवन के हर मोड़ पर न जाने कितने अज्ञात काल उसका विनाश करने छिपे रहते हैं।
मालिनी के पति के मरते ही वह लक्ष्मी से कुलक्ष्मी बन गयी। परिवार के लोगों का व्यवहार कटु होने लगा। उसके पीछे-पीछे चादर और बालों की महक लेने वाले देवरों ने भी उसका पीछा छोड़ दिया। यद्यपि ‘देवर’ शब्द की रचना हुई थी दूसरा वर अर्थात दूसरा स्वामी शब्द से, मालिनी निश्चित रूप से इसका अर्थ नहीं जानती थी। अन्ततः मालिनी माँ के घर वापस लौट आयी। आग के गोले को माँ घर में रखे कैसे? माँ-बाप ने निर्णय लिया कि उसे गजेन्द्रनाथ की देखरेख में रखा जाए, एक नरम दिल और कठोर अनुशासन की छाँव में। वहाँ रहकर वह राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के स्कूल में हिन्दी सीख लेगी। किसी तरह विशारद की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाएगी तो हिन्दी शिक्षक की नौकरी किसी न किसी तरह मिल जाएगी। मालिनी को यह सुझाव जँच गया। और इसी प्रस्ताव को अमल में लाने के लिए उसकी माँ एक दिन दोपहर को गजेन्द्रनाथ के घर हाज़िर हो गयी।
आग के गोले को देखकर अमृतप्रभा शोक-मग्न हो गयी। हालाँकि अमृतप्रभा एक बार में ही राज़ी हो गयी थी। अमृतप्रभा को राज़ी होते देखकर दयालु गजेन्द्रनाथ का भी वात्सल्य जाग उठा। राहुल के पिताजी खुद असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की हिन्दी स्कूल के अध्यक्ष थे। इसलिए मालिनी को हमेशा किताबों का जुगाड़ कर देंगे तथा उसकी लिखाई पढ़ाई पर भी ध्यान देते रहेंगे। कुल मिलाकर उसकी गति सुधर जाएगी। इस तरह विशारद पास कराकर उसे ‘नटखट तेरा लाल’ सीखाकर तैयार कर देने की ज़िम्मेदारी गजेन्द्रनाथ की थी। और कुछ ज़िम्मेदारी गजेन्द्रनाथ ने घर के लोगों को अर्पण की- मालिनी को प्रेम स्नेह करने की ज़िम्मेदारी।
मालिनी को गजेन्द्रनाथ और अमृतप्रभा के हाथों सौंपकर अपने आँसुओं को पौंछते वह हुए चली गयी।
2
राहुल के यहाँ मंच जैसे सोने वाले बिस्तर के पाये शाल काठ के थे जो मिट्टी के आंगन में गड़े हुए थे। इसीलिए वे गीले और शीतल थे और ऐसे लगते थे जैसे हाथी के बच्चे के पाँव हों। अमृतप्रभा हमेशा घर के आंगन में पानी का पौंछा लगाती, कभी कभी गोबर पानी से भी। उस समय पर यह दिखायी देता था कि पानी की कुछ टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें हाथी के बच्चे के पाँव ऊपर चढ़ रही है। हालाँकि पानी निम्नगामी होता है, धरती को गीला करने के मकसद से पानी कभी उर्ध्वगामी भी होता है। बिस्तर की चादर राहुल-नीपा ने उतार दी है। पुराने तकियों में बहुत सारे नक्शे बनाए हुए दिखायी देते थे। उनमें से एक दो भारत वर्ष के और अधिकतर आस्ट्रेलिया महादेश के थे। वे लोग उन्हें छूकर देखते थे. जो कि थोड़े कड़े-कड़े, महीन और मैले थे। ये शुक्र के दाग़ थे। खून के हलके काले दाग़ भी थे जो द्वीप समूह बनकर फैले हुए थे। उन दाग़ों के इतिहास के बारे में राहुल तथा उसके भाई लोग नहीं जानते थे।
संसार के सभी शिशु ऐसे दाग़दार कपड़ों पर गहरी नींद में सोये रहते हैं। वैसे नक्शों के ऊपर ही तिल तिल कर वे लोग बड़े होते रहते है। गजेन्द्रनाथ की दहलीज़ सहित घर की सीमा के भीतर चार घर बनाये हुए थे। जिसमें मुख्य थी पाकशाला और बैठकर खाना खाने का कक्ष उस घर के बरामदे में एक लम्बी बेंच रखी हुई थी। बेंच के चारों पाये खेत में काम करने वाली महिलाओं के घुटने की तरह कठोर और स्निग्ध थे। और बेंच के दोनों हत्थे उनके मुट्ठी बँधे हाथ की तरह थे। लेकिन थोड़े से नीचे की तरफ झुके हुए थे। सुबह के समय उस बेंच पर निरन्तर धूप बैठी रहती थी। इसीलिए उस समय अगर कोई मेहमान आ जाए तो? अगर कोई बेंच पर बैठना चाहे, उसे धूप को गोद में ही लेकर बैठना होगा। जिस तरफ भूटान के पहाड़ है, उस तरफ उत्तर दिशा में तरुणी भुवा की कुर्सी रहती थी। और दक्षिण की तरफ राहुल के पिता की आराम कुर्सी पड़ी रहती। अगर पिताजी न बैठे तो उसका धारीवाला कपड़ा हिलता रहता था। उसपर किसी दूसरे का बैठना मना था। लोगों से अगर बात करनी हो तो बजाली राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का अध्यक्ष वहीं बैठकर बातें करता था। वहीं पर बैठकर अख़बार पढ़ते थे। राहुल की माँ शशि आराम कुर्सी के चाय रखने वाले दोनों हत्थों में से दाहिने हत्थे पर गजेन्द्रनाथ की पहली सन्तान को अख़बार पढ़ते समय चाय रख जाती थी और उन्हीं हत्थों पर दोनों पैर रखकर राहुल के पिताजी दोपहर का खाना खाने के बाद एक नींद पूरी कर लेते थे।
घर के अन्दर की तरफ लगभग दरवाज़े के पास एक पलंग रहता था। उसके ऊपर महीन भूरे रंग की एक चटाई बिछी रहती थी। गजेन्द्रनाथ के यहाँ आये हुए किसी अतिथि को चाय दुकान से चाय मिठाई लाकर खिलाना होता तो वह वहीं इस पलंग पर बैठकर खाता। पलंग के सामने एक छोटी-सी बादामी रंग की टेबल रहती थी। वह पाइन लकड़ी की बनी हुई नहीं थी लेकिन उससे भी चिकना उस टेबल का कोमल शरीर था। उसके चारों पाये सात आठ साल की बिना चूड़ी पहने हुई लड़की के समान पतली व चिकनी थी। टेबल को देखते ही प्यार उमड़ पड़ता था। इतनी हलकी थी कि बच्चे को गोद में लेकर जिस तरह प्यार करते हैं वैसे ही उस टेबल को प्यार करने का दिल होता था। आखिर टेबल से कैसा प्यार ?
फूलों के साथ फूलदानी के अलावा उस टेबल पर और कुछ रखना न्यायसंगत नहीं था लेकिन इस बात को कौन सोचता था, उस टेबल पर अमानुषिक अत्याचार होता था। गजेन्द्रनाथ के लिए बरफ़ी या लौंग के साथ गरम चाय का कप, जो मेहमान कप में नहीं पीता उसके लिए काँसे के गिलास में लाकर तजो उसी टेबल पर रखता था। गरम लगने पर भी टेबल उफ् तक नहीं करती थी। कुछ मेहमान प्लेट मे डालकर चाय पीते थे। गरम चाय टेबल पर छलक पड़ती थी जिससे प्लेट के तले का दाग़ मेज़ पर लग जाता था।
घर में यहाँ वहाँ कुर्सियाँ रहती थी लेकिन उनका कोई निश्चित स्थान नहीं होता था। वे घुमन्तु थी। जब तब उन्हें यहाँ वहाँ ले जाया जाता था। इस दीवाल से उस दीवाल तक पन्द्रह चौकियाँ थी जो दीवार से सटी रहती थी। राहुल के पिता को छोड़कर घर के सभी लोगों का ज़मीन पर चटाई बिछाकर खाना खाने का नियम था।
राहुल के पिताजी खाना खाने के लिए रेक्सीन से मढ़ाई हुई 3×2 की टेबल का उपयोग किया करते थे। उनका उदर बहुत विशाल था इसीलिए उन्होने इस तरह की व्यवस्था कर रखी थी। ऐसा करने के पीछे अपने बड़े बेटे के प्रति उनका अगाध स्नेह नहीं था बल्कि क्रोध और जटिल प्रकृति के कारण बेटा कहीं असन्तुष्ट होकर अशान्ति न पैदा कर दे इसलिए उसके मामले में नीति नियमों को शिथिल कर रखा था। और माँ अमृतप्रभा बेटे वरुण से डरती थी- कैसे वह सामने रहकर बातों-बातों में मामूली कारण से ही लड़ना शुरु कर देता था। माँ बेटे की लड़ाई होते ही सारा घर ही गर्म हो उठता था। राहुल तथा और लोग डर से काँपते रहते थे। दो तीन घण्टे लगातार चलती थी ये लड़ाई। अमृतप्रभा पीड़ा से सिर पीटने लगती। तब आग और बढ़ जाती थी। लपलपाकर जलने वाली आग अमृतप्रभा किसी भी तरह से बुझा नहीं पाती। गजेन्द्रनाथ ओंठो को चाटते हुए चला जाता। वह आग सिर्फ़ बेटा ही बुझा सकता था। केवल एक वाक्य भर कह दे। उसके बाद आग खत्म। गजेन्द्रनाथ उस वाक्य से घबराता था। राहुल लोग जब बड़े होते जाएँगे तब पिता उस वाक्य बाण से धराशायी होकर रक्तहीन हो जाएगें- इसलिए हे पाठक इस बात को बाद में बताएँगे।
मूल घर से सटा हुआ घर ही राहुल लोगों के माँ-पिता का घर था। वहाँ भी दो बिस्तर थे। उनमें से एक विशाल पलंग था। बिहारी महिलाओं के चूड़ी पहने हाथों की तरह उसके पाये एक देश के नक्शे की तरह थे। राहुल लोग जानते थे कि ये पिता का बिस्तर है। उनके पाँव की तरफ एक पार्टीशन था। पार्टीशन के उस पार तीन फुट का लकड़ी का एक पलंग था। उसके ऊपर कड़क सा तकिया था। उसके ऊपर मामूली-सी चादर बिछी हुई थी। राहुल लोग जानते थे कि वह माँ का बिस्तर था। माँ की तरह ही उदास।
गजेन्द्रनाथ के बेल के पेड़ के नीचे पड़ी एक लम्बी डेस्क उस पार्टीसन से सटी रहती थी जिसके ऊपर दो टीन के ट्रंक रखे रहते थे। एक बड़े के ऊपर एक छोटा ट्रंक-मानो बड़े भाई की पीठ पर छोटा भाई चढ़ा हो।
राहुल लोगों के माता पिता के घर में दो दरवाज़े और तीन खिड़कियाँ थीं जिनमें से एक दरवाज़े को अन्दर और बाहर से एक लकड़ी से फिक्स किया हुआ था। तीनों खिड़कियों में से तीनों ही बन्द रहा करती थी। स्वास्थ्य के प्रति जागरुक पिताजी खिड़कियों को बन्द क्यों रखते थे, इसे राहुल लोग नहीं जानते थे। इसीलिए घर में हमेशा अँधेरा रहा करता था। सिर्फ़ एक काँच के झरोखे से मामूली-सी रोशनी आया करती थी। वह रोशनी कोई रोशनी नहीं थी बल्कि ऐसा लगता था मानो साँझ उतर आयी हो।
बादामी रंग की उस प्यारी टेबल की समगोत्र एक और छोटी टेबल पिताजी के पलंग के पास रहती थी। लेकिन उसका रंग बदामी नहीं था। मामूली-सी लकड़ी का रंग था। एक हरे रंग का मेज़पोश उसपर बिछा हुआ रहता था जिसके चारों कोनों में चार फूल और पत्ते बुने हुए थे। उनमें से दो फूल-पत्ते दीवाल से सटे होने के कारण अदृश्य रहा करते थे।
उस टेबल पर बहुत सारी रहस्यमयी चीज़ें जमा रहती थी। चुँकि राहुल लोग इन्हें जान नहीं पाये थे इसलिये वे रहस्यमयी ही रह गयी। अगर जान गये होते उन चीज़ों को, अगर पढ़ पाते हिन्दी अक्षरों को, तब क्या पता, वो सब मामूली बनकर रह जातीं।
कभी-कभी राहुल नीपा लोग उन चीज़ों को छूकर देखा करते थे। कुछ जानी हुई चीज़ें भी रहती थी। चौड़े मुँह की हरे रंग की वेसलीन की बोतल, बसन्तमालती नाम का बॉडी लोशन, निविया क्रीम, कुछ होमियों दवाई की बोतलें, कुछ गोलियाँ, एक शहद की बोतल, एक हिन्दी शब्दकोष, एक छोटी कैंची, कन्घी, कुछ क़ागज़ात, लिफ़ाफ़ा, लिफ़ाफ़े के अन्दर चिट्ठी, रेज़गारी आदि।
गजेन्द्रनाथ के घर के भीतर सबसे साफ़-सुथरा कमरा ही यही था। इसमें अच्छी महक निकला करती थी। शालिग्राम वाले मन्दिर से फूल तुलसी चन्दन और धूप की धुँए की गन्ध से भी सुन्दर महक, सीने के अन्दर खींचने लायक सुगन्ध। और सोने का मन होने जैसा बिस्तर, सफ़ेद खोली डाले हुए तकिये से लिपटने जैसा पिताजी का पलंग, जहाँ सोना राहुल लोगों के लिए दूर की बात, बैठना भी वर्जित था। जहाँ मनाही थी गन्दगी फैलानी की।
पिता के अनजाने में जब राहुल नीपा लोगों को उस घर में घुसते हए माँ देख लेती तो क्यों घुस रहे हो, मत जाना वहाँ पर, कहती। अपराधी के जैसे पकड़े जाने पर वे लोग निकल आते और उनकी शकल मैली जैसी हो जाती। वे लोग जानते थे, वो उनके माता-पिता का सोने का घर है। लेकिन उन्हें ऐसा लगता था जैसे वहाँ और कोई रहता हो। ऐसा लगता था जैसे घर के अँधेरे कोनों में, आलना और दोनों ट्रंक के पीछे, पलंग के नीचे कोई छिपा हुआ हो। उनलोगों को जैसे सुनायी देती हो उसकी किच-किच की आवाज़।
बाकी का घर नया घर था। दूसरे तीन घरों की तुलना में नया घर होने के कारण उसे नवघर कहा जाता था। गजेन्द्रनाथ के दूसरे पुत्र निरोद अर्थात राहुल के चाचा और चाची के रहने के लिए घर बनाया गया था। चाचा गुवाहाटी में रेलवे की नौकरी करते थे। वे मालीगाँव में क्वार्टर में रहा करते थे। प्रत्येक शनिवार की शाम को आकर प्रत्येक सोमवार को चले जाते थे। पत्नी भानु और छह से पाँच महीने के चार बेटे गजेन्द्रनाथ की देखरेख में रहते थे। कभी-कभार वे तीन चार हफ़्ते के बाद भी आया करते थे।
भानु साहसी महिला थी। पति के न रहने पर भी उस घर में दुधमुँहे बच्चे के साथ अकेली रह सकती थी। गजेन्द्रनाथ के घर में साँपों का राज था और उनसे वे डरती नहीं थी। वे नये घर में किसी और का रहना पसन्द नहीं करती थी। और खुद भी किसी और घर में रहना नहीं चाहती थी। एक विद्रोहिनी की तरह वे आज़ाद रहना चाहकर पराधीनों जैसा सहारा लेती थी।
नये घर में भी बस्ते से सिलाई किया गया एक पार्टीशन था जो घर को दो हिस्सों में बाँट देता था। उस हिस्से में भी एक पलंग रहता था। पलंग के नीचे गजेन्द्रनाथ के बगीचे के छह नारियल रहा करते थे। हाथ न लगाने वाले दिनों में राहुल की माँ शशि तीन दिनों तक वहीं सोया करती थी। राहुल की चाची भानु को भी देखा जाता था कभी कभी वहाँ पड़े-पड़े उबासी लेते हुए। उस पलंग पर सोने के दिन अमृतप्रभा के कब के पूरे हो चुके थे। लेकिन अमृतप्रभा के फागुन के रंग भरे दिनों में वही पलंग था।
उसी पलंग पर जन्म हुआ था राहुल का। सिर्फ़ राहुल का ही नहीं, शशि और भानु की एक एक करके मरने- जीने वाली 12 सन्तानें भी वहीं पैदा हुई थी। शान्ति सिर से पकड़ कर उन्हें अँधेरे से उजाले की ओर खींच लाती थी। उन लोगों के पैदा होने के दिनों में लालटेन के उजाले में अमृतप्रभा भी शान्ति की मदद किया करती थी। कारण इन सभी बच्चों में किसी का भी जन्म सूरज के उजाले में नहीं हुआ था। सभी पैदा हुए थे लालटेन की रोशनी आँखों में लिये। अभी भी उस पलंग में केरोसीन, कच्चे खून, प्रसव वेदना और आँसुओं की गन्ध चिपकी हुई है। गजेन्द्रनाथ के घर में कोई दूसरा पलंग नहीं था। जबसे मालिनी को छोड़कर माँ गयी थी, वह जहाँ बैठती थी या खड़ी होती थी, ऐसा लगता था जैसे सफ़ेद फूल खिल रहे हों। सभी देखते थे फूल। लेकिन शाम होते ही अमृतप्रभा को ध्यान आया कि सफ़ेद फूल कहाँ रहेंगे? कहाँ सोयेगी मालिनी?
अमृतप्रभा ने रस्सी खींच दी। रस्सी के अगले हिस्से में लगी घण्टी गजेन्द्रनाथ की चाय की दुकान के रसोई घर में बजने लगी। यह रस्सी तब खींची जाती थी जब गजेन्द्रनाथ की दुकान से किसी नौकर की ज़रुरत घर में हुआ करती थी। या फिर मेहमान के आने पर लौंग या बरफ़ी की ज़रुरत होती थी।
तजो दौड़कर अमृतप्रभा के पास आया। पूछा, ‘क्या चाहिए?’ अमृतप्रभा ने गजेन्द्रनाथ को बुलाने के लिए कहा।
‘क्या हुआ?’ गजेन्द्रनाथ ने अमृतप्रभा से पूछा।
‘मालिनी कहाँ सोयेगी?’
‘क्यों राहुल लोगों के बिस्तर पर। मैं जगह निकाल दूँगा। तुम सिर्फ़ एक तकिया निकाल देना।’
हाथी के बच्चे के पाये वाले बिस्तर में रात को सोते समय राहुल ने देखा कि उसके तकिये के पास एक नया तकिया और खाली जगह बनाकर रखी गयी है।
राहुल के नींद आने तक उस तकिये पर सिर टिकाकर नीरवता सोई हई थी।
3
लेकिन क्या नीरवता भी कहीं सो सकती है?
नीरवता कैसे सोएगी? नीरवता ही सबसे अधिक वांगमय होती है। नीरवता ही सबसे ज़्यादा बातें कर सकती है-भयानक बातें कह सकती है। गजेन्द्रनाथ के घर में सारे पुरुषों के भात खा कर बिस्तर पर लेटने के बाद ही महिलाओं के खाना खाने का नियम था। पुरुष के नाम पर सिर्फ़ दो ही प्राणी थे, गजेन्द्रनाथ और वरुण। और हफ़्ते में दो बार आनेवाला विधुर निरोद। गजेन्द्रनाथ तो अपने पोतों के साथ खा लेता था। राहुल लोगों का पिता वरुण टेबल पर खाता था। और तजो सहित बेल के नीचे की चाय दुकान के छह-सात नौकर, जिनका मूल घर में आकर खाना वर्जित था, घर के बरामदे में बैठकर मिट्टी के तेल के दीपक की रोशनी में खाते थे। उनमें से कोई भी ब्राह्मण की सन्तान नहीं था। अगर कोई एक होता तो? नहीं वैसी आशंका की कोई बात नहीं थी। गजेन्द्रनाथ किसी ब्राह्मण लड़के को नौकरी पर नहीं रखते थे।
अमृतप्रभा अपनी दोनों बहुओं शशि और भानु के साथ खाती थी। आज उन लोगों के साथ मालिनी भी बैठी। एक साथ बैठने पर भी वो अलग बैठी थीं। क्योंकि वह विधवा थी। माँस-मछली नहीं खा सकती थी। शाकाहारी। (मालिनी शशि को बड़ी मामी और भानु को छोटी मामी कहकर बोलती थी। और अमृतप्रभा को आबु नानी बोलती थी।) भात पानी खाने पीने के बाद चापाकल के पास लालटेन रखकर अमृतप्रभा और मालिनी चापाकल चलाकर पैर धोती थी। चापाकल चलाते समय नीरवता ऊपर उठकर चली जाती और दोनों की छाया अति मानवीय हो जाती। पाँव धोकर हवाई चप्पल पहन कर छप-छप की आवाज़ के साथ आनेवाली अमृतप्रभा के पीछे-पीछे नंगे पाँव मालिनी आती है गजेन्द्रनाथ, राहुल लोगों के सोनेवाले घर में। अमृतप्रभा दरवाज़ा ठकठकाती है। गजेन्द्रनाथ सोया नहीं था। ठकठकाने की आवाज़ सुनकर वे अमृतप्रभा से पुछते हैं- ‘आ गयी? मालिनी को उसके सोनेवाली जगह दिखाकर लालटेन की रोशनी कम कर देना।’
अमृतप्रभा मालिनी को हाथी के पाँव वाले विशाल बिस्तर के पास ले गयी। मालिनी ने अपने जीवन में ऐसा बड़ा बिस्तर पहली बार देखा था। वह ऐसे मंच जैसे बिस्तर में सोने का अनुभव हासिल करेगी। अमृतप्रभा ने उसे राहुल के पास में पड़े तकिये को दिखलाकर कहा, ‘तुम हमेशा इसी जगह उधर मुँह कर सोना।’
मालिनी ने कहा, ‘ठीक है।’ बिस्तर के क़रीब पड़े बस्ते पर पाँव पोंछते हुए मालिनी हरेश्वर दर्ज़ी की सिली मच्छरदानी उठाकर भीतर घुस गयी। नीरवता ने मालिनी के लिए जगह छोड़ दी। मालिनी ने लालटेन के मन्द उजाले में देखा कि उसके क़रीब सात वर्षीय राहुल पाँव को पेट की तरफ मोड़ कर सोया हुआ है। सिर्फ़ वही नहीं जिण्टु, अनुप, मुकुट, विभू, रिकि, नीपा सब के सब वैसे ही सोये हुए हैं अपने आप में मानो आत्मलीन हो गये हो, मानो जंगली सपनों को अपनी छाती में समेट कर अपने घुटनों में छिपाना चाहते हों। मालिनी ने तकिये को उलटा किया, बालों को जूड़े से खोलकर तकिये के पीछे टिकाकर सो गयी। बाल मच्छरदानी से सटे रहे।
गहरे लाल रंग की पोशाक पहनकर सूरज आसमान के प्रवेश द्वार में कदम रखने के साथ साथ गजेन्द्रनाथ बिस्तर छोड़ देता था। सारी रात पानी के सीने में सो रहे सूरज को लाल रंग के कपड़े पहना कर धरती पर भेज देती है। पानी मानो सूरज की माँ हो।
इस धरती पर सूरज सबसे पहले बिस्तर त्यागता है। उसके बाद गजेन्द्रनाथ फिर राहुल और वह जागकर देखता है कि उसके बगल में गहरी नींद में मालिनी सोयी हुई है। लेकिन वो उन लोगों की मालिनी दीदी नहीं थी बल्कि दूसरी थी। उसके शरीर पर कपड़े नहीं थे। ब्लाउज का बटन खुलकर उसका सीना खुला हुआ था। और उसका सफ़ेद मेखला कमर तक सिकुड़ा हुआ था। भोर के उजाले में राहुल ने देखा कि मालिनी की गोरी गोरी जाँघो के बीच में दूब का ढेर बिछा हुआ है। राहुल ने पहली बार देखा और जाना कि औरत के कपड़ों के नीचे गहरे काले रंग की दूब का ढेर भी होता है। दूब का ढेर दिखाने के लिए राहुल ने अपनी दीदी नीपा की बाँह पकड़कर झकझोर जगा दिया। चकित होते हुए अपनी आँखों को मसलते हुए नीपा ने पूछा, ‘क्या हुआ?’
--‘आओ तो देखो। एक आश्चर्यजनक चीज़।’ यह कहकर राहुल ने नीपा बाकी बच्चों को उलाँघते हुए गहरी नींद में सो रही मालिनी के सावधानीपूर्वक क़रीब ले आया।
नीपा नाक सिकोड़ते हुए बोल पड़ी, ‘छिः’
राहुल ने प्रश्नचिह्न की तरह नीपा की आँखों की तरफ देखा। इस तरह देखने का मतलब हुआ कि क्या होगा अब ?
नीपा ने कहा, ‘यह सब देखना पाप है। आओ हम दोनों मिलकर मालिनी दीदी के कपड़े ठीक कर देते हैं।’
राहुल और नीपा ने कमर तक सिकुड़े हुए मालिनी के मेखला को धीरे से घुटनों के नीचे तक खींच दिया। दूब का ढेर दिखायी देना बन्द हो गया। उसके बाद खुले हुए ब्लाउज को पहनाने की चेष्टा न करते हुए अन्तर्वस्त्र न पहने हुई छातियों को विधवा रंग की चादर से ढँक दिया। मालिनी के चेहरे पर लहरियादार साँप की तरह बालों का गुच्छा पड़ा हुआ था। राहुल का मन हुआ कि उस लहरियादार साँप को हटाने का। लेकिन नहीं हटाया। लहरियादार साँप ने मालिनी के चेहरे को और अधिक निष्पाप कर दिया था।
4
रात को बारिश नहीं हुई थी। बगीचा सूखा पड़ा था, सूखकर कर्कश हो गया था। तब तक गजेन्द्रनाथ ने ताम्बूल के पेड़ से गिरे ताम्बूलों को इकठ्ठा नहीं किया था। वे अपने मन्दिर के लिए एकाग्रचित्त होकर पूजा के लिए ताम्बे की विशाल थाल में स्याही के समान नीले अपराजिता, त्राम्पेट की तरह धतूरा, फूल और पतली छाल के तुलसी पत्ते, हुक के सहारे सफ़ेद गुलाब फूलों की डाल को झुकाकर तोड़ रहे थे। इन सफ़ेद फूलों को इतनी क्या पड़ी थी कि वे गजेन्द्रनाथ की पूजा की थाली का फूल बन जाना चाहते थे, रोज़ सुबह जगमगाते रहते थे और इतने सारों के टुटते रहने पर भी ख़त्म नहीं होते थे।
इसके बाद बाड़ी में जाने वाले रास्ते के दोनों तरफ के ताम्बूल पेड़ों के नीचे उगे हुए कुश के पत्तों को गजेन्द्रनाथ कुछ इस तरह तोड़ते थे कि उनके तीन ही पत्ते रहते। कुश तोड़ते समय वे कुछ इस तरह बैठते थे कि मानो वे पेशाब करने बैठे हो। हाफ़पेंट को ऊँचा कर थोड़ा-सा लिंग निकालकर राहुल लोग जहाँ तहाँ पेशाब करने पर भी कुश के ऊपर नहीं करते थे। कारण शालिग्राम धोने के लिए इन कुश की ज़रुरत रहती ही थी, साथ में चाहिए था चावल।
नीपा को छोड़कर राहुल गजेन्द्रनाथ के बगल से चटपट दौड़ते हुए बाड़ी के अन्दर घुस गया। वह तुरन्त दीमकों के ढेर वाले टीले के पास पँहुच गया। उसके अन्तिम साथी थे ये दीमक। उनकी सारी बातें वो निर्विकार होकर सुनता था। मुँह से कुछ न कहने पर भी उसके सीने में जमा सारी कठोर बातें, बादलों की तरह लटकी भीगी बातें सुनती थी दीमकें। और वे सारी बात समझती थीं जिन्हें नहीं समझते थे बाँस के परिजन, टूटे हुए पत्ते, अमरुद, कटहल, लीची आदि के पेड़।
राहुल ने मालिनी दीदी की जाँघो के बीच के बिछे हुए दूब के जंगल के टुकड़े की बात बतायी।
दीमकों ने कहा, ‘हम लोग जानते हैं।’
‘जानते हो ? मुझे क्यों नहीं बताया? क्यों इतनी बड़ी बात मुझसे छिपाये रखी?’ राहुल ने सवाल किया।
‘तुम इतने विचलित क्यों हो रहे हो राहुल। सारी बातों को सहजता से लिया करो। यह एक मामूली घटना है?’ दीमकों ने कहा।
राहुल बहुत देर तक दीमकों के टीले के ऊपर बैठा रहा। उसके नीचे उसे बत्तीस पुतलों की फुसफुसाहट सुनायी दी। एक पुतला उठकर आ गया। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा। क्योंकि पुतले से आदमी ज़्यादा आश्रयहीन होता है।
धीरे-धीरे गजेन्द्रनाथ का पूरा परिवार उठने लगा। गायें रम्भाने लगी थी। जाग उठे झाड़ू, बरामदा। बरामदा और झाड़ू। जाग गयी चापाकल। क्या चापाकल भी सो गयी थी? किसके पास सोयी थी चापाकल? बाल्टी के? उँहू। बाल्टी-मग-लोटों को गुणामस्ति के डर से बाथरुम का दरवाज़ा बन्द करके रख दिया गया था। ठीक डर से नहीं, बल्कि डरने जैसी कोई बात, जैसा अन्याय गुणामस्ति ने नहीं किया। वह केवल परेशान करने के लिए कभी दिक्कतें पैदा कर देता था।
मान लीजिए घर की कटार उस रात भूल से बाहर ही रह गयी। गजेन्द्रनाथ और तजो ने जब नारियल काटने के लिए उसे बरामदे में रखा तो पाया कि कटार नहीं है। नहीं है तो मतलब नहीं है। कटार उस समय गुणामस्ति के अधिकार में थी। कर्कश बातें कहने जैसी असुविधा। सब कुछ गड़बड़ा जाने वाली परेशानी। फल यह कि उस दिन नारियल के लड्डू तैयार नहीं हो पाये।
नहीं जानता क्यों, इस घर में नारियल के लड्डुओं को असाधारण चीज़ के रूप में लिया जाता है। उनका लौंग, बरफी से ज़्यादा आदर किया जाता है। नारियल को खरौंचकर रूई की तरह सफ़ेद दानों को शशि चीनी के साथ मिलाकर कड़ाही में पकाती है। किसी की वेदना के लिए नहीं, शशि कर्पूर का एक पैकेट उसमें डाल देती थी। उसके बाद अमृतप्रभा के साथ वह चटाई बिछाकर बैठ जाती। हाथों में घूमा-घूमाकर उन्हें गोल गोल करती। सबकी आँखों के सामने झकाझक सफ़ेद लड्डुओं का एक थाल भर जाता। कभी-कभी लड्डू बनाने के लिए राहुल और नीपा भी माँ और दादी के बीच की खाली जगह में चटाई बिछाकर बैठ जाते। बैठते मात्र थे, उन्हें वहाँ से खदेड़ दिया जाता था। वे लोग भी आदर करते थे उन सफ़ेद-सफ़ेद गोल-गोल मूल्यवान लड्डुओं का।
लड्डू तैयार होने के बाद उनके ऊपर सिर्फ़ वरुण के पिता का अधिकार रहता था। वे लड्डू कब किसको देने हैं, उसका निर्देश वरुण के पिता ही दे सकते थे। यहाँ तक कि गजेन्द्रनाथ भी उन लड्डुओं के सामने असहाय थे। अमूल के पावडर दूध के डिब्बे में बन्दी उन लड्डुओं में जब रुई की तरह सफ़ेद छोटे छोटे रोंए पैदा हो जाते और वेदना जैसी कर्पूर की गन्ध जब सचमुच कहीं उड़ जाती और एक दूसरी गन्ध निकलने लगती तब वरुण की पत्नी शशि कहती, ‘इनमें गन्ध निकलने लगी है अब तो उन लोगों को दे दो।’
शशि बुलाती- ‘नीपा, राहुल, अनुप तुम लोग कहाँ हो, जल्दी आओ-नारियल के लड्डू, नारियल के लड्डू ...’
सब के सब जो जहाँ रहते सब कुछ फेंक फाँककर शशि को घेर लेते। शशि के हाथ में लड्डु का डिब्बा और सामने 10-14 हाथ( कुछ दोनों हाथ फैलाते) शशि एक नहीं दो-दो लड्डु सबके हाथों में देती।
राहुल और नीपा सूँघकर देखते-कर्पुर की गन्ध नहीं थी, ऐसी गन्ध जो किसी को अच्छी नहीं लगती। वे लोग सोचते- और एक हफ़्ते पहले दिये जाते तो असल में वे जान पाते लड्डू कितने सुन्दर है।
उद्दण्डता से एक दिन वह लड्डू राहुल ने शशि को लौटा दिया, ‘मैं बदबू वाला लड्डू नहीं खाऊँगा।’
वरुण ने चिढ़कर कहा, ‘इः बड़ा लाटसाहब आया है जो बदबू वाले लड्डू नहीं खाएगा।’
बजाली इलाके का एक विख्यात चोर था गुणामस्ति। उसके विरुद्ध कोई मुकदमा नहीं था पाठशाला थाना में। चोरी पकड़े जाने पर जनता ही उसकी धुलाई कर देती। और पकड़े नहीं जाने पर वह छाती फूलाकर सड़क के बीच से पीले ताम्बूल के दो थोक लिए शनिवार या मंगलवार की हाट में जाता। किसी वजह से उस दिन पिता वरुण अपना दाढी बनाने के सामान को घर के पिछवाड़े के बरामदे में ले गये थे। चेहरे पर सेविंग क्रीम को गालों में मलते हुए आधा इंची मोटा कर लिया था। उनके पीठ के पीछे बगीचा था और सामने आठ-दस इंच का आईना। बगीचे के ताम्बूल से लेकर बाँस के झुरमुट तक का प्रतिबिम्ब दिखायी देता था उस आईने में। दीमकों का टीला और टूटे हुए पत्तों के अलावा। अचानक वरुण ने प्रतिबिम्ब मे देखा कि ताम्बूल के पेड़ पर कोई है।
धीरे से वरुण ने अपना चेहरा धो लिया। तजो के अलावा गजेन्द्रनाथ की नौकरवाहिनी के चार पाँच सैनिक हाथों में लाठी, कटार, रस्सी लेकर सावधानी से बगीचे में घुस गये। राहुल, नीपा, अनुप, विभू, रिकि आदि भी इस सेनावाहिनी के पीछे-पीछे चुपचाप बगीचे की तरफ बढने लगे, जहाँ उन लोगों के लिए अपार कौतुहल और आनन्द छिपा हुआ था।
तजो ने कहा, ‘वह रहा गुणामस्ति।’
पिता वरुण ने ऊपर की ओर देखते हुए आवाज़ दी, ‘चुपचाप उतर आओगे या...? नहीं तो हम लोग तुम्हें हुक से खींच लेंगे।’ वरुण ने ताम्बूल के ऊपर जकड़ कर बैठे गुणामस्ति को देखते समय आसमान की तरफ नहीं देखा था। राहुल और नीपा ने देखा था कि गुणामस्ति आसमान में दौड़ रहा है, जिसमें फड़फड़ा कर दो अनजाने पक्षी उड़ने लगे।
एक बाँस के अगले सिरे पर हँसिया बाँधकर बड़ा-सा लम्बा सा भयंकर हुक लगाया हुआ था जो राहुल लोगों की बाड़ी में ताम्बुल तोड़ने के लिए बनाया गया था। दो सैनिकों ने उस बाँस को ऊँचाकर गुणामस्ति को दिखलाया। गुणामस्ति की आँखों में वह हुक नाचने लगा। और आसमान की बाहरी खाल की पतली झिल्ली टूटकर गिर गयी।
गुणामस्ति सहजता से हार माननेवाला जीव नहीं था। ताम्बूल के पेड़ पर वह ऐसे डोलने लगा कि मानो पेड़ टूट जाएगा, इस तरह झूलते हुए वह दूसरे पेड़ के क़रीब पँहुच गया। इसके साथ ही वह पहले वाले पेड़ पर दिखायी नहीं दिया। वह दूसरे पेड़ पर चढ़ गया। इसी तरह वह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर झूलते रहने का खेल उसने वरुण लोगों को कूद कूद कर दिखलाया। राहुल और नीपा लोगों को सर्कस के इस खेल में बड़ा आनन्द आया। खुशी के मारे वे लोग किलकारी भरने लगे। यद्यपि ये बिना पैसे के सर्कस का खेल था, लेकिन तजो ने सोचा कि सर्कस के इस खेल में गजेन्द्रनाथ डूब सकता है।
सर्कस का खेल लगभग खत्म होने को था क्योंकि एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर कूदते हुए वह थक गया था। बगीचे के ताम्बूलों के सारे पेड़ों पर वह कूदना शेष हो चुका था। उसके बाद उसका आसमान की तरफ कूदना शेष था। अगर उस वक़्त उसे कोई पक्षी मिल जाता तो वह कूदते हुए उसकी पीठ पर बैठकर कहीं और उड़ जाता। लेकिन उस समय गजेन्द्रनाथ के बगीचे में कोई पक्षी नहीं था। इतनी ज़्यादा चीख पुकार और ताम्बूल के पेड़ों पर मची हलचल के बीच भला परिन्दे वहाँ कहाँ रुकते। गजेन्द्रनाथ के पश्चिमी दिशा की ओर रहने वाले पड़ोसी युवाओं के बिना देखरेख के पड़े वीरान काँटो के बेड़े से घिरे बगीचे से परिन्दे गुणामस्ति का सर्कस देख रहे थे।
अन्तिम ताम्बूल के पेड़ को पकड़कर गुणामस्ति हाँफ़ने लगा। पिता वरुण और सेनावाहिनी ने हुक ले जाकर उसकी आँखों के सामने लहराया।
वरुण ने आवाज़ दी, चुपचाप उतर आओ। अन्यथा तुम्हारे पाँव चले जाएंगे।
जैसा कि सब जानते थे, वैसे ही गुणामस्ति भी धार्मिक गजेन्द्रनाथ को जानता था। गजेन्द्रनाथ के बेल के नीचे की दुकान में वह कभी-कभी चाय लौंग खा लिया करता था। गजेन्द्रनाथ के परिवार के अन्य सदस्यों की आदत व स्वभाव से वह भलीभाँति परिचित था। लेकिन इस तोंद वाले हिन्दी मास्टर के स्वभाव के बारे में वह कुछ नहीं जानता था। इसीलिए इतनी देर तक सर्कस दिखलाता रहा था और उसने अन्त में सोचा-कि क्या पता, अगर कोई अनहोनी घट गयी तो। इस आदमी का कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। गुणामस्ति सरसराकर पेड़ से नीचे उतर आया। एक तुच्छ चोर द्वारा इतनी देर तक सर्कस दिखाकर समय नष्ट करने के कारण गजेन्द्रनाथ का बड़ा बेटा क्रोधित हो गया। अपने दो सैनिकों की मदद से वरुण ने खुद अपने हाथों से नारियल की रस्सी से गुणामस्ति के दोनों हाथों को पीठ की तरफ करके कसकर बाँध दिया।
गुणामस्ति ने एकबार कहा भी, नारियल की रस्सी से मत बाँधो, बहुत तकलीफ होती है, दूसरी रस्सी नहीं है क्या।
‘चुप रहो। तेरा मुँह तोड़ दूँगा।’ वरुण ने कहा। इसको बिजली के खम्भे से बाँधना होगा। सेनावाहिनी के एक सदस्य ने अपनी खड़खड़ाती आवाज़ में कहा, मानो वरुण के मन की बात उसने कह दी।
राहुल का एक बार मन हुआ कि वह दीमकों के टीले को गुणामस्ति के इस सर्कस के बारे में बता दे। लेकिन वह टाल गया। इस जंगली नायक से दूर जाने का मतलब होता कि हाथ में आये मधुर पलों से दूर हो जाना।
वरुण, वरुण की सेनावाहिनी और राहुल लोगों की खिलाखिलाहट गुणामस्ति को गजेन्द्रनाथ के घर के दालान से होते हुए आगे की दिशा यानि रास्ते की तरफ खांच कर ले गयी। दालान पार करते समय गजेन्द्रनाथ की छोटी बहू भानु ने नये घर के बरामदे से गुणामस्ति को देखा। तरुणी बुवा ने मिरगी से हुए अपने विकलांग शरीर को हिलाते हुए कुर्सी पर बैठे-बैठे ही देखा। शशि ने दमकल के पार से उसे देखा। अमृतप्रभा दालान की तरफ आकर सभी को इशारा करते हुए बोली, ‘इसे छोड़ दो। इसे मारना मत।’ लेकिन उत्तेजना के इन पलों में उसकी बात कौन सुनता। मालिनी दीदी उस समय बाथरुम में थी। वरुण ने शरीर में लगाने वाले पीयर्स साबुन के टुकड़े को आँखों के सामने कर उसके अन्दर के हिस्से को देखा। देखा था साबुन के अन्दर के कमला रंग को।
अन्त में उस दिन सुबह के नायक गुणामस्ति को बिजली के खम्भे में बाँध दिया गया। इसबार उसके पीठ के पीछे बँधे हुए हाथों को खोलकर सामने बाँध दिया गया। दोनों पाँव और कमर की रस्सी को लोहे के शीतल खूँटे में कुछ इस तरह से बाँध दिया गया कि ऐसा लगे जैसे उसकी पीठ के भार से ही खम्भा टिका हुआ हो।
मिठाई पर भिनभिनाती हुई मखियों की तरह राहुल लोगों के शरारती दल में बाबुल-विनीता भी जुड़ गये और गुणामस्ति को घेर लिया। राहुल ने तो एकबार उसके कन्धों को ही छू लिया-कितना शक्तिशाली है ये नायक, थोड़ी देर पहले क्या सर्कस दिखाया था। उसकी माँसल दोनों बाहों में पसीने की बून्दों को चमकते देखकर सुबह के सूरज को बहुत आनन्द आया। कारण इस धरती पर इतनी सुबह किसी की बाँहे पसीने से भीगती नहीं थी।
गुणामस्ति ने राहुल की तरफ देखते हुए कहा, ‘एक बीड़ी लाकर दो न।’
राहुल ने पिता से कहा, ‘बापू, वो कहता है कि उसे बीड़ी चाहिए।’
‘बीड़ी चाहिए। उसके पास मत जाना।’ पिता ने गरजकर कहा। और बिना गरजे हुए चेहरे पर सेविंग क्रीम लगाने लगे।
गजेन्द्रनाथ आमतौर पर हुक्का पीते हैं। लेकिन हुक्का भी जब तब नहीं पी सकते। अन्ततः शालिग्राम के लिए जब फूल तोड़ रहे हो,ताम्बूल उठा रहे हों, आड़ लगा रहे हो तब हुक्का नहीं पी सकते। लेकिन ये सब करते हुए ओंठों में बीड़ी दबाये काम करने का आनन्द ही कुछ और है, इस बात को गजेन्द्रनाथ महसूस करते हैं। इसीलिए गजेन्द्रनाथ अपने बिस्तर के सिरहाने में आधा बण्डल मलय बीड़ी से ज़्यादा शक्तिशाली तूफानी बीड़ी रहती थी।
राहुल ने गजेन्द्रनाथ के सिरहाने से अति सावधानीपूर्वक एक बीड़ी चुराकर गुणामस्ति के हाथों में खोंस दी। इस बात का नीपा के अलावा किसी को पता नहीं था। लेकिन गुणामस्ति इसे पीयेगा कैसे?
गुणामस्ति ने राहुल से कहा, किसी को बोलो हाथ की गाँठ खोल दे।
राहुल ने यह बात तजो को बतायी। तजो को गुणामस्ति की समस्या और कुटिल चाल को समझने में देर नहीं लगी। इसलिए उसने गुणामस्ति के हाथों से बीड़ी लेकर काले जामुन की तरह की खाल और रंग के औंठो के बीच में खोंस दी। और दियासलाई लाने के लिए बेल के नीचे की दुकान में गया।
गुणामस्ति ने सर्कस का एक और खेल दिखाया, बीड़ी को एक कौशल से (मुँह खोलकर) मुँह के अन्दर घुसा ली और निकाल ली। राहुल ने कहा, और एक बार दिखाओ... और एक बार दिखाओ।
गुणामस्ति ने दो-तीन बार और ऐसा करके दिखाकर उसकी बीड़ी का मोल चुका दिया।
तजो ने जली हुई लकड़ी लाकर गुणामस्ति की बीड़ी के सिरे पर लगा दी। उसने ज़ोर से कश लेते हुए नाक से धुआँ निकाल दिया, हलके नीले रंग का।
उस दिन शनिवार की हाट थी। हाट में आनेवाले लोगों ने गुणामस्ति की दयार्द्र स्थिति देखकर उसको सुनाते हुए कोई न कोई बात सुना दी। शरारती लड़कों ने उसको चिढाया- ‘गुणामस्ति गुणामस्ति आज यम के हाथों पड़ गया...’
पिता वरुण दाढ़ी बनाकर पियर्स साबुन से नहा धोकर इस्त्री की हुई पंजाबी धोती पहनकर बजाली राष्ट्रभाषा समिति की अध्यक्षता करने लिए निकल पड़े। तजो आमतौर पर अपनी साइकल को पम्प से हवा भरकर इसी बिजली के खम्भे से टिका दिया करता था लेकिन आज वहाँ पर गुणामस्ति के बन्दी होने के कारण नहीं रख पाया। साइकल में स्टैण्ड नहीं होने के कारण उसे हाथों से पकड़े हुए वह खड़ा था।
बजाली राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष ने सभी को इशारा करते हुए कहा, ‘मेरे लौटने तक उसे कोई नहीं छोड़ेगा।’
इतना कहकर पैडल पर पाँव रखकर कूद कर चढ़ते हुए घण्टी बजाते साइकल चलाते हुए चले गये। विशरमनला तालाब के लकड़ी की पुल को पार करते हुए बाँयी तरफ के ढलान से जब अध्यक्ष ने साइकल उतार दी, शहीद भवन में नीरवता फैली हुई थी। इसी शहीद भवन में परिचय से लेकर विशारद तक पढ़ाई होती थी। समिति का अपना कोई भवन नहीं था। सुबह आठ बजे से साढ़े नौ बजे तक वह एक स्कूल था, उसके बाद शहीद भवन- उसमें एक हॉल था जिसमें एकांकी नाटक प्रतियोगिता हुआ करती थी, बजाली की सारी बड़ी सभाएँ यहीं पर हुआ करती थी।
अध्यक्ष जब स्कूल पँहुचे तो देखा नाक से आवाज़ निकालने वाले जगदीश मास्टर ‘एक हृदय हो भारत जननी’ गा रहे थे।