12-Dec-2017 05:53 PM
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कमलेश जी से मेरी पहली भेंट मेरी पहल पर हुई थी। मैं जुलाई 1970 में दिल्ली पहुँचकर भारतीय तकनीक संस्थान, दिल्ली में नौकरी कर रहा था। इसके कुछ समय बाद ही ‘दिनमान’ पत्रिका में एक बड़ा-सा आलेख छपा जिसमें विविध राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं द्वारा उनकी राजनैतिक वैचारिकियों के बारे में कुछ बातें लिखी गयी थीं। उस समय लोहिया जी के देहान्त के बाद उनके नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी का नाम क्या था मुझे ठीक याद नहीं किन्तु उसकी तरफ से इस परिचर्चा में कमलेश जी का ही वक्तव्य छपा था। वे सम्भवतः उस समय उस पार्टी के ज्वाइन्ट सेक्रेटरी के पद पर थे। वह वक्तव्य अपनी भाषा और विचार प्रणाली में अन्य वक्तव्यों से इतना भिन्न और इतना प्रभावोत्पादक था कि लिखने वाले से मिलने और बहस करने की तीव्र इच्छा मुझमें जागृत हुई। मेरे सम्बन्धी और मित्र प्रमोद मणि त्रिपाठी ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में काम करते थे, उन्होंने बताया कि सम्भवतः कमलेश जी गोरखपुर के हैं और उनके घर आते जाते भी रहे हैं। हम दोनों उनसे मिले। उन दिनों वे नार्थ एवेन्यू में किसी सांसद के निवास में रहा करते थे।
उसके बाद से मिलना-जुलना होता ही रहा जब तक वे इस धरती पर रहे। मेरे लिए यह बता सकना सम्भव नहीं है कि चालीस बरस से अधिक समय तक की इस अवधि में मेरे जीवन पर उनका कितना प्रभाव पड़ा। कुछ चीज़ें बहुत साफ़ हैं- जैसे यही कि मुझे अगर जगदीश स्वामीनाथन, या निर्मल वर्मा या श्रीकान्त वर्मा जैसे लोग पहचानने लगे थे तो केवल इसलिए कि मैं कमलेश जी के साथ उन लोगों से मिलता था। नामवर जी से, अशोक जी से भी परिचय कमलेश जी ने ही करवाया। मैं जो धीरे-धीरे लिखने-छपने लगा इसकी जड़ में भी कमलेश जी ही हैं। पढ़ने का शौक मुझे पहले भी था किन्तु पढ़ना क्या होता है यह मैंने कमलेश जी को ही देखकर जाना। वे बहुत पढ़ते थे और उनका पढ़ा हुआ बहुत क्रमबद्ध सहेजा हुआ होता था। वे किसी भी पुस्तक के बारे में आपको उसके प्रथम संस्करण का सारा विवरण दे सकते थे और यह भी बता सकते थे कि उस पुस्तक का क्या पूर्वपक्ष है, उसके लेखक की वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है, उसकी गुरु परम्परा और शिष्य परम्परा क्या हैं, उसका क्या प्रभाव है तथा आज उसकी क्या प्रासंगिकता है। ‘चलता-फिरता पुस्तकालय’ से भी बढ़कर, वे ‘चलता-फिरता विद्यालय’ ही थे। प्राचीन यूनान में ‘पेरिपटिटिक’ (peripatetic) और प्राचीन भारत में ‘चरक’ ऋषियों का उल्लेख मिलता है जो चलते-फिरते अपने शिष्यों को पढ़ाया करते थे- प्रसिद्ध उदाहरण क्रमशः अरस्तू और वैशम्पायन हैं। ये लोग कुछ ऐसे ही रहे होंगे। स्वर्गीय मनोहर श्याम जोशी ने पण्डित हजारीप्रसाद द्विवेदी के बारे में लिखा था ‘सागर थे आप, घड़े में किन्तु घड़े जितना ही समाया।’ यह वाक्य कमलेश जी पर जस का तस चस्पा किया जा सकता है- हाँ शायद मैं घड़ा नहीं, कुल्हड़ था।
मैंने कमलेश जी के बारे में यह पाया कि यदि वे समाजविज्ञानियों के बीच बैठे हैं तो उपस्थित सभी समाजविज्ञानी अपने को उनसे कुछ कमतर ही मानकर बात करते थे। इसी वाक्य को आप ‘समाजविज्ञानी’ की जगह ‘कवि’, ‘अर्थशास्त्री’, ‘कला-चिन्तक’, ‘इतिहासवेत्ता’ जैसे शब्द रखकर कई बार लिखते-पढ़ते-कहते रह सकते हैं। पार्टी के भीतर, जार्ज फर्नान्डीस और मधु लिमये जैसे वरिष्ठ नेता भी उनका बहुत आदर करते थे। मैंने कोई ऐसी मण्डली देखी ही नहीं है जिसमें कमलेश जी को सम्मान की चरमावधि न प्राप्त हो।
राजनीति से उन्होंने बाद में कुछ ऐसा किनारा कसा कि बहुत से लोग भूल गये कि वे राजनीति में कभी सक्रिय भी थे। किन्तु हिन्दी के साहित्यकारों में वात्स्यायन जी के अतिरिक्त व्यावहारिक राजनीतिक जीवन कमलेश जी का ही रहा है और यह बात मैं आदरणीय नामवर जी और गुरुवर विजयदेवनारायण साही को न भुलाते हुए कह रहा हूँ जिन्होंने पार्टी टिकटों पर चुनाव भी लड़े हैं। बाद के दिनों में कभी-कभार ही यह बात सामने आ पाती थी। उदाहरण के लिए कुछ बरस पहले जब ‘कल्पना’ के सम्पादक स्वर्गीय बदरी विशाल पित्ती की स्मृति में समाजवादी पार्टी ने एक श्रद्धांजलि-सभा आयोजित की थी तो पाया गया कि श्री मुलायम सिंह यादव के अतिरिक्त केवल कमलेश जी ही हैं जिन्होंने उनके साथ कुछ समय बिताया है और इस तरह उस सभा के लिए कमलेश जी को खोज कर बुलवाया गया था।
उनके राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन में एक बड़ा मोड़ आपातकाल का समय था। बड़ौदा डाइनामाइट केस के सह-अभियुक्त के रूप में एक लम्बा समय उन्होंने जेल में काटा था और आपात काल की समाप्ति के बाद जब वे बहुत सारे अन्य लोगों की तरह जेल से छूटे तो उनमें कई बदलावा आ चुके थे। उनकी रुचि प्राचीन भारतीय संस्कृति में तीव्रतर हो चली थी और अपने आचरण में वे पारिवारिक संस्कारों की ओर उन्मुख हो चले थे। जिन कमलेश जी के पास कभी चालीस पाइप होते थे उन्होंने तम्बाकू पीना छोड़ दिया, जिन कमलेश जी के घर से क्रेट भर कर मदिरा कोई न कोई मित्र आये दिन उठा ले जाता था, उन्होंने मदिरापान छोड़ दिया। जनेऊ फिर से पहनने लगे, अपने नाम से हटाया जा चुका ‘शुक्ल’ वापस लाकर ‘कमलेश’ की जगह पुनः ‘कमलेश शुक्ल’ लिखने लगे।
आज आपातकाल की स्मृतियाँ धुँधली पड़ चुकी हैं और प्रायः सभी लोग भूल चुके हैं कि उन दिनों एक सामान्य नागरिक की हर साँस के साथ कितना आतंक फेफड़ों में समा जाता था। कमलेश जी गिरफ़्तार हुए यह तो समझ में आता था, उनके छोटे भाई करुणेश जी क्यों गिरतार हुए यह किसी की समझ में न आता था। आज भी कोई इसका कारण नहीं बता सकता क्योंकि इसका कोई कारण है ही नहीं। आपातकाल मनुष्यकृत था किन्तु उसका चरित्र दैवी आपदा का था। राजसत्ता पागल हाथी की तरह थी, जनता उसके सामने पड़ने से कैसे बचे, यह समझना असम्भव था। उपायहीनता की इस अन्धी गली से निस्तार भी दैवी ही हुआ, इसे भगवत्कृपा के अतिरिक्त कुछ भी मानना भूल है कि इन्दिरा जी के मन में चुनाव कराने का विचार आया और 1977 सम्भव हो सका। मुमकिन है कि कमलेश जी को कुछ इसी प्रकार की सोच ने ही कुछ उन दिशाओं की ओर ताकने को विवश किया हो जिनको वे कुछ पहले तक अर्थशून्य मानते थे। जो भी हो, वे पहले से अधिक नम्र, अधिक आत्मालोचक, अधिक उदार बनते चले गये।
उनका राजनीतिक जीवन कौतूहल का विषय है। उन्होंने व्यवस्थित पुस्तक राजनीति पर नहीं लिखी किन्तु भारतीय राजनीति में ‘समाजवाद’ की क्या जगह हो सकती है इसको बताने वाला उनसे अच्छा कोई हमारे बीच नहीं हुआ। व्यावहारिक राजनीति की विविध धाराओं में सक्रिय बहुत से लोगों को वे बहुत गहराई से जानते थे। प्रारम्भिक कैशोर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कुछ समय सक्रिय रहने के बाद से वे समाजवादी राजनीति के ही अंग रहे किन्तु भारत की शायद ही कोई राजनीतिक पार्टी होगी जिसके कई बड़े नाम कमलेश जी के घनिष्ठ परिचितों में से न हों। नेपाली राजनीति के कई शीर्षस्थ नेता उनके यहाँ आते-जाते दीखते थे। कभी कोई जानकारी अचानक उजागर हो जाती थी- जैसे जब मिजोरम समझौता हुआ और नयी दिल्ली में लाल डेंगा के लिए आवंटित आवास में कमलेश जी रहने लग गये तब हम लोगों को पता चला कि मिजोरम के आन्दोलन से इनकी क्या निकटता रही थी।
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पश्चिम के सर्जनात्मक और वैचारिक साहित्य का उनका अध्ययन-मनन अतुलनीय विस्तार और गाम्भीर्य से सम्पन्न था। अँग्रेज़ी के माध्यम से जो भी यूरोपीय चिन्तन और सर्जनात्मक साहित्य उन्हें उपलब्ध हो सका, उन्होंने पढ़ा। दर्शन, समाजशास्त्र, काव्य और काव्यचिन्तन, चित्रकर्म, फ़िल्म, शायद ही कोई विधा हो जिसमें वे यूरोपीय अथ से लेकर वर्तमान तक की इति से सुपरिचित न हों। और यह पढ़ना वे बहुत सहज अनातंकित भाव से करते थे। हाइडेगर आदि को भी वे सादर किन्तु बिना दबे पढ़ते जाते थे। यूरोपीय चिन्तन से वे बहुत प्रभावित भी रहे किन्तु उन्होंने अपने को उसमें विलुप्त नहीं होने दिया। उनके साहित्यिक अवदान पर लिखने का इरादा इस लेख में मेरा नहीं है और उसकी अद्वितीय ज्योतिर्मयता के प्रति जो सम्मान मेरे मन में है उसका कुछ संकेत उन निबन्धों में मौजूद हैं जो मैंने उनकी काव्यपुस्तकों की समीक्षाओं के रूप में लिखे। यहाँ मैं यह कहना चाहता हूँ कि अपनी दैनन्दिन चर्चाओं में- जैसे कि अपनी कविताओं और वैचारिक लेखन में- वे भारतीय मन के सरोवर में खिले हुए उस कमल की तरह लगते थे जिसे पश्चिमी वैदुष्य का सूर्य पोषण दे रहा था; उसकी प्रफुल्लता उस सूर्य के प्रखर ताप की बदौलत थी किन्तु इस सरोवर के जल के न होने पर वह ताप उसे सुखा डालता। मुझे वे इसलिए भी पसन्द करते थे कि मैं संस्कृत पढ़ लेता हूँ और उसमें उपलब्ध सामग्री के बारे में कुछ विश्वसनीय जानकारी उन्हें दे सकता था किन्तु भारतीय चिन्तन के क्षेत्र में भी वे बहुत-सी ऐसी किताबें पढ़ते रहते थे जिनके बारे में मुझे कोई ज्ञान नहीं था- उदाहरण के लिए मधुसूदर ओझा का सारा साहित्य उनके पास मौजूद था।
यद्यपि उनके मित्रों की संख्या का पार न मिलता था, दिल्ली में शायद मेरा ही घर था जहाँ वे बिना सोचे-समझे चले आ सकते थे। मेरे घर में सभी लोग उनका सहज सम्मान करते थे किन्तु कमलेश जी को मेरे यहाँ जिस स्वाभाविक घरेलूपन की अनुभूति होती थी उसका केवल यही कारण नहीं है। दिल्ली में रहते हुए मेरे घर में से पूर्वी उत्तर प्रदेश कभी गया नहीं और यह चीज़ उन्हें और कहीं मिलती न थी। बिलकुल सतही उदाहरण लीजिए : मेरे घर में सब्ज़ी काटने के लिए ‘पंहसुल’ थी जो कुल मिलाकर लकड़ी के एक पटरे में जमाई हुई हँसिया होती है और मसाला सिल से पीसा जाता था। घर में भोजपुरी बोली जाती थी। इस तरह की चीज़ें घरों से गायब हो चुकी थीं और कमलेश जी को एक ऐसे सुपरिचित द्वीप में ले जाती थीं जिसे समय की तेज़ धार अभी काट नहीं पायी थी। वे घर के एक सदस्य की तरह आते थे और शुरूआती दिनों में जब वे एकाध बार कहीं से पीकर आये तो उनके चेहरे पर वैसा ही असमंजस था जैसा घर के बुजुर्ग के चेहरे पर इस हालत में होना चाहिए।
उन्होंने अपना जीवन प्रायः घर के बाहर गुज़ारा था और जीवन के आख़िरी दिनों में जब उनके पास अपना एक मकान हुआ तो उसमें भी उनकी जीवनशैली वैसी ही स्वावलम्बी रही। उनके पास कभी नौकर होता था कभी नहीं, किन्तु वे रसोई का सारा काम प्रायः स्वयं और अकेले ही करते रहे। भोजन बहुत अच्छा बनाते थे और खाने से अधिक खिलाने का शौक था। प्रचुरता उनका मनपसन्द तत्व था, बहुत बढ़िया और बहुत अधिक भोजन घर में तैयार हो ताकि बहुत से लोग नाक तक ठूँसकर खा सकें, ऐसा चाहते थे। अच्छे कपड़े पहनने में दिलचस्पी थी और अपने बलबूते उनको बहुत साफ सुथरा रखते थे। उनकी जिन्दगी बहुत खर्चीली थी और तब तक खर्च करते जाते थे जब तक जेब में एक भी पैसा होता था। आतिथ्य का उन्हें जुनून-सा था और पास से कुछ भी उठाकर किसी दूसरे को दे डालने में ज़रा भी नहीं हिचकते थे। किताबों पर बहुत पैसा खर्च करते थे और उनका निजी पुस्तकालय अपने डीलडौल तथा अपने वैविध्य के मामले में बेमिसाल था। वे सारी किताबें उनकी पढ़ी हुई थीं और यह अपने आप में कम विस्मय की बात नहीं है। इन किताबों को वे स्वयं ही व्यवस्थित रख लेते थे यद्यपि देखने में यह आता था कि वे उनके आसपास बिखरी हुई ही हैं। इन सबसे ऐसा लग सकता है कि उनकी आवश्यकताएँ बहुत अधिक थीं और शायद ऐसा ही हो भी किन्तु यह भी सच है कि वे मेरे यहाँ कई-कई महीने तक एक तख्त के नीचे एक सूटकेस में अपना सामान समेटे रहते रहे हैं। वे लगभग किसी भी परिस्थिति में अपने को ढाल सकते थे।
ज्योतिष में उन्हें बहुत विश्वास था। कुण्डली दिखवाते रहते थे और किस तारीख़ से कौन-सा ग्रह कहाँ जा बैठेगा तथा इसका क्या प्रभाव पड़ने वाला है, इसकी चर्चा भी करते थे। पूजापाठ में भी गहरी आस्था थी। किन्तु इन सब बातों का उनकी जीवनचर्या पर कोई बुनियादी असर पड़ता था, ऐसा मेरा आकलन नहीं है। मैंने कभी स्वयं पूजा करते उन्हें नहीं पाया। हम जिन संस्कारों में पले बढ़े हैं उनके अधीन कभी दुर्गापाठ या महामृत्युंजय जप का अन्य पण्डितों के माध्यम से अपने कल्याण के लिए आयोजन करवाना कोई असाधारण बात नहीं है किन्तु मेरी जानकारी में ऐसा नहीं है कि वे कोई विशेष अनुष्ठान बराबर करवाते रहे हों। वैद्यक में भी बहुत रुचि थी और विविध आयुर्वेदिक औषधी का सेवन किया करते थे। बढ़ी उम्र में जिम जाना शुरू किया और कुछ समय तक गये। यह कहना मुश्किल है कि इन सब चीज़ों में कितना क्रीड़ाभाव था और कितना गाम्भीर्य।
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उन्होंने औपचारिक शिक्षा बीच में ही छोड़ दी थी और जहाँ तक मैं जानता हूँ, विश्वविद्यालय तक नहीं पहुँच पाये थे। ‘कैरियर’ के प्रति यह लापरवाही उनके चरित्र का अंग ही थी। राजनीति में वे टिकट और चुनाव तक नहीं पहुँचे, साहित्य में भी उनके कुल तीन काव्यसंग्रह छपे जिनमें से दो तो उनके जीवन के अन्तिम वर्षों में प्रकाश में आये। सरकारी नौकरी का तो खैर सवाल ही नहीं था किन्तु पत्रकारिता में भी वे अपने लिए ‘समवाय’ और जार्ज फर्नान्डीस के लिए ‘प्रतिपक्ष’ निकालने से आगे नहीं बढ़े। दरअसल ‘आगे बढ़ने’ के लिए समझौता करना होता है और यह उनके स्वभाव में नहीं था। मान लीजिए कोई किताब छपवानी है तो उसका क़ागज सर्वोत्तम होना चाहिए, उसमें स्याही सर्वोत्तम होनी चाहिए, उसकी ज़िल्दबन्दी सर्वोत्तम होनी चाहिए, ये सब उनकी शर्तें होती थीं और इसमें जो ‘सर्वोत्तम’ शब्द मैंने इस्तेमाल किया है उसको वे स्वयं ही परिभाषित करते थे। वे जितनी पूर्णता चाहते थे उतनी शायद सम्भावना की सीमा रेखा के भीतर समा न सकती थी। उन्होंने कितनी योजनाएँ बनायीं, इसका हिसाब बताना मेरे लिए सम्भव नहीं है। उनमें से कोई पूरी नहीं हुई। मुमकिन है कुछ में आर्थिक संसाधनों की कमी आड़े आयी हों किन्तु अनेक अवसर थे जब वे शक्तिमान थे, फिर भी जो चाहते थे वह नहीं कर सके। उदाहरण के लिए 1977 में जब जनता सरकार बनी तब उन्होंने ‘काउंसिल फॉर क्रिएटिव आर्ट्स’ बनायी और एक महोत्सव भी उसके तहत किया। एक शब्दकोष बनवाना शुरू किया। कई लोग कुछ समय तक काम करते रहे, कुछ पैसा भी खर्च ही हुआ। किन्तु फिर आगे बात नहीं बढ़ी। उनका प्रस्तावित शब्दकोष ऑक्सफोर्ड शब्दकोष से भी महत्वाकांक्षी था और उसके अनुरूप साधन, समय तथा व्यक्ति उनके पास नहीं थे। इन सारी अपूर्णताओं का एक ही कारण था-पूर्णता की खोज। वे जो काम हाथ में लेते थे, संस्थाओं के करने लायक होते थे, व्यक्तियों के करने लायक नहीं। उनकी कसौटी पर खरे उतरने वाले लोग उन्हें न मिल सकते थे और काम रुक जाता था।
वस्तुतः उनमें एक सहज आभिजात्य था जो उन्हें जागतिक समस्याओं से दूर खींचता था। ‘रोज़गार का गम’ उन्हें सताता ज़रूर होगा किन्तु मैंने उनके व्यवहार पर इसका कोई असर नहीं देखा। वे व्यापार के सिलसिले में मध्य एशिया कई बार गये। उनकी रुचि वहाँ की प्राचीन संस्कृति में जागृत हो गयी और वे उन तमाम लोगों से मिलते रहे जो अपने पूर्वजों के धार्मिक-सामाजिक व्यवहार को गहराई से समझना चाहते थे। वे बतलाते थे कि किस प्रकार प्राचीन अग्निपूजक समाज के कुछ संस्कारों के अवशेष अभी भी वहाँ के कुछ समुदायों और परिवारों में दिख जाते हैं और किस प्रकार एक सांस्कृतिक ‘अन्डरग्राउण्ड’ वहाँ मौजूद है। भारतीय फ़ारसी कविता के शीर्षस्थ कवि मिर्ज़ा बेदिल, जिन्हें यहाँ प्रायः भुला दिया गया है, का मध्य एशिया में कितना महत्व है और किस प्रकार से उनको वहाँ ऋषि-तुल्य सम्मान प्राप्त है, इसका आँखों देखा विवरण बहुत विस्तार से सुनाते थे। उन्हें कुछ ऐसी भी आशा थी कि भारत और मध्य एशियाई देशों के आपसी सम्बन्धों को दृढ़ करने में मिर्ज़ा बेदिल का अध्ययन प्रबल सहायक होगा और इस उद्देश्य से इन्होंने एक संस्था भी ‘बेदिल फाउण्डेशन’ नाम से बनायी थी जिसका लोगों स्वामी जी (जगदीश स्वामीनाथन) ने बनाया था। इस संस्था का एक संस्थापक सदस्य मैं भी रहा हूँ। ताज़िकिस्तान से मिर्ज़ा बेदिल की ग़ज़लों का एक संग्रह आठ खण्डों में रूसी लिपि में छपा है, उसके तीन खण्ड वे मेरे लिए लाये थे। इन बातों को कोई बीस बरस होने को आ रहे हैं। अपने भरोसे फ़ारसी कविता पढ़ने की मैं शुरूआत ही कर रहा था। कमलेश जी ने ही स्टेनगास का फ़ारसी-अंगरेज़ी शब्दकोष खरीद कर मुझे दिया। उन्हीं दिनों श्री शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी से कमलेश जी के साथ ही मैं पहली बार मिला था। मंगोलिया में भी जिस बात ने उन्हें सबसे अधिक आकृष्ट किया था वह यह थी कि चंगेज़ खान एक महान पूर्वज के रूप में वहाँ किस प्रकार प्रतिष्ठित है।
वे जो कर सकते थे वह कुछ इस तरह था कि असीमित धनराशि को व्यय करने के असीमित अधिकारों सहित उनको यह कह दिया जाता कि विश्व का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय या म्यूजियम या आर्ट गैलरी या आर्केस्ट्रा या ऑपेरा खड़ा कर दो तो वे कर सकते थे किन्तु इससे नीचे कुछ बनाना चलाना उन्हें तृप्तिकर न था। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे अव्यावहारिक थे। वे बहुत व्यवहारकुशल थे और आलस्य उनमें बिलकुल नहीं था। सच्चाई यह है कि कुछ भी करने के लिए हमें अपना लक्ष्य सीमित रखना पड़ता है और उत्कृष्टता की अपनी चाहत के साथ समझौते करने पड़ते हैं। यह वे उस समय नहीं कर पाते थे जब उन्हें अपने मन का कोई काम करना होता था। किसी के लिए सिफ़ारिश करनी हो तो चूँकि लक्ष्य स्पष्ट होता था और उसमें कोई मानक नहीं लगाना होता था, वे जी जान लगा देते थे। इसे यों समझिए कि यदि लेक्चरर के किसी पद के लिए आपका इन्टरव्यू है तो कमलेश जी ज़मीन आसमान एक करके आपको वह पद दिलाने की कोशिश करेंगे किन्तु यदि वे आपको योग्य मानते हैं और सवाल यह हो कि आपकी योग्यता के हिसाब से आपको कहाँ बिठाया जाए तो फिर वे आपको कहीं आनन्द कुमारस्वामी जैसे किसी की कुर्सी दिलवाने का प्रयास प्रारम्भ करेंगे जहाँ आप शार्टलिस्ट भी नहीं हो पायेंगे। कुछ इसी तरह की दुनिया बदलने वाली योजनाएँ उनके मन में आया करती थीं और जब भी उनको ज़मीन पर उतारने का कोई अवसर उनकी समझ में आता था, वे क्रियान्वयन प्रारम्भ कर देते थे।
उनके मित्रों की संख्या बहुत बड़ी थी। लेखक, चित्रकार, मूर्तिशिल्पी, संगीतकार, पत्रकार, राजनेता, अध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक, व्यवसायी, चिकित्सक, राजपुरुष, सभी वर्गों के लोग उनके मित्रों में शामिल थे। प्रायः हर चर्चित नाम तक कोई न कोई तार उनको जोड़ता था। इस व्यापक सम्पर्क-जाल से उन्हें कुछ सहायता भी मिलती रही होगी किन्तु मैंने उन्हें हमेशा दूसरों का ही काम करते देखा, खुद उनका कौन-सा काम है और वह कब कैसे होता है, पता न चलता था।
उनके पास संस्मरण बहुत थे किन्तु उन्हें क़िस्से सुनाने का शौक न था। एक निस्संगता-सी उनके स्वभाव में थी जिसके चलते वे दूसरों के गुण-दोष को अपने व्यवहार का मुख्य उत्प्रेरक बनाने से परहेज कर सकते थे। उनके निजी दुःख थोड़े न थे किन्तु मैंने कभी थाह न पायी कि वे उन्हें कैसे महसूस करते हैं। एक बार ज़रूर मैंने उनकी आँखों में तरलता देखी है जब अशोक जी से कुछ समय के लिए मनमुटाव-सा हो गया था। इसलिए यह तो तय है कि उनके आत्मसंयम के बाँध में उफ़ान लाने वाली दरारों के चिह्नांकन थे अवश्य किन्तु उनके उस एकान्त में प्रवेश का मुझे कोई अवसर न मिला जिसमें मैं ऐसी निजी दुनिया में दाखिल हो सकता जिसमें उनके दुःख रहते थे।
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किसी व्यक्ति के जीवन में कुछ जटिलताएँ ऐसी भी हो सकती हैं जिनके सामने वह स्वयं ही न पड़ना चाहता हो। फिर अन्य किसी को ऐसी जटिलताओं में उलझने से बचना ही चाहिए। यों अपने परिवार में कमलेश जी सबसे बड़े थे किन्तु उनके प्रवासी जीवन के नाते बागडोर उनके छोटे भाई करुणेश शुक्ल के ही हाथों रही जो गोरखपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग से विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर हुए और बौद्ध दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान हैं। कमलेश जी के निजी और पारिवारिक जीवन तक मेरी थोड़ी बहुत पहुँच संयोगवशात ही थी और उसमें मुझे ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे मैं प्रकाश्य या अप्रकाश्य कहूँ। उनको मैंने किसी मित्र या परिचित के निजी जीवन पर टिप्प्णी करते या उसके बारे में सूचनाएँ बाँटते नहीं पाया। किसी के निजी आचरण का समर्थन या विरोध करते हुए भी मैंने उन्हें नहीं पाया। इस बात का बहुत ध्यान रखते थे कि उनके नाते किसी मित्र के सामने कोई संकट न खड़ा हो जाए। आपातकाल के दौरान उन्होंने जेल से बाहर सन्देश भिजवाये थे कि उनके बारे में श्रीकान्त जी से कोई बात न की जाय क्योंकि इससे श्रीकान्त जी पर भी सन्देह हो सकता था।
उनके एकदम आखिरी दिनों में भी यह तो किसी को मालूम नहीं था कि ये आखिरी दिन हैं। दो एक बार अस्पताल में भर्ती ज़रूर हुए कभी अपनी इच्छा के अनुकूल कभी अपनी इच्छा के प्रतिकूल। विक्रम भारद्वाज को साथ चलने के लिए कहते थे चाहे किसी कार्यक्रम में उपस्थित होना हो चाहे अस्पताल में भर्ती होना हो। नौकरी से रिटायर होने के बाद मैंने दिसम्बर 2012 में दिल्ली छोड़ दी और बस्ती के पैतृक निवास में रहने आ गया- अब दिल्ली जाना सिर्फ़ डॉक्टर से मिलने और दवा लेने के लिए होता है। किन्तु विक्रम के माध्यम से मैं अपने को उनके पास उपस्थित पाता था। कमलेश जी ने मेरा बहुत लोगों से परिचय कराया था, इसका मुझे सन्तोष है कि मैं भी विक्रम से उनका परिचय करा सका।
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सामान्यतः हर आदमी में जीने का लालच होता है किन्तु सबमें जिजीविषा नहीं होती। कमलेश जी में जिजीविषा थी। मौत ने उनके साथ धोखा किया। वक़्त के पहले, चुपके से आकर उन्हें उठा ले गयी। इस बात को यों नहीं झुठलाया जा सकता कि उनकी उम्र के बरस गिन लिये जायँ और यह कह दिया जाय कि वे अल्पायु नहीं थे।
या शायद मैं ग़लती कर रहा हूँ। यह कुछ यूँ हुआ होगा। जैसा कि दुर्गासप्तशती (पंचम अध्याय, श्लोक 98) में कहा गया है, मृत्यु की शक्ति का नाम ‘उत्क्रान्तिदा’ है। यही उत्क्रान्तिदा नाम की शक्ति उनके सामने प्रकट हुई होगी और जैसे निराला जी की राम की शक्तिपूजा के अन्त में महाशक्ति राम के मुख में विलीन हो गयी थीं, वैसे ही यह उत्क्रान्तिदा शक्ति भी कमलेश जी में विलीन हो गयी होगी। उसी ने उनके पुरुषोत्तम का कायाकल्प करते हुए उन्हें नवीन बनाया होगा और वे मर्त्य होने का धर्म निभाते हुए इस लोक से कूच कर गये होंगे।