कहानी और जीवन जयशंकर
23-Oct-2020 12:00 AM 2622

आप में से कुछ ने कभी महसूस किया होगा कि कहानी नाम की कोई चीज़ हमारे बचपन से ही हमारे पास आने लगती हैं। शब्दों से बनती एक जादुई चीज़, जिसे हम अपने दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता या मामा-बुआ से रात में सोने के पहले सुनते आये थे। हममें से बहुत की यादों में बचपन में सुनी गयी उन कहानियों का कोई बूढ़ा जादूगर होगा, घने जंगलों का सन्नाटा और डर होगा, जादुई लैम्प और समुद्री तूफ़ान होगा, साध्ाु के वेश में भिक्षा मांगता राक्षस या नदी को जहरीला बनाता भयानक नाग होगा।
कहानी बहुत दूर से आती है। उसकी शक्ल में कुछ रहस्यमयी अलौकिक और दिलचस्प-सा छिपा होता है। वह हमारा मनोरंजन करने के लिए आती है लेकिन सिर्फ़ मनोरंजन करने के लिए ही नहीं, जीवन और जगत को जानने-पहचानने की हमारी जिज्ञासाओं को बढ़ाने, मानवीय जीवन के लिए हमारे प्रेम को बढ़ाने, अच्छे-बुरे का फ़र्क समझाने और इस तरह न जाने कितनी-कितनी बातों के कारण वह हमारे पास आती है।
अगर यह सच है कि कहानी के बुनियादी ध्ार्म में हमें जीवन से प्रेम करना सीखाना भी एक है तब यह मानना ही होगा कि कहानी और जीवन का अन्तरंग रिश्ता रहता आया है और रहता रहेगा। मैं कहानी और मानवीय जीवन के इस अटूट रिश्ते के बारे में थोड़ा-सा कुछ समझने-समझाने की कोशिश करना चाहूँगा।
इतनी बड़ी और इतनी पुरानी दुनिया में हज़ारों भाषाएँ पलती-पनपती रही हैं, कितनी ही सभ्यताओं का विकास हुआ है, तरह-तरह की भौगोलिक परिस्थितियाँ हैं और किस्म-किस्म के जीवन जीने के ढंग और दृष्टिकोण। अपनी शुरुआत से ही कहानी के अलग-अलग, किस्म-किस्म के रूप रहते आये हैं और आज भी हमें देशकाल के सन्दर्भ में कहानी के अलग-अलग रूप नज़र आते हैं। चेखव की कहानी कुछ और है, मोपासाँ की कहानी कुछ और। प्रेमचन्द की कहानी अपने ढंग की है तो निर्मल वर्मा की कहानी अपने ढंग की।
कहानी का ऐसा बहुलतावादी-जनतान्त्रिक रूप इसीलिए भी हमारे सामने आता है क्योंकि कहानी का अपना जन्म ही अलग-अलग देशों में, अलग-अलग वक़्त में, अलग-अलग परिस्थितियों में, अलग-अलग मनःस्थितियों के लोगों द्वारा होता है। बहुत पहले कहानी कहने वाले समुदाय अलग हुआ करते थे और बाद के बरसों में कहानी लिख रहे अलग-अलग व्यक्ति, जिन्हें हम कथाकार कहते हैं।
यहाँ जीवन जीने के लिए ज़रूरी बहुलतावादी और जनतान्त्रिक ढंग को कहानी में भी ले आने की बात उठती नज़र आती है। हमारा जीवन को देखने का ढंग ही हमारे कहानी लिखने के ढंग को प्रभावित करता जान पड़ता है। इसीलिए हमारी इस दुनिया में तरह-तरह की कहानियाँ हैं और इनको पालने-पोसने वाले तरह-तरह के जीवन। यहाँ मैं कहना चाहूँगा कि कथाकार जितने अलग-अलग ढंग से जीवन को देख पायेगा, उतनी अलग-अलग कहानियाँ लिख पायेगा, उतने अलग-अलग तरीकों से कहानी लिख सकेगा। यहाँ मैं हर कथाकार के अपने चमतेवदंस चवतेचमबजपअम की अनिवार्यता की बात उठा रहा हूँ। अगर किसी भी एक खास किस्म की कहानी से दुनिया का काम चल जाता, तब दुनिया में इतनी कहानियाँ आती ही क्यों, मनुष्यों को इतनी कहानियों की ज़रूरत ही क्यों पड़ती थी? इस बात से समझ में आता है कि अगर कहानी तरह-तरह की जिज्ञासाओं को हम मनुष्यों के भीतर पैदा करती रही है तो खुद भी तरह-तरह की जिज्ञासाओं से पैदा होती रही है। सदियों से इस सृष्टि में जन्म लेती, पलती-बढ़ती मानवीय आकांक्षाएँ, मानवीय जिज्ञासाएँ और मानवीय कामनाएँ ही इतनी ज़्यादा, इतनी अलग-अलग, इतनी अमूर्त, रहस्यमय जटिल और अन्तहीन रहती आयी हैं कि इनसे बाहर आती कहानी का जटिल, अमूर्त, रहस्यमय और अन्तहीन होना सहज जान पड़ता है।
कहानी का जन्मदाता एक आदमी ही होता है और अगर उसकी अपनी कामनाएँ होती हैं तब उसकी सीमाएँ भी, एक कथाकार कुछ कर पाता है, कुछ कर नहीं भी पाता और उसके आध्ो-अध्ाूरे काम को कोई दूसरा कथाकार कर पाता है। मोपासाँ जो नहीं कर पाते हैं, उसे चेखव करते हैं और चेखव से जो नहीं बना, वह कथाकार मोपासाँ से बन जाता है। आखिर एक कथाकार आपको वही कुछ दे सकता है जो उसके अपने पास है। ज़रूरी नहीं कि लेखक जो कुछ अपने पाठक को दे रहा है, उसकी पाठक को ज़रूरत है। लेखक की अपनी जिज्ञासाएँ और ज़रूरतें हो सकती है और पाठक की अपनी जिज्ञासाएँ और ज़रूरतें।
यह भी हो सकता है कि किसी पाठक को अपने लिए, अपनी पसन्द की कोई कहानी पढ़ने के लिए नहीं मिलती है और वह अपने लिए, अपनी कोई कहानी लिखना शुरू कर देता है। इसी तरह संसार में नये-नये कथाकार आते रहते हैं, नयी-नयी कहानियाँ आती रहती हैं। यहाँ हम कहानी और जीवन के बीच की एक और समानता को महसूस कर सकते हैं कि जिस तरह इस संसार में न सब लोग हमारे होते हैं और न ही हम सबके लिए होते हैं, उसी तरह न हर कहानी हमारे लिए होती है और न हम हर कहानी के लिए। जीवन की ही तरह, कहानी की अपनी सम्भावनाएँ होती हैं और अपनी सीमाएँ। और इसीलिए जैसे मानवीय जीवन अलग-अलग जीवन के टुकड़ों से एक समूचे सम्पूर्ण जीवन के रूप में खड़ा हो पाता है, वैसे ही दुनिया भर के अलग-अलग लेखकों की अलग-अलग भाषाओं की कहानियाँ मिलकर, कहानी का अपना सम्पूर्ण-समूचा रूप गढ़ पाती होंगी। मानवीय जीवन की विविध्ाताएँ, विभिन्न किस्म की कहानियों में विभिन्न ढंग से व्यक्त हो पाती होंगी।
एशिया और अफ्रि़का के लोगों में कहानी सुनाने की परम्पराएँ पश्चिमी देशों की तुलना में ज़्यादा लम्बी रही। इससे इन महाद्वीपों के देशों में कहानी कहना ज़्यादा दिनों तक सामुदायिक कर्म रहा। कहानी लिखने-पढ़ने की जगह, सुनने-सुनाने की चीज़ बनी रही थी। इन जगहों पर छापेखाने देर से आये। पढ़ने-पढ़ाने का काम देर से हुआ। पत्र-पत्रिकाएँ देर से निकली। किताबें थी ही नहीं। मौखिक परम्पराओं की उपस्थितियों के कारण, बीसवी सदी में इन इलाकों से जो लेखक आये उन्होंने आध्ाुनिक कहानी को अपनी मौखिक परम्पराओं से मिले हुए तत्वों की वजह से नये आयाम दिये। कहानी कहने के नये ढंगों का आविष्कार किया। इसीलिए आज भी एशिया और अफ्ऱीका से आये कुछ लेखकों की कहानियाँ हमें इतनी ज़्यादा अलग, विशिष्ट किस्म का स्वभाव, अलग तरह की संरचना तो हुई नज़र आती है। अफ्ऱीकी लेखक चिनुआ अचीबे के गद्य में आते हुए कुछ तत्व इसीलिए भी हमें इतना कुछ नया मौलिक देते हुए जान पड़ते हैं।
हमारे अपने देश में भी कहानी को एक लम्बे औपनिवेशिक दौर से गुज़रना पड़ा था। भारतीय कहानियों ने पराध्ाीनता के परिवेश को सहा था और पराध्ाीनता की पीड़ा को महसूस किया था। उस दौर के लेखकों को जाति, ध्ार्म और लिंग के विभाजनों से आती बुराइयों को भी जाँचना-परखना था। प्रेमचन्द, प्रसाद और निराला की कहानियों में इसीलिए हमें सामाजिक सुध्ाार आन्दोलनों की छवियाँ नज़र आती हैं। प्रेमचन्द की कई कहानियाँ हमें उन्नीसवीं सदी के अन्त और बीसवीं सदी के शुरुआती बरसों के सामाजिक-आर्थिक सुध्ाारों के आन्दोलनों का विस्तार-सी नज़र आती है। उस दौर की कहानियों का अपना यथार्थ है और यथार्थ से संवादरत रहने का अपना, अपनी तरह का तरीका। हमें यथार्थ को लिखने के उस दौर के ढंग को अन्तिम और शाश्वत समझने की भूल से बचना होगा। उस दौर की अपनी चुनौतियाँ थी और उनसे निपटने के अपने लेखकीय रास्ते। यथार्थवाद एक दौर हो सकता है, एक स्कूल लेकिन समूचा यथार्थ नहीं। जैसे-जैसे यथार्थ बदलता है वैसे-वैसे यथार्थ को देखने के ढंग भी बदलते हैं। यहाँ जीवन बदलता है और वहाँ कहानी बदलती है। कहानी का बदलना अपने खुद के अस्तित्व के लिए अनिवार्य हो जाता है।
प्रेमचन्द का अपने गाँवों और वहाँ के लोगों की चुनौतियों को देखने का ढंग, फणीश्वरनाथ रेणु नहीं अपना सकते हैं। निर्मल वर्मा, निराला की तरह लिख ही नहीं सकते हैं। समय और जगह बदलने से कहानी बदलती ही है। वह बदलाव के बिना जीवित ही नहीं रह सकती। टाॅलस्टाय रूसी जीवन को एक तरह से व्यक्त करते हैं और उनके बाद आये लेखक पास्तरनाक दूसरी तरह से। लिखने के ढंग को वक़्त के साथ-साथ बदलना ही होता है। ऐसा सब कुछ साहित्य और कला की दुनिया में सदियों से चलता आया है और सदियों तक चलता रहेगा। नयी-नयी संवेदनाओं के लिए, नये-नये रूपों को गढ़ना ही पड़ता है। इसीलिए यह कहा जाता रहा है कि कहानी एक प्रयोग है और अगर वह प्रयोग नहीं है तो वह कहानी भी नहीं है।
इस बात को स्वीकार भी कर लिया जाये कि कहानी लिखना एक तरह का कामचलाऊ प्रबन्ध्ा है। अपनी उपलब्ध्ा क्षमता से काम चलाना है बिना तैयारी के भी लिखा जा सकता है, तब भी इस बात को ध्यान में रखना ज़रूरी होगा कि इस प्रक्रिया का अन्त, कहानी में सौन्दर्य, गहरायी और नैसर्गिकता की उपस्थितियों से ही होना है। लिखी गयी कहानी में जीवन और कला के आविष्कारों की उपस्थितियाँ होनी चाहिए। तकनीक के प्रति चेतना, भाषा पर चिन्तन-मनन, अपने समय समाज और सभ्यता में उसकी जड़ों का होना उसका अपनी परम्पराओं से रिश्ता, कहानी विध्ाा के अपने इतिहास का अहसास आदि भी एक कहानी के लिए, एक अच्छी कहानी के लिए अत्यध्ािक ज़रूरी जान पड़ता है। कहानी की जीवन और जगत से जुड़ने की इस लालसा को ही कथाकार कैथरीन मैंसफिल्ड ने श्ज्ीपे जमततपइसम कमेपतम जव मेजंइसपेी बवदजंबज (रिश्ता बनाने की गहरी और गम्भीर हसरत) कहा होगा।
कहानी और जीवन के प्रगाढ़ रिश्तों, उनके रिश्तों की सच्चाइयों और स्वप्नों को लेखकों और पाठकों को समझाने में हिन्दी कहानी की आलोचना, एक बड़ी और निर्णायक भूमिका निभा सकती थी। प्रौढ़ और परिपक्व आलोचना से अच्छी कहानियों के लिए अनिवार्य तत्वों पर ज़्यादा ध्यान जा सकता था। इससे कहानी के अपने संसार में और ज़्यादा प्रगल्भता और प्रवीणता का विकास हो सकता था। पाठक की अहमियत और हैसियत बढ़ सकती थी लेकिन दुर्भाग्यवश हिन्दी में कहानी की आलोचना, उतनी जिम्मेवार, उतनी प्रौढ़ नहीं हो पायी है, जितना उसे हो सकना था।
जिस तरह आदमी, पेड़ और परिन्दों की एक उम्र होती है, एक उम्र के बाद इनकी मौत होती है, वैसे ही कहानी की भी अपनी कोई न कोई उम्र ज़रूर होती होगी। किसी कहानी की उम्र दो बरस हो सकती है तो किसी की बीस बरस। किसी-किसी कहानी की उम्र दो सौ बरस हो सकती है तो किसी की पाँच सौ बरस। कहानियों के इतिहास में लम्बी उम्र की, क्लैसिक कहानियाँ बहुत ही कम होंगी। हम सबने अपनी ही उम्र में उन कहानियों को गुम होते देखा होगा, कभी जिनकी बहुत ज़्यादा चर्चा हुआ करती थी।
वक़्त के साथ-साथ जैसे आदमी और उसके जीवन को भुला दिया जाता है उसी तरह हम कहानियों को भी भूल जाते हैं, याद नहीं रख पाते हैं। एक समय के प्रसिद्ध कथाकारों को बाद के एक दूसरे वक़्त में पढ़ा नहीं जाता है उनका लिखा गया अप्रासंगिक जान पड़ता है, उनकी किताबें लाइब्रेरियों तक सीमित हो जाती है, उनके पाठक बचे नहीं रहते हैं और उनके प्रकाशकों के लिए वे इतिहास बन जाते हैं।
इस पर संशय बना रहता है कि कहानी लेखक के अलावा भी किसी और का जीवन बदलने का सामथ्र्य रखती है। साहित्य और कला से आते हुए सामाजिक बदलाव अब तक बहस के विषय बने रहे हैं। ज़्यादातर माना जाता है कि राजनीति जीवन को एक तरफ ले जाती रहती है और कलाएँ एकदम दूसरी तरफ और आदमी इन दोनों के बीच संकटग्रस्त बना ही रहता है, युद्ध, हिंसा, आतंक, ग़रीबी और अभावों का शिकार बना ही रहता है। यहाँ मुझे एक प्रसंग याद आता है। फ्रेंच फि़ल्मकार ज्याँ रेनुआ ने 1938 में शायद ळतंदक प्ससनेपवदे शीर्षक से एक युद्ध विरोध्ाी फि़ल्म बनायी थी। उनकी वह फि़ल्म बहुत ज़्यादा प्रसिद्ध हुई। पश्चिमी देशों में उस फि़ल्म का बोलबाला भी रहा। रेनुआ प्रसिद्ध भी हुए और आर्थिक रूप से समृद्ध भी लेकिन उनको इस बात का दुःख सालता ही रहा था कि 1939 में ही दुनिया दूसरे महायुद्ध की चपेट में आ गयी थी। इतना ज़रूर है कि कहानी लिखते-लिखते उसके लेखक का अपना जीवन ज़रूर बदलता रहता है। पर यह क्या कोई कम बड़ी बात है? एक आदमी का जीवन के प्रति संवेदनशील, जागरूक और जि़म्मेदार होते जाना, मानवीय जीवन के महत्व और उद्देश्यों के क़रीब जा पाना, किसी बेहतर दुनिया का स्वप्न देख पाना। यहीं कहानी, संसार से ही नहीं स्वप्न से भी जुड़ती नज़र आती है। कभी रूसी लेखक एण्टन चेखव ने अपनी कहानियों में रूसी लोगों के लिए सपने देखे थे। क्या हम उनकी कहानी ‘वांका’ के उस नन्हे बच्चे के स्वप्न को भूल सकते हैं?
मुझे लगता है कि अगर हमारे संसार में हमारी विभिन्न भाषाओं में नयी और पुरानी, इतनी सारी कहानियाँ नहीं होती तब हमारा जीवन क्या उतना समृद्ध हो पाता जितना आज वह है। कहानी हमें कुछ और ज़्यादा मनुष्य बनाती है और उसका लेखक, लेखक से कुछ और ज़्यादा बनने-होने लगता है। इस तरह कहानी अपने लेखक और पाठक के जीवन में, उनकी नागरिकता का विस्तार करती है, उनकी नागरिकता का परिष्कार करती है।

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