कमलेश-दृष्टि ( चिन्तन, कविता, राजनीति ) ध्रुव शुक्ल
08-Jun-2019 12:00 AM 3874

कवि कमलेश हमें इस तथ्य पर विचार करने के लिए उत्सुक करते रहे हैं कि जिस आधुनिकता की शुरुआत पहले विश्व युद्ध के बाद हुई और इसका जो पैमाना बना वो ये था कि दुनिया के वे सारे समाज जो यूरोप की तुलना में पिछड़े हुए मान लिए गये उनको आगे बढ़े हुए देशों की बराबरी करने में कितना समय लगेगा। वे किस तरह बिजली के उत्पादन, वातानुकूलन, परिवहन, रहन-सहन और खान-पान में अपने जीवन को इस तरह बदल सकें कि यूरोप और अमरीका जैसे लगने लगें। यानी एक पुरातन जीवन या कहें कि एक आदिम और सामन्ती समाज पूँजीवादी रास्ते से गुजरकर ही एक स्वप्निल समाज बन सकता है। जिसमें कविता और साहित्य एक उपादान होकर राज्य और आइडियालजी के पिछलग्गू होकर चलेंगे।
आधुनिकता के इस पैमाने पर प्रश्न उठाते हुए कमलेश इस बात पर सोचने को विवश करते हैं कि आज हम अपने यथार्थ को रोमेण्टिसिज्म और रियलिज्म या क्लेसिसिज्म और मार्डनिज्म के पदों में बाँधकर बिल्कुल नहीं समझ पा रहे हैं। उन्होंने यह प्रश्न 1983 ईसवी में भारत भवन, भोपाल में आयोजित -- इधर की दुनिया, इधर की कविता -- परिसम्वाद में उस समय उठाया जब कविवर कुँवरनारायण अपनी बातचीत में बार-बार इन पदों का प्रयोग भी कर रहे थे और कुछ चिंतित भी लग रहे थे कि इन पदों में बंधे रहने की आदत भी पड़ गयी है। तब कमलेश ने यह रास्ता सुझाया कि हमें कोई तीसरा पद गढ़ना होगा जो हमारे विच्छिन्न जगत को कुछ अर्थ प्रदान करे।
कमलेश ने ध्यान दिलाया कि प्रकृति में ही वो सातत्य है और उस महाशून्य की गरिमा भी है जिसके माध्यम से हम अपने जीवन और अपनी उस सभ्यता को फिर समझ सकते हैं जिसकी परम्परा और बोध के प्रति हमारी उत्कण्ठा है। कमलेश के अन्तर्मन में घुमड़ती यह बात इशारा कर रही थी कि कोई भी सभ्यता केवल मन पर ठहरकर दीर्घायु नहीं हो सकती, उसे तो जीवन का गहरा आत्मबोध चाहिए। आज हम बाजारवादी प्रवृत्तियों में साफ़ देख पा रहे हैं कि हमारे मन को ललचाकर इस तरह हाँका जा रहा है जैसे हमें अपने आत्मबल की खबर ही न हो। पाखण्ड का प्रतिनिधित्व करता आत्महीन धर्म, भीड़ का प्रतिनिधित्व करती नागरिक विहीन राजनीति और लालच का प्रतिनिधित्व करता मूल्यहीन बाजार धरती पर ऐसे अध्यात्मविहीन मनुष्य की रचना कर रहे हैं जो अपने जीवन में अनादि प्रकृति और आत्म के सनातन संबंध से विच्छिन्न होकर जीने की आदत डाल ले ।
थ्योरी आफ इण्टरनल रिलेशंस को रेखांकित करते हुए कमलेश जी हमें समझाते रहे कि अपने देश के प्राचीनतम विमर्श की सुपरिभाषित पदावली में भी हम आधुनिक दुनिया को समझ सकते हैं और उन विजातीय दृष्टियों को भलीभाँति पहचान सकते हैं जो हमारे काम की नहीं हैं। यह तब ही सम्भव है जब हम अपने परम्परासिद्ध विमर्श में लौट सकें। संयोगवश इस बातचीत में नामवर सिंह भी सहभागी थे और उन्होंने बीच बहस में कमलेश की एप्रोच को जनसंघी कहकर अपमानित किया और यह भी कहा कि जो पश्चिमी पदावली हमारे विमर्श में चल निकली है, आप या तो नये पद गढ़कर बतायें या फिर इन्हें स्वीकार करें।
नामवर जी यह भूल गये कि कमलेश जी प्रायः अपनी बातचीत में परम्परासिद्ध पदावली का ही प्रयोग करते रहे हैं। अभी हाल ही में उदयन वाजपेयी ने ‘कवि का मार्ग’ पुस्तक में कमलेश का अत्यन्त मूल्यवान निबन्ध्ा प्रकाशित किया है और जिसे पढ़ते हुए सहज ही यह आश्वासन मिलता प्रतीत होता है कि वे अपने विमर्श में लौटने के उपायों की ओर इशारा कर रहे हैं। कमलेश जी का प्रकाशित गद्य कम ही मिलता है। अगर वह पुस्तक रूप में संकलित हो सके तो नामवर जी को समुचित उत्तर पाने में सुविधा हो जाएगी।
कविताएँ कहाँ से आती हैं, कमलेश इस प्रश्न पर विचार करते हुए कहते हैं कि हमें उन अनेक लोकों की ओर देखना होगा जिनके बीच कहीं काव्य लोक भी है और जिसमें अतीत, वर्तमान और आगत में होने वाली तमाम कविताएँ विद्यमान हैं। भिन्न रीतियों, परिपाटियों और विषयों की अनगिनत कविताएँ इस काव्य लोक की नागरिक हैं। इस लोक की देवी का शरीर कल्पना से बना हुआ है। अपनी प्रसुप्त कल्पना को जाग्रत करने की अभीप्सा ही कवि का निर्माण करती रहती है। कमलेश जी की यह बात अँग्रेज़ी के रोमांटिक कवियों जैसी नहीं है, वह उससे भिन्न भाषिक विमर्श में कल्पना सृष्टि को समझने की चाह से भरी है।
कमलेश जी कवि के भाषालोक में बसी लोक बहुलता की बात करते हुए कहते हैं कि एक कवि को अपने भाषालोक से काव्य लोक में प्रवेश करने के लिए लोकबहुल भाषालोक में ही अपना स्थान निश्चित करना पड़ता है, एक स्थानीयता, जहाँ वह स्थित होकर काव्य लोक की देवी यानी कविता को अपनी प्रतिभा से जगा सके । भारतीय काव्यशास्त्र तो प्रतिभा के उत्स पर सदा विचार करता रहा है क्योंकि वह नवनवोन्मेषशालिनी होती है।
कल्पना प्रयोजनवती भी कही गयी है और कमलेश जी ध्यान दिलाते हैं कि हमारे दैनंदिन लोक में प्रयोजन होते हैं और शायद इसी कारण कवि अपनी पूर्णता का अनुभव नहीं कर पाता। फिर जब अनेक प्रयोजन होंगे तो एक-दूसरे के विरोध में भी काम करेंगे। इसीलिए उन्हें सामंजस्यपूर्ण रूप में जान पाना काव्यलोक में जाकर ही सम्भव है और फिर उन्हें प्रातिभ कल्पना से कवि के भाषालोक में बसाया जा सकता है, काव्यलोक में कविताएँ लिखी नहीं जातीं सिर्फ़ सुनी जाती हैं। उन्हें भाषालोक में लिखना पड़ता है।
यह जो काव्यलोक है, कमलेश उसे अद्वैत दर्शन की पदावली में सद्-असद् विलक्षण ही मानते हैं क्योंकि कविता सद्-असद् विवेक के बिना सम्भव नहीं होती। उनकी दृष्टि इस तथ्य पर एकाग्र है कि कविता केवल बाहर या केवल भीतर से नहीं जनमती, वह तो अन्तर्लोक और बहिर्लोक के बीच निरन्तर संवाद से जनमती है, संवाद में जो दो होते हैं वे मूलतः एक ही हैं। एक के ही दो हो जाने में कोई अन्यता या अदरनेस नहीं है। कविता तो अनन्यता में ही सम्भव होती है।
कवि कमलेश का राजनीतिक जीवन भी अत्यन्त विचारपूर्ण रहा। हमारे समय के विचारशून्य और दृष्टिहीन नेता कभी कमलेश जी से आँख मिलाकर बात नहीं कर सके। वे लोहिया के जमाने में तपे थे, उनसे लोहा लेना खद्योतसम राजनीतिज्ञयों के वश की बात नहीं थी। कमलेश जी राजनीति में उस विचार तत्व की स्थापना की माँग उठाते रहे जो नागरिकों के स्वत्व को लुप्त न होने दे और विजातीय राजनीतिक प्रभावों को अपनी प्राचीन विचार सरणियों की कसौटी पर परख सके। राम मनोहर लोहिया भी यही कहते रहे, कमलेश उन्हीं के संगी थे, जनसंघी तो बिलकुल नहीं।
विचार के साथ भौतिक समृद्धि भी जरूरी है। कोई सभ्यता गरीबी और दैन्य में पनप नहीं सकती पर हमारे समय की राजनीति तो दैन्य और पलायन में ही खुशहाल है और जीवन बेहाल है। देश में अभावग्रस्त विषमता का बोलबाला है। कमलेश हमसे कहते है कि एनलाइटेनमेण्ट, माक्र्सवादी और आम आदमी प्रोजेक्ट्स समृध्दि पैदा करने वालों का अपमान करते हैं। हमें दैन्य बढ़ाने वाले विचारों और नीतियों का विरोध करना चाहिए। राज्य से सदा कमलेश की यही अपेक्षा रही कि वहाँ प्रत्येक विचार का स्थान तो अवश्य होना चाहिए पर विजातीय विचारों को स्वयंसिद्ध मानकर वह न चले।
कमलेश अपने अंतिम दिनों तक यही मानते रहे कि शिल्पी और कारीगर आदि वर्ण-व्यवस्था में ही सक्रिय रह सकते हैं क्योंकि वे राज्य की नहीं, समाज की आपसी जिम्मेदारी से फलते-फूलते हैं। वे एक-दूसरे के यजमान होकर आपस में सम्मानित होते हैं। राज्य उन्हें बिखराकर अपमानित किये रहता है। राज्य उन्हें अधिकार तो देता पर उनके कर्तव्य की भूमि उनसे छीन लेता है। कमलेश प्रश्न पूछते हैं कि यदि आपके पास अपना विचार ही नहीं तो फिर आपके विचार की राज्य सत्ता कैसे स्थापित हो सकेगी।
कमलेश कहते हैं कि भूमण्डलीकरण का विरोध अब एक फैशन है और बिना विदेशी व्यापार के समृध्दि नहीं आ सकती। वे याद दिलाते हैं कि भारत मोहन जोदाड़ो और हड़प्पा सभ्यता के ज़माने से ही भूमण्डलीकृत है, समृध्दि भी तभी आयी है। कमलेश के मन में यह उलझन भी है कि भारत की मोक्षकामी चिन्तन धाराओं के कारण हम अपनी सभ्यता के नागरिक होने से वंचित हैं क्योंकि नागरिकता आपसी सहयोग पर टिकी है और मोक्ष उस योग पर जिस में निजता तो है पर सामाजिकता का अभाव बना रहता है।
कवि-चिन्तक कमलेश अब हमारे बीच नहीं हैं, उनके रहते यह सवाल हम उनसे नही पूछ पाये कि एथेन्स में तो सभ्यता का आशय कुछ लोगों में ही सिमटा हुआ था, बाकी सब दास ही थे। पर भारत में तो हर तरह की जीवन प्रणाली को जगह मिली हुई है जो दुनिया में शायद और कहीं नहीं। तब सभ्यता का नागरिक होने में व्यक्ति का मोक्षकामी होना किस तरह बाधा बनता है क्योंकि भारतीय कर्म चिन्तन में कर्म की कुशलता को ही योग माना गया और कर्म जितना निजी है उतना साभ्यतिक भी है । चिन्ता तो इस बात की होनी चाहिए कि व्यक्ति का कर्म इतना निष्काम हो सके कि उसके काम्य कर्म सभ्यता के फलने-फूलने में बाधा न बनें। निष्कामता में ही, देश क्या, पृथ्वी का नागरिक होने की सम्भावना छिपी हुई है। कमलेश जी प्रजातन्त्र की सफलता पूँजी और प्रतिभा के विवेकपूर्ण सामंजस्य में देखते हैं। जो राजनीति असहायता और अज्ञान के भार से बचाकर जीवन को कर्मकुशल बनाये रख सके, कमलेश उसी राजनीति के समर्थक हैं।
कवि कमलेश हिन्दी साहित्य और राजनीति में एक स्थायी प्रतिपक्ष की तरह मौजूद रहे। उन्हें कुछ होने की उतनी चिन्ता कभी नहीं रही जितनी अपने आपको प्रकट करने की। पर मुझे दुख है कि हिन्दी साहित्य और राजनीति के लोगों ने उन्हें य़ह अवसर देने में हमेशा कोताही की क्योंकि वे अपने बसाव और विमर्श से कभी दूर नहीं गये। और एक दिन इस दुनिया से ही अपना झोला उठाकर चल दिए...

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