20-Jun-2021 12:00 AM
1521
वर्षा
सबसे पहले
क्षितिज के उस नारंगी चैके को
अपने जामुनी रंग से लीपती दिखी वह
फिर उसका इरादा
नशे की तरह आसमान पर छाने लगा
तब गड़गड़ाने लगा आकाश का विशाल मृदंग
और बिजली का अनोखा हँसिया
गोध्ाूलि की घास उड़ाने लगा
उसके बाद
तूफान की तरह हहाती
दूर से ही आती हुई सुनाई पड़ी वह
लगा कि आज समुद्र को अपने साथ लेकर आयी है
और तब फ़ौरन
बाँस के झुरमुट में वह ध्ाड़ध्ाड़ाती हुई घुस पड़ी--
जहाँ झूमते आपस में रगड़ खाते बाँसों के साथ
वासना में तपते पेंग ले रहे थे साँप
और झरझराने लगी
फिर मैंने देखा
कि टीन के छप्पर पर उसकी बून्दें
कटहल के कोए की तरह ध्ाप-ध्ाप गिर रही हैं
उसके बाद
बरामदे पर मेरे पास आकर वह
मूँग की पकी हुई छीमियों की तरह चनककर उड़ने लगी
उसकी छींटों से मेरे कुर्ते पर छोटे-छोटे फूल उग आये
मेरे चश्मे पर उसकी बून्दें डबडबाकर अटक गयीं
और अपनी शीतल उँगलियों से वह मेरे पैरों को गुदगुदाने लगी
उसके आदिम स्पर्श से मैं सिहर उठा
देखते-देखते उस स्पर्श से टघरकर
स्मृतियों की एक हरी-भरी लकीर मेरे बचपन में चली गयी
जहाँ खेत-पथार, गाछ-पात, चिरई-चुनमुन, चन्दा-तारे और आसमान
सब घूम-घूमकर मेरे पास ऐसे लौट रहे थे
जैसे उन्हें मेरी ही प्रतीक्षा थी
मैं सीध्ो वहाँ गया
जहाँ पर दादी मिट्टी के मेरे स्वर्णिम खिलौनों को
अपनी पुरानी ध्ाोती के टुकड़े में सहेजकर रखती थी
और समय-समय पर
गुड़ की तरह निकालकर देती थी मुझे
लेकिन वहाँ कुछ न था अब
केवल निर्जनता थी जो निरन्तर बरस रही थी
बेकल होकर मैं
ध्ाान के उस खेत की ओर भागा
जो तमाम पेड़ों-झाडि़यों-झुरमुटों को पार करने के बाद
पीपल के गाछ के पड़ोस में
शीतलपाटी-सा बिछा रहता था
और जिसकी मेड़ों पर बगुले योगाभ्यास में तल्लीन दिखते थे
लेकिन वह रास्ता थोड़ा चलकर कहीं विलीन हो गया
और वे हरे-पीले-नीले दृश्य
पिघलकर मेरी आँखों में वापिस लौट आये
तब मैंने इमली के पेड़ के नीचे जाकर अपने दोस्तों को पुकारा
लेकिन कहीं से कोई जवाब नहीं आया
या तो जाती हुई मेरी आवाज़ किसी जाले में अटकी रह गयी
या वे लोग कहीं और चले गये
अपने आंगन में मेरे हताश लौटते ही
बिजली चमक उठी
और वर्षा के साथ ओले झरने लगे
हर्षातिरेक से मैंने छोटी बहन को पुकारा--
कामिनी, कहाँ हो तुम! बाहर आओ और देखो क्या है यह!
वह अपनी देह और चेहरे से किसी तरह राख झाड़ती हुई दौड़ती आयी
उसके एक हाथ में देकची और दूसरे में छिपली थी
देकची को हेलमेट की तरह पहन लिया मैंने
और उसने अपने माथे को छिपली से किसी तरह ढँक लिया
फिर हम भाई-बहन
बीछ-बीछकर ओले कुड़कुड़ाने लगे
इसी बीच
सुदूर गंगा से निकल कर आ गये बड़े भैया
और हम दोनों को समेटकर ओसारे पर ले गये
दादी कटहल के गाछ से ध्ाीरे-ध्ाीरे उतरकर नीचे आयी
और अपने मटमैले आँचल से मुझे पोंछने लगी
पिता दूर से ही हमें निर्विकार देखते रहे
उनके देखने में ही निहित था इस जीवन का अर्थ
उसके बाद भैया ने अपनी अटैची से निकालकर हमें बिस्कुट दिए
और उस दुनिया की कहानी सुनाई
जहाँ दिन-रात बारिश होती रहती है
फिर अचानक
बहिन लौट गई अपनी सुरंग में
भैया अपना स्टेथोस्कोप लेकर अशेष दुःख के पास चले गये
और दादी जनेऊ वाली अपनी डलिया, कपास की लोई और तकली के साथ
अपने पसन्दीदा फल के वृक्ष में समा गयी
और तब कोने में पड़े माहुर की एक पुरानी शीशी में बन्द
अपनी ओर टुकुर-टुकुर ताकती एक बेचैन स्त्री दिखी मुझे
जिसकी शकल हमसे बहुत मिलती-जुलती थी
और जो पचास बरस पहले
भादों की एक लबालब सुबह में लथपथ भींगी हुई
हमसे बहुत दूर चली गयी थी
जिसके बाद
मैं उसकी जघन्य निर्ममता के किस्से सुन-सुनकर ही हुआ था बड़ा
लेकिन आज इस एकान्त में
भादों की उस गनगनाती रात में मैं
अग्निबाण की तरह प्रवेश करना चाहता था
और उस स्त्री के असाध्य जीवन की उस वेदना तक पहुँचना चाहता था
जिससे मुक्त होने के लिए उसने
अपनी देह के कई टुकड़ों तक की परवा नहीं की
मेरे प्राण में यह ऐसी कील थी ठुकी हुई
जिस पर पचास बरसों से
लगातार चोट करती हथौड़ी के निशान थे
जिससे पचास बरसों की एक अनाथ अकुलाहट लटक रही थी
जिसे निकाल कर मैं आज़ाद हो जाना चाहता था फ़ौरन
इसलिए लपककर मैंने वह शीशी उठायी
पर आश्चर्य
उसमें कोई स्त्री नजर नहीं आयी
पता नहीं वह कहाँ गयी
फिर मैंने देखा कि वह शीशी
रंग बदलती हुई मेरी देह बन गयी है
और देखते-देखते मैं पपीते के एक गाछ में बदल गया हूँ
बरामदे पर अकेले भींगते हुए
पपीते का यह गाछ यों ही टपकता रहता चुपचाप
अन्दर से उसे यदि पुकार नहीं लिया जाता
घर के भीतर मेरे प्रवेश करते ही पत्नी ने चैंककर देखा--
अरे, इस बारिश में कहाँ चले गये थे तुम?
जीतपुर से आ रहा हूँ--मैंने कहा
तौलिये से मेरा सर पोंछते हुए उसने परेशान होकर पूछा--
तुम रो रहे हो!
नहीं-नहीं, मैंने कहा, ये तो वर्षा की बून्दें हैं
रचना-सामग्री
इतने ब्रह्माण्ड
इतने सूर्य
इतने चन्दा-तारे
इतनी आकाशगंगाएँ
इतने ग्रह-उपग्रह
उनकी कक्षाएँ इतनी
ऐसा अनादि अनन्त आकाश
उल्का पिण्ड इतने-इतने
इतनी नदियाँ
इतने समुद्र
पर्वत इतने
इतने रेगिस्तान
इतनी अग्नि
इतनी बफऱ्
इतने झंझावात
और इतने प्रपात
वृक्ष इतने
वनस्पतियाँ इतनी
इतनी लताएँ
इतने गुल्म
पुष्प इतने
इतनी गन्ध्ा-सुगन्ध्ा
इतने जीव
मनुष्य इतने
इतने पशु-पाखी
इतने सरीसृप
उभयचर इतने
इतने कीट-पतंग
इतनी पीड़ा
इतने सुख
ग्रन्थियाँ इतनी
इतने दुःख
इतने प्रेम
अकेलापन इतना
इतने योग-वियोग...
कविता का है मुझे भी रोग
इसलिए जानता हूँ
कि ये सब रचना-सामग्री हैं तुम्हारी
परन्तु मित्र
सर्जना के लिए
चाहिए कितना बड़ा काल-पत्र तुम्हें
और कितने मन्वन्तर के बाद पूरी होगी तुम्हारी यह रचना
440 वोल्ट
ज़मीन से कुछ फ़ीट ऊपर और सूरज-चाँद-सितारों के कुछ नज़दीक उसका बसेरा है। उसके घर में सचाई के खूँटे लगे हैं जिसपर कल्पनाओं की मज़बूत शहतीरें डाली गयी हैं ताकि मौन के भारी-भरकम छप्पर का वज़न वे ठीक से वहन कर सकें। उसके आकाश में स्मृति और आकांक्षा के ज्वार उठते हैं जिसके कारण तारों की ध्ाूल उसकी बरौनियों पर झरती रहती है। यह अब किसी से छिपा नहीं है कि दिन में भी उसकी जिह्वा पर ओस की फुहार पड़ती है। नीले आकाश की वह ऐसी कमीज़ पहनता है जिसकी सिलाई किरणों के ध्ाागे से की जाती है और जिसमें सीपियों के बटन लगे होते हैं। उसके असली नाम का पत्थर हिन्द महासागर में किसी भी पूर्णिमा की रात को तैरते देखा जा सकता है। तत्काल अभी अगर पुकारना हो उसे तो बिजली के खम्भों पर तना और झूलता हुआ तार कह सकते हैं। उसके कम्पन में तुम अपने अबूझ जीवन के सिहरते आलोक को चख सकते हो, मगर ध्यान रहे, उसके सामीप्य की चाह एक ख़तरे को दावत देने से कम नहीं। यह भूलने की बात रही नहीं अब कि उसका घरेलू नाम है 440 वोल्ट।
सत्य
सत्य को पसन्द नहीं
सच्चाई से बाहर की कोई ताक़त
इसलिए वह
सताये हुओं के साथ रहता है
जीवनानन्द द्वितीय
मेरे सिवा और कौन जानता है
कि तुम्हारे हिस्से
न कार्तिक की भोर में ओस से निमज्जित
बैजन्ती फूल की तरह दुर्लभ प्रेमी आया कभी
और न अखण्ड लालित्य को काव्य-भाषा बनाता आया प्रेम
तुम्हारे अलावा और कौन जानता है
कि मेरे हिस्से
न विद्युल्लता-सी खिलखिलाती रात आयी कभी
न इस मिट्टी के बर्तन को मिला
शहद जैसा गाढ़ा और हरशृंगार के फूल-सा आश्रय
जानता हूँ मैं
कि न तो नाटोर की रहनेवाली तुम ठहरी
और न ही मैं जन्मा बोरिसाल में
बीच सड़क पर
ट्राम को घरघराते देखना
या उसके निकट जाना तो बहुत दूर की बात हुई
रूपसि बाँग्ला की सजल भूमि को अभी तक छू नहीं पाया हूँ मैं
लेकिन यह जो रोज़ शाम को
मेरे सीने को कुचलता हुआ चला जाता है कुछ
वह ट्राम नहीं तो और क्या है!
यात्राएँ
कुछ है जिसे खोजने किसी न किसी बहाने तुम बार-बार वहाँ लौटते हो। दिन में तुम उसके पदचिन्हों की खोज में बेसब्र भटकते हो और रात में उसकी गन्ध्ा की सुराग पाने के लिए बेचैन रहते हो। तुम उसे छाया और प्रकाश की ताना-भरनी में टटोलते हो। तुम उसे अपने इर्द-गिर्द आवाज़ों की बहती हुई उर्मियों में टोहते हो और वंचना की चोट खाकर हताश होते हो। तुम वहाँ जाते हो और खीझते हो और आहत होते हो। तुम वहाँ जाते हो और तिलमिलाकर लौट आते हो और तय करते हो कि अब वहाँ कभी नहीं लौटोगे। सब कुछ तो बदल चुका है।
बेशक, सिवाय तुम्हारे नाम के तुम भी बदल चुके हो। घाव का निशान जो कभी तुम्हारी छाती पर था छपा हुआ वह सरककर काँख के नीचे चला आया है और तुम्हारी नींद के काँच का बर्तन भी चिहक गया है। अगर नहीं बदला है तो सिफऱ् आँसू का नमक, और बेशक वे सम्भव-असम्भव यात्राएँ भी नहीं बदलीं हैं जिनके स्वप्न तुम्हारे पैर सोते-जागते देखते रहे हैं।
लेकिन यात्राओं की जब भी बात होती है तो उसके दौरान पैदा हुई दुश्वारियों और रोमांच का ही बखान मिलता है और यात्री के चेहरे पीछे छूट जाते हैं, जबकि सचाई यह है कि सिफऱ् चेहरे बताते हैं कि यात्राएँ कैसी थीं। जो चेहरे अपनी यात्राओं को छुपाने के फि़राक में रहते हैं, दरअसल वे अपने पैरों के साथ विश्वासघात करते हैं और उस उत्कट कामना की अवमानना भी जिसकी लहर पर सवार होकर वे बार-बार एक ही जगह लौटकर जाते हैं।
ने कहा
मैंने कहा यह वृक्ष है
उसने कहा यह बीज है
मैंने कहा यह समुद्र है
उसने कहा ये आँसू हैं
मैंने कहा यह मृत्यु है
उसने कहा यह प्रेम है
दिल्ली में मृतक
जो भी नाम हो उसका
जो भी उम्र हो उसकी
जो भी हो उसका ध्ार्म
वह अपनी देह से अब निकल चुका है बाहर
और चुपचाप खड़ा होकर देख रहा वहीं पर--
ईंट-पत्थरों के बीच अपनी देह को सड़क पर गिरे हुए
जो भी नाम हो उसका
जो भी उम्र हो उसकी
जो भी हो उसका ध्ार्म
वह तीर की तरह सनसनाता हुआ आता है
और औंध्ो गिरे हुए शव को दनादन छुरा घोंपने लगता है
देह के बाहर जो जीवित खड़ा है वहाँ
वेदना से वह देखता
देह के भीतर आदमी को मरते हुए
सब शान्त हैं अब
सब शान्त हैं अब
जो होना था सो हो चुका
भगदड़ कबकी थम चुकी है
जलते हुए घर आखिर बुझ चुके हैं
कटे हुए जिस्म अन्तिम बार ध्ाड़क कर सो गये हैं
आप ठीक कहते हैं झा साहब
कोई उत्तेजना बहुत देर तक टिक नहीं सकती
अपनी दिल्ली को ही देखिए
कितने शान्तिपूर्ण तरीके से दोनों तरफ के लोग
शवगृह के बाहर कर रहे शवों के आने की प्रतीक्षा!
बनारस
सारे रास्ते यहाँ
घाट की ओर जाते हैं
तय आपको करना है
आखिर किस घाट आपको लगना है
उसका रोना
वह बाहर जाती है तब भी रोती है
वह भीतर रहती है तब भी रोती है
वह प्रेम में हो तब भी रोती है
वह प्रतिशोध्ा में हो तब भी रोती है
वह ध्ाोखा देती है तब भी रोती है
वह ध्ाोखा खाती है तब भी रोती है
वह सुख में हो तब भी रोती है
वह दुख में हो तब भी रोती है
उसका रोना तिल-तिलकर जीना है
उसका जीना तिल-तिलकर रोना है
उसका रोना ध्ार्म
उसका रोना राजनीति
उसका रोना संस्कृति
तुम कहाँ हो
नींद, तुम कहाँ हो? तुम्हारा यह वियोग कितना मारक है। तुम तो रोटी के साथ सिंकती हो, नमक के साथ खून में प्रवेश करती हो और अपनी आदिम मदिरा से मेरी सख़्त रातों को रुई में बदलती हो। इस लोक की सबसे मादक कथाएँ तो तुम्हारी पिटारी में बन्द रहती हैं। लेकिन आजकल दुनिया के किस बियाबान में तुम फँस गयी हो किस रेगिस्तान में अटक गयी हो? क्या लाॅक डाउन में तुम्हें भी निकलने की इजाज़त नहीं है? लेकिन तुम तो आवाज़ से भी हल्की और पंख से भी चंचल हो। तुम पर तो सोशल डिस्टेंसिंग का बन्ध्ान भी लागू नहीं होता। फिर कहाँ हो तुम? देखो, कमरे की रोशनी को मैंने तुम्हारी पसन्द में बदल दिया है और तुम्हारे प्रिय गीत की मद्धिम आवाज़ यहाँ आहिस्ता-आहिस्ता सुलग रही है। मैं असहाय तकिये पर तुम्हारी प्रतीक्षा में बिद्ध हूँ और दीवार पर टँगे इस कमरे के हृदय की तरह सिफऱ् ध्ाड़क रहा हूँ। उध्ार चाँद कब का डूब चुका है और यह रात भी ढल गयी है। मेरी प्यारी नींद, मृतकों के चेहरे को लेकर इस तरह दरबदर भटकने से अब क्या हासिल है!
तारों की ध्ाूल
जो लोग प्रेम करते हैं
वे सबसे निकट रहते हैं अपने पुरखों के
एक-दूसरे की आँखों में उन्हें
अक्सर दिखती है उनकी झिलमिलाहट
तारे मरते हैं
तो मनुष्य जन्म लेते हैं
मनुष्य मरकर बन जाते हैं तारे
होली की शुभकामनाएँ
शुक्रिया
ध्ान्यवाद
आभारी हूँ आपका
आपको भी होली की बहुत शुभकामनाएँ
सुबह से बैठा हूँ चुपचाप
और मोबाइल पर ध्ाड़ाध्ाड़ गिरते मैसेज के जवाब में
दिये जा रहा हूँ जवाबी शुभकामनाएँ
कब्र की मिट्टी जब कच्ची हो अभी
जब श्मशान से हड्डियों के तड़कने की आवाज़ आ रही हो
तब क्या उड़ाये जा सकते हैं गुलाल
तब क्या होरी सुनते हुए बिरज लौटना मुमकिन है
पर कहता कुछ नहीं
और चुपचाप लिखता जाता हूँ--
शुभकामनाएँ ! मंगलकामनाएँ!
आपको भी रंगोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ
कैसा कवि हूँ मैं
और कैसा आदमी बन गया हूँ
कि रक्त से लथपथ एक सच को छुपाने के लिए
नये-नये शब्द और नये विशेषण जोड़ता जाता हूँ
भाषा
यह सच है कि वह तुम्हारे रक्त, अस्थियों और हृदय की मांद से निकलकर बाहर आती है, मगर उसपर ज़्यादा भरोसा करना एक बेहद ख़तरनाक इलाक़े में प्रवेश करना है। वह जितनी तुम्हारी अपनी है उतनी ही परायी भी। वह जितना तुम्हारे इरादे में रहती है उतना ही दूसरों के अभिप्राय में निवास करती है। तुम जितना कहते हो वह उतना ही नहीं सुनती। अपनी यात्राओं में हासिल तमाम अनुभवों की वर्णनातीत झिलमिलाहटों को वह अपनी आत्मा में बचाए रखती है, और जब तुम उसके निकट जाते हो, उसे छूते हो, अपने हिलकोर को उसे समर्पित करते हो, वह संकलित स्मृतियों की गूँज और छायाओं को तुम्हारे जल में उड़ेल देती है। अपनी गहराई एवं प्राचीनता के ध्ाूसर आलोक को बरकरार रखने और अपने बरतने-वालों के हृदय के अनुरणन को उनके पुरखों से मिलाने का यह उसका अपना खास तरीका है। तुम जो कहते हो पर कुछ और सुन लिए जाते हो, तुम जो कुछ लिखते हो पर कुछ और समझ लिए जाते हो, वह भाषा का ऐसा अपरिहार्य कर है जिसे तुम्हारे साथ-साथ उन सबको चुकाना है जिन्हें भाषा का अलौकिक वरदान मिला है।