25-Oct-2020 12:00 AM
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कबीर हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। कबीर को साहित्य की मुख्यधारा से जोड़ने में रवीन्द्रनाथ टैगोर और विश्वभारती का अविस्मरणीय योगदान रहा है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के अलावा विश्वभारती के जिन आचार्यों का कबीर को लेकर महत्त्वपूर्ण काम रहा है उनमें क्षितिमोहन सेन, अवनीन्द्र नाथ टैगोर और हजारी प्रसाद द्विवेदी महत्त्वपूर्ण हैं। हिन्दी साहित्य के विद्वान प्रायः सभी रवीन्द्रनाथ टैगोर, आचार्य क्षितिमोहन सेन और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के काम से परिचित हैं, पर अवनीन्द्र नाथ टैगोर के काम से बहुत कम लोग परिचित हैं। अवनीन्द्र नाथ टैगोर आधुनिक भारत के महत्त्वपूर्ण चित्रकारों में से एक हैं। कला को लेकर उन्होंने बहुत कुछ लिखा और बोला है। सर आशुतोष मुखर्जी के बुलावे पर उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के ‘वागीश्वरी व्याख्यान माला’ के तहत 1921 ई. से 1929 ई. के बीच कला से सम्बन्धित 29 व्याख्यान दिये हैं। इन व्याख्यानों में जगह-जगह पर कला को व्याख्यायित करने के लिए कबीर के पदों और विचारों का प्रयोग उन्होंने किया है। इसके अलावा ‘शिल्पी गुरु अवनीन्द्र नाथ’ और ‘भारत शिल्पेर षड़ंग’ शीर्षक पुस्तक में भी जगह-जगह कला को समझाने के लिए उन्होंने कबीर को उद्धृत किया है। इस आलेख में अवनीन्द्र नाथ की उल्लिखित पुस्तकों, लेखों, व्याख्यानों को आधार बनाकर, उसे सम्पादित कर ‘कबीर और कला’ शीर्षक से एक लेख को शक्ल देने का प्रयास किया है। इस आलेख में कबीर के जिन पदों को अवनींद्र नाथ टैगोर ने उद्धृत किया है, उनके अनुवाद करते वक्त हिन्दी में जो पद मिले, उनसे मिलाकर अनुवाद किया गया है और जो पद नहीं मिल पाये, उन्हें मूल बांग्ला के आधार पर हिन्दी में अनूदित किया गया है। अवनीन्द्र नाथ कबीर को सिफऱ् एक कवि ही नहीं मानते थे, कला का भी मर्मज्ञ मानते थे। इसीलिए कला को समझाने के लिए सबसे ज़्यादा कबीर को उन्होंने उद्धृत किया है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है? हिन्दी समाज ने कबीर को कवि और समाजसुधारक के रूप में ज़रूर रेखांकित किया है, पर उनकी कविता का एक पहलू कला भी हो सकता है, ऐसा सोचा ही नहीं है। कबीर के कला-चिंतन को अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने जिस रूप में देखा और रेखांकित किया है, उसे लोगों के संज्ञान में लाना ही इस लेख का उद्देश्य है।
साँझ पड़े दिन बितरे चकोरी दीन्हा रोए,
चलो चकोरा वह देश को जहाँ रैना न होए।
दोनों तरफ चकोर और चकोरी रो-रोकर व्याकुल हैं। कहते हैं कि एक ऐसे देश में चलो जहाँ रात नहीं होती है।
ये पँक्तियाँ सिफऱ् चित्र नहीं, कवित्वगुण सम्पन्न है। कबीर की कविता इसीलिए बहुत अच्छी लगती है। इसीलिए मैंने अपने व्याख्यानों में उनकी कविता के सहारे कई बार अपनी बातों की व्याख्या की है। रवि काका कहते थे, ‘वह तो हुई हम कवियों की बात। तुम अपनी बात कुछ कहो तो सुनें।’
मैं कहता, ‘मेरी बात, चित्रकार की बात सुनकर और क्या होगा?’ वह सब ‘रूपभेदाः प्रमाणानि’ माथे का माप कितना, शरीर का माप कितना, यह सब तो मैं बोलकर छोड़ चुका हूँ। अब और कहने के लिए कुछ नहीं है। आदिम कला की बात कुछ कहना बाकी थी। अध्ययन कर रहा हूँ, कैसे वे कला को देखते थे? किस दृष्टिकोण से देखते थे? तो अब बारी समाप्त हो गयी और कुछ कह नहीं पाया।
देखने का क्या कोई अन्त है? कोई अन्त नहीं।1
तुम हम दो तुम्ब बीच सुर बाजै ताजा ताजा।
उजर कबहि काजर कबहि, रंग रंग नित बाजा।
अन्तः और बाह्य, इन दो तुम्बों के बीच असीम विरह, अनन्त मिलन नये-नये छन्दों में बँधकर वर्ण, गन्ध, शब्द, स्पर्श इत्यादि की विविधता से मानो धूप-छाँव का रूप धारण कर झंकृत हो रहा है, तरंगायित हो रहा है। इसी तरंग, इसी झंकार को छन्द कहते हैं। कवि एवं चित्रकार इस तरंगित, झंकृत रेखा और लेखा की वर्णमाला की वरमाला में बाँध-छाँदकर रूप में रस और रस में रूप का सम्प्रदान करते हैं। अन्तः बाह्य की तरफ और बाह्य अन्तः की तरफ हाथ बढ़ाकर दौड़ा चला आ रहा है, ये दोनों हाथ जहाँ आकर एक-दूसरे के साथ बँध रहे हैं, वहीं पर छन्दमाला दोलायमान है। एक सुर प्राण की तरफ से असीम की तरफ दौड़ा चला जा रहा है, और एक सुर किसी असीम से प्राण की तरफ आना चाह रहा है; इसी दो कूल के, दो सुर के आकुल-व्याकुल जहाँ आकर मिल रहे हैं, वहीं छन्द का शुभ्र तरंग माला का रूप धारण कर ऊपर उठता है और फिर चारों तरफ फ़ैल जाता है। अन्तः की पिचकारी बाहर को रंगती है, बाहर की पिचकारी आकर अन्तः को रंगती है; ये दौड़कर बाहर जाने और भीतर आने के बीच में जो ‘दोल’ और ‘दोललीला’ है, उसी को छन्द कहते हैं।
हमलोग जिस लोक में रहते हैं, उसे ब्रह्मलोक कहा जाता है। यहाँ सबकुछ धूप-छाँव के माध्यम से दिखाई देता है। छायातपयोरिव ब्रम्हलोके। इसलिए छन्द भी छाँद और बाँध रूपी धूप-छाँव के माध्यम से हमारे सामने प्रकाशित होता है। छन्द की छाँव मानो वधू है, जिसका अधिकांश घूँघट में ढँका रहता है और धूप वर है, जिसमें लेशमात्र भी गोपनीयता नहीं होती है। छन्द के धूप-छाँव का यह युगल मिलन और इसके समस्त रहस्यों को हमलोग अपनी आँखों से घर-घर के ‘छान्दनातला’ में वर-वधू को एक-दूसरे के साथ बाँधने की पूरी प्रक्रिया में देखते हैं। छान्दनातला, आच्छादनतला अथवा छन्दस्थली में जो कुछ घटित होता है, उसको छान्दनीनाड़ा कहते हैं। इसका अर्थ है छन्दनी शक्ति को हिलाकर जगाना अथवा छन्द का नाड़ा (मंगलसूत्र) बाँधना।
इस छान्दनातला अथवा छन्दस्थली को घर के आँगन में गृहस्थली के सात महलों को सात छन्दों की दीवारों से घेरकर सजाया जाता है। माथे के ऊपर रहती है खुले आसमान में चाँद की चन्द्रिका, लाखों-करोड़ों ग्रह-उपग्रह के विराट छन्द में दोलायमान; पैर के नीचे पूरे आँगन में फैला रहता है रेखा और वर्ण के छन्द में बँधा कमल और भ्रमर या फिर राजहंस और मृणाल या चकोर-चकोरी के मिलन-विरह की छन्द कल्पना।2
कला का एक लक्षण होता है आडम्बरहीनता। अनावश्यक रंग और तूलिका का कल-कारखाना, दवात-क़लम, गाजा-बाजा वह बिलकुल सह नहीं पाता। एक तूलिका, एक कागज़, थोड़ा-सा पानी, एक काजललता- इतने मात्र से ही पूरब के बड़े-बड़े चित्रकार अमर हो गये हैं। कवि का काम तो इससे भी कम में हो जाता है। कागज़ और क़लम, नहीं तो एकतारा या बांसुरी, वह भी नहीं तो सिर्फ़ गले का सुर। सहज को पकड़ने के लिए सहज फंदा, इसी फंदे को लेकर वे सब चले। कोई सोने का हिरन, कोई सोने के कमल की खोज में। जैसे कि रूपकथा में राजपुत्र की यात्रा हो स्वप्नपुरी की राजकुमारी की तरफ़; साज नहीं, उपकरण नहीं, साथी-सहचर कोई नहीं। अपरिमित रससागर के किनारे अकेले जा खड़े हुए, मनरूपी पाल अच्छी हवा से भर उठा तो किनारा मिला! रूपकथा के सभी राजपुत्रों के इतिहास की चर्चा करने पर देखेंगे- कोई भी ताज़ी घोड़े पर सवार होकर तलाश के लिए नहीं निकले, कोई एक घोड़ा होने से ही वे खुश थे। यह भी शिल्पकला के लिए एक आश्चर्य की बात है कि इन्हीं मामूली चीज़ों पर सवार होकर इस जगत् में जैसा नहीं है, उसी का अविष्कार! माटी का ढ़ेला, पत्थर का टुकड़ा, सिन्दूर, काजल यही सब असीम रस और रहस्य का आधार हो जाता है। रस की तृष्णा और शिल्प की इच्छा जिसके भीतर जगेगी, वह तो किसी आयोजन की अपेक्षा करेगा नहीं; जैसे भी हो, अपना उपाय वह स्वयं कर लेगा; इसे छोड़कर और कोई बात नहीं। एक दिन कबीर ने देखा- एक व्यक्ति चमड़े की थैली में भर-भरकर नदी से शहर में पानी ला रहा है! उस व्यक्ति को भय है कि किसी तरह नदी सूख न जाये! यह विशाल पृथ्वी नीरस हो गयी है इसलिए वह रस बाँटना चाह रहा है। कबीर ने उस व्यक्ति को पास बुलाकर उपदेश दिया-
पानी पियावत क्या फिरो, घर-घर सायर-बारी।
तृष्णावन्त जो होएगा, पिवेगा झख मारी।।
यह आयोजन क्यों, जब घर-घर में रस का सागर है? तृष्णा के जगने पर वे स्वयं उत्तरदायी होकर अपनी तृष्णा को मिटाने का उपाय कर लेंगे।
मूल बात है रस की तृष्णा; शिल्प की इच्छा हुई या नहीं, उपयुक्त आयोजन हुआ या नहीं- शिल्प के लिए या रस की तृष्णा को मिटाने के लिए यह बिलकुल सोचने का विषय नहीं है। विश्व भर में इस तृष्णा को मिटाने के लिए शिल्प-कर्म, उसकी प्रयोग विद्या और उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म उपदेश, नियम-कानून आदि इतनी अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं कि किसी मनुष्य के लिए यह सम्भ्व नहीं कि वह उसका आयोजन कर सके। शिल्प को, रस को पाने के लिए आयोजन का थोड़ा-सा भी अभाव है, ऐसा अपनी आदिम अवस्था में, असहाय अवस्था में भी मनुष्य ने नहीं कहा; उल्टा प्रयोजन होने पर आयोजन का कभी अभाव नहीं हुआ- इसी को उन लोगों ने हिरन का सिंह, मछली के कांटे की बटाली, पत्थर की छोटी-सी छूरी, थोड़ा-सी गेरुवा मिट्टी, इन्हीं सबका इस्तेमाल करके, विभिन्न तरह के नक़्शे, विभिन्न शिल्पकला की रचना से प्रमाणित किया है। इसके न होने से नहीं होगा, उसके न होने से नहीं चलेगा, शिल्प की दृष्टि से ऐसा वही कहता है, जिसकी जि़न्दगी शिल्प के बिना भी किसी तरह से चल जाती है। आदिम शिल्पकार के सामने तो सिफऱ् विश्व भर का ये रस-भण्डार खुला था, कुर्सी भी नहीं थी, टेबल भी नहीं थी, डिग्री भी नहीं, डिप्लोमा भी नहीं था; यहाँ तक कि राष्ट्रीय शिल्पकला की गैलेरी तक नहीं थी फिर किस तरह उन्होंने उस पर अपना अधिकार स्थापित किया? मैं अंकन कर रहा हूँ, मेरा नाती बगल वाले कमरे में बैठकर अंकगणित हल करने में लगा है, इसी तरह से चल रहा है। अचानक एक दिन नाती आकर बोला, ‘दादाजी बिल्ली नहीं होती तो आपको बड़ी दिक्कत होती, यदि बिल्ली के रोवें की तूलिका नहीं होती, आपका चित्र भी नहीं होता।’ तर्क शुरू हुआ। ‘घोडे की पूँछ काटकर तूलिका बनती।’ ‘अगर घोड़ा नहीं होता?’ ‘पक्षी के पंख उखाड़ लेता।’ ‘पक्षी नहीं मिलता तो ?’ ‘अपने माथा के बाल को नोच लेता।’ ‘लेकिन आप तो गंजे हो।’ नाती के गाल पर अँगुली से कोंचते हुए मैंने कहा, ‘दस अँगुलियों में से किसी एक को लेकर।’ नाती के रावण-वध की कोशिश को देखकर मैंने कहा, ‘इससे न हुआ, तो ये देख रहे हो भोथरी तूलिका!’ कहकर मैंने भी मुक्का उठाया। दादाजी के आयोजन को देखकर नाती हार मानकर चला गया।
काम की घानी में जुटा हूँ, घानी पीस रहा हूँ, लेकिन स्नेह रस जो निकाल रहा हूँ, उसकी एक बूँद भी मेरे पास नहीं आ रही। रसालाप का अवसर भी नहीं है, रस की तृष्णा मिटाना, शिल्प का लाभ ये सब तो बाद की बातें हैं।
कर्म जगत् का मोटे लोहे की राड वाला भयंकर लेकिन सचमुच का यह बेड़जाल सिफऱ् हमलोगों पर दवाब नहीं डाल रहा, सारे मनुष्य इससे बँधे हुए हैं। ईख को डण्डा समझकर उसे चबाने की ग़लती तो नहीं की जा सकती। कर्म में लीन न होने से संसार नहीं चलता, और कर्म में लीन रहें तो रस दूर रह जाता है। इसका कुछ उपाय है?
रस पाना चाहता हूँ, तब क्या रस में अपने आपको, अपने सारे काम-धाम, इस संसार को बहा दें? फूल की गन्ध्ा से मन मतवाला है, तब क्या फूल के बगीचे में जाकर बस जाएँ? धान का खेत, धन की चिंता सब छोड़कर? कबीर बोले, पागल हो क्या !
बागों में ना जा रे ना जा
तेरी काया में गुलज़ार।
‘उस बगीचे में मत जाओ दोस्त, फूलों का वन तुम्हारे भीतर ही विद्यमान है!’ शरीर के अन्दर ही तो प्राण बसता है, बाहर रहे न कर्म का जंजाल। पिंजरे में रहकर क्या पक्षी गाना नहीं गाता? उसको क्या फूलों के वन में गाने के लिए जाना पड़ता है? जो उस्ताद होता है, वह घानी की चाल के ताल के साथ ही गाता रहता है, उसे किसी और संगत-सुयोग की ज़रुरत नहीं होती-
मृगा पास कस्तूरी बास,
आपन खोजै खोजै घास।
लेकिन कस्तूरी का व्यवसाय करने पर, दाना-पानी का उपाय छोड़ देने से जब जीवन सूख जायेगा तब क्या होगा? कहाँ रहेगा तब रस? कहाँ रहेगा तब शिल्प? रस नहीं रहे, जीवन तो है बहुत सारा। पहले जीवन, जो सब रस का मूल है, उसे तो बचाना चाहिए। इसके ऊपर कोई बात नहीं चलती। लेकिन आज के ज़माने में यदि शहर के बीच खड़ा होकर फुटपाथ के पत्थर से दबा शिरीष का पेड़ फूल खिला सकता है, तो मनुष्य उस तरह खिल नहीं सकता, क्या यह भी कभी सम्भ्व है? चेरी का फूल जब खिलता है, तब जापान के सारे लोगों का मन भी खिल उठता है, छुट्टी लेकर, सारा काम छोड़कर लोग उस तरफ़ दौड़ते हैं। उससे तो कोई उन्हें अकाज़ी कहने की हिम्मत नहीं करता? पेट भी उसका यथेष्ट भर रहा है। पहले हमलोगों के भी बारह महीने में तेरह पर्व होते थे, लेकिन उस ज़माने में काम में भी अनुपस्थिति नहीं होती थी और जीवन में भी कोई कमी नहीं रहती थी, शिल्प भी नहीं, शिल्पकार भी नहीं। रस भी नहीं, रसिक भी नहीं। आलसस्य कुतो शिल्पः? निश्चय ही हम लोगों के अभी के जीवन का कोई एक कलपुजऱ्ा बिगड़ गया है, जि़न्दगी बुरी तरह से लंगड़ा गयी है, शरीर खट रहा है, लेकिन मन अवश और आलस्य से बैठा हुआ है! मलेरिया के मच्छर के साथ माँ लक्ष्मी के उल्लू का झुण्ड भी यदि हमारे घर आकर बस जाता तो शिल्पकार होना हमारे लिए ज़्यादा आसान होता या नहीं इस प्रश्न पर विचार करना उल्लू के पंखों से बने गद्दे पर बैठकर मेरे लिए शोभा नहीं देता। लेकिन इतिहास का साक्ष्य तो मानना पड़ता है। शिल्पकार ‘जिसे छू देता है, वही सोना हो जाता है।’ फिर भी बेचारा अपने बच्चों का शरीर सोने से कभी ढँक नहीं पाता ! ताजमहल के पत्थर को जिन्होंने तराशा - शीशे की तरह चमकदार, दूध की तरह सफ़ेद, मोती से भी ज़्यादा लावण्ययुक्त करके उसके गुम्बज को गढ़ा, दीवार के ऊपर अमर देश की पारिजात लता को जिस निपुण माली ने चढ़ाया, उन्हें रोज कितनी मज़दूरी मिली थी? पूरा भोजन न मिलने पर भी उनका शिल्प-कर्म कहाँ म्लान हुआ? दस-ग्यारह वर्ष ताजमहल को पूरा करने में लग गया था; सबसे अधिक तनख़्वाह जिन उस्तादों को दी गयी थी, वह एक हज़ार रुपये प्रति माह से अधिक नहीं थी; इसमें से बादशाही ज़माने के ओहदेदारों का पेट भरने के बाद कारीगरों को रोज़ कितना मिला, इसका हिसाब लगाने से ही पता चल पायेगा कि शिल्पकार और शिल्प के साथ संपत्ति का सम्बन्ध कैसा है। शिल्पकार होने या न होने के साथ मलेरिया होने का ज़्यादा सम्बन्ध है नौकरी होने न होने से, मैं यही देख पा रहा हूँ। जीवन की रक्षा के लिए जिसकी ज़रुरत है, जीवन उसे गर्दन पकड़कर हम लोगों से ज़रूर करा लेगा, छोड़ेगा नहीं, उसका दबाव और उत्पीडन भयंकर है।... फिर भी लगता है, इस यान्त्रिक जीवन-यात्रा में थोड़ा-सा रस, थोड़ा-सा शिल्प-सौन्दर्य अगर नहीं प्रवेश पा सके तो जीना असम्भव है। सिर्फ़ प्राण जा रहा है यही नहीं, शिल्पकार के रूप में भारतीयों का जो सम्मान था, वह भी चला जा रहा है।...
रस के साथ कार्यबद्ध मनुष्य के परिचय एवं परिणय को स्थापित करने की क्या कोई आशा नहीं है? क्यों नहीं रहेगा? कार्यक्रम हमें ही बाँध कर पीड़ा दे रहा है और कवि, शिल्पकार, रसिक-ये सब इस कर्म जगत् से बाहर किसी और जगत् में विचरण कर रहे हैं, ऐसा तो नहीं है। अथवा जीवन-यात्रा की ईख पेरने वाली मशीन से जल्दी-जल्दी भागने का उत्साह तो कवि, शिल्पकार में ज़्यादा दिख नहीं रहा है! फिर वे लोग कैसे जि़न्दा हैं? कबीर का काम था, सारा दिन ताँत बुनना, आॅफि़स में बैठकर क़लम चलाने या पाठशाला में बैठकर पढ़ने-याद करने से इसका बहुत कम ही अन्तर है। ताँत बुनने और माकू ठेलने का काम छोड़कर कबीर को पेट चलाना मुश्किल था। हम लोगों को भी क़लम चलाकर घर-संसार चलाना पड़ता है। रस का सम्बन्ध माकू के ठेलने से जितना है, उतना ही क़लम के चलाने के साथ भी, कबीर सिफऱ् स्वाधीन जीविका के द्वारा रुपये कमाते, इच्छा के सुख के चलते माकू को ठेलते, आनन्द के साथ काम करते रहते और हम लोग आजकल काम करते-करते झुक गये हैं, फिर भी काज़ी गर्दन पकड़कर कह रहा है- कर, कर तू और काम कर, नहीं तो बखऱ्ास्त कर दिया जायेगा। कबीर की ताँत कबीर को ‘बर्खास्त’ करने की बात नहीं कह सकी। यही जो कबीर की इच्छा के सुख के लिए ताँत बुनने का रास्ता था, उसी के किनारे उनके कल्पवृक्ष ने फूल खिलाया था। यही इच्छा सुख की मुक्ति कवि, शिल्पकार, गायक गुणी सबको बचाकर रखती है। पैसे का सुख नहीं अथवा काम-धाम छोड़कर भरपूर आराम भी नहीं।3....
हम लोगों को लगता है, सृष्टिकर्ता ने किसी मनुष्य को रस का सम्पूर्ण अधिकारी बनाकर भेजा है, किसी को बिलकुल खाली। ये क्या कभी हो सकता है? ‘रसो वै सः’ बोलकर जिन्हें ऋषियों ने पुकारा, वे क्या प्रवंचक हैं? राजा की तरह किसी को क्षमता दी और किसी को अक्षम बनाकर रखा, जो सारे शिल्पकारों में श्रेष्ठ हैं, उनका क्या ऐसा कारखाना होगा? किसी को सृष्टि का रस मिलेगा, सृष्टि के शिल्प का अधिकार मिलेगा और दूसरे को कुछ नहीं मिलेगा? इतनी बड़ी भूल सिफऱ् वही मनुष्य कर सकता है, जो अपने दोष से ख़ुद वंचित होकर विधाता को दोषी ठहराता है। इसीलिए जब कबीर के पास जाकर किसी ने बोला, प्राण चला गया, रस मिला नहीं। कहाँ जायें? क्या करें? किस दिशा में आकाश का सूर्य सबसे अधिक रोशनी देता है? किस सागर का पानी सबसे ज़्यादा नीला, साफ़ है, अनिंद्य सुन्दर, उसने किस वन में घोसला बनाया है, रस किस पाताल में छिपा हुआ है? बता दीजिये, क्या उपाय करें?’ कबीर अवाक् होकर बोले-
पानी बिच मीन पियासी
मोहिं सुन सुन आवै हांसि।
कभी-कभी घर के अन्दर रहते हुए भी अचानक नींद में लगता है कि दरवाज़ा कहीं खो गया है, उत्तर या दक्षिण किसी भी दिशा में नहीं मिल रहा है। रस में ही डूबा रहता है, हम लोगों के रस का पता, शिल्प के बाज़ार में बसता है शिल्प के लाभ का उपाय, यह भी कुछ उसी तरह का है।
पत्थर की रेखाओं में बँधा हुआ रूप, चित्र के रंगों में बँधी हुई रेखा, छन्द में बँधी वाणी, सुर में बँधी बात, शिल्प, ये सब कुछ उसी की निर्मिती को पकड़कर प्रकाशित हो रहा है, जो रस दिन-रात झर रहा है; अखण्ड रस के ये सब छोटे-छोटे टुकड़े हैं, एक किरण से प्रज्वलित हज़ार दीये, एक शिल्प का विविध प्रकार! इसका अधिकार प्राप्त करने के लिए किसी आयोजन, किसी भी शास्त्र चर्चा की ज़रुरत नहीं पड़ती। कर्म जगत् के बीच में ही रस झर रहा है, आनन्द का झरना, प्रकाश का झर; उसकी गति, छन्द, सुर, रूप, रंग, भाग अनन्त हैं; और कहाँ जाएँ, शिल्प को सीखने के लिए, उसको जानने के लिए?4...
कर्म की दृष्टि मनुष्य के स्वार्थ को दृष्टव्य के साथ जोड़कर देखती है और भावुक की दृष्टि बहुत हद तक निःस्वार्थ भाव से सृष्टि की सामग्री को स्पर्श करती है। काम वाला व्यक्ति देखता है कि कैम्बिश या तो पर्दा या बैग अथवा जहाज का पाल प्रस्तुत करने के लिए उपयुक्त है, लेकिन भावुक इस मज़बूत कपड़े को एक चित्र से भर देने के लिए उपयोगी समझता है। सफ़ेद पत्थर, कर्म की दृष्टि कहती है, उसे जलाकर चूना बना डालो, भावुक की दृष्टि कहती है, उसे एक मूर्ति बना लेना सही होगा। निर्मम स्वार्थ दृष्टि, कर्म की आँख से साधारण मनुष्य बलि के बकरे की तरह खिले हुए फूलों की नली अपनी मुट्ठी में पकड़कर, बगीचे से उन्हें उखाड़कर पूजा-घर ले जाता है, और भावुक जिस दृष्टि से फूलों की तरफ़ देखता है, उसमें स्वार्थ का भार इतना कम होता है कि तितली या मधुमक्खी के पतले पंखों का अत्यन्त लघु और अति कोमल स्पर्श भी उसके सामने हार मान जाये। ...भावुक की दृष्टि किसी हद तक निःस्वार्थ, निर्मल होती है, फिर भी कितने आश्चर्यजनक रूप से घनिष्ठता से फूल को उसने देखा, ये भावुक की रचना में ही मिलता है-
चल चल रे भौंरा कँवल पास
तेरा कँवल गावे अति उदास
खोज करत वह बार बार
तन बन फूल्यो भार भार।5
रोज़ संध्या बेला की हवा खुले मैदान में सेवन कर और मन्दिर में जाकर शंख-घण्टे की आवाज़ सुनकर हमलोग पोथी में लिखी हुई त्रिसंध्या के मन्त्रों से थोड़ा-सा भी अधिक देख-सुन नहीं पाये। लेकिन कबीर दो पंक्तियों में सारे संध्या के प्राण को एक मुहूर्त में हमलोगों की तरफ खींच लाये-
साँझ पड़े दिन बितरे चकोरी दीन्हा रोए,
चलो चकोरा वह देश को जहाँ रैना न होए।
ये किस अगम्य देश की ख़बर आ पहुँची! रात्रि के उस पार युगल तारा के राज्य में जाने का करुण भाव से आमन्त्रण, भीरु पक्षी के गले का सुर पकड़कर यह कौन चिर-मिलन की वाणी अन्धकार से होकर उनके पास आ पहुँची, जो देखकर भी नहीं देखती, सुनकर भी नहीं सुनती, पकड़कर भी नहीं पकड़ पाती?
जिस दृष्टि से संध्या का अन्धकार, रात्रि की कालिमा हमारे मन में सिफऱ् शंका और संशय बुद्धि ही जागृत करता है, भावुक की दृष्टि क्या उतनी ही साधारण दृष्टि होती है? या फिर उसको ध्यान से सुनकर, परखकर, चाहकर, छूकर देखना? यह जो भावुक की, कवि की, शिल्पकार की दिव्य दृष्टि है, वह अन्धकार में भी प्रकाश को देखती है, दुःख के स्पर्श में भी आनन्द महसूस करती है, असीम स्तब्धता के भीतर भी सुर खोज लेती है -
तिंविर साँझ का गहिरा आवै, छांवै प्रेम मन-तन में।
पच्छिम दिग की खिड़की खोलो, डूबहू प्रेम-गगन में
चेत-कँवल-दल रस पीयो रे, लहर लेहु या तन में।
संख घंट सहनाई बाजै, शोभा-सिन्ध महल में।
साँझ का अँधेरा बढ़ा, अँधेरे के प्रेम में तन-मन को आवृत्त करके प्रकाश जिस दिशा से लुप्त हो रहा है, उस दिशा का दरवाज़ा खोलो, इस संध्या के अन्धकार की तरह विस्तृत प्रेम में निमग्न हो, चित्त-कमल रात्रि के रस का पान करे, अतल अँधेरे की प्रेम लहरी चित्त से जुड़े, चित्त में समाये, सीमाहीन गहराई में आरती का शंख और घण्टा बजता रहे, मिलन की बाँसुरी, अंधेरे-समुद्र में अपरूप रूप प्रकाशित हो।
मानो नये तरीके से देखकर, सुनकर, छूकर विश्व के चर-अचर के साथ हृदय आकर मिलना चाह रहा है। पहले मनुष्य के बाहरी हिस्से को उसकी बुद्धि और इन्द्रियों के माध्यम से यन्त्र के द्वारा पकड़ने की कोशिश की जाती थी, अब मनुष्य का अन्तः भाग बाह्य से मिलने चल पड़ा - हाथ पर हाथ रखकर, आँख से आँख मिलाकर, गले मिलकर बाहर से अन्दर आना और फिर बाहर निकलकर चले जाना। इसी का छन्द भावुक मनुष्य के जीवन में आविष्कृत हुआ।6
कला की दृष्टि से सिफऱ् यौवन ही सुन्दर है, बुढ़ापा नहीं, प्रकाश ही सुन्दर है अन्धकार नहीं, सुख ही सुन्दर है दुःख नहीं, साफ़ दिन ही सुन्दर है बादल से घिरा दिन नहीं, बारिश की नदी ही सुन्दर है, शरत की नहीं, पूर्ण चन्द्र ही सुन्दर है अद्र्ध चन्द्र नहीं - ये बात कोई नहीं कह सकता। जो कलाकार बिलकुल नहीं है, सिफऱ् वही विच्छिन्न और खण्ड-खण्ड में एक आदर्श सुन्दर की कल्पना कर सकता है। कबीर कलाकार थे, इसीलिए उन्होंने कहा था, ‘सबहि मूरत बिच अमूरत, मूरत की बलिहारी।’ जो श्रेष्ठ कलाकार है, उसमें ये देख रहा हूँ, अच्छी-बुरी सब मूर्तियों में अमूर्ति ही विद्यमान होता है! ‘ऐसा लो नहिं तैसा लो, मैं केहि विधि कथौं गम्भीरा लो।’ सुन्दर जो असुन्दर में भी है, यह गम्भीर बात समझाकर बोलना कठिन काम है, इसीलिए कबीर एक ही बात में सभी तर्कों को समाप्त करते हैं, ‘विछुरी नहिं मिलिहो।’ अलग होकर उसको खोज पाना सम्भव नहीं। लेकिन ये जो सुन्दर की अखण्ड धारणा कबीर को मिली, उसके मूल में किस भाव की साधना थी, यह जानने के लिए मन सहज ही उत्सुक हो जाता है। इसका उत्तर कबीर ने जो दिया था, उसके साथ सारे कलाकारों का एक को छोड़कर दूसरा कोई मत नहीं है -
‘सन्तों, सहज समाध भली।
साईं ते मिलन भयो जा दिन ते सुरत न अन्त चली।
आँख न मूँदूँ, कान न रूँन्धूँ, काया कष्ट न धरूँ।
खुले नैन में हँस हँस देखूँ, सुन्दर रूप निहारूँ।’
सहज समाधी ही अच्छी है। हँसकर देखो, सब सुन्दर है। जिसके मन में हँसी नहीं, उसकी आँखों में भी सुन्दरता नहीं होती। जिसके प्राण में सुर है, विश्व के सारे सुर-बेसुर, विवादी-संवादी, सभी उसके मन में सुन्दर गीत के रूप में एक-दूसरे से मिल जाते हैं।7
नियति के नियम के अनुसार जो फूल-पत्ते के वेश में सज-धजकर आये, रंगीन पंखों को फैलाकर नाचते-गाते रहे, कोई भी इस विश्व संसार के रचयिता का दावा नहीं कर पाये, सिफऱ् कलाकारों को छोड़कर जिन्होंने सपना देखा और उस सपने को साकार किया। पंछी रचयिता होने का दावा नहीं कर पाया, किन्तु धरती पर बैठकर आकाश के पंछी को पकड़ने का फंदा जिस मनुष्य ने रचा उसने ये दावा किया, नियतिकृत नियम से परे जो नियम है, उसे जिन्होंने अपनी सारी रचनाओं में पग-पग पर प्रमाणित किया, वे ही रचयिता होने का दावा कर सके। कबीर ने इसलिए कहा- ‘भरम जंजाल दुःख-धंध भारी’ भ्रान्ति के जंजाल को दूर करो, उससे दुःख-दीनता और घोर संशय होता है ‘सत्य दावी गहो, आप निर्भय रहो’ तुम्हारा जो सत्य का दावा है, उसे ही ग्रहण करो, निर्भय रहो।8
शिल्प को जानने के लिए जहाँ से केवल मत निकलता है, सिफऱ् उसी पाठशाला में जाने से हमलोगों का काम नहीं चलेगा। ऋषि और कवि और जो मन्त्रद्रष्टा हैं, उनके पास चित्रविद् को जाना पड़ेगा। इसका उत्तर चमत्कारिक रूप से कबीर ने दिया है-
जिन वह चित्र बनाइयाँ, साँचा सूत्र धारी।
कहहि कबीर ते जन भले, चित्रवंत लेहि विचारी।
जो इस चित्र के रचयिता हैं, वे ही सच्चे सूत्रधार हैं; वही श्रेष्ठ हैं जो चित्र के साथ चित्रकार का भी विचार कर लेते हैं।9
आज वही कलाकार है जो नित्य जीवन-यात्रा से स्वतंत्र है, उसके अतिरिक्त जिसके पास कुछ है। पहले लेकिन ये भाव नहीं था। बरसात के समय खेतों की तरफ देखकर किसान गा रहा है-
गगन घटा गहरानी साधो, गगन घटा गहरानी।
पूरब दिस से उठी है बदरिया, रिमझिम बरसत पानी।
आपन आपन मेंड सम्हारो, बह्यो जात यह पानी
सूरत-निरत का बेल नहायन, करै खेत निर्वानी।
पूरब दिशा में घने बादल छा गये, रिमझिम बारिश होने लगी, खेतों के मेढ़ को सम्भलो भाई, वह देखो पानी बहा जा रहा है। दो लताएँ- अनुराग और विराग, आज उन दोनों लताओं को उस रसधारा में भिगो लो, इस तरह की खेती करो, जिसमें अबाध मुक्ति की फ़सल उगे। इस खेत की फ़सल को काटकर जो अपने घर में रख सकता है, उसे ही तो कुशल किसान कहते हैं।
उस ज़माने में कला किसमें है, किसमें नहीं है, ये सुनिश्चित करने अथवा विविध कला विद्या की संख्या निर्धारित कर चैंसठ की संख्या में ही उसे सीमित रखना, वे नहीं चाहते थे।10
अबिनाशी दूल्हा कब मिलिंहौ, आदि अन्त कमाल।
जल उपजी जल ही सौं नेहा, रटत पियास पियास।
सेईं ठाढ़ी बिरहिल मग जोऊं, प्रियतम तुमरी आस।
छोड़े गेह नेह लगि तुमसों, भई चरण लवलीन।
ताला-बेलि घट भीतर, जैसे जल बिन मीन।
जिसका आदि नहीं अन्त नहीं, उसी अपरिसीम परिपूर्ण समुद्र के साथ मिलना चाहता है जीवन। जल के तरंग का प्रेम जल से ही है, जल के लिए न जाने कितनी प्यास उसके भीतर है। सागर विरहिणी नदी हमेशा पथ निहारती रही, अपने प्रियतम की आशा में। सागर के प्रेम में नदी ने अपना घर छोड़ा, सागर के ध्यान में नदी स्वप्न में मग्न रही, पानी-पानी पुकारकर उसकी अन्तरात्मा बिन पानी की मछली की तरह कातर हो गयी।
जिसको कभी नहीं देखे, उसकी कल्पना से मन नये-नये रूप की सृष्टि करता रहता है और जिसको देख लिया मन उसकी स्मृति से नये-नये रस का आनन्द लेते हुए एक ही स्मृति को नाना भाव से विभिन्न रूप में देखता रहता है। कल्पना की क्रिया और स्मृति की गति, दोनों का कार्य एक को ही अनेक रूप में देखना है- कल्पना देखती है रूप की दृष्टि से विभिन्न एवं अनेक और स्मृति देखती है भाव की दृष्टि से विभिन्न एवं अनेक। अज्ञात रूप की कल्पना और ज्ञात रूप की स्मृति, यही दो पथ हैं, रूप जगत् के यात्री शक्तिमान मनुष्य के सामने यही होता है और इन दो पथों की ख़बर इनसे पायी जा सकती है।11
सन्दर्भ ः
1. रानी चंद, शिल्पी गुरु अवनीन्द्रनाथ, विश्वभारती ग्रंथम विभाग, कोलकाता, अगहन-1406 ( नवम्बर, 1999), पृष्ठ सं.-81
2. शिल्प, विश्वभारती ग्रंथन विभाग, कोलकाता, 2016, पृष्ठ-134 (अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, भारतशिल्पेर षडंग)
3. अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, वागीश्वरी शिल्प प्रबंधावली, रूपा एंड कंपनी, कोलकाता, जनवरी, 1996, पृष्ठ- (14-18)
4. वही, पृष्ठ- (20-21)
5. वही, पृष्ठ- (39-40)
6. वही, पृष्ठ- (42-44)
7. वही, पृष्ठ- (82-83)
8. वही, पृष्ठ- 99
9. वही, पृष्ठ- 120
10. वही, पृष्ठ- (124-125)
11. वही, पृष्ठ- (271-272)