08-Jun-2019 12:00 AM
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कमलेश की कविता की अस्तित्व-दृष्टि के स्वरूप के बारे में जिज्ञासा करने से पहले यह बात रेखांकित करने योग्य है कि यह कविता हमें एक ऐसी चीज़ के स्वरूप की जिज्ञासा करने को उत्प्रेरित करती है जो हिन्दी कविता में, स्वयं कमलेश की समकालीन कविता में, न सिफऱ् उत्तरोत्तर दुर्लभ होती गयी है, बल्कि उसके इस उत्तरोत्तर अभाव को आलोचना में प्रश्नांकित करने के अवसर भी उतने ही क्षीण होते गये हैं; मानो हमने- यानी कवियों और आलोचकों दोनो ने - अस्तित्व-दृष्टि को कविता की पहचान के एक सहज लक्षण के रूप में न देखने पर सहमति विकसित कर ली है। हमारी अघिकांश कविता में मनुष्य का देशकाल, उसका परिसर, उसकी प्रतिक्रियाएँ और इन प्रतिक्रियाओं के क्षेत्र, उसकी चेतना का दायरा, स्मृति, स्वप्न और कल्पना का अवकाश आदि सब, इस कविता से बाहर रह रहे, स्वयं इस कविता के समकालीन मनुष्य की, इन्हीं तमाम चीज़ों के मुक़ाबले बहुत सिमटे हुए हैं। इस दृष्टि से कमलेश की कविता हमें, अनायास ही, समकालीन कविता के इस संकुचन को उभारने वाला एक आलोचनात्मक परिप्रेक्ष्य भी उपलब्घ कराती है।
कमलेश की कविता में ‘बसाव’ और ‘आवास’ के अभिप्राय बहुत प्रचुर और केन्द्रीय हैं। ये सिफऱ् उनके दो कविता-संग्रहों के सांकेतिक महत्त्व रखने वाले शीर्षक भर नहीं हैं, बल्कि ये उनकी बहुत-सी कविताओं में अन्यान्य रूपों और पर्यायों में मौजूद हैं, जिनमें पृथ्वी और आकाश तो अघिकरण के विभिé रूपों में हैं ही, घर, वास, ठौर, बसेरा, बस्ती, पेड़ की छाया, चँदोवा, पड़ाव, आश्रय-स्थल, कुटी, झोपड़े, बाँबी, गेह, डाल, विवर, कोटर, खोखले तने, घोंसले, ढूह, छत्ते, माँदें, अस्तबल, बाड़े, पार्क, खुला मैदान, आँगन, ओसारा, बरामदा, खपरैल, दीवारों की छाया, गर्भ, अन्तःकरण, दीवानख़ाना, शिविर, सराय, कोठरियाँ, गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ, कि़ले, मीनारें, केलिगृह, भूलभुलैया, खण्डहर, श्मशान, क़ब्रगाहें, मन्दिर, दैवी गृह, शिवाले, स्वर्ग, देवलोक, पितृलोक, यमलोक, नागलोक, द्युलोक, नरक, परियों का देश, तन, देह, देह की कारा, देह का जंगल, जैसे विविघ अभिप्राय इन कविताओं में भरे पड़े हैं। इन अभिप्रायों को यहाँ हमने संज्ञाओं के रूप में उद्धृत किया है, लेकिन कविताओं में अन्य पदों और पंक्तियों के बीच, जहाँ ये अन्यान्य क्रियापदों और विशेषणों आदि के साथ विन्यस्त हैं, ये बहुत मार्मिक तीक्ष्णता और अर्थवत्ता के साथ उभरते हैं। आवास और बसाव का यह घनीभूत आॅब्सेशन वस्तुतः मनुष्य के आत्मिक, आध्यात्मिक, पारिस्थितिक, सामाजिक और राजनैतिक विस्थापन या बेठौर होने के कारुणिक बोघ का विक्षेप हैं। यह बोघ इन कविताओं में लगभग स्थायी भाव की तरह उपस्थित चरिष्णुता में सहज ही लक्ष्य किया जा सकता है जो आना, जाना, लौटना, विदा होना, विदा करना, पहुँचना, आवास बदलना, पड़ाव डालना जैसी क्रियाओं से व्यंजित हैः ‘वे रात को चले गये घोड़ों पर सवार’ (‘जरत्कारु’, जरत्कारु), ‘किसी भी दिन हम अपना झोला उठा यहाँ से चल देंगे’ (‘किसी भी दिन’, जरत्कारु), ‘मैं जाता रहूँगा एक से@ दूसरे ग्रह पर...’ (‘अभी’, जरत्कारु), ‘फ़रिश्ते लौट जाते हैं’ (‘फ़रिश्ते’, जरत्कारु) आदि। जीवन और मृत्यु के बीच निरन्तर दोलन की ध्वनि को भी शायद इसमें अलक्षित नहीं किया जा सकता।
यह चरिष्णुता स्वयं इन कविताओं की संरचना में एक कि़स्म की अनित्यता के रूप में प्रतिफलित होती है। एक ऐसी संरचना, जिसमें ऐतिहासिक, पौराणिक या मिथकीय अभिप्रायों को बरते जाने के बावजूद, जिसके वास्तु में न सिफऱ् अभियान्त्रिक बल से उत्प्रेरित, दीर्घकालिक टिकाऊपन के आत्मविश्वास को व्यंजित करती, किसी तरह की प्रासादिक अडिगता, विशालता और भव्यता नहीं है, बल्कि जो इन सबके एकदम विपरीत, मानो सुरुचि और शिल्प-कौशल के साथ सुघड़तापूर्वक, किन्तु अस्थायी डेरे की ज़रूरत के नाते, गढ़ी गयी एक कच्ची झोपड़ी जैसी है; लाघवपूर्ण और भंगुर संरचना। एक खुला हुआ, या ‘खुले में आवास’ - ‘अजानी, अदेखी, सँकरी पगडण्डी’ से अभिगम्य ‘घरती पर कच्छप-पीठ-सा उठा हुआ’, जिसके ‘हर ओर’ ‘सघन लता-गुल्मों, वृक्षों, झाड़ी-झंखाड़ से@ गूँजित हिंस्र पशुओं की अमुखर चीख़ों से@अलंघ्य राहों पर लुप्त पदचिह्नों से’ युक्त ‘महावन’ ‘फैला’ हुआ है। इन कविताओं में न कोई महत्त्वाकांक्षी विषय हैं, न कोई प्रदत्त सामाजिक-राजनैतिक सांगोपांग वृहदाख्यान हैं, न ऐसे आख्यानों की निर्मिति के नियमों का अनुसरण है, और न कोई महान सन्देश हैं। इसकी बजाय उनमें विषयों और अन्तर्वस्तु के तौर पर प्रकृति, मानव-जीवन और मनुष्येतर जीव-जगत के नितान्त साघारण, दृृष्टि से ओझल बने रहने वाले ब्यौरे या कार्यकलाप हैं, जिनको अत्यन्त सूक्ष्म ऐन्द्रिय पर्यवेक्षणों के सहारे गोचर बनाया गया है। ये ऐन्द्रिय पर्यवेक्षण इस कविता की काया को भुरभुरा और रन्घ्रिल बनाते हैं। और विमर्शात्मकता, जोकि इस कविता का एक सशक्त प्रभाव है, यहाँ कविता को नियन्त्रित, निर्देशित नहीं करती, बल्कि वह इन ऐन्द्रिय पर्यवेक्षणों से उत्प्रेरित अनुभवों की शक्ल में विकीरित होती है; कविता की काया में होते रोमांच की तरह।
कमलेश की कविता की बनावट को संरचनात्मक स्तर पर भिéता और विशिष्टता प्रदान करने वाली एक और महत्त्वपूर्ण चीज़ इसकी अर्थ-विद्या है। ‘करोड़ों सम्भावनाओं को एक साथ पा लेने की विकलता’ से उत्प्रेरित यह कविता वाणी की दुनिया में, स्वयं हिन्दी कविता की वाणी की दुनिया में, स्थापित, रूढ़ और प्रभावी अर्थों के प्रति, रोलाँ बाख़्त के पद का प्रयोग कर कहें तो, ‘अर्थ के फ़ासिज़्म’ के प्रति, ज़बरदस्त प्रतिरोघ बरतती है और अमूर्तन का जोखि़म उठाती हुई शब्दों को ऐसे सर्वथा नये अर्थों से दीप्त करती है जिनमें ‘दुनिया की संश्लिष्टि की’ हरेक ‘कड़ी’ को पकड़ लेने की आकांक्षा है। नयी अर्थदीप्तियों से युक्त यह शब्दावली वाणी की दुनिया में एक नयी नस्ल का बसाव है।
यह सही है कि कमलेश समसामयिकता के कवि नहीं हैं, जैसाकि उन्होंने खुले में आवास के अपने ‘आभार’ में स्वीकार भी किया हैः ‘यहाँ समकालिकता कोई कसौटी नहीं है, न ही समकालिकता को प्रच्छé करने के कौशल अपनाये गये हैं।’ लेकिन, इसके बावजूद, राजनीति, समाज और इतिहास के प्रश्न और इनके सन्दर्भ में मनुष्य के अघिकारों और न्याय के प्रश्न उनकी कविता में विक्षोभ उत्पé करने वाले बल के रूप में सक्रिय हैं। और यह सम्भवतः समकालिकता की ‘कसौटी’ को तज देने का ही सुफल है कि ये प्रश्न इस कविता में एक वृहत्तर परिप्रेक्ष्य हासिल कर उसकी अस्तित्व-दृष्टि को अभूतपूर्व और अद्वितीय विस्तार देते हैं। यह सबसे पहले नृकेन्द्रिकता को प्रतिरोघ देने वाली अस्तित्व-दृष्टि है क्योंकि इसकी गढ़न में मनुष्य से कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा नियामक भूमिका मनुष्येतर जीवजगत और प्रकृति की है। इसी तरह, इस अस्तित्व-दृष्टि के विस्तार में जितनी जगह जीवन घेरता है, उससे कम जगह मृत्यु नहीं घेरती (यहाँ तक कि वे मृतकों के अघिकारों दृष्टव्य ‘वे तब भी यहीं होते हैं’ खुले में आवास, की बात भी करते हैं), उसमें जितनी जगह जीवित वंशज घेरते हैं उससे कम जगह दिवंगत पूर्वज नहीं घेरते, जितनी जगह नगर घेरता है उससे कम जगह गाँव और जंगल नहीं घेरते। और इसी अस्तित्व-दृष्टि का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि ये सब - मनुष्य, मनुष्येतर प्राणी, प्रकृति, जीवन, मृत्यु, वंशज और पूर्वज, नगर, गाँव और वन आदि - एक दूसरे से उदासीन, एक दूसरे की भाषाओं से अनजान अलग-थलग घेरों में नहीं रहते, बल्कि एक दूसरे से अन्तर्क्रिया करते हुए एक ही आवास में साझा करते हैं, और ऐसा वे सहिष्णुता के बोघ से नहीं बल्कि परस्पर आतिथ्य के बोघ से करते हैं।
विस्थापन, बेठौरपन और चरिष्णुता इन कविताओं में और एक संवेग की ओर संकेत करते हैं, और वह है ‘खोज’। यह किस चीज़ की खोज है? इसका जवाब हम कमलेश से ही सुनते हैं। यह खुले में आवास संग्रह की ‘छूटन’ शीर्षक कविता हैः
आकाश में दीखते नक्षत्र,
आकाश में दृश्य होते
आते हैं पक्षी,
आकाश में ही तिरोहित हो जाते हैं,
छोड़ जाते हैं अपने पीछे एक रिक्ति।
कितनी आत्माएँ, मुक्त या अशान्त,
आकाश में भटकती हो जातीं लुप्त
छोड़ती अपने पीछे एक रिक्ति।
यह रिक्ति शब्द हैं
सुनते हैं हम,
शब्द उनकी छूटन हैं
जो नहीं रहे।
सुनते हैं हम थोड़ा कुछ और,
निकल पड़ते हैं उसकी खोज में,
पाते हैं बस एक रिक्ति
वह नहीं मिलता जो छोड़ गया
शब्द जिनकी छूटन हैं।
इन्हीं अन्तरालों में तिरोहित है संसार
हम निकले हैं जिसकी खोज में।
प्रसंगवश, ‘रिक्ति’ में लक्षणगत यह विरोघाभास रेखांकित करने योग्य है जिसे स्वयं कमलेश ने रेखांकित किया है। एक ओर यह रिक्ति, या ख़ालीपन या किसी का न होना है, लेकिन तब भी वह निपट अभाव नहीं है क्योंकि वह शब्द-भाव है (‘यह रिक्ति शब्द हैं’)। और यह विरोघाभास इस स्तर पर भी क़ायम है क्योंकि ये शब्द भी रिक्ति-रूपी होने के बावजूद निपट रिक्ति नहीं हैं, बल्कि वे ‘उनकी छूटन’ - पगडण्डी, पैरों के निशान, या उनके कभी हुए होने की छाप - में रूपायित हैं ‘जो नहीं रहे’, यानी जो अनुपस्थित हैं। इस तरह, अनुपस्थितों-की-छूटन-से- रूपायित-होते-शब्दों से रूपायित यह रिक्ति अभाव का भाव है। अनुपस्थिति से स्पन्दित उपस्थिति।
यह विरोघाभासों से गझिन, गर्भित, स्पन्दित ‘रिक्ति’ कमलेश की अस्तित्व-दृष्टि का एक और अचूक पहचान-चिह्न या, ‘छूटन’ है। सिफऱ् इसलिए नहीं कि वे इसका आख्यान करते हैं, जैसाकि उन्होंने ऊपर उद्धरित कविता में और अन्यत्र भी एकाघिक बार किया है, जैसे कि ‘फ़रिश्ते’ (जरत्कारु) में जहाँ इस अन्तराल को ‘संज्ञा और शक़्ल के मध्य’ के नाम से पुकारा गया हैः ‘फ़रिश्ते लौट जाते हैं और वापस नहीं आते@मौन सहानुभूतिशील तपस्वी एक@अपने अर्जित पुण्य के बल पर@उनकी मर्यादा कुछ बचा लेता है@संज्ञा और शक़्ल के मध्य कहीं लटकाकर,’ या ‘तब ये पत्तियाँ’ (जरत्कारु) नामक कविता में जहाँ इस अन्तराल को ‘एक विदा और प्रत्याशा के बीच@ पानी की तरह बहता समय’ कहा गया, या ‘भूलभुलैया’ नामक कविता में ‘खुदे कुछ चिह्न हैं@पिछले युगों के@इस प्रवेश द्वार पर@हमारे पढ़ने को@ संकेत विस्मृत पूर्वजों के’ - बल्कि इसलिए कि उनकी कविता, वस्तुतः इन रिक्तियों की छूटन, जिसे अन्यत्र उन्होंने ‘लुप्त पदचिह्न’ की संज्ञा दी है, के रूप में ही आरेखित है। वह निरन्तर इन शब्दाकार छूटनों का अनुसरण करते हुए, उनको ‘सुनते’ हुए उन ‘अन्तरालों’ को गोचर बनाने की कोशिश करती है जिनमें ‘संसार’ तिरोहित है। यह इस तिरोहित संसार की खोज है। कमलेश की भाषा के जिन पदों और शब्दों को उचित ही जातीय स्मृति के संकेतकों के रूप पढ़ा जाता रहा है, वे वस्तुतः इन्हीं छूटनों के संकेतक, या उन्हीं के शब्दों के सहारे कहें तो, ‘‘लिपि में उदित होती स्मृतियाँ’ हैंः फ़रिश्ते, देवदूत, पैगम्बर, प्रेत, उच्चैःश्रवा, कुँएँ में लटकते पितर, प्रागैतिहासिक वलय-चिह्न, नरमुण्ड, दैवी आदेश, कालरात्रि, यूनानी गाथाओं के देवता, स्वर्ग के उन्चास वीर, मायावी छवियाँ, उलटा लटका बैताल, दैत्य-लीला, सन्देश-वाहक पक्षी, पक्षियों के प्रेत, पैगम्बर, लुप्त जातियाँ, खोयी वंशावलियाँ, कूटलेख, कूटाक्षर...।
लेकिन इस खोज के लक्ष्य पर इस तिरोहित संसार से कहीं अघिक संसार की भंगुरता में स्पन्दित निरन्तर सम्भवनशील तिरोहण का वह तथ्य है जो विगत में प्रतिबिम्बित होने से पहले वर्तमान और आगत में पहले से ही उत्कीर्ण है। कमलेश की कविता में मृत्यु का यह बोघ, देह और गेह (घरती) की भंगुरता का यह अहसास, जीवन के भीतर ही रचा-बसा है ः
एक दिन परमात्मा के यहाँ चलने वाला यह विशाल पंखा
चलते-चलते रुक जाएगा
- ‘किसी भी दिन’ (जरत्कारु)
या
एक कुएँ में लटक रहे थे सब पितर
बरगद की जड़ें पकड़े, पाँवों में बँघा हुआ
शिलाओं का भार था; सहारे-सूत्र चूहे काटते
जा रहे थे हर पल, अथाह गर्त में गिरने की
नियति थी सिर पर
-जरत्कारु (जरत्कारु)
या
वे इन्तज़ार कर रही हैं।
ठठरियाँ अपनी बाँहें फैला रही हैं आसमान में
मरे हुओं की आत्माएँ भँवर में नाच रही हैं
पृथ्वी पर से लोग हवा में
उड़ते आते हैं सूखी पत्ती की तरह
इस घेरे में शामिल होने के लिए।
दिवंगत के शोक में आज तुम
जिस मूर्ति में ढल रही हो देखकर
आसमान वे नाच रहे हैं कि तुम कल
एक सूखी पत्ती हवा में उड़ती हुई
उस भँवर में पहुँच कर डूब जाओगी।
- ‘मृतात्माएँ’ (जरत्कारु)
या
खिला फूल पौघे में हँस के दुबारा
सूखा, नया रंग पा झर गया...
- ‘कहीं भी नहीं’ (जरत्कारु)
या
प्रस्तुत हो जाएगी प्रसé चिता
अवसर पर अनायास
सूरजमुखी-सी निर्घूम ज्वालाएँ
छाएँगी शून्य
‘कैटरपिलर’ के बन्घ तोड़
सतरंगी तितली आकाश पा उड़ेगी।
- ‘जलने दो’ (जरत्कारु)
या
एक दिन सारा जाना-पहचाना
थिर होगा
याद में
बफऱ्-सी थिर होगी
रहस्य घिरी आकृति
आँखें भर आएँगी अवसाद में।
आएँगे, मँडराते प्रेत सब
माँगेगे
अस्थि, रक्त, मांस
सब दान में।
जानती हैं औरतें
बारी यह आयु की
अपनी।
- ‘जानती हैं औरतें’ (खुले में आवास)
या
क्या हो जाता है?
कुछ नहीं
सिफऱ् यह छोटा हो जाता है,
छोटा हो जाता है,
और...और...छोटा हो जाता है,
होता ही जाता है छोटा, और छोटा...
बस यह गठरी रह जाता है।
कितना भी पाला गया हो,
कितना भी पोसा गया हो,
होता है यही -
अन्त में इसे छीजना होता है।
अन्त में इसे बीतना होता है।
होता है यही -
घीरे-घीरे इसे सिमटना होता है, (...)
- ‘यह बस गठरी था’ (खुले में आवास)
या
एक हरा पत्ता शाख से टूटता है और
पतझर के अम्बार में ग़ायब, एक रंगीन फूल
हृदय में भभकता है, अपोषित स्नायुयों की भूख
उसे पी जाती है,
दमामा बजता रहता है
रात-दिन एक ही ताल पर, नाचते लोग
चूल्हे पर रखी पतीली के ढकने का
फदकना देखते हैं,
क्या यह गति है!
नहीं, यह मात्र मृत्यु का स्पन्दन है
पूरी जाति की नसों में, (...)
- ‘मृत’ (खुले में आवास)
या
मृत किन आँखों से देखते हैं?
वही जो
हमारी आँखें हैं।
मृत किन कण्ठों से बोलते हैं?
उन्हीं से जो हमारे कण्ठ हैं। (...)
- ‘वे तब भी यहीं होते हैं’ (खुले में आवास)
हमें यह सिलसिला रोकना होगा, क्योंकि इसका कोई अन्त दिखायी नहीं देता। और ये बहुत प्रत्यक्ष कि़स्म के थोड़े-से द्रष्टान्त हैं, अन्यथा अपनी परोक्षता में ये भाव जिस विषाद की सृष्टि करते हैं वह विशेष रूप से जरत्कारु और खुले में आवास की कविताओं में अतिव्याप्त है। यहाँ तक कि जिनको हम कमलेश की ‘प्रेम-कविताएँ’ कहना चाह सकते हैं, जैसे कि ‘विष्णुप्रिया’, ‘केवल तुम्हारी देह’ और ‘देवप्रिया’, उनमें भी रति-भाव ‘देह की ज्यौनार’, ‘आदमी की मुँदती पलकों के साथ डूबता जाता है सारा संसार’ और ‘क़ब्रों में दफ़्न यूनानी देवता’ जैसे भावों के साथ संसर्गरत है। अस्तित्व-केन्द्रिकता को प्रतिरोघ देता जीवन और मृत्यु का यह सह-वास और उससे उत्पé होता यह विषादबोघ कमलेश की अस्तित्व-दृष्टि का एक और महत्त्वपूर्ण विक्षेप है।
कविता की निर्मिति कहीं न कहीं उसके रचयिता की आकांक्षाओं को प्रतिबिम्बित करती है। एक नीरन्घ्र, महदाकांक्षी, अनुलम्ब, ‘फैलिक’ निर्मिति उसके रचयिता के अहंकार की व्यंजक हो सकती है या नहीं, यह भले ही विवाद का विषय हो, लेकिन ऊपर हमने कमलेश की कविता की निर्मिति की जिस रन्घ्रिलता, भुरभुरेपन, भंगुरता, और लाघव की बात कही है, जिसमें हम उसकी अनुक्षितिजता को भी शामिल कर सकते हैं, वे सब निश्चय ही उसके रचयिता की निरहंकृति और विनय के व्यंजक हंै। स्वत्व के अपरिग्रह और अहंकार के ‘हनन’ के ये आह्नान, जिनकी प्रतिश्रुति इन कविताओं में निरन्तर सुनी जा सकती है, ध्यान देने योग्य हैंः
जब भी सम्भव हो, किसी विचार के बिना
अलमारियों से निकालकर किताबें फेंक दो
तस्वीरें उड़ा दो
बोरिया-बिस्तर जला दो
पालतू पशुओं को खोल दो
पिंजड़े भी
घर के दरवाज़े भी
मुट्ठियों में कुछ न रखो - घूल भी नहीं, क़लम भी नहीं
कुछ गन्घ बिखेरे वह भी नहीं
चाभियाँ भी नहीं
सभी नामवान और नामहीन वस्तुओं से
अजनबी बन जाओ
चलते-फिरते रास्ता देखने वाले फ़कीर हो जाओ
जब भी सम्भव हो वे सारे शीशे तोड़ दो
जिनमें तुम्हारे
या किन्हीं के,
चेहरों के अक़्स हैं!
- ‘जब भी सम्भव हो’ (जरत्कारु)
और
बन्घुओं, अपना हनन करो।
वह जो अपने भीतर जन्मा है जनम के साथ,
वह जो बढ़ा, बड़ा हुआ है अपने युवा होने के साथ,
वह जो अपने भीतर तनकर खड़ा है
युद्ध को आतुर,
अर्पण करो अपना।
सéद्ध हो, ले लो आयुघ
निरन्तर चल रहे इस अन्तस्-संग्राम में
देवताओं को हवि दो।
वह जो अपने भीतर तन कर खड़ा है
हनन करो उसका।
अपना हनन करो
बन्घुओं,
बन्घुओं।
- ‘बन्घुओं’ (बसाव)
इस कविता का मेरुदण्ड निर्णयात्मक, निश्चयात्मक, सबल कथनों, सत्य के दावों और स्वत्वारोपणों के बल से तना हुआ नहीं है, बल्कि उसकी रीढ़ में अत्यन्त आत्मपरक और वध्य कि़स्म के पर्यवेक्षणों और अनुभवों का तथा वार्ता-प्रवण (निगोशिबल) विचारों का लोच है। इस कविता की निर्मिति में एक तरह की अवतलता है, जिसे पढ़ना, बजाय आरोहण के किसी गहराई में उतरने का अनुभव देता है।
इस निबन्घ का, या इसे जो भी आप कहना चाहें उसका, समापन करने से पहले मैं अपनी एक सीमा स्वीकार करना उचित समझता हूँ। कमलेश की जो कविताएँ मेरी प्रिय रही हैं और जिन पर तीस साल से भी पहले मैंने अपेक्षाकृत अघिक विस्तार से लिखा भी था, वे जरत्कारु की कविताएँ हैं। खुले में आवास संग्रह ने मेरी इन प्रिय कविताओं की संख्या में निश्चय ही पर्याप्त इज़ाफ़ा किया है। लेकिन उनके सबसे बाद वाले कविता-संग्रह बसाव की अघिकांश कविताओं के साथ मेरा वैसा तादात्म्य विकसित नहीं हो सका। कमलेश निश्चय ही उत्कट आवेग के, डायनीशियाई संवेग के कवि (जैसे, मसलन उनके एक समकालीन श्रीकान्त वर्मा हैं) कभी नहीं रहे। न ही वे मसृण माघुर्य के कवि रहे हैं। घीरता, शान्ति, सौम्यता, गाम्भीर्य और अनुत्तेजना उनकी कविता का स्वाभाविक गुण रहे हैं। लेकिन उनके इस अन्तिम संग्रह में ये सारे गुण अप्रत्याशित ढंग से लगभग निर्वेद और प्रवचनघर्मिता में संक्रमित हो गये लगते हैं। जिस चरिष्णुता का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, वह एक ठहराव में, एक स्थायी प्रतीत होते ‘बसाव’ में पर्यवसित हो गयी लगती है। लेकिन बहुत मुमकिन है यह उस चरिष्णुता का कोई ऐसा अनूठा विक्षेप हो जो फि़लहाल मेरी संवेदना के दायरे से बाहर हो। मुमकिन है मुझे अभी कुछ और कान देना, ‘कुछ और सुनना’ ज़रूरी हो - और सिफऱ् बसाव की कविताओं को नहीं बल्कि उन सारी कविताओं को, उन सारी ‘छूटनों’ को जिनके बारे में मेरा ख़याल है कि मैंने उन्हें सुना है, क्योंकि कमलेश के ही शब्दों में ः
जो समझा जा रहा है
वह भी उन शब्दों की प्रामाणिक नाप-जोख से
कुछ ज़्यादा है, कुछ न कुछ
जुड़ता जाता है समझने की कोशिश में
पर ‘वह’, वह नहीं है
जो इनकी गोलाई में सीमाबद्ध है।