कैच-22 एक कालजयी रचना विकास कपूर
29-Dec-2019 12:00 AM 2376

11 नवम्बर 2018 को प्रथम विश्व युद्ध के समापन के सौ साल पूरे होने पर विश्व भर में श्रद्धांजलि सभाओं का आयोजन किया गया। इसी बहाने मीडिया और बुद्धिजीवियों का ध्यान फिर एक बार इस भीषण मानव-निर्मित त्रासदी की तरफ गया जिसे वर्तमान परिदृश्य में लगभग भुला दिया गया है। मानव जाति यह भूल चुकी थी कि प्रथम विश्व युद्ध एक ऐसी महाविनाशक घटना थी जिसमें दुनिया के तीस से अधिक राष्ट्रों ने हिस्सा लिया था और लगभग 90 लाख लोगों ने अपने प्राण गवाएँ थे। 1914 से 1918 तक चले इस महायुद्ध के परिणाम बेहद गम्भीर रहे। एक तरफ हथियारों और रसद के अन्धाधुन्ध उत्पादन ने वैश्विक अर्थव्यवस्था चैपट कर दी, वहीं दूसरी तरफ जान-माल की सार्वत्रिक हानि ने भय और असुरक्षा का माहौल पैदा किया। नतीजतन सम्पूर्ण विश्व एक लम्बी महामन्दी की चपेट में आ गया। उसी निर्णायक युद्ध में इटली के बेनिटो मुसोलिनी और जर्मनी के एडोल्फ हिटलर ने साधारण सैनिक की हैसियत से भाग लिया था और दोनों ही तत्कालीन परिदृश्य से असन्तुष्ट थे। युद्धोत्तर दौर में किस प्रकार मुसोलिनी ने फ़ासीवाद और हिटलर ने नात्ज़ीवाद के ज़रिये क्रमशः इटली और जर्मनी में वर्चस्व स्थापित किया और फिर कैसे द्वितीय विश्व युद्ध जैसा नरसंहार इतिहास में दजऱ् हुआ, इस बारे में बहुत लिखा जा चुका है। अफ़सोस इस बात का है कि हिंसा का ताण्डव यहाँ थमा नहीं, वरन बीसवीं शताब्दी में ही रूस, कम्बोडिया, यूगोस्लाविया आदि में नरसंहार होते रहे। एरिक वाइटज़ ने अपनी पुस्तक । ब्मदजनतल व िळमदवबपकम में सभी नरसंहारों का आकलन किया है और बीसवीं शताब्दी को नरसंहार की शताब्दी कहा है।
बीसवीं शताब्दी ने मानव जाति को जितना प्रभावित किया है उतना इतिहास में शायद ही किसी अन्य शताब्दी ने किया होगा। इस सदी के उत्तरार्ध में जहाँ एक के बाद दूसरे विश्व युद्ध ने मानव संवेदनाओं को झकझोर दिया, वहीं विज्ञान और प्रौद्योगिकी में हुए अभूतपूर्व विकास ने मानव को उत्पादों के मोह-जाल में फँसाकर महज़ उपभोक्ता बना कर रख दिया। वह तमाम चीज़ें जो इस दौर के मनुष्य को सभ्य और आधुनिक बनाती हैं- जैसे रेडियो, टीवी, कार, जीप, वायुयान, पनडुब्बी, राॅकेट, एयर कंडीशनर, एंटीबायोटिक दवाएँ, कलाई घड़ी, प्लास्टिक से बने उपकरण आदि, यह सभी बीसवीं शताब्दी की देन हैं। इनमें से अधिकांश का आविष्कार मानव जाति के जीवन स्तर को उठाने के लिए नहीं बल्कि सैनिकों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया गया था। सैनिटरी पैड्स, सेफ़्टी रेज़र, टी बैग्स जैसे अनेक उत्पाद फ़ौज की सुविधा को देखते हुए विकसित किये गए थे और-तो-और जिस प्रोग्रामेबल कम्प्यूटर को लेकर आज हम गर्व से भर उठते हैं, उसका विकास ख़ुफि़या सैन्य संदेशों को डीकोड करने के लिए किया गया था। आज भी समाजशास्त्री इस पशोपेश में हैं कि बीसवीं सदी को विकास की गौरव गाथा के रूप में याद रखें या विनाश के दुःस्वप्न के रूप में।
इस विस्फोटक और अराजक दौर ने मनुष्य के लिए भय, आशंका और स्वार्थजनित स्पर्धा का एक विचित्र माहौल पैदा किया, जिसके परिणाम स्वरूप अवसाद, आत्मघाती प्रवृत्तियाँ और अन्य मनोविकार मनुष्य जीवन का अभिन्न अंग बन गये। ज़ाहिर है, ऐसी परिस्थितियों में संवेदनशील मनुष्यों के सोचने-समझने और प्रतिक्रिया देने के अन्दाज़ को ठेस पहुँची। नतीजतन अभिव्यक्ति के तौर-तरीक़े पूरी तरह बदल गए, लेकिन यह बदलाव आसान नहीं था और मानव जाति को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। उस दौर के अनेक प्रतिभाशाली लेखकों, कलाकारों को ठप.च्वसंत अव्यवस्था, व्याकुलता और गहन अवसाद ने जकड़ लिया जिससे लड़ते-लड़ते वे असामयिक मृत्यु का शिकार हुए। चन्द नाम पेश हैंः वर्जिनिया वुल्फ़ (आत्महत्या-1941), तादियुस बोरोफ़्स्की (आत्महत्या-1951), सआदत हसन मण्टो (बलानोशी-1955), अर्नेस्ट हेमिंग्वे (स्वयं को गोली मार कर आत्महत्या-1961), सिल्विया प्लाथ (1953 में असफल आत्मघाती प्रयास के उपरान्त सुनियोजित आत्महत्या-1963) आदि। इन नामों से लम्बी सूची उन नामों की है जो ताउम्र अवसाद से जूझते रहे और सृजन करने का हर सम्भव प्रयास करते रहे मगर समाज से कटकर भी उन्होंने कभी कोई आत्मघाती क़दम नहीं उठाया। उस दौर के आलोचक इसे अस्तित्ववादी संघर्ष कहते हैं।
इन साहित्यकारों के अलावा कुछ नाम ऐसे भी हैं जो उन अनुभवों से आहत-आलोडि़त हुए लेकिन उसका असर व्यक्तिगत जीवन से अधिक, उनके लेखन में दिखायी दिया। ऐसा ही एक नाम जोसेफ़ हेलर है जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका को निकट से देखने का अवसर मिला और वही युद्ध अनेक वर्षों बाद उनके लिखे एक उपन्यास का केन्द्रीय बिन्दु बनकर उभरा। वह उपन्यास कैच 22 था जो अमरीका से निकला एक ऐसा युद्ध-केन्द्रित दस्तावेज़ बन गया जिसे आज विश्व साहित्य में कालजयी माना जाता है।
जोसेफ़ हेलर ने कैच 22 को 1953-54 में लिखना प्रारम्भ किया और यह कई वर्ष बाद 1961 में प्रकाशित हो सका। पहले-पहल अमरीका में इसे सजिल्द छापा गया लेकिन वहाँ उसे उतनी लोकप्रियता नहीं मिली जितनी यूरोप के पेपरबैक संस्करण को नसीब हुई। 1963 के बाद से इसका निरन्तर पुनर्मुद्रण होता रहा और इसके संस्करण-दर-संस्करण निकलते रहे। आज तक इस विलक्षण उपन्यास की कुल सवा करोड़ प्रतियाँ बिक चुकीं हैं। अकेले कोर्गी पब्लिशिंग हाउस ने इसके चालीस से अधिक संस्करण निकाले और 25 लाख से अधिक प्रतियाँ बेची हैं। अपनी तरह के निराले इस उपन्यास से जुड़ी कई बातें आलोचकों एवं शोधकर्ताओं को आकर्षित करती हैं। जैसे कि इसका एकरैखिक आख्यान न होना, किसी एक नायक (या अनायक) पर कथ्य केन्द्रित न होना, एक ही प्रसंग को कई बार, अलग अध्यायों में, नयी जानकारी के साथ फिर लिख देना, इतने सारे कि़रदार रच देना कि पाठक को उलझन-सी होने लगे, मृत्यु को व्यंग्य और कटाक्ष का वाहन बनाना आदि। द गार्डियन में छपे एक लेख के अनुसार प्रसिद्ध समालोचक एवेलिन वाॅ ने इस उपन्यास की पाण्डुलिपि पढ़ने के बाद प्रकाशक से कहा था कि उस पाण्डुलिपि को नाॅवेल कहना एक भूल होगी क्योंकि ‘वह महज़ एक शब्द स्केच का संग्रह है - जिसमें कई दुहराव हैं और जो पूरी तरह से किसी संरचनात्मक बनावट से महरूम है।’
कैच 22 एक ऐसा नाॅवेल है जिसमें पहले ही पृष्ठ से पाठक को तर्क और परिपाटीगत समझदारी को ताक पर रखना पड़ता है। शायद इसलिए की इस दुनिया का आत्मघाती निज़ाम और उसमें लड़े जाने वाले युद्ध, दोनों ही पागलों के नियन्त्रण में रहे हैं। औघड़ दुनिया के तौर तरीक़े औंधी सोच वालों को ही समझ आ सकते हैं। प्रथम अध्याय से लिए कुछ उद्धरण प्रस्तुत हैंः
योस्सारियन अमरीकी एयर फ़ोर्स का एक बमवर्षक सैनिक है जो अनेक सामरिक उड़ानों में शामिल होकर युद्ध से थक चुका है और सैन्य-अस्पताल में इसलिए भर्ती हुआ है कि भविष्य में होने वाली सामरिक उड़ानों से उसे मुक्ति मिल सके। योस्सारियन के यकृत (लिवर) में दर्द है जो पीलिया में होने वाले दर्द से कुछ कम है। डाॅक्टर हैरान-परेशान हैं और समझ नहीं पा रहे कि क्या किया जाये। यदि यह दर्द पीलिया होने के कारण है तो उसका उपचार किया जा सकता है। यदि यह पीलिया के कारण नहीं हैं तो उसे खुद ही ठीक हो जाना चाहिए और योस्सारियन को छुट्टी दे दी जानी चाहिए। परन्तु दर्द पीलिया से कुछ कम होने पर उलझन पैदा हो रही है।
परस्पर विरोधाभासी स्थितियों के बीच अनिश्चय और उससे उपजी विभ्रान्ति इस पूरे उपन्यास का सार है। जिसे देखिये, वही इस अस्पष्ट और संदिग्ध परिस्थिति की आड़ में अपना उल्लू सिद्ध कर रहा है। लेखकीय प्रतिभा तब स्पष्ट हो उठती है जब पाठक को एहसास होता है कि ऐसा हास्यास्पद सन्देह तो हर दूसरी घटना या हर तीसरे प्रसंग में घटित हो रहा है और यह पाठकों में केवल गुदगुदाहट ही पैदा नहीं करता, जुगुप्सा भी जगाता है।
एक और बानगी देखियेः
उसी अस्पताल में एक सफ़ेदपोश सैनिक भर्ती है। वह सिर से पैर तक गाॅज़-पट्टी और प्लास्टर से ढँका है। उसके दोनों पैर और दोनों हाथ बेकार हैं जो हिल नहीं सकते हैं। सैनिक के प्लास्टर से ढँके हाथों-पैरों को तारों और वज़न से तनाव देकर टाँग रखा है। उस सैनिक का चेहरा भी दिखायी नहीं देता है और मुँह के स्थान पर बस एक स्याह गड्ढा दिखायी पड़ रहा है। कहते हैं, एक रात उस रहस्यमय मरीज़ को चुपके-से उस वाॅर्ड में लाकर लिटा दिया गया था। शेष मरीज़ नहीं जानते वो कैसे, कहाँ से और कब लाया गया था। उसकी कुहनी के पास एक ट्यूब लगी है जिससे उस सैनिक को एक पारदर्शी काँच के मर्तबान में भरा कोई तरल पदार्थ चढ़ाया जा रहा है। सफ़ेद ममी-सा वह सैनिक पीठ के बल सीधे लेटा रहता है। उसके निचले हिस्से से एक जस्ते का पाइप निकल रहा है जिसे एक रबर की नलकी से जोड़ा गया है। वह नलकी उस सैनिक के गुर्दों की गन्दगी बूँद-बूँद कर एक पारदर्शी काँच के मर्तबान में पहुँचा रही है। जब फर्श पर रखा मर्तबान भर जाता है तब कुहनी से जुड़ा मर्तबान खाली हो जाता है और तब बड़ी तत्परता से उन्हें आपस में बदल दिया जाता है ताकि यह चक्र दोहराया जा सके...
अचरज की बात यह है कि यह बेज़ुबान मरीज़ कई बार उपन्यास के कथ्य में स्थान पाता है और अन्ततः ऐसे ही एक सुबह मरा पाया जाता है। उसका स्थान रिक्त होने के बाद भी उसकी मौजूदगी अन्य सैनिकों के संवादों में बनी रहती है। कोई कहता कि क्या यह बात दावे से कही जा सकती है कि वह पहले (वाॅर्ड में जब भर्ती के समय लाया गया था) जीवित था, दूसरा कहता कि दावा तो इस बात का भी नहीं किया जा सकता कि उस सफ़ेद खोल में कोई मानव देह थी। जोसेफ़ हेलर अपने इस किरदार को ज्ीम ैवसकपमत पद ॅीपजम यानी सफ़ेद कपड़ों में लिपटा एक सैनिक कहते हैं। गोया कि एक अनाम, अनचीन्हा, विस्मृत-सा सैनिक मर गया और पीछे रह गये कुछ वाचाल लोग जो इस बहस से ऊपर नहीं उठ पा रहे कि वह शख़्स कभी था भी... या नहीं! मेरी समझ में युद्ध पर इससे बेहतर टिप्पणी दूसरी नहीं हो सकती।
कहने को तो इस उपन्यास में कोई एक नायक नहीं है, लेकिन चन्द पात्र एकाधिक बार, एक-सी अथवा कुछ भिन्न परिस्थितियों में कुछ नया करते दिखाए गये हैं। कथानक उनके इर्द-गिर्द मण्डराता-सा लगता है। ऐसे कुछ अविस्मरणीय पात्र हैं - कर्नल कैथकार्ट, जनरल पेकहैम, बन्दूकची स्नोडेन, क्लेवेन्जर, मेजर मेजर मेजर मेजर (जी हाँ, यही नाम है), नेटली, नेटली की प्रेमिका (जो एक वेश्या है), पायलट मड्ड, भ्नदहतल श्रवम (भूखा जो), डाॅक् डानिका और माइलो माइंडर बाइंडर। इन पात्रों के साथ योस्सारियन, मैकवाट, डनबार और अन्य वायुसैनिक दो-चार होते रहते हैं।
कर्नल कैथकार्ट एक लम्पट कि़स्म का अफ़सर है जो अपनी टुकड़ी के सैनिकों को जोखि़म भरे मिशन पर भेजकर स्वयं अख़बारों में छाया रहता है। कर्नल को अपने वायुसैनिकों को लगातार प्राणघातक मिशनों पर भेजने में लेश मात्र का संकोच नहीं होता - उलटे वह समय-समय पर उनकी ड्यूटी के घण्टों और मिशन की संख्या में मनमजऱ्ी से बढ़ोतरी करता रहता है। यहाँ तक कि निर्धारित चालीस हवाई मिशन पूरे करने के बाद भी उन्हें छुट्टी पर नहीं जाने दिया जाता है। नाॅवेल के छठे अध्याय में वर्णित एक घटना में वायुसैनिक इस बारे में शिकायत लेकर सैन्य मुख्यालय जा पहुँचते हैं। वे जानना चाहते हैं कि कर्नल कैथकार्ट द्वारा उड़ानों की संख्या पर लगाये गये मनमाने प्रतिबन्ध कितने वैधानिक हैं। मुख्यालय के उच्चाधिकारी की पायलटों के साथ हुई बातचीत का ब्यौरा पेश हैः
पायलट - हमे समझ नहीं आ रहा... क्या डाॅक् डानिका सही कह रहे हैं?
उच्चाधिकारी - उन्होंने कितने मिशन बताए हैं?
पायलट - चालीस
उच्चाधिकारी - डाॅक् डानिका ठीक कह रहे हैं। जहाँ तक सत्ताईसवीं स्क्वाड्रन के पायलटों का सवाल है, उन्हें चालीस मिशन पर ही जाना निर्धारित किया गया है।
योस्सारियन - तब मैं घर जा सकता हूँ, है ना? मैंने चवालीस मिशन पूरे कर लिए हैं...
उच्चाधिकारी - तुम पागल तो नहीं हो गए...? तुम घर नहीं जा सकते।
योस्सारियन - क्यों नहीं?
उच्चाधिकारी - कैच 22
योस्सारियन - कैच 22? उससे इसका क्या लेना देना?
उच्चाधिकारी - नियम कहते हैं की आपको हर सूरत में अपने अफ़सर का आदेश मानना होगा। और यह कहाँ लिखा है कि घर जाना आवश्यक है? यदि आपका अफ़सर किसी नियम का उल्लंघन करता है तब भी आप आदेश मानने से इन्कार नहीं कर सकते। अन्यथा आप हुक्मउदूली के दोषी पाए जायेंगे। यही कैच 22 है।
इस आधिकारिक वार्ता के बाद डाॅक् डानिका पायलटों को बताता है कि कर्नल कैथकार्ट ने अब उनके मिशन की नयी सीमा निर्धारित की है।
योस्सारियन - मतलब अब मुझे पचास मिशन पूरे करने होंगे...?
डाॅक् डानिका - नहीं, पचपन...!
योस्सारियन और अन्य पायलट मन मसोसकर रह जाते हैं।
इन्हीं कारणों से उस टुकड़ी के पायलट (योस्सारियन, डनबार, क्लेवेन्जर आदि) कर्नल कैथकार्ट से चिढ़ते हैं। उनमें से कुछ वायुसैनिक नौकरशाही के एक अन्य पेंच-दार नियम के तहत ड्यूटी से मुक्त होने का प्रयास भी करते हैं। नियम है कि यदि किसी सैनिक के दिमाग पर कुछ पागलपन का असर दिखे और चिकित्सक उसकी तस्दीक कर दे, तो उस सैनिक को मिशन पर जाने से छुट्टी मिल सकती है। योस्सारियन इस नियम के तहत डाॅक् डानिका के सम्मुख निरीक्षण के लिए प्रस्तुत होता है, डाॅक् डानिका उसे यह कहकर वापस भेज देता है कि यदि उसे स्वयं अपने पागलपन के बारे में मालूम हो रहा है तो वह कतई पागल नहीं है। उलटे यह मिशन से बच निकलने के लिए किया गया एक बहाना है। यही कैच 22 है। ...गोया कि इस दुनिया में समझदारों को चाहे-अनचाहे तर्कहीनता को गले लगाना पड़ता है और यदि आप ‘पागल’ हैं तो आप सब कुछ स्पष्ट रूप से देख-समझ पाएँगे। लेकिन यदि आप सचमुच पागल हैं - तो आपकी बात सुनेगा कौन?
इस पहलू के अलावा उपन्यास में युद्ध सम्बन्धित कुछ और बातों का उल्लेख भी है। एक महत्वपूर्ण मुद्दा सेना में फैले भ्रष्टाचार का है। यह बात अचम्भित करती है कि जोसेफ़ हेलर ने आज से लगभग पैंसठ वर्ष पूर्व इस बात का सही आकलन कर लिया था कि एक राष्ट्र और उसकी सेना किन लोगों के हाथों सर्वाधिक लुटते हैं। हेलर ने अफ़सरों, नेताओं और बिचैलियों की मिलीभगत से पूरी व्यवस्था के बिखरने का सत्य उजागर किया है। अपने स्वनामधन्य उपन्यास कैच 22 में हेलर ने महँगी शिक्षा में हुए ख़र्चे कि भरपाई करने हेतु एक मेडिकल चिकित्सक (डाॅक् डानिका) के माध्यम से तनख़्वाह से अधिक आय अर्जित करने का एक रोचक प्रसंग लिखा है।
डाॅक् डानिका एक सैनिक के सामने अपना रोना रोते हुए कहते हैंः ‘तुम्हें लगता है कि तुम्हारी समस्या सबसे बड़ी है। मेरे बारे में जानते हो? मैंने मेडिकल की पढ़ाई आठ साल तक मूँगफली खाकर पूरी की है। पढ़ाई समाप्त करके मुझे कई महीनों तक चूज़ों को खिलाने वाला दाना तक फाँकना पड़ा, तब जाकर मैंने अपना क्लीनिक खोला था। अब जब कि मेरी प्रैक्टिस चलने लगी और कुछ पैसा आना शुरू हुआ तो इन लोगों ने मुझे जबरन सेना में भर्ती कर दिया। मुझे समझ नहीं आता कि तुम किस बात की शिकायत कर रहे हो?’
येन केन प्रकारेण पैसा बनाने की हुड़क डाॅक् डानिका को एक विचित्र परिस्थिति में ला खड़ा करती है। डाॅक् डानिका उड़ान भरने से डरता है किन्तु उड़ने वाले दल को मिलने वाला अतिरिक्त भत्ता उसे ललचाता है। डाॅक् डानिका अपने एक विश्वासपात्र पायलट मैकवाट से कहकर अपना नाम उड़न दस्ते की सूची में तो लिखवा देता है - लेकिन मिशन पर उनके साथ नहीं जाता है। संयोग से मैकवाट का विमान दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है और उसपर सवार लोगों के साथ डाॅक् डानिका को भी मृत घोषित कर दिया जाता है। अब डाॅक्टर साहब जिस-तिस को कहते फिरते हैं कि वे जीवित हैं - लेकिन कोई उनकी बात ही सुनने को तैयार नहीं होता। विडम्बना देखिये कि सेना की तरफ से डाॅक् डानिका की पत्नी को उनकी कथित मौत का ख़ेदपूर्ण सन्देश तक भेज दिया जाता है।
जीवित इंसान के मृत माने जाने की इस अँधेरी घटना के ठीक उलट उपन्यास में एक और व्याकुल कर देने वाला प्रसंग है - पायलट मड्ड के बारे में। पायलट मड्ड किसी और स्टेशन पर तैनात एक वायुसैनिक है जिसे योस्सारियन की टुकड़ी में प्रतिस्थापित करके भेजा जाना निर्धारित किया गया है। उस पायलट को पिछले स्टेशन से कार्य-मुक्त कर दिया जाता है। वह अपने नये स्टेशन पर आ पहुँचता है लेकिन कार्य-भार ग्रहण करने से पहले, एक सैन्य हमले में मारा जाता है। मृतक का सामान योस्सारियन के तम्बू में रखा है - और यूनिट में किसी को समझ नहीं आ रहा कि उसका क्या किया जाए। क्यूँकि पायलट मड्ड ने अभी ड्यूटी ज्वाइन नहीं की है इसलिए उसे आधिकारिक तौर पर शहीद नहीं माना जा सकता, और न ही उसे वापस भेजा जा सकता है क्योंकि वह मर चुका है। हैडक्वार्टर्स के रिकाॅर्ड में गफ़लत न हो इसलिए उन्हें सच्चाई नहीं बतायी जाती और पायलट मड्ड की मौजूदगी का ढोंग किया जाता है। योस्सारियन और उनके सार्जेंट इस प्रकरण में किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाते हैं। लिहाज़ा, कई महीनों तक योस्सारियन मृतक की उन लावारिस वस्तुओं@माल-असबाब के साथ तम्बू में रहने को मजबूर हो जाता है। पायलट मड्ड सशरीर तो वहाँ उपस्थित नहीं है लेकिन मुख्यालय की फ़ाइलों में वह सकुशल है। इधर यूनिट के लोग उसकी (गैर)मौजूदगी से आतंकित हैं। टुकड़ी का हर सैनिक उस मृतक के सामान में स्वयं के जीवन की क्षण-भंगुरता देख रहा है। हर पायलट यह सोचकर आतंकित है कि अगला धमाका उसके अस्तित्व को एक बिस्तर और कुछ बर्तन की शिनाख़्त तक सीमित न कर दे। लालफीताशाही की स्तुत्य कार्यशैली देखिये कि जीवित होने पर भी डाॅक् डानिका की मृत्यु का शोक सन्देश रवाना किया जा चुका है और पायलट मड्ड मर के भी नौकरी कर रहे हैं।
युद्ध में भ्रष्टाचार का दूसरा कारण वे बेईमान लोग हैं जो सेना को व्यावसायिक विनिमय का एक उपयुक्त मंच मानते हैं। ऐसे लोग मन-ही-मन यह चाहते हैं कि युद्ध अनवरत चलता रहे और वे चाँदी कूटते रहें। कैच 22 में इस बिन्दु को तफ़्सील से व्याख्यायित किया गया है। हेलर इस उपन्यास में माइलो माइंडर बाइंडर के नाम से एक ऐसा पात्र रचते हैं जो कहने को तो सेना के भोजनालय में एक अफ़सर है परन्तु वास्तव में एक पहुँचा हुआ मुनाफ़ाखोर है। माइलो माइंडर बाइंडर युद्ध के दौरान, सैन्य टुकड़ी का हिस्सा होते हुए भी एक ऐसी ट्रेडिंग कम्पनी खड़ी कर लेता है जिसमे ‘सभी का हिस्सा है’। धीरे-धीरे वह कम्पनी अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप अपना लेती है और माइलो माइंडर बाइंडर प्रभावशाली होता जाता है। अपने सम्पर्कों का लाभ उठाकर वह दुनिया के कोने-कोने से विमानों की मदद से रसद मँगवा लेता है। स्विट्ज़रलैंड से मूँगफली और माल्टा से अण्डे लाना तो आम बात है, अचरज की बात तो यह है कि कभी-कभी माइलो ख़ास जनरल साहब के लिए पोलैंड के साॅसेज और सिसली से स्काॅच मँगवाकर देता है। इस तरह ऊँचे पदों पर बैठे लोग माइलो माइंडर बाइंडर में व्यक्तिगत रुचि लेने लगते हैं और उसे वाणिज्यिक रूप से महत्वपूर्ण अनेक समितियों का सदस्य बना देते हैं। इन्तहा तब हो जाती है जब माइलो अपनी कम्पनी के अंशधारी सदस्यों को लाभ पहुँचाने की आड़ में युद्ध के निर्णयों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर देता है। माइलो माइंडर बाइंडर की कम्पनी का नाम ड-ड है और वह मानता है कि उस प्रतिष्ठान का सिद्धान्त वाक्य है ‘ॅींजश्े हववक वित ड-ड म्दजमतचतपेमे पे हववक वित जीम बवनदजतल’। अपनी इस नीति के चलते माइलो माइंडर बाइंडर दुश्मन देश से हथियारों की ख़रीद-फ़रोख़्त करने में भी कोई संकोच नहीं करता। यहाँ तक कि अपने ही द्वारा बेचे गए नक़्शे से वह जर्मन पायलटों से अपनी ही छावनी पर हमला करवा देता है। बाद में मीडिया और साथी सैनिकों के विरोध को यह कहकर शान्त करवा देता है कि इस सौदे से सबका फ़ायदा होगा। इस पूरे प्रकरण में यदि पाठकों को मौजूदा दौर के सामरिक सौदों से सम्बन्धित कोई संकेत मिलें तो उसे वे जोसफ़ हेलर कि प्रतिभा से जोड़कर देखें - इस लेख के लेखक की अति-सक्रिय कल्पना से नहीं।
इस महत्वपूर्ण पहलू के अलावा हेलर अपने इस लोभी पात्र का एक और पहलू प्रस्तुत करते हैं। वह है एक निर्मम निवेशक का जो अपने डूबते खाते के पैसे वापस लाने के लिए किसी भी हद तक गिर सकता है। भारी मुनाफे की सम्भावना देखते हुए माइलो मिस्र का सारा कपास ख़रीद लेता है। कुछ समय बाद उसे पता चलता है कि उस कपास का कोई खरीदार नहीं है। थोड़ा भुनभुनाने के बाद माइलो एक तिकड़म लगाकर कपास की गोलियाँ बनाकर उसे चाॅक्लेट में लपेटकर एक मिठाई बनाता है। उसकी मंशा है कि वह कपास की गोलियाँ मेस में सैनिकों को खाने में परोसी जाएँ। लेकिन ऐसा करने से पहले माइलो उन चाॅकलेट में लिपटी गोलियों को किसी पर आज़माना चाहता है।
उधर एक हवाई मिशन में बमबारी के दौरान बन्दूकची स्नोडेन की दर्दनाक मौत हो जाती है और उसकी अंतडि़याँ निकलकर पूरे चालक-दल को खून से भिगो देती हैं। योस्सारियन इस दहशतनाक घटना से सदमे में आ जाता है और अपनी रक्त-रंजित यूनिफ़ाॅर्म पहनने से तौबा कर लेता है। कुछ अपनी दिमाग़ी हालत के चलते और कुछ विरोध प्रकट करने के मन्तव्य से योस्सारियन पूरी तरह निर्वस्त्र होकर रहने लगता है। यहाँ तक कि एक जलसे में उसे मैडल पहनाया जाने वाला है और वह मैदान में यूनिफ़ाॅर्म-धारी पंक्तिबद्ध सैनिकों के बीच बिना कुछ पहने खड़ा है। अगले दिन स्नोडेन के क्षत-विक्षत शरीर को दफ़नाया जा रहा है और योस्सारियन वहाँ भी बिना कपड़ों के मौजूद है। कुछ देर में लोगों के सवालों से तंग आकर योस्सारियन एक पेड़ पर चढ़कर बैठ जाता है। वहीं माइलो अपनी जेब में कपास की गोलियाँ रखकर आ धमकता है। उन दोनों के बीच हुए संवाद की ‘संजीदगी’ देखिएः
- मैं तुम्हें कब से तलाश रहा हूँ। कहाँ थे तुम?
- तुमने मुझे यहाँ क्यों नहीं ढूँढा़? मैं सुबह से ही पेड़ पर बैठा हूँ।
- नीचे आओ और इसे (जेब से गोली निकालकर) चखकर बताओ, यह कैसी है।
योस्सारियन इन्कार कर देता है। माइलो पेड़ पर चढ़ जाता है और जेब से टिश्यू पेपर में लिपटी एक मुलायम-सी भूरी गोली निकालता है।
- इसे खा लो और मुझे बताओ कि यह कैसी है। मैं इसे सैनिकों को परोसना चाहता हूँ।
- (गोली मुँह में डालते हुए) मगर यह है क्या?
- चाॅक्लेट में लिपटी कपास।
- (तुरन्त थूकते हुए) हे प्रभु, तुम्हारा दिमाग़ तो खराब नहीं हो गया है? वापस लो इसे... कम-से-कम इसके बीज तो निकाल देते।
- थोड़ा चबाकर तो देखो। यह इतनी भी ख़राब नहीं हो सकती...क्या वाक़ई बहुत बुरी है?
- उससे भी बदतर।
- पर मुझे इसको मेस में सैनिकों को खिलाना है।
- वह इसे निगल तक नहीं पाएँगे...
- उन्हें इसे निगलना ही होगा।
सघन मूर्खता और पागलपन में लिपटी इस गम्भीर विषयवस्तु पर जितनी बात की जाये, कम है। नाॅवेल में ऐसे एक से बढ़कर एक प्रसंग हैं जिनकी पूरी व्याख्या इस लेख में नहीं की जा सकती। लेकिन एक बाल-बुद्धि वाले पात्र का उल्लेख करना आवश्यक है। वह है मेजर मेजर मेजर मेजर।
मेजर मेजर एक दब्बू और औसत से कम काबिलियत वाला शख़्स है जिसके जीवन की कुल जमा एक उपलब्धि है - वह यह कि उसका चेहरा अमरीका के एक प्रसिद्ध अभिनेता हेनरी फोंडा से मिलता है। उसके विनोदप्रिय पिता ने किसी मज़ाकिया पल में उसका नाम मेजर मेजर मेजर रख दिया था। फ़ौज में भर्ती होने पर कम्प्यूटर की गलती से उसके नाम में एक अतिरिक्त ‘मेजर’ जुड़ जाता है और वह उम्र भर के लिए मेजर मेजर मेजर मेजर बन जाता है। सेना में दाखि़ल होते ही ऐसा संयोग होता है कि टुकड़ी का वास्तविक मेजर युद्ध में मारा जाता है और कर्नल कैथकार्ट मेजर मेजर मेजर को स्क्वाड्रन की कमाण्ड सौंप देते हैं। वास्तव में मेजर बनते ही मेजर मेजर (जो केवल दिखने में हीरो जैसा है) घबरा जाता है। उसके बाल्य-जीवन के वे तमाम कड़वे अनुभव, जब उसके सहपाठी उसे ‘मेजर’ कहकर चिढ़ाते थे, उसे एक बुरे सपने की तरह डराने लगते हैं। सेना में भी उसके यूनिट के साथी उसकी गत बनाने का बहाना ढूँढते थे। कभी बास्केटबाॅल खेलते हुए तो कभी किसी और बहाने से उसको टंगड़ी मारकर गिराने में, धक्का देने में या च्युँटियाँ भरने में उन सभी को विशेष आनन्द मिलता है। मेजर मेजर मेजर मेजर को लगता है कि वह इस तरह पदोन्नत होकर अपने मातहत सैनिकों का सामना नहीं कर पायेगा। अपने इस कुण्ठाग्रस्त स्वभाव की वजह से वह अपने सर्जेंट से कह देता है कि जब तक वह आॅफि़स में बैठा है, किसी को अन्दर नहीं आने दिया जाये। सर्जेंट और मेजर मेजर मेजर मेजर के बीच यह दिलचस्प वार्तालाप देखियेः
- आज के बाद मैं नहीं चाहता कि जब मैं यहाँ बैठा हूँ तो कोई भी आकर मुझसे मिले।
- जी अच्छा सर। क्या ‘कोई भी’ में मैं भी शामिल हूँ?
- हाँ
- मगर जब आप अन्दर बैठे हैं तो मैं मिलने आने वालों से क्या बोलूँ?
- बोल देना कि मैं अन्दर हूँ और वे प्रतीक्षा करें...
- जी सर। कब तक प्रतीक्षा करने को बोलूँ?
- जब तक मैं चला न जाऊँ।
- और तब मैं उनसे क्या कहूँ?
- मुझे इस से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
- जब आप यहाँ से जा चुके हों, क्या तब मैं उन लोगों को अन्दर भेज सकता हूँ?
- हाँ।
- मगर तब आप यहाँ नहीं होंगे।
- नहीं।
- जी अच्छा सर।
मेजर मेजर मेजर मेजर से जब कोई मातहत मिलने आता तो वह ऐसे ही उससे मिलने से बच जाता और यदि कोई वरिष्ठ अफ़सर आ धमकता तो वह उसी क्षण खिड़की से कूदकर कहीं छुप जाता है। इसी तरह पूरी कर्तव्यनिष्ठा से वह अपनी नौकरी करता है। मेजर अकेले रहने का इतना आदी हो जाता है कि उसे किसी से भी मिलने-बात करने में कँपकँपी महसूस होने लगती है। नौबत यहां तक आ जाती है कि मेजर अपना भोजन मेस में न करके अपने ट्रेलर में मँगवा लेता है। वहाँ तक आने-जाने के लिए भी उसे अँधेरे का इन्तज़ार अथवा झाडि़यों की ओट की ज़रूरत महसूस होती है। इधर मेजर का ख़ब्त दिनोदिन बढ़ रहा है, उधर योस्सारियन हर उड़ान के साथ और व्याकुल हो रहा है। अब तक वह इक्यावन हवाई मिशन पूरे कर चुका है और उसके बर्दाश्त की हद हो गयी है। योस्सारियन मेजर से मिलकर सर्जेंट की शिकायत करना चाहता है और अपने थका देने वाले काम से अवकाश चाहता है। अनेक प्रयासों के बाद भी जब उसे स्क्वाड्रन कमाण्डर मेजर मेजर मेजर मेजर से नहीं मिलने दिया जाता तो योस्सारियन मामला अपने हाथ में लेने का निश्चय कर लेता है। एक दिन वह झाडि़यों में छुपकर मेजर के इन्तज़ार में घात लगाकर बैठ जाता है। जैसे ही मेजर दबे-पाँव निकलता है वह उस पर छलांग लगाकर पकड़ लेता है और गिरा देता है। इस अनूठे मंज़र की कल्पना कीजिये, मेजर गड्ढे में अस्त-व्यस्त पड़ा है और योस्सारिअन उसे दबोचे हुए ही सैल्यूट करके उससे प्रतिवेदन पेश करने की इजाज़त माँग रहा है। स्क्वाड्रन कमांडर मेजर मेजर मेजर मेजर छटपटा रहे हैं और घिघियाते हुए कहते हैंः
- देखो, मुझे उठने तो दो। मैं यहाँ पड़े-पड़े तुम्हारे सैल्यूट का जवाब कैसे दूँ? मेरी बाँह भी नीचे दबी हुई है...
योस्सारिअन उसे खड़ा होने देता है। मेजर कपडे झाड़ रहे हैं और उनका मातहत योस्सारिअन उन्हें दुबारा सैल्यूट कर अपनी विनती दोहरा रहा है। मेजर अपनी चोट पर दवाई लगाने के बहाने से उसे अपने आॅफिस में चल कर बात करने को कहता है। वहाँ योस्सारिअन को सार्जेंट के पास बैठा, कुछ देर में अन्दर आने देने का निर्देश दे कर मेजर अपनी दिखावटी प्रतिष्ठा को सँभाले अन्दर चला जाता है। अन्दर जाते ही वह दरवाजा बन्द करके लगभग दौड़ता हुआ पीछे वाली खिड़की से उतर कर भागने की चेष्टा करता है। खिड़की से निकलते ही जब मेजर पलटता है तो देखता है, योस्सारिअन वहाँ भी हाथ बाँधे मौजूद है। वह फिर से सैल्यूट ठोंक कर अपना अनुरोध दोहराता है। अन्ततोगत्वा मेजर साहब को उसकी बात सुनने की स्वीकृति देनी पड़ती है। वे दोनों खिड़की के रास्ते भीतर आकर बैठ जाते हैं। बातचीत का निष्कर्ष यह निकलता है की युद्ध के हालात में नीतिगत निर्णय बदलना सम्भव नहीं है। मतलब, कुल मिला के ढाक के वही तीन पात। अक्षम लोगों का महत्वपूर्ण पदों पर काबिज होना और अपने आकाओं का पिट्ठू बनकर किसी तरह दफ्तर में समय काटना, यह पिछली सदी में भी होता था और आज भी होता है। परेशानी इस बात की है कि ऐसे काहिल और नाकारा लोगों के कारण आम आदमी का जीवन नर्क बन जाता है।
इस कालजई उपन्यास का शीर्षक कालान्तर में इतनी प्रसिद्धि पा गया कि आज कैच 22 एक संज्ञा के रूप में उन तमाम विरोधाभासी परिस्थितियों को समझाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है जिनसे किसी करवट पार पाना मुश्किल है। लुई हैस्ले (1974) कैच 22 की समीक्षा में लिखते हैं, हास्य और डर मिल कर इस कृति में एक नाटकीय तनाव पैदा करते हैं जो पुस्तक को हास्य और युद्ध दोनों के विरल संयोजन के क्लासिक के तौर पर स्थापित करती है। इस उपन्यास की बुनावट और शिल्प को समझने के लिए यह सर्वथा उपयुक्त टिपण्णी है।
लेकिन बीसवीं शताब्दी का यह विलक्षण उपन्यास केवल इसलिए याद नहीं रहेगा कि उसमें लेखन का एक अभिनव प्रयोग प्रस्तुत हुआ है वरन इसलिए भी की इसने आने वाली पीढि़यों के लिए महायुद्ध के कारणों की सच्ची तस्वीर पेश की है। प्रथम विश्व युद्ध चार साल तक चलता रहा लेकिन अन्त तक अनसुलझे मसले छोड़ गया। उन्ही मसलों की आड़ में दूसरा विश्व युद्ध छेड़ा गया जो छह साल तक लड़ा जाता रहा। दूसरे विश्व युद्ध ने मानवता को जिस खौफनाक मंजर से गुजरने को मजबूर किया उसके बारे में सोचने पर भी आज इक्कीसवीं शताब्दी में रोंगटे खड़े हो जाते हैं। एक सिरफिरे तानाशाह की जिद के चलते यहूदियों की पूरी नस्ल को दुनिया से मिटा देने का अभियान चलाया गया। लाखों लोग सुनियोजित तरीके से मार डाले गये। और किसी ने उस पागलपन का विरोध करना ज़रूरी नहीं समझा - उलटे उस उन्माद का हिस्सा बन गये. हैरत की बात यह है की आज भी नात्जीवाद को कोसने वालों से बड़ी संख्या उस के अनुयायियों की है। ऐसे विनाशकारी बम बनाये गये जो पूरी मानव जाति को एक पल में राख कर दें। उन भयानक हथियारों का युद्ध के ऐन समापन पर गै़र-ज़रूरी प्रयोग भी किया गया - केवल यह जाँचने के लिए की इसका वास्तविक परिणाम क्या होगा। तब भी माइलो माइंडर बाइंडर नुमा अमरीकी उद्यमशीलता की भत्र्सना कम तारीफ ज़्यादा हुई। सट्टोरियों ने विश्व भर में ज़रूरी वस्तुओं का संचयन कर ग़रीब देशों में एक कृत्रिम अभाव पैदा किया जिसके परिणाम स्वरुप कई लोग भूख और बीमारी से चल बसे। लेकिन इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा क्योंकि आज भी हम वैश्विक व्यापार और पूँजीवाद पर भरोसा करते हैं और कामयाब सट्टोरियों का अनुसरण करते हैं। आज भी तमाम राष्ट्र नित नये हथियारों का परीक्षण संग्रहण कर रहे हैं और जन-साधारण को यह पाठ पढ़ाया जा रहा है कि यह विश्व में शान्ति बनाये रखने के लिए है। इस दौर में हेलर और भी प्रासंगिक हो गये हैं जब वे अपने इस उपन्यास में मानव जाति को कटघरे में खड़ा करते हैं और यह शाश्वत प्रश्न पूछते हैं, कि पागल कौन है?

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