कलि का छला कवि शिरीष ढोबले की कविताएँ
29-Dec-2019 12:00 AM 5867
कथाः एक समय
एक स्वर, शायद निषाद
अपने पूरे वैभव के साथ
उड़ता था गगन मण्डल में।
एक आत्मा पथरा गयी आँखों से
बाट जोहती थी पुनर्जन्म की।
एक वीणा बन कर
होती ही नहीं थी पूरी
किसी तरह कारीगर से।
वर्ष बीत रहे थे दिनों की तरह
ऋतुएँ पृथ्वी पर पहुँच ही नहीं पाती थीं
अपने क्रम से।
फिर सारा भ्रम
सारा कोलाहल
मृत्यु के काँधो पर आ पड़ा था
सुलझाने के लिए।

एक घने वृक्ष की छाया
1.
कँपकँपाती है अपनी परिधि पर
लरजती है
वसुन्धरा पर कोहरा उडे़लते
आकाश के अन्तरंग उच्छवासों से
समीर शिथिल ही सही
कभी-कभी
वृक्ष को दिलासा देता है कुछ
आदिम प्रणय की सृष्टि
व्योम की सिलवटों में
तिरोहित हो जाती है
पत्तियाँ झुलस जाती हैं
समीर तपता जाता है
पृथ्वी करवट लेकर
सो जाती है और
आकाश बदल जाता है।
2.
एक घने वृक्ष की छाया से
टूटती है दो पक्षियों की छायाएँ
किसी दूसरे वृक्ष की छाया में गुँथी हुई
किसी शाखा की छाया से
जा मिलती हैं।
वह शाखा, वह छाया
लरजती है, काँपती है कुछ देर
फिर ठहर जाती है भोर तक
यही ठहरना
बना रहता है
छायाएँ विलीन होते-होते
वृक्ष को, पक्षियों को
रात के भरोसे
छोड़ देती हैं।
 
कलि का छला कवि
(कमलेश के लिए)
कलि का छला कवि
सर्प-विष से काला पड़ा हुआ
भटकता है निर्वसन वन में
उसके वाक्यों से झरती है
सारे युगों की करुणा
फिर धीरे धीरे छन्द आता है
जीवन में
कलि का वमन धीरे धीरे।
पर यह तो देह है जो उजली हो रही है
विदग्घ मन
चिटकता, धुँधुआता
वैसा ही रह जाता है
चिता की ज्वाला तक
 
रात्रि का व्याप
रात्रि का व्याप
केवल ओढ़ी हुई चादर जितना
या उससे भी कम
शायद स्वप्न इतना
मेरी प्रभात लेकिन
पसरती है वसुन्धरा के भी पार
उसकी ही चूनर हो जैसे
देह को ढँक ले जितनी
उससे अधिक हो जैसे
स्वप्न नहीं रहते, बिखर जाते हैं
फटी झोली से चावल के दाने हों जैसे
प्रभात को छीन लेते हैं देवता
आततायी हों जैसे
एक कृश और वृद्ध भिक्षुक
जब तक आ जाता है द्वार पर
अपनी काठी बजाता देहरी पर
याचक नहीं हो
दाता हो जैसे।
 
देवताओं द्वारा . . .
देवताओं द्वारा
शापित, उपेक्षित
एक शब्द
वर्षा से भीगी
दूब पर
पड़ा रहता है
उसके स्वप्न में
एक कागज़ है
बिखरी हुई
स्याही से
लथपथ !
 
करुणा उपजती है
करुणा उपजती है
गाय की भीगी आँख देख कर
आँख भीगती है
अकेला छूटा, छोटा, थोड़ा
कटा-फटा जूता
दोपहर की सूर्यशप्त सड़क पर देख
ऋग्वेद पढ़ रखा हो तब भी
गीता कण्ठस्थ हो तब भी
उपजती तो है।
 
स्पर्श
स्पर्श
अचानक हाथ पर था
पानी से
घुलता नहीं था
छूटता नहीं था
जैसे आत्मा पर हो
अभी
सुगन्ध का कौतुहल
तो शुरू भी नहीं
हुआ था।
 
असंख्य
असंख्य
अनन्त
अपने खुले किवाड़ लेकर
बस जाते हैं
एक अन्तहीन गलियारे में
अनन्त धैर्य
की कामना
करता
अधीर मन
अधीर प्राण
झाँकता है
हर
द्वार
के
पार
 

शून्य
वसुन्धरा के शून्य पर
पसरता है महासागर का शून्य
ब्रह्माण्ड के शून्य में बसा
एक गवाक्ष से झाँकता है
ईश्वर का शून्य
उसके शून्य मुख पर
उभरता है एक स्मित का शून्य
शून्य फिसलता है
तट की रेत के शून्य पर
अक्षौहिणी सेना
का शून्य जैसे
निकला हो वहाँ से
वैसे पदचिह्न
एक अनन्त शून्य श्ाृंखला
 

लौटती लहर
देखने और छूने में
कोई अन्तर न हो
कैसे तुम्हे कभी किसी संयोग से,
नक्षत्रों के योग से
देख सकूँ
छू सकूँ...
लौटती लहर महासागर की
रेत पर निर्झर स्पर्शों से
बुनी चादर जैसी पसर जाए
या कभी
तुम्हारे पदचिह्नों को
जान कर कोई द्वीपमाला
एक क्षण रुक कर अधिक
प्रतीक्षा और उद्वेग की
ऐंठन सुलझाती चले
किसी संयोग से
नक्षत्रों के योग से।
यहाँ
 
स्मृतियाँ
फेरे करती है,
भरती है
गगन गुफा से झरती है
कभी तितलियों की तरह ठहरती है,
डसती है कभी
और ऊब कर
या शायद
निर्णय कर मुहुर्त का
सिमट जाती है
समेट लेती है लीला
इतनी हो जाती है विरल
कि आत्माएँ उनकी गन्ध के साक्ष्य से ही
अपनी डगर जाती हैं
विस्मृति के चैराहे पर
सब कुछ हो जाता है तिरोहित,
जीवन जाता भी नहीं
और मृत्यु
आ चुकी होती है
 

अखण्ड
अखण्ड
छवियाँ
अनन्त
स्पर्श
शब्द नाद अनवरत
रति
विलाप
आह्लाद
विषाद
विरह की गन्ध
इतनी मदिरा भरती है
देह प्राण में
इस बेसुध गठरी को
सधे हाथों से
उठा लेती है
मृत्यु
 

हर अन्त में
हर अन्त से
कहीं किसी कथा का
एक अंश पृष्ठ से
अदृश्य हो जाता है
हर आरम्भ थोड़ा ठिठक जाता है
इतना भ्रम फैलता है
दसो दिशाओं में
कि एक पात्र
अपरिचित गली में
ढूँढ़ता फिरता है अपना घर
हर अन्त के साथ
वह सब कुछ जो
अब तक बचा हुआ है
थोड़ा-थोड़ा झर जाता है
थोड़ा-थोड़ा मर जाता है
पृथ्वी थोड़ी और अनाथ हो जाती है
घुड़साल से
कटे पड़े धान से, अन्तःपुर से
पहाड़ से उपजता
विलाप
कानों में पड़ता है
 
जब महासागर
जब महासागर से
निष्कासित चन्द्र की छाया
और उसकी चन्द्रिका
ठहरती है रेत पर
अन्धकार के ताप में तपता है जल
और विचलित चन्द्र भेजता है
अनगिनत निष्फल संदेश
यह वह यामिनी है
जब विरह उपजता है
पृथ्वी के पोर-पोर से
रार से बचता सूर्य
देर से आता है आकाश पर
दिन भर मेघ की चादर ओढ़ बैठा रहता है
और समय से पहले लौट जाता है
यह वो दिन है
जब पृथ्वी का गला रूँधता है बार-बार
एक अपूर्व भय से, अज्ञात आशंका से
 

भीतर एक
भीतर
एक
अविचलित
लौ
प्रज्वलित थी सतत
बाहर
अधीर
मन था
और उत्सुक
देह थी
कुछ तो
राख जैसी
झरती थी
निरन्तर
कुछ
दमकती थी
स्वर्णांकित
प्रश्नचिह्न
जैसी
 

मीना बाज़ार
प्रत्येक
श्वास, प्रत्येक उच्छ्वास के साथ
हम जीवन बाहर उलीचते रहते हैं
थोड़ा-थोड़ा
प्रेम लाख रंगों के मुखौटे
लगाकर देखता रहता है
यह दृश्य
कोई एक सुर साध लेता है
इस बीच
कोई कविता लिख लेता है
कोई स्वेद से लथपथ
निश्चल
प्रतीक्षा करता है
 

कसर
एक हरा पत्ता
पीले चन्द्रमा की एक किरच
और एक मत्स्यांगन
अपने काम-काज तज कर
अन्धकार की एक शाखा पर
मिलते हैं बीतती रात
और सूर्योदय पर वापस चले जाते हैं
वृक्ष की छाया में
पूर्णिमा की दीप्ती में
समुद्र के अहंकार में
उतनी रह जाती है
कसर
ईश्वरों के उतने बढ़ जाते हैं
उलाहने
 

निष्कर्ष
सात आकाशों के पार
जगमग उजियारा
मेरा ईश्वर
माथे पर काँधो पर
जैसे सूर्य का ताप
पूर्वजन्म के दंश से
विषभरा मैं
इस विष को मैंने प्रेम कहा
मन में
अपनी वेणी में उलझे
नद और शिखर सुलझाती
चन्दन से लिथड़ी
धरा
मेरी वसुन्धरा
पैरों तले कोमल तृणदल
कोई निष्कर्ष नहीं अब तक
इतना भी नहीं
की कविता पूरी हो सके
 

काल की धूल
ग्रहों
नक्षत्रों
के गुँथे हुए
जिस काल की धूल
उड़ती हो
महाकाल की हथेली पर
उस धूल का एक
किंचित् कण
जिस पर एकाग्र हो
मेरा त्रिकाल
वह क्यों
किसी उजले उत्तरीय पर
किसी उजले कुसुम पर
स्मृति में भी क्यों
स्मृतियाँ होती हों
यदि ऐसी
कहीं कभी
नहीं
कभी नहीं
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