02-Aug-2023 12:00 AM
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चाँद सूरज का फ़्यूजन
जापान में ओटेमन विश्वविद्यालय, इबाराकी से हम लौट रहे थे। मैं और प्रो. कोमात्सु टैक्सी में बैठे थे। शाम के लगभग पाँच बज रहे थे। शाम ऐसी तेज़ी से उतर रही थी, मानो हिन्दुस्तान में रात के आठ बज रहे हों, ऊपर से बादल घिरते हुए, झूमते हुए पूरी मतवाली चाल में उतर रहे थे, हमारे पास... पास...आते हुए... तभी प्रो. कोमात्सु ने कहा- ‘उधर देखिए।’ बाँयी तरफ एक खूब बड़ा, खूबसूरत, सुनहरा गोला हमारी टैक्सी के साथ-साथ चल रहा था- दमकता हुआ, इतना पास चलता हुआ, इतना कि उसे छूने का दिल कर जाए। मन हो कि अभी टैक्सी रुकवाकर उतर जाऊँ और धीरे से उसे छू लूँ - एक क्षण को लगा, तो ये है अस्त होता हुआ सूरज! इतने बादलों और अँधेरे के बीच... बड़ा उतना, पर लाल उतना नहीं - उसी एक क्षण में उत्तराखण्ड के लैंसडाउन में अस्त होता, सिन्दूरी आभा की आँच में पिघलता, बहुत निकट लगता, पहाड़ों के पीछे छिपता सूरज याद आया। मानो रात सोने के लिए अपने घर जा रहा हो - इतना आश्वस्तिदायक कि बस कुछ देर का अँधेरा है फिर सुबह का वैसा चमकता उजाला सब धो देगा - सारी कालिमा, सारे क्लेश... ऐसा लगता मानो बस उस पहाड़ के पीछे, वहीं तक, हमारी पहुँच के इतने निकट कि उसके घर जाकर हाल समाचार लेकर लौटा जा सकता है.... एशिया का बेस्ट सनसेट कहलाता है लैंसडाउन का सनसेट। उसी एक क्षण में हमारी प्रिय जगह पचमढ़ी का धूपगढ़ भी कौंध गया। सनसेट की बात आए और हम इतने साल पचमढ़ी (मध्यप्रदेश) में अपने रहने को भूल जाएँ, ऐसा सम्भव ही नहीं था। धूपगढ़ मध्य भारत का सबसे ऊँचा स्थान माना जाता है। वहाँ के सनसेट को देखना एक अनोखा अनुभव है। मैं जीवन में पहली बार मैदानी इलाके से निकल कर पहाड़ की तलहटी में बसे पचमढ़ी में आयी थी। चारों तरफ पहाड़ों से घिरे किसी सुन्दर हरे कटोरे की तरह पचमढ़ी किसी ऊँचे पहाड़ पर से दिखती, तब धूपगढ़ के सूर्यास्त ने मुझे अचम्भित करते हुए अपनी जकड़ में ले लिया था- दृश्य का सौन्दर्य इतना विराट और भव्य था कि रात में चौंक कर नींद खुल जाया करती - सपने में सूरज के पहाड़ों के पीछे छिपने और सामने एक पेड़ के जरा-सा ओट बनाने का दृश्य होता - मैं पैदल पहाड़ों पर जाने कौन से रास्ते दौड़ती जा रही होती - पास पहुँचने वाली होती कि चौंक कर उठ जाती...
विराट का सौन्दर्य आतंकित भी करता है!
‘चाँद है।’
डॉ. कोमात्सु की आवाज़ से मैं एकदम गड़बड़ हो गयी।
चाँद और सूरज एक दूसरे में मिल गये। हाँ, चाँद ही- वैसा लाल नहीं, सूर्यास्त के सूरज जैसा नहीं, सुनहरा....
इतना बड़ा चाँद मैंने पहली बार देखा। किसी चाँद को इतने पास पहली बार जाना।
इतने नज़दीक कि टैक्सी रोक कर उधर चल पड़ें!
इतने नजदीक कि हाथ बढ़ा कर उस मुहावरे को सच कर दें, जिसमें चाँद छू लेने की कल्पना जगमग करती है।
छू लें एक चाँद!
एक स्वप्न!
एक जाग!
डॉ. कोमात्सु के स्नेहिल और सुन्दर चेहरे पर चाँद का ही उजास था, जब वे मेरे लिए जापानी भाषा के कुछ वाक्य लिख रही थीं कि मैं उनका सही उच्चारण कर सकूँ -
‘अरिगातो गुजाइमाशिता...’ (धन्यवाद, आपसे मिल कर खुशी हुई...)
चलते हुए ठहरना
जगह- वर्क होटल के कमरे का सन्नाटा,
ईबाराकी, जापान
23.11.2018
8.30 की एरोबस से हम इबाराकी मेट्रो स्टेशन तक आये। मेट्रो एकदम साफ़ सुथरी थी, सुन्दर गहरे हरे वेलवेट की सोफ़े जैसी सीट थी। किसी भी जगह अधिक भीड़ नहीं थी। मेट्रो से हम ताकात्सुकी स्टेशन पर उतरे। वहाँ से बमुश्किल पाँच मिनट की पैदल दूरी पर वर्क होटल था, जिसके कमरा नम्बर 611 में मुझे ठहरना था। पैदल जब हम आ रहे थे तो जिस बाज़ार में यह होटल था, वह ऊपर से लम्बी छत से ढँका था, इस बात ने सबसे पहले मेरा ध्यान खींचा। चौड़ी सड़कें, दोनों तरफ़ दुकानें और ऊपर रंगीन सी छत। शायद पानी अधिक बरसता हो इधर, ऐसा ख्याल आया। फिर अपने यहाँ के राजा महाराजाओं द्वारा चलाये जाने वाले कुछ हाट बाजार याद आये। वे भी अक्सर खुले में नहीं लगते थे। हालाँकि ज़्यादातर भारतीय बाजार खुले में ही लगते रहे हैं। यहाँ जगह का उपयोग करने की अद्भुत कला है। कम-से-कम जगह में अधिक से अधिक सुविधाएँ... साफ़ सफ़ाई खूब। कहीं मैंने पढ़ा था कि जापान की सड़कें इतनी साफ़ दिखती हैं जैसे ड्राई क्लीन करके लायी गयी हों।
तो सुबह उठकर, मैंने पहली बात यही सोची कि सुबह की रोशनी में नहा धोकर कैसा दिखेगा जापान! जो कल मैंने रात की जगमग रोशनी में देखा था - उससे अलग! या वैसा ही। सुबह, धूप की ऐसी बारिश थी कि सारा शहर मानो रात की करवट से उठकर, रोशनी में नहा कर एकदम नया हो गया हो! इतना रौशन, इतना जगमगाता!
सुबह-सुबह मैं पास के सुपर मार्केट में टहलते हुए गयी। इसके बारे में मुझे कल ही बता दिया गया था। यहाँ के खाने में अधिकतम नॉनवेज है - फ़िश, सॉसेज, पोर्क वग़ैरह...। फ़िश की तो हज़ार वेरायटी- पैकिंग ऐसी बढ़िया कि क्या कहने! लोग सुबह ऑफ़िस लेकर जाने के लिए यहाँ से अपना मनचाहा नाश्ता या खाना डिब्बों में पैक कर के खरीद रहे थे। एक तरफ ऐसे फ्ऱेश खाने को सजा कर रखने की जगह थी - यह बहुत अच्छी व्यवस्था थी - लोग अपना डिब्बा लेकर निकलते, काउण्टर पर बिल चुकाते और अपने गन्तव्य की तरफ निकल जाते। एकदम शान्त भाव से यह चल रहा था- रोबोट की तरह!
मैं अपने लिए कुछ वेजीटेरियन खाना लेना चाह रही थी। दो पीस केक खरीदा और केला। बिल था 460 येन का। यह एक महंगा देश है। कुछ जापानी कार्टून सीरियल याद आए शिनचैन... डोरेमोन... पुलिसमैन कोचिकामे... साकुरा....आदि, जिसमें आइसक्रीम हज़ार रूपए की मिलते हुए देखा था, अब यह साक्षात था।
दही लेना था पर समझ में नहीं आयी - इतनी अधिक वेरायटी थी और भाषा के मामले में यहाँ अंग्रेज़ी नहीं चलती, सभी पैकेट पर जापानी में लिखा था तो पढ़ा भी नहीं जा सकता था। फिलहाल दही का ख़याल छोड़ दिया।
23 तारीख़ की दोपहर 01 बजे के क़रीब एक श्रीमान शुन हासेबे मुझे लेने आए। उनके साथ मुझे ओटेमॉन गाकुइन यूनिवर्सिटी, इबाराकी पहुँचना था। रास्ते में मिस्टर शुन जापान के बारे में कुछ जानकारियाँ देते रहे। यूनीवर्सिटी के आगे हम टैक्सी से उतरे - सामने भव्य इमारत थी। खास जापानी शैली का स्थापत्य। यह विश्वविद्यालय बहुत पुराना है, सम्भवतः 1888 में बना था और इसकी फ़ाउण्डेशन एक लेफ्टीनेन्ट जनरल तोमोनोसुके ताकाशिमा के द्वारा रखी गयी थी। इसमें ईस्ट एशियन कल्चर का एक बड़ा विभाग है, जिसके भीतर उनके पास अपना एक पब्लिकेशन डिवीजन भी है।
मिस्टर शुन हासेबे और मैं जैसे ही टैक्सी से उतरे, लोग मिलने आने लगे। सामने से डॉ. कोमात्सु लगभग दौड़ती हुई आ रही थीं। उनके चेहरे पर फैला आह्लाद मेरे मन में अमिट हो गया - तो आखिर मैं उनके विभाग में आ ही गयी। इसी विभाग में वे प्रोफ़ेसर हैं। ईस्ट एशियन कल्चर विभाग के दरवाज़े पर बड़ा सा पोस्टर लगा था- कल के कार्यक्रम का, मेरी बड़ी-सी तस्वीर लगी थी, परिचय जापानी में लिखा था - यह सज्जा मुझे भीतर तक छू गयी।
यह सम्मान का तरीक़ा अद्भुत था। यह केवल मेरा नहीं, समूचे भारत का सम्मान था। अब भारतीय संस्कृति से रचे बसे उस कमरे में मेरा प्रवेश हुआ, जिसे देखकर बस इतना ही मुँह से निकल सकता था कि यहाँ भारत के सब रंग बसा लिये गये हैं। यह डॉ. कोमात्सु का कमरा था। सामने एक छोटे से टेबल पर पूरी साज सज्जा के साथ माँ दुर्गा या शायद माँ वैष्णवी की तस्वीर लगी है, उसके आगे पूजा की थाली, जिसमें अलग-अलग खानों में पूजा की सामग्री है, बहुत-सी चूड़ियाँ उसमें रखी थीं, कई तरह की।
बहुत से क्षेत्रों की संस्कृतियों की पहचान यहाँ की जा सकती थी- एक तरफ राजस्थान था तो दूसरी तरफ बनारस, उड़ीसा... पश्चिम बंगाल... मिट्टी के खिलौने, मिनिएचर आर्ट, लकड़ी की चीज़ें, छोटे-छोटे बर्तन, देवी, देवता...
एक और चीज़ थी यहाँ- मेरा ध्यान खींचती बल्कि मुझे आश्चर्य और आह्लाद से भरती - उड़ीसा की दस्तकारी, जिसमें एक औरत हाथ में कँघी पकड़े दूसरी औरत का बाल काढ़ रही थी, दूसरी औरत के बाल खुले थे और वह पीछे मुँह करके बैठी थी। चटक रंगों के धागे इस्तेमाल किये गये थे, जो भारत की खास पहचान थे - चटक भारतीय रंग : धुंधलके से दूर। यह दस्तकारी मुझे उन बीते दिनों में ले जा रही थी, जब कुछ साल पहले डॉ. कोमात्सु मेरी कहानियों का अनुवाद करने के सिलसिले में, किसी प्रोजेक्ट के तहत भारत आने पर मुझसे मिली थीं, तब मैंने यह खास दस्तकारी उन्हें भेंट की थी और उसे कितने सम्मान के साथ उन्होंने यहाँ अपने विभाग में पूरी भारतीय धज में लगाया था।
दृष्टि भी कोई चीज़ है!
जापान की भारत के प्रति दृष्टि।
यह वस्तु की पहचान भर नहीं।
यह दस्तकारी का नमूना भर नहीं!
यह हमारी समूची सांस्कृतिक विरासत समेटे छोटा-सा मिनिएचर...
भारत का एक हिस्सा कि समूचा भारत
भारत अपने हर हिस्से में समूचा ही है...
तो यह भावों से बना एक ऐसा पुल बना रहा था, जिस पर चलकर हम दो भिन्न देश के निवासी अनुभव के धरातल पर तरल हो रहे थे....
फिर हम सब बैठे कल के कार्यक्रम की तैयारी के सिलसिले में बात करने....
जब हम लोग कन्साई इन्टरनेशनल एयरपोर्ट पर मिले थे तभी मेरे हाथ में एक फ़ाइल पकड़ायी गयी थी। इस फ़ाइल में मेरे जापान की धरती पर पहला क़दम रखने से लेकर भारत पहुँचने तक का सारा विवरण, समय सारणी के साथ मौजूद था। टाइम इतना कसा हुआ था कि पहली नज़र में मेरे मन में यह ख्याल उठा था कि क्या लंच या डिनर इतनी देर में समाप्त हो जायेगा? पर बाद में समझ आया कि उन लोगों का हिसाब एकदम सही था। यह समय, जो यहाँ खुल रहा था मेरे सामने, बिल्कुल तय हिसाब से था...
मेरा कल का व्याख्यान जापानी भाषा में अनूदित हो रहा था...
मेरी बहुत-सी कहानियों के अनुवादों की एक बुकलेट थी, जो कल कार्यक्रम में श्रोताओं को वितरित की जानी थी।
मेरी फ़ोटो सहित सुन्दर पोस्टर जापानी भाषा में थे, जिसमें मैं, अपनी तस्वीर के अलावा केवल समय और दिनांक पढ़ सकती थी...
मेरी किताबें यहाँ की अल्मारियों से झाँक रही थीं...
कुछ सवाल मेरे व्याख्यान को लेकर हुए, कुछ समय को लेकर। समय का तालमेल बैठाया गया। कुछ कहानियों का अंश वहाँ पहले से ही छांट कर रखा गया था। मेरी कहानियों ‘मुक्ति प्रसंग’, ‘कथा के ग़ैरज़रूरी प्रदेश में’, ‘छावनी में बेघर’ आदि का जो हिस्सा चुना गया था, वह मुझे पसन्द आया। मैंने अपनी सहमति दी। ये हिस्से भी कल हिन्दी और जापानी दोनों भाषाओं में पढ़े जाने थे। और भी बहुत-सी बातें हुईं।
फिर हम सब ज़ल्दी डिनर करने के इरादे से बाज़ार पहुँचे। वहाँ के रेस्टोरेंट में बनने वाले आइटम पके रूप में बाहर प्रदर्शित किये हुए थे। कहीं खाने का यह प्रदर्शन शीशे के भीतर था तो कहीं बाहर। सुन्दर साज सज्जा थी। अलग तरह के लगने वाले इन सुन्दर सजे व्यंजनों की मैंने कुछ तस्वीरें भी लीं। एक ख़ास तरह का खाना मंगाया गया। मैं चूँकि नॉनवेज नहीं खाती, इसलिए इस बात का एक अतिरिक्त मेरे स्वागत सत्कार में जुड़ गया था। जापानी लोग मेहमान नवाजी में भारत से कम नहीं। इस समय मैं उनके मेहमान नवाज़ी का आनन्द उठा रही थी।
अण्डा मैं खा लेती हूँ, मैंने सोचा था इससे कुछ राहत मिलेगी, पर यहाँ अण्डा बहुत कम खाया जाता है। मुर्गी पालन भी बहुत कम है। डेयरी भी कम है, इसलिए दूध आदि के प्रोडक्ट भी कम इस्तेमाल होते हैं। परम्परागत खाने में अण्डा और दूध, दही नहीं है। काली चाय है या ग्रीन माचा टी, जो बहुत खास जापानी हर्बल से बनी होती है।
जो खाना मंगाया गया था, वह देखने में इतना सुन्दर लग रहा था कि उसकी तस्वीर लिये बिना नहीं रहा जा सकता, सो लिया। इसमें पीले रंग के बहुत हल्के पतले अण्डे के लेयर के भीतर चावल, सब्जियाँ आदि भरी हुई थीं, साथ में था एक छोटा सा आलू, जिस पर मेयूनी और सफ़ेद सॉस था, टमाटर और चीज़ का सलाद था और था अदरक का कुछ अलग-सा अचार। इसका नाम था ओमूराइस। अलग सौन्दर्य और अलग स्वाद। मुझे बताया गया कि यह व्यंजन फ़्रांस से होता हुआ यहाँ आया है या शायद फ्रांस का है क्योंकि जापान में अण्डे के व्यंजन नहीं हैं। इसका जापानीकरण किया गया होगा कभी। जो भी हो, यह एक सुन्दर और स्वादिष्ट भोजन था।
हम मेट्रों से वापस आये - ताकात्सुकी स्टेशन। मुझे मेट्रों का कार्ड दिया गया था, पर उसका किराया देख कर हैरानी होती थी!
विकास के साथ महंगायी अनिवार्य तथ्य है...
नारा : कोई प्राचीन रहस्य
जगह- नारा, जापान
भ्रमण की थकान और डायरी पर स्याही के निशान
27.11.2018
अज्ञेय ने कभी यात्राओं के बारे में लिखा था कि ‘जानना ही सब कुछ नहीं है। देखना, और जो देखा उसके बारे में सोचना भी बड़ी बात है।’
आज नारा जाने का दिन था। दस बजे होटल से निकलना था। प्रो. ताकाहाशी अपनी गाड़ी लेकर आ रहे थे। प्रोफेसर कोमात्सु दस बजे से कुछ पहले ही वर्क होटल पहुँच गयी थीं। वे जब आयीं, संयोग से मैं तैयार होकर प्रतीक्षा कक्ष तक आ चुकी थी। उन्हें अच्छा लगा कि मैं हमेशा समय का ध्यान रखती हूँ। मुझे भी अच्छा लगा कि मैं उनके मन में जमे पूर्व अनुभवों को, जिसमें भारतीयों का लेट लतीफ़ होना शामिल था, कुछ कम कर सकी थी। दरअसल भारत का एक्स्ट्रीम क्लाइमेट आलस को जन्म देता है। हमारी एक लड़ाई मौसम से भी होती रहती है। प्रो. कोमात्सु अपने साथ नारंगी लेकर आयी थीं। ताकाहाशी जी के साथ, उस समय ओसाका विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाने के लिए भारत से नये-नये नियुक्त हुए शिक्षक युवा वेदप्रकाश आये थे और उनकी पत्नी रूपा भी साथ थीं। नारा के लिए हम लोग ताकात्सुकी, ओसाका से निकले। यह लगभग एक घण्टे की यात्रा थी। सड़कें शान्त थी, गाड़ियों या हार्न की कोई आवाज़ नहीं सुनायी देती थी। बमुश्किल कुछ एक गाड़ियाँ ही दिखी। सड़क का इतना सन्नाटा अगल बगल के सौन्दर्य को देखने का पर्याप्त समय देता था। दोनों तरफ घने मकान नहीं थे। मकान दूरी पर कहीं-कहीं दिखते थे। फ़्लैट सिस्टम नहीं दिखायी पड़ा। शायद किसी दूसरी तरफ हो। मकानों में लकड़ी का प्रयोग अधिक था या जो मकान सीमेंट के थे, वे भी ज़्यादातर ढलवाँ छत वाले थे। रास्ता कुछ पहाड़ी था और हरा भरा भी।
रास्ते में हांडा मोटर्स का शो रूम दिखा। ताकाहाशी जी गाड़ियों के बारे में बताने लगे। जापान में गाड़ियाँ बहुत सस्ती हैं मसलन पचास हज़ार में बेहतरीन गाड़ी मिल सकती हैं। पर बाहर ले जाना महंगा पड़ जाता है। जापान से बाहर ले जाने पर टैक्स बहुत ज़्यादा पड़ जाता है। इसलिए बहुत से विदेशी लोग यहाँ गाड़ी खरीद लेते हैं और यहाँ से जाते समय बेचकर चले जाते हैं। जापान में लोग पर्सनल गाड़ियाँ बहुत कम रखते हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट इतना अच्छा है कि अपनी गाड़ी की प्रायः ज़रूरत नहीं पड़ती। लोग पर्सनल गाड़ी को महीने में कभी-कभी निकाल कर सैर करने जाते हैं या शौक पूरा करते हैं।
‘रोड एक्सीडेंट नहीं होते होंगे।’ मैंने पूछा।
‘होते हैं। कम हैं।’ ताकाहाशी जी ने कहा ज़रूर, पर मुझे लगता है कि बहुत ही कम होगा ऐसा। हम लोग तो रोड एक्सीडेंट से परेशान लोग हैं, न जाने कितनी जानें हर रोज़ एक्सीडेंट की भेंट चढ़ जाती हैं। जापान में लोग ट्रैफ़िक नियम मानते हैं। सड़क पर पैदल चलने वालों का सर्वाधिक सम्मान है। गाड़ियों को पैदल यात्रियों के लिए रुकना पड़ता है या रोक दिया जाता है। यहाँ पैदल चलना बड़ी बात है। ओसाका में मुझे कुछ विद्यार्थी साइकिल चलाते दिखे थे। साइकिल चलाना भी अच्छा माना जाता है, इसे वर्ग विभेद से जोड़ कर देखने की बजाय स्वास्थ्य से जोड़ कर देखा जाता है।
हमारे जीवन की तमाम सामान्य चीज़ें भी सम्मान की हक़दार होती हैं।
जैसे कि पैदल चलना।
यहाँ रोड पर, चौराहों पर, सड़क पार करने वालों को प्राथमिकता कुछ इस तरह दी गयी, जैसे कि एक चौराहे पर किनारे, एक बड़े खम्भे पर एक बटन लगी है, उसे दबाने से ट्रैफिक लाइट रेड हो जाएगी। ट्रैफ़िक रुक जाएगी और पैदल आदमी आराम से सड़क पार कर सकता है।
मैंने पूछा कि ‘आप लोग जब इंडिया आते हैं तो सड़क कैसे पार करते हैं?’
हमारे यहाँ सड़क पार करना एक नया जन्म पाने जैसा काम है खास कर दिल्ली की सड़कों पर!
‘कनॉट प्लेस पर बहुत दिक्कत होती है।’ ऐसा उन लोगों ने माना। पर यह उन लोगों ने संकोच से स्वीकार किया था। अपनी असलियत तो हम बखूबी जानते हैं। कभी-कभी दिल्ली के किसी जगह पर सड़क पार करने में पन्द्रह बीस मिनट भी लग जाते हैं। छोटे और भीड़भाड़ से भरे शहरों में तो सड़क पार करना ‘कुएँ में मोटर साइकिल चलाने’ जितना जोखिम भरा काम है।
खैर तो नारा पहुँच गये हम लोग। मन्दिरों, श्राइन और बागीचों से घिरा नारा- वैभवशाली नारा। यहाँ जापान का अतीत अपनी भव्यता में बिखरा हुआ है। नारा हरा भरा है। कहते हैं कि यह जापान की सबसे पहली राजधानी थी लगभग 710 ईसवी से 794 ईसवी तक। जापान के टूरिस्ट गाइड में भी क्योटो के बाद दूसरे नम्बर की लोकप्रियता इसे हासिल है। यहाँ आने के पहले मैंने इसके बारे में पढ़कर जानने की कोशिश की थी। पर जब आप पढ़े हुए को अपने सामने साक्षात पाते हैं तब कहीं उसके वास्तविक गौरव से अभिभूत होने का अवसर मिलता है। नारा भी कंसाई इलाके में आता है। यहाँ के बौद्ध मन्दिर और शिंटो जी श्राइन इतिहास के किन्हीं पलों के साक्षी की तरह खड़े हैं शान्तचित्त, भव्य और विशाल। यहाँ दुनिया की ‘लार्जेस्ट वुडेन बिल्डिंग’ के नाम से विख्यात तोदाई जी मन्दिर (Todai-ji temple) है, जिसे यूनेस्को ने वर्ल्ड हेरिटेज में रखा है। सबसे पहले हम इसी मन्दिर के लिये चले।
दाइबुत्सु का विराट घर : तोदाई जी मन्दिर
तोदाई जी मन्दिर अपनी विराट भव्यता में चकित करता है। मुख्य द्वार विशाल था - लकड़ी से निर्मित। तूफ़ान और विश्व युद्धों के अनेक नुकसान इन भव्यताओं को झेलने पड़े हैं। उनके निशान अभी भी कई जगह साफ़ हैं। मुख्य द्वार के विशाल खम्भों के निचले हिस्से में जले हुए चिह्न मौजूद थे। यह युद्ध काल की देन है, ऐसा मुझे बताया गया। इस मुख्य द्वार से प्रवेश करने पर विशाल मन्दिर दूर से ही दिखने लगता है। उस तक पहुँचने के पहले लम्बे गलियारे से गुज़रना है, फिर सामने चौड़ी सड़क है, जो मन्दिर की सीढ़ियों तक ले जाती है।
कहते हैं कि यह मन्दिर पहले और भी विशाल था, बाद में जब इसे पुनर्निमित किया गया तो यह पहले से तीस प्रतिशत छोटा हो गया। इसके बावजूद इसकी विशालता और भव्यता को आँखों में समेटना मुश्किल है - अपार और अद्भुत! यही दो शब्द मेरे मानस में गूँजे।
लम्बे विशाल गलियारे से होते हुए हम लोग मन्दिर के ठीक सामने आ गये। यहाँ से मन्दिर तक लम्बा चौड़ा रास्ता था, जिस पर दर्शनार्थियों की भीड़ थी, लोग आ जा रहे थे। इस रास्ते में मन्दिर के पहले एक बौद्ध छत्रधारी दीप चक्र था, उसके चारों तरफ मूर्तियाँ खुदी हुई थीं, उसके नीचे गोलाकार परिधि में राख थी, लोग अगरबत्तियाँ जलाकर उसमें खोंस रहे थे। यह भारतीय तरीके की पूजा पद्धतियों से मिलता जुलता तरीका था। मन्दिर की सीढ़ियाँ शानदार थीं। भीतर बड़ा हॉल था, जिसमें ताम्बे से बनी बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित थी। इसे दाइबुत्सु डेन (Daibutsu - den) कहते हैं यानी बुद्ध के घर का विशाल हॉल। दाइबुत्सु (Daibutsu) का अर्थ ग्रेट बुद्ध से है। इसे ग्रेट बुद्ध का घर कहा जाता है। इस मान्यता से ऐसा लगता है कि यहाँ कभी बोधिसत्व ने निवास किया होगा। बुद्ध की यह प्रतिमा लगभग सोलह मीटर ऊँची है और पाँच सौ टन से अधिक भारी। मूर्ति के सम्मुख दो बड़ी मोमबत्तियाँ जल रही हैं। प्रभु के आगे दीप प्रज्ज्वलित करने का यह तरीका भी भारतीय परम्परा जैसा है। हो सकता है कि प्रारम्भ में भारत से आये बौद्धों के साथ कुछ ऐसी चीज़ें स्वतः आयी हों, जो कालान्तर में सर्वशक्तिमान के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करने का माध्यम बन गयी हों, जिसमें पूजा की शैव और वैष्णव पद्धतियाँ शामिल रही हों। या हो सकता है बाद में इसे अपनाया गया हो, यह सब अनुमान ही है, कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता। बौद्ध मन्दिरों में भारतीयता के दर्शन होना सहज ही है। बुद्ध की करुणा भारत, जापान को अधिक सन्निकट लाती है।
मूर्ति में बुद्ध के बाल घुंघराले हैं और एक हाथ आशीष की मुद्रा में है। सिर के पीछे प्रकाश चक्र में अनेक बुद्ध प्रतिमाएँ हैं। मन्दिर की परिक्रमा करने का भी रिवाज़ यहाँ है। कुछ लोग मन्त्र भी पढ़ रहे थे। सामने सिक्का डालने का एक बक्सा भी था, जिसमें लोग अपनी प्रसन्नता से पाँच या दस का सिक्का डाल रहे थे। इस वृहदाकार हॉल के भीतर कुछ और प्रतिमाएँ भी थीं। एक प्रसिद्ध बोधिसत्व की भी विशाल प्रतिमा थी। कुछ बुद्ध के सुयोग्य शिष्यों की भी प्रतिमाएँ थीं। सबसे पहले शायद यहीं किसी ने राक्षस का उल्लेख किया। भारत से चलकर राक्षस यहाँ तक भी पहुँच गये थे! हिन्दुस्तान में राक्षस एक वीर जाति थी, देवताओं के साथ जिनके निरन्तर संघर्ष का उल्लेख मिलता है। बाद में उनकी पराजय ने शायद उन्हें प्रतीकों का विषय बना दिया होगा और वे भयावह के या बुराई के प्रतीक में जकड़ दिये गये होंगे। विजित जातियों ने पराजित जातियों को सम्मानजनक जगह कभी नहीं दी।
यहाँ भी मन्दिर का मिनिएचर हॉल के भीतर सजा हुआ था। मन्दिरों या ऐतिहासिक स्थलों के मिनिएचर रखने की यह परम्परा शायद प्राकृतिक आपदा तूफ़ान आदि के कारण आयी हो, जिससे जिस भी हिस्से को नुकसान पहुँचेगा, उसे पहले जैसा ही दुबारा बनाया जा सके। मन्दिर के एक तरफ एक चौड़ा खम्भा कुछ सुन्दरता और बांकपन से बना था थोड़ा टेढ़ा भी, उसके साथ एक छोटी-सी लगभग चार पाँच मीटर लम्बी सुरंग जुड़ी थी। उस सुरंग के भीतर से लेट कर जाना होता था और खम्भे के गोलाकार छेद से बाहर आना था। इस सुरंग के साथ एक मान्यता जुड़ी थी कि जो दुबारा जापान आना चाहता है, वह इस सुरंग से निकलेगा तो उसकी इच्छा ज़रूर पूरी होगी।
मनुष्य ने अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए कैसे-कैसे उपाय देवों के सम्मुख कर डाले हैं!
बच्चे बहुत आनन्द के साथ उस सुरंग से निकल रहे थे। उनके लिए यह एक बढ़िया खेल था। कुछ बड़े भी लाइन में लगे थे। हममें से केवल वेदप्रकाश सहर्ष सुरंग में घुसने को तैयार थे। शायद उन्होंने कुछ मन्नत भी मांगी और सुरंग से निकल कर बाहर आ गये तब ताकाहाशी जी ने कहा- ‘अब आपका दुबारा जापान आना पक्का हो गया।’
मनुष्य ने मन्नतों को पूरा करवाने के जो उपाय ढूँढ़े, उसे दुर्गम मार्ग से जोड़ने की भी इच्छा प्रकट दिखती है कि आसान रास्तों से मन्नतें पूरी नहीं होती।
शायद यही वजह रही होगी कि जम्मू कश्मीर में वैष्णव देवी की प्राकृतिक रूप से बनी पहाड़ी सुरंग बड़ी कठिन है, संकरी भी है, पर मन्नत के लिए उसे पार करने की मनुष्य की इच्छा कमाल की है! मोटे से मोटा आदमी भी उसमें से निकल जाता है! आस्था का रंग ऐसा ही है! कठिनाइयाँ नहीं देखता! जितना कठिन रास्ता उतना ही ईश्वर की निकटता का अहसास, यह तर्क कुछ समझ में नहीं आता। ईश्वर जैसी शक्ति को तो सहज हमारे निकट हमारी आत्मा की सुन्दरता के भीतर निवास करते रहना है, यह कठिनाई क्यों भला? एक बार बहुत बचपन में पिताजी ने कहा था कि हमारे भीतर जो कुछ मनुष्यता से भरा सुन्दर है, वही ईश्वर है। तब से मनुष्यता ही मेरे निकट ईश्वर है-
‘मुझको कहाँ तू ढूँढे बंदे, मैं तो तेरे पास रे...’
मन्दिर के बाहर हम जिस तरफ से आये, वहाँ सफ़ेद पत्थर की एक पवित्र प्रतिमा थी। इस प्रतिमा के हाथ को स्पर्श करके आप अपनी कोई इच्छा कह सकते हैं। कान में भी कह सकते हैं। वह अवश्य सुनी जाएगी, ऐसी दृढ़ आस्था लोगों में दिख रही थी। कुछ लोग मूर्ति के कान में बुदबुदा रहे थे। बच्चों को भी उठाकर उनके हाथ का स्पर्श कराया जा रहा था। मैंने उस प्रतिमा की सफ़ेद हथेली पर अपना हाथ रखा - हथेली शीतल थी - ऊर्जा का कोई स्रोत उन हाथों में था - मुझे ऐसा अहसास हुआ। आँख बन्द करके मैंने इसे कुछ मिनट तक महसूस किया। ऐसी जगहों पर वातावरण में शान्ति प्रवाहित होती है, दुआओं की ध्वनियाँ तैरती हैं, लोग अपने दुखों के पार जाने की आस्था से भरे होते हैं...
यहाँ से लौटते हुए एक चीज़ और उल्लेखनीय लगती है मुझे, वह है पब्लिक टॉयलेट। इतने साफ़ और ऑटोमेटिक। जन सामान्य के स्वास्थ्य का ध्यान रखना और स्वच्छता को लगातार बनाये रखना बड़ी बात है। साफ़ सफ़ाई के मामले में जापान का जवाब नहीं!
कासुगा - ताइशा श्राइन (Kasuga- Taisha shrine)
डियर पार्क से आगे बढ़ते हुए हम लोग कासुगा ताइशा श्राइन देखने चले। यह शिंटो जी श्राइन है। यहाँ ज़्यादातर बौद्ध मन्दिरों और श्राइन के नाम के साथ ‘जी’ लगा हुआ है। यह आदरसूचक है। सम्भवतः यह भारत से आये बौद्धों के साथ ही यहाँ तक चला आया हो और आदरसूचक होने के कारण नाम के साथ जुड़ा रह गया हो। जापान में ‘जी’ की जगह ‘सान’ लगाने का रिवाज़ है। यह अच्छा भी लग रहा है। भारत का एक रंग इस तरह भी है।
कासुगा जी तक जाने का रास्ता लम्बा था - शायद दो किलोमीटर हो या उससे कुछ कम ज़्यादा। पहाड़ी चढ़ाई भी थी, इसलिए चलने की हमारी गति धीमी थी। वहाँ तक पैदल ही जाना था। इस रास्ते पर कोई साधन नहीं चलता। बहुत से टूरिस्ट आस-पास से गुज़र रहे थे। रास्ता अगल बगल की हरीतिमा को समेटे हुए था, ठण्ड थी और धूप भी। हवा अपनी मतवाली चाल से, कुछ-कुछ तूफ़ानी चाल से चल रही थी। मिट्टी का रंग कुछ ललाई लिए हुए था और चलना अपने आप में सुन्दर अनुभव लग रहा था। पहली बार जापान की मिट्टी का स्पर्श हो रहा था। कहीं-कहीं बड़े पेड़ और घास के मैदान दिखते। कुछ दूर तक हिरणों ने साथ दिया था फिर वे अपनी सीमा में छूट गये। रास्ते में प्राचीन काल की गवाही देते हज़ारों की संख्या में पत्थरों के स्टोन लैंटर्न पड़ना शुरू हो गये। कहते हैं कि दस हज़ार से ज़्यादा है इनकी संख्या। इनका शिल्प कुछ अलग है। मैं सोचने लगी कि जब कभी इनमें दीप जलते होंगे - हवा की तीव्रता को मात देते हज़ारों दीप एकसाथ प्रज्ज्वलित! तो रास्ता कैसा खूबसूरत जगमग लगता होगा!
प्रकाश और सौन्दर्य का अद्भुत रिश्ता है!
ताकाहाशी जी इन दीप स्तम्भों के इतिहास की कुछ कहानियाँ बता रहे थे। इनके साथ सम्राटों की दानशीलता की कहानियाँ जुड़ी थीं तो मनौतियों की कहानियाँ भी जुड़ी थीं। जिन्होंने मनौतियाँ मानी होंगी कभी - यहाँ से आशा का दीप हृदय में लिये लौटे होंगे और मनौती पूरी होने पर दीप स्तम्भ से पथ को प्रकाशमान बनाने की उनकी इच्छा, सुन्दर इच्छा कही जायेगी। इन दीप स्तम्भों पर दान करने वालों का नाम खुदा था। जापान की पुरानी लिपि कहीं-कहीं थी, जिसे देख कर लोग खुश हो रहे थे। जापान की लिपि में कुछ परिवर्तन आया है, ऐसा समझ आया कि वह पहले की कठिनता से निकल कर कुछ सरल होने की तरफ गयी होगी। यहीं पता चला कि जापान ने अपनी लिपि बहुत सोच विचार कर बनायी थी। जापानी अक्षरों को ‘कांजी’ कहते हैं। अक्षर किसी फूल की भाँति सुन्दर होते हैं और अलंकृत भी। हर अक्षर एक समूचा परिवेश या भूगोल की कथा कहता-सा लगता है। इन्हें तैयार करने वालों की कल्पनाशीलता अद्भुत रही होगी। पर इन्हें सीखना आसान नहीं है।
पूर्वजों की बुद्धिमत्ता सैंकड़ों आगामी पीढ़ियों को समृद्ध करती है।
अनेक ‘कांजी’ ताकाहाशी जी ने पढ़ी। किसी एक दीप स्तम्भ पर कविता लिखी हुई थी- जापान की पुरानी शैली में! ताकाहाशी जी ने कुछ पढ़ा, कुछ नहीं पढ़ा जा सका, कई जगह पुरानी होने के कारण लिखावट कुछ धूमिल हो गयी थी। यहाँ प्राचीन कला के खास शिलालेख थे। एक जगह हैरान होना पड़ा कि एक लालटेन पर किसी भारतीय राजा का नाम अंकित था - इण्डिया। उस जमाने में किसी राजा ने कासुगा जी श्राइन को यह दान किया था - यह नाम भी ठीक से नहीं पढ़ा जा सका। बौद्ध दर्शन ही नहीं जीवन व्यवहार के तमाम क्षेत्रों में भारत के जापान से प्राचीन सम्बन्ध नज़र आ जाते थे।
चलते हुए ही दाहिनी तरफ एक ऐसी जगह नज़र आयी, जिसके बारे में जान कर तकलीफ़ हुई। हमारे दाहिनी तरफ बड़ा-सा खुला मैदान था और कुछ दूर पर शायद पत्थर के बने चबूतरे दिख रहे थे। उसके कुछ पीछे एक शेड था। यहाँ हिरणों के सींग काटे जाते थे। अब तक मेरा ध्यान इस बात पर नहीं गया था कि ‘सेमी वाइल्ड डियर’ होते हुए भी इनके सिर पर सींग की जगह ठूँठ भर है तो कैसे? लड़ने भिड़ने के इनके प्राकृतिक हथियार कहाँ हैं? हिरणों के सींग उगने पर उन्हें यहाँ काट दिया जाता था, जिससे ये हिरण टूरिस्ट को कोई नुकसान न पहुँचा सकें। मन खिन्न हो गया।
मनुष्य ने अपने आनन्द के पीछे कैसी क्रूरताएँ छिपा रखी हैं!
दुनियाभर में व्यावसायिक क्रूरताएँ भरी पड़ी हैं!
यह तब खुलता है जब आप नेपथ्य के पीछे की पटकथा देखने लगते हैं।
यथार्थ के भीतर का यथार्थ!
रास्ते में एक जगह बहुत सुन्दर चटख रंगों से सजा डिज़ाइनदार प्लास्टिक या चमड़े के ढेर सारे ड्रम नज़र आए। ये किसी आयताकार कुशन की तरह मनोहारी थे - सफ़ेद रंग पर हरा, पीला रंग प्रमुखता से चमक रहा था- लगता था जैसे कपड़े के बने हों, पर ऐसा नहीं था। ये शराब के ड्रम थे। प्राचीनकाल में ऐसे ड्रमों में शराब की सप्लाई होती थी - ये पुराने समय के सौन्दर्य को समेटे उस शेड में एक के ऊपर एक व्यवस्थित तरीके से भरे हुए थे।
‘ख़ाली हैं?’ हममें से किसी का प्रश्न था।
ख़ाली ही होंगे। भरे होते तो शायद यहाँ नहीं होते। या हो सकता है अब भी किन्हीं खास अवसरों पर इनका उपयोग किया जाता हो - सजावट की तरह या शराब रखने की ख़ास सज्जा के तौर पर। जो भी हो, इनकी कलाकारी सुन्दर थी।
रास्ते भर तरह-तरह की जानकारियों के साथ हिन्दी साहित्य पर भी संवाद होता जा रहा था।
अब हम उस पानी के स्रोत तक आए, जहाँ लोग श्राइन में जाने से पहले लकड़ी के कलछुल जैसे पात्र से जल लेकर हाथ धो रहे थे। यह क्रिया मुझे बहुत भली लगती है। पहले हमारे घरों में भी ऐसी व्यवस्था हुआ करती थी कि बाहर से आने वाले घर के बाहर ही हाथ पाँव धोकर घर में घुसें। पहले मन्दिर का एक अर्थ घर भी था। अब यह क्रिया मन्दिरों और पवित्र स्थलों तक सिमट गयी है। हम लोगों ने भी पात्र से जल लेकर हाथ धोया और कासुगा श्राइन में घुसने के योग्य हुए।
यह श्राइन बहुत बड़ी है। लकड़ी का यह आर्किटेक्चर जापान की अपनी खासियत बताता है। क्या बारीक कारीगरी है - कार्विंग अद्भुत सुन्दर है। ऐसी लकड़ियों का उपयोग किया गया है जो मौसम की मार को झेलने में समर्थ हैं, सैकड़ों साल की बारिश, धूप, तूफ़ान सब झेल कर ये अपने सौन्दर्य को बचाये खड़ी हैं। उनका रख रखाव अच्छा है, यह बात भी है ही। श्राइन की भव्यता में पहाड़ी सौन्दर्य जुड़कर इसे व्यापकता प्रदान कर रहा है। सीढ़ियाँ चढ़कर हम ऊपर पहुँचे। पहली बार श्राइन में स्त्रियाँ ‘भिक्षु’ की भाँति पारम्परिक वस्त्रों में दिखीं। उन्होंने श्वेत परिधान के ऊपर लाल कपड़े की बेल्ट लगायी थी - स्फटिक मूर्तियों की भाँति वे चमक रही थीं। यहाँ सैंकड़ों घण्टियाँ भी लगी थीं। एक तरफ दुकानें थीं, जिनमें पूजा के सामान और कुछ खास पारम्परिक हस्तशिल्प की चीज़ें बिक रही थीं। उन दुकानों पर भी पारम्परिक परिधान में कुछ लड़कियाँ थीं। यह पता चला कि ये लड़कियाँ सिर्फ़ भिक्षुणी नहीं हैं बल्कि मेडिकल या इंजिनियरिंग की पढ़ाई करने वाली भी हो सकती हैं, जो पार्ट टाइम यहाँ अपनी सेवाएँ देती हैं।
श्राइन में ज़ल्दी ही आने वाले किसी उत्सव की तैयारी चल रही थी। लोग उत्साहित दिख रहे थे। अनेकों श्रद्धालु कई किलोमीटर पैदल चलकर और सीढ़ियाँ चढ़ कर आये थे। यहाँ भीड़ अधिक थी, इससे लगता था कि इस जगह की मान्यता बहुत होगी।
कोहफुकुजी मन्दिर : पाँच मंजिलों वाला पगोडा वृक्ष
‘पगोडा वृक्ष’ अज्ञेय की एक कहानी है, अनायास उसका नाम याद आया। हालाँकि कहानी की विषयवस्तु से इस पगोडा का कोई लेना देना नहीं। एक वृक्ष की भाँति ही तो यह आर्किटेक्चर है। ज़रूर इसे बनाने वाला कलाकार प्रकृतिप्रेमी होगा। उसकी कल्पना में आकाश को छूती कोई ऊँची इमारत, वृक्ष की शक्ल में ही हो सकती थी। धन्य हो कलाकार! सामने जो गगनचुम्बी मन्दिर था, वह कोहफुकुजी का पगोडा था। पाँच मंज़िल का भव्य वास्तुशिल्प! इसकी ज़मीनी इमारत को मिला लें तो यह कुल छः हो जाता था। जहाज की तरह फैलती उसकी बारीक कारीगरी से सजी भुजाएँ, मानो अपनी छाया में सारे दृश्यमान को समेट लेना चाहती हों। उसके सामने खड़े होकर मनुष्य अपने को कितना बौना पाता है, कितना निरुपाय! एक अदना पौधा जितना!
सामने है विराट पगोडा वृक्ष - उन्नत और भव्य! मष्तक ऊँचा उठाए! आकाश से बतियाने को सन्नद्ध!
मैंने अपने को कितना छोटा पाया - विशालता भी क्या चीज़ है!
कई बार मनुष्य की अपनी ही निर्मिति उसे छोटा कर देती है!
इसके भीतरी भाग में समाहित इतिहास को देखने की इच्छा किसे न होगी, हम सब भी इस इच्छा से भरे थे, पर भीतर कुछ पुनर्निमाण हो रहा था, जिसके कारण अन्दर जाना सम्भव न हो सका। इसके बाहरी सौन्दर्य पर रीझते हुए हमलोग कोहफुकुजी नेशनल ट्रेज़र हॉल की तरफ बढ़े।
यह ट्रेज़र हॉल सचमुच ट्रेज़र है - बौद्धकालीन इतिहास की अनेक सामग्री, दस्तावेज, मूर्तियाँ, पात्र.... आदि अपनी कथा कहते जीवन्त से जान पड़ते हैं। संग्रहालय का बाहरी हिस्सा छोटा-सा प्रदर्शनी घर या दुकान जैसा है पर अन्दर विशाल प्रांगण है, जिसे ध्यानपूर्वक देखना, पूरा दिन ख़र्च करके भी मुश्किल से पूरा किया जा सकता है। बहुत व्यापक प्राचीन ऐतिहासिक जानकारियाँ यहाँ भरी पड़ी हैं। अनेक मूर्तियाँ बोधिसत्व के प्रसिद्ध शिष्यों, उनके अनुयायियों की हैं। अनेक मूर्तियाँ जातक कथाओं से भी प्रेरित हैं। असुर की मूर्ति यहाँ थी- एक अद्भुत मूर्ति - कलाकृति के रूप में विशिष्ट दिख रही थी - उसके त्रिमूर्ति जैसे तीन सिर और छः हाथ थे। दो हाथ नमस्कार की मुद्रा में थे तो दूसरे दो हाथ आकाश की तरफ उठे हुए, तीसरा जोड़ा हाथ अंगुलियों की खास मुद्रा बनाए हुए था। असुर की इस मूर्ति के साथ दन्तकथाएँ जुड़ी हुई थीं। एक कथा यह भी थी कि असुर बोधिसत्व को परेशान करने आया था, किन्तु बाद में वह बोधिसत्व का शिष्य बन गया और उसने अपना पूरा जीवन बोधिसत्व के लिए समर्पित कर दिया। उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और वह बुद्ध के प्रमुख आठ सुरक्षा दलों में से एक बना। यहाँ सुरक्षा दल कहे जाने से भी एक अर्थ बौद्धों के लगातार संघर्षों या युद्धों की तरफ जाता है। अन्यथा अहिंसक धर्म में सुरक्षा दल और सैन्य वेशभूषा की क्या आवश्यकता!
हॉल के बीच में बोधिसत्व की विशाल मूर्ति है जो अपनी शिल्पकला में अनूठी है। अनूठी इसलिए भी है कि यह अपने स्वरूप में अलग और बौद्ध धर्म के पारम्परिक रूप से नितान्त भिन्न है। यह मूर्ति बुद्ध को सहस्रबाहु के रूप में प्रतिष्ठित करती है। इसे देखकर आश्चर्य में पड़ जाना स्वाभाविक है। अभी तक हम जिस बुद्ध को जानते रहे, उनके सहस्रबाहु रूप की कल्पना कर पाना सम्भव नहीं था। पर सामने जो है, वह मूर्तिकला का सुन्दर नमूना तो है पर यह बुद्ध के रूप से बिल्कुल अलग है। यह तो हिन्दू धर्म के उस रूप को ध्वनित करता है जिसे सर्व सामंजस्यकारी माना गया है। तो यह सब मिलजुल कर किस तरह नया बना होगा, इसके चिन्ह जगह-जगह दिख जाते हैं। यहाँ भी बोधिसत्व पर विष्णु के गुण आरोपित दिख रहे हैं। विष्णुअवतार के सारे अस्त्र शस्त्र- तीर धनुष, सुदर्शन चक्र, गदा, त्रिशूल... शंख... आदि बोधिसत्व ने अपने सहस्रबाहु में धारण किए हुए हैं। उनके सिर के पीछे बड़ा-सा आलोक चक्र है जिसमें भी कुछ मूर्तियाँ हैं।
संस्कृतियों का यह मिश्रण मनुष्य की दुर्दम्य जिजीविषा का परिणाम है। इतिहास में अनेक ऐसे कालखण्ड आये होंगे, जब संघर्षों से मनुष्य ने नयी शक्ति पायी होगी। मनुष्य की जीवनी शक्ति सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को अधिक देर तक लेकर नहीं चलती, वह जीवन के लिए अनावश्यक हो गयी चीज़ों को छोड़ती चलती है। सभ्यता और संस्कृति का मोह इस जीवनी शक्ति के आगे देर तक बाधा बना डटा नहीं रह पाता। मुख्य चीज़ है जीवन और सारा संघर्ष उसी जीवन के लिए है। इसलिए केवल मनुष्य की जिजीविषा ही शुद्ध और प्राणवान चीज़ है। सहस्रबाहु बुद्ध की मूर्ति यह बता रही है कि कैसे हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म यहाँ आकर मिल-जुल गये हैं। भौतिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अहिंसा के समर्थक बुद्ध की मूर्ति को अनेकानेक अस्त्र शस्त्र धारण करना पड़ा होगा। जो धर्म, ब्राह्मण वर्चस्व के खिलाफ और हिन्दू वर्णाश्रम व्यवस्था के विरुद्ध, करूणा से आप्लावित होकर उठ खड़ा हुआ पूर्णतः अहिंसक था, यहाँ आकर उन्हीं हिन्दू देवी-देवताओं के युद्ध-प्रतीक चिन्हों से लैस हो गया है! यहाँ मुझे फिर आचार्य द्विवेदी की बात याद आती है कि ‘मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निमर्म है, वह सभ्यता और संस्कृति के वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती बहाती यह जीवन धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नयी शक्ति पायी है। हमारे सामने समाज का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का रूप है।’
इतिहास गवाह है कि बौद्धों को अपने सरवाइवल के लिए और अपने धर्म को बचाने के लिए अनेक बार युद्धों का सामना करना पड़ा है। वर्चस्व की लड़ाइयों में इतिहास का एक समय बौद्ध धर्म को भी अपने हिंसक आगोश में समेट लेता है पर उनका मूल रूप अहिंसा से बाहर नहीं होता। इतिहास कहता है कि जापान में भी बौद्धों को युद्ध की भयावहता का सामना करना पड़ा था। इसकी तैयारी और सावधानी उनकी मूर्तियों में दिखायी पड़ती है। असुर, जो बुद्ध के आठ सुरक्षा दलों में से एक हैं, अतुलित बलशाली और अत्यन्त चौकन्ने, तीक्ष्ण बुद्धियुक्त दिखाये गये हैं- एक सैनिक की भाँति निरन्तर जागरूक। भारतीय परम्परा में प्रयुक्त गरुड़ का रूपक भी यहाँ बदली हुई भूमिका में दिखायी पड़ रहा है। एक योद्धा की भाँति वेशभूषा में गरुड़ की मूर्ति भव्य, मोहक और जीवन्त है, लगता है अभी बोल पड़ेगी। यह योद्धा की वेशभूषा अद्भुत रूप से चमत्कृत करती है। भारत से यहाँ तक आते आते गरुड़ का रूप परिवर्तन, संस्कृतियों के मिलन से होने वाले बदलाव और पुरा कथाओं की आवश्यकतानुसार की गयी व्याख्याओं की तरफ भी संकेत करता है। गरुड़ को यहाँ अंग्रेजी में कहीं-कहीं ‘करुणा’ (Karuna) लिखा है - यह उच्चारण के कारण भी हो सकता है और व्याख्या के कारण भी। गरुड़ की कथा को भारतीय कथा दृष्टि से करुणामय कहा जा सकता है, पर यह आशय मेरा अपना हो सकता है, ऐसा कहीं उल्लेख नहीं है। लेकिन यहाँ गरुड़ का योद्धा का बाना इस आशय को ख़ारिज कर देता है।
बुद्ध की दूसरी मूर्ति भी विशाल थी। पूरी मूर्ति के चारों तरफ चमकदार कार्विंगवाला सुन्दर आलोकचक्र था। यह आलोकचक्र भी हिन्दू सनातन देवी देवताओं से जुड़ा रहा है। हाव भाव से भरी इन मूर्तियों की ऐसी अद्भुत जीवन्तता को देखकर कहा जा सकता है कि एक समय जापान ने मूर्ति शिल्प में अपने शिखरत्व को प्राप्त किया है।
नारा में डियर पार्क के पास, चारों तरफ पेड़ों के बीच अशोक लाट स्थापित की गयी है। यह कभी भारत से लायी गयी थी। इसके लाने और स्थापित किये जाने की सारी कथा एक लाल पत्थर पर जापानी भाषा में लिख कर रखी गयी है। यह पत्थर ठीक लॉट के पास रखा गया है। अशोक लॉट देखकर और उसका भारत से लाया जाना जान कर, कहीं अपना कुछ जुड़ा हुआ लगा - कोई रिश्ता, कोई गहरा पूर्व सम्बन्ध।
चमकीली धूप के बावजूद ठण्डे मौसम में घूमते हुए अब हम थक चुके थे। यहाँ से प्रोफ़ेसर ताकाहाशी जी के अनुसार हमें एक भारतीय रेस्त्राँ में डिनर करना था, जहाँ और भी विद्वान मिलने आने वाले थे। तो हम यहाँ से दूर ओसाका के एक विशुद्ध भारतीय तरीके के रेस्त्राँ में पहुँचे। छोटा किन्तु साफ़ सुथरा यह रेस्त्राँ किसी भारतीय ग्राम्य भोजनालय की याद दिला रहा था। भीतर छोटी जगह में ही बड़े क़रीने से टेबल लगी थी। हिन्दी के विद्वान मिजोकामी जी भी वहाँ पधारे। सभी लोग भारतीय खाना खाने के इच्छुक थे। वेटर थाली और कटोरी रख गया तो बहुत अच्छा लगा। परदेश में देश की महक।
‘ये लोग भारतीय हैं? कब से यहाँ बसे हैं?’ यह एक सहज प्रश्न था।
पता चला रेस्त्राँ के सभी लोग भारतीय हैं और उत्तराखण्ड के रहने वाले हैं। लम्बे समय से जापान में बस गये हैं और अब जापानी भाषा जानते-बोलते हैं। उत्तराखण्ड सुनकर अच्छा लगा, देहरादून की याद आयी। पनीर की सब्जी और तवा रोटी खायी गयी। खाने के साथ साहित्य और भारतीय राजनीति पर बातें भी होती रहीं। भोजपुरी भाषा की बात आयी। सबने इच्छा प्रकट की कि मैं भोजपुरी और बलियाटी के अन्तर को बताऊँ। ताकाहाशी जी को भोजपुरी भाषा प्रिय है। वैसे उनका अनेक भारतीय भाषाओं पर अधिकार है। मिजोकामी जी भी अनेक भारतीय भाषाएँ जानते हैं। मैंने बनारसी भोजपुरी, जिसे काशिका भी कहते हैं और बलिया की बलियाटी भोजपुरी बोलकर उसका अन्तर बताया। क्रियापदों के अन्तर से पहचान बतायी। चूँकि बलिया के ओझवलिया में ‘आरत दुबे का छपरा’ मेरे पूर्वजों का गाँव है और घर में बलियाटी भोजपुरी बोली जाती है, इसलिए उसका महत्व मेरे लिए खास है। कभी मेरे बड़का बाबूजी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भोजपुरी कार्यक्रम की अध्यक्षता भी की थी। इसलिए भोजपुरी के प्रति अपना खानदानी प्रेम किसी भी समय भुलाया नहीं जा सकता।
जापानी लेखक हिरोमी इटो के साथ संवाद
जगह- नागासाकी बुक स्टोर की तीसरी मंजिल,
कुमामोटो, जापान
01.12.2018
आज इस भव्य बुक स्टोर को भीतर से देखने का मौका मिला - इसकी तीसरी मंज़िल पर एक कल्चरल हॉल था। कार्यक्रम इसी हॉल के भीतर था। बुक स्टोर के बाहर बड़े-से पोस्टर स्टैण्ड पर मेरी और जापानी लेखक हिरोमी इटो की तस्वीर लगी थी। यहाँ की साज सज्जा कुछ अलग थी और रोचक भी। यहाँ स्क्रीन, जिस पर मेरे बारे में प्रोजेक्टर से दिखाया जाना था, मेरे और हिरोमी इटो के बीच थी। इस स्क्रीन के एक तरफ मेरे बैठने की व्यवस्था थी और दूसरी तरफ हिरोमी जी के। पिछले कार्यक्रमों की अपेक्षा अलग और थोड़ा अनौपचारिक वातावरण था। यहाँ भी श्रोताओं को मेरी कहानियों के जापानी में अनुवाद की एक पुस्तिका वितरित की गयी, जिसके साथ मेरा संक्षिप्त परिचय भी था। मेरी सभी किताबें एक बड़े से स्टैण्ड पर डिस्प्ले की गयी थीं। अच्छा लगता था, जब आने वाले लोग स्टैण्ड पर किताबें देखते हुए आते थे। पूरी दुनिया में किताबों के प्रति अनुराग एक जैसा है, एक जैसी ही उत्सुकता और दीवानगी है।
हिरोमी इटो अस्सी के दशक की प्रसिद्ध कथाकार हैं और प्रखर स्त्रीवादी भी। उनकी किताबों ने अपार लोकप्रियता पायी है। किसी समय वे कोलम्बिया में बस गयी थीं। बाद में जापान सरकार ने उन्हें स्वदेश बुलाया और सम्मानपूर्वक विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम दिया। इसलिए यह जान कर कि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हूँ, उन्होंने आते ही हाथ मिलाते हुए पूछा - ‘आपके टीचर को ज़्यादा साल हुआ या लेखक को?’
मैंने कहा - ‘लेखक को। लेखक होने के बहुत बाद में टीचर बनी।’
‘मैं एकदम नयी टीचर हूँ। बेबी टीचर। सरकार से मैंने कहा कि काम के बिना कैसे जापान में रहूँगी? काम दो तो आ जाऊँगी। मुझे टीचर का काम दिया तो आ गयी। अभी पढ़ाने में अच्छा लग रहा है।’ हिरोमी जी ने बताया।
उनका अंग्रेज़ी उच्चारण जापान वालों से भिन्न और अमरीका वालों के निकट था पर लिखती वे जापानी में थीं। चूँकि उन्हें हिन्दी बिल्कुल नहीं आती थी तो अंग्रेज़ी से काम चलाना पड़ रहा था पर बीच-बीच में लम्बी बात करते समय जापानी अनुवादक की ज़रूरत पड़ती थी, उन्हें भी, मुझे भी।
कार्यक्रम का प्रारम्भ प्रो. नाम्बा ने मेरा परिचय देकर किया। उन्होंने विस्तार से मेरे काम के बारे में, कहानियों, उपन्यासों आदि के बारे में और जापान में मेरी अब तक की यात्रा और कार्यक्रमों के बारे में जानकारी दी। इसके बाद मेरा व्याख्यान हुआ, विषय था - ‘जो मैंने पढ़ा और अब तक जो लिखा’। विषय अपने आप में आकर्षक था। मेरे व्याख्यान को प्रो. कोमात्सु ने जापानी में सुनाया। फिर श्रोताओं की तरफ से कुछ प्रश्न आये, जो जापानी में थे और जिन्हें प्रो. कोमात्सु ने मेरे लिए हिन्दी में अनूदित किया। मैंने हिन्दी में जवाब दिये, जो उन्होंने पुनः जापानी में अनुदित किया। इस प्रकार संवाद का क्रम बना रहा। मेरे व्याख्यान के दौरान यहाँ भी मुझ पर केन्द्रित एक घण्टे का वृत्तचित्र दिखाया गया। इसके बाद हिरोमी इटो ने अपनी कहानी से एक अंश पढ़ा, खूब तालियाँ बजीं। सुनने वाले लोगों की संख्या उत्साह बढ़ा रही थी। लोग ध्यान और उत्सुकता से सुन रहे थे। उनकी कहानी के अंश का सार संक्षेप मुझे हिन्दी में बताया गया। फिर मैंने अपनी कहानियों से चुने हुए कुछ अंश पढ़े। एक अंश पढ़ने के बाद रूकती, तब प्रो. कोमात्सु उसे जापानी में पढ़तीं, फिर दूसरा अंश... इस तरह कुछ अंश पढ़े गये। इन अंशों पर भी खूब प्रतिक्रिया हुई। यहाँ भी प्रबुद्ध श्रोता उपस्थित थे - अनेक विषयों के प्रोफ़ेसर्स, मीडिया के लोग, सम्पादक, पत्रकार, सामान्य साहित्यिक अभिरुचि के लोग और अनेक विषयों के शोधार्थी... मैंने देखा कि इस बीच मेरी किताबें सभी के आगे से गुज़रतीं, लोग उन्हें खोलते, उलटते, पलटते और आगे बढ़ा देते... हिन्दी न जानते हुए भी किताब को देखने का उनका तरीका बहुत पुरसुकून लग रहा था।
इसके बाद हिरोमी इटो के साथ बातचीत शुरू हुई। मेरी कहानियों को लेकर और आम आदमी के जीवन को लेकर कई बातें हुई। स्त्रीवादी होने के कारण हिरोमी जी ने स्त्री जीवन की समस्याओं और उनमें आये परिवर्तनों पर सवाल किये। हिन्दुस्तान में पिछले दशकों में स्त्री जीवन में क्या बदलाव आये हैं, इस पर भी बात हुई। बातों के बीच मैंने पूछ लिया कि जापान एक पूर्ण विकसित और उन्नत देश है। यहाँ पति पत्नी के रिश्ते किस तरह के हैं यानी कि क्या स्त्रियाँ घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं? या कि पति पत्नी के बीच स्वस्थ सम्बन्ध होता है? इस पर पता चला कि जापान में पति पत्नी के बीच सेक्स रिलेशन लगभग न के बराबर है। शायद यह सारी दुनिया में सबसे खराब स्थिति है। स्त्री आजाद हुई है पर उसके रिश्ते पर इसका असर आया है।
इस बातचीत में जो प्रश्न और जो बातें मेरी स्मृति में अटकी रह गयीं, उनका जिक्र यहाँ करूँगी। शब्दशः तो वे याद नहीं हैं पर उनका थोड़ा बहुत सार याद रह गया।
एक बात यह भी आयी कि स्त्री आज़ाद हो गयी पर प्रेम नहीं बचा। यानी उसे रिश्तों की कीमत चुकानी पड़ी। भारत में थोड़ी-सी आज़ादी पाने के लिए स्त्रियाँ संघर्ष कर रही हैं और बार-बार देखा गया है कि प्यार इस रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनकर खड़ा हो जाता है। प्यार को बचाना और आज़ादी भी पाना, स्त्रियों के लिए बहुत जिद्दोजहद वाली स्थिति बनाता है। अक्सर स्त्रियाँ प्यार के लिए कुर्बानी देती हैं - अपनी आज़ादी की क़ुर्बानी, पर फिर जो प्यार बचता है, वह मालिक और प्रिय सेवक का ही बचता है। यानी प्यार बचाने का भ्रम अधिक है, क्योंकि स्त्री के लिए प्यार एक यूटोपिया है। वह कभी हासिल नहीं होता, खासकर आज़ादी की क़ुर्बानी से तो कभी नहीं। मैंने यह भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की थी कि क्या कभी जापान में ऐसा घटित होता है कि लड़की अपने प्रेमी के साथ घर से भाग जाए यानी जान दे देने वाला प्यार? पता चला कि ऐसा कुछ घटित नहीं होता। अगर होता भी है तो बहुत कम।
मुझसे यह भी पूछा गया कि लिखना और जीना अलग क्यों है? और मुझे यह अपनी रचनाओं के सन्दर्भ में कितना सच लगता है? मैंने रचना और जीना को लेकर कुछ बातें कहीं और यह भी बताया कि कल्पना साहित्य में होती है, पर केवल कल्पना से साहित्य का काम नहीं चल सकता। क्योंकि हम अपने समय का आख्यान भी लिख रहे होते हैं। पाठक अपने समय और समाज की जटिलताओं को साहित्य के माध्यम से समझने की कोशिश करता है। ज़मीन पर, असली जीवन की जो समस्याएँ हैं, उन्हें पुनर्सृजित करने के लिए कल्पना ज़रूरी है, इसलिए साहित्य में जीने और लिखने में यानी व्यवहार और विचार का फर्क नहीं आना चाहिए। वैसे यह कहा गया है कि आपकी भाषा आपके भेद खोल देती है तो आपके विचार आपके लेखन में व्यक्त हो जाते हैं, यह जाने अनजाने हो ही जाता है। इससे बचना थोड़ा मुश्किल है।
इसी के साथ यथार्थवाद की बात भी उठी और साहित्य और यथार्थवाद के रिश्ते पर अच्छी बात रखी गयी। मैं यहाँ लम्बा बोली। यथार्थवाद की अवधारणा और साहित्य मेरा प्रिय विषय भी रहा है। हिरोमी जी की तरफ से ‘एज़ ए राइटर’ हिन्दी में स्त्रियों की स्वीकृति का प्रश्न भी आया। जिसके उत्तर में मुझे हिन्दी साहित्य समाज की पुरुष कुण्ठा और भय पर बात करनी ही थी। इतिहास की गवाही यहाँ ज़रूरी थी सो अनेक उदाहरण मैंने दिये। हिन्दी में जो स्त्रियाँ लिख रही थीं, उन्हें लम्बे समय तक ‘एज़ ए राइटर’ स्वीकार नहीं किया गया। उनका संघर्ष लम्बा और कठिन रहा। कितनी ही बार उन्होंने वाचिक आक्रमण भी झेले। यह अभी भी जारी है। लेकिन आज उन्होंने कुछ जगह बना ली है।
जिस अपनी कहानी ‘मुक्ति प्रसंग’ का अंश मैंने पढ़ा था, उस पर प्रश्न हुआ कि क्या उसे लिखते समय मुझे भी कुछ इस तरह की स्थितियाँ झेलनी पड़ी थी, क्योंकि उसका विषय हिन्दी समाज में आसानी से स्वीकार किया जाना कठिन लगता है? यह बिल्कुल सही था। इस कहानी के छपने के साथ मुझे बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा था। तमाम पत्र आये, कुछ धमकी भरे भी होते, कुछ अश्लील पत्र भी आये, बहुत दबाव भी बनाए गये, समझौते करने के संकेत और दबाव आये, किसी न किसी गुट में शामिल हो जाने का दबाव भी बनाया गया। कई सीनियर लेखकों की तरफ से और कई बार अपने समकालीन लेखकों की ईर्ष्या द्वेष के चलते दुश्मन जैसा व्यवहार भी झेलना पड़ा। यह सब एक तरह का उत्पीड़न था कि मैं हार मान लूँ और लिखना छोड़ दूँ। पर मैंने हार नहीं मानी। जो इस तरह की बिघ्न बाधाओं को पार कर जाते हैं, वे अपने स्वाभिमान के साथ अपनी जगह पा लेते हैं। यह मैंने सीखा भी।
एक बहुत अच्छा सवाल हिरोमी इटो ने उठाया था कि क्या हिन्दी में भी ऐसा हो रहा है कि स्त्री रचनाकारों की आवाज़ खुद की न होकर, पुरुषों की आवाज़ है? आज मैं स्त्री लेखक के रूप में अपनी बॉडी के बारे में लिखती हूँ, अपने मातृत्व के बारे में लिखती हूँ लेकिन पुरुष हमारे इस अनुभव संसार को समझना नहीं चाहते। महिलाओं की तरफ से भी ऐसी ही पुरुषों के स्वर की सहमति आती है।
मैंने कहा कि महिला की तरफ से जो सहमति आती है, वह उसकी कंडिशनिंग और सुविधा लेने का मामला है। जो स्त्री सुविधा लेने के लालच में पड़ेगी, वह पुरुष के स्वर से ही स्वर मिलायेगी। हिन्दी में ऐसी स्थिति है कि ज़्यादातर स्त्रियाँ सुविधा के लिए पुरुष का पक्ष लेती हैं। वे स्त्री की आवाज़ की बजाय पुरुष की आवाज़ बन जाती हैं। यहाँ तक कि स्त्री विमर्श के नाम पर भी पुरुष के द्वारा तय किया गया रास्ता ही अपनाती हैं। इससे भी हमें लड़ना पड़ता है। हिन्दी में बहुत कम ऐसे स्वर हैं, जिन्हें हम स्त्री स्वर कह सकते हैं। यहाँ मुझे वर्जीनिया वुल्फ की वह बात याद आयी कि ‘तमाम पुरानी किताबों की दुकानों में औरतों के जो उपन्यास बिखरे पड़े रहते हैं, वे किसी बगीचे में छोटे दाग़दार सेबों की तरह दिखायी देते हैं, उनके बीच की गड़बड़ी ने उन्हें सड़ा डाला है। दूसरों की राय के अनुपालन में स्त्री रचनाकारों ने अपने मूल्य बदल डाले।’ यह सच कि केवल अंगुलियों पर गिनने भर स्त्रियाँ, पुरुषों के इस निर्देश की पूरी तरह उपेक्षा कर सकीं कि यह लिखो, वह सोचो। यही हाल हिन्दी स्त्री लेखन का भी है। लगता है स्त्रियाँ भारी मात्रा में कलम उठा चुकी हैं, पर वे पितृसत्ता की आवाज़ की प्रतिध्वनि बनकर तो नहीं रह जा रहीं! या अति महत्वाकांक्षा के चक्कर में पल्प साहित्य की भेंट चढ़ जा रहीं! वे अपनी रचनात्मकता के साथ विवेकपूर्ण ढंग से पेश आ पा रही हैं या नहीं, यह सोचने वाली बात है!
दूसरी बड़ी बात यह भी है कि स्त्रियाँ अपने व्यापक सामाजिक सरोकारों की बात करें और मानवता के वृहत्तर पक्ष में रचें न कि उन पर थोप दिये गये एक खास तरह के ‘स्त्री विमर्श’ के घेरे में। इस घेरे को तोड़ कर ही नवोन्मेष की तरफ जाना होगा। अपने लिए व्यापकता पानी होगी और पूरी दुनिया पर बात करने का हौसला भी। स्त्री सभी विषयों पर बात कर सकती है, चाहे राजनीति हो, अर्थ व्यवस्था हो या आदिवासी संघर्ष...।
जब मेरी कहानियाँ लड़के पढ़ते हैं तो क्या उन पर कुछ असर होता है? इस प्रश्न के उत्तर में यह नहीं कहा जा सकता कि कोई असर नहीं होता। असर तो होता है। एक अच्छे लेखक की रचना अपने जागरूक और संवेदनशील पाठक पर कोई न कोई असर छोड़ती है। कई बार वह वैचारिक उद्वेलन की तरफ ले जाती है। मेरी कहानियाँ कई जगह पठ्यक्रमों का हिस्सा हैं तो ज़ाहिर है लड़के भी उन्हें पढ़ेंगे। मेरे पाठक कई बार व्यथित होते हैं, यह उनके पत्रों, सन्देशों, फ़ोन और मेल से समझ में आता है। वे समाज को बदलना चाहते हैं। वे बेहतरी चाहते हैं। अच्छी तरफ जाना चाहते हैं। पुरुष कंडिशनिंग को कुछ ढीला करते हैं। प्रेम विवाह करते हैं। जाति के बाहर शादी करने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन यह पितृसत्तात्मक संरचना इतनी मजबूत है कि शादी के बाद समाज के साथ सामंजस्य बैठाते-बैठाते वे परम्परागत परिवार में बदलने लगते हैं। स्त्री पर यौन नियन्त्रण को लेकर उनका तरीक़ा पूरी तरह परम्परागत हो जाता है। वे स्त्री के पूरे जीवन, उसकी गतियों को काबू में रखते हुए प्रायः पितृसत्तात्मक तरीके से ही व्यवहार करने लगते हैं। पर ऐसा नहीं है कि स्त्री के हिस्से बदलाव का कोई सकारात्मक पक्ष नहीं। आज कैरियर भारतीय लड़कियों के लिए शादी से बड़ी चीज़ बन रहा है। लड़कियों की प्राथमिकताएँ पहले से बदली हैं। बड़े शहरों में लड़कियाँ ज़ल्दी शादी नहीं करना चाहतीं। अपनी आज़ादी को पहचानने की तरफ जाना चाहती हैं। माता पिता का सहयोग भी कुछ जगहों पर उन्हें हासिल हुआ है और समाज की स्वीकृति भी। यह बड़ा परिवर्तन है, पर अभी बहुत कम है।
जब भारतीय शादी की बात आये तो दहेज की बात न उठे, बहू दहन जैसी हत्याओं की भी बात न आये, ऐसा मुश्किल है। हमारे यहाँ का विवाह के साथ जुड़ा यह व्यवसाय कम प्रसिद्ध नहीं! यहाँ सवाल यह आया कि क्या प्रेम विवाह में भी दहेज चलता है? या अभी भी दहेज देकर शादियाँ की जाती हैं? दृश्य और अदृश्य खाप पंचायतों और प्रेम विवाह के कारण इज़्ज़त के नाम पर हुई हत्याओं की भी बात यहाँ हुई और इन पर मैंने क्या लिखा है और हिन्दी साहित्य में कुछ लिखा गया या नहीं? यह भी प्रश्न उठा कि पुरुषों ने इन समस्याओं पर कितना लिखा? यह विचारणीय प्रश्न है। प्रायः हिन्दी के पुरुष लेखक इन विषयों को घरेलू लेखन का दर्जा देते हैं, इसलिए उनके पास इसकी अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती।
जहाँ तक दहेज की बात है तो कई प्रदेशों में दूल्हों के दाम आज भी तय हैं। दहेज झूठे सम्मान का प्रतीक बन गया है। माता पिता के आगे समस्या यह भी है कि लड़की की शादी के लिए धन बचाएँ या पढ़ाई पर खर्च करें। अब जो लड़कियाँ पढ़कर नौकरी करने लगी हैं और अपनी मर्ज़ी से शादी करने लगी हैं तो ज़रूर कुछ राहत हुई है। परन्तु अपनी मर्ज़ी से शादी कर पाने का प्रतिशत अभी भी बहुत कम है। लड़कियों पर बढ़ती हुई हिंसा पर भी सवाल आया। यह हिंसा इसलिए पहले की अपेक्षा बढ़ी हुई लग रही है क्योंकि लड़कियाँ बाहर निकलने लगी हैं तो वे ज़्यादा स्वतन्त्र दिखायी पड़ती हैं। और स्वतन्त्र स्त्री हमारी सामाजिक संरचना में है ही नहीं। स्त्री के लिए ‘असूर्यपश्या’ का सिद्धान्त आचार्य मनु ने दिया था, जो बेहद अमानवीय है। इसी के साथ स्वतन्त्र दिखती स्त्री को, पुरुषों द्वारा ‘सबके लिए उपलब्ध’ मान लेने की मानसिकता नहीं बदली है। पढ़े लिखे पुरुष भी तर्क देते दिखेंगे कि अँधेरा होने पर घर से क्यों निकली या अकेले क्यों जा रही थी? किसी भी दुर्घटना के लिए आसानी से लड़की और उसके चरित्र को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। निर्भया काण्ड का होना इसी मानसिकता का परिणाम है। लेकिन इसी काण्ड के साथ सामाजिक स्तर पर एक बड़ा परिवर्तन भी देखने को मिला कि समाज ने पहली बार लड़की को दोषी नहीं माना और अपराधियों के विरूद्ध खड़ा हुआ। निर्भया के साथ जो लड़का था, उसे भी समाज ने स्वीकार किया कि न तो लड़का चरित्रहीन था और न ही लड़की। वह लड़का निर्भया की तरफ से गुण्डों से लड़ा, समाज ने पहली बार लड़कों के इस तरह के साहस का साथ दिया, सराहा। यह भारतीय समाज के लिए नयी और बड़ी बात है।
ऑफ़िस प्लेस पर यौन हिंसा और फ़्यूडल माइण्ड सेट की बात भी मैंने की। स्त्री को वस्तु समझे जाने के कारण उसे इस्तेमाल किया जाता है वस्तु की तरह। हमारे यहाँ ‘मनुस्मृति’, जो कि पितृसत्ता का अघोषित कानून है, उसमें स्त्री को अधीन माना गया है - पिता, पति, पुत्र के अधीन। जब वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है और किसी के संरक्षण में नहीं है और किसी लड़के के साथ घूम रही है तो वह अच्छी लड़की नहीं हो सकती। यह मानसिकता अभी भी है और हिंसा को प्रोत्साहित करती है। स्त्री हिंसा के अनेक रूपों को लेकर भी प्रश्न किया गया। यौनिकता और बस, ट्रेन आदि में होने वाले उत्पीड़न पर भी मैंने बात की। चूँकि मेरी कहानी ‘मुक्ति प्रसंग’ जापानी में अनुदित थी और बहुत से लोगों ने उसे पढ़ा था, इसलिए हिंसा का यह रूप उन्हें हैरान परेशान कर रहा था। मैंने पूछ लिया कि क्या यहाँ बस या मेट्रो आदि में लड़कियों के साथ छेड़छाड़ नहीं होती? पता चला कि ऐसा नहीं है, जापान में भी ऐसी घटनाएँ होती हैं, पर कम हैं। हिरोमी इटो ने अपना अनुभव बताया कि स्कूल जाते समय किसी लड़के ने उनके ऊपर कुछ फेंका, जो वीर्य था, जिस कारण से वे स्कूल नहीं जा सकी। यह घटना उन्हें कभी नहीं भूली। हालाँकि ऐसा बहुत कम है वहाँ, पर पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है।
इस बीच एक श्रोता ने, जिनके बारे में बाद में पता चला कि वे बौद्ध अध्ययन में शोध कर रहे थे, उन्होंने जापानी में ही पूछा कि ‘भारतीयों के मन में भाग्य और कर्म की अवधारणा अभी भी रहती है? क्योंकि मैंने अपनी कहानी ‘मुक्ति प्रसंग’ में इसका उल्लेख किया है, भाग्यवश नहीं, कर्मवश।’ जहाँ तक याद आता है कि मैंने कर्म और भाग्य की अवधारणा को भारतीय सन्दर्भ में स्पष्ट किया था और बताया था कि भाग्य की अवधारणा पूरी दुनिया में है पर कर्मफल का सिद्धान्त भारत का नितान्त अपना है। ‘गीता’ इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। युद्ध के बीच जीवन दर्शन की बात कर पाना भारतीय मनीषा के लिए सम्भव हुआ। और यह भी कि अभी भी भाग्य और कर्मफल का सिद्धान्त जन मानस में अपनी जगह रखता है। कर्म जो हम करते हैं, उसका कुछ न कुछ परिणाम अवश्य होता है। परन्तु भारतीय स्त्री को भाग्य के सहारे कर दिया गया। जैसे कि छोटी लड़कियों की शादी किसी वृद्ध या अपंग से कर देना या उन्हें बेच देना और उनके दिमाग में यह डालना कि यह उनका भाग्य है जबकि यह किसी और का किया गया कर्म है। स्त्रियों का संघर्ष उनका कर्म है, जो परिस्थितियों को बदलने में मददगार होता है। इसलिए मैंने कर्म और उसके परिणाम पर बल दिया है।
एक श्रोता ने मेरी कहानियों की भाषा में ‘सटायर’ की बात की और एक किसी ने भाषा को नये वैरियेशंस देने की। यह सच है कि मैंने हिन्दी भाषा को नया वैरियेशंस देने की कोशिश की है और उपन्यास के शिल्प में बहुत कुछ बदला है। किसी ने मेरे उपन्यास ‘अस्थि फूल’ के बारे में जानना चाहा, क्योंकि उन्हें झारखण्ड के आदिवासी जीवन के बारे में कुछ जानकारियाँ थीं। इस उपन्यास के सामाजिक राजनैतिक पहलू को समझने में उनकी गहरी दिलचस्पी दिखी। मेरे कथा साहित्य में विचार को लेकर भी प्रश्न आये और तकनीक के नये इस्तेमाल को लेकर भी। ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ में शिल्प के स्तर पर मैंने जो प्रविधि अपनायी थी, वह अन्य किसी कहानी या ‘अस्थि फूल’ में क्यों नहीं अपनायी गयी? यह भी एक बढ़िया प्रश्न था। ‘मिड डे मील’ कहानी के यथार्थ को लेकर भी लोगों में बहुत जिज्ञासा थी। ये सारी बातें बहुत रोचक और लम्बी चलीं।
हमारा यह संवाद पॉपुलर साहित्य की तरफ भी आया। पॉपुलर साहित्य में पहली बार इतना बढ़ चढ़ कर स्त्रियाँ भागीदारी कर रही हैं। वे गम्भीर लेखन की चुनौतियों को स्वीकार करने की बजाय बाज़ार के लिए लिखने में ज़्यादा आगे बढ़ी हैं, यह रास्ता आसान है। पॉपुलर साहित्य एक तूफान की तरह उमड़ा है, इसका भविष्य कैसा होना है? क्या यह गम्भीर साहित्य को निगल जाएगा और जेनुइन लेखक किनारे कर दिये जायेंगे? इस तरह के अनेक प्रश्न आये। मुझे याद है कि मुझे एक पुस्तिका दी गयी थी, जो जापानी में थी परन्तु उसमें कुछ लेख अंग्रेज़ी में अनूदित थे, जिसमें एक लेख हिन्दी के पॉपुलर लिटरेचर पर था। यह पहचान जापान के साहित्य से जुडे़ लोगों ने कर लिया था कि किस तरह हमारे यहाँ साहित्य पर बाज़ार ने कब्जा कर लिया है और जेनुइन लेखकों को किनारे करके वह केवल बिकाउ लिटरेचर पर केन्द्रित होता जा रहा है। मैंने लगभग जो कहा था, उसका सार कुछ ऐसा ही था कि ऐसा सम्भव नहीं दिखता कि एक बड़ा और जन पक्षधर लेखक पूरी तरह किनारे कर दिया जायेगा। ऐसा थोड़ी देर के लिए लग सकता है। क्योंकि दुनिया में ऐसा कहीं नहीं हुआ कि समय और समाज की नब्ज़ पकड़ने वाला लेखक हमेशा के लिए किनारे कर दिया जाए। साहित्य तब तक बचा रहेगा, जब तक समाज। सतही साहित्य की यह भरमार कम तो नहीं होगी पर अपनी असली जगह पा लेगी और साहित्य का इच्छुक पाठक साहित्य तक पहुँच सकेगा। यह एक उम्मीद भरी बात हो सकती है। पर उम्मीद पर दुनिया कायम करनी पड़ती है!
इन सब बातों के बीच यहाँ भी एक व्यक्ति ने ‘टॉयलेट’ न होने और स्त्रियों के मैदान में टॉयलेट जाने के सन्दर्भ में जिज्ञासा प्रकट की थी। और भी अनेक प्रश्न थे, बहुत से मुझे याद नहीं रह गये। लोग खूब उत्साहित थे और कार्यक्रम की सफलता से आयोजक मण्डल प्रसन्न।
इसके बाद हम लोग शहर के दूसरे हिस्से को देखते हुए एक अलग तरह के पारम्परिक रेस्टोरेंट में आये। यह अपनी साज सज्जा में अब तक के सारे ही रेस्त्राँ से अलग था। और यह वह ऐतिहासिक डिनर भी था, जिसमें एक भी पुरुष की उपस्थिति नहीं थी। इस डिनर में हम दस लोग थे। दसों, दस दिशाओं की भाँति अलग-अलग विशेषताओं को लिए जगमगा रहे थे। नौ रत्नों में प्रो. मिवाको नाम्बा, प्रो. हिसाए कोमात्सु, हिसाको मात्सुकिजोनो, मेरी साइगुची, अया दाइकुहारा, हिरोमी इटो, मियुकी सुमुरा, हाइनो और प्रो. हिरोको फुरूटा और साथ में मैं भी। यह दृश्य अपने आप में अत्यन्त मनोहारी था। यहाँ इस बात की कोई चिन्ता नहीं थी कि एक सन्तुलन के लिए किसी विद्वान पुरुष को आमन्त्रित किया जाए। बल्कि सहज रूप से यह दिमाग में कहीं था ही नहीं। यही बात आकर्षित कर रही थी। हिरोमी इटो और मुझे आमने सामने बैठाया गया था और यहाँ हमने अनौपचारिक रूप से बहुत-सी देश दुनिया की बातें कीं।