29-Dec-2019 12:00 AM
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हरी, दिन बीत चुका है, गोघूली का समय है, मुझे उस पार पहुँचा दो। मैंने सुना है कि तुम लोगों को उस पार पहुँचाने में माहिर हो। इसलिए मैं तुमसे प्रार्थना करता हूँ। मैंने सुना है कि तुम उन लोगों तक की मदद करते हो जिनके पास एक पैसा भी नहीं होता। मैं एक ग़रीब हूँ, बिल्कुल भिखारी जैसा। देखो, मेरे थैले में एक घेला भी नहीं है। हरी, दिन बीत चुका है, गोघूली का समय है, मुझे उस पार पहुँचा दो।
- सत्यजित राय, पाथेर पांचाली की रचना-प्रक्रिया पर केन्द्रित निबन्घ
‘अलेस इन्दिर थकरन’, स्पीकिंग आॅफ़ फि़ल्म्स, पृष्ठ 179-80
अपनी पुस्तक सिनेमा एण्ड आई में ऋत्विक घटक ने मेरा ध्यान सत्यजित राय की फि़ल्म अपराजितो के एक बिम्ब की ओर आकर्षित किया था। रात के समय अपू एक पोखर में नक्षत्रों का एक पुंज देखता है, और ‘प्रजापति’ का नाम फुसफुसाता है। यह सन्दर्भ बिभूति भूषण के उपन्यासों से है, और ‘प्रजापति’ या काल की एक घारणा पर चिन्तन बिभूति भूषण के सारे उपन्यासों में एक विवक्षा की तरह व्याप्त है। पाथेर पांचाली की फि़ल्म-त्रयी में यह चीज़ अपू के लिए एक मानक बन जाती है जो बिभूति भूषण के यहाँ उनके उपन्यासों में ‘काल’ की अवघारणा पर एक उन्मुक्त, अनवरत जारी आन्तरिक संलाप है, और वे अपने उपन्यासों के विकसित होने की प्रक्रिया में इसके लिए कोई समापन उपलब्घ नहीं कराते।
यह बिम्ब ‘ब्रह्माण्डीय नर्तक’ शिव की अवघारणा का स्मरण कराता है, जो सृष्टियों के सर्जक और संहारकर्ता, दोनों हैं और जो काल की चक्राकार अवघारणा का भी एक बिम्ब है। यह बिम्ब उस दृश्य का भी स्मरण कराता है जिसमें रुद्र अपने पिता प्रजापति का वघ करते हैं क्योंकि प्रजापति अपनी ही पुत्री उषा के प्रति संसर्ग की आकांक्षा रखते हैं। इस वघ में अर्थ की अनेक अनुगूँजें और तहें हैं, जिनका बोघ इसपर निर्भर करता है कि आप इस आख्यान में कहाँ प्रवेश करते हैं।
एक आख्यान में समस्त सत्ताओं के सर्जक ब्रह्मा@प्रजापति एक बार अन्यमनस्क भाव से उषा की ओर देखते हैं और उनपर फिर से स्वामित्व पाना चाहते हैं। एक बार रचे जाने के बाद उषा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है और वे फिर से उनके स्वामित्व में नहीं जाना चाहतीं।
एक अन्य आख्यान में सूर्य देवों के स्थपति विश्वकर्मा की पुत्री संजना से विवाहित हैं। अपने पति का अपरिमित ताप सह पाने में असमर्थ संजना अपना एक छाया-रूप रचती हैं। वे इस छाया से आग्रह करती हैं वह संजना होने का बहाना कर सूर्य के साथ रहे और स्वयं अपने पति से दूर भाग जाती हैं।
एक दिन सूर्य को समझ में आ जाता है कि छाया उनकी पत्नी की महज़ एक नक़ल है और वे सारे लोकों में अपने वास्तविक अन्य की खोज करते हैं। अगर संजना एक मृगी है, तो सूर्य मृग बन जाते हैं; संजना उनसे बचने के लिए जो भी रूप घरती हैं, सूर्य स्वयं को उसके नर रूप में बदल लेते हैं, ताकि वे अपनी पत्नी को फिर से हासिल कर सकें। एक आख्यान में संजना और सूर्य के ये रूपान्तरण पृथ्वी पर तमाम प्राणियों को जन्म देते हैं।
अपू द्वारा प्रजापति का नाम फुसफुसाये जाने में सृष्टा और सृष्ट, नर और नारी और मानवीय तथा अलौकिक के बीच के सम्बन्घ की अनेक अर्थ-छवियाँ हैं। यह फुसफुसाहट काल की अवघारणा को प्रतिरोघ देने की असम्भव आद्य आकांक्षा की ओर भी संकेत करती है, अपने खोये हुए स्वत्व को फिर से हासिल करने और उस अद्वैत अवस्था में वापस लौटने की आद्य आकांक्षा जहाँ मम (सैल्फ़) और ममेतर (अॅदर), शब्द और बिम्ब एक हुआ करते थे। यह एक संक्षिप्त और अत्यन्त सान्द्र बिम्ब है जिसका अनुवाद इस संस्कृति से बाहर के किसी भी व्यक्ति द्वारा नहीं किया जा सकता। यह ‘काल बिम्ब’ होने की बजाय ‘काल’ का बिम्ब है।
पाथेर पांचाली उपन्यास भी एक स्तर पर प्राचीन और नवीन के बीच टकराव है; एक लुप्त होती समूची मूल्य-व्यवस्था की एक परिवर्तनशील विश्व-व्यवस्था में स्वयं को पुनर्परिभाषित कर पाने की असमर्थता। अपू अपने पिता से ‘छला गया’ महसूस करता है, क्योंकि वह अपू के परिवार का भरण-पोषण कर पाने में असमर्थ है, जो एक अर्थ में अपू की बहन दुर्गा की मृत्यु का कारण बनता है। एक प्रसिद्ध दृश्य में दुर्गा अपू को एक ‘शिकारी’ रुद्र@ओरिअॅन की वेशभूषा में तैयार करती है और वे दोनों एक आती हुई टेªन की आवाज़ की दिशा में भागते हैं। अपनी सारी अनुगूँजों के साथ टेªन के इस दृश्य ने घटक को बहुत आकर्षित किया था और घटक की सारी फि़ल्मों में निर्णायक महत्त्व के क्षणों में टेªेन एक बिम्ब के रूप में बार-बार आती है। इस अन्य उस्ताद का ऋण स्वीकार करने के तौर पर घटक मेघा ढाका तारा में पाथेर पांचाली के कथानक-संगीत (थीम म्यूजि़क) के साथ राय के टेªन के दृश्य को उद्धृत करते हैं। बिभूति के यहाँ, शरारतों और तुच्छ कि़स्म की चोरी के कृत्यों में एक-दूसरे का साथ देती विघवा बुआ (ंनदज) इन्दिर थकरन और अपू की बहन दुर्गा ‘प्राचीन’ का प्रतिनिघित्व करती हैं, वहीं अपू निरन्तर बाहर की दिशा में क्षति के अहसास से युक्त गति है, एक अतीत-मोह उस सब कुछ के प्रति जो उसने बाहर की दिशा में अपनी गति के चलते खो दिया है।
इस फि़ल्म-त्रयी की रचना-प्रक्रिया के बारे में दिये गये अपने सारे साक्षात्कारों में राय जिस एक चीज़ पर लगातार ज़ोर देते रहे हैं, वह यह तथ्य है कि बिभूति का उपन्यास अपनी आन्तरिक बनावट में कुछ इस तरह ‘सिनेमाई’ था कि एक पाठक@फि़ल्म निर्माता के रूप में उनको लगता था कि वे बिभूति के मुख़्तसर, सारगर्भित वर्णनों को प्रगीतात्मक छवियों में रूपान्तरित कर सकते थे। बिभूति अपने उपन्यासों में किसी भी घटना का समाहार करने की कोशिश नहीं करते और घटना का वर्णन भावहीन ‘बेलाग’ ढंग से किया गया होता है। पाथेर पांचाली की शुरुआत एक तथ्य के दो-टूक कथन के साथ होती है ः
हरिहर राय एक ब्राह्मण था। वह निश्चिन्दीपुर गाँव में ईंटों से बने एक छोटे-से मकान में रहता था। यह गाँव के एकदम उत्तरी छोर पर स्थित आखि़री मकान था। वह ख़ुशहाल नहीं था। पिता से विरासत में प्राप्त ज़मीन के एक छोटे-से टुकड़े का थोड़ा-सा किराया और कुछ घरों में पुरोहिताई का काम करने के बदले मिलने वाली थोड़ी-सी दक्षिणा ही उसकी आजीविका का कुल साघन था।
जहाँ बिभूति अपने चरित्रों की आन्तरिक दुनिया की गहरी छानबीन करते हैं, वहीं उनके उपन्यासों में घटनाएँ खण्डित प्रकृति की हैं जहाँ एक घटना तार्किक ढंग से दूसरी घटना का कारण नहीं बनती। अपने पाठकों के समक्ष वे जो प्रस्तुत करते हैं, वे वास्तव में समय की छोटी-छोटी तस्वीरें हैं, जो दुनिया के प्रति एक तरह के विस्मय-बोघ से रंजित हैं। लगभग नियतिवाद की सरहद को छूती आवेगहीन ‘निस्पृहता’ का भाव वह घागा है जो उनके आख्यानों को बाँघे रखता है। यह वास्तव में ‘मृत्यु की कगार पर खड़े होकर किया गया लेखन’ है। इस अर्थ में, ये उपन्यास की उस यूरोपीय अवघारणा के अर्थ में उपन्यास नहीं हैं जहाँ उपन्यासकार आख्यान की दुनिया को अपनी विश्व-दृष्टि के अनुरूप विन्यास देता है। यह लेखक और पाठक के बीच साझा समय की, साझा यथार्थ की सामूहिक अवघारणा है जो उपन्यासों को एक संगठित कृति के रूप में बाँघती है।
बिभूति ने जिस निश्चिन्दीपुर नामक गाँव में अपने उपन्यास को अवस्थित किया है, वह बंगाल के उस नाडिया जि़ले में है जो बंगाल के ‘नील विद्रोह’ का केन्द्र हुआ करता था। उपजाऊ कृषि-योग्य ज़मीन पर पैसा उपजाने वाले नील की बलात् खेती ने स्थानीय आर्थिक ढाँचे को पूरी तरह चैपट करते हुए समाज के बड़े हिस्सों को निर्घनता में झोंक दिया था। 1850 के दशक के विशाल शान्तिपूर्ण विद्रोहों ने अन्ततः अँग्रेज़ों को 1860 में ‘नील अघिनियम’ को निरस्त करने के लिए बाध्य कर दिया था, वहीं इसकी खेती अभी भी बिहार और गंगा के मैदानों में जारी थी। गाँघी ने दक्षिण अफ्ऱीका से हिन्दुस्तान लौटने के बाद राजनैतिक आन्दोलन के अपने पहले कर्म के तौर पर चम्पारण में नील की खेती के खि़लाफ़ विद्रोह की शुरुआत की थी।
राय की फि़ल्म-त्रयी को गढ़ने वाले बिभूति के उपन्यास इस क्षेत्र की स्मृतियों को चिह्नित करने वाले कई निशानों को उभारते हैं, जो एक तरह से वास्तव में अपू और उसके पाठकों की दुनिया है। ये स्मृति-चिह्न उस अमुखर पृष्ठभूमि को रचते हैं जिसके चैखटे में उनके चरित्रों की खण्डित, बिखरी हुई यात्राएँ बँघी हुई हैं और जो वास्तव में उनके पाठकों के मन में अनेक निजी, सामाजिक और सांस्कृतिक अनुगूँजों को जगाते प्रवेश-द्वार हैं।
बिभूति की सबसे ज़्यादा दिलचस्पी उनके चरित्रों के उन अन्दरूनी सपनों और आकांक्षाओं में है जिनको वे अल्प-मुखरित सामाजिक-सांस्कृतिक कैनवस के बरक्स रचते हैं। सर्बजया का यह सपना कि एक दिन उसका पति इतना पैसा कमा लेगा कि वे अपने अघम जीवन से बाहर निकल सकेंगे, सर्बजया और इन्दिर थकरन के बीच का तनावपूर्ण, कड़ुआहट-भरा समीकरण जहाँ सर्बजया एक अर्थ में उस भविष्य का प्रतिबिम्ब देखती है जिसकी उसको आशंका है; सहज मिलीभगत उन दो स्त्रियों, इन्दिर थकरन और दुर्गा के बीच की, जो समय में एक-दूसरे से हर सम्भव दूरी पर हैं, भी सर्बजया की उद्विग्नता में योगदान करती हुई आख्यान की एक महत्त्वपूर्ण विवक्षा की रचना करती है। ये तीनों स्त्रियाँ, अपने-अपने ढंग से, अपू को गढ़ती हैं और उसके वर्तमान को सन्दर्भ प्रदान करती हैं।
अपू का गुह्य रूप महाभारत का कौरव योद्धा कर्ण हैं जो पाण्डवों में सबसे बड़ा भाई होने की अपनी स्थिति के बारे में अनभिज्ञ भी हैं। समकालीन विमर्श में कर्ण की घारणा ‘जातिपरक’ भेदभाव की घारणा में सरलीकृत कर दी गयी है। समकालीन ग्रामीण परम्पराओं में और बिभूति के ज़माने के बौद्धिकों के लिए कर्ण किसी और चीज़ को प्रतिबिम्बित करते हैं। कर्ण, इस सन्दर्भ में, प्रत्येक मान्यता-वंचित महान प्रतिभा के विषाद को प्रतिबिम्बित करते हैं। जब वे जीवित होते हैं, तो दुनिया परिस्थितिजन्य संयोगों के चलते उनके वास्तविक स्वत्व को ‘पहचानने’ में असमर्थ बनी रहती है; सिर्फ़ अपनी मृत्यु में ही उनकी वैघता उजागर होती है और दुनिया अन्ततः उनकी वास्तविकता को ‘देख’ पाती है।
कर्ण इस महाकाव्य की प्रस्तुति की सारी स्थानीय परम्पराओं में एक केन्द्रीय चरित्र हैं, और एक छवि के रूप में आज भी दर्शकों के मन में विपुल भावनात्मक अनुगूँजें पैदा करते हैं। इस महाकाव्य के तमिल अनुवाद थेरुकूथु में कर्ण और द्रौपदी केन्द्रीय चरित्र और दर्शकों के लिए वृहत आख्यान का प्रवेश-द्वार बन जाते हैं।
बिभूति उपन्यास में इन आन्तरिक संलापों की ज़रूरत के बारे में बात करते हैेंः ‘जब जीवन सपनों और प्रिय कल्पनाओं से बना हो, तो वह बहुत मघुर हो सकता है। सपने झूठे हो सकते हैं, कल्पनाओं में ऐसा कोई आश्वासन निहित नहीं हो सकता है कि वे घटित होंगी; लेकिन अगर इनमें से कभी कोई भी चरितार्थ न हों, तब भी वे जीवन का सबसे बड़ा, उसका एकमात्र ख़ज़ाना हैं। इसलिए उनको आने दो। उनको हमेशा के लिए हमारी जि़न्दगियों पर पलने दो।’ अन्यत्र, एक बार फिर समय की अवघारणा पर वे कहते हैं, ‘उसने (अपू ने) पल भर की देर किये बिना अपनी पुस्तकें इकट्ठी कीं और अपने कमरे में भागा, जाकर बिस्तर पर कूदा, और अपने अनमोल फूलों में अपना चेहरा छिपा लिया, उनकी ख़ुशबू को सूँघते हुए और उनके ख़ूबसूरत नाम को बुदबुदाते हुए, चम्पक, गोल्डन चम्पक। बेशक वे एकमात्र फूल थे, फूल जिनको वह घर ले आया था और उनको बिस्तर पर रख दिया था; लेकिन उसके लिए, वे उनसे ज़्यादा कुछ थे। उनकी महक स्मृतियों से आबाद थी, उन खेलों की सुखद स्मृतियों से जो उसने खेले थे और वह सारा आनन्द जो उनको खेलते हुए उसने लिया था। इस विचार ने उसको उदास कर दिया कि सुखद चीज़ों का अन्त हो सकता है, और समय सुनहरे क्षणों को छीन ले सकता है। चम्पक फूलों की अöुत बात आज यह थी कि वे समय को स्वयं उसी पर प्रतिघात करने को विवश करते और क्षति के उस अहसास को निरस्त करते लग रहे थे जिसने उसको अक्सर पीडि़त किया था। अतीत एक बार फिर वर्तमान बन गया था, और वह एक बार फिर अपने खेल में था। देर हो चुकी थी, लेकिन वह फूलों के उस गुच्छे में अपना चेहरा घँसाये हुए पड़ा रहा और उसका हृदय उन ख़ुशियों से ऊर्जस्वित हो रहा था जिनको उसने समय के चोर हाथों से छीन लिया था।’
राय अपने एक सिनेमाई विकल्प के तौर पर उपन्यास के इन सारे आन्तरिक संलापों से परहेज़ बरतते हैं जिनको वास्तविक रूप में व्यक्त करने के लिए एक ‘लेखकीय’ स्वर की ज़रूरत होती है। यह ‘लेखकीय’ स्वर तत्कालीन परिपाटियों के मुताबिक़ ‘गै़रसिनेमाई’ माना गया होगा और राय स्वयं को बिभूति के संवादों और दृश्यों तक ही सीमित रखते हैं। बिभूति के ये दृश्य राय द्वारा इन दृश्यों के अनुवाद में एक प्रतीकात्मक हैसियत पा लेते हैं और पाथेर पांचाली को याद करने की कोशिश करते किसी भी व्यक्ति के मन में यह फि़ल्म जिन दृश्यों की पहली स्मृतियाँ जगाती है उनमें ट्रेन के साथ अपू और दुर्गा के प्रतीकात्मक दृश्य, मिठाई बेचने वाले के दृश्य, बारिश के दृश्य, दुर्गा की मृत्यु के बाद अपू का अकेलापन...शामिल होंगे। इस फि़ल्म की स्मृति में, कम-से-कम मेरे लिए, इस क्षिप्र परिवर्तन की अनुभूति निहित है, और यह फि़ल्म इन प्रतीकात्मक छवियों के योगफल के रूप में ही फि़ल्म बनती है।
राय इन छवियों की अपनी तलाश के बारे में विस्तार से बात करते हैं ः
मैंने यह भी महसूस किया था कि फि़ल्म में ‘वातावरण’ को पकड़ने की कोशिश ठीक होगी, क्योंकि मेरा मानना था कि इससे नाटकीयता को बढ़ावा मिल सकेगा। भोर और गोघूली बेला के बीच का सूक्ष्म भेद, तपती दोपहर का नाटकीय माहौल, माॅनसून की पहली बौछार के पहले घूसर, नम ख़ामोशी - इन सब को किसी तरह पकड़ना और सम्प्रेषित करना ज़रूरी था...। उदाहरण के लिए, माॅनसून की शुरुआत में लड़की बीमार पड़ जाती है, और इस प्रसंग के बाद के सारे दृश्यों को बादलों से घुँघलाये दिनों में फि़ल्मांकित किया गया था, जो शायद उस चीज़ की क़ीमत पर किया गया था जिसे फ़ोटोग्राफ़ी में ‘चित्रात्मकता’ (पिक्टोरियलिज़्म) के नाम से जाना जाता है, लेकिन जिसमें समग्र वातावरण की विपुल उपलब्घि निहित थी। मैं इस उपलब्घि को लेकर पूरी तरह निश्चित हूँ।
- राय, ‘अ न्यू अप्रोच’ 81
निबन्घ के एक अन्य हिस्से में वे इसे छवियों और ध्वनियों की तलाश बताते हुए कहते हैंः
एक बंगाली गाँव की गोघूली की उस निस्तब्घता को कैसे पकड़ा जाए जब हवा ठहर जाती है और सरोवरों को सालुकी और शेल की पत्तियों से शबलित काँच की चादरों में बदल देती है, और चूल्हों से उठता घुआँ महीन रेखाओं में भूदृश्य के ऊपर ठहर जाता है, और दूर और पास के घरों से उठती शंखों की विषादमय ध्वनियों में झींगुरों का वह कोलाहल शामिल हो जाता है जो रोशनी के डूबने के साथ ऊपर उठने लगता है, और जो तब तक जारी रहता है जब तक कि हमें सिर्फ़ आकाश के सितारे, और वे सितारे ही नज़र आते हैं जो झुरमुटों में झिलमिलाते और उड़ते रहते हैं।
इन उपन्यासों के अपने प्रभाववादी रूपान्तरण में राय स्वयं बिभूति से ही संकेत ग्रहण करते हैं। जहाँ बिभूति अपने चरित्रों की आन्तरिक दुनिया का अन्वेषण करते हैं, वहीं उपन्यास के नाटकीय क्षणों को निरावेग तथ्यात्मक ढंग से बयान किया गया है। उपन्यासों के किन्हीं भी नाटकीय क्षणों का कोई वास्तविक समाहार नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, जब बूढ़ी विघवा इन्दिर थकरन मरती है, तो बिभूति इतना भर कहते हैं ः
इन्दिर थकरन की मृत्यु के साथ निश्चिन्दीपुर गाँव के पुराने दिनों का भी अन्त हो गया।
और वे अगली घटना की ओर बढ़ जाते हैं। यहाँ तक कि दुर्गा की मृत्यु के प्रकरण में भी उसको उसके भाई अपू के दृष्टिकोण से कोई समाहार देने की कोशिश नहीं है; और अपू का दृष्टिकोण उपन्यास के पाठकों के लिए वास्तविक प्रवेश-द्वार है, और उस अर्थ में हर पाठक अपू बन जाता है। दुर्गा की मृत्यु का बयान उपन्यासकार ने इस मुख़्तसर अंश में किया है जो पाठकों को उनकी अपनी जि़न्दगी के अनुभवों से भावनात्मक रूप से सँवारने के लिए छोड़ देता हैः
समय-समय पर अनन्त का हाथ आकाश के नीले परदे को भेदकर बाहर आता है और एक बच्चे को इशारे से बुलाता है, और वह छोटा-सा जीव, जो अब और इन्तज़ार नहीं करना चाहता, स्वयं को घरती माता के वक्ष से अलग करता है और उस मार्ग में हमेशा के लिए खो जाता है जहाँ से कोई वापसी नहीं होती। अपने बीमार और उद्विग्न जीवन की सन्ध्या के उस अँघेर क्षण में दुर्गा ने उन पुकारों को सुन लिया था, और जिन गलियों को वह बहुत प्यार करती रही थी, उनको छोड़कर एक नयी यात्रा के लिए उस राजमार्ग पर चल पड़ी थी जिसपर उसने कभी क़दम नहीं रखे थे। (291)
हाॅलीवुड की नाटकीय फि़ल्मों में ज़बरदस्त पैठ रखने वाले राय इस दुर्गा को एक भावनात्मक उपसंहार देने की बाध्यता अनुभव करते हैं, जोकि उनके लिए फि़ल्म का सबसे ज़्यादा प्रतीकात्मक चरित्र थी। हरिहर, दुर्गा की मृत्यु के बहुत बाद में अपने गाँव वापस लौटता है और उसकी मृत्यु की ख़बर सुनकर बेतहाशा रोता है। खुद को समकालीन ‘नव-यथार्थवाद’ की परिपाटियों मेें रखने की आकांक्षा के चलते राय के मन में अतिरंजित भावुकता के प्रति सहज अरुचि थी, और इसलिए वे उसके रोने की आवाज़ को साउण्डटैªक के संगीत के एक अंश से ढँक देते हैं। राय की फि़ल्मों को वापस मुड़कर देखने पर उनकी ज़्यादातर फि़ल्में हाॅलीवुड के नाटकीय फ़ाॅर्म और नव-यथार्थवाद के आवेगहीन फ़ाॅर्म, दोनों के प्रति समान आसक्ति का तनाव लिये हुए लगती हैं। पाथेर पांचाली फि़ल्म का यह दृश्य एकमात्र ऐसा द्रष्टान्त है जहाँ राय एक ऐसा अतिरिक्त तथ्य शामिल करते हैं जो मूल पाठ में मौजूद नहीं है, और इस तरह पाठ को उसकी मूलभूत प्रतीकात्मक छवियों के अनुरूप ढालने के अपने नियम को तोड़ते हैं। इस फि़ल्म-त्रयी की तीनों फि़ल्मों में राय ‘नव-यथार्थवाद’ के ढाँचे की बाघाओं से निरन्तर परेशानी महसूस करते हैं और इस मुकाम पर उनकी फि़ल्में ‘अभिव्यंजनावाद’ (एक्सप्रेसनिज़्म) की सरहद को छूती हैं, बल्कि उसके साथ अन्तर्क्रिया करती हैं। इस त्रयी की तीनों फि़ल्मों में ऐसी प्रतीकात्मक छवियाँ@दृश्य-बन्घ हैं जो अपने भीतर अर्थ का अतिरेक समाहित किये हुए हैं। जैसे-जैसे राय अपने शिल्प पर नियन्त्रण प्राप्त करते जाते हैं, वैसे-वैसे ये प्रतीकात्मक, बहुध्वनिक छवियाँ उनकी फि़ल्मों से नदारद होती जाती हैं। सिर्फ़ अपनी बाद की फि़ल्मों के बीच गोपीजिन भागेबिन और हीरकराजारदेशे जैसी हल्की-फुल्की बाल-फि़ल्मों में ही राय अभिव्यंजक, प्रतीकात्मक छवियों में मुब्तिला होने की खुद को इजाज़त देते हैं।
उपन्यासों के अपने बिम्बात्मक, प्रतीकात्मक निरूपण के साथ राय अपने कला-रूप में पारदर्शिता हासिल करने में कामयाब होते हैं। बिभूति के उपन्यासों और उनकी दुनिया से परिचित एक बंगाली दर्शक के मन में यह फि़ल्म अनेक अनुगूँजें जगाती प्रतीत होती थी जिनसे इस त्रयी की फि़ल्म अपराजितो वंचित थी। इस फि़ल्म पर लिखने वाला हर बंगाली बौद्धिक इरादतन पाथेर पांचाली की बूढ़ी विघवा इन्दिर थकरन का विशेष रूप से उल्लेख करता है। घटक इस फि़ल्म की प्रशंसा करते हुए कहते हैंः ‘सत्यजीत राय, और हिन्दुस्तान में सिफऱ् सत्यजीत राय ही अपनी सर्वाघिक अन्तःप्रेरणा के क्षणों में सचाई के प्रति, वैयक्तिक, निजी सचाई के प्रति असाघारण रूप से जागरूक बना सकते हैं। इस फि़ल्म के इन्दिर थकरन दृश्य मेरी दृष्टि में भारतीय सिनेमा की श्रेष्ठतम और भव्य अभिव्यक्ति हैं।’
जब मैंने पहली बार यह फि़ल्म देखी थी तो मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि क्यों उस ज़माने के हर बंगाली को फि़ल्म के इस दृश्य-बन्घ के बारे में बात करना अनिवार्य महसूस होता था। जैसाकि राय कहते हैं, ‘मैं समझता हूँ कि पाथेर पांचाली ग़रीबी के चित्रण के मामले में ख़ासी निर्मम है। चरित्रों का आचरण, इस बूढ़ी स्त्री के प्रति माँ का व्यवहार करने का ढंग, नितान्त क्रूरतापूर्ण है। मैं नहीं समझता कि परिवार के भीतर बूढ़ों के प्रति ऐसी क्रूरता किसी ने दर्शायी होगी।’ फि़ल्म की शूटिंग को लेकर लोकप्रिय मीडिया में तरह-तरह की किंवदन्तियाँ और कि़स्से भी प्रचलित थे जिनने भी इस दृश्य-विन्यास से जुड़े प्रभामण्डल में योगदान किया था। ‘राय विस्तार से वर्णन करते हैं कि किस तरह उनको अपना यह चरित्र चूनीबाला देवी में मिला था जो यथार्थवादी ढंग से अपू की पचहत्तर वर्षीय दादी के चरित्र का एकदम साकार रूप थीं।’ अपनी अभिनेत्री चूनीबाला की उम्र के प्रति सचेत राय उनसे चिता वाले दृश्य में अभिनय करने का आग्रह नहीं करना चाहते थे और इस दृश्य के लिए उसके किसी ‘प्रतिरूप’ (डॅबल) की तलाश में थे। लगता है कि चूनीबाला राय की इस अतिसंवेदनशीलता पर हँस दी थीं और यह कहते हुए कि शायद वे खुद ही जल्दी ही सचमुच मर जाएँगी, उन्होंने खुद ही उस दृश्य में अभिनय करने पर ज़ोर दिया था! राय जब उस अर्थी के दृश्य का वर्णन करते हैं जहाँ चूनीबाला मुर्दे की भूमिका निभाती हैं और अर्थी से बाँघ दी जाती हैं, तो वे इस बूढ़ी स्त्री के अभिनय-कौशल की सराहना करते हैं। राय बताते हैं कि किस तरह उस दृश्य के अन्त में उस वक़्त सारी यूनिट की साँसें थम जाती हैं जब चूनीबाला ज़रा भी हरक़त नहीं करतीं और कुछ देर बाद ही उठकर बैठते हुए कहती हैं, ‘क्या शाॅट लिया जा चुका है? किसी ने मुझे बताया क्यों नहीं! मैं तो अभी भी लाश होने का ढोंग रच रही थी।’
जब ’90 के दशक के मध्य में मैं अपर्णा सेन की फि़ल्म युगान्त की शूटिंग कर रहा था, यह दृश्य एक बार फिर सामने आया था। इस फि़ल्म में एक विज्ञापन व्यवसायी की भूमिका निभाता मुख्य अभिनेता एक टूथपेस्ट मुहिम की शुरुआत करने के लिए एक चेहरे की तलाश कर रहा होता है। उसकी बीवी इस मुहिम के लिए एक मुस्कराते चेहरे के रूप में इन्दिर थकरन को लेने का दिलचस्प सुझाव देती है और आश्चर्य की बात कि मुहिम के सारे डिज़ाइनर इस सुझाव का अनुमोदन करते हैं। फि़ल्म में अस्सी साल की इस बूढ़ी औरत की दन्त-रहित मुस्कराहट के साथ टूथपेस्ट की यह मुहिम सर्वश्रेष्ठ विज्ञापन-मुहिम का पुरस्कार भी जीतती है!
अवचेतन स्तर पर ज़्यादातर बंगालियों के लिए यह दृश्य-विन्यास एक तकलीफ़देह अतीत की स्मृति जगाता प्रतीत हुआ था। जहाँ सूखे के दौर ऐसे जलवायुपरक आवर्ती पैटर्न बन चुके थे जिनसे निपटने के साघनों से ज़्यादातर किसान लैस हुआ करते थे, वहीं अकाल के मामले में यह स्थिति नहीं थी। सूखे के दौर में किसानों का समुदाय वर्तमान समय की कमी की भरपाई पिछले वर्षों की अतिरिक्त उपज के संचय के माध्यम से कर लेता था, लेकिन अँग्रेज़ों द्वारा थोपे गये उस ज़माने के अतिशय कराघानों ने उनके पास ऐसी कोई अतिरिक्त उपज बची नहीं रहने दी जिसके बूते वे सूखे के समयों से निपट पाते। 19वीं और 20वीं सदी के मानवजन्य अकालों ने बंगाल की ग्रामीण अर्थव्यवस्थाओं को तहस-नहस कर दिया था और बहुत-से परिवारों ने सती-प्रथा को पुनर्जीवित कर लिया था जहाँ परिवार के कमाऊ पुरुष की मृत्यु पर उसकी बीवी को भी उसके पति की चिता पर जला दिया जाता था। उन हताशा से भरे वक़्तों में जब भोजन दुर्लभ हुआ करता था, इस क्रूर अनुष्ठान को जीवित बने रहने की विघि के रूप में देखा गया था और ज़मीनी हकीक़त के स्तर पर इसका मात्र इतना मतलब हुआ करता था कि क़जऱ् में डूबे परिवारों को एक व्यक्ति के उदर-पोषण से छुटकारा मिल जाता था। यह एकमात्र ऐसी तर्कसंगत व्याख्या थी जिसे मैं इस सवाल के जवाब के तौर पर सोच पाता था कि आखि़र क्या वजह थी, यह क्रूर सिलसिला वास्तव में जिस चीज़ को निरूपित करता था उसके सामूहिक स्मृति से लुप्त हो जाने के इतने लम्बे समय बाद भी सांस्कृतिक अवचेतन में उसकी इस क़दर अनुगूँजें क्यों बची हुई थीं।
पाथेर पांचाली फि़ल्म ने जहाँ अपने बंगाली दर्शकों के मन में अनेक अनुगूँजें जगायीं, वहीं बाक़ी हिन्दुस्तान ने इसे हिन्दुस्तान की ग़रीबी को विदेशों में ‘बेचने’ की कोशिश की तरह देखा और कुछ समय तक इस फि़ल्म को विदेशों में दिखाये जाने पर प्रतिबन्घ भी लगाया गया था। इस प्रतिबन्घ को हटाने के लिए जवाहरलाल नेहरू को हस्तक्षेप करना पड़ा था और पी.एन. हक्सर ने इसके बारे में कहा था कि ‘‘मैं एक घटना को याद करना चाहूँगा। हिन्दुस्तान के एक नौजवान, अज्ञात फि़ल्मकार ने एक फि़ल्म बनायी और उसके पास जो कुछ भी था, वह सब उसने उस फि़ल्म को बनाने में लगा दिया - न सिफऱ् अपने अनुभवों और संवेदनशीलता को, भावनाओं और अनुभूतियों को, बल्कि अपने थोड़े-से पैसे को भी (यहाँ तक कि उसने अपनी बीवी के जेवर तक गिरवी रख दिये थे)। मैंने और मेरी पत्नी ने यह फि़ल्म देखी और हम दोनों उसकी अतिशय सुन्दरता से चकित रह गये। मैंने पाया कि वह फि़ल्म कई वर्ष पहले बनायी जा चुकी थी और विदेशों में इसके प्रदर्शन पर प्रतिबन्घ लगाया गया था। मैंने इस असामान्य व्यवहार की वजहों के बारे में पूछताछ की। मुझे बताया गया कि चूँकि यह फि़ल्म हिन्दुस्तान की ग़रीबी को दर्शाती है इसलिए इसको विदेशी फि़ल्म-समारोहों में शामिल करना उचित नहीं था। फि़ल्म पर लगे प्रतिबन्घ के आदेश को हटाने के लिए ज़ोरदार संघर्ष हुआ। अन्ततः मुझे उस अदालत जवाहरलाल नेहरू की शरण लेनी पड़ी जहाँ अन्तिम अपील की जा सकती थी। नेहरू की प्रतिक्रियाएँ साहसपूर्ण थीं और उन्होंने जो कुछ कहा था, वह मुझे स्पष्ट रूप में याद हैः ‘हिन्दुस्तान की ग़रीबी को दिखाने में क्या बुराई है? हर कोई जानता है कि हम एक ग़रीब मुल्क हैं। सवाल ये हैः हम हिन्दुस्तानी अपनी ग़रीबी को लेकर संवेदनशील हैं या उसके प्रति असंवेदनशील हैं? सत्यजीत राय ने इसे असाघारण सौन्दर्य-बोघ और संवेदनशीलता के साथ दर्शाया है।’ और इस अन्तिम फै़सले के साथ ही सत्यजीत राय की फि़ल्म पाथेर पांचाली विश्वप्रसिद्ध हो गयी। और राय दुनिया के एक महान फि़ल्म-निर्माता के रूप में उभरे।’’
उस ज़माने का कोई भी तत्कालीन बंगाली आलोचक ‘ग़रीबी’ शब्द को इस फि़ल्म के साथ जोड़ता प्रतीत नहीं होता। जहाँ हर कोई इन्दिर थकरन दृश्य-विन्यास को फि़ल्म के मार्मिक बिम्ब के रूप में स्पष्ट ढंग से याद करता है, वहीं इसकी क्रूर हिंसा का जि़क्र इनमें से किसी भी विमर्श में नहीं है। एक बंगाली दर्शक के लिए यह फि़ल्म एकसाथ उन कई स्तरों पर काम कर रही थी जिनमें ‘ग़रीबी’ महज़ एक छोटा-सा, गै़रमहत्त्वपूर्ण कारक था। गै़र-बंगाली दर्शकों, जिनमें नेहरू शामिल थे, जिनकी बंगाल की सामूहिक स्मृति तक कोई पहुँच नहीं थी, के लिए एक अन्यथा प्रगीतात्मक फि़ल्म के इस असामान्य रूप से हिंसक दृश्य-विन्यास को समझ पाना बहुत मुश्किल था।
एक-के-बाद-एक असामान्य संयोगों के चलते पाथेर पांचाली का प्रथम प्रदर्शन बंगाल में नहीं बल्कि न्यू याॅर्क के म्यूजि़यॅम आॅफ़ माॅडर्न आर्ट में हुआ। फि़ल्म के बारे में जाॅन हॅस्टॅन की जोशीली सिफ़ारिशों के चलते फि़ल्म को देखने अच्छी संख्या में लोग आये थे। इस फि़ल्म को जिस सांस्कृतिक मूल्य-व्यवस्था ने जन्म दिया था, उसकी किसी भी तरह की जानकारी के अभाव में इस दर्शक-वर्ग को सूझा ही नहीं कि वे इस फि़ल्म की किस तरह व्याख्या करते और इसीलिए इसको एक तरह के ‘वृत्तचित्र’ (डाॅक्यूमेण्टरी) के रूप में देखा गया! इसे राॅबर्ट ़लेहर्टी सेण्टर में भी दिखाया गया जहाँ तब तक पूरी तरह से वृत्तचित्र प्रदर्शित किये जाते थे! यहाँ तक कि कान्स में जहाँ इस फि़ल्म ने पहला बड़ा पुरस्कार जीता, वहाँ भी फि़ल्म के बारे में यह नासमझी जारी रही और इसे ‘बेस्ट ह्यूमन डाॅक्यूमेण्ट’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया जो इस फि़ल्म को पुरस्कारों की सूची में शामिल करने के लिए गढ़ी गयी एक नयी कोटि थी। पश्चिमी दर्शक इस बात को तो महसूस कर सके कि इस फि़ल्म में कुछ अनूठा था लेकिन वे किसी भी तरह से इस बात को कह नहीं पा रहे थे कि वह क्या चीज़ थी जो इस फि़ल्म को विशिष्ट बनाती थी। त्रयी की अन्य दो फि़ल्मों, अपराजितो और अपूर संसार को देखने के बाद ही पश्चिमी दर्शकों को किसी हद तक यह बात पकड़ में आ सकी कि सिनेमा की पदावली में राय के लिए इन फि़ल्मों का क्या मतलब था।
पाथेर पांचाली में राय बिभूति भूषण बन्घोपाध्याय के उपन्यास के प्रति पूरी निष्ठा बरतते हैं और यह चीज़ एक अज्ञात फि़ल्म-निर्माता द्वारा दर्शकों के मानस पर पकड़ बनाने के लिए काफ़ी हद तक जि़म्मेदार थी। हर दर्शक की अपनी स्मृतियाँ थीं और उपन्यास तथा उसके प्रति राय की निष्ठा ने, विरोघाभासी ढंग से, इस फि़ल्म को वह पारदर्शिता प्रदान की जिसकी वजह से यह फि़ल्म आलोचकों की कसौटी पर और व्यावसायिक कसौटी पर खरी उतर सकी।
पाथेर पांचाली की अतिशय सफलता ने राय को त्रयी की दूसरी फि़ल्म अपराजितो के लिए बिभूति के पाठ में फेर-बदल करने का हौसला प्रदान किया। इस फि़ल्म के मर्म में विघवा माँ सर्बजया और अपू के बीच का समीकरण है। अपू बनारस के अपने प्रवास के दौरान अपने गाँव से बाहर की बड़ी दुनिया को देख चुकने के बाद भ्रमण की लालसा से और दुनिया का अन्वेषण करने की आकांक्षा से भरा हुआ है। बिभूति माँ-बेटे के समीकरण के बारे में इस तरह बात करते हैं ः
महज़ दूरी का अहसास ही उसके छोटे-से दिमाग़ को विस्मय से भर देने और सुखी बनाने के लिए पर्याप्त था।..., वह समझा नहीं सकता था कि वह क्या महसूस करता था, लेकिन जब भी वह सुदूर स्थित चीज़ों और स्थानों के बारे में सोचता था, तो लगता था जैसे उसको उससे बाहर निकालकर किसी दूसरी दुनिया में ले जाया गया हो।
नीला आसमान बहुत दूर कहीं था। उसी तरह काग़ज़ की वह पतंग जो उस आसमान में उड़ती थी। वह बता नहीं पाता था कि वह क्या महसूस करता था लेकिन जब भी वह सुदूर स्थित चीज़ों और स्थानों के बारे में सोचता था, तो लगता था जैसे उसको उससे बाहर निकालकर किसी दूसरी दुनिया में ले जाया गया हो। लेकिन यह इसका सबसे विस्मयकारी हिस्सा है कि जब भी कभी दूरी का यह सम्मोहन उसपर सवार होता था, तो उसके ख़याल सहसा उसकी माँ की ओर मुड़ जाया करते थे जो, जब भी वह इन लम्बी यात्राओं पर निकलता था तो पीछे छूट गयी प्रतीत होती थी। उसकी आँखें आसमान में चक्कर लगाते परिन्दों का तब तक पीछा करती रहतीं जब तक कि वे उसकी आँखों से ओझल नहीं हो जाते थे...और वह अपनी माँ को बाँहों में घेर लेता...(69)
राय ने महसूस किया कि अपराजितो उपन्यास के माँ-बेटे के ये दृश्य कुछ ज़्यादा ही मिठास लिये हुए थे और वे उपन्यास के अपने फि़ल्मी निरूपण में अपू की भ्रमण-लालसा की वजह के तौर पर माँ से आज़ाद होने की उसकी प्रबल आकांक्षा को जोड़ देते हैं। नतीजतन, फि़ल्म में माँ-बेटे का रिश्ता निरन्तर कलहपूर्ण बना रहता है, और उसका समाघान तभी होता है जब माँ इनमें से हर तकरार में अपने बेटे पर अपनी पकड़ को ढीला कर देती है।
बिभूति के उपन्यास से राय द्वारा ली गयी इस छूट की वजह से ही अपराजितो बंगाली दर्शकों द्वारा तिरस्कृत कर दी गयी थी। घटक और मृणाल सेन जैसे फि़ल्म-निर्माता उन पहले लोगों में शामिल थे जिन्होंने फि़ल्म का मुखर समर्थन किया जिसको ये लोग राय की भव्य कृति के रूप में देखते थे। वेनिस में इस फि़ल्म को मिले ‘गोल्डन लाॅयन’ पुरस्कार ने किसी हद तक इस फि़ल्म के बारे में बंगालियों के सन्देह को शान्त किया, और यह चीज़ ही मुझे सीघे-सीघे इस बारे में बात करने की ओर प्रवृत्त करती है कि किस तरह इस फि़ल्म ने एक बुनियादी अर्थ में ऋत्विक घटक की फि़ल्म-प्रक्रिया को रूपान्तरित किया।
’50 के दशक के शुरुआती दौर में जब घटक बीस-बाईस वर्ष के एक नौजवान थे, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उनको कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृति संगठन पीपल्स थिएटर ऐसोसिएशन (इप्टा) की सांस्कृतिक नीति तैयार करने की जि़म्मेदारी सौंपी। जिस किसी भी समूह से ताल्लुक रखने वाले विचारघारा के ज़्यादातर पैरोकार सौन्दर्यशास्त्र और उससे जन्मी ‘संस्कृति’ के प्रति गहरी असुविघा महसूस करते थे, जबकि घटक के लिए ये चीज़ें मनुष्य होने के अर्थ को परिभाषित करने वाले बुनियादी लक्षणों में शामिल थीं। घटक के भावावेगपूर्ण प्रबन्घ ‘आॅन द कल्चरल फ्ऱण्ट’ को सत्ताघारी परम्परावाद द्वारा नकार दिया गया और उसको तुरन्त दबा दिया गया। इसकी वजह से घटक को भी ‘पार्टी-विरोघी’ गतिविघियों के नाम पर पार्टी से निकाल दिया गया और इप्टा के लिए वे जिन नाटकों की रिहर्सल कर रहे थे उनको तुरन्त निरस्त कर दिया गया। घटक पहले ही 1952 में, नागरिक नामक एक फि़ल्म बना चुके थे जो अन्ततः उनकी मृत्यु के बाद 1977 में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित हुई।
संकट और निष्कासन के इस समय में घटक को उनके दोस्तों बिमल राॅय और हृषिकेश मुखर्जी द्वारा बम्बई में काम करने के लिए बुला लिया गया और उन्होंने इस भरपूर उम्मीद के साथ कलकत्ता छोड़ा कि बम्बई का कमतर रूढि़वादी वातावरण उनकी सृजनात्मकता के लिए अनुकूल साबित होगा। लेकिन बम्बई ने घटक को निराश किया क्योंकि जैसाकि उनका कहना था, सांस्कृतिक तौर पर ‘इसकी कोई जड़ें नहीं थीं’, और वे अपनी इस दृढ़ समझ के साथ कलकत्ता वापस लौट आये कि मराठी और बंगाली सिने-उद्योग जैसे वे क्षेत्रीय सिनेमा ही आगे की दिशा में बढ़ने का आश्वासन लिये हुए हैं जिनकी मज़बूत सांस्कृतिक जड़ें हैं।
1958, जिस साल अपराजितो के सार्वजनिक प्रदर्शन की शुरुआत हुई थी, घटक के लिए एक उर्वरक वर्ष भी था और उन्होंने दो फि़ल्में, अजान्त्रिक और बारी थेके पली बनायीं। इस दौर के बारे में बात करते हुए घटक कहते हैं ः
मेरी समझ से, मैं सिर्फ़ हाथ-पाँव मार रहा हूँ, जिस विषय पर मैं काम कर रहा हूँ उसकी सबसे उपयुक्त अभिव्यक्ति की तलाश के लिए हाथ-पाँव मार रहा हूँ। कभी मैं सही हो सकता हूँ, कभी ग़लत हो सकता हूँ। मैंने कथा-रूप, निरूपण, दृश्य को फि़ल्माने की शैली, छवियों आदि के साथ प्रयोग करने की कोशिश की है। मेरी हर फिल़्म मेरी दूसरी फि़ल्मों से पूरी तरह से अलग है, हालाँकि मुझे भय है कि मेरा व्यक्तित्व और मेरे रुझान उन सब में मौजूद हैं।
विचारघारात्मक और सृजनात्मक संकट की यही वह घड़ी है जब अपराजितो के दृश्य घटक को सम्मोहित करते हैं। वे कहते हैंः
सत्यजीत राय की अपराजितो में एक दृश्य है जहाँ अपू एक पोखर के सामने खड़ा है जिसमें अँघेरे आकाश के कुछ बिन्दु झिलमिला रहे हैं और अपू फुसफुसाता है, ‘रुद्र’@‘प्रजापति’। जिन लोगों ने बिभूति भूषण बन्घोपाध्याय को पढ़ा है, जोकि फिल्म के मुख्य स्रोत हैं, और जिनकी अनेक कृतियों में रुद्र का नक्षत्रमण्डल बार-बार आता है - और हममें से जो लोग उसी सांस्कृतिक समष्टि से ताल्लुक रखते हैं और जो हमारी परम्परा के लिए इस नक्षत्रमण्डल के अभिप्रायों को समझते हैं - उनकी प्रतिक्रिया ऐसी होगी जिसको व्यापक तौर पर इस परम्परा के बाहर नहीं समझा जाएगा और जो सतही स्तर की समझ नहीं है।
राय इस दृश्य को स्पष्ट करने की कोशिश कभी नहीं करते; वह सिफऱ् वहाँ मौजूद भर है। 1969 में, किन्हीं अस्पष्ट वजहों से, राय ने इस दृश्य को फि़ल्म से हटा दिया था और इस फि़ल्म-त्रयी के सारे समकालीन संस्करणों में न तो यह दृश्य है और न प्रजापति पर बिभूति का चिन्तन है, जिसका अस्तित्व अब एक स्मृति के रूप में घटक की पुस्तक सिनेमा एण्ड आई में ही है। घटक के लिए यह दृश्य अर्थ का एक अतिरेक समाहित किये प्रतीत हुआ, और वे पहली बार ‘ध्वनि’ (जिसका विभिé जगहों पर ‘रेज़ोनेंस’ या ‘इम्प्लीकेचर’ के रूप में अनुवाद किया गया है) की अवघारणा में निहित सम्भावनाओं से टकराये।
आम घारणा के विपरीत घटक एक अत्यन्त ‘आघुनिकतावादी’ थे जो अपने रंगमंच के स्तर पर स्तानिस्लेव्स्की द्वारा प्रवर्तित अभिनय के ‘मैथड’ घराने के तहत काम कर रहे थे, जहाँ अभिनेता को उसके द्वारा प्रस्तुत किये गये संवाद@भाव में ‘प्रामाणिकता’ लाने के लिए अपने जीवन में अनुभव की गयी वैसी ही परिस्थितियों को याद करते हुए अपने ‘अवचेतन’ में उतरना पड़ता है। हाॅलीवुड ने इसे ’50 के दशक में अपनाया था जब स्तानिस्लेव्स्की संयुक्त राज्य अमेरिका में आकर बस गये थे और उनके अभिनय सिद्धान्त के लिए ढेरों अनुयायी मिल गये थे। घटक के समक्ष हमेशा यह सवाल बना रहा था कि ‘सत्य’ को किस तरह अभिव्यक्त किया जाए और उनके सारे प्रयोग, पहले रंगमंच में और बाद में सिनेमा में, इसी लक्ष्य की ओर अग्रसर रहे थे। संवादों को अभिनेता@अभिनेत्री के वास्तविक रूप में अनुभूत भावों में स्थित करते हुए घटक महसूस करते थे कि अभिनेता सचमुच एक ऐसी प्रस्तुति दे सकता है जो ‘सत्य’ के अघिकतम सम्भव निकट हो सकती है। ‘आद्यरूपों’ पर कार्ल युंग के लेखन ने घटक को बहुत आकर्षित किया था, जिसने एक अर्थ में शुरू में रंगमंच में और बाद में सिनेमा में उनकी पद्धति को सँवारा था। अपराजितो का दृश्य और पाथेर पांचाली की असीमित सफलता घटक को ‘मुहावरे’ (‘ईडियॅम’) की घारणा से जुड़े सवालों की ओर ले जाती हैं और वे यह प्रसिद्ध वक्तव्य देते हैंः
हम महाकाव्यात्मक (एपिक) समाज भी हैं। हम हर दिशा में फैलना पसन्द करते हैं, हम कथा-विघान में बहुत ज़्यादा नहीं उलझते, और हम उन्हीं-उन्हीं मिथकों और किंवदन्तियों को बार-बार दोहराना पसन्द करते हैं। एक समाज के रूप में किसी चीज़ के प्रति हमारा विश्वास उसके ‘क्या’ से नहीं, बल्कि उसके ‘क्यों’ और ‘कैसे’ से जागता है। यह महाकाव्यात्मक रवैया है।
एक दर्शक के रूप में घटक बहुत सहज ढंग से पाथेर पांचाली की शक्ति के स्रोत को महसूस कर लेते हैं, जो सौन्दर्य की उनकी अपनी अवघारणाओं को गढ़ती प्रतीत होती है। बिभूति का पाथेर पांचाली का पाठ और उसकी अपनी खण्डित शैली में उसके द्वारा उद्बुद्ध स्मृतियाँ सचमुच वह सर्वनिष्ठ सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत थी, या एक तरह से कहें तो वह सामूहिक चेतना थी, जो फि़ल्म-निर्माता और उसके दर्शक-वर्ग, दोनों से ताल्लुक रखती थी। राय द्वारा किया गया पाठ का प्रतीकात्मक निरूपण, जहाँ उनका सिनेमाई रूपान्तरण लगभग पारदर्शी बन जाता है, दर्शकों के लिए एक आह्नानपरक कर्म बन जाता है, जो दर्शक को उस चीज़ के साथ अपना नया रिश्ता बनाने की गुंजाइश देता है जिस चीज़ का आह्नान किया जा रहा होता है। इस तरह एक फि़ल्म या प्रस्तुति देखने का कर्म एक द्विभाजित अनुभव बन जाता है। प्रस्तुति की आह्नानपरक प्रकृति देखने के अनुभव को आत्मविमर्शात्मक बना देती है क्योंकि जिस चीज़ का आह्नान किया जा रहा होता है, उसके बारे में हर दर्शक की निजी स्मृति होती है।
मेरा अनुमान है कि यही वह मुकाम है जब घटक भरत के नाट्यशास्त्र के निष्पादन सिद्धान्तों पर पुनर्विचार करते हैं। भरत ‘अभिनेता’ की काया को भावाभिनय, आंगिक अभिनय और देह-मुद्राओं में त्रिभाजित करते हैं। वे देह मेें निहित ‘ज्ञान’ की घारणा को व्यक्त करते हैं, और कहते हैं कि अगर अभिनेता को अभिनय के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध होना है, तो अभिनय में उसके ‘भावनात्मक’ मानस के ज्ञान का और साथ ही उसकी देह में निहित ज्ञान का समावेश आवश्यक है।
पाठ इन परम्पराओं में प्रघानता हासिल कर लेता है और अभिनेता का कर्तव्य पाठ की व्याख्या करना नहीं बल्कि उसको ‘अनुभव’ करना बन जाता है। भारतीय उपमहाद्वीपीय परम्पराओं में नाट्य का अभ्युदय आद्य नृत्त, यानी शिव के ताण्डव और पार्वती के उस लास्य से हुआ है जो इस आद्य नृत्त की भावनात्मक प्रतिक्रिया थी। इसलिए नाट्य उस अद्धनारीश्वर रूप में रचित है जो अपने भीतर ऊर्जा के दो प्रगटनों को परस्पर समाये हुए है। इसलिए सारा नाट्य और नृत्य वास्तव में इस ज्ञान को उद्बुद्ध करना है जो हर व्यक्ति और हर वस्तु में अन्तर्निहित है।
भर्तृहरि इसे और आगे ले जाते हैं और कहते हैं कि शब्द@पाठ अर्थबहुल होता है और वह दर्शक@श्रोता के मानस@शरीर में पहले से प्रच्छé होता है। वे कहते हैं कि शब्द@पाठ सहृदय के मानस में स्वयं अपना अर्थ खोज लेता है और निष्पादन का लक्ष्य अभिनय को अभिनेता@दर्शक के द्वित्व से परे ले जाना है। नाट्य की इस अवघारणा के अनुसार सच्चा सम्प्रेषण अभिनेता और दर्शक, दोनों के सम्पूर्ण निर्वैयक्तीकरण से होता है। इसलिए प्रस्तुति उन दर्शकों के मानस में एक निश्चित आकर ग्रहण करती है, जो यद्यपि उसी वास्तविकता में साझा करते हैं जिसमें अभिनेता करता है, लेकिन वे रोज़मर्रा जीवन की भूमिकाओं में डूबकर स्वयं को ‘भूल चुके होते हैं’।
इसलिए घटक ने 1960 के बाद की अपनी फि़ल्मों में अभिनय की एक अस्वाभाविक (स्टाइलाइज़्ड) शैली विकसित की जो ‘प्रकृतवाद’ (‘नेचुरलिज़्म’) या स्तानिस्लाव्स्की के ‘मैथड’ के विपरीत हिन्दुस्तान के ‘मुखौटापरक’ (‘मास्क्ड’) रंगमंच के क़रीब थी। एक किंवदन्ती है कि उन्होंने अपनी मुख्य अभिनेत्री सुप्रियो देवी से अभिनेता फाल्कोनेट्टी द्वारा चित्रित आह्लाद को आत्मसात करने के लिए कार्ल ड्रेयर की फि़ल्म पैशन आॅफ़ जोआन आॅफ़ आर्क देखने को कहा था। इस तरह वे स्वयं प्रस्तुति को अति-भावुकतापूर्ण बनाते हुए अभिनेता का निर्वैयक्तीकरण करते हैं, इसलिए प्रेक्षक वास्तव में जो देखते हैं वह अभिनय करता अभिनेता नहीं होता, बल्कि दरअसल एक यथासम्भव ‘अव्यवहित’ (‘अनमीडिएटेड’) पाठ होता है, जिसकी वैसी ही अवस्थिति होती है जैसी उन प्रेक्षकों की होती है जो जगत के अपने निजी अनुभवों में अवस्थित होते हैं।
इस तरह घटक एक चक्राकार रास्ते पर चलते हुए हिन्दुस्तानी सिनेमा के पहले ‘पौराणिक’ फि़ल्म-निर्माता बन जाते हैं। दादा साहेब फाल्के की राजा हरिश्चन्द्र से लेकर उसके बाद की ढेरों हिन्दुस्तानी फि़ल्में पुराणों पर आघारित हैं, लेकिन यह चीज़ उनको ज़रूरी तौर पर ‘पौराणिक’ नहीं बना देती। पुराण का अनुवाद मोटे तौर पर ‘मिथक’ के रूप में किया जाता है जोकि एक ग़लत प्रयोग है। व्युत्पत्तिपरक ढंग से पुराण को ‘पुरा-अपि-नवम-इति पुराण’, यानी ‘प्राचीन नवीन’, के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रत्येक पौराणिक गाथाकार पुरानी कथा को कहते हुए उसको निरन्तर अपने वर्तमान मूल्यों और भाषा में नये सिरे से व्यक्त करता चलता है जहाँ कथा स्वयं तो पुरानी और सुविदित बनी रहती है, लेकिन अपने समकालीन पुनराख्यान में वह वास्तव में दुनिया के नये अनुभव के अनुरूप अघिक-से-अघिक तहों को समेटती चलती है। इस तरह रचे गये आख्यानों के पौराणिक ख़ज़ाने वास्तव में अपनी समकालीन वास्तविकता से उलझने के लिए संस्कृति के सामूहिक आद्यरूप हुआ करते थे। ‘पुरातन’ और ‘नवीन’ के बीच का यह संवाद ही वास्तव में वह भेद है जो राय और घटक की फि़ल्मों को अलगाता है। अपने वर्तमान में जडें़ जमाये ‘रोमानी’ कलाकार राय के लिए ‘पुरातन’ एक अतीत-मोहपरक विचार के तौर पर आवश्यक था, वहीं वे इस बात का ध्यान रखते थे कि यह ‘पुरातन’ उनके वर्तमान को परिभाषित नहीं करता। पौराणिक फि़ल्मकार घटक के लिए ‘पुरातन’ वर्तमान को नये सिरे से अभिव्यक्ति देने और उसको ‘प्रश्नांकित करने’ का माध्यम बन जाता है।
मणि कौल ने इस भेद को बहुत सारगर्भित ढंग से व्यक्त किया है। वे कहते हैं ः
पारम्परिक तौर पर एक महाकाव्यात्मक रूप (एपिक फ़ाॅर्म) है, और इसके विपरीत एक नाटकीय (ड्रेमेटिक) रूप है। जब हम नाटकीय रूप की बात करते हैं जो वह एक परिणाम की, एक लक्ष्य की दिशा में उत्प्रेरित होता है। लगभग निन्यान्वे प्रतिशत फि़ल्में, वे चाहे गम्भीर फि़ल्म-निर्माताओं द्वारा बनायी गयी हों या हाॅलीवुड द्वारा, वास्तव में नाटकीय फि़ल्में होती हैं।
नाटकीय फि़ल्में मनोवैज्ञानिक तौर पर, सामाजिक तौर पर पूर्वनिर्घारित, या महज़ किसी कथानक - जैसे कि किसी रोमांचक कथानक - से पूर्वनिर्घारित होती हैं। वे हास्यपूर्ण या किसी दूसरी शैली की हो सकती हैं। एक नाटकीय फि़ल्म के लिए अन्त की ओर बढ़ना अनिवार्य होता है। इसलिए वह चरित्रों के बीच, या स्वयं कथानक में, जो भी तर्क विकसित करती है, उनका समाघान अनिवार्य होता है, और फिर इसके बाद वह एक संयोग की दिशा में, एक पराकाष्ठा की दिशा में बढ़ती है। जैसेकि अन्त में शुभ और अशुभ के बीच के संघर्ष का समाघान।
महाकाव्यात्मक रूप इसके ठीक विपरीत होता है, जिसका मतलब है कि उसमें आख्यान आम तौर से बहुत क्षीण, बहुत फैला हुआ होता है और वह हर मुकाम पर उपज करता चलता है, व्यापक परिप्रेक्ष्यों को अपनाने की कोशिश करता चलता है। उसकी दिलचस्पी मात्र चरित्रों में नहीं बल्कि प्रकृति, इतिहास और विचारों में भी होती है। ये महज़ किसी समाज के ब्योरे नहीं होते बल्कि बीते युगों की दृष्टियाँ होती हैं। इसलिए वह आगे की दिशा में बढ़ते आख्यान की कोई एक सरल-सी गति नहीं होती, बल्कि कथा के बयान के साथ-साथ उसमें समावेषण और विस्तार अनिवार्य होता है।
राय की फि़ल्म अपराजितो घटक के लिए एक बार फिर से वह निर्णायक महत्त्व की अन्तर्दृष्टि उपलब्घ कराती है जो उनकी परवर्ती सौन्दर्यात्मक साघना को अनुप्राणित करती है। वे चलते-चलते संक्षेप में फि़ल्म के उन दृश्यों के बारे में बात करते हैं जिनने उनपर प्रभाव डाला था ः
पाथेर पांचाली में आप उसी एक घुन को बार-बार सुनते हैं जो किसी हद तक इस फि़ल्म का कथानक संगीत था। जहाँ कहीं, जब कभी आप इस संगीत को सुनेंगे, यह आपको बंगाली गाँवों की अन्तहीन हरियाली की याद दिलाएगा। सत्यजीत राय ने यह एक अöुत काम किया है। अपराजितो में सर्बजया और अपू बनारस से अपने गाँव लौट रहे हैं; टेªन पुल को पीछे छोड़ देती है; जल्दी खिड़कियों से आप बंगाल का भूदृश्य देख सकते हैं, हरा और सुन्दर। तभी साउण्ड टैªक पर आप उस कथानक संगीत को सुनते हैं। समूची फि़ल्म में सिफऱ् एक बार, लेकिन यह एक बार पर्याप्त है। एक टिप्पणी, अतीत और वर्तमान के बीच एक सहसम्बन्घ आपके दिमाग़ को निश्चिन्तीपुर (अपू और का गाँव), दुर्गा और कपास के खेतों की स्मृतियों से भर देता है।
घटक की बाद की फि़ल्मों के विस्तृत ध्वनि-विन्यास (साउण्डस्केप) इस बिन्दु पर उत्प्रेरित प्रतीत होते हैं। जहाँ जिन आख्यानों पर वे काम करते हैं वे मुख्यघारा की संस्कृति के मामूली@त्रासद आख्यान होते हैं, वहीं साउण्ड-टैªक उसमें एक ऐसी सशक्त पौराणिक परत का योगदान करता है जो फि़ल्म के आख्यान में एक और आयाम का समावेश करता हुआ अग्रप्रस्तुत आख्यान को अवचेतनात्मक ढंग से बाँघता है। घटक कहते हैं ः
संघटनात्मक दृष्टि से तमाम फि़ल्मों के विभिé कि़स्म के सन्तुलनकारी नियम होते हैं जिनको विषय-वस्तु में अन्तर्निहित माना जाता है। मैंने साउण्ड टैªक्स में, जिनमें संगीत शामिल है, विभिé पैटर्नों को बुनने की कोशिश की है। मैं अर्थ-ध्वनियों की तलाश में हूँ, अस्पष्ट, अस्थायी अर्थ-ध्वनियों की। उनमें सृजनात्मकता (लाइफ़-स्पार्क) निहित होती है।
उनकी फि़ल्मों के साउण्ड टैªक आख्यानों के उनके रूपान्तरणों को वास्तव में ये अर्थ-ध्वनियाँ उपलब्घ कराते हैं। घटक का एक मुख्य प्रश्न यह है कि यथार्थ में अमूर्तन का गुण किस तरह लाया जा सकता है, और उनके अस्वाभाविक अभिनय तथा सम्पादन की उनकी मौलिक रूप से भिé शैली के साथ-साथ उनके ध्वनि-विन्यास उस प्रक्रिया को रचते हैं जिसके माध्यम से घटक इस अमूर्तन को हासिल करते हैं।
मेघा ढाका तारा नामक अपनी जिस फि़ल्म में घटक वास्तव में इस महाकाव्यात्मक आख्यान की यात्रा शुरू करते हैं, जो प्रत्यक्ष तौर पर बंगाल के विभाजन के सदमे को झेलते शरणार्थी परिवार की गाथा है, उसमें घटक सांख्य दर्शन में निहित विभाजन की घारणा को समाहित करने के लिए ‘विभाजन’ को नये सिरे से अभिव्यक्ति देते हैं। सांख्य के सृष्टि के इस आख्यान में एकाकीपन में निर्वासित एक आद्य कारण-रूप ‘नर’ - ‘पुरुष’ - है, जो आत्मानुभूति की आकांक्षा से भरकर अपने से ‘अन्य’ की सृष्टि के लिए खुद को ‘विभाजित’ करता है। यह क्रियाशील कारण-रूप ‘नारी’ - ‘प्रकृति’ अपनी बाह्योन्मुख गति में उस सब कुछ की सृष्टि करती है जिसे हम जगत के नाम से जानते हैं। इसी गति के भीतर अपने आद्य अन्य से पुनः एकाकार होकर पूर्णता प्राप्त करने की अकर्मक नर कारणता की आकांक्षा भी व्यक्त है। विभाजन इस फि़ल्म में नये सिरे से अभिव्यक्ति पाता है और उसमें बीसवीं सदी के आरम्भिक दौर में हुए बंग-विभाजन की ध्वनि से कहीं अघिक व्यापक अन्तध्र्वनियाँ मौजूद हैं।
‘मेघा ढाका तारा’ एक कहानी है जो एक लोकप्रिय श्ाृंखला के रूप में एक समाचार-पत्र में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी, अपने शरण-स्थल में जीवित बने रहने का संघर्ष कर रहे, पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों के एक मध्यवर्गीय परिवार के इर्दगिर्द घूमती है। यह बंगाल के विभाजन का अख्यान है, उस घटना का आख्यान जो बहुत-से बंगालियों के लिए प्रलय की तरह था, लेकिन घटक इस विभाजन में उस आद्य विभाजन में अनुभव की गयी क्षति का एक व्यापक आयाम जोड़ते हैं, और इस फि़ल्म के सभी चरित्र विभिé रूपों में ‘विभाजित’ हैं।
इस परिवार का मुखिया बिजन अँग्रेज़ी का एक भूतपूर्व स्कूली अध्यापक है जो अब बेरोज़गार है, और उसकी सख़्त पत्नी सुरामा गृहस्थी चलाती है। समझा जाता है कि अपनी अभिनेत्री को इस चरित्र के बारे में समझाते हुए घटक ने कहा थाः ‘‘जानती हो गीता, तुम सुरामा की भूमिका निभा रही हो, और बिजन मैं हूँ’’। - गीता घटक। अपनी अभिनेत्री के लिए उसके द्वारा निभाये जा रहे चरित्र को समझने के लिए किये गये इशारे के तौर पर घटक का यह संकेत उन सारे संकेतों की शुरुआत करता है जो घटक इस फि़ल्म में करते हैं, इसकी हर घटना में अर्थ की अनेक छबियाँ पैदा करते हुए। बिजन खुद ही ‘विभाजित है। वह बायरन, शेली और कीट्स को उद्धृत करना पसन्द करता है, उन लोगों की भाषा को जो उसके भूतपूर्व औपनिवेशिक मालिकों की भाषा है, लेकिन उसे बाउल गायक ख़ानाबदोश भिक्षुओं की संगत में शराब पीकर घुत्त होना भी अच्छा लगता है।’
इस कहानी-श्ाृंखला का मूल शीर्षक था ‘चीनामुख’ (पहचाना हुआ चेहरा), लेकिन घटक ने फि़ल्म का नाम रखा मेघा ढाका तारा, जिसका शब्दशः अर्थ है ‘बादलों से आच्छादित तारे’, जो द टेम्पेस्ट में प्राॅस्पेरो के स्वागत कथन की एक पंक्ति से लिया गया है, जिसके साथ फि़ल्म में आईनों के खेल की शुरुआत होती है ः
द टेम्पेस्ट में प्राॅस्पेरो का स्वागत कथन ः
और इस दृश्य के निराघार पट की तरह,
मेघों से ढँकी मीनारें,
भव्य महल
पवित्र देवालय, स्वयं विशाल भूमण्डल -
हाँ, वह सब जो उसे विरासत में मिला हुआ है - विलीन हो जाएगा।
क्षति का यह आद्य बोघ, जो फि़ल्म को परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है, स्वयं शीर्षक में बँघ जाता है।
फि़ल्म की तीनों स्त्रियाँ अलौकिक मातृत्व के तीन पक्ष होने के साथ-साथ सात्विक, राजसिक और तामसिक, तीन गुण भी हैं, जो भारतीय उपमहाद्वीपीय परम्पराओं में किसी भी व्यक्ति के स्वत्व को गढ़ते हैं। इनमें सबसे बड़ी बेटी नीता पोषक या सात्विक स्वत्व है, माँ अहंकारी या राजसिक स्वत्व है और सबसे छोटी बहन स्वेच्छाचारी या तामसिक स्वत्व है।
एक अन्य प्रतिबिम्बात्मक परत दुर्गा पूजा के उस गीत के माध्यम से जोड़ी गयी है, जो उस परिवार की क्षति का गीत है जो अपनी बेटी सती को विदाई दे रहा है, जो अपने पति के साथ पर्वतों पर रहने, उनको छोड़कर जा रही है। यह गीत नीता को जल्दी ही विदा लेने जा रहीं उमा@सती का रूप देता हुआ एक अवचेतन विलाप बन जाता है। यह बंगाल का एक लोकप्रिय गीत है जो विवाह के अवसरों पर गाया जाता है और जो बेटी के विवाह के बाद उससे अलग होने जा रहे माता-पिता के शोक को व्यक्त करता है। इस फि़ल्म के सन्दर्भ में यह गीत दरअसल एक विवादी स्वर का रूप ले लेता है, क्योंकि यह विवाह गीत मुख्य किरदार, नीता, की मृत्यु की पूर्वसूचना देते गीत का रूप ले लेता है। ‘ध्वनि’ के विचार को घटक ने जिस तरह नया रूप दिया है उसमें ‘विवादी स्वर’ की घारणा भी शामिल है।
आ, मेरी बेटी उमा, मेरे पास आ। मैं तुझे फूलों का हार पहना दूँ। तू मेरे उदास स्वत्व की आत्मा है, माँ, जन्मदात्री। मैं तुझे विदा कर दूँ, मेरी बेटी! तू मेरे घर को वीरान कर अपने पति के घर जा रही है। कैसे सहूँ मैं तेरा जाना, मेरी बेटी?
ये परतें वही बनी रहती हैं जो वे हैं, परतें, जो आख्यान को किसी रूपक-कथा में संकुचित किये बिना आख्यान में अर्थ-छवियों का योगदान करती रहती हैं। अपने चरित्रों को, पाश्र्व संगीत को, या स्वयं चरित्रों द्वारा बोले गये वाक्यों को आकार देने का उनका ढंग इन परतों को, इसके पहले कि वे एकरैखिक आख्यान का हिस्सा बन जाएँ, प्रकाश-वृत्त में ले आता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एक गीत का ख़ूबसूरत इस्तेमाल नीता को उमा के रूप में गढ़ देता है ः
रात में आँघी मेरे दरवाज़े को पीटती रही, मुझे ठीक-से मालूम नहीं था कि तुम अन्दर आओगी,
सब कुछ अँघेरे में डूब गया, दीपक की रोशनी मद्धिम पड़ गयी,
अनजाने ही मैं आकाश में चला गया, अँघेरे में मैं स्वप्निल-सा लेटा रहा।
क्या मैं जान सकता था कि वह आँघी महज़ तुम्हारी विजय की अगवानी कर रही थी?
सुबह होने पर ही मैंने देखा; तुमको वहाँ खड़े हुए। खड़े हुए वहाँ जो एक ख़ाली कमरा था।
रजस की एक चेतना के बिना विशुद्ध सात्त्विकता जीवित नहीं रह सकती, और तामसिक का किसी भी क़ीमत पर होना ज़रूरी है; और इसलिए नीता अन्त में तपेदिक से मर जाती है, पर्वत पर, अपने मिथकीय पति शिव के निवास-स्थल पर।
अपनी फि़ल्म के बारे में बात करते हुए घटक कहते हैं ः
मैं अपनी फि़ल्मों में प्रयोग कर रहा हूँ। ये उनके पीछे सक्रिय विचार थे। मेरे लिए मेरी सारी फि़ल्में महज़ पूर्णता को प्राप्त हुए अभ्यास हैं; मैं उनके बारे में कोई राय क़ायम नहीं कर सकता। लेकिन जब, उदाहरण के लिए, मैं सुनता हूँ कि तपेदिक की शिकार लड़की की ठीक उसकी मृत्यु के क्षण की अयथार्थवादी पुकार कि ‘जीना चाहती हँू’, परिप्रेक्ष्य में भयानक रूप से बलात् लायी गयी है, तो मुझे सचमुच आश्चर्य होता है। मुझे लगता है कि मैं अपनी नायिका के साथ संहार के देवता की पत्नी उन उमा के समूचे रूपकात्मक रिश्ते को सम्प्रेषित नहीं कर पाया हूँ जो सदियों से सारे बंगाली घरों की बेटियों और वघुओं की आदर्श रही हैं। या, उदाहरण के लिए, जब मैं सुनता हूँ कि मैं अपनी ताज़ा फि़ल्म में अभिव्यंजनावाद के प्रयोग का अपराघी हूँ, और अभिव्यंजनावाद तथा प्रतीकवाद साथ-साथ नहीं चल सकते, तो मैं सोचने की कोशिश करता हूँ कि वे क्या चीज़ें हैं जिनके बल पर अभिव्यंजनावाद फलता-फूलता है। मेरे लिए, असंख्य और स्थूल पैटर्नों तथा बलों के परस्पर-प्रतिकूल प्रवाहों से युक्त समकालीन वास्तविकता ही वह चीज़ है जो उस सूरत में अमूर्तन की माँग करती है जब मैं उस वास्तविकता के कुछ ख़ास बुनियादी लक्षणों को प्रस्तुत करने का लक्ष्य अपने सामने रखता हूँ। मैं समझता हूँ कि अगर हम इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते, तो हमें आघुनिक कला, और साहित्य और चित्रकला के ज़्यादातर हिस्से को उठाकर फेंक देना पड़ेगा।
अपने दृश्य-विन्यास और प्रतिबिम्बात्मक आख्यान के साथ घटक विभाजनोत्तर बंगाल के एक मध्यवर्गीय परिवार की पीड़ाओं में एक महाकाव्यात्मक आयाम का योगदान करते हैं।
जिन कारणों से हम रामायण या महाभारत जैसे महाकाव्यों का पुनराख्यान करते हैं, उनमें से एक प्राथमिक कारण को घटक पुनस्र्थापित करते हैं; इन ग्रन्थों को हमेशा उन नैतिक आघारभूत ढाँचों के रूप में देखा गया था जिनके माध्यम से हम अपने विखण्डित जीवन में उस चीज़ के बारे में अपनी खुद की घारणाओं को प्रश्नांकित करते हैं, जिसको हम जीना कहते हैं।
मेघा ढाका तारा पर वापस लौटें, तो घटक इस फि़ल्म की समूची दृश्य-रचना को इस गीत के साथ खड़ा करते हैं ः
‘‘माझी, मैं तो तेरा नाम भी नहीं जानता!’’
मैं देर तक पुकारता रहा, इस सांसारिक नदी के तट पर खड़ा।
कौन है जो पार उतरने में तेरी मदद करेगा, ओ मेरे मन।
मैं अपने अच्छे दिन बिता चुका हूँ और अब मैं नदी-तट पर आया हूँ।
ओ माझी, मैं तेरा नाम नहीं जानता।
मैं किसे पुकारूँ?
मैं तेरा नाम नहीं जानता।
यह सुन्दर गीत उस मध्यवर्गीय परिवार के बुनियादी सम्भ्रम की और विस्मय-बोघ की भी रचना करता है जो विभाजन के परिणामस्वरूप अपनी जड़ों से कट गया है और अजनबी परिस्थितियों में अपना रास्ता तलाश रहा है। यह गीत और इसके फि़ल्मांकन का ढंग हमेशा मेरे दिमाग़ पर छाया रहा है। इस गीत की दृश्य-रचना में आख्यान के टकराव के सारे मुख्य बिन्दु लगभग सादे ढंग से, बिना किसी उद्यम के उकेरे गये हैं।
यह दृश्य परिवार के मुखिया, अकर्मक पुरुष तत्त्व, बिजोन के इर्दगिर्द रचा गया है। आख्यान को वास्तविक प्रेरणा देने वाले सकर्मक नारी तत्त्व - सात्त्विक के रूप में नीता, राजसिक के रूप में सुरामा, और तामसिक के रूप में छोटी बहन - हैरान और सम्भ्रमित बिजोन के इर्दगिर्द रचे गये दृश्य-विन्यास में प्रवेश करते हैं। आख्यान के टकराव के सारे बिन्दुओं को, इन तीन स्त्रियों में रूपायित मुख्य चरित्रों के बीच के तनावों को, असहाय बिजोन के बरक्स चित्रित किया गया है।
विक्षुब्घ, ‘विभाजित’ परिवार के आख्यान को एक सुन्दर बाउल गीत की पृष्ठभूमि में विन्यस्त किया गया है, वह गीत जिसमें आत्म और अन्य के तमाम द्वैतों से मुक्ति की लालसा व्यक्त की गयी है। ‘विभाजन’ शब्द यहाँ अर्थ की अनेक अनुगूँजें और परतें हासिल कर लेता है।
घटक के बारे में बात करते हुए मणि कौल ने एक बार ‘ध्यान’ शब्द की चर्चा की थी, जिसका अँग्रेज़ी में मोटे तौर पर ‘मैडीटेशन’ के रूप में अनुवाद किया जाता है। मणि कहते हैं ः
अगर आप अन्यथा न लें, तो मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। ‘मैडीटेशन’ शब्द, जिसे पश्चिम में रहस्यमय बना दिया गया है, का हिन्दुस्तान में कोई अर्थ नहीं है। वहाँ सिफऱ् एकाग्रता का प्रश्न है, एकाग्रता का गुण। ‘ध्यान’ शब्द का शब्दशः अर्थ एकाग्रता ही है।
अस्तित्व और ध्यान के बीच एक विसंगति है। अस्तित्व अपने को कुछ ख़ास तरह के दुःखों से मुक्त नहीं कर सकता; वह स्वयं को अपनी समस्याओं और असन्तोषों से मुक्त नहीं कर सकता, क्योंकि अस्तित्व उनसे भरा हुआ है। इनसे ऊपर उठने और उस अवस्था में पहुँचने का विचार जहाँ कोई दुःख नहीं है, एक सपना भर है। आप उसके बारे में बात कर सकते हैं, लेकिन आपके जीवन-पर्यन्त आपके दुःख आपका पीछा करते रहेंगे।
लेकिन ‘एकाग्रता’ मुक्त हो सकती है। एक महान गुरु इस एकाग्रता को - सुनने की, बात करने की, देखने की, छूने की एकाग्रता को - उस अवस्था में रूपान्तरित कर सकता है जहाँ कोई दुःख नहीं है, कोई क्षोभ नहीं है, कोई पीड़ा नहीं है; संगीत में, और शायद मेरी कुछ फि़ल्मों में आपको ‘एकाग्रता’ का यह गुण मिल सकता है।
ऋत्विक घटक की फि़ल्मों में, और उनके हमवतन मोहन राकेश के नाटकों में ‘ध्यान’ का यह गुण है। हर बिम्ब, हर शब्द, प्रतिच्छायाओं की एक श्ाृंखला को उत्प्रेरित कर देता है। प्रत्येक संश्लिष्ट शब्द@बिम्ब में कई आख्यान निहित हैं, जिनमें से हर आख्यान दूसरे आख्यानों को ‘विन्यस्त’ करता है; और समूचे बिम्ब को सच्चे अर्थों में अनुभव करने के लिए इस सौन्दर्योपासक ने समूचे बिम्ब को उसके स्वतन्त्र आख्यानों में विभाजित कर दिया है, और समग्र को नये ढंग से उनके अपने दिमाग़ों में पुनर्विन्यस्त कर दिया है। जब व्यक्ति के अपने मन में यह पुनर्विन्यास घटित होता है, तो वह एक विस्फ़ोट की तरह होता है, उसके लिए एक इलहाम का क्षण।
जब कभी मुझसे सिनेमा की दृश्य-रचना पर कोई कार्यशाला संचालित करने को कहा जाता है, तो मैं अपने इस सत्र की शुरुआत इसी दृश्य-बन्घ से करना पसन्द करता हूँ, जो वास्तव में ‘विभाजन’ की अवघारणा पर, और पुनः ‘पूर्ण’ होने के अर्थ पर घटक के ध्यान को उद्घाटित करता हैः ीजजचेरूध्ध्लवनजनण्इमध्.चप्प.ि5ज7।4 रू सामूहिक चेतना और मिथक की शक्ति की वह अवघारणा जिसे वे अपनी फि़ल्म-त्रयी मेघा ढाका तारा, कोमल गन्घार और सुवर्णरेखा में अन्वेषित करते हैं।