21-Oct-2020 12:00 AM
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लोग पूछते हैं- क्या यह ज़रूरी है कि कवि का जीवन पुण्यमय ही हो और कोई आग्रहपूर्वक जवाब भी देते हैं कि- अवश्य। कोई कहते हैं कि वैसे खास ज़रूरत नहीं। पर विनोबा भावे की निगाह में कवि का जीवन कुछ दूसरा ही है। वे कहते हैं कि- कवि पापी ही क्यों न हो, पर वह सच्चा पापी होना चाहिए। बीच-बीच में पुण्य का आवरण लेने वाला, पाप का स्वाँग करने वाला नहीं चलेगा। उसे तो निष्ठावान पापी होना चाहिए। उस हालत में वह नरक में भी जाये, लेकिन उसके काव्य से मैं मोक्ष पा सकता हूँ। विनोबा भावे के लिए कवि की पुण्यात्मा और पापात्मा होने में कोई रुचि नहीं। वे भागवत् की सीख को याद करते हुए कहते हैं कि जो वाक् समूह जन के पापों को धोने वाला होगा, वही साहित्य कहलाने लायक है।
आचार्य विनोबा भावे के साहित्य-चिन्तन पर एकाग्र और रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत प्रकाशित इस पुस्तक में विनोबा जी के साहित्य विचार पर अनेक उद्धरण संकलित हैं जिनका संचयन कवि-आलोचक नन्दकिशोर आचार्य ने किया है। भागवत् इतिहास की चिन्तनधारा के प्रवाह और उसके किनारे बीती कुछ सदियों में बनते गये आधुनिक विचार-विहारों के बीच जीवन के पार उतरने की कला को परखने वाले आध्यात्मिक पुरुष आचार्य विनोबा भावे ने चेताया है कि अब धर्म और राजनीति के दिन लद चुके। अब तो विज्ञान और आत्मज्ञान -- ये दो शक्तियाँ मनुष्य के जीवन को आकार देने वाली होंगी और साहित्य इनके बीच सेतु का काम करेगा। आज राष्ट्रवाद के नाम पर लोगों को एक-दूसरे से अलग करने वाली राजनीतिक सत्ताओं और फिरकों में बँटे हुए धर्म-पीठों की चूलें हिल रही हैं। ये सत्ताएँ बुझने से पहले उस दिये की तरह हैं जो भभक तो रहा है पर मार्ग को प्रकाशित नहीं कर रहा। विनोबा की दृष्टि में विज्ञान की बाह्य और आत्मज्ञान की आन्तरिक शक्ति के बीच साहित्य देहरी पर रखे उस दीपक की तरह होगा जो बाहर और भीतर को प्रकाशित करेगा।
उत्तम साहित्य के लक्षणों पर विचार करते हुए आचार्य विनोबा भावे रस को लगन की सच्चाई कहते हैं, फिर वह बाह्य विषय-वासना की ही क्यों न हो, उन्हें प्रीतिकर है। वे तो साहित्यिक को संसार के खेल में उस द्रष्टा की तरह देखना चाहते हैं जो अपने कुल-दोष उस तरह प्रकट कर सके जैसे महाकवि व्यास ने अपनी और पाण्डवों की उत्पत्ति का यथावत् चित्र महाभारत में खड़ा किया है। जिस तरह व्यास खुद उस चित्र में रहते हुए उससे अलग दिखायी देते हैं, उसी तरह साहित्यकार को सृष्टि और संसार से अलग होने की कला आनी चाहिए।
विनोबा भावे भगवद्गीता में जीव की आत्म स्वरूप उपद्रष्टा प्रवृत्ति को रेखांकित करते हुए साहित्यकार से यह उम्मीद बाँधते हैं कि वह सृष्टि से तटस्थ होकर, उसके अभिमुख भी बना रह सके। वह उपद्रष्टा की तरह जीवन के नज़दीक रहकर उसे इस तरह देखने वाला बने कि बिना किसी विकार के उसकी पूरी सहानुभूति जीवन को प्राप्त हो। विनोबा उत्कटता को काव्य की शक्ति मानते हुए कहते हैं कि- उत्कटतापूर्ण काव्य किसी भी प्रकार का क्यों न हो, उसका रसास्वादन अपनी रुचि के अनुरूप रसिकजन कर लिया करते हैं- भक्तिरस के काव्य में श्ाृंगारिकों को श्ाृंगार मिल जाता है और भक्त श्ाृंगाररस के काव्य में भक्ति खोज लेता है। वीर काव्य में विरक्त को वैराग्य मिल जाता है और छात्रवृत्ति वैराग्यपरक काव्य में वीररस पा लेती है। विनोबा काव्य का स्वरूप लेखक की मजऱ्ी पर नहीं, रसिक की मजऱ्ी पर निर्भर मानते हैं। पर बाबा की यह बात पूरी नहीं, आधी सच है क्योंकि सर्जक और रसिक परस्पर अन्तर्निर्भर हैं, वहाँ किसी एक की मजऱ्ी कहाँ चलती है।
विनोबाजी ध्यान दिलाते हैं कि भले ही कोई उपदेश हितकारी जान पड़े पर अगर वह प्रहार बन जाये तो जीवन उसका स्पर्श अनुभव नहीं करेगा। वे साहित्य की नयी परिभाषा गढ़ते हुए कहते हैं कि साहित्य यानी अहिंसा। साहित्य में अनाक्रमणकारी शब्द होते हैं तभी तो उसमें अपनी-अपनी भावना के अनुरूप अनेकविध तात्पर्य निकलते हैं और इसी से साहित्यबोध का विस्तार होता है। किसी को आज्ञा देना कवि का लक्षण नहीं है, वह कमाण्डर का लक्षण है, फिर चाहे वह फौज का कमाण्डर हो या किसी धर्मग्रंथ का हो। कवि तो अपनी संवेदना से समाज को रिझाकर बोध प्रदान किया करते हैं।
शंकराचार्य ने अव्दैत की प्रतिष्ठा करते हुए अध्यास की चर्चा की है। अध्यास यानी मिथ्या आरोपण। ब्रह्म जिज्ञासा में अध्यास वर्जित है। पर कवि के लिए यह वर्जना किसी काम की नहीं। विनोबाजी अनुभव करते हैं कि कविता में भावनाओं की बहुविध छटाओं के बीच यह जानना मुश्किल हो जाता है कि कवि अव्दैत में है या व्दैत कह रहा है या विशिष्टाव्दैत में है। अगर काव्य में यह अंदाज़ लग सके तो फिर वह काव्य नहीं होगा, किसी तत्त्वज्ञान का ग्रंथ होगा। काव्यानुभूति में तत्त्वज्ञान इस तरह घुल-मिल जाता है कि काव्य ही सिर चढ़कर बोलता है और तभी काव्यानन्द की उपलब्धि होती है। साहित्य में रस प्रत्यक्ष और तत्त्व अप्रत्यक्ष होता है
विनोबा अर्थानुसारी शब्दों के प्रयोग पर बल देते हैं। वे शब्दों को विचार का प्रतिनिधि कहते हैं। जैसे पृथ्वी शब्द का प्रयोग फैली हुई के अर्थ में होगा। तरह-तरह के पदार्थों को जन्म देने वाली होने से वह भूमि कही जायेगी। जब धरा कहेंगे तो वह धारण करने का अर्थ प्रकट करेगी। पृथ्वी का एक नाम क्षमा भी है और इस शब्द से उसका अर्थ सहन करने वाली हो जाता है। विनोबा कहते हैं कि अगर जीवन में व्यर्थ ही नयी-नयी चीजें़ आयेंगी तो उनके लिए नये शब्द बनेंगे और इस शब्द संग्रह से साहित्य में कचरा फैलेगा, परिग्रह बढ़ेगा क्योंकि वे महिमाहीन शब्द होंगे और उनसे कविता नहीं बनेगी। दरअसल, विनोबा साहित्य में शब्दों के अपरिग्रह की माँग कर रहे हैं जिससे वाक्-प्रकाशन में निर्मलता आती है। उनकी दृष्टि में शब्दों का किसी दूर देश से आयात करके अपनी भाषा और चिन्तन पर थोपना खतरनाक है क्योंकि वे शब्द हमारे जीवन में एसिमिलेट नहीं होते, हजम नहीं होते और विचार कुपच के शिकार हो जाते हैं। वे कहते हैं कि इन्डिपेंडेंस एक निकम्मा शब्द है क्योंकि संसार में हर कोई एक-दूसरे पर अवलंबित है, तब कहाँ रहा इन्डिपेंडेंस। पर स्वराज्य शब्द भावात्मक अर्थ से भरा हुआ है, वह स्वयमेव रंजित होता है, स्वयं प्रकाशित होता है। कहने का मतलब यही कि परदेश की बुद्धि से हम स्वराज्य नहीं पा सकते। हमारी आत्मनिष्ठता ही स्वराज्य को प्रकट कर सकती है।
जहाँ शब्द-शक्ति कुण्ठित होती है तो उसकी जगह शस्त्र-शक्ति ले लेती है। शस्त्र-शक्ति को समाप्त करने के लिए अपनी वह शब्द-शक्ति बढ़ाना होगी जो अपने पूर्वजों के बहु-स्तवनों से सारगर्भित है। पूँजी निवेश के इस भयानक दौर में आचार्य विनोबा हमसे उस शब्द निवेश की माँग कर रहे हैं जो परम्परा से प्राप्त युगानुरूप उस सृजन-कुशल योग की प्रतिष्ठा कर सके जिसे हम बार-बार भूल जाते हैं। वे याद दिलाते हैं कि गाँधीजी ने तप करके भूले हुए शब्द की प्रतिष्ठा बढ़ायी और अपने समय को वाणी दी। बड़े कवि भी हर युग में यही करते आये हैं। वे कहते हैं कि विज्ञान में आधुनिकतम और साहित्य में प्राचीनतम किताबें काम आती हैं। साहित्य की परीक्षा हर युग में काल करता है। विनोबा साहित्यिकों के अनुभवों की एकता पर बल देते हुए कहते हैं कि अनेक कवि-लेखक मिलकर अपने समय के अनुरूप कोई आध्यात्मिक संशोधन करते हुए आगत के बोध का मार्ग प्रशस्त करने का उपाय अवश्य करें। काव्य शक्ति के लिए ज्ञान-अज्ञान, प्रकाश और अँधेरे के मिले-जुले क्षेत्र चाहिए जो हमारे समय में भी खूब हैं, अभी तो ये और भी बढ़ेंगे। विनोबा उम्मीद करते हैं कि इस परिवेश में साहित्य और काव्यकला आगे बढ़नी चाहिए। वे यह भी कहते हैं कि मैं साहित्यिकों को बिलकुल स्वतन्त्र मानता हूँ और उनके लिए किसी प्रकार की कोई मर्यादा नहीं मानता। विनोबा ने तो साध्य और साधन की एकता को भी एक तरह की कैद ही माना पर पता नहीं यह बात उन्होंने कभी गाँधी से भी कही थी या नहीं।
आचार्य विनोबा भावे के साहित्य पर विचार उस साहित्य-विमर्श की याद दिलाते हैं जो बीती सदियों में भारत में होता रहा है। पाठक यह छोटी-सी समीक्षा पढ़कर निश्चय ही यह लक्ष्य कर सकेंगे कि विनोबा परम्परा से प्राप्त विमर्श को आधुनिक दृष्टि भी प्रदान करते हैं और यही माँग वे आधुनिक साहित्यकारों से करते हैं। इस विमर्श के प्रकाश में उन्होंने वेदव्यास और महाभारत पर विचार किया है। विनोबा कहते हैं कि- साहित्यिकों के लिए विकारों से परिपूर्ण निर्लिप्तता अनिवार्य है लेकिन विकारों को पहचानने के लायक उन विकारों के साथ समरस होने की शक्ति भी उतनी ही अनिवार्य है। वेदव्यास अपने इसी गुण के कारण महाभारत रूपी मानव-इतिहास-प्रदीप जला सके।
कालिदास रचित रघुवंश में एक राजा के राज्य का वर्णन पढ़कर विनोबा दीर्घदर्शी कवि की आलोचना करने से भी नहीं चूकते। वे कहते हैं कि प्रजा ने राजा को पिता मान लिया था और सब कुछ राजा ही करता था। कोई काम नागरिकों के लिए रहा ही नहीं। अगर ऐसा स्टेट हो तो यह भयानक कल्पना है जिसमें जनता के जीवन को सब तरह से कसकर बाँधा जाता है। समाज-सुधार, खेती-सुधार, शिक्षण, उद्योग नीति आदि सब सरकार करेगी तो फिर नागरिक क्या करेंगे। विनोबा की दृष्टि में यह तो बिलकुल जड़ दशा है। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के शब्दों को याद करते हुए कहते हैं कि- हम सब लोग डिवाइड करते हैं, मल्टिप्लाय नहीं। हर कोई सम्पत्ति को क्षीण करने में योगदान दे रहा है लेकिन संपत्ति की पैदावार में कोई योग नहीं देता। विद्यार्थी बेकार हैं, व्यापारी उत्पादन नहीं करते। पुलिस, भिक्षुक, योगी, सन्यासी, भक्त, राजनीतिज्ञ, शिक्षक, डाॅक्टर, वकील कोई भी उत्पादन में हिस्सा नहीं लेते। बहुत थोड़े लोग रह जाते हैं जो उत्पादन का भार उठाते हैं। विनोबा कहते हैं कि रवीन्द्रनाथ संसाराभिमुख और विश्वाभिमुख होते हुए भी निर्लिप्त हैं। साहित्यकार को ऐसा ही होना चाहिए।
विनोबाजी ने शेक्सपियर, मिल्टन और वडर्सवर्थ को भी याद किया है। वे शेक्सपियर को कोट करते हुए कहते हैं कि- अगर इच्छा ही घोड़ा बन सकती तो प्रत्येक मनुष्य घुड़सवार हो जाता लेकिन यह निष्ठुर सत्य है कि ऐसा हो नहीं सकता। वे मिल्टन की आँखों में दुर्भाग्य से भर गये अंधेरे के बरक्स उसके आत्मबल से प्रकाशित शब्दों के बारे में सोचते हैं जो पैराडाइज़ लास्ट में गुँथे हुए हैं और जिन्हें वह देख नहीं सकता सिर्फ़ बोल सकता है। वे वडर्सवर्थ की प्रसिद्ध कविता वी आर सेवन की भी याद करते हैं जिसमें एक छोटी लड़की अपने दो मरे हुए भाइयों को भी अपने साथ और चार जीवित भाइयों के साथ गिनकर कहती है - वी आर सेवन। वह लड़की कहना चाहती है कि जैसे हम पाँचों व्यक्त सृष्टि में हैं, वैसे ही वे दो अव्यक्त सृष्टि में हैं। विनोबा इन दोनों सृष्टियों में खुले हुए शब्द के मार्ग को पहचानकर साहित्य के रचयिताओं और रसिकों को सम्बोधित कर रहे हैं।
विनोबा के उद्धरण, रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत राजकमल दिल्ली से प्रकाशित