23-Oct-2020 12:00 AM
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1.
सबसे पहले यह कहना होगा कि जीवन का कोई ऐसा रूप नहीं होता जिसकी ओर इशारा कर हम कह सकें, यह रहा जीवन। यह भी मुमकिन नहीं कि हम अपने चारों ओर फैले जीव-जन्तुओं, पेड़-पौध्ाों और अन्य रूपाकारों को जीवन मात्र कह सकें और यह मानने लगे कि समूचा संसार ऐसा ही है, उसमें जीवन का विस्तार इसी तरह का है। सारा का सारा जीवन कहीं भी एक-सा नहीं है। जीवन का कोई निश्चित रूप नहीं होता बल्कि यह कहना अध्ािक सही होगा कि उसका ऐसा कोई रूप नहीं होता जिस पर अँगुली रखी जा सके। वह तरह-तरह के रूपाकारों में व्यक्त होता रहता है पर किसी भी रूपाकार में निःशेष नहीं होता। शायद यही कारण है कि उसे समझने तरह-तरह की व्यवस्थाएँ बनती रहती हैं। मसलन एक समय में बनी वर्ण-व्यवस्था आदि भी ऐसी ही व्यवस्था रही होगीं। पूँजीवाद-समाजवाद इसी तरह की व्यवस्थाएँ है। इनके अलावा भी तरह-तरह की व्यवस्थाएँ बनती रहती हैं लेकिन जीवन इन सबसे अध्ािक व्यापक होता है। उसका विस्तार इन तमाम व्यवस्थाओं से कहीं अध्ािक होता है। उसका कोई बँध्ाा-बँध्ााया रूप नहीं होता न ही उसे किसी भी तरह पूरा का पूरा बाँध्ाना सम्भव है। वह ‘एमोरफ़स’ होता है। अरूप या रूपेतर! वह विविध्ा रूपों में और रूपों से परे भी किन्हीं स्पन्दनों की तरह हमारे चारों ओर फैला रहता है। उसे अनुभवगम्य बनाने के प्रयोजन से उसे रूप देने की कोशिश मनुष्य करता है। मनुष्य की यह कोशिश उसकी बुनियादी कोशिश है। वह रूपहीन (मगर सत्यहीन नहीं) जीवन को रूप देने के प्रयास में लगा रहता है। यह कोशिश मनुष्य आदिकाल से आज तक करता चला आ रहा है। अगर हम भीमबैठका या लास्को के हज़ारों साल पुराने शैलचित्रों को देखें, हम यह समझ सकेंगे कि जो नृत्य, शिकार आदि के चित्र उस मनुष्य ने बनाये थे, उनमें भी व्यापक रूपातीत जीवन को आकार देने का प्रयास हुआ है। उसे अनुभवगम्य बनाने की चेष्टा है।
मनुष्य जीवन को रूप देने का प्रयास इसलिए भी करता है कि उसमें से अपने लिए कोई अर्थ निकाल सके। यहाँ ज़रा-सा भटककर यह कहते चलें कि अर्थ के दो आशय होते हैं, इनमें से एक का सम्बन्ध्ा वित्त से है, ध्ान से है। दूसरा वह है जिसका उपयोग हम यहाँ करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसे उर्दू में ‘मायने’ कहते हैं, अंग्रेज़ी में ‘मीनिंग’। महाकवि निराला ने अपनी एक कहानी में अर्थ के इन दोनों आशयों के साथ अद्भुत कौतुक किया है। हम अर्थ के जिस आशय का जि़क्र यहाँ कर रहे हैं, वह ‘मायने’ है। हम व्यापक, विस्तृत, रूपहीन जीवन को अर्थ देने की प्रक्रिया में उसे रूपों मेें संयोजित करते हैं। पर साथ ही यह भी जानते रहते हैं कि यह विस्तृत जीवन किसी भी रूपाकार में अँट नहीं सकता, उसका अध्ािकांश हमेशा ही रूप से परे बना रहता है और वह मनुष्य को बेचैन किये रहता है। हम जैसे ही समूचे जीवन को किन्हीं भी रूपाकारों में पूरी तरह ‘अँट गया’ मानने लगते हैं, हम जीवन का तिरस्कार तो करते ही हैं, कलात्मक और अन्य रूपों की सीमा की मर्यादा की अवमानना भी करते हैं।
2.
इस बेचैनी से निजात पाने मनुष्य क्या कर सकता है ?
वह जीवन को सीध्ो-सीध्ो रूप में बाँध्ाकर अर्थ देने के स्थान पर एक वैकल्पिक जीवन की सृष्टि करे। हम सभी जीवन को अर्थपूर्ण अनुभव करने के लिए एक वैकल्पिक जीवन की रचना करते हैं। इन रचनाओं को ही कला, साहित्य या विज्ञान नाम से जाना जाता है।
जीवन का विकल्प बनाने की चेष्टा इसलिए की जाती है कि जीवन अनुभवगम्य हो सके। अगर हमें अनन्त आकाश (स्पेस) का अनुभव करना है, हमें इमारत बनाना पड़ती है। इमारत के भीतर के आकाश में ही अनन्त आकाश का अनुभव हो पाता है। जैसे जब हम ताजमहल या फतेहपुर सीकरी में प्रवेश करते हैं हम स्पेस को, अनन्त आकाश को अपने अनुभव के दायरे में ले आते हैं। यही काम साहित्य करता है, यही दूसरी कलाएँ भी करती हैं। कथा कहना-लिखना वैकल्पिक जीवन को रचना ही है।
यह सोचना अनुचित है कि जीवन को अर्थ देने के लिए वैकल्पिक जीवन की सृष्टि का काम केवल लेखक-पाठक करते हैं। अन्य कलाओं और विज्ञान आदि में भी यह होता है। नृत्य के तमाम रूपाकार भी यही करते हैं। मसलन अनेक शताब्दियों से कथकिये (कथक नर्तक@नर्तकियाँ) कहानी कहने का ही काम करते रहे हैं। वे कथा कहते हैं और इसके लिए अभिनय-स्वर-ताल आदि का उपयोग करते हैं। केरल में कुडियट्टम नाम का डेढ़ हज़ार साल पुराना रंग-नृत्य कलारूप है। इतनी सुदीर्घ अटूट परम्परा दुनिया की किसी भी मार्गी कलारूप की नहीं है। इसका अभिनय अत्यन्त सूक्ष्म हुआ करता है और तालें उतनी ही परिष्कृत। इनके सहारे कुडियट्टम के कलाकार कथा की रचना करते हैं।
मिनियेचर चित्रकला में ऐसा परिवेश और चरित्र रचे जाते रहे हैं कि देखने वाले के मन में कथा की रचना हो जाये। आध्ाुनिक काल में आकृतिमूलक आख्यान चित्रकला का पूरा आन्दोलन ही हुआ है। वह कितना सफल था, कितना विफल, यह अलग बात है। पर यह ध्यान देने योग्य है कि यहाँ भी आकृतियों आदि के सहारे चित्रों में कथा कहने का प्रयास होता है।
रंगकर्म में अभिनय के चार तत्व माने गये हैं। इनमें से एक आंगिक अभिनय है जहाँ हाथ, पाँव, आँख, सिर, ध्ाड़ आदि से अभिनय किया जाता है। दूसरा है वाचिक अभिनय। यहाँ बोलकर अभिनय सम्पन्न होता है। तीसरा अभिनय आहार्य है जिसका सम्बन्ध्ा अभिनेता या अभिनेत्री की वेशभूषा से है या मंच की सामग्री के उपयोग से। अभिनय का अन्तिम तत्व सात्विक अभिनय है जिसका आशय है, नाटक के चरित्र में प्रवेश करना, अभिनेता या अभिनेत्री द्वारा उसके भाव को ग्रहण करना। श्रेष्ठ नाटक में यथार्थ की नकल नहीं की जाती। अभिनय करते हुए अभिनेता इन चार तत्वों और उनके उपतत्वों से वाक्य बनाते हैं। अभिनय के इस वाक्य के खुलने (अनफोंडिंग) से ही नाटक का अनुभव होता है। वाक्य यथार्थ में नहीं होता, वह यथार्थ को आलोकित करता है, ऐसा ही कुछ कई शताब्दियों पहले महान काव्यशास्त्री दण्डी ने कहा था। नाटक के अभिनय-वाक्यों की श्ाृंखला से भी कथा का एक तरह का अनुभव होता है। दूसरे शब्दों में नाटक में भी कथा कही जाती है, भले ही वह लिखित कथा से अलग हो। सिनेमा में तो आजकल ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपने को कथा कहने वाला मानते हैं। वह कितना सही है, कितना ग़लत यह अलग बात है पर इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उनकी आत्मछवि कथाकार की है। यह भी सच है कि महानतम् फि़ल्मकार कहानी कहने के स्थान पर कहानी के सहारे जीवन-तत्व पर विचार करने का प्रस्ताव करते हैं। शायद इसीलिए फि़ल्मकार का मार्ग कथाकार का उतना नहीं, जितना चिन्तक का है। पर तब भी वह होता चिन्तक-कथाकार ही है।
दुनिया के अनेक देशों में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो किस्सागो हैं, यानि किस्सा कहने वाले हैं। स्वयं भारत में पारम्परिक रूप से कहानी कहने के पचासों ढंग हैं। बहुत से आध्ाुनिकों को सम्भवतः उसका एहसास नहीं है पर इस एक देश में ही हमें ढेरों प्रकार के किस्सागो मिल जायेंगे। राजस्थान में कहानी कहने की एक परम्परा रही है। इसमें कहानी कहने वाले को कहानी का अन्त दे दिया जाता था और उससे यह उम्मीद की जाती थी कि वह एक लम्बी कहानी इस तरह सुनायेगा कि वह स्वभावतः दिये हुए अन्त पर जाकर खत्म हो जायेगी। कहानी कहने वालों को वहाँ ‘कवया’ कहा जाता था। मान लीजिए कि उसे यह अन्त दिया गया कि ‘... और वह साँप हर दुकानदार के पास जाता और दुकानदार उसे दूध्ा पिलाता’। यह अन्त पाकर कवया कहीं बहुत दूर से कहानी शुरू करेगा मसलन ‘एक बार फलाँ राजा युद्ध हार गये और अकेले पड़ गये...’ और कई घण्टे कहानी कहने के बाद उसे तमाम उतार-चढ़ाव और मोड़ देने के बाद दिये हुए अन्त पर ले आयेगा। वह कितनी दूर से कहानी शुरू करता है और कितनी कुशलता से उसे कहता हुआ प्रदत्त अन्त पर लाता है, इससे यह तय होता है कि कितना कुशल कवया है।
इसी तरह कथा कहने की परम्पराएँ मणिपुर, असम, महाराष्ट्र, केरल आदि प्रान्तों में आज भी सक्रिय हैं। उन्हें तेज़ी से टेलिविज़न के बेहूदा ध्ाारावाहिकों से विस्थापित कर रहा है। इस तरह कथा-कहन की विपुल अनेकता को टेलिविज़न का एकांगी कथा-कहन विस्थापित कर हमारे देश की अनेकता को एक और चोट पहुँचाएगा। हमारी सभ्यता इन्हीं ‘अनेकताओं के वैभव’ से बनी है। इसीलिए यहाँ अनेक नैतिक दृष्टियों का वास है, जैसा कि महाराज भोज को भी अभीष्ट था जब उन्होंने ‘भोज-प्रबन्ध्ा’ लिखकर यह कहने का प्रयास किया था कि एक ही देश में अनेक नैतिक-सौन्दर्य दृष्टियाँ साथ रहना चाहिए तभी वह देश (या सभ्यता) जीवन्त होती है। जैसे ही इस सभ्यता में एक दृष्टि का साम्राज्य स्थापित हो गया, यह सभ्यता और इसके नागरिक कुंभला जायेंगे और संसार के देशों की बची-खुची उम्मीद भी नष्ट हो जायेगी!
3.
हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विज्ञान भी आख्यान ही है, कह लीजिए किस्सा ही है। मैं थोड़ा बहुत विज्ञान जानता हूँ और इसलिए मुझे यह अहसास है कि वैज्ञानिक भी यथार्थ को समझने के लिए तरह-तरह की कथाएँ गढ़ते हैं। फ्राँसीसी दार्शनिक ज्याँ फ्राँसुआ लियोतार ने यह बात कई साल पहले कही थी। यह बात अवश्य है कि विज्ञान की कथा को कथा की तरह पढ़ा नहीं जाता, उसे वास्तविकता के मानचित्र की तरह देखा जाता है। मैं विज्ञान को कथा इसलिए भी कह रहा हूँ क्योंकि सारा विज्ञान फिर वह भले ही जीव-विज्ञान क्यूँ न हों, गणित पर आध्ाारित होता है। यह कहा जा सकता है कि तमाम वैज्ञानिक उपक्रमों का सूक्ष्म कंकाल गणित ही होता है। पर स्वयं गणित का क्या आध्ाार होता है? इस सवाल का जवाब आज तक स्पष्ट नहीं है। इस पर सबसे अध्ािक विचार वियना शहर और केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के महान दार्शनिक विट्गेन्शटाईन ने खोजने का प्रयास किया था। इससे जुड़ा भी एक छोटा-सा किस्सा है। विट्गेन्शटाईन इंजिनियरिंग काॅलेज में पढ़ रहे थे। यहाँ पढ़ते हुए उनके मन में यह सवाल आया कि गणित का क्या आध्ाार है। इस सवाल से वे इतने विचलित हुए कि उन्होंने इंजिनियरिंग की अपनी पढ़ाई छोड़ दी और दर्शन के अध्ययन में लग गये। यह बात समझना मुश्किल नहीं है कि गणित यानि उसमें प्रयुक्त संख्याएँ वास्तव में नहीं होती, वे प्रकृति में पायी नहीं जातीं। वे अमूर्त मानवीय कल्पनाएँ हैं। वे मनुष्य की मानसी सृष्टि हैं। यथार्थ और गणित के सम्बन्ध्ा पर भारतीय दार्शनिक दयाकृष्ण ने कहा था कि गणित से कभी यथार्थ का सत्य उद्घाटित नहीं हो सकता क्योंकि गणित एक अनन्त व्यवस्था है (आप संख्याओं को बढ़ाते-बढ़ाते अनन्त कर सकते हैं।) पर यथार्थ अनन्त व्यवस्था नहीं है। एक अनन्त व्यवस्था के आध्ाार पर स-अन्त व्यवस्था को समझना कैसे सम्भव है ? इसलिए यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि विज्ञान भी गणित के सहारे कथा कहता है। जब कोई वैज्ञानिक अपने पहले के वैज्ञानिक से बेहतर कथा कहता है, उसकी कथा प्रामाणिक हो जाती है और उसके पहले के वैज्ञानिक की कथा निरस्त हो जाती है।
हिस्ट्री लेखन भी कहानी ही है। हमारे देश के सारे इतिहास ग्रन्थ आख्यान ही है। यह अवश्य है कि हिस्ट्री और इतिहास में अन्तर होता है। हिस्ट्री एक ऐसी कहानी कहती है जिसमें अन्याय को रेखांकित किया जाता है। मसलन जब अंग्रेज़ों ने भारत की हिस्ट्री लिखी, उन्होंने उसमें यह बताया कि बीते हुए समय में इस देश में कहाँ-कहाँ और कब-कब अन्याय हुए। यह इसलिए बताया गया था कि अंग्रेज़ उन तथाकथित अन्यायों को दुरुस्त करने में अपनी भूमिका को अपरिहार्य बता सकें और इस तरह इस देश में अपनी उपस्थिति को न्यायोचित बता सकें। इतिहास लेखन इससे अलग हुआ करता है। हिस्ट्री और इतिहास में यह फ़र्क देश के अनूठे दार्शनिक नवज्योति सिंह ने उद्घाटित किया था, उनका कहना था कि इतिहास लेखन अतीत का वह ब्यौरा है जिसमें मानवीय मूल्यों को आलोकित किया जाता है और अतीत को इस तरह लिखा या कहा जाता है कि अतीत में उत्पन्न मानवीय मूल्य रेखांकित हो सकें। यहाँ इतिहास लिखने या कहने वाला अपने को सुध्ाारक की भूमिका में नहीं रखता बल्कि वह अतीत में उत्पन्न मूल्यों का ध्ाारक होता है और अतीत के प्रति कृतज्ञ होता है। दूसरे शब्दों में हिस्ट्री लेखन अन्याय की कथा होती है और इतिहास लेखन मूल्यों और मूल्य वाहकों की।
4.
मैंने इन तमाम तरह की कथाओं का जि़क्र इसलिए किया है कि इतनी कथाएँ होते हुए हम लेखक किस तरह कथाएँ लिखें कि वे किसी और अनुशासन का अंग न लगे। दूसरे शब्दों में हम किस तरह कहानियाँ लिखें कि वे अद्वितीय ढंग से साहित्यिक रूपाकार हों। हम किस तरह कहानी लिखें कि वह न फि़ल्म में अन्तरित हो सकें, रंगकर्म में, न इतिहास आदि में। बीसवीं शताब्दी के कथाकर्म के सामने यह प्रश्न हमेशा रहा है कि वे किस तरह कहानी या उपन्यास लिखें जो अन्य अनुशसनों से भिन्न हों, जिसमें भाषा की आत्यन्तिकता, उसकी अनिवार्यता उद्घाटित हो सके। कथा या उपन्यास किस तरह लिखे जायें कि उनसे भाषा की शक्तियाँ प्रस्फुटित हो सकें ? पिछले क़रीब दो सौ वर्षों में सभी महान लेखकों ने इस प्रश्न का अलग-अलग तरह से सामना किया है।
इनमें सबसे ऊपर आयरलैण्ड के जेम्स जाॅयस हैं। उन्होंने ऐसे उपन्यास लिखें है जिनका हम किसी दूसरे माध्यम से अन्तरण या अनुवाद कर ही नहीं सकते। उनके महानतम और अन्तिम उपन्यास ‘फिनिगन्स वेक’ पर हम फि़ल्म नहीं बना सकते। न उस पर नाटक लिखा जा सकता है, उस पर चित्र बनाना भी असम्भव है। उससे प्रेरित होकर कोई फि़ल्मकार फि़ल्म बनाये या कोई चित्रकार चित्रकृति तैयार करें, वह अलग बात है पर उसे अन्तरित करना असम्भव है। ‘फिनिगन्स वेक’ में जाॅयस ने भाषा के साथ जैसा व्यवहार किया है और जैसा रूप उसे दिया है, वैसा उसके पहले तक दिया ही नहीं गया था। यहाँ यह याद रखना चाहिए कि बीसवीं शताब्दी की कहानी या उपन्यास में सिनेमा की उपस्थिति की चेतना है। जबकि उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यास लेखन में यह चेतना नहीं है, क्योंकि तब तक सिनेमा का आविर्भाव नहीं हुआ था। हम यहाँ तक कह सकते हैं कि दोस्तोयवस्की और चाॅल्र्स डिकन्स आदि के उपन्यासों में सिनेमा की अनुपस्थिति पर साथ ही उसका पूर्वाभास है। इसीलिए आज दोस्तोयवस्की या डिकन्स के जैसे उपन्यास लिखने का कोई विशेष प्रयोजन बाकी नहीं है।
फ्राँसीसी लेखक मार्सेल प्रूस्त ने अपने उपन्यास ‘खोये समय की तलाश’ में लम्बे-लम्बे वाक्यों में इस तरह के रूपकात्मक वर्णन लिखे जिन्हें सिनेमा या चित्रकला में लाना बहुत मुश्किल है। यहाँ यह याद रखना चाहिए कि सिनेमा समय के बहाव की कला है, वह समय के बहाव को दर्ज करती है। सिनेमा में इस बहाव को पूरी तरह रोका नहीं जा सकता। अपने उपन्यास में प्रूस्त ने ऐसा जगह-जगह किया है। उसमें मान लीजिए खिड़की से ध्ाूप आ रही है तो प्रूस्त का उपन्यास उस जगह मानो ठहर जायेगा। उस ध्ाूप का आठ-दस पेजों तक वर्णन होता रहेगा। उसमें एक-से-बढ़कर एक उपमाएँ आयेंगी, रूपक आयेंगे, और इस तरह जो ध्ाूप खिड़की से उपन्यास में आ रही थी, पाठक के अन्तस में अनेक रूप ध्ार कर आने लगेगी। इस तरह सिनेमा में कर सकना मुश्किल है। प्रूस्त के उपन्यास ने इस रास्ते नयी कथाशैली विकसित की थी, जो सिनेमा के पास से होकर गुज़र जाती थी, चित्रों के ऊपर से।
इसी क्रम में अगले उपन्यासकार चेकोस्लोवाकिया के फ्रेंज़ काफ़्का हैं। हिन्दी के वास्तविक बड़े कवि-उपन्यासकार जितेन्द्र कुमार के अनुसार उन्होंने सपने को इस तरह लिखा मानो वह यथार्थ हो। काफ़्का की कहानी ‘पीनल काॅलोनी’ में जैसा परिवेश है, वैसा यथार्थ में हो ही नहीं सकता। पर उन्होंने उसे इस तरह लिखा है कि मानो वे उसका आँखों देखा वर्णन कर रहे हों। उनके उपन्यास ‘ट्राइल’ की भी यही हैसियत है। वह पूरा उपन्यास इस तरह लिखा गया है मानो वह लेखक के सामने घट रहा हो। काफ़्का ने इस तरह जाॅयस और प्रूस्त से अलग अपना एक विलक्षण रास्ता बनाया था। संयोग से बीसवीं शताब्दी में जितने लेखक काफ़्का के बताये रास्ते पर चले, उतने शायद ही किसी और के रास्ते पर चले होंगे।
5.
कहानीकारों में ऐसे तीन कहानीकार हैं जिन्होंने अन्य कथा-अनुशासनों की सजगता के साथ विलक्षण ढंग की कहानियाँ लिखीं। वे ऐसी कहानियाँ हैं जो किसी अन्य विध्ाा में अन्तरित हो ही नहीं सकती। इनमें पहले लेखक हैं हिन्दी के फणीश्वरनाथ ‘रेणु’। रेणु की कहानी लिखित गद्य होने के स्थान पर, अभिलिखित (ट्रांस्क्राईप्ड) गद्य है। अभिलिखित यानि ऐसा गद्य जिसे सुनते हुए लिखा जा रहा हो। रेणु की कहानी ऐसे ही सुने हुए वाक्यों का कलात्मक संयोजन करने से बनती हैं। अगर हम रेणु की कहानी को ध्यान से पढ़ें तो हमें निश्चय ही यह महसूस होगा कि उसमें से बहुत सारी आवाज़ें सुनायी पड़ रही हैं। कभी किसी की आवाज़ आती हैं, कभी किसी और की। मानो इन सारी आवाज़ों के बीच कहीं लेखक की आवाज़ है ही नहीं। हम इन्हीं आवाज़ों के सहारे रेणु की कहानी पढ़ते हुए, आप्लावित होते हैं, चमत्कृत होते हैं और आनन्द में डूब जाते हैं।
रूसी लेखक चेखव सिनेमा से पहले के कहानीकार है। वे भी सिनेमा के आने की सूचना अपने कहानी लिखने के ढंग में देते हैं। वे यथार्थ का इस तरह वर्णन करते हैं मानो उसे कैमरे के सहारे बहुत पास से देखा गया हो। अगर हम चेखव की कहानियों को तल्लीनता से पढ़ें, हम पायेंगे कि उनमें करुणा की ध्ाारा बह रही है। इसका कारण शायद यह हो कि चेखव पीड़ा सहने के ईसाई विचार की गहरायी में उसके पूर्ववर्ती बौद्ध ध्ार्म की करुणा देख सके थे। चेखव ने पीड़ा के भीतर करुणा की अन्तधर््ाारा को महसूस किया था, और वही अन्तधर््ाारा उनकी कहानियों तक बहती चली आयी थी।
हमारे समय के एक अन्य विलक्षण कहानीकार हैं, जाॅर्ज लुई बोखऱ्ेस। बोखऱ्ेस ने कहानी लिखने का बिल्कुल अलग रास्ता उद्घाटित किया। उनकी कहानी वर्णन करने के स्थान पर वर्णन को किया हुआ मानकर उस पर टिप्पणी के रूप में लिखी गयीं है। मसलन उनकी एक कहानी में एक उपन्यास को लिखा हुआ मान लिया गया। वह उपन्यास न उस कहानी के पहले लिखा गया था न बाद में। वह विशुद्ध काल्पनिक उपन्यास है पर कहानी में उसे लिखा हुआ मान लिया गया है और कहानी इस तरह लिखी गयी है कि वह उसकी समीक्षा कर रही हो। बोखऱ्ेस ने ही कहानी लिखते हुए उसमें अन्तर्निहित किस्से को लिखने के स्थान पर उसे ‘ध्वनित’ करने का प्रयास किया था। इसका अर्थ यह है कि उनकी कहानियों में अन्तर्निहित जो भी किस्सा है, उसकी ओर संकेत किया जाता है, उसे लिखा नहीं जाता। एक तरह से वह पाठकों के अन्तस में आकार लेता है।
हमने जिन भी उपन्यासकारों या कहानीकारों का जि़क्र किया है, उन सभी ने ढेरों कलारूपों के बीच रहते हुए भाषा की शक्तियों को उद्घाटित करते हुए कहानी लिखने के नये मार्ग खोजे। इन्हीं लेखकों ने ऐसी कहानियाँ लिखी हैं जिन्हें किसी भी दूसरी कला विध्ाा में ज्यों का त्यों अन्तरित नहीं किया जा सकता। इस तरह बीसवीं शताब्दी में एक अलग कथा कल्पना ने जन्म लिया है जो पिछली शताब्दी जब सिनेमा नहीं था, की कथा कल्पना से बहुत अलग है।
6.
हमें कहानी लिखते वक़्त यह याद रखना आवश्यक है कि भाषा की कुछ ऐसी नैसर्गिक शक्तियाँ होती हैं जो उसमें कहानी सम्भव करती हैं। चूँकि कहानी भाषा में सम्भव होती है, जैसे चित्र रंगों में संगीत स्वरों में, हर कहानीकार को भाषा के स्वरूप पर डूबकर विचार करना चाहिए। यह विचार कहानी के लिखे जाने में भी अनुभव हो तो कहानी एक अलग ऊँचाई प्राप्त करती है। कहानी वाक्यों में लिखी जाती है, हालाँकि जेम्स जाॅयस ने अपने उपन्यासों विशेषकर ‘यूलिसिस’ और ‘फिनिगन्स वेक’ में वाक्यों को बुरी तरह तोड़ा है, शब्दों को भी। वे शायद भाषा के खण्डहरों में अपने उपन्यास को रूप दे रहे थे। कितना ही टूटा-फूटा सही, जाॅयस के इन उपन्यासों में भी वाक्य की उपस्थिति है। और उन्होंने अपने लिखने के ढंग में वाक्य को तोड़-फोड़कर उस पर विचार की एक अलग दिशा को मुमकिन कर दिया है।
भाषा को कहानी का माध्यम कहना निरा अज्ञान है। भाषा के अपने स्वरूप में ही कहानी छिपी होती है इसीलिए उसे माध्यम नहीं कहा जा सकता। भाषा का बुनियादी स्वभाव खुलना होता है। हर वाक्य की ‘अनफोल्डिंग’ होती है। वाक्य बन्द मुट्ठी की तरह ध्ाीरे-ध्ाीरे खुलता है। पहले एक शब्द आता है, फिर दूसरा, फिर तीसरा...। हम जब तक वाक्य में प्रयुक्त लगभग सारे शब्द सुन नहीं लेते, वाक्य का अर्थ स्थगित रहा आता है। वाक्य के इस खुलने या अनफोल्डिंग के कारण उसमें अर्थ को बहुत थोड़े से समय के लिए ही सही पर स्थगित करने की सामथ्र्य होती है। जितनी देर वाक्य के अपने स्वरूप के कारण अर्थ स्थगित रहता है, उतनी देर पाठक के भीतर समय की गति ध्ाीमी पड़ जाती है और जिज्ञासा गहरी हो जाती है। भाषा की ठीक इसी सामथ्र्य का इस्तेमाल उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दियों में जासूसी उपन्यास के ढंग से लिखे गये तमाम उपन्यासों में हुआ है। वे उपन्यास इसलिए भी इतने दिलचस्प हो सके क्योंकि उनका रूप भाषा के अपने स्वभाव के अनुकूल था।
मैं यहाँ रुककर एक बार फिर यह कह दूँ कि सिनेमा जैसे कलारूप के आ जाने के बाद कहानी और उपन्यास के लिखने के ढंग में कुछ मूलभूत बदलाव लाना ज़रूरी था। शायद इसीलिए जो लेखक सिनेमा की तरह कहानियाँ या उपन्यास लिखते हैं, वे मुझे कमज़ोर जान पड़ते हैं। हर कहानीकार या उपन्यासकार को कहानी लिखने के नये ढंग लगातार ढूँढते रहना पड़ता है। इतने भर से काम नहीं चलता कि कोई कहे कि उसकी लिखी कहानी जीवन के बहुत क़रीब है। यह इसलिए सार्थक नहीं है क्योंकि जीवन अरूप है और उसके नियम-विध्ाान भाषा के नियम-विध्ाानों से बिलकुल अलग होते हैं। जीवन बार-बार रूपाकारों के बाहर भागता है, भाषा निरन्तर रूपाकार गढ़ती है। एक कहानीकार को भाषा के इस स्वभाव को समझना होता है, उसका सम्मान करना होता है। दुनिया में ऐसा कोई बड़ा लेखक नहीं हुआ जिसने भाषा के स्वभाव में गहरे उतरे बिना कहानी या उपन्यास लिख दिया हो।
7.
मैं दो ऐसे लेखकों का जि़क्र और करना चाहता हूँ जिन्होंने हिन्दी भाषा की अपने समय तक सोयी सम्भावना को जाग्रत किया है। निर्मल वर्मा ने हिन्दी की खड़ी बोली के इतिहास में पहली बार कहानियों को स्वर-लिपियों की तरह लिखा है। खड़ी बोली में ऐसा अद्भुत संगीत भी था, निर्मल वर्मा की कहानियों से पहले इसका बहुत कम पता था। उनकी कहानियाँ पढ़ते समय शब्द ध्ाीरे-ध्ाीरे गायब हो जाते हैं और कब उनका स्थान बहुत ही सूक्ष्म संगीत लेना शुरू कर देता है, हमें पता भी नहीं चलता। ठीक वैसे ही जैसे कोई गायक बंदिश गाते समय बंदिश के शब्दों को ध्ाीरे-ध्ाीरे स्वरों में घोलकर ग़ायब कर देता है। उसे सुनने के बाद हमें अध्ािकांशतः बंदिश याद नहीं रहती, जबकि वह ध्ाुन हमारे भीतर ध्ाीरे-ध्ाीरे अपना रास्ता बनाती रहती है जिसमें वह बंदिश बुनी हुई थी। निर्मल वर्मा का कहानी लिखने का यह मार्ग किसी और कला में सम्भव नहीं है। उनकी कहानियों में दृश्यों के वर्णन के स्थान पर उन दृश्यों में अनुस्यूत संगीत का अनुभव होता है। इसीलिए निर्मल जी के लेखन से प्रतिकृत होते हुए जिन लेखकों ने अपने रास्ते खोजे, वे अच्छा लिख सके, लेकिन जो उनकी तरह लिखने का प्रयास करते रहे, बुरी तरह विफल हुए क्योंकि वे जिस भाषा का अनुकरण कर रहे थे, निर्मल जी की कहानियों में वह भाषा केवल ऊपरी माया है। उनकी कहानी को रूप उस संगीत ने दिया है जो उनके शब्दों के बीच पानी की तरह बहता है।
कृष्ण बलदेव वैद ने इससे अलग रास्ता लिया। उन्होंने अपनी कहानियों और उपन्यासों में भाषा को वर्णन का साध्ान नहीं बनाया। उनके यहाँ भाषा वर्णन न कर नृत्य करती थी। इसे ही नाॅम चाॅम्स्की ने भाषा की ‘परफार्मेटिव’ शक्ति कहा है। वैद भाषा की वर्णन क्षमता से कहीं अध्ािक उसकी प्रदर्शनकारी सामथ्र्य को अपने लेखन में खिलने का अवसर देते हैं। उनकी कहानियों और उपन्यासों में मुख्य चरित्र भाषा का यह प्रदर्शन ही होता है। भाषा की इसी सामथ्र्य के कारण वैद के लेखन में अर्थ निश्चित नहीं हो पाता और अर्थों के फव्वारे के बीच ही मानो उनके उपन्यासों का आकार बनता-बिगड़ता रहता है। इस तरह उनके उपन्यास हमारी आँखों के सामने ही बनते हुए अनुभव होते हैं।
8.
हर गल्पात्मक कृति के साथ ही लिखने का एक ढंग निःशेष हो जाता है। कहानीकार जब नयी कृति लिखने बैठता है उसे लिखने के नये ढंग को खोजना होता है, जो भाषा की सिलवटों में ही छिपा मानो उसका इन्तज़ार कर रहा हो। वे लेखक जो निरन्तर इस तरह सृजनशील रहते हैं वे हमेशा युवा बने रहते हैं। अगर हम अपने लिखने में कुछ नया ढंग नहीं ला पाते और अपनी पुरानी कथा युक्तियों के सहारे ही बार-बार लिखने का प्रयास करते हैं, हमें कहानी के आस-पास ध्यान से देखना चाहिए वहाँ हमें बैसाखियाँ रखी हुई दिखायी दे जायेगी। वे इस बात का द्योतक है कि हम बूढ़े हो चुके। हर बार नया खोजने का अर्थ यह नहीं कि यह ‘नया’ सिरे से नया होता हो। इस नयेपन के अभिप्राय को समझने के लिए मुझे संगीत का रूपक सटीक लग रहा है। एक अच्छा संगीतकार अगर बीस बार भी राग मालकौंस गायेगा, वह हर बार राग भले ही मालकौंस होगी पर उसमें कुछ सूक्ष्म परिवर्तन हो गया होगा। संगीतकार की पहचान उसमें बनी रहेगी राग की भी तब भी वह मालकौंस थोड़ी-सी नयी होगी।
एक कथाकार विशिष्ट व्यक्ति होता है पर वह अन्यों से उच्चतर या निम्नतर नहीं होता, पर उसे अपने ‘एकमात्र’ होने का गहरा अहसास होता है। सभी मनुष्य एकमात्र ही होते हैं, अद्वितीय ही होते हैं पर उनमें से अध्ािकांश को अपने इस एकमात्र होने का एहसास नहीं होता। इस अहसास से जहाँ एक ओर सृजन की बेचैनी जन्म लेती हैं वहीं असुरक्षा की ठिठुरन भी। उसे यह लगता है कि जीवन को जिस तरह रूप देने का प्रयास हो रहा है, वह पर्याप्त नहीं है। अपने पहले लिखी कथाएँ भी उसे थोड़ी-सी अपर्याप्त जान पड़ती है। इस अनुभूति से बेचैन होकर वह अपने ढंग से लिखने का प्रयास करता है, लेकिन जैसे ही वह इस रास्ते आगे बढ़ता है, वह पाता है कि सारी परम्परा एक विशेष ढंग से उसमें मुखरित होने लगी है। एक समूची संस्कृति उसके आँखों के सामने कुछ नया रूप ले रही है। यह तभी होता है जब लेखक अपने एकमात्र होने की भावना से भरकर लिखता है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो अमूमन वह साहित्य नहीं, साहित्य की खाल में समाजशास्त्र लिख रहा होता है।